हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 332 ☆ कविता – “चलन से बाहर हुए सिक्के…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 332 ☆

?  कविता – चलन से बाहर हुए सिक्के…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

भिखारी भी अब

कम से कम

दस रुपए चाहता है

क्यू आर कोड का स्टीकर

लगा रखा है उसने

दान दाताओं की

मदद के लिए

उस दिन मैं

टैक्सी से उतरा

निकालने लगा मीटर पर दिखते इकसठ रुपए सत्तर पैसे

तो ड्राइवर बोला रहने दो साहब , बस साठ रुपए दे दीजिए

या फिर पे टी एम ही कर दीजिए

उसे पैंसठ रुपए देकर मैने उसकी दरियादिली से निजात पाई

अब सिक्के बस बैंक के ब्याज के हिसाब में एक पासबुक एंट्री भर

बनकर रह गए हैं।

गुम हो चुकी है

सिक्कों की खनक

बस रुपए की गर्मी बची है

मोबाइल वैलेट में

चलन से बाहर हो चुके हैं

सिक्के।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #203 – व्यंग्य- बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 203 ☆

☆ व्यंग्य- बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

मन नहीं मान रहा था। स्वयं के लिए स्वयं प्रयास करें। मगर, पुरस्कार की राशि व पुरस्कार का नाम बड़ा था। सो, मन मसोस कर दूसरे साहित्यकार से संपर्क किया। बीस अनुशंसाएं कार्रवाई। जब इक्कीसवे से संपर्क किया तो उसने स्पष्ट मना कर दिया।

“भाई साहब! इस बार आपका नंबर नहीं आएगा।” उन्होंने फोन पर स्पष्ट मना कर दिया, “आपकी उम्र 60 साल से कम है। यह पुरस्कार इससे ज्यादा उम्र वालों को मिलता है।”

हमें तो विश्वास नहीं हुआ। ऐसा भी होता है। तब उधर से जवाब आया, “भाई साहब, वरिष्ठता भी तो कोई चीज होती है। इसलिए आप ‘उनकी’ अनुशंसा कर दीजिए। अगली बार जब आप ‘सठिया’ जाएंगे तो आपको गारंटीड पुरस्कार मिल जाएगा।”

बस! हमें गारंटी मिल गई थी। अंधे को क्या चाहिए? लाठी का सहारा। वह हमें मिल गया था, इसलिए हमने उनकी अनुशंसा कर दी। तब हमने देखा कि कमाल हो गया। वे सठियाए ‘पट्ठे’ पुरस्कार पा गए। तब हमें मालूम हुआ कि पुरस्कार पाने के लिए बहुत कुछ करना होता है।

हमारे मित्र ने इसका ‘गुरु मंत्र’ भी हमें बता दिया। उन्होंने कहा, “आपने कभी विदेश यात्रा की है?” चूंकि हम कभी विदेश क्या, नेपाल तक नहीं गए थे इसलिए स्पष्ट मना कर दिया। तब वे बोले, “मान लीजिए। यह ‘विदेश’ यात्रा यानी आपका पुरस्कार है।”

“जी।” हमने न चाहते हुए हांमी भर दी। “वह आपको प्राप्त करना है।” उनके यह कहते ही हमने ‘जी-जी’ कहना शुरू कर दिया। वे हमें पुरस्कार प्राप्त करने की तरकीबें यानी मशक्कत बताते रहे।

सबसे पहले आपको ‘पासपोर्ट’ बनवाना पड़ेगा। यानी आपकी कोई पहचान हो। यह पहचान योग्यता से नहीं होती है। इसके लिए जुगाड़ की जरूरत पड़ती है। आप किस तरह इधर-उधर से अपने लिए सभी सबूत जुटा सकते हैं। वह कागजी सबूत जिन्हें पासपोर्ट बनवाने के लिए सबसे पहले पेश करना होता है।

