हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 94 – जब भी विश्वास पास आते हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – जब भी विश्वास पास आते हैं।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 94 – जब भी विश्वास पास आते हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

आप जब मेरे पास आते हैं 

जैसे मय के गिलास आते हैं

*

कितनी बाधाएँ पार की हमने 

याद, सारे प्रयास आते हैं

*

सहने पड़ते हैं, पतझरों के दिन 

तब, बहारों के मास आते हैं

*

नींद के साथ, रात में मुझको 

स्वप्न तेरे ही खास आते हैं

*

छोड़ मन, आप सिर्फ तन लेकर 

कितने चिंतित-उदास आते हैं

*

गुफ्तगू उनसे हो भला कैसे 

छोड़ बाहर, मिठास आते हैं

*

सार्थक तो मिलन तभी होता 

जब भी, विश्वास पास आते हैं

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 168 –सजल – मानवता से बड़ा न कुछ भी… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सजल – मानवता से बड़ा न कुछ भी…” । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 168 – सजल- मानवता से बड़ा न कुछ भी… ☆

(समांत – अनापदांत – है, मात्रा भार – 16)

स्वाभिमान अब बहुत घना है।

भारत उन्नत देश बना है।।

माना सदियों रही गुलामी।

शोषण से हर हाथ सना है।।

 *

सद्भावों के पंख उगाकर।

दिया बसेरा बड़ा तना है।।

 *

आक्रांताओं ने भी लूटा।

इतिहासों का यह कहना है।।

 *

झूठ-फरेबी बहसें चलतीं।

कहना सुनना नहीं मना है।।

 *

रहें सुर्खियों में हम ही हम।

समाचार शीर्षक बनना है।।

 *

मानवता से बड़ा न कुछ भी।

इसी मार्ग पर ही चलना है।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

25/3/25

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 173 ☆ “ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछ” – व्यंग्यकार… श्री प्रियदर्शी खैरा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री प्रियदर्शी खैरा जी द्वारा लिखित  “ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 173 ☆

☆ “ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछ” – व्यंग्यकार… श्री प्रियदर्शी खैरा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

व्यंग्य संग्रह …ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछ

व्यंग्यकार … श्री प्रियदर्शी खैरा

प्रकाशक भारतीय साहित्य संग्रह कानपुर

मूल्य ४०० रु, पृष्ठ १९२

“दाढ़ी से बड़ी मूँछ “ किताब का शीर्षक ही सहज ध्यानाकर्षक है। हरिशंकर परसाई जी ने शीर्षक के बारे में कई महत्वपूर्ण व्यंग्यात्मक बातें लिखी हैं। परसाई लिखते है कि “विषय पर निबंध का शीर्षक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पाठकों को सामग्री के बारे में पहले से ही सूचित करता है और उनमें उत्सुकता पैदा करता है। ” “शीर्षक निबंध, जिसके आधार पर पूरी पुस्तक का नामकरण किया गया है, आज के इस ज्वलन्त सत्य को उद्घाटित करता है कि सभी लोग किसी-न-किसी तरह शॉर्टकट के चक्कर में हैं”। प्रियदर्शी खैरा जी की कृति पर चर्चा करते हुये, परसाई जी को उधृत करने का आशय मात्र इतना है कि बढ़िया गेटअप, हास्य प्रमुदित करता, शीर्षक को परिभाषित करता आवरण चित्र और संग्रहित निबंधो को शार्टकट स्वरूप में ध्वनित करता शीर्षक “दाढ़ी से बड़ी मूँछ ” पाठक को यह समझाने के लिये पर्याप्त है कि भीतर के पृष्ठों पर उसे हास्य सम्मिश्रित व्यंग्य पढ़ने मिलेगा।

अनुक्रमणिका में  “गज़ब की सकारात्मकता”, भक्त से भगवान, ट्रेन टिकट और चुनाव टिकट, चन्द्रमा का पृथ्वी भ्रमण, नेता, अफसर और देश, एक एंकर की उदय कथा, चमत्कार को नमस्कार है, अथ आत्मकथा माहात्म्य, टोटका-माहात्म्य, अथ चरण पादुका माहात्म्य, सचिवालय-महिमा पुराण, खादी और सपने, सब जल्दी में हैं, छेदी काका बनाम सुक्खन भैया, आयकर, सेवाकर और प्रोफेसर, त्रिया भाग्यम्, पुरुषस्य चरित्रम्, योग, संयोग और दुर्योग, पी पी पी मोड में श्मशान घाट, जैसे शीर्षक पढ़ने के बाद कोई भी पाठक जो व्यंग्य में दिलचस्पी रखता है किताब में रुचि लेने से स्वयं को रोक नहीं पायेगा। इन शीर्षको से यह भी स्पष्ट होता है कि खैरा जी ने हिन्दी वांग्मय तथा साहित्य खूब पढ़ा है, और भीतर तक उससे प्रभावित हैं, तभी अनेक रचनाओ के शीर्षको में अथ कथा, महात्म्य, जैसे प्रयोग उन्होने किये हैं। ये रचनायें पढ़ने पर समझ आता है कि उन्होने विषय का पूरा निर्वाह सफलता से किया है।

