हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 41 – लघुकथा – संवेदनशीलता और समर्पण ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – संवेदनशीलता और समर्पण)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 41 – लघुकथा – संवेदनशीलता और समर्पण ?

निराली आई टी प्रोफ़ेशनल है। उसमें आइडिया की कोई कमी नहीं है। अपनी कंपनी की कई पार्टियाँ वही एरेंज भी करती है। साथ ही एक अच्छी माँ और गृहणी भी है। परिवार और समाज के प्रति संपूर्ण समर्पित।

उसकी बेटी यूथिका का अब इस वर्ष दसवाँ जन्मदिन था। वह कुछ हटकर करना चाहती थी।

जिस विद्यालय में युथिका पढ़ती है वह धनी वर्ग के लिए बना विद्यालय है। ऐसा इसलिए क्योंकि वहाँ की वार्षिक फीस ही बहुत अधिक है जो मध्यम वर्गीय लोगों की जेब के बाहर की बात है।

युथिका की कक्षा में तीस बच्चे हैं। सबके जन्म दिन पर ख़ास उपहार लेकर वह घर आया करती है। युथिका के हर जन्मदिन पर निराली भी बच्चों को अच्छे रिटर्न गिफ्ट्स दिया करती है। पर इस साल युथिका के जन्म दिन पर निराली ऐसा कुछ करना चाहती थी कि बच्चों को समाज के अन्य वर्गों से जोड़ा जा सके।

उसने एक सुंदर ई कार्ड बनाया। जिसमें लिखा था –

युथिका के दसवें जन्म दिन का उत्सव आओ साथ मनाएँ।

युथिका के दसवें जन्म दिन पर आप आमंत्रित हैं। आप अपने छोटे भाई बहन को भी साथ लेकर आ सकते हैं। उपहार के रूप में अपने पुराने खिलौने जो टूटे हुए न हों, जिससे आप खेलते न हों और आपके वस्त्र जो फटे न हों उन्हें सुंदर रंगीन काग़ज़ों में अलग -अलग पैक करके अपना नाम लिखकर ले आएँ। कोई नया उपहार न लाएँ।

नीरज -निराली चतुर्वेदी

और परिवार।

समय संध्या पाँच से सात बजे

‘सागरमंथन’ कॉलोनी

304 कल्पवृक्ष

मॉल रोड

जन्म दिन के दिन तीस बच्चे जो युथिका की कक्षा में पढ़ते थे और वे छात्र जो उसके साथ बस में यात्रा करते थे सभी आमंत्रित थे।

जन्म दिन के दिन पूरे घर को फूलों से और कागज़ की बनी रंगीन झंडियों से सजाया गया।

पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए गुब्बारों का उपयोग नहीं किया गया।

वक्त पर बच्चे आए। अपने साथ दो- दो पैकेट उपहार भी लेकर आए। कुछ बच्चे अपने छोटे भाई बहनों को साथ लेकर आए। उनके हाथ में भी दो -दो पैकेट थे।

उस दिन शुक्रवार का दिन था। खूब उत्साह के साथ जन्मदिन का उत्सव मनाया गया। सबसे पहले युथिका की दादी ने दीया जलाया, दादा और दादी ने उसकी आरती उतारी। निराली ने हर बच्चे के हाथ में गेंदे के फूल पकड़ाए। जन्म दिन पर गीत गाया गया। दादी ने युथिका को खीर खिलाई। बच्चों ने युथिका के सिर पर फूल बरसाए। सबने ताली बजाई।

युथिका के घर में केक काटने की प्रथा नहीं थी। इसलिए बच्चों को इसकी अपेक्षा भी नहीं थी।

पासिंग द पार्सल खेल खेला गया। उसके अनुसार बच्चों ने गीत गाया, कविता सुनाई, नृत्य प्रस्तुत किया, चुटकुले सुनाए, जानवरों की आवाज़ सुनाई। सबने आनंद लिया।

हर बच्चे को रिटर्न गिफ्ट के रूप में ब्रेनविटा नामक खेल उपहार में दिया गया।

पचहत्तर नाम लिखे हुए उपहार रंगीन कागज़ों में रिबन लगाकर युथिका को दिए गए। उसके जीवन का यह नया मोड़ था।

दूसरे दिन सुबह निराली उसके पति नीरज और युथिका बच्चों के कैंसर अस्पताल पहुँचे। युथिका के हाथ से हर बच्चे को खिलौने दिए गए जो उसके मित्र उपहार स्वरूप लाए थे। साथ में हर बच्चे को नए उपहार के रूप में तौलिया, साबुन, टूथ ब्रश, कहानी की पुस्तक, स्कैच पेंसिल और आर्ट बुक दिए गए। युथिका हरेक से बहुत स्नेह से मिली। उपहार देते समय वह बहुत खुश हो रही थी। हर बच्चा खिलौना पाकर खुश था।

बच्चों की खुशी की सीमा न थी। वे झटपट पैकेट खोलकर खिलौने देखने लगे। उनके चेहरे खिल उठे।

वहाँ से निकलकर वे तीनों आनंदभवन गए। यह अनाथाश्रम है। यहाँ के बच्चों के बीच उम्र के हिसाब से वस्त्र के पैकेट बाँटे गए।

उस दिन सारा दिन युथिका अस्पताल की चर्चा करती रही। हमउम्र बच्चों को अस्पताल के वस्त्रों में देखकर और बीमार हालत में देखकर वह भीतर से थोड़ी हिल उठी थी। पर निराली काफी समय से उसे मानसिक रूप से तैयार भी करती जा रही थी कि जीवन सबके लिए आरामदायक और सुंदर नहीं होता।

