हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 299☆ साइबर ठगी से बचें… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 299 ☆

? साइबर ठगी से बचें? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) तकनीक की मदद से हमारी एक मिनट की आवाज की क्लिप से नकली आवाज बनाकर नाते-रिश्तेदारों से सायबर अपराधी मोटी रकम ऐंठ रहे हैं। आपकी सजगता ही एकमात्र बचाव है।

मोबाइल पर ओटीपी आए तो उसे बिना पढ़े कभी कोई कार्यवाही न करें। ओटीपी पढ़ने से पता लग जाएगा कि ओटीपी आया क्यों है। गलती तब होती है, जब बिना मैसेज पढ़े किसी को हम ओटीपी बता देते हैं। इससे ठग हैकिंग कर लाखों रुपये का चूना लगा देते हैं।

मोबाइल गेम के लिए ऑनलाइन सब्सक्रिप्शन हटाएं …

बच्चे अक्सर मोबाइल फोन पर गेम खेलते हैं। इनमें कई गेम ऐसे होते हैं, जिनका ऑनलाइन सब्सक्रिप्शन लेना पड़ता है। बच्चे बिना बताए एटीएम या फिर क्रेडिट कार्ड से गेम को ऑनलाइन खरीद में उपयोग कर लेते हैं। इसमें एक बार ही ओटीपी की जरूरत होती है। फिर, बगैर ओटीपी के खाते से पैसा लगातार कटता रहता है। इस सेटिंग को तुरंत बदल दें।

चक्षु पोर्टल पर नंबर कराएं ब्लॉक

फोन पर बैंक केवाईसी, बिजली, गैस कनेक्शन, इंश्योरेंस पॉलिसी, ऑनलाइन नौकरी, लोन, ऑफर, गिफ्ट, लॉटरी या फर्जी कस्टमर केयर जैसे फोन बारंबार आते हों तो इनकी चक्षु पोर्टल पर शिकायत करके ब्लॉक करा देना चाहिए।

ऐसे पता करें, आपके नाम से कितने सिम …

अक्सर हमारे आधार कार्ड का दुरुपयोग करके कई सिम जारी करा लिए जाते हैं। इसका पता तब लगता है, जब इस सिम से कोई अपराध पकड़ा जाता है। आपके नाम से कितने सिम अलॉट हैं, इसे sancharsaathi.gov.in पर जाकर सिटीजन सेंट्रिक सर्विसेज पर क्लिक करने के बाद टैफकोप के विकल्प पर क्लिक करके जान सकते हैं।

व्हाट्सएप हैक होने से बचें…

  • अनजान फाइल को फोन में डाउनलोड न करें। खासकर उन फाइलों को जिनमें डॉट एपीके लिखा हो। इसे डाउनलोड करने पर व्हाट्सएप हैक हो सकता है।
  • *405* अनजान मोबाइल नंबर# डायल करने से भी व्हाट्सएप हैक हो सकता है।

फोन चोरी होने पर तुरंत दें सूचना…

बैंक अकाउंट से जुड़े फोन के चाेरी होने या गुम होने पर खाता ब्लॉक कराने के साथ तुरंत सीईआईआर पोर्टल पर गुमशुदगी दर्ज कराएं। यहां फोन का ईएमईआई नंबर व अन्य जानकारी देनी होती हैं।

ठग प्रायः इस तरह के प्रलोभन देकर हमे फंसाते हैं …

  • यूट्यूब विज्ञापन लाइक करने पर पेमेंट
  • प्रोडक्ट लाइक या रिव्यू करने पर कमाई
  • पेंसिल बनाने और पैकिंग करने का काम।
  • सस्ते दामों पर ऑनलाइन गाय-भैंस बेचना।
  • ओएलएक्स पर खुद को आर्मी का जवान बताकर सामान खरीदना व बेचना।
  • घर की छत या खेत में टावर लगवाने का लालच देना।
  • स्काॅलरशिप, सरकारी योजना और शादी की राशि देने के नाम पर।
  • सरकारी नौकरी के नाम पर पत्र देना।
  • एटीएम बूथ पैसे निकालने की मदद करना।
  • एटीएम लगवाने के लिए
  • लाटरी निकल गई यह सूचना
  • बिजली या फोन बंद करने की चेतावनी
  • पार्सल में कुछ गलत सामान पकड़ा गया है
  • रिवार्ड प्वाइंट समाप्त हो रहे हैं
  • शेयर ट्रेडिंग या निवेश के नाम पर पैसा कई गुना करना।