पन्ने अलटते पलटते मेरी नजर “हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा होय”, एवरेस्ट पर ट्रैफिक जाम, गजब की सकारात्मकता पर ठहर गई। खैरा जी लिखते हैं …” हिंदुस्तानी गजब के सकारात्मक हैं। हम चर्चा क्रांति में विश्वास रखते हैं, फिर जो होता है उसे ईश्वर की इच्छा मानकर यथारूप में स्वीकार कर लेते हैं। अब यदि पुत्री ने जन्म लिया तो लक्ष्मी आ गई, और पुत्र हुआ तो कन्हैया आ गए। यदि संतान पढ़ लिखकर बाहर चली गई तो खानदान का नाम रोशन कर दिया, यदि घर पर रह गई तो अच्छा हुआ, नहीं तो घर कौन संभालता। ” आगे वे लिखते हैं .. हमारे गाँव में एक चिर कुंवारे थे, जहाँ खाना मिल जाता, वहीं खा लेते, नहीं मिलता तो व्रत रख लेते। पूछने वालों को व्रत के लाभ भी गिना देते, जैसे कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए उपवास जरूरी है। हमारे मनीषियों ने सप्ताह के सात दिन के नाम किसी न किसी देवी देवता के नाम पर ऐसे ही नहीं रखे हैं, उसके पीछे दर्शन है, व्रत के साथ-साथ उनकी आराधना भी हो जाती है, इस लोक का समय कट जाता है और परलोक भी सुधर जाता है। अगर इसी बीच उन्हें भोजन मिल जाता तो ऊपर वाले की कृपा और आशीर्वाद मानकर ग्रहण भी कर लेते थे। मतलब हर बात में सकारात्मक।

  इसी तरह, कोरोना काल में लिखे गये किताब के शीर्षक व्यंग्य “दाढ़ी से बड़ी मूँछ ” से अंश देखिये … मैंने कुर्सी पर बैठते हुए मुस्कुराते हुए पूछा, “क्यों भई, बरसात तो है नहीं, पर तुम छत के नीचे बरसाती पहने क्यों बैठे हो? क्या छत में लीकेज है?””सर, आप नहीं समझोगे, कोरोना अभी गया नहीं, ये सब कोरोना से आप की सुरक्षा के लिए है। कोविड काल में सब शरीर की मरम्मत में लगे हैं, छत की मरम्मत अगले साल कराएँगे, धंधा मंदा है। ” उसने उत्तर देते हुए हजामत करना प्रारंभ कर दिया। तभी मेरी दृष्टि सामने टंगी दर सूची पर गई तो होश उड़ गए, मैंने पूछा, “भाई साहब, पहले हजामत के सौ रुपए लगते थे और अब तीन सौ !”सर, आप की सुरक्षा के लिए, हजामत के तो सौ रुपए ही हैं, दो सौ रुपए पीपीई किट के हैं। अस्पताल वाले हजार जोड़ते हैं, आप कुछ नहीं कहते, हमारे दो सौ भी आपको ज्यादा लगते हैं। ” उसने उत्तर दिया। मैं क्या करता अब उठ भी नहीं सकता था, आधी हजामत हो चुकी थी। हजामत करते करते उसने पूछा, “सर, आपके पिताजी हैं?” मैंने उत्तर दिया, “नहीं’। ” “फिर तो आप मुंडन करा लेते तो अच्छा रहता, छः माह के लिए फ्री, आपके भी पैसे बचते, और हम भी आपके उलझे हुए बालों में नहीं उलझते। ” वह मुस्कुराते हुए बोला।

इतना पढ़कर पाठक समझ रहे होंगे कि व्यंग्य में हास्य के संपुट मिलाना, रोजमर्रा की लोकभाषा में लेखन, सहज सरल वाक्य विन्यास होते हुये भी चमत्कृत करने वाली लेखन शैली, व्यंग्य लेखन के विषय का चयन तथा उसका अंत तक न्यायिक निर्वाह प्रियदर्शी खैरा जी की विशेषता है। वे स्तंभ लेखन कर चुके हैं। कविता, गजल, व्यंग्य विधाओ में सतत लिखते हैं, कई साहित्यिक संस्थाओ से संबद्ध हैं। अर्थात उनका अनुभव संसार व्यापक है। श्मशान को पी पी पी मोड पर चला कर उसका विकास करने जैसे व्यंग्यात्मक विचारों पर कलम चलाने का माद्दा उनमें है।

