(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा।)
यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-६ ☆ श्री सुरेश पटवा
सुग्रीव गुफा के सामने खूब खुला मैदान है। यहाँ कभी इंद्र पुत्र वानर राज बाली का दरबार लगता होगा। गुफा के ऊपर-नीचे वानरों का हुजूम जमा रहता होगा। इसी मैदान में श्रीराम ने पेड़ों की ओट से बालि को मारा होगा। हम सभी लोग उसी मैदान पर कदमताल करके तुंगभद्रा नदी के तीर पहुँचे। वहाँ किनारे पर कुछ नाव ढिली हैं। जो बाली को श्राप देने वाले मतंग ऋषि की गुफा तक ले जाने का एक सवारी का 500/- रुपये लेती है। नौका विहार हेतु किसी की इच्छा नहीं जागी। सभी लोग फोटोग्राफी का शौक पूरा करने में व्यस्त हो गए। हमने उत्सुक लोगों को तुंगभद्रा नदी का भूगोल समझाया।
‘तुंग’ और ‘भद्रा’ नामक दो नदियों के संगम से जन्म लेने वाली तुंगभद्रा नदी दक्षिण भारत की प्रमुख नदियों में से एक है। नदी का उद्गम पश्चिम घाट पर कर्नाटक के ‘गंगामूल’ नामक स्थान से होता है। प्रमुख रूप से तुंगभद्रा नदी की पांच सहायक नदियां हैं, औकबरदा, कुमुदावती, वरदा, वेदवती व हांद्री तुंगभद्रा में आकर मिलती हैं। पश्चिमी घाट के अलग-अलग पर्वत श्रृंखलाओं से निकलने वाली तुंग और भद्रा नदियां कर्नाटक के शिमोगा नामक स्थान से ‘तुंगभद्रा’ के रूप में अपनी यात्रा की शुरूआत करती है। कर्नाटक के विभिन्न क्षेत्रों से बहते हुए तेलगांना व आंध्र प्रदेश राज्य के अलग-अलग जिलों में प्रवाहित होकर अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव में आंध्र प्रदेश के कर्नूल जिले में कृष्णा नदी में मिलने के साथ ही अपना सफ़र समाप्त करती है। कृष्णा नदी आगे जाकर बंगाल की खाड़ी में विलीन हो जाती है।
श्रीराम ने हम्पी में तुंगभद्रा के जल का आचमन किया था। यहीं श्री हनुमान पैदा हुए। महाभारत में इसे तुंगवेणा कहा गया है। पद्म पुराण में हरिहरपुर को तुंगभद्रा के तट पर स्थित बताया गया है। बाल्मीकि रामायण में तुंगभद्रा को पंपा के नाम से जाना जाता है। श्रीमदभागवत् में भी तुंगभद्रा का उल्लेख मिलता है,
आदि गुरू शंकराचार्य ने आठवीं सदी में इसी नदी के तट पर ‘श्रृंगेरी मठ’ की स्थापना की थी। 14वीं शताब्दी में प्रसिद्ध राजा कृष्णदेवराय का विजयनगर साम्राज्य इसी नदी के किनारे बसा हुआ था। उसका बुद्धिमान मंत्री तेनालीराम इसी राज्य में था।
यह समूचा क्षेत्र गोलाकार और अंडाकार चट्टानों से पटा है। लगता है इन्ही चट्टानों से बाली और सुग्रीव में लड़ाइयाँ होती होंगी। वानर सेना के सैनिक इन्ही पत्थरों से कसरत करते होंगे। इसी तरह का एक पत्थर सुग्रीव ने गुफा के मुहाने पर रखकर उसका मुँह बंद कर दिया होगा। गुफा के सामने से एक रास्ता तुंगभद्रा के किनारे तक जाता है। उससे नदी किनारे पहुँचे। वहाँ बाँस की गोल नौकाओं में छै-आठ लोगों को बिठाकर आधा घंटे का नौकायन भी कराया जाता है। एक व्यक्ति का किराया पाँच सौ रुपये बताया। किसी ने भी नौकायन करने की हिम्मत नहीं जुटाई। रामायण केंद्र के बैनर के साथ एक घंटा फोटोग्राफी और सेल्फी का खेल चलता रहा। साथियों ने सैकड़ों फोटो लिए। उनका मोबाईल का स्टोरेज भर गया। मेमोरी के लिए मोबाईल ख़ाली किए जाने लगे। अगला पड़ाव विजयनगर साम्राज्य का गौरव विरूपाक्ष गोपुरम था। जिसे देखने के पहले थोड़ा सा विजयनगर साम्राज्य की उत्पत्ति, विकास और विनाश की कहानी जानना उपयुक्त रहेगा। विजयनगर साम्राज्य के इतिहास को जाने बगैर हम्पी की महत्ता नहीं समझ सकते हैं।
गाइड हमें पाँच-दस मिनट में हज़ार सालों का ग़लत सलत इतिहास बताते हैं और हम आँखें फाड़ उन्हें देखते रहते हैं क्योंकि हमें इतिहास पता नहीं होता है। हम्पी के इतिहास को समझने हेतु हमें विजयनगर साम्राज्य और बहमनी साम्राज्य के उद्भव तदुपरांत विखंडन को जानना होगा।
दक्षिण में इस्लाम का प्रवेश अलाउद्दीन ख़िलजी के देवगिर आक्रमण से होता है। उसका चाचा और ससुर जलालुद्दीन ख़िलजी 1290 से 1296 तक दिल्ली का सुल्तान था, उसने 1295 में अलाउद्दीन को भेलसा अर्थात् विदिशा को लूटने की अनुमति दी थी। उस समय विदिशा पाटलिपुत्र से सूरत बंदरगाह के बीच एक महत्वपूर्ण कारोबारी ठिकाना था। वहाँ कई अरबपति कारोबारियों का निवास था। अलाउद्दीन भेलसा नगर को लूटने के बाद संतुष्ट न हुआ। उसने कारोबारियों के बच्चों को गुदड़ी से लपेट कर आग से भूनने का आदेश दिया तो कारोबारियों ने हंडों में भरकर बेतवा नदी के तल में गाड़े धन का पता बता दिया। करोड़ों का सोना चाँदी हीरा जवाहरात लूटकर संतुष्ट न हुआ। अलाउद्दीन की निगाह दक्षिण के देवगिर हिंदू राज्य पर थी। वहाँ से लूटे धन का उपयोग दिल्ली का सुल्तान बनने में करना चाहता था।
