हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 1 – स्व. शेरदा जी और उनकी विरासत (Late SherDa – Sher Singh Bisht ji and his heritage) ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।

– श्री जगत सिंह बिष्ट 

(ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से “दस्तावेज़” श्रृंखला कुछ पुरानी अमूल्य यादें सहेजने का प्रयास है। दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित। इस शृंखला में पहला दस्तावेज़  “स्व. शेरदा जी और उनकी विरासत”।)

☆  दस्तावेज़ – स्व. शेरदा जी  (स्व. शेर सिंह बिष्ट जी) और उनकी विरासत ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

नौला गाँव, रानीखेत के पास पहाड़ों में बसा एक सुरम्य गाँव है जहाँ रामगंगा नदी बहती है। इस गांव के एक तरफ भिक्यासैंण और भतरौंजखान हैं तो दूसरी तरफ मासी और चौखुटिया। दूनागिरी और मानिला देवी के मंदिर भी पास ही हैं। यहां शेरदा का जन्म प्रथम विश्व युद्ध के आसपास हुआ। उनके पिता, नरपत सिंह, जिन्हें वे बाज्यू पुकारते थे, एक साधारण किसान थे, जो इस खूबसूरत परन्तु दूरस्थ गाँव के लगभग एक दर्जन परिवारों में से एक थे। पहाड़ों की सादगी और सुंदरता के बीच बड़े होते हुए, शेरदा का जीवन कृषि और ग्रामीण परंपराओं का अनुसरण करने के लिए निर्धारित लगता था। परन्तु शेरदा ने ऐसा जीवन जिया जिसने न केवल उनका भविष्य बदला बल्कि उनके परिवार और समुदाय की समृद्धि का मार्ग भी प्रशस्त किया।

बचपन में, शेरदा ने स्थानीय विद्यालय में विज्ञान और गणित में असाधारण योग्यता दिखाई। परन्तु उनके जीवन ने तब एक नाटकीय मोड़ लिया जब उनके माता-पिता का कम उम्र में निधन हो गया। युवा अवस्था में ही उन्होंने किसान के रूप में जिम्मेदारी संभाल ली, खेतों में काम करते हुए अपनी बड़ी बहन, जिन्हें सब दीदी कहते थे, और दो छोटे भाइयों, बागुआ और रूपी के संरक्षक बन गए। त्याग और कर्तव्य के इन प्रारंभिक वर्षों ने उनमें गहन संकल्प और उद्देश्य की भावना को स्थापित किया। उन्होंने अपने परिवार का पालन-पोषण करने और अपने भाइयों को प्यार और मार्गदर्शन देने के लिए अथक परिश्रम किया। बागुआ, बाग सिंह, ज़्यादातर गांव में ही रहे और नौला और आसपास के गांवों के सरपंच चुने गए।

जब उनके भाई बड़े हुए, तो शेरदा ने बेहतर भविष्य की तलाश में गाँव छोड़ने का निर्णय लिया। उन्होंने जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क होते हुए, रामगंगा नदी के किनारे किनारे, पैदल चलते हुए, रामनगर तक की कठिन यात्रा तय की और फिर दिल्ली पहुंचे। वहाँ उन्होंने भंडारी की स्वामित्व वाली एक जानीमानी निर्माण कंपनी में काम पाया, जहाँ उनकी मेहनत और ईमानदारी ने सरदार का विश्वास अर्जित किया। उनका व्यक्तिगत सहायक बनने के बाद, शेरदा ने लाहौर, कलकत्ता, बंबई और जबलपुर की यात्राएँ कीं और शहरी जीवन और उद्योग की जानकारी प्राप्त की।

युवावस्था में, दिल्ली में रहते हुए, वे महात्मा गांधी से प्रेरित हुए और आजीवन खादी धारण करने और नंगे पांव चलने का संकल्प लिया। कई बार वे बताते थे कि किस प्रकार 14 और 15 अगस्त, 1947 की दरमियानी रात को, रात भर संसद भवन के सामने अपार भीड़ में शामिल होकर, जोशपूर्वक आज़ादी का जश्न मनाते रहे।

जबलपुर में, शेरदा ने एक छोटी कैंटीन चलाने का अवसर देखा, जो उनके उद्यमशीलता के सफर की शुरुआत थी। दृढ़ संकल्प और दूरदर्शिता के साथ, उन्होंने अपना व्यवसाय बढ़ाया और खमरिया में आयुध निर्माणी के क्षेत्र में एक बड़ी कैंटीन संचालित करने लगे। उन्होंने अपने छोटे भाई रूपी, रूप सिंह, को सहायता के लिए बुलाया, और एक संपन्न व्यवसाय की नींव रखी, जो उनके विस्तारित परिवार के लिए आर्थिक आधार बना। आगे चलकर, उन्होंने एक साबुन बनाने का कारखाना भी स्थपित किया।

शेरदा का विवाह नंदी देवी से संपन्न हुआ, जो पास ही में, मासी के पार, गाँव बसोली के किसान दीवान सिंह घुघत्याल की पुत्री थी। उनकी पारिवारिक प्रतिबद्धता केवल अपने भाइयों तक सीमित नहीं थी; उन्होंने अपनी पत्नी के भाइयों को भी जीवन में सुव्यवस्थित करने में सहायता की। शेरदा की प्रेरणा एक गहरी जड़ें रखने वाली इच्छा थी कि उनके प्रियजन उन्नति करें। स्वामी विवेकानंद के उन शब्दों से प्रेरित, जिन्होंने कहा था, “वे ही जीते हैं, जो दूसरों के लिए जीते हैं,” शेरदा ने अपने परिवार और समुदाय की भलाई के लिए खुद को समर्पित कर दिया।

व्यक्तिगत जीवन में, शेरदा एक धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्ति थे। वे श्री सत्य साईं बाबा के भक्त बन गए और उनके दर्शन के लिए पुट्टापर्थी की यात्राएँ कीं। उन्होंने कुंभ स्नान और बद्रीनाथ धाम की यात्रा भी की। साधु संतों का वे पूरी श्रद्धा से स्वागत करते थे। शेरदा के लिए अध्यात्म उनकी कड़ी मेहनत, शिक्षा और दूसरों की सेवा के मूल्यों के साथ गहराई से जुड़ा हुआ था। उन्होंने अपने चार पुत्रों और तीन पुत्रियों को ऐसी शिक्षा और परवरिश प्रदान की, जिसने उन्हें अपने-अपने क्षेत्रों में उन्नति करने का अवसर दिया।

सफल व्यवसाय और पारिवारिक उपलब्धियों के वर्षों के बाद, शेरदा ने अपने प्रिय गाँव नौला लौटने का निर्णय लिया क्योंकि वे अपना अंतिम समय रामगंगा नदी के किनारे बिताना चाहते थे। घर के आंगन में स्थापित दौनीपाथर पर घंटों बैठकर पूजापाठ करते। यह पवित्र पत्थर, जिस पर पूरे गांव की श्रद्धा है, उनके परदादा दूर जंगल से लेकर आए थे। यहाँ उन्होंने एक बार फिर गाँव के जीवन की सादगी को अपनाया, खूब पैदल घूमे – नंगे पांव पैदल चलना उन्हें अत्यंत प्रिय था – और 90 वर्ष से अधिक की आयु में नश्वर देह त्याग दी।

शेरदा की विरासत उनके पुत्रों—जसवंत, जगत, महेंद्र और दान सिंह—और पुत्रियों गोविंदी, लीला और सरस्वती में जीवित है, जो सभी अपने-अपने क्षेत्रों में सफलता प्राप्त कर रहे हैं। शिक्षा और परिवार कल्याण के प्रति उनकी दृष्टि ने न केवल उनके परिवार पर बल्कि पूरे परिवार पर एक स्थायी छाप छोड़ी है। उनके भाई, साले और उनके परिवार सभी स्थिरता और सफलता प्राप्त कर चुके हैं, जो शेरदा की उनकी भलाई के प्रति अटूट प्रतिबद्धता का प्रमाण है।

शेरदा – शेर सिंह बिष्ट – का सम्मान करते हुए, हम एक ऐसे व्यक्ति का उत्सव मनाते हैं, जिसने अपने गाँव के पहाड़ों से परे सपने देखने का साहस किया, अपने परिवार को समृद्धि दी, और शिक्षा, आध्यात्मिकता और समाज की सेवा के गुणों का उदाहरण प्रस्तुत किया। अपने जीवन के माध्यम से, शेरदा ने हमें दिखाया कि महानता भव्यता में नहीं, बल्कि दूसरों को ऊपर उठाने और अपने से परे एक उद्देश्य के लिए जीने की स्थिर प्रतिबद्धता में निहित है।

 ☆ Late SherDa – Sher Singh Bisht ji and his heritage ☆  

In the serene village of Naula, nestled in the mountains near Ranikhet and cradled by the flowing Ramganga River, SherDa was born around the time of World War I. His Bajyu, father in Kumaoni dialect, Narpat Singh, was a humble farmer descending from the Syontari Bishts, one of the about a dozen households living off the land in this picturesque yet remote village. On one side of the village was Bhikiyasain and Bhatronjkhan; and on the other side was Masi and Chaukhutia. Doonagiri and Manila Devi temples were not far away. Growing up amid the simplicity and beauty of the hills, SherDa’s life seemed destined to follow the rhythm of farming and village traditions. But SherDa would go on to lead a life that not only shaped his own future but uplifted the fortunes of his family and community.

As a child, SherDa attended the local school and showed a rare aptitude for science and arithmetic. However, his life took a dramatic turn with the early loss of his parents. Still a young man, he took on the responsibilities of a farmer, tending to the fields while also becoming the guardian of his elder sister, Didi, and his two younger brothers, Bagua and Rupi. These early years of sacrifice and duty fostered in him a profound resilience and sense of purpose. He worked tirelessly to provide for his family and ensure his siblings grew up with love and guidance. Bagua, Bag Singh, stayed back in the village and was elected as the Sarpanch of Naula and neighbouring villages.

As his brothers reached adulthood, SherDa sought a way to secure a better future. He left Naula and undertook a long, arduous journey through Jim Corbett National Park, reaching Ramnagar on foot, walking along the river Ramganga, and then on to Delhi. Here, he found work with a renowned construction company owned by the Bhandaris, where his diligence and integrity soon earned the Sardar’s trust. Rising to become his personal assistant, SherDa traveled to Lahore, Calcutta, Bombay, and Jabalpur, gaining exposure to urban life and industry. During his youth, he was influenced by Mahatma Gandhi. He wore Khadi and walked barefoot his entire life. He reminisced how he was part of the large crowd that gathered outside parliament on the intervening night of 14th and 15th August, 1947 chanting and celebrating freedom from colonial rule.