शब्द अमूल्य होते हैं यह सही है, किन्तु “ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछ” में मुझे पुस्तक के अपेक्षाकृत अधिक मूल्य के अतिरिक्त सब कुछ बहुत बढ़िया लगा। मैंने किताब को ई स्वरूप में पढ़ा है। मुझे भरोसा है कि इसे प्रिंट रूप में काउच में लेटे हुये चाय की चुस्की के साथ पढ़ने में ज्यादा मजा आयेगा। किताब अमेजन, फ्लिपकार्ट आदि पर सुलभ है तो देर किस बात की है, यदि इस पुस्तक चर्चा से आपकी उत्सुकता जागी है तो किताब बुलाईये और पढ़िये। आपकी व्यय की गई राशि से ज्यादा आनंद मिलेगा यह सुनिश्चित है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 221 – भक्ति रस ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है अप्रतिम आलेख “भक्ति रस”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 221 ☆

🌻आलेख🌻 🪔भक्ति रस 🪔

क्षिति जल पावक गगन समीरा।

पंच रचित अति अधम शरीरा।।

यही हमारे शरीर की संरचना है। इसी शरीर को स्वस्थ निरोगी और विद्यमान रखने के लिए अनेकों प्रकार के संसाधन किए जाते हैं। सृष्टि विधाता ने अपने विधान से इस चार युगों में बाँटे हैं – सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलयुग।

सतयुग ऋषि मुनि संतों का युग जहाँ वचन से श्राप और उन्नति का माप हो जाता था। बड़े से बड़े कार्य सिर्फ वचन के आधार पर ही स्थापित और विध्वंस हो जाते थे। इसे देवों का काल भी कहा जाता है।

त्रेता युग प्रभु श्री राम का अवतार और जहाँ मर्यादा का पाठ सर्वोपरि माना गया। इस युग में नारायण श्री हरि स्वयं धरा पर आए। सत्य, निष्ठा, वचन, धर्म – कर्म, मर्यादा का पालन करना सीखा गए। ऐसी लीला प्रभु की  जो स्थान भगवान राम को मिला अन्यत्र किसी को दुर्लभ हुआ।

द्वापर युग में प्रभु नारायण अपने ही रूप को मानव के समूल चरित्र को अंगीकृत करते और लीला रचते श्री कृष्ण के रूप में जगत में आए। बाल लीला और छलिया अंतर केवल ब्रह्म ऋषि और वेद शास्त्र ने जाना। वरन सृष्टि में सांसारिक लीला रचते मानवीय मूल्यों का अपने और पराय धर्म और धर्म का ज्ञान सीख गए। युग परिवर्तन होता गया।

कलयुग का आरंभ हुआ जिसे हम वर्तमान में कलयुग चल रहा कहते हैं।

सभी युगों में भगवान की प्रति निष्ठा, श्रद्धा, सेवा, आस्था, साकार निराकार और भक्ति से हमारे पूर्वजों ने अपने-अपने मन को शांत किया। किसी ने तप, किसी ने जप, किसी ने यज्ञ हवन और किसी ने संगीत किसी ने मन के भावों को प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में प्रदर्शित कर प्रभु की आराधना करते चले गए।

वेदव्यास जी के द्वारा महान ग्रथों की स्थापना हुई। चार वेद असंख्य ग्रंथ और तुलसी रचित रामायण ने अखंड अमित श्री राम चरित्र रामायण की रचना की।

वर्तमान काल, भूतकाल, भविष्य काल, आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल, वीरगाथा काल, पूर्व मध्यकाल, उत्तर मध्यकाल इन सभी में समय परिवर्तन धीरे-धीरे होता गया और इन सभी में समानता सामान्य यह रही की सभी ने अपने-अपने मन के भावों को उजागर किया।

आधुनिक काल में गद्य और पद्य दो विधाओं का विकास हुआ। काव्य धारा बहती गई। छाया युग, प्रगति युग, प्रयोग युग, यथार्थ युग।

गद्य में भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, रामचंद्र शुक्ल युग, प्रेमचंद युग, अघतन युग।

डॉ रामचंद्र शुक्ल ने वीरगाथा काल भक्ति, काल रीतिकाल, और आधुनिक काल का विभाजन किया। जिसे आज भी सर्वोपरि माना जाता है। आधुनिक डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल का विभाजन किया।

डॉक्टर नाम वर सिंह ने आदिकाल, भक्ति काल, रीतिकाल, और उत्तर रीतिकाल, आधुनिक काल, को विभाजित किया।

भक्ति काल संपूर्ण सृष्टि में हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग रहा। इसकी सीमा कल 1375 से 1700 मानी जाती है। इसमें भक्ति के जरिए समाज का सुधार उध्दार और एक नई दिशा प्रदान करने का सामर्थ बढा।