उसने सुल्तान जलालुद्दीन ख़िलजी से भेलसा को पुनः लूटने की अनुमति ली, और सीधा देवगिर पर धावा बोला। देवगिर से अकूत संपत्ति लूटकर मानिकपुर-कारा में गंगा नदी के इस पर डेरा डाल सुल्तान जलालुद्दीन को पैग़ाम भिजवाया कि लूट का माल इतना अधिक है कि वह एकसाथ दिल्ली नहीं पहुँचा पा रहा है। सुल्तान यहीं आकर माल ले जायें। जलालुद्दीन गंगा पार करके इस पार उतरा, तब अलाउद्दीन ने उसे क़त्ल करके दिल्ली की सल्तनत हथिया ली।
सुल्तान बनने के बाद अलाउद्दीन द्वारा 1296 ई. में देवगिरि (वर्तमान औरंगाबाद) के विरुद्ध किये गये अभियान की सफलता पर, वहाँ के शासक रामचन्द्र देव ने प्रतिवर्ष एलिचपुर की आय भेजने का वादा किया। परंतु रामचन्द्र देव के पुत्र शंकर देव के हस्तक्षेप से वार्षिक कर का भुगतान रोक दिया गया। अतः उसने मलिक काफ़ूर के नेतृत्व में एक सेना देवगिरि पर धावा बोलने के लिए भेजी। रास्ते में राजा कर्ण को युद्ध में परास्त कर काफ़ूर ने उसकी पुत्री देवल देवी को दिल्ली भेज दिया, जहाँ उसका विवाह ख़िज़्र ख़ाँ से कर दिया गया। रास्ते भर लूट पाट करता हुआ काफ़ूर देवगिरि पहुँचा और पहुँचते ही उसने देवगिरि पर आक्रमण कर दिया। भयानक लूट-पाट के बाद रामचन्द्र देव ने आत्मसमर्पण कर दिया। काफ़ूर अपार धन-सम्पत्ति, ढेर सारे हाथी एवं राजा रामचन्द्र देव के साथ वापस दिल्ली आया। रामचन्द्र ने सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत होने पर सुल्तान ने उसके साथ उदारता का व्यवहार करते हुए ‘राय रायान’ की उपाधि प्रदान की। उसे सुल्तान ने गुजरात की नवसारी जागीर एवं एक लाख स्वर्ण टके देकर वापस भेज दिया। कालान्तर में राजा रामचन्द्र देव अलाउद्दीन का मित्र बन गया। जब मलिक काफ़ूर द्वारसमुद्र विजय के लिए जा रहा था, तो रामचन्द्र देव ने उसकी भरपूर सहायता की थी।
अलाउद्दीन द्वारा दक्षिण भारत के राज्यों को जीतने के उद्देश्य के पीछे धन की चाह एवं विजय की लालसा थी। वह इन राज्यों को अपने अधीन कर वार्षिक कर वसूल करना चाहता था। अलाउद्दीन ख़िलजी के समकालीन दक्षिण भारत के इस क्षेत्र में सिर्फ़ तीन महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ थीं-
* देवगिरि के यादव,
* दक्षिण-पूर्व तेलंगाना के काकतीय और
* द्वारसमुद्र के होयसल।
देवगिरी के बाद, अलाउद्दीन ख़िलजी के शासन काल में उसने दक्षिण में सर्वप्रथम 1303 ई. में तेलंगाना पर आक्रमण किया गया। तत्कालीन तेलंगाना का शासक प्रताप रुद्रदेव था, जिसकी राजधानी वारंगल थी। नवम्बर, 1309 में मलिक काफ़ूर तेलंगाना के लिए रवाना हुआ। रास्ते में रामचन्द्र देव ने काफ़ूर की सहायता की। काफ़ूर ने हीरों की खानों के इलाक़े असीरगढ़ (मेरागढ़) के मार्ग से तेलंगाना में प्रवेश किया। 1310 ई. में काफ़ूर अपनी सेना के साथ वारंगल पहुँचा। प्रताप रुद्रदेव ने अपनी सोने की मूर्ति बनवाकर गले में एक सोने की जंजीर डालकर आत्मसमर्पण स्वरूप काफ़ूर के पास भेजी, साथ ही 100 हाथी, 700 घोड़े, अपार धन राशि एवं वार्षिक कर देने के वायदे के साथ अलाउद्दीन ख़िलजी की अधीनता स्वीकार कर ली। इसी अवसर पर उसने मलिक काफ़ूर को संसार प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा दिया था। वह कोहिनूर हीरा इंग्लैंड के राजमुकुट की शान बढ़ाता है।
होयसल का शासक वीर बल्लाल तृतीय था। इसकी राजधानी द्वारसमुद्र थी। 1310 ई. में मलिक काफ़ूर ने होयसल के लिए प्रस्थान किया। इस प्रकार 1311 ई. में साधारण युद्ध के पश्चात् बल्लाल देव ने आत्मसमर्पण कर अलाउद्दीन की अधीनता ग्रहण कर ली। उसने माबर के अभियान में काफ़ूर की सहायता भी की। सुल्तान अलाउद्दीन ने बल्लाल देव को ‘ख़िलअत’, ‘एक मुकट’, ‘छत्र’ एवं दस लाख टके की थैली भेंट की। अलाउद्दीन उन राज्यों का हराकर उनसे वार्षिक कर लेने तक ही सीमित रहा। हिंदुओं को मुसलमान बनाने का काम अभी आरम्भ होना था। इस प्रकार दक्षिण भारत के तीनों समृद्ध राज्यों में इस्लाम का प्रवेश हुआ। इसका श्रेय मलिक काफ़ूर को जाता है।