यहां तुरंत शिकायत करें

  • 1930
  • cybercrime.gov.in

सावधानी ही बचाव है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 218 ☆ बाल गीत – बच्चों से गूँजे किलकारी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 218 ☆

बाल गीत – बच्चों से गूँजे किलकारी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

गौतेयाँ हैं प्यारी – प्यारी।

मनमोहक हैं राजदुलारी।।

नीड़ बनातीं घर , दुकान में

गातीं ये तो मधुर तान में

दिखतीं अपनी अलग शान में

 *

मौसम से है इनकी यारी।

गौतेयाँ हैं प्यारी – प्यारी।।

 *

जिस घर में यह नीड़ बनातीं

उस घर में खुशहाली लातीं

इनको ऋतु वसंत ही भाती

 *

खुशियों में है भागीदारी।

गौतेयाँ हैं प्यारी – प्यारी।।

 *

मिट्टी से यह नीड़ बनातीं

पर्वत ही हैं इनकी थाती

नदी , धरा से भोजन पातीं

 *

जीवन इनका लगे सुखारी।

गौतेयाँ हैं प्यारी – प्यारी।।

 *

नर – मादा मिलजुलकर रहते

दुख – सुख सारे हँसकर सहते

अंडे ‘से’ कर बच्चे करते

 *

बच्चों से गूँजे किलकारी।

गौतेयाँ हैं प्यारी – प्यारी।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #185 – बाल कहानी – बांट कर खाएं ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक कहानी- बांट कर खाएं

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 185 ☆

बाल कहानी – बांट कर खाएं ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

संगीता कोई भी चीज किसी को नहीं देती थी. वह अकेली खाती थी. यह बात उस की दोस्त अनीता जानती थी. जब कि अनीता कोई चीज लाती वह संगीता सहित अपनी दोस्त को भी देती थी.

आज जब अनीता ने देखा कि संगीता नई तरह की चॉकलेट लाई है तो उसे का मन ललचा गया. काश! आज वह संगीता से नई तरह की चॉकलेट ले कर खा पाती. मगर क्या करें? संगीता किसी को चॉकलेट नहीं देगी. यह बात वह जानती थी.

अनीता ने अपने बस्ते से लंबी वाली चॉकलेट (पर्क) निकाली. धीरे से संस्कृति को देते हुए बोली, “यह लो बड़ी वाली चॉकलेट.”

संस्कृति को चॉकलेट खाने का शौक था. वह अपनी मनपसंद चॉकलेट देख कर बोली, “अरे वाह! मजा आ गया.”

 फिर अपने बस्ते से टिफिन निकाल कर अनीता को दो गुलाब जामुन दे दिए, “तुम मीठे गुलाब जामुन खाओ.”

यह देख कर संगीता के मुंह में पानी आ गया. वह उन दोनों की ओर देखने लगी. शायद वे उसे अपनी चीज दे दे.

मगर हमेशा की तरह उन्होंने ऐसा नहीं किया. वे आपस में मिल-बाँट कर चीजें खाने लगी. तब संगीता समझ गई जब तक वह उन्हें खाने की चीजें नहीं देगी तब तक वे उसे चीजें नहीं देगी.

‘मगर क्यों?’ संगीता के मन ने कहा, ‘वे हमेशा मुझे अपनी खाने की चीजें देती है.’

इस पर उसके मन में से दूसरी आवाज आई, ‘मगर तू उसे अपनी खाने की चीजें नहीं देती है तब वे क्यों देगी?’

“अगर मैं उन्हें अपनी खाने की चीजें दे दूं तो,” अचानक वह बड़बड़ा कर बोली. तब अनीता ने कहा, “अरे संगीता! तुमने कुछ कहा है?”