निराली यहीं नहीं रुकी वह रविवार के दिन पुनः अस्पताल गई। वहाँ के हर बच्चे ने खिलौना पाकर देने वाले के नाम पर एक पत्र लिखा था और यह लिखवाने का काम अस्पताल के सहयोग से ही हुआ था। निराली सारे थैंक्यू पत्र लेकर आई।

अपनी बेटी को भविष्य के लिए तैयार करने के लिए वह अभी से प्रयत्नशील है। वह इस दसवें जन्म दिन की तैयारी के लिए अस्पताल से, बच्चों की माताओं से काफी समय से बातचीत करती आ रही थी।

अगले दिन अपने दफ्तर जाने से पूर्व वह विद्यालय गई। प्रिंसीपल के हाथ में वे थैंक्यू पत्र सौंपकर आई। प्रिंसीपल इस पूरी योजना और आयोजन के लिए निराली की खूब प्रशंसा करते रहे।

शाम की एसेंबली में हर बड़े छोटे विद्यार्थी का नाम लेकर थैंक्यूपत्र दिया गया। यूथिका के घर उसके जन्मदिन के अवसर पर जो छात्र अपना खिलौना देकर आए थे वे अपने नाम का पत्र पाकर अत्यंत प्रसन्न हुए। युथिका के नाम पर भी पत्र था।

अब पत्र व्यवहार का सिलसिला चलता रहा और छात्र अस्पताल के बच्चों के साथ जुड़ते चले गए।

समाज के हर वर्ग को जोड़ने के लिए किसी न किसी को ज़रिया तो बनना ही पड़ता है। इसके लिए संवेदनशीलता और समर्पण की ही तो आवश्यकता होती है। समाज में और कई निराली चाहिए।

© सुश्री ऋता सिंह

24/10/24

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 325 ☆ व्यंग्य – “कोसने में पारंगत बने…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 325 ☆

?  व्यंग्य – कोसने में पारंगत बने…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

लोकतंत्र है तो अब राजा जी को चुना जाता है शासन करने के लिए। लिहाजा जनता के हर भले का काम करना राजा जी का नैतिक कर्तव्य है। जनता ने पांच साल में एक बार धकियाये धकियाये वोट क्या दे दिया लोकतंत्र ने सारे, जरा भी सक्रिय नागरिकों को और विपक्ष को पूरा अधिकार दिया है कि वह राजा जी से उनके हर फैसले पर सवाल करे।

दूसरे देशों के बीच जनता की साख बढ़ाने राजा जी विदेश जाएँ तो बेहिचक राजा जी पर आरोप लगाइये कि वो तो तफरी करने गए थे। एक जागरूक एक्टीविस्स्ट की तरह राइट ऑफ इन्फर्मेशन में राजा जी की विदेश यात्रा का खर्चा निकलवाकर कोई न कोई पत्रकार छापता ही है कि जनता के गाढ़े टैक्स की इतनी रकम वेस्ट कर दी। किसी हवाले से छपी यह जानकारी कितनी सच है या नहीं इसकी चिंता करने की जरुरत नहीं है, आप किस कॉन्फिडेंस से इसे नमक मिर्च लगाकर अपने दोस्तों के बीच उठाते हैं, महत्व इस बात का है।

 विदेश जाकर राजा जी वहां अपने देश वासियों से मिलें तो बेहिचक कहा जा सकता है कि यह राजा जी का लाइम लाइट में बने रहने का नुस्खा है। कहीं कोई पड़ोसी घुसपैठ की जरा भी हरकत कर दे, या किसी विदेशी खबर में देश के विषय में कोई नकारात्मक टिप्पणी पढ़ने मिल जाये या किसी वैश्विक संस्था में कहीं देश की कोई आलोचना हो जाये तब आपका परम कर्तव्य होता है कि किसी टुटपुँजिया अख़बार का सम्पादकीय पढ़कर आप अधकचरा ज्ञान प्राप्त करें और आफिस में काम काज छोड़कर राजा जी के नाकारा नेतृत्व पर अपना परिपक्व व्यक्तव्य सबके सामने पूरे आत्म विश्वास से दें, चाय पीएं और खुश हों। राजा जी इस  परिस्तिथि का जिस भी तरह मुकाबला करें उस पर टीवी डिबेट शो के जरिये नजर रखना और फिर उस कदम की आलोचना देश के प्रति हर उस शहरी का दायित्व होता है जो इस स्तिथि में निर्णय प्रक्रिया में किसी भी तरह का भागीदार नहीं हो सकता।

राजा जी अच्छे कपड़े पहने तो ताना मारिये कि गरीब देश का नेता महंगे लिबास क्यों पहने हुए है, यदि कपडे साधारण पहने जाएँ तो उसे ढकोसला और दिखावा बता कर कोसना न भूलिये। देश में कभी न कभी कुछ चीजों की महंगाई, कुछ की कमी तो होगी ही, इसे आपदा में अवसर समझिये। विपक्ष के साथ आप जैसे आलोचकों की पौ बारह, इस मुद्दे पर तो विपक्ष इस्तीफे की मांग के साथ जन आंदोलन खड़ा कर सकता है। कथित व्यंग्यकार हर राजा के खिलाफ कटाक्ष को अपना धर्म मानते ही हैं। सम्पादकीय पन्ने पर छपने का अवसर न गंवाइए, यदि आप में व्यंग्य कौशल न हो तो भी सम्पादक के नाम पत्र तो आप लिख ही सकते हैं। राजा जी के पक्ष में लिखने वाले को गोदी मीडिया कहकर सरकारी पुरुस्कार का लोलुप साहित्यकार बताया जा सकता है, और खुद का कद बडा किया जा सकता है। महंगाई ऐसी पुड़िया है जिसे कोई खाये न खाये उसका रोना सहजता से रो सकता है। आपकी हैसियत के अनुसार आप जहां भी महंगाई के मुद्दे को उछालें चाय की गुमटी, पान के ठेले या काफी हॉउस में आप का सुना जाना और व्यापक समर्थन मिलना तय है। चूँकि वैसे भी आप खुद करना चाहें तो भी महंगाई कम करने के लिए आप कुछ कर ही नहीं सकते अतः इसके लिए राजा जी को गाली देना ही एक मात्र विकल्प आपके पास रह जाता है।