जनमानस तक पहुंचाने का मार्ग माध्यम बना। इस कल में निर्गुण उपासना और सगुण उपासना दोनों तरह के भक्त और साहित्यकार हुए।

भक्ति काल में मुख्य रूप से तुलसीदास, कबीर दास, रहीम, मीरा, रसखान मलिक, मोहम्मद जायसी, सूरदास, आदि महान संत हुए।

भक्ति काल के मुख्य मार्ग सगुण भक्ति मार्ग राम भक्ति एवं कृष्ण भक्ति।

दूसरा निर्गुण भक्ति मार्ग ज्ञानमार्गी एवं प्रेम मार्गी।

भक्ति काल पूर्ण रूप से प्रभु के प्रति भक्ति की भावना से प्रेरित रहा। भक्ति काल में भक्त प्रेम और भक्ति की प्रधानता रही।

” एक राधा एक मीरा दोनों ने श्याम को चाहा”

“चाह मीरा थी गिरधर दीवानी बनी।

चाह राधा श्री मोहन की प्यारी बनी”।।

इस भाव से भी हम इसे ज्यादा समझ सकते हैं। संसार में राधा कृष्ण की जोड़ी सिर्फ निश्छल प्रेम को स्थापित करती है। वहीं पर राजघराने की मीरा केवल भक्ति रूप में कृष्ण को मानसिक पति के रूप में पूजती रही।

उन्हें पाने या आत्मसमर्पण की भावना कभी भी विद्यमान नहीं दिखती। संत समागम और गुरु की महत्ता भी कूट-कूट कर भक्ति काल में समाहित हुई।

कबीर और सूरदास की रचनाओं में आज भी मनुष्य डूब कर प्रभु के साकार रूप के दर्शन करता है। जहाँ सूरदास जी काव्य संरचना में भगवान के श्रृंगार सहित सभी अंग आभूषण का वर्णन करते हैं।

वही कबीर दास जी पत्थर की चक्की को पूजने की बात कहतेहैं।

जिससे जीवन जीने की कला और मानव के भूख पेट की शांति होती है।

पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहार।

इससे तो चाकी भली पीस खाए संसार।।

 जहाँ कबीर दास जी की चक्की का वर्णन वही आज भी लोगों की धारणा है कि मीरा की भक्ति की वजह से प्रभु कृष्ण जी पत्थर की मूर्ति में स्वयं मीरा समा गई थी।

“जा की रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तीन तैसी”

 भक्ति काल में प्रभु नाम संस्मरण को  प्रथम उपाय माना गया। प्रभु भगवन प्राप्ति का महर्षि वाल्मीकि जी ने राम का नाम उल्टा जपा और स्वयं ब्रह्मा के समान हुए। पहले रत्नाकर दास नाम के डाकू थे जो केवल छीन झपट मार काट कर खाना जानते थे।

उल्टा नाम जपा जग जाना।

बाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।।

 भक्ति काल में राधा और मीरा भगवान कृष्ण की अन्नय भक्त है। एक नारी जब नर नारायण को चाहती पूजा करती या प्रेम समर्पण की भावना रखती है। तो वह किसी न किसी रूप में उसे पाना चाहती है।

राधा ने प्रभु कृष्ण को प्रेम की परिभाषा में रंगी। वही मीरा ने प्रेम को ही कृष्ण के रूप में स्वीकार किया था।

जहाँ पर  किसी प्रकार का कोई भेद नहीं सिर्फ प्रेम और प्रेम भक्ति का ही एक रूप है होता है।

राधा जानती थी कि कृष्णा मेरा है परंतु वह भक्ति समाहित प्रेम नहीं था वह सिर्फ चाह रही थी भगवान को और समय-समय पर प्रतिपल उनके साथ भी रहना चाहती थी कि कृष्ण भी उन्हें चाहे, प्रेम करें, परंतु मीरा ने जो भक्त की वह सिर्फ प्रेम भक्ति थी उसे न तो पति के रूप में उन्हें जीवन की भौतिक सुख चाहिए था और ना ही उन्हें सांसारिक माया मोह।

पति प्रेम में ही वह डूबती चली थी। साम्राज्य और लोकनाज से कोसों दूर व सिर्फ पति प्रेम जिसे वह दे रही थी उसे मिले या ना मिले इसका भी उसे कोई सरोकार नहीं था।

परंतु भक्ति ऐसी की आज के समय में तो शायद सिर्फ ग्रंथ और किताबों में ही  है। साहित्यकार इसे अपने-अपने तरीके से आज भी सुंदर और अपने भावों की रचनाओं से सुशोभित करते हैं।