“हां हां,” संगीता बोली, “मैं मीठी वाली चॉकलेट लाई हूं. एक-एक तुम दोनों भी खा कर देखो,” यह कहते हुए उसने दोनों को एक-एक चॉकलेट दे दी.

अनीता और संस्कृति वैसे भी बांटचूट कर खाती थी. उन्होंने झट से अपने-अपने टिफिन से लंबी वाली चॉकलेट और गुलाब जामुन निकाल कर उसे दे दिए.

संगीता ने जब गुलाब जामुन खाए तो उसे बहुत स्वादिष्ट लगे. वैसे भी उसे गुलाब जामुन बहुत अच्छे लगते थे. इस कारण उसने कहा, “संस्कृति, गुलाब जामुन बहुत स्वादिष्ट हैं. ये कहां से लाई हो?”

इस पर संस्कृति ने जवाब दिया, “ये मेरी मम्मी ने बनाए हैं.”

“और यह लंबी वाली चॉकलेट?” संगीता ने पूछा तो अनीता ने जवाब दिया, “तेरी तरह मैं भी बाजार से खरीद कर लाई हूं.”

“अरे वाह! आज तो मजा आ गया,” संगीता ने कहा, “हम एकएक चीज घर से लाई हैं और तीन-तीन चीज खाने को मिल गई है.”

इस पर अनीता ने जवाब दिया, “यह तो बांटचूट कर खाने का मजा है।” कह कर तीनों खिलखिला कर हंस दी.

आज उन्हें बांटने का मजा मिल गया था.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-05-2023

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग २४ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग २४ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

 (पूर्वसूत्र- स्टॅंडच्या बाकावर बसून रात्र जागून काढताना सलगच्या धावपळीच्या प्रवासानंतरचा अपरिहार्य असा थकवा होताच पण त्याचा त्रास मात्र जाणवत नव्हता. पौर्णिमा अंतरली नसल्याचं समाधान माझ्या थकल्या मनावर फुंकर घालत होतं! त्याच मन:स्थितीत मी कधीकाळी ऐकलेले बाबांचे शब्द मला आठवले…

‘निश्चय केला तरी त्या निश्चयापासून परावृत्त करणारे प्रसंग सतत समोर येत रहातात, तेच आपल्या कसोटीचे क्षण! जे त्या कसोटीला खरे उतरतील तेच तरतात.. !’

त्या रात्री स्टॅंडवरच्या एकांतात बाबांच्या या शब्दांचा नेमका अर्थ मला माझ्या त्या दिवशीच्या अनुभवाच्या पार्श्वभूमीवर खऱ्या अर्थाने समजला होता!!) इथून पुढे —- 

एरवी अविश्वसनीय आणि अतर्क्य वाटावीत अशी यासारखी अनेक घटीतं पुढे प्रत्येक वेळी मला मात्र ‘तो’ आणि ‘मी’ यांच्यातलं अंतर कमी होत चालल्याची आनंदादायी अनुभूती देत आलेली आहेत!