सबसे पहले एक काम कीजिए। यह पता कीजिए कि पुरस्कार के इस ‘विदेश’ से कौन-कौन जुड़ा है? कहां-कहां से क्या-क्या जुगाड़ लगाना लगाया जा सकता है? उनसे संपर्क कीजिए। चाहे गुप्त मंत्रणा, कॉफी शॉप की बैठक, समीक्षाएं, सोशल मीडिया पर अपने ढोल की पोल, तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें वोट दूंगा, तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊंगा, जैसी सभी रणनीति से काम कीजिए। ताकि आपको एक ‘पासपोर्ट’ मिल जाए। आप कुछ हैं, कुछ लिखते हैं। जिनकी चर्चा होती है। यही आपकी सबसे बड़ी पहचान है। यानी यही आपका ‘पासपोर्ट’ होगा।

अब दूसरा काम कीजिए। इस पुरस्कार यानी विदेश जाने के लिए अर्थात पुरस्कार पाने के लिए वीजा का बंदोबस्त कीजिए। यानी उस अनुशंसा को कबाडिये जो आपको विदेश जाने के लिए वीजा दिला सकें। यानी आपने जो पासपोर्ट से अपनी पहचान बनाई है उसकी सभी चीजें वीजा देने वाले को पहुंचा दीजिए। उससे स्पष्ट तौर पर कह दीजिए। आपको विदेश जाना है। वीजा चाहिए। इसके लिए हर जोड़-तोड़ व खर्चा बता दे। उसे क्या-क्या करना है? उसे समझा दे।

सच मानिए, यह मध्यस्थ है ना, वे वीजा दिलवाने में माहिर होते हैं। वे आपको वीजा प्राप्त करने का तरीका, उसका खर्चा, विदेश जाने के गुण, सब कुछ बता देंगे। बस आपको वीजा प्राप्त करने के लिए कुछ दाम खर्च करने पड़ेंगे। हो सकता है निर्णयको से मिलना पड़े। उनके अनुसार कागज पूर्ति, अनुशंसा या कुछ ऐसा वैसा छपवाना पड़ सकता है जो आपने कभी सोचा व समझ ना हो। मगर इसकी चिंता ना करें। वे इसका भी रास्ता बता देंगे।

बस, आपको उनके कहने अनुसार दो-चार महीने कड़ी मेहनत व मशक्कत करनी पड़ेगी। हो सकता है फोन कॉल, ईमेल, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि पर इच्छित- अनिच्छित व अनुचित चीज पोस्ट करनी पड़े। इसके लिए दिन-रात लगे रहना पड़ सकता है। कारण, आपका लक्ष्य व इच्छा बहुत बड़ी है। इसलिए त्याग भी बड़ा करना पड़ेगा।

इतना सब कुछ हो जाने के बाद, जब आपको विदेश जाने का रास्ता साफ हो जाए और वीजा मिल जाए तब आपको यात्रा-व्यय तैयार रखना पड़ेगा। तभी आप विदेश जा पाएंगे।

उनकी यह बात सुनकर लगा कि वाकई विदेश जाना यानी पुरस्कार पाना किसी पासपोर्ट और वीजा प्राप्त करने से कम नहीं है। यदि इसके बावजूद विदेश यात्रा का व्यय पास में न हो तो विदेश नहीं जा पाएंगे। यह सुनकर हम मित्र की सलाह पर नतमस्तक हो गए। वाकई विदेश जाना किसी योग्यता से काम नहीं है। इसलिए हमने सोचा कि शायद हम इस योग्यता को भविष्य में प्राप्त कर पाएंगे? यही सोचकर अपने आप को मानसिक रूप से तैयार करने लगे हैं।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

29-01- 2025

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 238 ☆ गीत – हर शहादत देश की इक शान है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 238 ☆ 

☆ गीत – हर शहादत देश की इक शान है…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

हर शहादत देश की इक शान है।

कह रहा यह पूर्ण हिंदुस्तान है।

देश पर जो मर- मिटे वे वीर हैं,

शौर्य का गाता सकल जग गान है

=1=

हर किसी को ये मेरा पैगाम है

एक रब रहमान वो घनश्याम है

तोड़ना मत भूल कर निज देश को

एकता से देश का सम्मान है।।

=2=

फूट ने ही डस लिया इतिहास है

आज भी जयचंद का क्या वास है

प्रेम की गंगा दिलों से बह रही

भारतीयता की यही पहचान है।।

=3=

गुरुजनों को मान दें सम्मान   दें

पश्चिमी क्यों सभ्यता पर ध्यान दें

 हिन्द की मिट्टी उगाती स्वर्ण है

रत्न मणियों का वतन ये खान है

=4=

वे फिदा हैं इस वतन पर आज भी

कर रहे हैं और इस पर नाज भी

गा रहे हैं स्वर्ग से मन गीत ये

हर कोई सुख से जिए तो मान है।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अष्टविनायक…! ☆ श्री सुजित कदम  ☆