राधा रानी की चाहत को लिए महारास और राधा के अनगिनत प्रेम प्रसंग से सराबोर हमारे भक्ति काल में राधा को ही सर्वोपरि माना गया। भगवान ने एक बार परीक्षा ली कि शरीर में छाले पड़ गए हैं। यदि कोई सखी अपनी चरण धूलि दे दे तो ज्वर और छाले ठीक हो जाएंगे। कहते हैं श्री कृष्ण की भक्ति में लीन कोई भी सखी ऐसा नहीं मिली जो चरण धूलि दे। परंतु बात राधा के कानों तक पहुंची। राधा श्री ने तुरंत अपने पाँव से निकलकर चरण राज दे दिया। रानी पट रानी सभी ने हार मानी।

राधा का प्रेम सिर्फ प्रेम ही नहीं वक्त पढ़ने पर भारी संकटों को अपने ऊपर लेकर अपने भगवान प्रेमी को मुक्त करना होता है। कहा गया था जो  चरण रज  देगी उसे अनंत कोटि वर्षों तक रैरव नरख  निवास मिलेगा।

परंतु राधा जी ने कृष्ण के लिए अनंत कोटि रैरव नरक स्वीकार किया। इस पल मेरे श्याम ठीक हो जाए यह भक्ति प्रेम की सर्वोपरि प्रकाष्ठा है।

तुलसीदास ने जी ने भी प्रेम से लिप्त जब पत्नी के पास पहुंचे पत्नी की कठोर कटाक्ष बातों से आत्मा को तार – तार होते देखा।

भगवान प्राप्ति के लिए अपने आप को दास मानते तप, संयम, श्रद्धा, विश्वास, प्रेम, प्रभु कृपा और शरणागति को ही अपना साधन बनाया। और आदि अनंत तक जीवंत हो गए।

दास के रूप में तुलसीदास जी ने प्रभु भक्ति का मार्ग निर्मल और साकार बताया।।

भक्त गंगा सी निर्मल पावन बनों।

प्रेम पूजे प्रभु गल की माला बनों।।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 124 – देश-परदेश – जब कोतवाल ही कातिल  हो ? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख/व्यंग्य  की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ व्यंग्य # 124 ☆ देश-परदेश – जब कोतवाल ही कातिल  हो? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में उच्च न्यायालय के ज़ज का सम्मान ना सिर्फ पद पर रहते हुए होता है, वरन सेवानिवृति के पश्चात भी उनको मिलने वाली सुविधाएं और सम्मान उच्चतम स्तर का रहता हैं। कुछ दिन पूर्व किसी उच्चतम न्यायालय के एक जज के यहां आग लगने पर बहुत अधिक मात्रा में पांच सौ के नोटों का भंडार मिलना बताया जाता है।

हमारे देशवासियों को तो किसी भी मुद्दे की आवश्यकता होती है। पूरे सोशल मीडिया के साथ टीवी चैनल वालों को भी मौका मिल जाता हैं। चुटकले से लेकर वर्तमान के व्यंग कहे जाने वाले “मीम्स” भी इस विषय पर विगत दिनों से सक्रिय हैं।

चार दशक पूर्व हमारे एक मित्र, जिनका टिंबर का व्यवसाय था, के टाल में भीषण आग लग गई थी। हम कुछ मित्र उनके व्यवसाय स्थल पर सांत्वना व्यक्त करने भी गए थे। उनके टिंबर का स्टॉक, कोयले के ढेर में परिवर्तित हो चुका था।

हमारे एक ज्ञानी साथी ने उनसे कहा, इस कोयले को धोबियों को बेच कर कुछ भरपाई कर लेनी चाहिए। व्यवसायी मित्र ने कहा, अभी मुम्बई से बीमा विभाग के बड़े अधिकारी आयेंगे और कोयले की मात्रा के अनुपात में मुआवजा तय होने पर ही कोयले को बेचेंगे। ज्ञानी मित्र ने लपक कर कहा लकड़ी में जल की कुछ मात्रा भी रहती है, फिर कैसे सही मुआवजा तय होगा। व्यवसायी मित्र ने बताया वो लोग विशेषज्ञ होते है, किसी तयशुदा फार्मूले से मुआवजा तय करते हैं।

सुनने में आया है कि जज साहब के यहां भी बहुत सारे नोट जल गए हैं, और कुछ अधजले नोट भी हैं। हम तो ये सोच रहे है, कुल राशि का सही अनुमान लगाने के लिए भी कुछ सेवानिवृत बैंकर की सेवाएं लेनी चाहिए। अधजले नोटों और जले हुए नोटों की सॉर्टिंग कर कुल राशि का सही अनुमान निकाला जा सकता है। पुराने और खराब नोटों को जला कर नष्ट करने का एक लंबा तजुर्बा सिर्फ बैंकर्स के पास ही होता है।

हमारे यहां की कुछ महिलाएं तो तथाकथित जले हुए नोटों की राख क्रय कर बर्तन भी चमकाना चाहती हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #277 ☆ कोरडवाहू डोळे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 277 ?