राजा जी नया संसदीय भवन बनवाएं तो पीक थूकते बेझिझक इसे फिजूल खर्ची बताकर राजा जी को गालियां सुनाने का लाइसेंस प्रजातंत्र आपको देता है, इसमें आप भ्रष्टाचार का एंगिल धुंध सकें तो आपकी पोस्ट हिट हो सकती है। इस खर्च की तुलना करते हुए अपनी तरफ से आप बेरोजगारी की चिंता में यदि कुछ सच्चे झूठे आंकड़े पूरे दम के साथ प्रस्तुत कर सकें तो बढियाँ है वरना देश के गरीब हालातों की तराजू पर आकर्षक शब्दावली में आप अपने कथन का पलड़ा भारी दिखा सकते हैं।

यदि राजा जी देश से किसी गुमशुदा प्रजाति के वन्य जीव चीता वगैरह बड़ी डिप्लोमेसी से विदेश से ले आएं तो करारा कटाक्ष राजा जी पर किया जा सकता है, ऐसा की न तो राजा जी से हँसते बने और न ही रोते। इस फालतू से लगाने वाले काम से ज्यादा जरुरी कई काम आप राजा जी को अँगुलियों पर गिनवा सकते हैं।

यदि धर्म के नाम पर राजा जी कोई जीर्णोद्धार वगैरह करवाते पाए जाएँ तब तो राजा जी को गाली देने में आपको बड़ी सेक्युलर लाबी का सपोर्ट मिल सकता है। राजा जी को हिटलर निरूपित करने, नए नए प्रतिमान गढ़ने के लिए आपको कुछ वैश्विक साहित्य पढ़ना चाहिए जिससे आपकी बातें ज्यादा गंभीर लगें।

कोरोना से निपटने में राजा जी ने इंटरनेशनल डिप्लोमेसी की। किस तरह के सोशल मीडिया कैम्पेन चलते थे उन दिनों, विदेशों को वेक्सीन दें तो देश की जनता की उपेक्षा की बातें, विपक्ष के बड़े नेताओ द्वारा वेक्सीन पर अविश्वास का भरम वगैरह वगैरह वो तो भला हुआ कि वेक्सीन का ऊँट राजा जी की करवट बैठ गया वरना राजा जी को गाली देने में कसर तो रत्ती भर नहीं छोड़ी गई थी।

देश में कोई बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि पर राजा जी का बयान आ जाये तो इसे उनकी क्रेडिट लेने की तरकीब निरूपित करना हर नाकारा आदमी की ड्यूटी होना ही चाहिये, और यदि राजा जी का कोई ट्वीट न आ पाए तब तो इसे वैज्ञानिकों की घोर उपेक्षा बताना तय है।

आशय यह है कि हर घटना पर जागरुखता से हिस्सा लेना और प्रतिक्रिया करना हर देशवासी का कर्तव्य होता है। इस प्रक्रिया में विपक्ष की भूमिका सबसे सुरक्षित पोजीशन होती है, “मैंने तो पहले ही कहा था “ वाला अंदाज और आलोचना के मजे लेना खुद कंधे पर बोझा ढोने से हमेशा बेहतर ही होता है। इसलिए राजा जी को उनके हर भले बुरे काम के लिए गाली देकर अपने नागरिक दायित्व को निभाने में पीछे न रहिये। तंज कीजिये, तर्क कुतर्क कुछ भी कीजिये सक्रीय दिखिए। बजट बनाने में बहुत सोचना समझना दिमाग लगाना पडता है। आप तो बस इतना कीजिये कि बजट कैसा भी हो, राजा कोई भी हो, वह कुछ भी करे, उसे गाली दीजिये, आप अपना पल्ला झाड़िये, और देश तथा समाज के प्रति अपने बुद्धिजीवी होने के कर्तव्य से फुर्सत पाइये।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 213 – चलो चलें महाकुंभ- 2025 ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक कविता चलो चलें महाकुंभ- 2025”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 213 ☆

🌻 चलो चलें महाकुंभ- 2025🌻

 (विधा – दोहा गीत)

 

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।

वेद ग्रंथ सब जानते, भारत भूमि महान।।

 *

सप्त ऋषि की पुण्य धरा, साधु संतों का वास।

बहती निर्मल नीर भी, नदियाँ भी है खास।।

गंगा जमुना धार में, सरस्वती का मान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

 *

 होता है संगम जहाँ , कहते प्रयागराज।

धर्म कर्म शुभ धारणा, करते जनहित काज।।

मोक्ष शांति फल कामना, देते इच्छित दान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

 *

अमृत कुंभ का योग भी, होता शुभ दिन वर्ष।

सारे तीर्थ मंडल में, बिखरा होता हर्ष।।

आता बारह वर्ष में, महाकुंभ की शान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

 *

आते हैं सब देव भी, धरकर योगी भेष।

नागा साधु असंख्य है, काम क्रोध तज द्वेष।।

पूजन अर्चन साधना, करते संगम स्नान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