श्री सुजित कदम

 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ अष्टविनायक…! ☆ 

☆ 

मोरगावी मोरेश्वर

होई यात्रेस आरंभ

अष्ट विनायक यात्रा

कृपा प्रसाद प्रारंभ….!

*

गजमुख सिद्धटेक

सोंड उजवी शोभते

हिरे जडीत स्वयंभू

मूर्ती अंतरी ठसते….!

*

बल्लाळेश्वराची मूर्ती

पाली गावचे भूषण

हिरे जडीत नेत्रांनी

करी भक्तांचे रक्षण….!

*

महाडचा विनायक

आहे दैवत कडक

सोंड उजवी तयाची

पाहू यात एकटक….!

*

थेऊरचा चिंतामणी

लाभे सौख्य समाधान

जणू चिरेबंदी वाडा

देई आशीर्वादी वाण…!

*

लेण्याद्रीचा गणपती

जणू निसर्ग कोंदण

रुप विलोभनीय ते

भक्ती भावाचे गोंदण….!

*

ओझरचा विघ्नेश्वर

नदिकाठी देवालय

 नवसाला पावणारा

देई भक्तांना अभय….!

*

महागणपती ख्याती

त्याचा अपार लौकिक

रांजणगावात वसे

मुर्ती तेज अलौकिक….!

*

अष्टविनायक असे

करी संकटांना दूर

अंतरात *निनादतो

मोरयाचा एक सूर….!

© श्री सुजित कदम

मो.7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ४२ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ४२ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- समीर जिवंत राहिला तरी कधीच बरा होणार नाही हे डॉ.देवधर यांनी मला अतिशय सौम्यपणे समजावून सांगितलेलं होतं. त्यावेळी त्यांच्या केबिनमधे माझ्याबरोबर आलेले माझे ब्रँचमॅनेजर घोरपडे साहेब होते फक्त. ही गोष्ट घरी किंवा इतर कुणालाच मी मुद्दाम सांगितलेली नव्हती. असं असताना हे लिलाताईला कसं समजलं? मला प्रश्न पडला.)

विशेष म्हणजे या प्रश्नाचं उत्तर मी कुणाला न विचारताच त्याच दिवशी मला परस्पर मिळणार होतं आणि माझ्या दुःखावर फुंकर घालत मला

दिलासाही देणार होतं हे त्या क्षणी मात्र मला माहित नव्हतं. सगळं घडलं ते योगायोगाने घडावं तसंच.

‘ समीर पृथ्वीवरील औषधाने बरा होण्याच्या पलिकडे गेल्यामुळे तो बरा होण्यासाठी देवाघरी गेलाय आणि बरा होऊन परत येणाराय ‘

हे लिलाताईच्या पत्रातील वाक्य पुत्रवियोगाच्या धक्क्यातून मला अलगद बाहेर घेऊन आल़ं होतं. ही अंतर्ज्ञानाची खूणगाठच होती जशीकांही! एका क्षणार्धात माझं पुत्रवियोगाचं दु:ख विरुनच गेलं एकदम…

“कुणाचं पत्र..?”

“लिलाताईचं. घे. बघ तरी काय लिहलंय? वाच”

ती न बोलता उठली. ‘चहा करते..’ म्हणत आत जाऊ लागली.

“आधी वाच तरी.. मग चहा कर.”

“सांत्वनाचंच पत्र असणार. काय करू वाचून? आपला समीर गेलाय हे कटू सत्य बदलणाराय कां?” तिचा आवाज भरून आला.

“हो बदलणाराय. बघशील तू. आधी वाच..मग तूही कबूल करशील.”