☆ कोरडवाहू डोळे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

ते कोरडवाहू डोळे, मला भेटले होते

ओठांचे गुलाब मीही, त्यास पाजले होते

*

पहिल्यांदा भेटुन सुद्धा, कसा भाळला इतका

मी काही केले नव्हते, फक्त लाजले होते

*

तो वितळत गेला गोळा, ओठी विस्तव होता

बर्फाच्या गोळ्यांने हे, अधर जागले होते

*

विश्वाच्या गोंगाटाचे, ध्यान कुणाला येथे

दोघांच्या एकांताने, विश्व व्यापले होते

*

नजरेचा रोख तयाच्या, पदराला कळलेला

पदराने दोन्ही खांदे, फक्त झाकले होते

*

प्रेमाच्या आणाभाका, कधी घेतल्या नाही

मुखड्यावर घेणे मुखडे, नित्य टाळले होते

*

हे विलासमंदिर होते, कुठेच माती नव्हती

मी फरशी काढुन तेथे, रोप लावले होते

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

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मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी जडणघडण… भाग – ३४ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ माझी जडणघडण… भाग – – ३४ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टुडे, संपर्क : ९८६९४८४८००)

प्रश्न

। नृपस्य चित्तं कृपणस्य वित्तम्

 मनोरथा:  दुर्जनमानवानाम्

 त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम्

 देवो न जानति कुतो मनुष्य:।।

राजाचे मन, कंजुषाचे धन, दुर्जनाचे मनोरथ, स्त्रीचे चरित्र आणि पुरुषाचे भाग्य हे दैवाला सुद्धा जाणता आले नाही ते सामान्य मनुष्याला कसे काय उमगणार?

खरं आहे! एक सामान्य बुद्धीची व्यक्ती म्हणून मी जेव्हां जेव्हां रामायण, महाभारत आणि इतर अनेक ऐकलेल्या दंतकथांबद्दल विचार करते तेव्हा माझ्या मनात अनेक प्रश्न उभे राहतात. तेव्हाही राहत होते आणि आजही तेच तेच प्रश्न मला पुन्हा पुन्हा पडतात.

अशा अनेक स्त्रिया ज्या मनावर स्वार आहेत..

आंधळ्या पतीसाठी आयुष्यभर डोळस असूनही डोळ्यावर पट्टी बांधून जगणारी गांधारी… हिला पतिव्रता म्हणायचं की जर ही धृतराष्ट्राचे डोळे बनून जगली असती तर वेगळे महाभारत घडू शकले असते का? पांडव आणि कौरवातले केवळ राज्यपदासाठीचे वैर मिटवता आले असतते का? कुरुक्षेत्रावरचं ते भयाण युद्ध टळलं असतं का?असा विचार करायचा?

कुंतीसारख्या महाराणीला जन्मभर दुर्वास ऋषीच्या क्रोधित शापवाणीमुळे लाभलेलं शापित मातृत्व का भोगावे लागले?

द्रौपदीने  पाच पांडवांचं पत्नीपद कसं निभवलं  असेल? नक्की कुणाशी ती मनोमन बांधली गेली होती? युधीष्ठीराबद्दल तिच्या मनात नक्कीच वैषम्य असणार आणि भीमाबद्दल आस्था. समान भावनेने पंचपतींचा तिने मनोमन स्विकार केला असेल का?

वृषालीने मनोमन कर्णावरच प्रेम केले. त्यावेळेच्या परिस्थितीनुसार कर्णाला दुसऱ्या स्त्रीशी विवाह करावा लागला तरीही वृषालीने पती म्हणून फक्त कर्णाचाच विचार मनात बाळगला.

अहिल्याचा कोणता दोष होता की, गौतमी ऋषीने केवळ त्यांच्या कुटीच्या वाटेवरून जाताना इंद्राला पाहिले आणि अहल्यावर व्यभिचाराचा आरोप ठेवून तिचे शापवाणीने पाषाणात रूपांतर केले आणि त्याच अहल्येचा कालांतराने रामाने उद्धार केला.

.. मीरा, राधा यांना आपण नक्की कोणत्या रूपात पाहतो? प्रेमिका की भक्तिणी की समर्पिता?

.. रामाबरोबर वनवासात गेलेल्या सीतेला एखाद्या सामान्य स्त्री सारखा कांचन मृगाचा लोभ का व्हावा?

.. रावणासारख्या असुराची  पत्नी मंदोदरीसाठी आपल्या मनात नक्कीच एक हळवा कोपरा आहे.

.. वालीची पत्नी तारा ही सुद्धा एक राजकारणी चतुर स्त्री म्हणूनच आपल्या मनात का राहते?

। अहल्या द्रौपदी तारा कुंती मंदोदरी 

पंचकन्या स्मरेत नित्यम | महापातक नाशनम्।।

…. हा श्लोक म्हणताना खरोखरच जाणवते की कोणत्याही कारणामुळे असेल, त्या त्या काळाच्या परिस्थितीमुळे असेल पण कुठला ना कुठला  कलंक चारित्र्यावर घेऊन जगणाऱ्या या स्त्रियांना काळानेच दैवत्व कसे दिले?