 *

गंगा मैया तारती, सबको देती ज्ञान।

भक्ति भाव से प्रार्थना, लगा हुआ है ध्यान।। 

पाप कर्म से मोक्ष हो, मांगे यही वरदान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

 *

महाकुंभ यह पर्व है, सर्दियों की यह रीत।

दूर देश से आ मिले, बढ़ती सबकी प्रीत।।

भेदभाव को त्याग के, करना संगम स्नान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 115 – देश-परदेश – समय और साधन तो बदल गए लेकिन हम नहीं बदले ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 115 ☆ देश-परदेश – समय और साधन तो बदल गए लेकिन हम नहीं बदले ☆ श्री राकेश कुमार ☆

दो दशक पूर्व अजमेर से जयपुर बस द्वारा यात्रा करते हुए एक ग्रामीण को बीड़ी पीने से मना करने वाली सूचना की तरफ ध्यानाकर्षण किया था। उसने लपक कर कहा था, हम तो पहले भी बीड़ी पीते थे, अब भी पियेंगे। तू बड़ा आदमी है, तो अपनी माचिस की डिबिया (मारुति कार) में यात्रा किया कर, हम तो बस में बीड़ी पीते ही रहेंगे।

विगत सप्ताह जयपुर की मेट्रो ट्रेन में यात्रा करते हुए पढ़े लिखे प्रतीत हो रहे दो युवा तेज आवाज़ में मोबाइल पर राजनीतिक बहस के मजे ले रहे थे। मेट्रो में तेज आवाज़ के साथ मोबाइल उपयोग निषेध सूचना भी अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषा में बताई जाती है।

अब बीड़ी का चलन बदलकर गुटखे का हो चुका हैं। नियम तोड़ने के लिए नए साधन मोबाइल ही सहारा रह गया हैं। रेल यात्रा में देर रात्रि तक वीडियो सुने और देखे जाते हैं। पुराने समय में कुछ यात्री ट्रांजिस्टर लेकर चलते थे, लेकिन चलती ट्रेन में उसकी कनेक्टिविटी नहीं मिल पाती थी।

हवाई यात्रा जहां सब के बैठने का स्थान निश्चित होता है, लेकिन जैसे ही बोर्डिंग की सूचना मिलती है, पहले हम पहले हम के धक्के लगने लग जाते हैं। अंतरराष्ट्रीय यात्रा में सीट नंबर के अनुसार प्रवेश मिलता है, तो कुछ स्थिति नियंत्रण में रहती हैं।

हवाई यात्रा की समाप्ति पर अधिकतर यात्री गंतव्य स्थान से बहुत पहले उठ कर केबिन से अपना सामान निकालने लग जाते हैं। उतरने की इतनी जल्दी होती है, मानो जहाज में आग लग गई हो। बाहर निकल कर सबका लगेज तो बेल्ट में एक साथ ही आता है। हम सब बेचैन प्राणी हो चुके हैं। सब को जल्दी रहती है, पर कारण कुछ विशेष नहीं होता है। इतनी शिक्षा और विगत कुछ वर्षों से तो व्हाट्स ऐप का भरपूर ज्ञान भी खूब मिला है, हम सबको, लेकिन हम नहीं बदलेंगे। यदि आज अवकाश है, फिर भी आप सब तो जल्दी जल्दी इस लेख को पढ़ रहें हैं, ना ?

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #268 ☆ घडी मोडली… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 267 ?

☆ घडी मोडली ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

संसाराचा गाडा म्हणजे परवड असते

जबाबदारी खांद्यावरती जोखड असते

*

घडी मोडली तेव्हा नव्हता विचार केला

विस्कटलेली घडी घालणे अवघड असते

*

लाखाचा मी हिशेब करतो बसून येथे

दिवाणजी मी ती दुसऱ्याची रोकड असते

*

काही बाळे श्रावण झाली कलियुगात या

त्या बाळाच्या खांद्यावरती कावड असते

*

रांधा वाढा करते आहे आनंदाने

तिच्याच नशिबी तर उरलेली खरवड असते

*

असून पैसा साथ देइना शरीर माझे

या देहाची तेव्हा चालू तडफड असते

*

लंगोटाने सुरू जाहला प्रवास होता

अखेरीसही सफेद कोरे कापड असते

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 220 – “जरा सम्हालो बेटी-…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत जरा सम्हालो बेटी-...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 220 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “जरा सम्हालो बेटी-...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

माँ के आँचल में दुबकी

यह सोच रही मुनिया

जिसे निष्कपट समझी

थी वह जालसाज दुनिया

 

चौराहा चुपचाप

कनखियों से देखा करता

उसकी भी नजरें विचित्र

जो पहने है कुरता

 

फटी परदनी* वाला वह

मन-राखन पनवाड़ी

कहता- क्यों नाराज

दिखा करती है तू मुनिया

 

घर है बटा हुआ, पड़ौस

का सत्यशील लड़का

बँटी भीट से उचक-उचक

कर, घूरे है बड़का

 

“पाने की जिद में जो”

हर इक मावस -पूनम को

जादू – टोने करवाता वह

बदल – बदल गुनिया

 

नये – नये आरोप गढ़ा

करती सुशील भाभी

घर के विश्वासों की है

उसके हाथों चाभी

 

रोज दिया करती है

ताने अपनी सासू को

” जरा सम्हालो बेटी-

बड़ी हो गई चुनमुनिया”

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

25-12-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

श्री यशोवर्धन पाठक

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

स्व. हीरालाल गुप्ता

☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ ☆

☆ “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक

सबको  प्रोत्साहन और प्रकाशन देने वाले स्व. हीरालाल जी गुप्ता प्रदर्शन से परे गुप्त ही बने रहना चाहते थे। न तो उन्होंने अपने पत्रकार होने का कभी ढिंढोरा पीटा और न ही कभी किसी पर रौब गालिब किया। कलम को कभी कुल्हाड़ी नहीं बनने दिया। पद और अधिकार उनके व्यक्तित्व पर कभी हावी नहीं हो पाये।