तिने ते पत्र घेतलं. वाचलं. निर्विकारपणे मला परत दिलं.

“तुला हे वाचून खरंच काहीच वेगळं वाटलं नाही?”

“नाही. लिलाताईंचं मराठी भाषेवर प्रभुत्त्व आहे म्हणून त्यांनी चांगल्या भाषेत आपलं सांत्वन केलंय एवढंच. बाकी वेगळं काय आहे त्यात?” ती म्हणाली.

तिचंही बरोबरच होतं. समीरच्या आजारपणाच्या बाबतीतल्या कांही गोष्टी तिला त्रास होऊ नये म्हणून मी त्या त्या वेळी मुद्दामच सांगितल्या नव्हत्या. आता सगळं घडून गेल्यानंतर ते तिला सांगण्यात कशाचाच अडसर नव्हता. ते नाही सांगितलं तर या पत्रातलं मला जाणवलेलं वेगळेपण तिला कसं  जाणवावं….? पण ती ते सगळं समजून घेण्याइतकी सावरलेली नाहीय. सगळं ऐकल्यानंतर ती बिथरली तर? नकोच ते‌. जे सांगायचं ते तिचा मूड पाहून तिच्या कलानेच सांगायला हवं. तरीही ती केव्हा सावरतेय याची वाट पहात आता गप्प राहून चालणार नाही. लवकरात लवकरात लवकर तिला या एकटेपणातून बाहेर काढायलाच हवं….’

कितीतरी वेळ असे उलट सुलट विचार माझ्या मनात गर्दी करत राहिले. तिने चहाचा कप माझ्यापुढे ठेवला आणि मी भानावर आलो. डोळे पुसत ती किचनमधला पसारा आवरु लागली.

“आरती, ऐक माझं. पटकन् जा आणि आवर तुझं. मी तयार होतोय..”

“कां ? कुणी येणार आहे कां?”

“नाही..” मी हसून म्हटलं “कुणीही येणार नाहीय, आपणच जायचंय..”

“आत्ता? कशाला? कुठं जायचंय..?”

मला एकदम लिलाताईच्या माहेरघराची आठवण झाली.ते सर्वजण किर्लोस्करवाडी सोडून कोल्हापूरला आले त्याला दहा वर्षं होत आली होती. सुरुवातीची एक दोन वर्ष कष्टात गेली तरी आता त्यांचं छान बस्तान बसलं होतं.स्वत:चं घर झालं. कोल्हापूरला उद्यमनगरमधे स्वतःचं वर्कशॉप होतं, दोन लेथ होते, मशिनरी स्पेअर पार्टसचं स्वतःचं दुकान होतं. सगळे भाऊ स्वतः राबत होते. दोन वर्षांपूर्वीपासून लिलाताईचे वडिल प्रकृती अस्वास्थ्यामुळे सर्व पसारा मुलांच्या हवाली करून अलिकडे घरी अंथरुणाला खिळून असायचे. क्वचित मधे कधीतरी एक दोनदा कामानिमित्ताने त्या भागात गेल्यानंतर मी उभ्या उभ्या त्यांच्या घरी जाऊन आलो होतो. पण त्यालाही बरेच दिवस गेले होते. शिवाय सगळी हालहवाल लिलाताई वाडीला भेटली की वेळोवेळी तिच्याकडून समजायचीच. माझा लहान भाऊ कोल्हापूरमधेच असल्याने नेहमी त्यांच्या संपर्कात असायचा. त्याच्याकडून चार दिवसांपूर्वीच लिलाताईचे वडील गेल्याचे समजले होते. या रविवारी मी त्यांच्या घरी भेटून यायचे ठरवले होतेच.त्यापेक्षा आरतीलाही बरोबर घेऊन आजच गेलो तर…? हा विचार मनात आला तेव्हाच आरतीने मला पुन्हा विचारले…”सांगा ना, कुठं जायचंय..?”

उद्यमनगरमधे. लिलाताईचे वडील नुकतेच गेलेत. तिच्या आईला भेटून तरी येऊ.” मी म्हणालो.

आरती गप्पच झाली एकदम.

“का गं? काय झालं?”

“नाही… नको.”

“का ?”