In Jabalpur, SherDa seized an opportunity to run a small canteen, which marked the beginning of his entrepreneurial journey. With determination and foresight, he expanded his venture, winning a lease to operate a restaurant in the Ordnance Factory Estate at Khamaria. Recognizing the value of family support, Sherda invited his youngest brother, Rupi, Roop Singh, to assist him, laying the foundation for a prosperous business that would become the economic backbone for his extended family. He diversified to set-up a soap factory in Ranjhi, Jabalpur.

SherDa married Nandi Devi, daughter of Diwan Singh, from the closeby village of Basoli, across Masi, from a family of the Ghugtyals. His commitment to family extended beyond his own siblings; he supported his wife’s brothers, helping the older ones to settle into productive lives and the younger ones to pursue their studies. SherDa’s motivation came from a deep-rooted desire to see his loved ones thrive. Inspired by the teachings of Swami Vivekananda, who once said, “They only live, who live for others,” SherDa dedicated himself to the welfare of his family and community.

In his personal life, SherDa was a man of faith and spiritual wisdom. He became a devout follower of Sri Sathya Sai Baba, making pilgrimages to Puttaparthi for his darshan. He went for pilgrimage to Kumbh Mela in Allahabad and Badrinath Dham in the Himalayas. Spirituality for Sherda was intertwined with his values of hard work, education, and service to others. He provided his own children—four sons and three daughters—with the education and upbringing that would allow them to flourish in their respective fields.

After years of successful business and family achievements, SherdDa decided to return to his beloved motherland Naula, settling along the riverbank in a home he had helped to build during his visits. He sat for long hours praying on the Dauni-pathar, a large slice of stone his great grandfather had brought from the deep forest beyond the hills. It occupies a sacred place of reverence for the entire village. Here, he embraced the simplicity of village life once more, enjoying long walks and living peacefully and devotedly until he passed away in March 2006 at the remarkable age of over 90.

SherDa’s legacy lives on through his children—Jaswant, Jagat, Mahendra, and Dan Singh—and daughters Govindi, Leela, and Saraswati, all of whom are well-settled and prosperous. His vision for education and family welfare has left an enduring mark, not only on his immediate family but on the entire clan. His brothers, brothers-in-law, and their families have all achieved stability and success, a testament to SherDa’s unwavering commitment to their wellbeing.

In honoring SherDa – Sher Singh Bisht – we celebrate a man who dared to dream beyond the mountains of his village, brought prosperity to his family, and exemplified the virtues of education, spirituality, and service to society. Through his life, SherDa showed us that greatness is not found in grand gestures but in the steady dedication to uplifting others and living for a purpose beyond oneself.

🙏💐 स्व. शेरदा जी को सादर नमन 💐🙏

© जगत सिंह बिष्ट

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण – आचार्य डॉ.आनंदप्रकाश दीक्षित को याद करते हुए ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – संस्मरण – आचार्य डॉ.आनंदप्रकाश दीक्षित को याद करते हुए ? ?

(कल आचार्य आनंदप्रकाश दीक्षित जी की पुण्यतिथि थी। उनके देहावसान के बाद ‘नवनीत’ में प्रकाशित अपने लेख को पुनश्च साझा कर रहा हूँ।🙏)

5 नवंबर 2019 को हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष और रस सिद्धांत के पुरोधा आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित का निधन हो गया। पुणे विश्वविद्यालय में लंबे समय तक अध्यापन करने वाले डॉक्टर दीक्षित 1985 में हिंदी विभाग के प्रमुख के रूप में सेवानिवृत्त हुए थे। तत्पश्चात वर्ष 2010 तक वे प्राध्यापक के रूप में सक्रिय रहे।

डॉक्टर दीक्षित का जन्म माघ शुक्ल द्वितीया विक्रम संवत 1980 (अंग्रेजी वर्ष 1923/24) को हुआ था। माता-पिता के अलावा घर में तीन भाई और थे, दो उनसे बड़े और एक छोटा। पिता संस्कृत के अध्यापक थे। दोनों बड़े भाई भी हिंदी साहित्य से जुड़े हुए थे। फलत: साहित्य का संस्कार उन्हें बचपन से मिला। नवीं में पढ़ते थे तब मासिक ‘दीपक’ में ‘मातृस्नेह’ शीर्षक से उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था। आरंभिक दिनों में वे ‘सर्वजीत’ उपनाम से लिखा करते थे। उन दिनों बच्चन जी की ‘सप्तरंगिणी’ प्रकाशित हुई थी। इस पर दीक्षित जी का  आलोचनात्मक लेख लाहौर से प्रकाशित होने वाली वाले ‘विश्वबंधु’ ने पूरे पृष्ठ पर प्रकाशित किया था। पंडित विजयशंकर भट्ट ने एस लेख की प्रशंसा की थी। यहीं से कविता की आलोचना के क्षेत्र में उनकी रुचि, उनका जीवन बन गई।

वर्ष 2016 में हिंदी आंदोलन परिवार की वार्षिक पत्रिका ‘हम लोग’ के लिए मैंने उनका साक्षात्कार किया था। इस साक्षात्कार में कविता पर भाष्य करते हुए उन्होंने कहा था “कविता में अर्थ की जो गहनता हम पाते हैं, वह किसी दूसरी विधा में नहीं मिलती। पहली बार तो कविता का केवल ऊपरी अर्थ समझ में आता है, उसके प्रति आसक्ति जागृत होती है। यदि आप विचारक हैं तो उसका अर्थ समझने के लिए आगे बढ़ेंगे। उसके लिए बार-बार कविता पढ़नी पड़ेगी। बार- बार पढ़ने से कविता ऐसी रच जाएगी कि अर्थ पर अर्थ निकलने लगेंगे। तब कविता चमत्कारी चीज़ हो जाती है।”

समकालीन कविताओं को लेकर उनका मानना था कि आज जो कविताएँ लिखी जा रही हैं, उनके छंद और उक्ति में परिवर्तन है। पुरानी कविता में कोई सूक्ति रहती थी, कोई ना कोई उपमान रहता था जिससे सौंदर्य आता था। उसकी विशेषताएं आकर्षित करती थीं। अब कविता पत्रकारिता की तरह हो गई है। वर्तमान का वर्णन करके वे चुप हो जाती हैं। जब आप घटित के बारे में लिखने लगते हैं तो इससे एकरूपता आ जाती है। इनसे इतिहास तो हमें मिल जाएगा लेकिन भविष्य में इनसे जीवन का दृश्य क्या मिलेगा?

अलबत्ता कविता की प्रयोजनीयता सर्वदा बनी रहेगी। कविता अच्छी नहीं है तो निष्प्रयोजन हो जाएगी लेकिन इससे सारी कविताएँ  निष्प्रयोजन नहीं हो जातीं। आदमी सदैव कविता पढ़ना चाहेगा।

आलोचना की मीमांसा करते हुए उन्होंने टिप्पणी दी, “आलोचना दो प्रकार की होती है। पहला प्रकार अध्ययन करके गहनता से आलोचनात्मक लेख लिखना है तो दूसरा प्रकार समीक्षाएँ लिखना है। समीक्षा ऊपरी तल पर रह जाती है। विवेकपूर्ण लंबी आलोचना जो समझदारी से लिखी जाती है, उसका महत्व होते हुए भी मैं यह मानता हूँ कि आलोचक दूसरे दर्जे का नागरिक बनता है। आलोचक तब लिखेगा जब उसके सामने सर्जन होगा। सर्जनात्मकता पहली चीज़ है। सर्जनात्मकता में भावुकता है, आलोचना में विवेक को संभालना पड़ता है। तर्क-वितर्क संभालना पड़ता है, शास्त्र का ध्यान रखना होता है। आलोचना बहुत कठिन कर्म है।”

कवि की अनुभूति और आलोचक द्वारा ग्रहण किये गए भाव के अंतर्सम्बंध पर उनका कहना था कि कई बार आलोचक वहाँ तक नहीं पहुँच पाता। लेकिन यह भी है कि कई बार कवि का सोचा हुआ भी नहीं होता।

उनसे बातचीत में अनेक पहलू खुलते गए। आज का लेखक अपनी कमजोरी को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा। उस पर चर्चा नहीं करना चाहता। अपना अनुभव साझा करते हुए उन्होंने कहा कि  जिन भी कवियों को उन्होंने उनकी कविता की कमजोरियों के बारे में बताया, उनमें से अधिकांश बुरा मान गए।

आचार्य जी भाषा के क्रियोलीकरण के विरुद्ध थे। उनका विचार था कि इसके पक्षधर विशेषकर समाचारपत्र यह दिखाना चाहते हैं कि व्यवहार में इस तरह की भाषा चलती है। अख़बारवालों को लगता है कि ऐसी मिली-जुली भाषा के उपयोग से युवा वर्ग तक पहुँचा जा सकता है। वस्तुतः हमें इस बात का अभ्यास नहीं है कि हम शुद्ध भाषा का उपयोग कर सकें।  हम कभी शब्दकोश देखने या सोचने का भी प्रयत्न नहीं करते। सत्य तो यह है कि दुभाषिया भी शब्दश: अनुवाद न करके सार अपनी भाषा में कहता है।

 हिंदी विषय लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की तुलनात्मक रूप से घटती संख्या का सबसे बड़ा कारण उन्हें इस विषय को  पढ़कर विद्यार्थियों को रास्ते खुलते हुए नहीं दिखाई देना लगता था। विडंबना है कि ज्ञान के लिए जो हिंदी पढ़ना चाहता है उसे केवल साहित्य पढ़ाया जाता है। साहित्य तो बिना पाठशाला या कॉलेज में पढ़े अलग से पढ़ा जा सकता है। लोगों को इंजीनियर या टेक्नीशियन बनना है तो केवल साहित्य पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। हिंदी को समुचित स्थान दिलाने के लिए जो किया जाना चाहिए था, अब तक नहीं किया जा सका है।

 हिंदी वालों से एक शिकायत उन्हें सदा रही कि हिंदीक्षेत्र में काम करने वाले लेखक को ही वे लेखक मानते हैं लेकिन जो बाहर निकल आए हैं या अहिंदीभाषी प्रदेशों के रहनेवाले हैं, उन्हें वे लेखक नहीं मानते। जब आप हिंदी को राष्ट्रभाषा कहते हैं तो सभी प्रदेशों के लोगों का सहयोग चाहिए। हिंदी के विस्तार को हमने खुद ही रोक दिया है। एक बात और, जो मराठीभाषी हिंदी पढ़ कर हिंदी में लिख रहा है, मराठी मंच उसे स्वीकार नहीं करता। यहाँ बस गए हिंदी के लेखकों को हिंदी प्रदेशों के मंच अब याद नहीं करते। ऐसे लेखक दोनों ओर से तिरस्कृत हैं।