उपरोक्त प्रतिक्रिया है सुप्रसिद्ध साहित्यकार और पत्रकार श्रद्धेय डा. राजकुमार सुमित्र जी की, जो कि उन्होंने पत्रकारिता और साहित्य के सशक्त स्तंभ श्रद्धेय स्व. श्री हीरालाल जी गुप्ता के व्यक्तित्व और कृतित्व को उजागर करते हुए एक लेख में व्यक्त की थी। गुप्ता जी आत्म विज्ञापन और प्रचार से दूर रह कर सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धांत पर ही विश्वास करते थे। वे जीवन पर्यन्त सादगी से ही रहे और उन्होंने नाटकीयता, बनावटीपन और प्रदर्शन से दूर रह कर अपने व्यवहार और वाणी में भी सादगी और स्वाभाविकता को ही प्रमुखता दी। यही कारण है कि जहां पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने निर्भीकता और निष्पक्षता जैसे मानदंडों को अपनाया वहीं कविता के क्षेत्र में उन्होंने भावनात्मकता और हार्दिकता के साथ अपनी काव्यात्मक प्रतिभा का परिचय दिया।

बचपन में मेरे घर पर जो विशिष्ट व्यक्ति परिवार के मध्य सराहनात्मक रुप से चर्चा का विषय बनते उनमें श्रद्धेय श्री हीरालाल जी गुप्ता भी प्रमुख रुप से शामिल रहते। पूज्य पिता स्व. पं. भगवती प्रसाद जी पाठक के अभिन्न मित्र के रुप में चाहे जब गुप्ता जी के व्यक्तित्व की चर्चा होती। बाद में बड़े भाई श्री हर्षवर्धन, सर्वदमन और प्रियदर्शन ने भी “नवीन दुनिया” समाचार पत्र से पत्रकारिता प्रारंभ की और श्री गुप्ता जी ने मेरे तीनों भाइयों के पत्रकारिकता कार्य में संरक्षक और शिक्षक  की प्रभावी भूमिका का निर्वहन किया। घर पर जब श्री गुप्ता जी की प्रखर लेखनी और प्रेरक व्यक्तित्व के बारे में बातचीत होती तो मैं बड़े ध्यान से बातें सुना करता। पिताजी द्वारा गणेश उत्सव पर आयोजित काव्य गोष्ठी में जब गुप्ता जी घर आते तो उनकी कविताएं सुनने का मुझे भी अवसर मिलता। उनकी कविताएं हम सभी को मंत्रमुग्ध कर जातीं। बड़े भाइयों के साथ मै भी उन्हें चाचा जी कहकर संबोधित और सम्मानित करता और गौरवान्वित होता।

महाविद्यालयीन अध्ययन के दौरान नवीन दुनिया प्रेस में मैं अक्सर आदरणीय श्री गुप्ता जी से मिलने जाया करता। वे मुझसे बड़े अपनेपन के साथ मेरे वर्तमान और भविष्य के संबंध में अनेक चर्चाएं करते और यथोचित मार्गदर्शन करते। उनका सोचना था कि व्यक्ति की जिस क्षेत्र में  रुचि हो, उसी क्षेत्र में उसे आगे बढ़ना चाहिए। वे मेरी रुचि को देखते हुए मुझे हमेशा लेखन के लिए प्रोत्साहित करते। उनका नजरिया था कि मुझे पत्रकारिता या अध्यापन के क्षेत्र में कार्य करना चाहिए। मैंने जब सहकारी  प्रशिक्षण के क्षेत्र में व्याख्याता और प्राचार्य के दायित्वों का निर्वाह करते हुए साहित्यिक लेखन भी जारी रखा  तो मुझे गुप्ता जी की सभी बातें बरबस याद आ गईं कि उनका मार्गदर्शन मेरे लिए कितना महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। एक मैं हूं जिसे गुप्ता जी का इतना प्यार मिला, प्रेरणा मिली, लेकिन मेरे जैसे न जाने कितने होंगे जिनके जीवन निर्माण में गुप्ता जी का मार्गदर्शन सहायक सिद्ध हुआ होगा।

कविता के क्षेत्र में गुप्ता जी का उपनाम “मधुकर” उनके जीवन में सदा अपनी सार्थकता प्रदर्शित करता रहा। उनकी सहजता और सरलता उनके जीवन की एक बड़ी विशेषता रही। तभी आदरणीय श्री श्याम सुन्दर शर्मा ने उनके बारे में लिखा था कि “श्री गुप्ता जी की एक और विशेषता थी, उनका वैष्णव स्वभाव। उनके व्यक्तित्व की सरलता और सहजता ने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा। न तो उनकी वेषभूषा में बदलाव आया और न ही उनके व्यवहार में। आक्रामकता तो उन्हें छू तक नहीं गई थी लेकिन जो बात उन्हें सही लगती उस पर वे अडिग रहते थे और यही कारण था कि उन्हें पत्रकारिता के कार्य काल में अपने संपादकीय सहयोगियों का  भरपूर सहयोग मिला। गुप्ता जी अपने पत्रकारिता और सामाजिक जीवन में  अजातशत्रु  के रुप में सभी के मध्य सदा सम्मानित रहे। स्व. श्री हीरालाल जी गुप्ता आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी स्मृतियां हमारे मानस पटल पर आज भी हमें प्रेरित और प्रभावित करतीं हैं। स्व. गुप्ता जी की स्मृति में जबलपुर की  अनेक  साहित्यिक संस्थाऐं 24 दिसंबर को स्व. हीरालाल गुप्ता जयंती समारोह आयोजित करती रही हैं, मेरे दृष्टिकोण से यह आयोजन युवा पीढ़ी को पत्रकारीय मूल्यों के साथ सकारात्मक दिशा दर्शन का  प्रेरक आयोजन होता था। इस आयोजन में स्वर्गीय गुप्ता जी के परिवार के सभी सदस्यों की सहभागिता रहती थी। स्व. गुप्ता जी को सादर नमन।        ‌‌