हमारी बस जिस मार्ग से हम्पी की ओर जा रही है। इसी जगह से लंकेश सीता जी को आकाश मार्ग से ले जा रहा था। तब सीता जी ने उत्तरीय वस्त्र यहाँ गिराया था। चारों तरफ़ बड़े-बड़े गोल शिलाखंड किसी अनोखे लोक का भान करा रहे हैं। शिलाखंडों के बीच में कहीं-कहीं पोखर दिख जाते हैं। इधर-उधर पेड़ों पर वानर किलोल करते हैं। यह इलाका किष्किंधा नाम से जाना जाता था। दक्षिण भारत के इतिहास में कभी अनेगुंडी सुना था। अभी जिस जगह से गुजर रहे हैं। यह वही अनेगुंडी है, जिसे पहले किष्किंधा कहा जाता था, कर्नाटक के कोप्पल जिले के गंगावती में एक गाँव है। यह हम्पी से भी पुराना है, जो तुंगभद्रा नदी के उत्तरी तट पर स्थित है। पास के एक गाँव निमवापुरम में राख का एक पहाड़ है, जिसके बारे में माना जाता है कि यह राजा बाली के दाह संस्कार के अवशेष हैं। अलाउद्दीन खिलजी तक उस इलाक़े में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना नहीं हुई थी। यह इलाका हरिहर-बुक्का भाइयों का इंतज़ार कर रहा था। चौदहवीं सदी दिल्ली में ख़िलज़ी वंश का अंत हुआ और तुर्को-अफ़ग़ान तुगलकों का समय शुरू हुआ।
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित – “कविता – निभानी सब को अपनी जिम्मेदारी चाहिये…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।)
☆ काव्य धारा # 206 ☆ कविता – निभानी सब को अपनी जिम्मेदारी चाहिये… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख शब्दों की सार्थकता। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 260 ☆
☆ शब्दों की सार्थकता… ☆
‘सोच कर बोलना व बोलकर सोचना/ मात्र दो शब्दों के आगे-पीछे इस्तेमाल से ही उसके अर्थ व परिणाम बदल जाते हैं’ बहुत सार्थक है। मानव को ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ अर्थात् बोलने से पूर्व सोचने-विचारने व चिंतन-मनन करने का संदेश प्रेषित किया गया है। जो लोग आवेश में आकर बिना सोचे-समझे बोलते हैं तथा तुरंत प्रतिक्रिया देते हैं; वे अपने लिए मुसीबतों का आह्वान करते हैं। मानव को सदैव मधुर वचन बोलने चाहिए जो दूसरों के मन को अच्छे लगें, प्रफुल्लित करें तथा उनका प्रभाव दीर्घकालिक हो। कटु वचन बोलने वाले से कोई भी बात करना पसंद नहीं करता। रहीम के शब्दों में ‘वाणी ऐसी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरों को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल होय’ सबको अपनी ओर आकर्षित करता है तथा हृदय को शीतलता प्रदान करता है। कटु वचन बोलने वाला दूसरे को कम तथा स्वयं को अधिक हानि पहुंचाता है–जिसका उदाहरण आप सबके समक्ष है। द्रौपदी के एक वाक्य ‘अंधे की औलाद अंधी’ से महाभारत का भीषण युद्ध हुआ जो अठारह दिन तक चला और उसके भयंकर परिणाम हम सबके समक्ष हैं। इन विषम परिस्थितियों में भगवान कृष्ण ने युद्ध के मैदान कुरुक्षेत्र से गीता का संदेश दिया जो अनुकरणीय है। इतना ही नहीं, विदेशों में गीता को मैनेजमेंट गुरु के रूप में पढ़ाया जाता है। निष्काम कर्म के संदेश को अपनाने मात्र से जीवन की सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है, क्योंकि यह मानव को अपेक्षा-उपेक्षा के व्यूह से बाहर निकाल देता है। वास्तव में यह दोनों स्थितियाँ ही घातक हैं। इनसे हृदय को आघात पहुंचता है और मानव इनके व्यूह से आजीवन मुक्त नहीं हो पाता। यदि आप किसी से उम्मीद रखते हैं तो उसके पूरा न होने पर आपको दु:ख होता है और दूसरों द्वारा उपेक्षा के दंश के व्यूह से भी आप आजीवन मुक्त नहीं हो सकते।
‘एक चुप, सौ सुख’ मुहावरे से तो आप सब परिचित होंगे। बुद्धिमानों की सभा में यदि कोई मूर्ख व्यक्ति मौन रहता है तो उसकी गणना बुद्धिमानों में की जाती है। इतना ही नहीं, मौन वह संजीवनी है, जिससे बड़ी-बड़ी समस्याओं का अंत सहज रूप में हो जाता है। प्रत्युत्तर अथवा तुरंत प्रतिक्रिया न देना भी उस स्थिति से निज़ात पाने का अत्यंत कारग़र उपाय है। शायद इसीलिए कहा जाता है कि ‘बुरी संगति से अकेला भला’ अर्थात् मौन अथवा एकांत मानव की भीतरी दिव्य शक्तियों को जागृत करता है तथा समाधिवस्था में पहुंचा देता है। वहाँ हमें अलौकिक शक्तियों के दर्शन होते हैं तथा बहुत से प्रक्षिप्त रहस्य उजागर होने लगते हैं। यह मन:स्थिति मानव की इहलोक से परलोक की यात्रा कहलाती है।