 सांप्रतिक जीवन में संवाद के अभाव को लेकर वे चिंतित थे। “आजकल संवाद नहीं हो रहा है।  बिना संवाद के बुद्धि विकसित नहीं होती। संवाद से तर्क-वितर्क सामने आते हैं। मालूम होता है कि आप जो सोच रहे हैं, उसके प्रतिपक्ष में कोई सोच सकता है। शास्त्र में दो पक्ष होते हैं। एक ही व्यक्ति जब शास्त्र लिखता है तो दोनों पक्षों को लिखता है। इसका अर्थ है कि विवेक जागृत करने के लिए दूसरे पक्ष को भी सामने रखना आवश्यक है।”

 “लोग कहते हैं कि मैं रसवादी हूँ। मैं रस में विश्वास नहीं करता। यदि वादी हूँ तो मैं विवेकवादी हूँ। रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने ‘विवेक’ शब्द का प्रचुर प्रयोग किया है। विवेक क्या है? भले बुरे को समझना, क्या करणीय है, क्या अकरणीय है, इन दोनों के बीच से सही रास्ते को ढूँढ़ना, निरंतर शोध करना ही विवेक है। विवेक मंथन करने के बाद आता है। ज्ञानप्राप्ति के लिए आत्ममंथन आवश्यक होता है।”

 भविष्य को लेकर वे सदा आशावादी रहे। “जीवन में बहुत कुछ करना अभी बाकी है। हमारी संस्कृति को मिली-जुली कहा जाता है। इसकी पूरी जानकारी के लिए मैं संस्कृत ग्रंथों का पारायण करना चाहता हूँ। अपने संस्कारों से हमें कितना जुड़ाव है, कितना होना चाहिए, कितना हम उन से हटे हैं, इसका विवेक पैदा करना ज़रूरी है। मैं इस्लाम की मूल पुस्तकें पढ़ना चाहता हूँ। इस्लाम की पूरी जानकारी करना चाहता हूँ। मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि अगर यह मिली-जुली संस्कृति है तो हम आपस में इतना लड़ते क्यों हैं? आपसी लड़ाई से बचाव के लिए मैं इस तरह का अध्ययन आवश्यक मानता हूँ।”

 भाषाविज्ञान, संपादन, अध्यापन, अनुवाद, लेखन, पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य दीक्षित का योगदान बहुमूल्य रहा। उनके अनेक विद्यार्थी विभिन्न विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष हुए। हिंदी साहित्य का शायद ही कोई अध्येता हो जिसने डॉ. दीक्षित की कोई पुस्तक संदर्भ के लिए न पढ़ी हो। ‘आलोचना-रस सिद्धांत : स्वरूप विश्लेषण’,   ‘साहित्य : सिद्धांत और शोध’  त्रेता : एक अंतर्यात्रा’,  ‘हिंदी रीति परंपरा : विस्मृत संदर्भ’, ‘रसचिंतन के विविध आयाम’ (मराठी के 15 लेखकों के साहित्य का अनुवाद),

‘हरिचरणदास ग्रंथावली’ (काव्यखंड), ‘प्रताप पचीसी’, ‘दौलत कवि ग्रंथावली’, ‘आज के लोकप्रिय कवि शिवमंगल सिंह सुमन’, ‘कबीर ग्रंथावली’ ‘मैथिलीशरण गुप्त’  ‘सुमित्रानंदन पंत : आलोचना, प्रक्रिया और स्वरूप’,  ‘कबीरदास : सृजन और चिंतन’, ‘मराठी संतों की हिंदीवाणी’ जैसे अन्यान्य ग्रंथों का लेखन, संपादन और अनुवाद हिंदी साहित्य को उनकी महती देन है।

 सरकारी और गैरसरकारी अनेक संस्थाओं और संस्थानों ने उन्हें सम्मानित कर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया। उन्हें प्राप्त प्रमुख अलंकरणों में साहित्य अकादमी द्वारा ‘भाषा सम्मान’, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा ‘भारत भारती सम्मान’, हिंदी साहित्य समिति इंदौर द्वारा ‘अखिल भारतीय साहित्य पुरस्कार’, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ‘अखिल भारतीय हिंदी सेवा पुरस्कार’,  साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद द्वारा ‘साहित्य वाचस्पति’  हिंदी साहित्य समिति कानपुर द्वारा ‘साहित्य भारती’ आदि सम्मिलित हैं।

हिंदी आंदोलन परिवार के एक आयोजन में उन्होंने कहा था कि लिखने के लिए वे दो सौ वर्ष जीना चाहते हैं। अपनी बहुआयामी प्रतिभा के साथ वे जीवन के अंत तक सक्रिय रहे। सजब मैंने उनसे जानना चाहा कि अपने बहुआयामी व्यक्तित्व की चर्चा सुनकर खुद डॉ. दीक्षित के मन में किस तरह का चित्र उभरता है तो उनका उत्तर था, “मुझे अच्छा लगता है लेकिन ऐसा कोई भाव पैदा नहीं होता जिसे मैं अहंकार कह सकूँ। हाँ, लगता है कि मैं जीवित हूँ।”

अपने सृजन के रूप में आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित सदा जीवित रहेंगे।

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© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  श्री लक्ष्मी-नारायण साधना सम्पन्न हुई । अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही दी जाएगी💥 🕉️   

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

डॉ.वंदना पाण्डेय

परिचय 

शिक्षा – एम.एस.सी. होम साइंस, पी- एच.डी.

पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र. 

विशेष – 

  • 39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
  • लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
  • इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
  • अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया। 
  • अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
  • एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
  • इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
  • आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
  • लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

 प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ ☆

☆ “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय

आकर्षक सादगीपूर्ण किंतु प्रभावशाली गरिमामय व्यक्तित्व, स्पष्ट वक्ता, बुलंद दमदार, आत्मविश्वास से भरी ओजस्व वाणी के धनी विधिवेत्ता स्व. राजेन्द्र तिवारी, पूर्व महाधिवक्ता मध्यप्रदेश को कौन नहीं जानता ? इसे सुसंयोग ही कहा जा सकता है कि संस्कारधानी के सुसंस्कारित ,सुविख्यात विधि पुत्र का जन्म भी संविधान के प्रणेता डॉ. भीमराव अंबेडकर के जन्म दिवस के दिन ही हुआ। 14 अप्रैल 1936 जन्म श्री राजेंद्र तिवारी जी की जन्म एवं कर्मभूमि जबलपुर ही रही।

कुशाग्र बुद्धि के तिवारी जी विद्यालयीन, महाविद्यालयीन एवं विश्वविद्यालयीन शिक्षा में सदैव अग्रणी रहे। उन्होंने संस्कृत साहित्य में एम.ए. किया और फिर विधि की पढ़ाई पूर्ण की।

उनकी सक्रियता का ही परिणाम था कि वे 1956-57 में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय,जबलपुर छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए।

आदरणीय तिवारी जी ने क्राईस्ट चर्च स्कूल में संस्कृत विषय का अध्यापन भी किया। वे एक आदर्श कुशल शिक्षक रहे किंतु कुछ समय बाद ही उन्होंने विधि-जगत को अपना कार्य क्षेत्र  बना लिया। सन 1964 से वकालत करने लगे। 1985 से 88 तक वे राज्य सरकार के उपमहाधिवक्ता रहे। 1993 में हाई कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष चुने गए। 1995 में मध्यप्रदेश शासन ने उन्हें वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित किया। ज्ञान और कानून की बारीक समझ और प्रभावशाली विवेचना के कारण उन्हें हाईकोर्ट की रूलिंग कमेटी में रखा गया।

कठिन से कठिन मसलों पर उनके नीर-क्षीर परीक्षण – विश्लेषण और तर्कों से उन्होंने न्यायाधीशों और महाधिवक्ताओं  को भी प्रभावित किया नगर-निगम अधिनियम की धारा 17एवं 19 की  व्याख्या को लेकर जब दुविधा उत्पन्न हुई तब तत्कालीन महाधिवक्ता के तर्क  सुनने के बावजूद भी माननीय श्री तिवारी जी के विचार जानने उन्हें कोर्ट मित्र के रूप में आमंत्रित किया गया। इस अत्यंत जटिल मामले में तिवारी जी की अद्भुत तर्कपूर्ण दलीलों ने सबको प्रभावित किया। उनकी यही दलीलें  निर्णय का आधार भी बनी, जो बाद में मील का पत्थर साबित हुई। श्री तिवारी जी का ज्ञान, चिंतन, मनन, कल्पना , तर्कशक्ति धारदार शब्द और  ओजस्वी वाणी की गूँज आज भी कोर्ट में उनकी याद दिलाती है । किसी कवि की ये पंक्तियां मानो उन्हीं के लिए लिखी गईं हैं..

मनु नहीं यह मनु पुत्र है सामने

 जिसकी कल्पना की जीभ में

 भी धार होती है बाण ही होते

 नहीं विचारों के केवल ….

स्वप्न के हाथ में भी तलवार होती है।

हिंदी,अंग्रेजी,संस्कृत और उर्दू साहित्य में उनका पूर्ण अधिकार था। निरंतर अध्ययन, चिंतन- मनन उनका स्वभाव था। सुंदर शब्दों का चयन, वाक्य – विन्यास, स्पष्ट और शानदार अभिव्यक्ति जैसे सभी आदर्श वक्ता के गुण उनमें थे। उनके उद्बोधनों में कविता,श्लोक, शेरो-शायरी, कोटेशन, उद्धरण श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर देते थे। श्रोता उनके प्रभावशाली व्याख्यान को मानो सांस रोक कर सुनते थे। साहित्य से तो उन्हें लगाव था ही सांस्कृतिक एवं खेलकूद गतिविधियों तथा कार्यक्रमों में भी उनका अच्छा दखल था । संस्कारधानी की अनेक संस्थाओं को उनका मार्गदर्शन और संरक्षण प्राप्त होता रहा। रंगमंच, शास्त्रीय संगीत की जितनी ज्यादा उनमें समझ थी उतनी ही गजलों की भी। शायद ही कोई विधा ऐसी होगी जिसमें उनका हस्तक्षेप न हो।

महाकौशल शिक्षा प्रसार  समिति जिसके द्वारा शासकीय अनुदान प्राप्त चंचलबाई महिलामहाविद्यालय तथा अन्य शैक्षणिक संस्थाएं संचालित हैं उसके वे अध्यक्ष भी रहे महाविद्यालय में कार्यरत होने एवं पारिवारिक संबंध होने के नाते उनका भरपूर सानिध्य मुझे मिला। उनके स्नेहिल प्रेमपूर्ण, मिलनसार, हंसमुख विनोद-प्रिय स्वभाव ने उन्हें कभी भी किसी को भी अपने उनके विराट व्यक्तित्व से दूर नहीं किया। यही कारण था कि छोटे बड़े सभी वय के लोगों के वे अज़ीज़ रहे। कभी भी, किसी से भी, किसी भी विषय पर घंटों – घंटों चर्चा कर लोगों को अपने ज्ञान और अनुभव से लाभान्वित कर देना उनकी विशेषता थी। अत्यधिक व्यस्त होने के बावजूद भी समय के अभाव की बात उन्होंने कभी नहीं की। समय की पाबंदी उनकी बड़ी विशेषता थी। मिनट और सेकंड का हिसाब रखने वाले श्री तिवारी जी सदैव अपने कार्य क्षेत्र में निर्धारित समय पर उपस्थित हो जाते थे। प्रातः सूर्योदय से पूर्व उठना, स्नान- ध्यान, पूजा-पाठ आदि कार्यों से निवृत होकर समाचार-पत्र, पत्रिकाओं का अध्ययन उनकी नियमित दिनचर्या में शामिल थे। रात्रि विश्राम पर जाने का कोई निर्धारित समय नहीं था। शॉर्टकट उन्हें पसंद नहीं था।काम के प्रति लगन निष्ठा और अनुशासन को वे सफलता का सूत्र मानते थे और यही संदेश उन्होंने अगली पीढ़ी को भी दिया। वे कहा करते थे कि –

“If you waste your time the time will waste you.”