© श्री यशोवर्धन पाठक

संकलन – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 203 ☆ # “नववर्ष की नई किरण…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता नववर्ष की नई किरण…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 203 ☆

☆ # “नववर्ष की नई किरण…” # ☆

नव वर्ष की पहली किरण

प्रेम का संदेश लाई है

गगन में सुरमई रंग की

घटा छाई है

पुलकित है हर लम्हा

उम्मीदों पर जवानी आई है

 

अब नई उमलती कलियाॅ होगी

अब फूलों से भरी डलियाॅ  होगी

महकती  बगिया होगी

भंवरों की रंगरलिया होगी

 

हर हाथ को काम होगा

हर हाथ में दाम होगा

हर घर में चूल्हा जलेगा

बेरोजगारी का ना नाम होगा

 

अब कोई न भूखा होगा

मौसम कितना भी रूखा होगा

फसलें खेतों में लहराएगी

बिन पानी के ना सूखा होगा

 

शिक्षा सुलभ सस्ती होगी

शिक्षित हर गांव हर बस्ती होगी

शिक्षा की जब धारा बहेगी

हर गांव से एक महान हस्ती होगी

 

महिलाओं को सम्मान मिलेगा

हर क्षेत्र में मान मिलेगा

नारी शक्ति का लोहा मानकर

वाह वाह करता हर इंसान मिलेगा

 

सब तरफ खुशियों का नजारा होगा

हर कमजोर का सहारा होगा

हर चेहरे पर खुशियां होगी

उम्मीदों से भरा नया साल हमारा होगा/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 271 ☆ व्यंग्य – एक प्यारा प्यारा जीव ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘एक प्यारा प्यारा जीव‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 271 ☆

☆ व्यंग्य ☆ एक प्यारा प्यारा जीव

मोहन बाबू को कुत्तों से ‘एलर्जी’ है। सड़क पर कुत्ते को आते देखते हैं तो साइड बदल देते हैं। आसपास कोई कुत्ता आ जाए तो तुरन्त हाथ में पत्थर लेकर ‘दूर-दूर’ करना शुरू कर देते हैं। जिन घरों में कुत्ते हैं उनमें प्रवेश करने से पहले गेट को खटखटाकर गृहस्वामी को बाहर बुला लेते हैं ताकि आदमी से पहले कुत्ते से मुलाकात न हो जाए। ऐसे घरों में भीतर बैठने पर अगर कुत्ता प्रेमवश उनके पास आकर उन्हें सूंघना-सांघना शुरू कर दे तो उनकी रीढ़ में डर की झुरझुरी दौड़ने लगती है और पांव अपने आप ज़मीन से ऊपर हवा में उठ जाते हैं। यह प्रेम-क्रीडा देर तक चली तो वे गुहार लगाना शुरू कर देते हैं, ‘अरे भाई, इसे पकड़ो।’ गृहस्वामी मित्र हुआ तो शिकायत भी कर देते हैं, ‘यह क्या बला पाल ली, यार। घर में बैठना मुश्किल है।’

मोहन बाबू का अपना मकान है। घर में सिर्फ चार प्राणी हैं— खुद,पत्नी, एक पढ़ने वाला बेटा और एक अविवाहित बेटी। दो बड़े बेटे नौकरियों पर बाहर हैं और एक बड़ी बेटी विवाह को प्राप्त हो ससुराल में सुखी है।

रिटायर होने पर मोहन बाबू को इकट्ठी रकम मिली तो ऊपर तीन कमरे बनवाये और ऊपर ही शिफ्ट हो गये। नीचे का बड़ा हिस्सा किराये पर दे दिया। मुहल्ला शहर के भीतर है इसलिए मकानों का किराया तगड़ा है। मोहन बाबू का मकान बीस हज़ार रुपये महीने में उठ गया। किरायेदार वर्मा साहब एक प्राइवेट कंपनी में अधिकारी हैं।
वर्मा साहब के परिवार के आने से पहले उनका सामान आया। सामान को देखकर मुहल्ले वालों ने जांच लिया कि आदमी हैसियत और नफ़ासत वाला है। सामान के बाद कार और  स्कूटरों पर परिवार के सदस्य आये। मोहन बाबू का खून यह देखकर सूख गया कि कार में एक कद्दावर, काली चमकदार चमड़ी वाला श्वान भी विराजमान था। वर्मा जी से पहले उसके बारे में कोई बात नहीं हुई थी। अब कहने से क्या फायदा? मोहन बाबू ने सोचा कि उन्हें तो ऊपर रहना है, उन्हें क्या फर्क पड़ने वाला है। बस नीचे आते-जाते थोड़ा संभल कर चलना होगा।