सोचकर व सार्थक बोलना मानव के लिए अत्यंत उपयोगी है और वह मात्र पद-प्रतिष्ठा प्रदाता ही नहीं, उसे सिंहासन पर भी बैठा सकता है। विश्व के सभी प्रबुद्ध व्यक्ति चिंतन-मनन करने के पश्चात् ही मुख खोलते हैं। सो! उनके मुख से नि:सृत वाणी प्रभावमयी होती है और लोग उसे वेद वाक्य समझ हृदय में धारण कर लेते हैं। यह उनके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा देता है। बड़े- बड़े ऋषि मुनि व संतजन इसका प्रमाण हैं और उनकी सीख अनुकरणीय है–’यह जीवन बड़ा अनमोल बंदे/ राम-राम तू बोल’ लख चौरासी से मुक्ति की राह दर्शाता है।
इसके विपरीत बोलकर सोचने के उपरांत मानव किंकर्तव्यविमूढ़ की भयावह स्थिति में पहुंच जाता है, जिसके प्रत्याशित परिणाम मानव को चक्रव्यूह में धकेल देते हैं और वहाँ से लौटना असंभव हो जाता है। हमारी स्थिति रहट से बंधे उस बैल की भांति हो जाती है जो दिनरात चारों ओर चक्कर लगाने के पश्चात् लौटकर वहीं आ जाता है। उसी प्रकार हम लाख चाहने पर भी हम अतीत की स्मृतियों से बाहर नहीं निकल पाते और हमारा भविष्य अंधकारमय हो जाता है। हम सिवाय आँसू बहाने के कुछ नहीं कर पाते, क्योंकि गुज़रा समय कभी लौटकर नहीं आता। उसे भुला देना ही उपयोगी है, लाभकारी है, श्रेयस्कर है। यदि हमारा वर्तमान सुखद होगा तो भविष्य अवश्य स्वर्णिम होगा। हमें जीवन में पद-प्रतिष्ठा, मान- सम्मान आदि की प्राप्ति होगी। हम मनचाहा मुक़ाम प्राप्त कर सकेंगे और लोग हमारी सराहना करेंगे।
समय निरंतर चलता रहता है और वाणी के घाव नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। इसलिए मानव को सदा सोच-समझ कर बोलना चाहिए ताकि वह निंदा व प्रशंसा के दायरे से मुक्त रह सके। अकारण प्रशंसा उसे पथ-विचलित करती है और निंदा हमारे मानसिक संतुलन में व्यवधान डालती है। प्रशंसा में हमें फिसलना नहीं चाहिए और निंदा से पथ-विचलित नहीं होना चाहिए। जीवन में सामंजस्य बनाए रखना अत्यंत आवश्यक व कारग़र है। समन्वय जीवन में सामंजस्यता की राह दर्शाता है। इसलिए हर विषम परिस्थिति में सम रहने की सीख दी गई है कि वे सदैव सम रहने वाली नहीं हैं, क्योंकि वे तो समयानुसार परिवर्तित होती रहती हैं। ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के सा-साथ/ फूल और पात बदलते हैं’ उक्त भाव को पोषित करते हैं।
इसलिए मानव को सुख-दु:ख, हानि-लाभ, प्रशंसा-निंदा अपेक्षा-उपेक्षा को तज कर सम रहना चाहिए। अंत में ‘ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/ इच्छा क्यों पूरी हो मन की/ एक-दूसरे से मिल न सके/ यह विडंबना है जीवन की।’ सो! मानव को ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् ही किसी कार्य को प्रारंभ करना चाहिए। तभी वह अपने मनचाहे लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है और सपनों को साकार कर सकता है। इसलिए मानव को बीच राह आने वाली बाधाओं-आपदाओं व उस के अंजाम के बारे में सोचकर ही उस कार्य को करना चाहिए। सोच-समझ कर यथासमय कम बोलना चाहिए, क्योंकि निर्रथक व अवसरानुकूल न बोलना प्रलाप कहलाता है जो मानव को पलभर में अर्श से फर्श पर लाने का सामर्थ्य रखता है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की मूलभूत भौतिक आवश्यकताएँ हैं। इसी प्रकार अभिव्यक्ति, मनुष्य की मूलभूत मानसिक आवश्यकता है। संवेदनाएँ भावात्मक विरेचन से ही प्रवहमान रहती हैं। विरेचन का अभाव, प्रवाह को सुखा डालता है। शुष्कता आदमी के भीतर पैठती है। कुंठा उपजती है, कुंठा अवसाद को जन्म देती है।
अवसाद से बचने और व्यक्तित्व के चौमुखी विकास के लिए ईश्वर ने मनुष्य को बहुविध कलाएँ प्रदान कीं। काव्य कला को इनमें विशिष्ट स्थान प्राप्त है। भाग्यवान हैं वे लोग जो लेखनी द्वारा उद्भुत शब्दों के माध्यम से व्यक्त हो पाते हैं। श्रीमती छाया दीपक दास सक्सेना उन्हीं सौभाग्यशाली लोगों में से एक हैं।
विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को परिभाषित करते हुए लिखा है, ‘पोएट्री इज स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरफुल फीलिंग्स।’ यहाँ ‘स्पॉन्टेनियस’ शब्द महत्वपूर्ण है। कविता तीव्रता से उद्भुत अवश्य होती है पर इसकी पृष्ठभूमि में वर्षों का अनुभव और विचार होते हैं। अखंड वैचारिक संचय ज्वालामुखी में बदलता है। एक दिन ज्वालामुखी फूटता है और कविता प्रवाहित होती है। कवयित्री छाया दास के प्रस्तुत कविता संग्रह ‘अपराजिता’ में यह प्रवाह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।