समाज को समर्पित सिद्धांतवादी परिवार में जन्मे श्री राजेन्द्र तिवारी जी की पत्नी श्रीमती गीता तिवारी नगर के प्रसिद्ध शिक्षाविद एवं पूर्व महापौर पं. रामेश्वर प्रसाद गुरुजी की पुत्री थीं।

बहुआयामी, जादुई व्यक्तित्व वाले श्री राजेंद्र तिवारी जी ने आने वाली पीढ़ियों के लिए अनेक आदर्श स्थापित किए। उनकी शख्सियत की गूँज केवल कोर्ट में ही नहीं सवरन हर दिल में, हर तरफ सुनाई देती है। ऐसे ही व्यक्तित्व वाले विरले लोगों के लिए शायर इकबाल ने लिखा है ..

हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पर रोती है

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।’

 सादर नमन …

डॉ. वंदना पाण्डेय 

प्राचार्य, सी. पी. महिला महाविद्यालय

संपर्क : 1132 /3 पचपेड़ी साउथ सिविल लाइंस, जबलपुर, म. प्र. मोबाइल नंबर :  883 964 2006 ई -मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

डॉ. आनंद सिंह राणा

बी. एस. सी., एम ए (इतिहास), पी एच डी, एल एल बी.

उपाध्यक्ष इतिहास संकलन समिति महकौशल प्रांत एवं जिला संगठक राष्ट्रीय सेवा योजना, जबलपुर म प्र

संप्रति- विभागाध्यक्ष, इतिहास विभाग, श्री जानकी रमण कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, जबलपुर,

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

वीरांगना दुर्गा भाभी

☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ ☆

☆ “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास लेखन में एक दल विशेष के समर्थक इतिहासकारों और उसके द्वारा रोपित वामपंथी इतिहासकारों ने तथाकथित गांधीवाद की आड़ में लिखे स्वर्णिम इतिहास में उन्हीं छद्म नायकों को स्थान मिला जो उनके इर्द-गिर्द रहते थे परंतु वहाँ भी नारी नायिकाओं के साथ उचित न्याय नहीं हुआ! वैंसे भारत के इतिहास का सच तो यही है किसी भी कालखंड में नारी नायिकाओं के साथ उचित न्याय हुआ ही नहीं, जो आज भी अपेक्षित है? रहा सवाल  क्रांतिकारी आंदोलन के नायक एवं नायिकाओं के अवदान को इतिहास में रेखांकित करने का तो, उत्तर में सभी को आतंकवादी अथवा अराजकतावादी बताकर खारिज कर दिया गया । जिसका प्रतिउत्तर और उन्मूलन समय रहते नहीं किया गया तो भावी पीढ़ियां सदैव गुमराह ही रहेंगी! एतदर्थ 

समाज और इतिहास की तलहटी में छिपे और वर्षों से हमारी आँखों से ओझल पहलुओं को सामने लाने की दिशा में एक सद्प्रयास है। 

वीरांगना परम आदरणीय, दुर्गा भाभी तथाकथित सुनहरे इतिहास के पन्नों में लुप्तप्राय एक सुनहरा व्यक्तित्व है। यूँ तो भारतीय इतिहास के पन्नों में,भारत के स्वाधीनता  संग्राम में भाग लेने वाले अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम दर्ज़ किए गए, लेकिन ऐसे बहुत से महान् सेनानी भी हैं जिन्होंने ना केवल अपना पूरा जीवन इस संघर्ष के नाम किया, वरन् इस संघर्ष को सफल बनाने में भी अपना अद्भुत एवं अद्वितीय योगदान दिया है, और इस संग्राम में अग्रणी रहने का श्रेय लेने की अपेक्षा पर्दे के पीछे रह कर अपने अग्रणियों को आगे बढ़ने और डटे रहने का साहस प्रदान किया। लेकिन दुर्भाग्यवश! इन्हें ना तो हमारे इतिहास के पन्नों पर उचित स्थान दिया गया और ना ही इनके बलिदान  को वो सम्मान मिल सका, जिनके ये अधिकारी थे और वे महत्वपूर्ण व्यक्तिव धीरे-धीरे हमारे सुनहरे इतिहास की चमक से पीछे विस्मृति के गर्भ में समाते से जा रहे हैं। ऐंसी ही विभूतियों में से एक हैं-‘वीरांगना दुर्गा भाभी’।                      

‘दुर्गा भाभी’ का वास्तविक नाम था-दुर्गावती देवी। इनका जन्म 7 अक्टूबर 1907 में शहजादपुर ग्राम में पण्डित बांके बिहारी के यहां हुआ था। दुर्गावती का विवाह भगवती चरण वोहरा के साथ हुआ। दुर्गावती के पिता जहां इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाज़िर थे और उनके ससुर शिवचरण जी रेलवे में ऊँचे पद पर तैनात थे।                  

वोहरा क्रन्तिकारी संगठन एच. एस. आर. ए. के प्रचार सचिव थे। दिल्ली के क़ुतुब रोड में स्थित घर में,वोहरा, विमल प्रसाद जैन के साथ बम बनाने का काम करते थे,जिसमें दुर्गा भी उन लोगों की सहायता करती। प्रारंभिक दिनों में,दुर्गा भाभी सूचना एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने और बम के सामान को लाने पहुँचाने का भी काम करती थी। 16 नवम्बर,1926 में लाहौर में,नौजवान भारत सभा द्वारा भाषण का आयोजन किया गया,जहां दुर्गावती नौजवान भारत सभा की सक्रिय सदस्य के तौर पर सामने आयी। दुर्गावती अद्भुत योजना-निर्मात्री थी,जिनकी योजना कभी-भी असफल नहीं होती थी।अभी भगवती चरण कलकत्ता में ही थे, कि 17 दिसंबर, 1928 को लाला लाजपत राय पर जेम्स एंडरसन स्काट के आदेश से लाठी चलाने वाले अंग्रेज पुलिस अधिकारी जॉन सांडर्स का वध कर दिया गया। बरतानिया सरकार ने लाहौर पर तरह-तरह की पाबंदियां थोप दीं। दुर्गा भाभी अपने तीन वर्षीय अबोध पुत्र के साथ घर पर अकेली थीं कि देर रात किसी ने उनके घर की कुंडी धीरे से खटखटाई। दरवाजा खोला, तो भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु सामने खडे़ थे। उन्हें समझते देर न लगी कि सांडर्स का वध इन्हीं का काम है।

उन्होंने इन लोगों को अपने घर में पनाह दी, पर इतना पर्याप्त न था। उन्हें मालूम था कि जब घर-घर तलाशी ली जा रही हो, तब आज नहीं तो कल पुलिस वहां भी आ धमकने वाली है। भगत सिंह और उनके साथियों के पकड़े जाने का मतलब होता, क्रांति की उफनती धारा का थम जाना। अनिश्चितता के उन्हीं लम्हों में वीरांगना दुर्गावती वोहरा ने एक अत्यंत साहसिक निर्णय लिया। वह भगत सिंह की पत्नी का स्वांग धर उन्हें लाहौर से सुरक्षित बाहर निकाल ले गईं। आज के उत्तर-आधुनिक भारत में भी ऐसी कार्रवाई को दुस्साहस कहा जाएगा।भगत सिंह अगर उस दौरान जिंदा बच सके, तो उसके पीछे दुर्गावती का दृढ़ निश्चय और असीम साहस था। उनके पतिदेव जो धन गाढ़े समय के लिए उन्हें सौंप गए थे, वह भी क्रांतिकारियों की राह सुगम करने में खर्च हो गया। उन दिनों पांच हजार की रकम बहुत बड़ी राशि मानी जाती थी। 

भगवती चरण वोहरा और दुर्गा भाभी का रिश्ता अनूठे विश्वास और साहचर्य का था। इसीलिए उनकी भूमिका सिर्फ क्रांतिकारियों की सहयोगी भर की नहीं थी। 

दुर्गावती वोहरा को भारत की अग्नि भी कहा जाता है। यह दुर्गा भाभी ही थीं जिन्होंने अपने पति के बम कारखाने पर छापा पड़ने के बाद, क्रांतिकारियों के लिए ‘’पत्र मंजूषा “का काम किया। जुलाई 1929 में, उन्होंने भगत सिंह की तस्वीर के साथ लाहौर में एक जुलूस का नेतृत्व किया और उनकी रिहाई की मांग की। इसके कुछ सप्ताह बाद, 63 दिनों तक भूख हड़ताल करनेवाले जातिंद्र नाथ दास की जेल में ही बलिदान हो गया था। ये दुर्गा देवी ही थीं, जिन्होंने लाहौर में उनका अंतिम संस्कार करवाया।