हे सगळे प्रश्न आजही अनुत्तरीतच आहेत. आणि म्हणूनच स्त्रीच्या चारित्र्याविषयी नेमकं काही ठरवताना जिथे देवही दुर्बल ठरले तिथे आपल्यासारख्यांचं काय?

पुरुषस्य भाग्यम्  हा सुद्धा असाच प्रश्न उभा करणारा  विषय आहे.

— रघुकुलोत्पन्न, सच्छील, मर्यादा पुरुष, एकपत्नीव्रती  पितृवचनी, बंधुप्रेमी, कर्तव्यपरायण रामाला  चौदा वर्षे वनवास का घडावा?

— राजा हरिश्चंद्रासारख्या सत्यप्रिय, वचनबद्ध, राज्यकर्त्याचे समस्त राज्य जाऊन त्याची दैना का व्हावी?

— भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्यांसारख्या महारथींना  दुर्योधनासारख्या अधर्मी व्यक्तीला कोणत्या लाचारीला बळी पडून साथ द्यावी लागली?

— युधिष्ठिराने  कौरवांसारख्या नीच वृत्तींबरोबर द्युताचा डाव मुळातच मांडलाच कशाला?

— आणि कौंतेय? सूर्यपुत्र, प्रचंड बलशाली, कवच कुंडल घेऊन जन्माला आलेल्या या कर्णाला सुतपुत्र म्हणून का जगावे लागले? परशुरामाचा शाप, इंद्राची चालाखी आणि अपात्र व्यक्तीशी मैत्रीच्या वचनात अडकलेल्या कर्णाचे भाग्य कसे भरकटत गेले हा केवळ जर— तरचाच प्रश्न उरतो.

— अर्जुनासारख्या धनुर्धराला  बृहन्नडा बनून स्रीवेषात वावरावे लागले.

— भीमाला गदेऐवजी हातात झारा घ्यावा लागला.. बल्लवाचार्याची भूमिका करावी लागली.

— कृष्णासारख्या युगंधराचाही शेवट मनाला थक्क करतोच ना?

— आणि वाल्या कोळीचा वाल्मिकी ऋषी होतो हे सत्य केवळ कल्पनेच्या पलीकडचं नाही का?

अर्थात हे सर्व पुराणातलं आहे. पिढ्यानुपिढ्या ते आतापर्यंत आपल्याकडे जसंच्या तसं वाहत आलेलं आहे. पण या सर्व घटनांचा संदर्भ मानवाच्या सध्याच्या जीवनाशी आजही आहे. कुठे ना कुठे त्यांचे पडसाद आताच्या काळातही उमटलेले जाणवतात.

फूलन देवी पासून ते नरेंद्र मोदी इथपर्यंत ते उलगडता येतील.

जन्मतःच कुठलाही माणूस चांगला किंवा वाईट नसतोच. तो घडत जातो. एखाद्या व्यक्तीचे पूर्ण रूप जेव्हा आपल्याला दिसतं तेव्हा त्यामागे अनेक घटकांचा प्रभाव असतो. संस्कार, नितीअनितीच्या  ठोस आणि नंतर विस्कटत गेलेल्या कल्पना, भोवतालची परिस्थिती, त्यातून निर्माण झालेली अगतिकता, अपरिहार्यता किंवा ढळलेला जीवनपथ अशी अनेक कारणे असू शकतात. त्यामुळे कुणाच्या चारित्र्याबद्दल अथवा भाग्याबद्दल जजमेंटल होणं हे नक्की चुकीचं ठरू शकत.

रेल्वे स्टेशनवर चहा विकणारा एखादा देशाचा पंतप्रधान होऊ शकतो किंवा केवळ गुन्हेगारीची पार्श्वभूमी असलेली एखादी स्त्री नव्याने शुचिर्भूत  होऊन पिडीतांसाठी देवासमान ठरू शकते.

कुणाचं भाग्य कसं घडतं याविषयी मला एक सहज वाचलेली कथा आठवली ती थोडक्यात सांगते.