“आपला समीर अडीच तीन महिने दवाखान्यात अॅडमिट होता. त्यांच्यापैकी कुणी आलं होतं कां बघायला? तो गेल्याचंही समजलं असेलच ना त्यांना? त्यानंतरही कुणी आलं नाही.आपणच कां जायचं?”

मी निरुत्तर झालो. ती बोलली यात तथ्य होतंच.पण तरीही मला ते स्विकारता येईना.

हे बघ, त्यांनी केलं ते न् तसंच आपणही करायचं कां? लिलाताईचे वडीलही झोपून होते. त्यांचा कांही प्रॉब्लेम असेल. इतर कांही अडचणी असतील. त्यामुळे येणं जमलं नसेल. पण ती अगदी साधी माणसं आहेत गं. माणुसकी सोडून वागणारी तर अजिबातच नाहीयत.आणि आपण रहायला जातोय कां तिकडे? घटकाभर बसून बोलून येऊ. त्यांनाही बर वाटेल.”

ती न बोलता स्वतःचं आवरू लागली. मला तेवढं पुरेसं होतं. ती यायला तयार झालीय

हेच खूप होतं माझ्यासाठी.  

त्यांच्या घराचं दार उघडंच होतं. हॉलमधे दारासमोरच्या भिंतीला टेकून लिलाताईच्या  आई नेहमीसारख्या बसून होत्या.

मला दारात पहाताच त्यांना गलबलून आलं.

“ये रेss माज्या लेकरा..ये…” रडवेल्या आवाजातच त्यांनी अतीव मायेनं आमचं स्वागत केलं.आम्ही आत जाताच आरतीकडं पाहून त्यांचे डोळे भरुन आले.त्यांनी तिला जवळ बोलावलं..

“तू कां उबी? ये माझ्याजवळ.बैस अशी..” म्हणत तिला जवळ बसवून घेतलं.

” खूप आजारी होते कां हो बाबा?”

” हां तर काय? तरण्या वयापासून घाण्याला बांदलेल्या गुरासारका राबराब राबल्येला जीव त्यो. दोन वर्सं झाली आंथरुन सोडलं नव्हतं बग ल्येका. मी ही अशी.लांबून बघत बसायची निस्ती. पण समद्या पोरांनी लै शेवा केली बग त्येंंची.”

बोलता बोलता आरतीकडं लक्ष जाताच त्या बोलायचं थांबल्या.

” हे बघ बै.झालं गेलं गंगेला अर्पण करुन टाकायचं बग.त्यातच रुतून बसायचं न्है.कळतंय का? यील त्ये पदरात घ्यायचं न् पुढं जात -हायचं बग.” त्यांनी तिला समजावलं. त्यांच्या तोंडून बाहेर पडणारा प्रत्येक शब्द त्यांच्या अंत:करणातूनच उमटलेला असावा इतका आपुलकीने ओथंबलेला होता.”गप.रडू नको. तुजा इस्वास नाई बसनार,पन इतं गेटभाईर जीप हाय नव्हं , तिची डिलीवरी कवा मिळालीती सांगू?तुजं बाळ देवधर डाकतराकडं अॅडमीट झालंय त्ये आमाला समजलं त्याच दिवशी. मी कोल्हापूरच्या अंबाबाईचं दरसन घ्यून लई वर्सं झाली बग.पोरं म्हनत हुती ‘चल.तुला उचलून नव्या जीपमंदी बशीवतो न् अंबाबाईच्या दरसनाला बी तसंच उचलून घ्यून जातो म्हणून.तवा म्या काय म्हनले ठाव हाय? मी म्हनले, त्या म्हाद्वार   रस्त्यावरच अरविंदाचं बाळ हाय नव्हं दवाखान्यात? अंबाबाईचं दरसन राहूं दे.. मला उचलून त्या दवाखान्यात नेताय का सांगा.तरच मी जीपमध्ये बशीन. त्येच्या बाळाला बगून तरी येते यकडाव. पन दोन अवगड जिनं चढाय लागत्यात म्हनली पोरं.त्ये कसं जमणार हुतं? म्हनून मग जीपमदे बसनं न् देवीचं दरसन दोनी बी नगंच वाटलं. आज तुमी दोगं आला झ्याक वाटलं बगा…

आरती थक्क होऊन ऐकत होती. तिच्या मनातल्या प्रश्नाचं प्रश्न न विचारताच तिला परस्परच उत्तर मिळालं होतं!