भगवती चरण ने उन्हें बाकायदा बंदूक चलाना सिखाया था। 8 अक्तूबर, 1930 को उन्होंने दक्षिण बंबई के लैमिंग्टन रोड पर स्थित पुलिस स्टेशन के आगे एक ब्रिटिश पुलिस सार्जेंट और उसकी पत्नी पर गोली चला दी थी। यह कदम उन्होंने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को एक दिन पहले सुनाई गई फांसी की सजा के प्रतिकार में उठाया था। बरतानिया सरकार के लिए यह बडे़ आश्चर्य की बात थी कि कोई महिला इतनी दुस्साहसी कैसे हो सकती है? फलस्वरूप सारा अमला उनके पीछे लग गया और वह अंतत: सितंबर 1932 में गिरफ्तार कर ली गईं। हालांकि, उस गोलीकांड में उनकी भूमिका पर कुछ सवाल उठाए गए, मगर इससे उनकी गाथा पर फर्क क्या पड़ता है? वह बरतानिया सरकार की आंखों में कितना खटकती थीं, इसका खुलासा तत्कालीन इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस एसटी होलिन्स की पुस्तक नो टेन कमांडेंट्स  से भी होता है। इस बीच दो साल पहले भगवती चरण वोहरा रावी नदी के तट पर बम बनाते समय हुए विस्फोट में बलिदान हुआ था। दुर्गा भाभी को उनके आखिरी दर्शन तक नसीब नहीं हुए थे, पर अपने स्वर्गीय पति की प्रेरणा को उन्होंने मरते समय तक संजोए रखा। क्रांतिकारी उन्हें भाभी भी इसीलिए कहते कि वह उनके अग्रज भगवती चरण वोहरा की सहधर्मचारिणी थीं।इस सबके बाद दुर्गावती एकदम अकेली पड़ गई,लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पंजाब के पूर्व राज्यपाल लार्ड हैली को मारने की साजिश रच डाली,जो क्रांतिकारियों का बड़ा दुश्मन था।1 अक्टूबर,1931 को बंबई के लेमिंग्टन रोड पर दुर्गावती ने साथियों के साथ मिलकर हैली की गाड़ी को बम से उड़ा दिया, जिसके बाद पूरी ब्रिटिश पुलिस दुर्गावती की तलाश में जुट गई। लेकिन वे दुर्गावती को खोज नहीं पाए, 8 अक्टूबर को उन्होंने दक्षिण बॉम्बे में पुनः लैमिंगटन रोड पर खड़े हुए एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी पर हमला किया। यह पहली बार था जब किसी महिला को ‘इस तरह से क्रन्तिकारी गतिविधियों में शामिल’ पाया गया था। इसके लिए, उन्हें सितंबर 1932 में गिरफ्तार कर लिया गया और तीन साल की जेल हुई।

भारत की स्वतंत्रता में उनका केवल यही योगदान नहीं था। सन् 1939 में, उन्होंने मद्रास में मारिया मोंटेसरी (इटली के प्रसिद्ध शिक्षक) से प्रशिक्षण प्राप्त किया। एक साल बाद, उन्होंने लखनऊ में उत्तर भारत का पहला मोंटेसरी स्कूल खोला। इस स्कूल को उन्होंने पिछड़े वर्ग के पांच छात्रों के साथ शुरू किया था।

स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में दुर्गा देवी लखनऊ में गुमनामी की ज़िन्दगी जीती रहीं। 15 अक्टूबर, 1999 को 92 साल की उम्र में वे इस दुनिया को अलविदा कह गयीं ।

सदा यही होता आया है कि हमारा इतिहास उन महिलाओं के बलिदान और उनकी बहादुरी को सदैव भूल सा जाता है जिन्होंने तत्कालीन सत्ताधारियों की चाटुकारिता कभी नहीं की। अनेक ऐसी वीरांगनाएं सदैव छिपी ही रह जाती हैं। दुर्गा देवी वोहरा भी उन्हीं वीरांगनाओं में से एक है 

देश की स्वतंत्रता के लिए मर-मिटने वाली ऐसी वीरांगनाओं को कोटि कोटि प्रणाम है। दुर्गावती की मृत्यु हुए यूँ तो कई साल बीत चुके है,लेकिन आज भी उनकी वीरता की कहानी हर हिन्दुस्तानी के ध्यान को आकृष्ट कर,उन्हें गौरवान्वित करती है। दुर्गावती मिसाल हैं, नारी के सशक्त रूप की और सच्चे देश भक्त की। जिनके लिए क्रांति का तात्पर्य केवल सत्ता का तख्ता पलट करना मात्र नहीं था,उनके लिए वास्तविक क्रांति का तात्पर्य था,स्वाधीनता के बाद एक सशक्त देश की नींव डालना, एक शिक्षित समाज का निर्माण करना और यही वजह थी कि दुर्गावती ने शुरु से ही गरीब बच्चों को पढ़ाने का नेक काम शुरु किया,जिसे उन्होंने जीवन पर्यन्त कायम रखा। दुर्गावती की यही कार्य-प्रणाली और दूरदृष्टि उनके व्यक्तित्व को महान और अविस्मरणीय बनाती है।

© डॉ. आनंद सिंह राणा

संप्रति- विभागाध्यक्ष, इतिहास विभाग, श्री जानकी रमण कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, जबलपुर,

उपाध्यक्ष इतिहास संकलन समिति महकौशल प्रांत एवं जिला संगठक राष्ट्रीय सेवा योजना, जबलपुर म प्र

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

डॉ.वंदना पाण्डेय

परिचय 

शिक्षा – एम.एस.सी. होम साइंस, पी- एच.डी.

पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र. 

विशेष – 

  • 39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
  • लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
  • इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
  • अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया। 
  • अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
  • एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
  • इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
  • आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
  • लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

 प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु”  के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

स्व. पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु

☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ ☆

☆ “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय

बात सन 1962 की है जब संस्कारधानी के क्राइस्ट चर्च स्कूल के प्रभावशाली शिक्षक पं. रामेश्वर प्रसाद गुरुजी महापौर चुने गए । बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी गुरु जी के गुणों को शब्दों में सहेज पाना न केवल मुश्किल वरन् असंभव है । उन्हें प्रेम और आदर के साथ ‘गुरु जी’ के नाम से ही जाना जाता था । ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ और सिद्धांतों के पक्के गुरुजी महापौर बनने के बाद भी अपने घर से स्कूल साइकिल से ही जाते थे । नगर निगम में महापौर की कुर्सी पर विराजित होने के बाद कार्यालयीन कार्यों के लिए ही वे निगम की कार का प्रयोग करते थे। व्यक्तिगत कार्यों के लिए उन्होंने सदैव साइकिल का ही प्रयोग किया।

प्रखर बुद्धि के स्वामी होने के साथ ही वे सूक्ष्म भावनाओं के सागर भी थे, गुरुजी ने अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से इसे सही साबित कर दिया। वे एक श्रेष्ठ शिक्षक थे । उनमें आदर्श शिक्षक के समस्त गुण विद्यमान थे।  गणित जैसे रुखे विषय के शिक्षक होने के बावजूद भी वे  विद्यार्थियों में सर्वप्रिय रहे। जीवन की समस्याओं के गणित का समाधान भी उन्होंने सरलता से हंसते मुस्कुराते किया। निराश मन लेकर आने वाले भी उनसे मिलकर आशा का पुंज ले जाते थे। वे सदैव आत्म वंचना, आत्म प्रदर्शन से दूर रहे। अपनी बातों और दूसरों की गलतियों को मधुरता के साथ रेखांकित कर देने का अद्भुत गुण भी था उनमें  । सदैव प्रसन्न रहना, मुस्कुराना उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग था। उन्होंने जीवन पथ के कांटों को हटाया ही नहीं वरन वहां  सुमन बिखरते चले गए। अपनी दुख-पीड़ा को न तो प्रदर्शित किया न सार्वजनिक बनाया । इसके विपरीत दूसरों के दुख दर्द में बराबरी से हिस्सा लिया, उसे बांटा और दूर किया। सभी वर्ग, धर्म और बौद्धिक स्तर के लोग उनके सानिध्य में समानता का अनुभव करते थे। वे जबलपुर के गौरव पुरुष, सबके मित्र थे। गुरु जी दान मुक्त हस्त से और प्रशंसा दिल खोलकर करते थे, किंतु अपनी प्रशंसा सुनने से कतराते थे। दूसरों के लिए तन – मन, धन न्यौछावर करने वाले गुरु जी अपने प्रति हमेशा बेपरवाह रहे। देकर भूल जाना उनका स्वभाव था। वे इतने संकोची इतने थे कि कार्य स्वयं कर लेना ही उन्हें आसान लगता था बजाए किसी से कहने या करवाने के । गंभीर बातों को सहजता से लेने वाले गुरु जी सरल और विनोदी स्वभाव के कारण वातावरण को कभी भी बोझिल नहीं बनने देते थे । उपदेश देना उनकी फितरत में नहीं था, उनका सादगी पूर्ण, आडंबर रहित व्यक्तित्व – कृतित्व, आचरण ही लोगों के लिए उपदेश था। याद आ रही है उनके व्यक्तित्व को प्रकाशित करती हुई ये पंक्तियां ..

हम तो बिके जाते हैं उन अहले कर्म के हाथों

करके एहसान भी जो नीचे नजर रखते हैं।

गुरु जी एक श्रेष्ठ पत्रकार भी थे। ‘वसुधा’ और ‘प्रहरी’ के अतिरिक्त वे अनेक पत्र पत्रिकाओं से जुड़े रहे। उन्होंने समाज और जीवन के हर पहलू पर कविताएं लिखीं । सशक्त कवि के रूप में उनकी पहचान दूर-दूर तक थी। शिक्षा साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में विशेष रूचि के कारण ही गुरु जी जबलपुर में चंचलबाई महिला महाविद्यालय, भातखंडे संगीत महाविद्यालय, बिदामबाई गुगलिया कन्या विद्यालय, डिसल्वा रतनशी हायर सेकंडरी विद्यालय व भवानी प्रसाद तिवारी शिक्षा मंदिर की  स्थापना में सहभागी बने । यह गर्व की  बात है कि इन संस्थाओं का जैसा गौरवपूर्ण इतिहास रहा वैसा ही उनका वर्तमान भी है। गुरुजी और उनकी मित्र मंडली ने होली को सामाजिक और सांस्कृतिक पर्व के रूप में स्थापित किया।जिसमें शहर के सभी वर्ग के लोग हर्षोल्लास से मिलते जुलते, नाचते-गाते और होली का आनंद उठाते थे ।

गुरुजी कहते थे कि साहित्यिक, सांस्कृतिक रुचि उन्हें अपने पिता सुविख्यात व्याकरणाचार्य पं. कामता प्रसाद गुरु जी से विरासत में मिली।  समाज की विसंगतियां पर उन्होंने न केवल नजर डाली बल्कि समाज की नजरों में रखा भी। शोषण के विरुद्ध उनका    चिंतित स्वर देखिए –

आज जहर की हंसी हंसा है

पूंजी पति अनजाने में

कौन कयामत आने को है

मुफलिस के वीराने में ।

उनकी एक कविता में दुखती आत्मा का स्वर इस प्रकार रहा ..