कविता संवेदना की धरती पर उगती है। मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने वाली संवेदना के ह्रास से हर संवेदनशील व्यक्ति दुखी होता है। छाया दास की रचना में संवेदना के स्वर कुछ यूँ व्यक्त होते हैं-
*हर और उमस है
क्षणों को आत्मीयता की गंध से
परे करते हुए…*
आत्मीयता की निरंतर बढ़ती उपेक्षा मनुष्य को अतीत से आसक्त करती है और वर्तमान तथा भविष्य से विरक्त।
*अवगुंठन की घास उग आई है
उन रिक्त स्थानों में
जहाँ कोई था कभी,
वर्तमान और भविष्य की
उपस्थिति को परे ठेलते हुए
वर्तमान, भूतकाल बन जाता है
और भविष्य, वर्तमान के शव को
बेताल की तरह ढोता है…!*
बेताल सामाजिक जीवन से निकलकर राजनीति और व्यवस्था में प्रवेश करता है। परस्परावलम्बिता के आधार पर खड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था के गड्डमड्ड होने से चिंतित कवयित्री का आक्रोश शब्दों में कुछ इस तरह व्यक्त होता है-
*काश हर विक्रमादित्य के कंधे पर
मनुष्यता आरूढ़ रहती…*
आधुनिक समय की सबसे बड़ी विसंगति है, मनुष्य की कथनी और करनी में अंतर। मनुष्य मुखौटे पहनकर जीता है। मुखौटों का वह इतना अभ्यस्त हो चला है कि अपना असली चेहरा भी लगभग भूल चुका। ऐसे में यदि किसी तरह उसे ‘सत्य के टुकड़े’ से असली चेहरा दिखा भी दिया जाए तो वह सत्य को ही परे ठेलने का प्रयास करता है। सुविधा के सच को अपनाकर शाश्वत सत्य को दफ़्न करना चाहता है। यथा-
*मिट्टी खोदी
एक गढ्ढे में गाड़ दिया
सच के टुकड़े को..,
जो प्रतीक्षा करे सतयुग की..!*
शाश्वत सत्य से दूर भागता मनुष्य विसंगतियों का शिकार है।
*जीवन की विसंगतियों को
झेलते हुए मनुष्य
बन गया है ज़िंदा जीवाश्म।*
जीवाश्म की ठूँठ संवेदना का विस्तृत बयान देखिए-
*मनुष्य,
उस वृक्ष का
ठूँठ मात्र रह गया,
जिस पर चिड़ियाँ
भूल से बैठती तो हैं
पर घोंसला नहीं बनाती हैं..!*
भौतिकता के मद में बौराये आदमी के लालच का अंत नहीं है। भूख और क्षमता तो दो रोटी की है पर ठूँसना चाहता है कई टन अनाज। यह तृष्णा उसे जीवनरस से दूर करती है। कवयित्री भरा पेट लिए सरपट भागते इस भूखे का वर्णन सरल कथ्य पर गहन तथ्य के माध्यम से करती हैं-
*गंतव्य की तलाश तो
मानव की अनबुझी प्यास है,
जितना भी मिलता है
उतना ही और मिलने की आस है।*
समय परिवर्तनशील है, निरंतर आगे जाता है। परिवर्तन की विसंगति है कि काल के प्रवाह में कुछ सुखद परंपराएँ भी दम तोड़ देती हैं। कवयित्री इनका नामकरण ‘कंसेप्ट’ करती हैं। खत्म होते कंसेप्ट की सूची में दादी की कहानियाँ, आंगन, रीति-रिवाज, चिट्ठियों का लिखना-बाँचना बहुत कुछ सम्मिलित है। जिस पीढ़ी ने इन परंपराओं को जिया, उसमें इनकी कसक होना स्वाभाविक है।
कवयित्री मूलत: शिक्षिका हैं। उनके रचनाकर्म में इसका प्रतिबिंब दिखाई देता है। वह चिंतित हैं, चर्चा करती हैं, राह भी सुझाती हैं। आधुनिक समाज में घटते लिंगानुपात पर चिंता उनकी कविता में उतरी है। अध्यात्म, बेटियों की महिमा, आदर्शवाद, प्रबोधन उनकी कुछ रचनाओं के केंद्र में है। पिता की स्मृति में रचित ‘तुम कहाँ गए?’, माँ की स्मृति में ‘परंतु आत्मा से सदा’ और पुत्र के विवाह के अवसर पर ‘सेहरा’ जैसी कविताएँ नितांत व्यक्तिगत होते हुए भी समष्टिगत भाव रखती हैं। पिता द्वारा दी गई गुड़िया अब तक संभाल कर रखना विश्वास दिलाता है कि संवेदना टिकी है, तभी मानवजाति बची है।
कवयित्री ने हिंदी के साथ उर्दू के शब्दों का भी बहुतायत से प्रयोग किया है। कुछ रचनाओं में उर्दू की प्रधानता भी है। कवयित्री की यह स्वाभाविकता कविता को ज़मीन से जोड़े रखती है। प्राकृतिक सत्य है कि हरा रहने के लिए ज़मीन से जुड़ा रहना अनिवार्य है।
सांप्रतिक विसंगति यह है कि हरा रहने का साधारण सूत्र भी कलयुग ने हर लिया है।
*मेरी स्मृति हर ली गई है
कलजुगी अराजकता में…*
इस अराजकता की भयावहता के आगे साक्षात श्रीकृष्ण भी विवश हैं। योगेश्वर की विवशता कवयित्री की लेखनी से प्रकट होती है-
नहीं बजा नहीं पाता हूँ
दुनिया के महाभारत में शंख…
……….