“तुझ्या आईला न् तुला बी माजी लिलाबाई भेटती न्हवं वाडीत न्हेमी? ती सांगत असती मला…”

“हो.बऱ्याचदा भेट होते आमची”

” तिची पन लई सेवा झालीय बग दतम्हाराजांची.तुला म्हनून सांगत्ये..,तुझ्या बाबावानी लिलाबाई बोलती त्ये बी खरं व्हाय लागलंय बग.”

त्या सहज बोलायच्या ओघात बोलून गेल्या न् मग लिलाताईबद्दलच कांहीबाही सांगत राहिल्या.तिच्या वाचासिध्दीबद्दलच्या अनुभवांबद्दलच सगळं. त्यातला प्रत्येक शब्द मला निश्चिंत करणारा होता! सगळं ऐकत असताना लिलाताईच्या पत्रातला मजकूर माझ्या नजरेसमोर तरळत राहिला होता! त्यातला शब्द न् शब्द खरा होणाराय हा विश्वास आरतीपर्यंत कसा पोचवायचा हा प्रश्न मात्र त्याक्षणीतरी अनुत्तरीतच राहिला होता..!!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #266 – कविता – ☆ नर्मदा जयंती विशेष – नर्मदा नर्मदा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है नर्मदा जयंती पर विशेष – माँ नर्मदा वंदन गीत “नर्मदा नर्मदा…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #266 ☆

☆ नर्मदा नर्मदा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(नर्मदा जयंती पर विशेष – माँ नर्मदा वंदन गीत)

 

नर्मदा – नर्मदा, मातु श्री नर्मदा

सुंदरम, निर्मलं, मंगलम नर्मदा।

*

पूण्य  उद्गम  अमरकंट  से  है  हुआ

हो गए वे अमर, जिनने तुमको छुआ

मात्र दर्शन तेरे पुण्यदायी है माँ

तेरे आशीष हम पर रहे सर्वदा।

नर्मदा—–

*

तेरे हर  एक कंकर में, शंकर बसे

तृप्त धरती, हरित खेत फसलें हँसे

नीर जल पान से, माँ के वरदान से

कुलकिनारों पे बिखरी, विविध संपदा।

नर्मदा—–

*

स्नान से ध्यान से,भक्ति गुणगान से

उपनिषद, वेद शास्त्रों के, विज्ञान से

कर के तप साधना तेरे तट पे यहाँ

सिद्ध होते रहे हैं, मनीषी सदा।

नर्मदा—–

*

धर्म ये है  हमारा, रखें स्वच्छता

हो प्रदूषण न माँ, दो हमें दक्षता

तेरी पावन छबि को बनाये रखें

ज्योति जन-जन के मन में तू दे माँ जगा।

नर्मदा—–

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 90 ☆ सुनो शहर जी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “सुनो शहर जी…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 90 ☆ सुनो शहर जी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सुनो शहर जी

गांव पधारो

नेह निमंत्रण

तो स्वीकारो।

 

यहां हवा

स्वछंद घूमती

धूप धरा का

भाल चूमती

नदी निर्मला

के पानी में

अपने मैले

पांव पखारो।

 

पगडंडी को

सड़कें घूरें

गड्ढों वाले

घाव न पूरें

सफर हादसे

छोड़ जरा तुम

मेंड़ों वाली

गैल निहारो।

 

खेत हमारे

पूजन अर्चन

चौपालों पर

भजन कीर्तन

शाम सुहानी

भोर नित नई

आकर थोड़ा

समय गुजारो।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 94 ☆ जीत मिलती है उसे सच मानो… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “जीत मिलती है उसे सच मानो“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 94 ☆