जिस्म वही है शक्ल वही है पर मानव दिल बदल गया

धन के इस खूनी चढ़ाव से हिमालय भी दहल गया ।

गुरु जी सड़ी गली परंपरा तोड़ने के पक्षधर थे। वे जानते थे विद्रोह के बिना परिवर्तन संभव नहीं है और विद्रोह करना भी आसान नहीं। इसलिए उन्होंने आव्हान किया –

“आज नया इंसान बनने विद्रोही शुरुआत चाहिए !

वज्र शक्ति संकल्पना वाला विषपाई सुकरात चाहिए!!

आजादी की लड़ाई में कूद पड़ने की प्रेरणा उन्हें अपने  भावुक हृदय से मिली थी किंतु भावनाओं पर उनके मस्तिष्क का नियंत्रण भी था। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा तो लिया ही, इसके लिए लोगों को प्रेरित भी किया। उन दिनों उनके द्वारा लिखा गया गीत “खून की मांग” आज भी जन-मन में उत्साह उमंग का संचार करता है । ‘खून की मांग’ उनके अंतर्मन की एक चिंगारी थी जो ज्वाला में तब्दील होकर कविता के रूप में उतरी थी। उसी की एक झलक ..

खून चाहिए प्रेम पर पलती हुई जवान का

खून चाहिए हमें चिता पर जलती हुई जवान का

एक बात है एक मांग है मरघट आज जगा तो यारों

सर पर बांधे  कफन खड़ा हूँ  चलो कि आग लगा दो यारो ।

गुरु जी अब हमारे बीच नहीं हैं किंतु उनके आदर्श मार्ग दर्शक के रूप में हर कदम हमारे साथ हैं ..  सादर नमन।

——————————

डॉ. वंदना पाण्डेय 

प्राचार्य, सी. पी. महिला महाविद्यालय

संपर्क : 1132 /3 पचपेड़ी साउथ सिविल लाइंस, जबलपुर, म. प्र. मोबाइल नंबर :  883 964 2006 ई -मेल : [email protected]

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

स्व. पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”

☆ कहाँ गए वे लोग # ३० ☆

☆ हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

ऊँचा कद, गौर वर्ण, ज्ञान के प्रकाश से आलोकित मुखमंडल । ज्यादातर चूड़ीदार पाजामा और शेरवानी पहनना पसंद करने वाले पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर” न सिर्फ हिंदी और उर्दू साहित्य के वरन शिक्षा जगत के भी “नूर” थे । बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी नूर साहब का कार्य क्षेत्र बहुत व्यापक था । एक ओर वे प्रसिद्ध विधि शिक्षक, हितकारिणी विधि महाविद्यालय के प्राचार्य और वरिष्ठ अधिवक्ता थे, निःस्वार्थ समाजसेवी, देशभक्त, जबलपुर नगरनिगम के महापौर थे तो दूसरी ओर राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संवेदनशील कवि, शायर और साहित्यकार थे ।

5 दिसंबर 1915 को श्री गया प्रसाद श्रीवास्तव के यहां जन्मे पन्नालाल श्रीवास्तव जी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि व रचनात्मक प्रवृत्ति के थे । छात्र जीवन से ही उनकी साहित्य के प्रति अभिरुचि जाग्रत हो गई थी उन्होंने न केवल कविताएं लिखना वरन उर्दू एवं फारसी भाषाओं का अध्ययन भी प्रारंभ कर दिया था । वे अत्यंत सुंदर व स्पष्ट उर्दू लिखते थे । नूर साहब मेरे पिता स्मृति शेष लोक विज्ञानी, शिक्षाविद् डॉ, पूरनचंद श्रीवास्तव के निकटतम मित्र थे अतः मुझे उनका स्नेह-आशीर्वाद प्राप्त रहा । जब मैं नवभारत समाचार पत्र के साहित्य संपादन का दायित्व निभा रहा था तब मैंने नूर साहब की अति व्यस्तता के बावजूद उनसे प्रति सप्ताह एक गजल उर्दू लिपि में लिखवाकर हिंदी और उर्दू दोनों लिपियों में प्रकाशित की । इसे पाठकों ने अत्यंत सराहा । नूर साहब ने जबलपुर में ऑल इंडिया मुशायरे की शुरूआत कराई । उर्दू में उनकी महारात और उपलब्धियां देखते हुए मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी के गठन के समय उन्हें इसका सदस्य मनोनीत किया गया । नूर साहब ने जबलपुर नगर के उर्दू भाषा प्रेमियों से मिलकर उर्दू की एक प्रतिष्ठित संस्था “अंजुमन तरक्कीये” की स्थापना की थी । इस संस्था द्वारा नियमित रूप से मुशायरे का आयोजन होता था ।

नूर साहब एक बेहतरीन शायर – गज़लकार होने के साथ ही मधुर गीतकार भी थे । उनका पहला संग्रह “मंजिल – मंजिल” 1972 में, दूसरी कृति “लहरें और तिनके” गीत संग्रह 1990 में प्रकाशित हुई । नूर साहब ने “रूबाईयाते – खय्याम व ग़ज़लयाते – हाफ़िज़” के शानदार अनुवाद की पुस्तक भी प्रस्तुत की जो अत्यधिक चर्चित रही । कोलकाता विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के तत्कालीन प्रोफेसर डॉ, मुजफ्फर हनफी इकबाल ने लिखा था कि नूर साहब द्वारा प्रस्तुत खय्याम की रुबाइयों का यह हिंदी रूपांतरण पाठकों को बताएगा कि पुर्तगाली शराब और ठर्रे में क्या अंतर होता है ।

उर्दू – फारसी के पूर्व प्रोफेसर एवं साहित्यकार अब्दुल बाकी ने नूर साहब के बारे में लिखा है कि वे सही मायने में इंसान थे । बकौल रशीद अहमद सिद्दीकी अच्छे शायर की असल पहचान भी यही है । वह तालिब – इल्म के दौर से ही वतन की तहरीके – आजादी में हिस्सा लेने लगे थे और उनकी इल्मी व अदबी सरगर्मियों का सिलसिला शुरू हो गया । उन्होंने अपनी जिंदगी की राहें खुद मुतय्यन कीं । इल्म अपनी मेहनत से हासिल किया और अपने कूबते बाजू से बहुत दौलत कमाई फिर कामयाबी ने खुद बढ़ कर इनके कदम चूमे, वह अपने जज्बये – हुब्बे – वतन और इंसानी – दोस्ती की बिना पर मुल्क – कौम और इल्मो – अदब की अमली खिदमत में मशरूफ रहे । उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश उर्दू साहित्य अकादमी प्रति वर्ष प्रादेशिक स्तर पर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर” पुरस्कार (आत्मकथा, संस्मरण विधा में) प्रदान कर नूर जी की उपलब्धियों को स्मरण कर उन पर गौरव करती है ।

 उर्दू और हिंदी के श्रेष्ठ साहित्यकार के साथ ही लोग उनका विधि और उद्देश पूर्ण सेवाभावी राजनीतिज्ञ के रूप में सम्मान सहित स्मरण करते हैं ।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ मेरी यात्रा और वह पहला शॉल ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ संस्मरण ☆ मेरी यात्रा और वह पहला शॉल  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

इस यात्रा का वाकया आज से 45 वर्ष पुराना है।वह मेरा पहला कवि सम्मेलन था,जहाँ मुझे कुछ घंटों की यात्रा करके पहुँचना था,और रात में ही वापस लौटना था।

मैं आयोजित इस कवि सम्मेलन में भाग लेने ट्रेन से शाम पहुंच गया।देर रात तक कवि सम्मेलन चला ।मेरा काव्य पाठ अच्छा रहा था।मैं सम्मान में प्राप्त शॉल को सीने से लगाये कस्बे के स्टेशन पर पहुंच गया,जहाँ से वापिसी की ट्रेन अपने शहर को पकड़नी थी।

चूँकि ट्रेन लेट थी इसलिए मैं एक बेंच पर बैठकर इंतज़ार करने लगा।तभी मैंने देखा कि प्लेटफार्म के एक कोने में एक भिखारीनुमा वृद्ध आदमी लेटा है।उसके पास न तो गर्म कपड़े थे,और न ही उसने कुछ ओढ़ रखा था।वह कँपकँपा रहा था।मेरे मन में आया कि सम्मान में मिले शॉल को उसे उड़ा दूँ।पर दूसरे ही पल मन में आया कि वह जीवन में मिले सम्मान का पहला शॉल है।इस तरह उसे गँवा देना ठीक नहीं।मैं इसी उधेड़बुन में लगा था कि तभी ट्रेन आ गई।मैं अभी भी मानवता और स्वार्थ के बीच पशोपेश में था।तभी ट्रेन चलने लगी । मैं ट्रेन की ओर लपका,पर मेरे भीतर की करुणा ने यह सोचकर जोर मारा कि शॉल तो और मिल जाएंगे,पर वह वृद्ध सर्दी के कारण कहीं मर गया तो।यही सोचकर मैं वापस मुड़ा और शॉल उस वद्ध को उड़ाया और दौड़कर चढ़ गया।मुझे लगा कि मौसम गर्मा गया है,और मेरी सारी सर्दी फुर्र हो गई है।

उसके बाद शॉल तो मुझे अनेक मिले, यात्राएं  भी मैंने बहुत कीं,पर वह यात्रा और वह पहला शॉल मेरे भीतर एक ज़बरदस्त उत्साह बनाये रखते हैं।

💐 प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे जी को उनके जन्मदिवस पर ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से अशेष हार्दिक शुभकामनायें 💐

© प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

स्व. वसंत काशीकर

☆ कहाँ गए वे लोग # ३० ☆

☆ “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

‘कोरोना ने लील लिया एक चमकते सितारे – रंगकर्मी स्व. बसंत काशीकर को’

वसंत काशीकर जी, नाट्य जगत का जाना पहचाना नाम जिन्होंने अपनी नाट्य कला से संस्कारधानी जबलपुर के साथ पूरे देश मे हर दर्शक के दिल में अमिट छाप छोड़ी। जबलपुर में रंगमंच और रंगकर्म की एक लंबी और समृद्ध परंपरा रही है। नगर में अनेक नाट्य-संस्थाएं काम कर रही हैं और ये एक-दूसरे के समानांतर नहीं, बल्कि साथ-साथ हैं। भौतिकी का सर्वमान्य सिद्धांत है कि समानांतर क्रम में जुड़ने पर परिणामी प्रतिरोध कम हो जाता है और श्रेणी क्रम में यह इंडिजुअल्स के योग के बराबर हो जाता है। प्रतिरोध क्षमता बढ़ जाती है। सामने लहर बहुत बड़ी हो तो लोग हाथ जोड़कर श्रृंखलाबद्ध हो जाते हैं। समय के इस मोड़ पर जबलपुर की रंग संस्थाओं ने यही किया है। 