वर्मा जी सवेरे कुत्ते को टहलाने ले जाते थे। लगता था कि कुत्ता ही उनको टहलाने ले जा रहा है क्योंकि कुत्ता आगे आगे भागता था और वे उसकी जंजीर पकड़े पीछे घिसटते जाते थे। उसी वक्त मुहल्ले  के कुछ और कुत्तों के स्वामी अपने अपने कुत्तों को टहलाने निकलते थे। वर्मा जी के कुत्ते को देखकर दूसरे कुत्तों का शौर्य जागता था और वे भौंकना और उसकी तरफ लपकना शुरू कर देते थे। लेकिन बार-बार लपकने के बाद भी वे उससे सुरक्षित दूरी बनाये रखते थे और शौर्य प्रदर्शन के वक्त भी उनकी दुम टांगों के बीच चिपकी रहती थी। वर्मा जी का कुत्ता उनकी तरफ हिकारत से देखता हुआ, बेपरवाह, अपने रास्ते चला जाता था। अगर कभी वह रुक कर किसी कुत्ते की तरफ देख ले तो वह कुत्ता डर कर अपने मालिक की टांगों के बीच घुस जाता था।

कभी वर्मा जी का कुत्ता जंजीर से छूटकर सड़क पर आ जाए तो आसपास के घरों में हड़कंप मच जाता था। पड़ोसियों के दरवाजे़ फटाफट बन्द हो जाते, और वे तभी खुलते जब कुत्ते को पकड़ कर फिर से जंजीर से बांध दिया जाता। घरों के आसपास खड़े लोग दौड़कर भीतर घुस जाते और सड़कें सूनी हो जातीं। मोहन बाबू ऊपर इन बातों से अप्रभावित रहते थे।

अन्त में पास-पड़ोस के लोग एक ‘डेलिगेशन’ लेकर मोहन बाबू के पास पहुंचे। उन्हें उस खूंखार कुत्ते के आने से पैदा हुए संकट के बारे में बताया और उन्हें सलाह दी कि  उन्हें अच्छे पड़ोसी का धर्म निबाहते हुए इस संकट का समाधान करना चाहिए। चूंकि अकेले कुत्ते को मुहल्ले से निष्कासित नहीं किया जा सकता, इसलिए उसके स्वामी से ही कोई दूसरा घर देख लेने के लिए कहना चाहिए। किरायेदारों की क्या कमी है? वर्मा जी जाएंगे तो दूसरा आ जाएगा।

मोहन बाबू धर्मसंकट में पड़ गये। बात सही थी। कुत्ते से लोग खासे आतंकित थे। उसकी वजह से लोग ऐसे चौकन्ने रहते थे जैसे मुहल्ले में कोई शेर आ गया हो। बच्चों को मोहन बाबू के घर से दूर रहने की हिदायत थी। कुत्ते के दर्शन मात्र से लोगों की रीढ़ में कंपकंपी दौड़ जाती थी। मोहन बाबू को खुद भी कुत्ते से परेशानी होती थी। कुत्ता रोज़ सवेरे बड़ी देर तक भौंकता रहता था। मोहन बाबू सवेरे रामायण का पाठ करते थे। कुत्ते के भौंकने के कारण उनकी रामायण गड़बड़ हो जाती थी।

उन्होंने पड़ोसियों को आश्वासन दिया कि वे वर्मा जी से बात करेंगे।

वर्मा जी ने पड़ोसियों के दल को देखकर स्थिति को भांप लिया था और मोहन बाबू का बुलावा आने से पहले उन्होंने अपनी रणनीति तैयार कर ली थी। यह मुहल्ला उनके लिए सुविधाजनक था और वे किसी भी कीमत पर उसे छोड़ना नहीं चाहते थे।

मोहन बाबू ने वर्मा जी को बुलाया। उनके आने पर संकोच से बोले, ‘मुहल्ले के कुछ लोग आये थे।’

वर्मा जी सावधानी से बोले, ‘हां मैंने देखा था।’

मोहन बाबू बोले, ‘आपके कुत्ते को लेकर एतराज़ कर रहे थे।’

वर्मा जी ने आश्चर्य व्यक्त किया, कहा, ‘अच्छा। टाइगर तो बड़ा भला जानवर है। कभी किसी को तंग नहीं करता। वैसे भी हम उसको बांधकर रखते हैं।’

मोहन बाबू हंसे, बोले, ‘हां, लेकिन लोग उसकी शक्ल-सूरत से डरते हैं।’

वर्मा जी बोले, ‘अब इसके लिए क्या कीजिएगा? अगर कोई कुत्ते के फोटो या उसके खिलौने से डरने लगे तो उसका क्या इलाज है? यहां के लोग भी खूब हैं।’

फिर उन्होंने अपना अस्त्र निकाला। बोले, ‘मुझे आपसे एक बात करनी थी। आपके घर में मुझे सब सुविधा मिल रही है। अच्छा मकान मालिक खुशकिस्मती से मिलता है। मुझे लग रहा है कि आपने अपनी भलमनसाहत की वजह से मकान का किराया कम रखा है। मुझे हाल में तरक्की मिली है। सोचता हूं किराया दो हज़ार रुपये बढ़ा दूं।’

मोहन बाबू गद्गद हुए। लक्ष्मी जी बिना पूर्व सूचना के आ गयीं। बोले, ‘आप बड़े सज्जन व्यक्ति हैं। अपने मन से भला कौन  किरायेदार किराया बढ़ाता है?’

अस्त्र की सफलता के बारे में निश्चिन्त होने के बाद वर्मा जी बोले, ‘आप टाइगर के बारे में कुछ कह रहे थे?’

मोहन बाबू बोले, ‘उसके बारे में अब क्या कहना। वह तो बड़ा प्यारा जीव है। इन मुहल्ले वालों का दिमाग मुफ्त ही खराब होता रहता है।’

वर्मा जी मोहन बाबू को चित्त करके नीचे उतर आये।

मुहल्ले वालों ने जब देखा कि वर्मा जी मोहन बाबू के घर में अंगद के पांव से जमे हैं तो पुराने डेलिगेशन के एक दो सदस्य मोहन बाबू के पास पहुंचे।

पूछा, ‘आपने उस मामले में कोई कार्यवाही नहीं की?’