✍ जीत मिलती है उसे सच मानो… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

मेरे रब का जो इशारा होगा

तब तलातुम में किनारा होगा

 *

खेलने में न समझदारी है

खाक़ में कोई शरारा होगा

 *

मर गया है जो न सोचो वो नहीं

देखता बनके सितारा होगा

 *

नग की चोटी पे फले फूले है

किसकी रहमत ने सँवारा होगा

 *

एक ही बार में कर ली तौबा

इश्क़ मुझसे न दुबारा होगा

 *

उसका अपमान कभी हो सकता

क़र्ज़ जिसने न उतारा होगा

 *

जीत मिलती है उसे सच मानो

हार से जिसने उबारा होगा

*

माँगना हक़ था उठा कर सर को

हाथ को तुमने पसारा होगा

 *

नाम तो होगा न होगी इज़्ज़त

बह्र जैसा जो तू  खारा होगा

 *

अय अरुण आँख न दिखला हमको

अपना प्रतिकार करारा होगा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ उस करिश्माई दरवेश के… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

(ई-अभिव्यक्ति में श्री हेमन्त तारे जी का स्वागत है। आप भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – उस करिश्माई दरवेश के…।)

✍ उस करिश्माई दरवेश के… ☆ श्री हेमंत तारे  

जिसे चाहा उस फ़न का मैं माहिर बना

जुनूँ था कि,  क़ादिर बनू,  क़ादिर बना

*

चाहिता तो,  मुर्शिद भी बन सकता था 

ग़मज़दा बशर देखे तो मैं काफ़िर बना

*

गाड़ी बंगला कोठी ये, सुकूं के सामां नही

सुकूं उसको मिला, जो कोई तारिक बना

*

उस करिश्माई दरवेश के मैं सदके जाउं

जिस संग को छुआ उसने वो नादिर बना

*

रब की ईबादत का सिला सबको मिला

कोई मुलाजिम बना तो कोई ताजिर बना

*

वाइज़ की सोहबत, सबको कहां हांसिल

मुझ कमज़र्फ को मिली और मैं आरिफ़ बना

*

मुश्किल घडी में सब बचकर निकल गये

‘हेमंत’ वो तेरा दोस्त था जो जाँनिसार बना

(क़ादिर  =  शक्तिमान,   मुर्शिद =  धर्मगुरु, ग़मज़दा बशर  =  दु:खी मनुष्य,  काफ़िर  = नास्तिक, तारिक  =  त्यागी,  संग = पत्थर,  नादिर = अमूल्य, ताजिर = सौदागर,   वाइज़ = धर्मोपदेशक, आरिफ़ = ज्ञाता,  जाँनिसार  = प्राण रक्षक)

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 7 ☆ लघुकथा – संभावना… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  – “चौथी सीट“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 7 ☆

✍ लघुकथा – संभावना… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

जब राज बहादुर  बुढापे की ओर बढने लगे तो उनके बेटे ने घर की जिम्मेदारी में हाथ बँटाना शुरू कर दिया। उन्होंने बेटी का विवाह कर दिया तो उसकी ओर से निश्चिंत हो गए। चाहते थे कि हाथ पाँव चलते बेटे का भी विवाह हो,  परंतु बेटा जगदीश यह कह कर टाल देता कि वह अपनी कमाई से संतुष्ट हो जाए और स्वतंत्र रूप से गृहस्थी चलाने योग्य हो जाए तब विवाह की सोचेगा। उसने अपने पिता से कहा कि घर बनाते समय जो कर्ज चुक भी नहीं पाया और बहन के विवाह में कर्ज और चढ गया तो ऐसी हालत में और खर्च बढाना उचित नहीं है। राज बहादुर अंदर ही अंदर यह सुनकर प्रसन्न होते लेकिन बिना दर्शाए कहते, “कहते तो ठीक हो पर सही उम्र में काम होना उचित रहता है। समाज भी देखना पड़ता है।” वे केवल कहने के लिए कहते, पालन करने के लिए नहीं।