यावेळी पौर्णिमेची तारीख बघण्यात माझी नकळत झालेली चूक आणि त्यामुळे पौर्णिमेचं दर्शन अंतरण्याची निर्माण झालेली शक्यता हा बाबा नेहमी म्हणायचे तसा माझ्या कसोटीचाच क्षण असावा आणि केवळ अंत:प्रेरणेनेच मी सलग दोन रात्रींचं जागरण करून भुकेल्यापोटी आंतरीक ओढीने ‘त्या’च्याकडे धाव घेत कसोटीला खरा उतरलो असेन. कारण त्यानंतरच्या महाबळेश्वरमधील पुढच्या साधारण पावणेतीन वर्षांच्या कालावधीत अशी कसोटी पहाणारे क्षण कधी आलेच नाहीत. या प्रदीर्घकाळात ब्रॅंचमधील सगळी कामे, जबाबदाऱ्याच नव्हेत फक्त तर प्रत्येक पॅरामीटर्सवरील माझा परफॉर्मन्सही वरिष्ठांकडून मला शाबासकी मिळवून देणारा ठरत होताच, शिवाय दर पौर्णिमेलाही जाणिवपूर्वक नियोजन न करताच सगळं कांही निर्विघ्नपणे पार पडत होतं!आश्चर्य हे कीं या पौर्णिमेनंतरच्या पुढच्या अडीच-तीन वर्षातल्या कुठल्याच पौर्णिमेच्या प्रवासासाठी मला ना कधी रजा घ्यायला लागली ना कधी प्रवासासाठी कसला खर्चही करावा लागला. कारण नेमक्या त्यावेळी अचानक असं काही घडून जायचं की पौर्णिमेच्या जवळपास जसंकांही बँकेमार्फत दत्तमहाराजच मला बोलावून घ्यायचे!दरवेळी निमित्तं पूर्णत: वेगळी असत पण ती निर्माण होत ती मात्र पौर्णिमेच्या सलग आधी किंवा नंतर. आमचं रिजनल ऑफिस कोल्हापूरलाच होतं. तिथे कधी हिंदी वर्कशॉपसाठी ब्रॅंचतर्फे मला जावं लागे, कधी ब्रॅंच-मॅनेजर्स मीटिंगसाठी, कधी कोर्टात सुरू असलेल्या वसुली केसेसमधे साक्षीदार म्हणून कोल्हापूरच्या कोर्टात उपस्थित रहावं लागे किंवा कधी छोटे-मोठे ट्रेनिंग प्रोग्रॅमस्… कांही ना कांही कारण निघायचं आणि त्या त्या वेळच्या रुटीनचाच एक भाग म्हणून रिजनल-ऑफिसकडून मला बोलावणं यायचं आणि त्या निमित्ताने माझं पौर्णिमेचं दत्तदर्शन तर व्हायचंच शिवाय सगळे प्रवास खर्च आणि टीए डीए बँकेकडून मिळायचे.

खरंतर सहज घडलेल्या एका साध्या प्रसंगाच्या निमित्ताने सलग बारा वर्षांचा दीर्घकाळ दर पौर्णिमेला नृसिंहवाडीला नियमित दत्तदर्शनाला यायचा मी केलेला तो संकल्प! ‘आपल्याला या पौर्णिमेला जायला जमेल ना? काही अडचण येणार नाही ना?’अशी टोकाची साशंकता या बारा वर्षांच्या दीर्घकाळात मनात कधीच निर्माण झालेली नव्हती. या एवढ्या वर्षांमध्ये माझ्या आयुष्यात आणि ‘सर्विस लाइफ’ मधेही प्रचंड उलथापालथ आणि स्थित्यंतरं व्हायचे अनेक प्रसंग आले. पण त्यावेळीही मन कधीच साशंक झालेले नव्हते. या दरम्यानच्या काळात मला मिळत गेलेली सलग प्रमोशनस् मला प्रगतीपथावर नेत असायची. त्या प्रत्येकवेळी प्रमोशन मिळालेल्या सर्वांच्याच मनात सेंट्रल-आॅफीसची ‘प्रमोशन पोस्टिंग पॉलिसी’ काय ठरते याच्या उत्सुकतेइतकेच दडपणही असायचेच. या प्रत्येक प्रमोशनच्यावेळी असणारी अनिश्चितता काय किंवा एरवीही वेळोवेळी कधीही होऊ शकणाऱ्या माझ्या बदल्या काय, त्या प्रत्येकवेळी माझ्या संकल्पपूर्तीत अडथळे निर्माण होऊ शकलेही असते, पण आश्चर्य म्हणजे तसं कधीही झालं नाही!आज मागे वळून बघताना मला तीव्रतेने जाणवते की त्या त्या प्रत्येकवेळी ‘त्या’नेच मला अलगदपणे अनपेक्षित आधार दिला होता, सांभाळलं होतं आणि त्यानेच एक अदृश्य, अभेद्य असं ‘संरक्षक कवच’च माझ्याभोवती तयार करून ठेवलं होतं जसंकांही!अशा अनुभवांपैकी एखाददुसरा प्रातिनिधिक प्रसंग लिहिण्याच्या ओघात पुढे कधीतरी येईलही. अशा प्रसंगी अगदी अचानकपणे मिळालेल्या अकल्पित कलाटणीने थक्क झालेल्या माझ्या मनाला ‘माझी संकल्पपूर्ती हा माझ्याइतकाच त्याचाही आनंद असणाराय’ असा भारावून टाकणारा विचार मनाला स्पर्श करुन जात असे. आज त्या कल्पनेनेसुध्दा मन भरून येते!