नहीं बढ़ा पाता हूँ
सैकड़ों द्रौपदियों के चीर,
कैसे पोछूँ अश्रुओं के रूप में
कलकल बहती नदियों का नीर…
……….
गरीबी रेखा के नीचे तीस प्रतिशत
सुदामा इंतज़ार करते हैं महलों का..
…………
वृद्धाश्रम में कैद हैं
कितने वासुदेव-देवकी..
……….
नहीं भगा पाता हूँ
प्रदूषण के कालिया नाग को…
……….
कहां खाने जाऊँ मधुर चिकना मक्खन,
औंधे पड़े हैं सब माटी के मटके…
कवयित्री छाया दास का यह दूसरा कविता संग्रह है। जीवन का अनुभव, देश-काल-परिस्थिति की समझ, समाज को बेहतर दे सकने की ललक, सब कुछ इन कविताओं में प्रकट हुआ है।
कविता का भावविश्व विराट होता है। कविता हर समस्या का समाधान हो, यह आवश्यक नहीं पर वह समस्या के समाधान की ओर इंगित अवश्य करती है। कविता की जिजीविषा अदम्य होती है। वह कभी हारती नहीं है।
कविता स्त्रीलिंग है। स्त्री माँ होती है। कविता माँ होती है। कवयित्री ने अपनी माँ की स्मृति में लिखा है-
*माँ बन गई चूड़ियाँ
माँ बन गई महावर,
माँ बन गई सिंदूर,
सूर्य की आँखों का नूर,
माँ बन गई राम
माँ बन गई सुंदरकांड..!*
स्मरण रहे, कविता माँ होती है। कविता अपराजिता होती है। कवयित्री छाया दास को अनेकानेक शुभकामनाएँ।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।
– श्री जगत सिंह बिष्ट
(ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से “दस्तावेज़” श्रृंखला कुछ पुरानी अमूल्य यादें सहेजने का प्रयास है। दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित। इस शृंखला में अगला दस्तावेज़ सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा प्रेषित “मेरी डायरी के पन्ने से… – संस्मरण – बिखरता कुनबा“। यह जानते हुए भी कि कुनबे क्यों बिखर रहे हैं, फिर भी हम कुनबों को जोड़ने के स्वप्न देखते हैं। यही सकारात्मकता है। )
☆ दस्तावेज़ # 5 – मेरी डायरी के पन्ने से… – संस्मरण – बिखरता कुनबा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆
गाँव छोड़े मुझे काफी समय बीत गया। बाबूजी ने खेतों के बीचोबीच एक बड़ा – सा घर बनाया था। घर में प्रवेश से पहले लिपा पुता आँगन, तुलसी मंच और एक कुआँ हमारा स्वागत करता।
फिर आती एक सीढ़ी, जिसे चढ़कर तीन तरफ से खुला बरामदा हुआ करता था। यहाँ कपड़े और लकड़ी की सहायता से बनी एक आराम कुर्सी रखी रहती जिस पर बाबूजी अक्सर बैठे हुक्का गुड़गुड़ाया करते थे। कौन आया कौन गया, हाथ पैर धोए या नहीं, पैरी पौना (प्रणाम) किया या नहीं इन सब बातों की ओर उनका पूरा ध्यान रहता था। हाँ, उनके हाथ में एक जापमाला भी हुआ करती थी और वह दिवा – रात्रि उँगलियों में उसे फेरा करते थे।
बाबूजी जब अस्सी के ऊपर थे तब भी कमाल था कि कोई बात भूलते हों! संस्कारों में, रीति-रिवाज के पालन में, लेन -देन में, बहुओं की देखभाल में कहीं कोई कमी न आने देते। घर का सारा अंकुश उनके हाथ में था। सबको अपना हिस्सा मिले, सब स्वस्थ रहें, बहुएँ समय -समय पर अपने पीहर जाएँ, ज़ेवर बनाएँ, वस्त्र खरीदे इन सब बातों की ओर बाबूजी का पूरा ध्यान रहता था। खेतीबाड़ी साझा होने के कारण घर में धन का अभाव न था।
बाबूजी बहुत मेहनती थे। सत्तर साल की उम्र तक सुबह – शाम पहले तो खुद ही गोठ में जाते, गैया मैया की पूजा करते, उनके पैरों को छूकर प्रणाम करते उन्हें नहलाते, साफ करते फिर उनके पास उनके बछड़े को छोड़ते। वह भरपेट दूध पी लेते तो वे बाकी दूध दुहकर घर के भीतर ले लाते।
ताज़ा दूध उबल जाने पर अपनी आँखों के सामने बिठाकर अपने दोनों बेटों को और हम बच्चों को दूध पिलाते। घर में दो भैंसे भी थीं, उनकी भी खूब सेवा करते। दूध दुहकर लाते और उसी दूध से बेबे (दादीमाँ) दही जमाती, पनीर बनाती, मक्खन निकालती, घी बनाती। सुबह पराँठे के साथ ढेर सारा मक्खन मिलता, दोपहर को लस्सी, रात को पनीर। वाह ! बीजी ( माँ) और चाईजी ( चाचीजी) दोनों के हाथों में जादू था। क्या स्वादिष्ट भोजन पकाया करती थीं कि बस हम सब उँगलियाँ चाटते रहते थे।