— दोन भाऊ असतात. त्यांचे वडील दारुडे व्यसनी असतात. दोन्ही भावांवर झालेले कौटुंबिक संस्कार हे तसे हीनच असतात. कालांतराने वडील मरतात. दोघे भाऊ आपापले जीवन वेगवेगळ्या मार्गावर जगू लागतात. एक भाऊ अट्टल गुन्हेगार आणि बापासारखा व्यसनी बनतो. मात्र दुसरा भाऊ स्वतःच्या सुशील वागण्याने समाजात प्रतिष्ठा मिळवतो. हे कसे? त्यावर उत्तर देताना व्यसनी भाऊ म्हणतो, ” आयुष्यभर वडिलांना नशेतच पाहिलं त्याचाच हा परिणाम. ”

पण दुसरा भाऊ म्हणतो, ” वडिलांना आयुष्यभर नशेतच पाहिलं आणि तेव्हांच ठरवलं हे असं जीवन आपण जगायचं नाही. याच्या विरुद्ध मार्गावर जायचा प्रयत्न करायचा आणि ते जमलं ”

म्हणूनच भाग्य ठरवताना कुळ, गोत्र खानदान, संपत्ती, शिक्षण अगदी सुसंस्कार हे सारे घटक बेगडी आहेत. विचारधारा महत्त्वाची आणि त्यावरच चारित्र्य आणि भाग्य ठरलेले आहे. मात्र कुणी कसा विचार करावा हे ना कुणाच्या हातात ना कोणाच्या आवाक्यात. बुद्धिपलीकडच्याच या गोष्टी आहेत 

या श्लोकाचा उहापोह  करताना मी शेवटी इतकेच म्हणेन की,

* दैव जाणिले कुणी 

लवांकुशाचा हलवी पाळणा वनी वाल्मिकी मुनी…।।

— तेव्हा जजमेंटल  कधीच होऊ नका. काही निष्कर्ष काढण्याआधी  वेट अँड वॉच.

अहो जे देवालाही  समजले नाही ते तुम्हा आम्हाला कसे कळेल?

 क्रमशः…

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 230 – बुन्देली कविता – ऐसें न हेरो… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपकी भावप्रवण बुन्देली कविता – ऐसें न हेरो।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 230 – ऐसें न हेरो… ✍

(बढ़त जात उजयारो – (बुन्देली काव्य संकलन) से) 

ऐसें न हेरो

ऐंसें न हेरौ । हेरौ जी हेरो । ऐसें न हेरौ ।

 

धारदार नजर यार

भीतर लों करै मार

लम्बो है घेरो । ऐंसें न हेरौ ।

 

पलकन के पाल डाल

नैंनन की नाव चाल

लगा लओ फेरो । ऐसें न हेरौ ।

 

ऊँसई तो प्रान जात

बचन मँगें पाँच सात

घानी न पेरो । ऐसें न हेरौ ।

 

सुरभीले फूलपात

हिरनीले नैन, गात

देखे सो चेरो। ऐसें न हेरौ ।

© डॉ. राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ ग़ज़ल # 230 – “हमारी रोशनी  इंसानियत से रौशन थी…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक बेहतरीन ग़ज़ल “हमारी रोशनी  इंसानियत से रौशन थी...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 230 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “हमारी रोशनी  इंसानियत से रौशन थी...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

तुम्हें लगा कि मैं शायद कहीं बुखार में था

सच कहूँ तो मैं किसी दार्शनिक विचार में था

 *

हमारी रोशनी  इंसानियत से रौशन थी

ये सोचने का नजरिया मेरे किरदार मे था

 *

अब तुम्हें मैं शुक्रिया भी कहूँ तो कैसे कहूँ

जब कि मेरा आचारण तो गुप्तसे आभार में था

 *

 सामने दीवार पर था वह तुम्हारा  पोस्टर

मैं खोये व्यक्ति की तलाश में अखवार में था

 *

अब चला ही जा रहा जब मैं बियाबाँ की तरफ तो

जब मै खो जाऊँ तो कहना कि इंतजार में था

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

25-12-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ बुन्देली कविता – “देखौ कदम बढ़ाने….” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपकी एक बुन्देली कविता  देखौ कदम बढ़ाने…” ।)

☆ बुन्देली कविता ☆ “देखौ कदम बढ़ाने…” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

देखौ कदम बढ़ाने अब तुम

बहुतई सोच बिचार कें ।

गओ जमानो बचपन को जो,

रंग और रूप संवार कें ।

 

इतै-उतै हर कदम पै मिलहें,

तुमखों रूप पुजारी ।

चंद्रमुखी कोई तुमखों कहहे,

कौनऊं सीरी प्यारी ।

तो उनकी ओर न हेरन लगियो,

लाज और सरम उतार कें ।

देखौ कदम….

 

रूप-रंग रसपान के रसिया,

आसपास मंडरें हें ।

कहें इसारे कर करकें,

हम तुम पै जान लुटै हें ।

तो इनके झांसन में न फंसियो,

सुध – बुध मान बिसार कें।

देखौ कदम….

 

प्रेम समरपन, प्रेम हे पूजा,

प्रेम हे जीवन नैया ।

प्रेम हे मीरा, प्रेम हे राधा,

प्रेम हे किसन कन्हैया ।

ऐंसो प्रेम मिलै नै जब लौ,

तन – मन रखौ सांभर कें ।

देखौ कदम….

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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