ऐसे ही समय ठीक ठाक कट रहा था। बेटी एक बच्चे की माँ बन गई थी। जगदीश का भी विवाह हो गया। काम भी ठीक चल ही रहा था। राज बहादुर कढाई का काम करते थे पर नज़र कमजोर होने की वजह से काम बंद कर दिया था। फिर भी जो काम मिलता कर लिया करते। उनकी आमदनी में घर चल जाता था पर वे कोई ऐसी व्यवस्था नहीं कर सके जिससे बुढापे में पैंशन मिल सके। न सरकारी नौकरी थी न किसी बड़ी कंपनी की नोकरी, जिससे रिटायर होने पर पैंशन मिलती है।वरिष्ठ नागरिक की उम्र पार करने पर उन्होंने वृद्धावस्था पेंशन के लिए कोशिश की।  केंद्र व राज्य सरकार की पेंशन योजना में पैंशन के लिए आवेदन करने गए तो बताया गया कि केवल निराधार वृद्धों को पैंशन दी जाती है। निराधार का मतलब जिनके बेटा न हो। अगर  बेटा हो भी तो परिवार की आय एक निश्चित रकम से कम होनी चाहिए। उनके बेटे जगदीश की आय आयकर के दायरे में तो नहीं आती परंतु उस सीमा से अधिक थी जिस सीमा तक सरकार की पैंशन मिलती है। राज बहादुर यह तो कह ही नहीं सकते कि उनका बेटा नहीं है। जगदीश एक कंपनी में काम करता था। उसके वेतन से घर चल जाता था। फिर भी कुछ ऐसे काम थे कि उसका वेतन कम पड़ जाता। घर का टैक्स यानी प्रापर्टी टैक्स तीन गुना बढ़ गया था और जगदीश टैक्स जमा नहीं कर पा रहा था। टैक्स जमा न करने के नोटिस आते तो जगदीश अपने पिता तक नहीं पहुंचने देता।

तीन साल का प्रापर्टी टैक्स देना बाकी था, इसका नोटिस देखा तो राज बहादुर सोच में पड़ गए। सोच रहे थे कि जगदीश ने टैक्स जमा क्यों नहीं किया?  जगदीश से पूछने में भी उन्हें संकोच हो रहा था। क्योंकि, जगदीश ने उनसे कभी कुछ छुपाया ही नहीं। वे सोच रहे थे कि जरूर कोई गंभीर बात है।  खाना खाने के बाद सब सोने चले गए पर राज बहादुर को नींद नहीं आ रही। वे वॉशरूम के लिए उठे तो देखा जगदीश के कमरे की लाइट जल रही है। पता नहीं उन्हें कमरे में झाँकने की इच्छा ने मजबूर कर दिया। वे किसी के कमरे में झाँकने को बहुत बुरा मानते थे। परंतु इस बार वे अपने आपको रोक नहीं सके। देखा जगदीश लेपटॉप खोल कर बड़ी गंभीरता से कुछ देख रहा है और कागज पर कुछ नोट करता जा रहा है।  आखिर कमरे में घुसते हुए पूछ बैठे,

 “जगदीश बेटा अभी तक सोए नहीं? क्या काम बहुत ज्यादा है। ” जगदीश चौंक गया। कुर्सी से उठा और सोचा कि पिताजी से छुपना ठीक नहीं तो  बोला, “पापा जॉब ढूंढ़ रहा हूँ। कंपनी में छँटनी हो रही है। एकाध हफ्ते में मेरा नंबर भी आ सकता है।” “छँटनी?” “हाँ पापा छँटनी, तीन साल से यह तलवार लटकी हुई है पर अब सिर पर गिरने ही वाली है। मैंने प्रॉपर्टी टैक्स जमा नहीं किया बल्कि छोटी सी बचत कर रहा था ताकि अचानक ऐसा वक्त आए तो कम से कम रसोई चल सके। नया जॉब मिलने पर टैक्स जमा कर दूंगा। सॉरी पापा!” राज बहादुर सोचते रहे कि दिन पर दिन बढती महँगाई, तीन गुना घर का टैक्स और बेरोज़गारी की लटकती तलवार, जीना कैसे संभव होगा। ऊपर अँधेरे में आसमान की ओर हाथ उठाते हुए बड़बड़ाए “जीने की संभावना मर नहीं सकती।” तभी जगदीश कमरे से बाहर निकल आया और बोला, “पापा मुझे नया जॉब मिल जाएगा। कल इंटरव्यू है।”  राज बहादुर के चेहरे पर कैसे भाव आए, उन्हें जगदीश नहीं देख सका।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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