घर के भीतर आठ बड़े कमरे थे और एक खुला हुआ आँगन। रसोई का कमरा भी बड़ा ही था और वहीं आसन बिछाकर हम सब भोजन किया करते थे। आँगन में बच्चों की तेल मालिश होती, मेरे चारों बड़े भाई मुद्गल उठा -उठाकर व्यायाम करते, उनकी भी मालिश होती और वे कुश्ती खेलने अखाड़ों पर जाते।
बेबे आँगन के एक कोने में कभी गेहूँ पीसती तो कभी चने की दाल। कभी मसालेदार बड़ियाँ बनाती तो कभी सब मिलकर पापड़। बेबे को दिन में कभी खाली बैठे हुए नहीं देखा। वह तो सिर्फ साँझ होने पर ही बाबूजी के साथ बैठकर फुरसत से हुक्का गुड़गुड़ाया करती और बतियाती।
बाबूजी सुबह- सुबह पाठ करते और बेबे नहा धोकर सब तरफ जल का छिड़काव करतीं। तुलसी के मंच पर सुबह शाम दीया जलाती। गायों को अपने हाथ से चारा खिलाती और अपनी दिनचर्या में जुट जातीं। बेबे हम हर पोता-पोती को अलग प्यार के नाम से पुकारती थीं। घर में किसी और को उस नाम से हमें पुकारने का अधिकार न था। मैं घर का सबसे छोटा और आखरी संतान था। वे मुझे दिलखुश पुकारा करती थीं। बेबे के जाने के बाद यह नाम सदा के लिए लुप्त हो गया। आज चर्चा करते हुए स्मरण हो आया।
ठंड के दिनों में गरम -गरम रोटियाँ, चूल्हे पर पकी अरहर की दाल, अरबी या जिमीकंद या पनीर मटर की स्वादिष्ट सब्ज़ियाँ सब चटखारे लेकर खाते। सब कुछ घर के खेतों की उपज हुआ करती थी। ताजा भोजन खाकर हम सब स्वस्थ ही थे। हाँ कभी किसी कारण पेट ऐंठ जाए तो बेबे बड़े प्यार से हमारी नाभी में हींग लगा देती और थोड़ी ही देर में दर्द गायब! कभी दाँत में दर्द हो तो लौंग का तेल दो बूँद दाँतों में डाल देतीं। दर्द गायब! सर्दी हो जाए तो नाक में घी डालतीं। सर्दी गुल! खाँसी हो जाए तो हल्दी वाला दूध रात को पिलाती। शहद में कालीमिर्च का चूर्ण और अदरक का रस मिलाकर पिलाती। खाँसी छूमंतर ! पर हम इतने सारे भाई बहन कभी किसी वैद्य के पास नहीं गए।
घर के हर लड़के के लिए यह अनिवार्य था कि दस वर्ष उम्र हो जाए तो बाबा और चाचाजी की मदद करने खेतों पर अवश्य जाएँ। गायों, भैंसो को नहलाना है, नाँद में चारा और चौबच्छे में पीने के लिए पानी भरकर देना है। बाबूजी अब देखरेख या यूँ कहें कि सुपरवाइजर की भूमिका निभाते थे।
लड़कियों के लिए भी काम निश्चित थे पर लड़कों की तुलना में कम। बहनें भी दो ही तो थीं। बेबे कहती थीं- राज करण दे अपणे प्यो दे कार, ब्याह तो बाद खप्पेगी न अपणे -अपणे ससुराला विच। (राज करने दे अपने पिता के घर शादी के बाद खटेगी अपनी ससुराल में) और सच भी थी यह बात क्योंकि हम अपनी बेबे, बीजी और चाइजी को दिन रात खटते ही तो देखते थे।
दोनों बहनें ब्याहकर लंदन चली गईं। बाबूजी के दोस्त के पोते थे जो हमारे दोस्त हुआ करते थे। घर में आना जाना था। रिश्ता अच्छा था तो तय हो गई शादी। फिर बहनें सात समुंदर पार निकल गईं।
दो साल में एक बार बहनें घर आतीं तो ढेर सारी विदेशी वस्तुएँ संग लातीं। अब घर में धीरे – धीरे विदेशी हवा, संगीत, पहनावा ने अपनी जगह बना ली। घर में भाइयों की आँखों पर काला चश्मा आ गया, मिक्सर, ज्यूसर, ग्राइंडर, टोस्टर आ गए। जहाँ गेहूँ पीसकर रोटियाँ बनती थीं वहाँ डबलरोटी जैम भी खाए जाने लगे। हर भोजन से पूर्व सलाद की तश्तरियाँ सजने लगीं। घर में कूलर लग गए। रसोई से आसन उठा दिए गए और मेज़ कुर्सियाँ आ गईं। ठंडे पानी के मटके उठा दिए गए और घर में फ्रिज आ गया। जिस घर में दिन में तीन- चार बार ताज़ा भोजन पकाया जाता था अब पढ़ी -लिखी भाभियाँ बासी भोजन खाने -खिलाने की आदी हो गईं।
सोचता हूँ शायद हम ही कमज़ोर पड़ गए थे सफेद चमड़ियों के सामने जो वे खुलकर राज्य करते रहे, हमें खोखला करते रहे। वरना आज हमारे पंजाब के हर घर का एक व्यक्ति विदेश में न होता।