महाबळेश्वरनंतर माझ्या झालेल्या बदल्या आणि नंतरच्या प्रमोशन्सनंतर झालेली पोस्टिंग्ज् यावरून नजर फिरवली तरी माधवनगर, सोलापूर, कोल्हापूर, सांगली आणि इचलकरंजी या ब्रॅंचेसमधला कार्यकाळ मला आपसूक आठवतो. प्रत्येकवेळी प्रमोशननंतरही मला एकाच रिजनमधे असा सलग बारा वर्षांचा काळ व्यतीत करायला मिळाला आणि तोही कुणाच्याही खास ओळखी आणि जवळीक न वाढवता हे आमच्या बँकेपुरता विचार केला तरी माझे एकमेव उदाहरण असावे.. !

पण या सगळ्या खूप नंतरच्या गोष्टी. महाबळेश्वपुरतं बोलायचं तर महाबळेश्वरला फॅमिली शिफ्ट होईपर्यंतचा साधारण वर्षभराचा काळ हा अशा अनेकविध अनुभवांमुळे मला दिलासा देत आला होता. हा एक वर्षाचा काळ आम्हा उभयतांच्या दृष्टीने खरंच कसोटी पहाणारा होता. इकडे माझ्या रुटीनमधे मला कराव्या लागणाऱ्या तडजोडींपेक्षाही काॅलेज, प्रॅक्टीकल्स, अभ्यास यांचं श्वास घ्यायलाही फुरसत नसणारं ओझं आणि जोडीला लहान मुलाची जबाबदारी यांचा विचार करता माझ्या बायकोने, आरतीने केलेल्या तडजोडी निश्चितच कणभर कां होईना अधिक कौतुकास्पद होत्या असंच मला वाटतं. कारण लग्नानंतर तिला सहज योगायोगाने मिळालेली राष्ट्रीयकृत बॅंकेतली नोकरी सलिलचा जन्म झाल्यानंतर तशीच परिस्थिती निर्माण झाली तेव्हा बालसंगोपनाला प्राधान्य देत कर्तव्यभावनेने तिने पूर्ण विचारांती सोडलेली होती. तिला शैक्षणिक क्षेत्राची आवड होती आणि सलिल थोडा सुटवांगा झाला की त्यादृष्टीने काहीतरी करण्याचे तिने ठरवलेही होते. त्यानुसार योगायोगाने याच वर्षी तिला कोल्हापूरच्या सरकारी बी. एड् कॉलेजमधे ऍडमिशनही मिळालेली होती. माझी महाबळेश्वरला बदली झाली ती या पार्श्वभूमीवर! या सगळ्याचा लिहिण्याच्या ओघात आत्ता संदर्भ आला तो तिच्या करिअरला आणि आमच्या संसारालाही विलक्षण कलाटणी देणाऱ्या आणि त्यासाठी माझी महाबळेश्वरला झालेली बदलीच आश्चर्यकारकरित्या निमित्त ठरलेल्या, सुखद असा चमत्कारच वाटावा अशा एका घटनेमुळे !

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #245 – कविता – ☆ लक्ष्य कोई खास होना चाहिए… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “लक्ष्य कोई खास होना चाहिए…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #245 ☆

☆ गीतिका – लक्ष्य कोई खास होना चाहिए… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