मोहन बाबू ने भोलेपन से पूछा, ‘किस मामले में?’

वे बोले, ‘हमने आपसे कहा था न कि वर्मा जी को दूसरा घर देख लेने के लिए कह दीजिए।’

मोहन बाबू याद करने का अभिनय करते हुए बोले, ‘अरे वाह! मैंने उस पर विचार किया था। अब,भाई, मुश्किल यह है कि मैं सभी जीवों से बहुत प्रेम करता हूं। और फिर यह कुत्ता तो बड़ा ही प्यारा है। देखने में भले ही डरावना लगे लेकिन है बड़ा सीधा-सादा। आज तक किसी को नहीं काटा।

‘दूसरी बात यह है कि कुत्ते को जरूरी इंजेक्शन लगे हुए हैं। धोखे से काट भी लेगा  तो कोई नुकसान नहीं होगा। मरहम-पट्टी तो वर्मा जी करा ही देंगे। बड़े भले आदमी हैं। ऐसे किरायेदार बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। आप लोग बेकार ही कुत्ते को लेकर परेशान हो रहे हैं।’

पड़ोसी बोले, ‘आप उस कुत्ते के पीछे मुहल्ले वालों से बुराई ले रहे हैं।’

मोहन बाबू ने सन्तों की वाणी में जवाब दिया, ‘बुराई तो आप लोग ही बेकार में पाल रहे हैं। मैं तो सब मुहल्ले वालों से प्रेम करता हूं। आप जीव-दया के सिद्धान्त से हटकर मुझे परेशानी में डाल रहे हैं। दूसरे देशों में लोग पशु- पक्षियों को बचाने में लगे हैं, यहां आप एक कुत्ते के पीछे लाठी लेकर पड़े हैं।’

मुहल्ले वाले कुपित होकर उठ गये और मोहन बाबू उनसे मुक्ति पाकर गुनगुनाते हुए अपने काम में लग गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 272 – स्थितप्रज्ञ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 272 ☆ स्थितप्रज्ञ… ?

एक ऑटो रिक्शा ड्राइवर हमारी सोसायटी के पास ही रहा करते थे। सज्जन व्यक्ति थे।अकस्मात मृत्यु हो गई। एक दिन लगभग उसी जगह एक रिक्शा खड़ा देखा तो वे सज्जन याद आए। विचार उठा कि आदमी के जाने के बाद कोई उसे कितने दिन याद रखता है? चिता को अग्नि देने के बाद परिजनों के पास थोड़ी देर  रुकने का समय भी नहीं होता।

एक घटना स्मरण हो आई। एक करीबी परिचित परिवार में शोक प्रसंग था। अंतिम संस्कार के समय, मैं श्मशान में उपस्थित था। सारी प्रक्रिया चल रही थी। लकड़ियाँ लगाई जा रही थीं। साथ के दाहकुंड में कुछ युवा एक अधेड़ की देह लेकर आए थे। उन्होंने नाममात्र लकड़ियाँ लेकर अधिकांश उपलों का उपयोग किया। श्मशान का कर्मचारी समझाता रह गया, पर केवल उपलों के उपयोग से से देह के शीघ्र फुँक जाने का गणित समझा कर अग्नि देने के तुरंत बाद  वे सब चलते बने।

हमें सारी तैयारी में समय लगा। दाह दिया गया। तभी साथ वाले कुंड पर दृष्टि गई तो जो दृश्य दिखा, उससे भीतर तक मन हिल गया। मानो वीभत्स और विदारक एक साथ सामने हों। उस देह का एक पाँव अधजली अवस्था में लगभग पचास अंश में ऊपर की ओर उठ गया था। अधिकांश उपलों के जल जाने के कारण देह के कुछ अन्य भाग भी दिखाई दे रहे थे। 

 श्मशान के कर्मचारी से सम्पर्क करने पर उसने बताया कि हर दिन ऐसे एक-दो मामले तो होते ही हैं, जिनमें परिजन तुरंत चले जाते हैं। बाद में फोन करने पर भी नहीं आते। अंतत:  मृत देह का समुचित संस्कार श्मशान के कर्मचारी ही करते हैं।

लोकमान्यता है कि जिसका कोई नहीं होता, उसका भी कोई न कोई होता है। अपनी कविता ‘स्थितप्रज्ञ’ याद हो आई-

शव को / जलाते हैं / दफनाते हैं,

शोक, विलाप / रुदन, प्रलाप,

अस्थियाँ, माँस, / लकड़ियाँ, बाँस,

बंद मुट्‌ठी लिए / आदमी का आना,

मुट्‌ठी भर होकर / आदमी का जाना,

सब देखते हैं /सब समझते हैं,

निष्ठा से / अपना काम करते हैं,

श्मशान के ये कर्मचारी

परायों की भीड़ में /अपनों से लगते हैं,

घर लौटकर /रोज़ाना की सारी भूमिकाएँ

आनंद से निभाते हैं / विवाह, उत्सव

पर्व, त्यौहार /सभी मनाते हैं

खाते हैं, पीते हैं / नाचते हैं, गाते हैं,

स्थितप्रज्ञता को भगवान,

मोक्षद्वार घोषित करते हैं,

संभवत: / ऐसे ही लोगों को,

स्थितप्रज्ञ कहते हैं..!

विश्वास हो गया कि जिसका कोई नहीं होता, उसका भी कोई न कोई होता है। इस स्थितप्रज्ञता को प्रणाम !

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© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जावेगी। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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