वसंत काशीकर जितने बड़े कलाकार थे उतने ही बड़े निर्देशक भी थे। रंगमंच के सम्पूर्ण क्राफ्ट पर उनकी पकड़ दिखायी देती थी। उन्होंने विवेचना के लिए कोई 30 से भी ज्यादा नाटकों का निर्देशन किया। उनके द्वारा निर्देशित प्रमुख नाटक हैं, मोटेराम का सत्याग्रह, रानी नागफनी की कहानी, पोस्टर, बैरिस्टर, महाब्राह्मण, दूसरी आजादी, सूपना का सपना, मनबोध बाबू, मायाजाल, एक मामूली आदमी, आँखों देखा गदर, मित्र और मौसाजी जैहिंद। सब लोगों के बीच वे मौसाजी जैहिंद बन गए थे। मौसाजी जैहिंद में उनका गजब का अभिनय था। 

काशीकर ने नाटक भी लिखे और कहानियों का नाट्य रूपांतर भी किया। हरिशंकर परसाई के फैंटेसी उपन्यास रानी नागफनी की कहानी और इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर जैसी रचनाओं का उन्होंने प्रभावी रूपांतर किया था। जब वे स्टेट बैंक में अधिकारी थे तो उनके निर्देशन में हरिशंकर परसाई के फैंटेसी उपन्यास रानी नागफनी के नाट्य रूपांतरण हमारा भी सहयोग रहा, नाटक को संगीतमय बनाने में और आंचलिक भाषा में हम लोगों ने मिलकर बीच-बीच में खूब गीत बना कर डाले थे। भोपाल में रवींद्र भवन में मंचन के बाद बेस्ट नाटक का अवार्ड भी मिला था, याद आता है उन दिनों का स्टेट बैंक नाट्य समारोह… 

स्टेट बैंक द्वारा तीन दिवसीय नाट्य स्पर्धा समारोह का आयोजन होता था। सन 1984 में भारतीय स्टेट बैंक ने प्रदेश में स्थापित अपने क्षेत्रीय कार्यालयों एवं स्थानीय प्रधान कार्यालयों के कर्मचारियों के बीच राजभाषा मास के अंतर्गत नाट्य स्पर्धा की शुरुआत की जो अनवरत 25 वर्षों से अधिक चलती रही।इस नाट्य समारोह के प्रणेता श्री एच, एम, शारदा ( सेवानिवृत्त मुख्य महाप्रबंधक ) थे। उन्होंने अपने रायपुर में पदस्थापना के समय स्टेट बैंक नाट्य मंच की स्थापना की थी। श्री शारदा स्वयं “पारिजात ” नाम से अपना लेखन कार्य करते थे। इस नाट्य समारोह में नाटकों की प्रस्तुति किसी पेशेवर कलाकारों से कम नहीं होती थी। इस समारोह का नगर के नाट्य प्रेमियों में आकर्षण बढ़ता चला गया। स्टेट बैंक का नाट्य समारोह भोपाल के लिए इतना लोकप्रिय हो गया कि प्रतिवर्ष राजभाषा मास आते ही नाट्य प्रेमियों के लिए इसकी प्रतीक्षा और उत्सुकता रहती। नाट्य कर्मी महीनों पहले से उसकी तैयारी में जुट जाते। प्रबंधन की ओर से सभी आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध करायी जाती थी। यह स्पर्धा रायपुर, जबलपुर, ग्वालियर, भोपाल आंचलिक कार्यालयों की शाखाओं एवं स्थानीय प्रधान कार्यालय के कर्मचारियों के मध्य आयोजित होती थी। स्टेट बैंक नाट्य समारोह में सैया भये कोतवाल, निर्णय रुका हुआ, दुलारी बाई, एक था गधा, हमीर की सुबह, सूर्यास्त, चेतना घात, रात्री भोज, कफ़न, मारीच वध, रामलीला, संध्या छाया जैसे आदि लोकप्रिय नाटकों का मंचन किया गया। इन समारोहों में प्रसिद्ध रंगकर्मीं एवं निर्देशक बंसी कौल, राजेंद्र गुप्ता, हबीब तनवीर, प्रभात गांगुली, एम, के, रैना, अलखनंदन, राजीव वर्मा, जयंत देशमुख, आलोक चटर्जी, जावेद जैदी, सतीश मेहता, संजय मेहता, अनूप जोशी, पापिया आंटी, सरोज शर्मा, स्वस्तिक चक्रवर्ती जैसे स्वनामधन्य नाट्य जगत की हस्तियां साक्षी बनी और निर्णायक की भूमिका रही है। स्टेट बैंक नाट्य समारोह ने जो कलाकार भोपाल के नाट्य जगत को दिए वे आज भी सक्रिय है। बसंत काशीकर के निर्देशन में जबलपुर आंचलिक कार्यालय का नाट्य दल इस समारोह में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेता था और डंके की चोट में अनेक पुरस्कार सम्मान लेकर नाट्य समारोह से लौटता था। नाटकों में संगीत, गायन और मंच सज्जा भी बैंक कर्मियों द्वारा ही की जाती थी। जबलपुर आंचलिक कार्यालय के नाटक को देखने खूब भीड़ उमड़ती थी। इस नाट्य समारोह ने बड़े बड़े रंगकर्मी और नाट्य निर्देशक दिए जिन्होंने फिल्मी दुनिया में भी खूब नाम कमाया।

मराठी संस्कृति और संस्कारों के कारण काशीकर का कला के प्रति स्वाभाविक रुझान था। सादगी भरा जीवन था और उनका मित्र संसार बड़ा था। परस्परता उनका स्वभाव था। अहंकार और अकड़ न थी। सहजता थी। जुटकर काम करने की आदत थी। प्रायः यह देखने में आता है कि जो कला के किसी क्षेत्र में गहरे उतर जाते हैं, वे अपने अन्य दायित्वों की तरफ पीठ कर लेते हैं, पर उन्होंने पारिवारिक जिम्मेदारियों से कभी मुख नहीं मोड़ा। जब वे अभिनय करते थे, तो उनका सर्वांग बोलने लगता था। संवाद भर उनके किरदार को नहीं खोलते थे, बल्कि उनका अंग-संचालन और हाव-भाव भी किरदार को जीवंत बनाने के काम में सन्नद्ध हो जाया करते थे। लेखक की रचना को मंच पर साकार करने और उसकी व्यंजनाओं को डिकोड करने का काम उन्होंने अंजाम दिया। कला की जीवन के साथ संगति बैठाई। यह कठिन काम है, पर काशीकर ने यह काम दिल से ईमानदारी से करके दिखाया।

नाट्य जगत का चमकता सितारा जिसने अपनी नाट्य कला से संस्कारधानी जबलपुर के हर दर्शक के दिल में अमिट छाप छोड़ी । प्रदेश ही नहीं बल्कि भारत के विभिन्न प्रांतों में जाकर अपनी कला से लोगों को सम्मोहित करने वाला हसमुख स्वभाव के धनी भाई बसंत काशीकर को दिनांक १४ मई २०२१ को कोरोना ने लील लिया और वे नश्वर देह त्याग कर परमपिता में समाहित हो गये।

श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

डॉ. नंद किशोर पाण्डेय

☆ कहाँ गए वे लोग # २९ ☆

☆ सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

सौम्य-आकर्षक व्यक्तित्व एवं प्रभावशाली वाणी के धनी डॉ. नंद किशोर पाण्डेय अपनी सरलता, सहजता, मिलनसारिता एवं विद्वता के लिए न सिर्फ अपने विद्यार्थियों, सहयोगियों के  वरन सम्पूर्ण समाज के प्रिय एवं आदरणीय थे। डॉ. पाण्डेय ने अर्थ शास्त्र में एम. ए. करने के उपरांत “स्वतंत्रता के पश्चात सहकारी आंदोलन के प्रति राज्य की नीति” विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। डॉ. पाण्डेय ने विभिन्न अवसरों पर अपने भाषणों, वक्तव्यों एवं लेखन के माध्यम से सहकारिता द्वारा सम्पूर्ण विकास पर अपने चिंतन को प्रस्तुत किया।

डॉ. पाण्डेय ने जी. एस. कामर्स कालेज, जबलपुर में आचार्य, विभागाध्यक्ष एवं प्राचार्य पद पर रहते हुए विद्यार्थियों सहित वाणिज्य एवं सहकारिता क्षेत्र को चिंतन की नई दिशा व ऊर्जा प्रदान की। डॉ. पाण्डेय रानी दुर्गावती वि.वि., जबलपुर सहित वाणिज्य संकाय ग्रामोदय वि.वि. चित्रकूट, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वि.वि. नई दिल्ली व भोजपुर, गुरु घासीदास वि.वि. रायपुर एवं रीवा, सागर तथा भोपाल विश्वविद्यालयों में अर्थशास्त्र एवं वाणिज्य से संबंधित महत्वपूर्ण समितियों एवं पदों पर रहे। किसी विषय में गहरे उतर कर उसका तर्क पूर्वक विश्लेषण और फिर सहज सुपाच्य समाधान प्रस्तुत करना उनका कौशल था।

छत्तीसगढ़ स्थित बिलासपुर के निकट ग्राम गनियारी में 22 अगस्त 1932 को जन्मे डॉ. नंद किशोर पाण्डेय ने अपने पिता श्री ए.एल. पाण्डेय से प्राप्त शिक्षा स्पष्टवादिता, ईमानदारी, शोषण का विरोध और पीड़ितों की मदद  को जीवन का हिस्सा बना लिया। उन्होंने अशासकीय महाविद्यालयीन प्राध्यापक संघ के पदाधिकारी के रूप में शिक्षकों के हितों के लिए सार्थक संघर्ष किया। वे प्रदेश भर के शिक्षकों में जितने लोकप्रिय थे उतना ही स्नेह और सम्मान उन्हें सदा अपने छात्रों से भी प्राप्त हुआ। उनके एक छात्र और सहकारिता क्षेत्र के विशेषज्ञ श्री यशोवर्धन पाठक ने लिखा है कि लोग उनके व्याख्यान और लेखन में डूब जाया करते थे। उनके विषय में कहा जाता था कि डॉ. पाण्डेय बोलें या लिखें सब कुछ अच्छा लगता है। 18 मार्च 1998 को जबलपुर के डी.एन. जैन महाविद्यालय में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी थी जिसकी अध्यक्षता डॉ. पाण्डेय ने की। पाण्डेय जी ने उद्बोधन दिया, लोगों से प्रशंसा व स्नेह प्राप्त किया और कार्यक्रम की समाप्ति पर ही अचानक हृदयाघात से उनका निधन हो गया। लोगों ने एक विद्वान चिंतक व हितैषी खो दिया।