उम्रगत एहसास होना चाहिए

जिंदगी में लक्ष्य कोई खास होना चाहिए।

*

हो अपच जब बुद्धि का या पेट का

रुग्ण तन-मन का सजल उपवास होना चाहिए।

*

आकलन करते रहें गुण दोष का

मलिनता मँजती रहे अभ्यास होना चाहिए।

*

विमल मन सद्कर्म से प्रतिबद्धता

प्रेम करुणा स्नेहसिक्त मिठास होना चाहिए।

*

है कहाँ किस ठौर पर यह तय करें

व्यर्थ शब्दों का न बुद्धि विलास होना चाहिए।

*

निर्विचार निःशंक होने के लिए

एक निश्छल निजी शुन्याकाश होना चाहिए।

*

अँधेरे भी तो मिलेंगे राह में

शौर्य साहस धैर्य आत्म प्रकाश होना चाहिए।

*

आखरी पल तक कलम चलती रहे

हर घड़ी-पल नव सृजन की प्यास होना चाहिए।

*

ध्वस्त हो आतंकियों के गढ़ सभी

फिर यहाँ आजाद भगत सुभाष होना चाहिए।

*

कामना है एक उस अव्यक्त से

हों सुखी सब, लोक में उल्लास होना चाहिए।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 69 ☆ तिनकों सा बहना… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “तिनकों सा बहना…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 69 ☆ तिनकों सा बहना… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

रूखी-सूखी

एक नदी का

तट बनकर रहना

यही नियति है

सदा बाढ़ में

तिनकों सा बहना।

*

क्या गंगाजल

पाप-पुण्य की

धो पाया गठरी

भाग्य लिखी है

बस अभाव की

एक अदद कथरी

*

करनी-कथनी

के मरुथल में

प्यास लिए फिरना।

*

अधुनातन की

भाग-दौड़ में

हुए स्वयं से दूर

सच के मारे

झूठ ओढ़कर

जीने को मजबूर

*

ऊबड़-खाबड़

पगडंडी पर

सड़कों का सपना।

*

धर्म-कर्म के

पाखंडों में

खोज रहे तिनका

उमर कर रही

लेखा-जोखा

एक-एक दिन का

*

समय निरंतर

कहता रहता

नहीं कहीं रुकना।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 73 ☆ तख़्त का तज मोह सच को देखिए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “तख़्त का तज मोह सच को देखिए“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 73 ☆

✍ तख़्त का तज मोह सच को देखिए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

सीट कम हों भय हुआ सच बात है

मौन संसद रह रहा सच बात है

सौ से ऊपर मर गए सत्संग में

हाथरस मक़तल बना सच बात है

 *

ढोंग से पर्दा हटेगा कब तलक

हादसों का सिलसिला सच बात है

 *

फुलरई मथुरा या सिरसा जोधपुर

दर्द अपना कह दिया सच बात है

 *

मुख्य आरोपी न मुलजिम नामजद

आसरा है धर्म का सच बात है

 *

हो रही तफ्तीश कैसी कुछ बता

झूठ हावी हो गया सच बात है

 *

सिरफिरों की फौज आई सामने

राज्य शासन तक झुका सच बात है

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सत्य हैं आरोप झूठे सन्त पर

क्यों तू झुठलाने लगा सच बात है

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तख़्त का तज मोह सच को देखिए

जाति गत ये दबदबा सच बात है

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अय अरुण बाबा बनो तो है मजा

छंद का छोड़ो नशा सच बात है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 117 – नौकरी फुटबाल नहीं है ! ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा  नौकरी फुटबाल नहीं है!“

☆ कथा-कहानी # 117 –  नौकरी फुटबाल नहीं है!  ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

नौकरी और इससे जुड़े परिवार की निर्भरता के प्रति हम सभी संवेदनशील होते हैं तो जब दुर्भावना रहित हुई गलतियों के प्रकरण हमारे सामने आते हैं तो हम स्वाभाविक रूप से ऐसे व्यक्तियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण सोच ही रखते हैं और भरसक अपनी ओर से पूरी मदद करने की कोशिश करते हैं, शायद यही इंसानियत है. ईश्वर ऐसे मौके प्रायः सभी को देता है जिसमें वे भी कुछ अंश तक मदद कर सकते हैं.