बेबे चली गईं, मैं बीस वर्ष का था उस समय। बाबूजी टूट से गए। साल दो साल भर में नब्बे की उम्र में बाबूजी चल बसे। वह जो विशाल छप्पर हम सबके सिर पर था वह हठात ही उठ गया। वह दो तेज़ आँखें जो हमारी हरकतों पर नज़र रखती थीं अब बंद थीं। वह अंकुश जो हमारे ऊपर सदैव लगा रहता था, सब उठ गया।
घर के बड़े भाई सब पढ़े लिखे थे। कोई लंदन तो कोई कैलीफोर्निया तो कोई कनाडा जाना चाहता था। अब तो सभी तीस -बत्तीस की उम्र पार कर चुके थे। शादीशुदा थे और बड़े शहरों की पढ़ी लिखी लड़कियाँ भाभी के रूप में आई थीं तो संस्कारों की जड़ें भी हिलने लगीं थीं।
बीस वर्ष की उम्र तक यही नहीं पता था कि अपने सहोदर भाई -बहन कौन थे क्योंकि बीजी और चाईजी ने सबका एक समान रूप से लाड- दुलार किया। हम सबके लिए वे बीजी और चाईजी थीं। बाबा और चाचाजी ने सबको एक जैसा ही स्नेह दिया। हम सभी उन्हें बाबा और चाचाजी ही पुकारते थे। कभी कोई भेद नहीं था। हमने अपने भाइयों को कभी चचेरा न समझा था, सभी सगे थे। पर चचेरा, फ़र्स्ट कज़न जैसे शब्द अब परिवार में सुनाई देने लगे। कभी- कभी भाभियाँ कहतीं यह मेरा कज़न देवर है। शूल सा चुभता था वह शब्द कानों में पर हम चुप रहते थे। जिस रिश्ते के विषय से हम बीस वर्ष की उम्र तक अनजान थे उस रिश्ते की पहचान भाभियों को साल दो साल में ही हो गई। वाह री दुनिया!
पहले घर के हिस्से हुए, फिर खेत का बँटवारा। अपने -अपने हिस्से बेचकर चार भाई बाहर निकल गए।
बहनें तो पहले ही ब्याही गई थीं।
अगर कोई न बिखरा था तो वह थीं बीजी और चाइजी। उन्होंने बहुओं से साफ कह दिया था – सोलह साल दी उम्रा विच इस कार विच अस्सी दुआ जण आई सन, हूण मरण तक जुदा न होणा। बेशक अपनी रोटी अलग कर ले नुआँ। (सोलह साल की उम्र में हम दोनों इस घर में आई थीं अब मरने तक जुदा न होंगी हम। बेशक बहुएँ अपनी रोटी अलग पका लें)
हमारा मकान बहुत बड़ा और पक्का तो बाबूजी के रहते ही बन गया था। सब कहते थे खानदानी परिवार है। गाँव में सब हमारे परिवार का खूब मान करते थे। बिजली, घर के भीतर टूटी (नल), ट्रैक्टर आदि सबसे पहले हमारे घर में ही लाए गए थे। पर सत्तर -अस्सी साल पुराना कुनबा विदेश की हवा लगकर पूरी तरह से बिखर गया।
आज मैं अकेला इस विशाल मकान में कभी – कभी आया जाया करता हूँ। अपनी बीजी, चाइजी और चाचाजी से मिलने आता हूँ। वे यहाँ से अन्यत्र जाना नहीं चाहते थे। खेती करना मेरे बस की बात नहीं सो किराए पर चढ़ा दी। जो रोज़गार आता है तीन प्राणियों के लिए पर्याप्त है। मैं यहीं भटिंडा में सरकारी नौकरी करता हूँ। बाबा का कुछ साल पहले ही निधन हुआ। अविवाहित हूँ इसलिए स्वदेश में ही हूँ वरना शायद मैं भी निकल गया होता।
आज अकेले बैठे -बैठे कई पुरानी बातें याद आ रही हैं।
बाबूजी कहते थे, *दोस्तानुं कार विच न लाया करो पुत्तर, पैणा वड्डी हो रही सन। (अपने दोस्तों को लेकर घर में न आया करो बेटा, बहनें बड़ी हो रही हैं।)
हमारी बहनों ने हमारे दोस्तों से ही तो शादी की थी और घर पाश्चात्य रंग में रंग गया था। बाबूजी की दूरदृष्टि को प्रणाम करता हूँ।
बेबे कहती थीं – हॉली गाल्ल कर पुत्तर दीवारों दे भी कान होंदे। (धीरे बातें करो बेटे दीवारों के भी कान होते हैं)
बस यह दीवारों के जो कान होने की बात बुजुर्ग करते थे वह खाँटी बात थी। घर के दूसरे हिस्से में क्या हो रहा था इसकी खबर पड़ोसियों को भी थी। वरना इस विशाल कुनबे के सदस्य इस तरह बिखर कर बाहर न निकल जाते।
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीत – गीत – सिसक रहीं बागों की कलियाँ…।
रचना संसार # 33 – गीत – सिसक रहीं बागों की कलियाँ… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे ।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी – एक बुंदेली पूर्णिका – जा दुनिया ने सगी कोऊ की… । आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 242 ☆
☆ एक बुंदेली पूर्णिका – जा दुनिया ने सगी कोऊ की… ☆ श्री संतोष नेमा ☆