विद्वतजनों के अनुसार डॉ. पाण्डेय के पास हमेशा जटिल प्रश्नों के आसान जवाब होते थे। संभवतः यही कारण था कि चाहे विद्यार्थी हों अथवा साथी डॉ. पाण्डेय का सत्संग उन्हें तनाव मुक्त कर नई स्फूर्ति से भर देता था। उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं – 1* सहकारी नेतृत्व, सहकारी नीति, सहकारी आंदोलन  2* सहकारी नेतृत्व और को- आपरेटिव प्लानिंग फॉर एग्रीकल्चर एंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट, चिंतन सूत्र। पाण्डेय जी ने तथ्य परक और शोध पूर्ण सैकड़ों लेख लिखे जो देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए, आकाशवाणी से प्रसारित हुए। आपके कुछ आलेख आपकी विदुषी सुपुत्री डॉ. वंदना पाण्डेय द्वारा संपादित पुस्तक “दृष्टिकोण” में संग्रहित हैं। रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के पूर्व कुलपति डॉ. कपिलदेव मिश्र ने लिखा है कि उन्हें डॉ. पाण्डेय की सहजता, सरलता, सौम्यता, ज्ञान-गरिमा, कर्म निष्ठा, अनुभव शीलता एवं मौलिकता से परिचित होने का अवसर महात्मा गांधी ग्रामोदय चित्रकूट विश्वविद्यालय में मिला जब वे वहां वाणिज्य विभाग के विभागाध्यक्ष एवं अधिष्ठाता थे। सुप्रसिद्ध साहित्यकार, चिंतक डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी के अनुसार डॉ. पाण्डेय शीलवान संस्कारी और बौद्धिक चेतना सम्पन्न व्यक्ति थे। वे गंभीर समीक्षक-विश्लेषक थे।

उपदेश देने के बजाय समाज के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत करने वाले स्मृति शेष विद्वान शिक्षाविद् डॉ. नंद किशोर पाण्डेय जी को सादर नमन।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं – “पद्मश्री शरद जोशी”)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

पद्मश्री श्री शरद जोशी

(जन्म – 21 मई 1931- निधन – 5 सितंबर 1991)

☆ कहाँ गए वे लोग # २८ ☆

☆ पद्मश्री श्री शरद जोशी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

शरद जोशी जी ने एक जगह लिखा है…

“पृथ्वी पर जन्म लेने के समय खुद ईश्वर अपने लिए ऐसा बाप छांटता है जो खाता कमाता और सुखी हो। अक्सर ही ईश्वर ने राजा के घर जन्म लिया है, उससे कई सहूलियतें रहतीं हैं…” 

ऐसे महान व्यंग्यकार शरद जोशी का जन्म 21 मई 1931 को उज्जैन, मध्य प्रदेश में श्रीनिवास और संतोषी जोशी के परिवार में दूसरी संतान के रूप में हुआ था। उनकी चार बेटियाँ हैं। शरद जी को बचपन से ही लेखन में दिलचस्पी थी।

उन्होंने  इंदौर के होलकर कॉलेज से बी.ए. किया था।

शरद जोशी जी ने इंदौर में समाचार पत्रों और रेडियो के लिए लिखने से अपने करियर की शुरुआत की, जहां उनकी मिलस्कात इरफाना सिद्दीकी से हुई, जिनसे उन्होने बाद में शादी की।  

वे हिंदी के महान कवि, लेखक, व्यंग्यकार और हिंदी फिल्मों और टेलीविजन के संवाद और पटकथा लेखक थे। उनके लघु व्यंग्य लेख प्रमुख हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं में प्रकाशित किए गए, जिनमें नई दूनिया, धर्मयुग, रविवार, सप्तक, हिंदुस्तान, कादंबनी और ज्ञानोदय शामिल हैं।  नवभारत टाइम्स में उनके दैनिक कॉलम “प्रतिदिन” को सात साल तक प्रकाशित किया गया और देखते देखते अखबार हाथों हाथ बिकने लगा, लोग सबसे पहले प्रतिदिन कालम पढ़ते थे।

बहुत पहले आदरणीय शरद जोशी जी “रचना”  संस्था के आयोजन में परसाई की नगरी जबलपुर में मुख्य अतिथि बनकर आए थे, हम उन दिनों “रचना ” के संयोजक के रूप में सहयोग करते थे। 

“रचना” साहित्यिक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था का मान था उन दिनों। हर रंगपंचमी पर राष्ट्रीय स्तर के हास्य व्यंग्य के ख्यातिलब्ध हस्ताक्षर आमंत्रित किए जाते थे। हम लोगों ने आदरणीय शरद जोशी जी को रसल चौक स्थित उत्सव होटल में रूकवाया था, “व्यंग्य की दशा और दिशा” विषय पर केंद्रित इस कार्यक्रम के वे मुख्य अतिथि थे। व्यंग्य विधा के इस आयोजन के प्रथम सत्र में ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई जी की रचनाओं पर आधारित रेखाचित्रों की प्रदर्शनी का उदघाटन करते हुए जोशी जी ने कहा था- “मैं भाग्यवान हूं कि परसाई के शहर में परसाई की रचनाओं पर आधारित  रेखाचित्र प्रदर्शनी के उदघाटन का सुअवसर मिला, फिर उन्होंने परसाई की सभी रचनाओं को घूम घूम कर पढ़ा हंसते रहे और हंसाते रहे। ख्यातिलब्ध चित्रकार श्री अवधेश बाजपेयी की पीठ ठोंकी, खूब तारीफ की। व्यंग्य विधा की बारीकियों पर उभरते लेखकों से लंबी बातचीत की। शाम को जब होटल के कमरे में वापस लौटे फिर दिल्ली के अखबार के लिए ‘प्रतिदिन ‘कालम लिखा, हमें डाक से भेजने के लिए दिया। स्थानीय साहित्यकारों के साथ थोड़ी देर चर्चा की, फिर टीवी देखते देखते सो गए।”

उन्होंने चौदह पुस्तकें लिखीं: परिक्रमा, केसी बहेन, तिलस्म, जीप पार संवार इल्लियां, राह किनारे बैठ, मेरी श्रेष्ठ रचनाएँ, दूसरी कथा, यथा संभव, यत्र तत्र सर्वत्र, यथा समा, हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे,  और प्रतिदिन 3भागों में। उनकी पुस्तकें जीप पर संवार इल्लियां ’सरकारी अधिकारियों पर एक जबरदस्त व्यंग्य है।

उनके लिखे नाटक-

अंधों का हाथी,एक था गधा उर्फ़ अलादत खान।  यह व्यंग्य नाटक पिछले दशक के सबसे लोकप्रिय नाटकों में से एक था।

संवाद लेखक के रूप में फिल्मोग्राफी:

  • क्षितिज (1974)
  • छोटी सी बात (1975)
  • सांच को आंच नहीं (1979)
  • गोधुली (1977)
  • चोरनी (1982)
  • उत्सव (1984)
  • मेरा दमाद (1990)
  • दिल है कि मानता नहीं (1991)
  • उदान (1997)

टीवी धारावाहिक–

  • ये जो है जिंदगी (1984-85)
  • विक्रम और वेताल
  • वाह जनाब
  • दाने अनार के
  • श्रीमती जी
  • सिंहासन बत्तीसी
  • ये दुनीया है गजब की
  • प्याले माई तोफान
  • गुलदस्ता
  • लापतागंज (2009)

शरद जोशी जी ने कवियों के चरित्र को देखते हुए  इस कविता में शब्दों को जोड़-तोड़ कर कविता लिखने वालों पर करारा व्यंग्य किया था: 

‘च’ ने चिड़िया पर कविता लिखी।

उसे देख ‘छ’ और ‘ज’ ने चिड़िया पर  कविता लिखी।

तब त, थ, द, ध, न, ने

फिर प, फ, ब, भ और म, ने

‘य’ ने, ‘र’ ने, ‘ल’ ने

इस तरह युवा कविता की बारहखड़ी के सारे सदस्यों ने

चिड़िया पर कविता लिखी।

चिड़िया बेचारी परेशान

उड़े तो कविता

न उड़े तो कविता।

तार पर बैठी हो या आँगन में   

डाल पर बैठी हो या मुंडेर पर

कविता से बचना, मुश्किल

मारे शरम मरी जाए।

एक तो नंगी,

ऊपर से कवियों की नज़र

क्या करे, कहाँ जाए

बेचारी अपनी जात भूल गई

घर भूल गई, घोंसला भूल गई

कविता का क्या करे

ओढ़े कि बिछाए, फेंके कि खाए

मरी जाए कविता के मारे

नासपिटे कवि घूरते रहें रात-दिन।

एक दिन सोचा चिड़िया ने

कविता में ज़िन्दगी जीने से तो मौत अच्छी।

मर गई चिड़िया

बच गई कविता।

कवियों का क्या,

वे दूसरी तरफ़ देखने लगे।”

……

शरद जोशी ने अपनी स्पष्ट और पृथक पहचान बनाई थी। शरद जोशी ने इस कदर धुआंधार लेखन किया कि हजारों की संख्या में रचनाओं का अम्बार खड़ा कर दिया। उनकी इन रचनाओं की शैली परसाई की लेखन शैली से भिन्न थी। शरद जोशी ने अपने व्यंग्य के नये शिल्प इस तरह गढ़े कि बाद के लेखकों में उनका प्रभाव व अनुसरण अधिक दिखने लगा।परसाई का लेखन अपने किस्म का एक फौजदारी मामला लगता था जबकि शरदजी किसी प्रकार के खून खराबे से बचकर मामले को दीवानी बनाए रखने के पक्षधर लगते थे।

परसाई से कम उम्र होने के बाद भी शरद जोशी पहले दिवंगत हो गए थे तब मध्य प्रदेश साहित्य परिषद ने उनके नाम से व्यंग्य लेखन के लिए ‘शरद जोशी पुरस्कार’ रखा। यह पहला शरद जोशी सम्मान श्रेष्ठ व्यंग्य लेखन के हरिशंकर परसाई को दिया गया था। इस विडंबना पूर्ण उपलब्धि को परसाई जी ने प्राप्त किया था।  परसाई व्यंग्य के प्रथम पुरुष थे पर खुद को व्यंग्यकार कहलवाने का आग्रह उनमें नहीं था। यह आग्रह शरद जोशी में भी नहीं रहा होगा पर उनके पाठक उनके नाम के आगे व्यंग्यकार का विशेषण किसी विभूषण की तरह लगाने लगे और वे ‘व्यंग्यकार शरद जोशी’ कहलाने लगे थे। 

श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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