एक शाखा में जहां लगभग हर दो महीने में RBI से केश रेमीटेंस ट्रेन द्वारा आता रहता था. रिजर्व बैंक एक साथ रूट की कई शाखाओं के रेमीटेंस भेजा करता था और हरेक के साथ एक रिजर्व बैंक का कर्मचारी रहता था जिसका काम उस शाखा तक रेमीटेंस के साथ जाना, अपने सामने ब्रांच में उसे रखवाना और फाइनली 8-10 दिन अपने सामने काउंटिग करवाकर शाखा प्रबंधक से प्रमाण पत्र प्राप्तकर वापस लौटना होता था. आ रहे खजाने को रिसीव करने के लिये पुलिस सुरक्षा बल के साथ रेल्वे स्टेशन पर वह ब्रांच अपने अधिकारी को भेजती थी. एक पोतदार का ससुराल बीच के किसी स्टेशन पर पड़ता था तो वे अपने साथी को जो कि उनकी यूनियन का लीडर भी था, अपनी जिम्मेदारी सौंपकर एक दिन पहले निकल लिये. दूसरे दिन उनको वही ट्रेन पकड़ लेनी थी जो रेमीटेंस लेकर जा रही थी. पर ससुराल में खातिरदारी करवाने के चक्कर में ट्रेन आगे निकल गई और उस स्टेशन में दोनों शाखाओं का रेमीटेंस, रिजर्व बैंक के उन यूनियन लीडर महाशय ने उतरवा लिया. अगली ट्रेन से दामाद जी दौड़ते भागते पहुंचे. मामला तो पक्का नौकरी लेने वाला बन गया था पर उस शाखा के स्टॉफ के हृदय में दया और मानवीयता ने वरीयता ली और उनके लिये बाकायदा ट्रक और गार्ड की व्यवस्था कर उनके साथ उनका रेमीटेंस उस शाखा में भेजा गया जहाँ के लिये आया था. इस तरह उनकी नौकरी भी बची और शायद जीवन भर के लिये सबक भी मिला कि नौकरी फुटबाल नहीं है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 38 – मित्रता…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)

☆ लघुकथा # 38 – मित्रता श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जय और अनुराग मित्र दोनों खेलते खेलते थक गए और कुछ बातें करने लगे, बातें करते-करते वे लोग आगे निकल गये।

अनुराग हम कहाँ आ गए यह तो कुछ अलग सी जगह लग रही है?

अब घर कैसे पहुंचेंगे ?

ये सब तुम्हारे कारण हुआ, और दोनों के बीच झगड़ा हो गया । जय ने अनुराग को जोर से थप्पड़ मार दिया फिर इस बात को सड़क के किनारे फूल तोड़ कर के अनुराग ने फूलों से जय का नाम लिख दिया।

थोड़ा आगे निकलने के बाद उन दोनों को बहुत जोर से प्यास लगी, आगे चलने के बाद एक नदी दिखाई दी दोनों ने पानी पिया और अनुराग ने कहा चलो?

हम लोग स्नान करते हैं?

जय को तैरना नहीं आता था वह किनारे नहाने लगा फिसल गया और डूबने लगा अनुराग ने उसे बचा लिया । तभी वहां पर एक पुलिस वाला दिखाई दिया।

उसने कहा- “अरे लड़कों तुम लोग कहां भटक रहे हो?

उन्होंने कहा बताया कि हम रास्ता भूल गए हैं।

उसने उन्हें उनके घर में अपनी गाड़ी में बिठा कर छोड़ दिया।

दोनों ने कहा थैंक यू अंकल

पुलिस वालों ने कहा – ऐसे कहीं अकेले मत घूमना।

दोनों के घर आमने-सामने थे। पुलिस वाले ने उनके माता-पिता को पूरी घटना बताई।

वे दोनों अपने घर जाते एक दूसरे को ध्यान से देखते रहे, सच्ची मित्रता आंखों में दिख रही थी…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 70 – तो सुख सारे मिल जायें… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना –तो सुख सारे मिल जायें।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 70 – तो सुख सारे मिल जायें… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

हृदय हमारे मिल जायें 

तो सुख सारे मिल जायें

*

दाह बुझे, जो अधरों के 

ये अंगारे मिल जायें

*

तुम चाहो, तो दोनों के

दिल बेचारे मिल जायें

*

जलूँ शौक से, यदि छूने 

रूप शरारे, मिल जायें

*

डूबूं तेरे संग, भले 

मुझे किनारे मिल जायें

*

तू न मिले तो, व्यर्थ मुझे 

चाँद-सितारे मिल जायें

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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