मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ शांतीप्रिय माणसं … – लेखिका : सुश्री ज्योत्स्ना गाडगीळ ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆

सुश्री प्रभा हर्षे

? वाचताना वेचलेले ?

☆ शांतीप्रिय माणसं … – लेखिका : सुश्री ज्योत्स्ना गाडगीळ ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆

विरंगुळा म्हणून आजी आपल्या लेकाकडे राहायला आली.  आज रविवार, सगळे घरी एकत्र भेटतील या विचाराने सुखावली. सकाळी उठल्यावर पाहते तर तीन खोल्यात तीन माणसं बघून भांबावली. लेकाची आणि सुनेची खोली वगळून तिने नातीच्या रूमकडे पावलं टाकली. मोबाईलवर स्क्रोलिंग करत लोळत पडलेली नात आजीला पाहून ‘ये बस’ म्हणाली. नाश्त्याला काय करायचं हे विचारायला आले होते, असं म्हणत आजी मऊ गादीवर बसताच बेडमध्ये रुतून गेली. नातीने तिघांच्या फॅमिली व्हॉट्स अप ग्रुपवर आजीचा मेसेज फॉरवर्ड केला. स्वीगीने मागवून घेऊया असा आईचा रिप्लाय आला. घरातल्या घरात मेसेजवर बोलणारे लोक पाहून आजी आश्चर्यचकित झाली. इथे हाकारे ऐकू आले नाहीत, तरी मेसेज पुढच्या क्षणाला रीड होतो, असं नात म्हणाली. गृह कलह टाळण्याचा नवीन फंडा बघून आजी इम्प्रेस झाली. नातीकडून मोबाईल शिकून घेत फॅमिली ग्रुपमध्ये टेम्पररी ऍड झाली. आजी तिच्या सेपरेट रूममध्ये मोबाईलसह दहा दिवस सुखाने राहिली. मुलाला-सुनेला आशीर्वादाचा इमोजी आणि नातीला gpay करून परत निघताना ग्रुपमधून लेफ्ट झाली. 

(‘शांतीप्रिय माणसं’ ग्रंथातून साभार)

लेखिका – सुश्री ज्योत्स्ना गाडगीळ 

प्रस्तुती : सुश्री प्रभा हर्षे 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 62 – चातक व्रत का वरण किया है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – चातक व्रत का वरण किया है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 62 – चातक व्रत का वरण किया है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

शायद तुमने स्मरण किया है 

रातों को जागरण किया है

*

कुशगुन के करील क्यों आये 

जब शुभ हस्तांतरण किया है

*

था सुखान्त सम्पूर्ण कथानक 

क्यों दुखान्त संस्करण किया है

*

यह वक्रोक्ति समझ ना आये 

कठिन, प्रणय व्याकरण किया है

*

परकीयक आरोप मढ़ो मत 

चातक व्रत का वरण किया है

*

पल में, पिघल जाएगा, जो यह 

पत्थर अंतःकरण किया है

*

मैं रूठा, तो पछताओगे 

अब तक तो संवरण किया है

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 136 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 136 – मनोज के दोहे ☆

ओजस्वी नेता अटल, वक्ता थे अनमोल।

श्रोता सुनकर कह उठें, अदभुत है हर बोल।।

जब आए संज्ञान में, गलत काम को छोड़।

सही राह पर चल पड़ो, जीवन का रुख मोड़।।

 *

प्रभु का यही विधान है,करिए सदा सुकर्म ।

फल मिलता अनुरूप है, गीता का यह मर्म।।

 *

सोच सकारात्मक रखें, जिससे मिलती राह।

हार न मिलती है कभी, जग में होती वाह।।

 *

करते अध्यवसाय जब, मिले सफलता नेक।

जीवन का यह सत्य है, उन्नति सीढ़ी एक ।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 163 ☆ “कर्म से तपोवन तक ” (उपन्यास) – लेखिका … सुश्री संतोष श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री संतोष श्रीवास्तव  जी द्वारा लिखित  “कर्म से तपोवन तक ” (उपन्यास) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 163 ☆

☆ “कर्म से तपोवन तक ” (उपन्यास)लेखिका … सुश्री संतोष श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक – कर्म से तपोवन तक (उपन्यास)

माधवी गालव पर केंद्रित कथानक

लेखिका … सुश्री संतोष श्रीवास्तव

दुनियां में विभिन्न संस्कृतियों के भौतिक साक्ष्य और समानांतर सापेक्ष साहित्य के दर्शन होते हैं। भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से कहीं अधिक प्राचीन है। रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के दो अद्भुत महा ग्रंथ हैं। इन महान ग्रंथों में  धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक, आध्यात्मिक और वैचारिक ज्ञान की अनमोल थाथी है। महाभारत जाने कितनी कथायें उपकथायें ढ़ेरों पात्रों के माध्यम से  न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या के गुह्यतम रहस्यों को संजोये हुये है। परंपरागत रूप से, महाभारत की रचना का श्रेय वेदव्यास को दिया जाता है। धारणा है कि महाभारत महाकाव्य से संबंधित मूल घटनाएँ संभवतः 9 वीं और 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की हैं। महाभारत की रचना के बाद से ही अनेकानेक विद्वान सतत उसकी कथाओ का विशद अध्ययन, अनुसंधान, दार्शनिक विवेचनायें करते रहे हैं। वर्तमान में अनेकानेक कथावाचक देश विदेश में पुराणो, भागवत, रामकथा, महाभारत की कथाओ के अंश सुनाकर समाज में भक्ति का वातावरण बनाते दिखते हैं। विश्वविद्यालयों में महाभारत के कथानकों की विवेचनायें कर अनेक शोधार्थी निरंतर डाक्टरेट की उपाधियां प्राप्त करते हैं। प्रदर्शन के विभिन्न  माध्यमो में ढ़ेरों फिल्में, टी वी धारावाहिक, चित्रकला, साहित्य में महाभारत के कथानकों को समय समय पर विद्वजन अपनी समझ और बदलते सामाजिक परिवेश के अनुरूप अभिव्यक्त करते रहे हैं।

न केवल हिन्दी में वरन विभिन्न भाषाओ के साहित्य पर महाभारत के चरित्रों और कथानको का व्यापक प्रभाव परिलक्षित होता है। महाभारत कालजयी महाकाव्य है। इसके कथानकों को जितनी बार जितने तरीके से देखा जाता है, कुछ नया निकलता है। हर समय, हर समाज अपना महाभारत रचता है और उसमें अपने अर्थ भरते हुए स्वयं को खोजता है। महाभारत पर अवलंबित हिन्दी साहित्य की रचनायें देखें तो डॉ॰ नरेन्द्र कोहली का प्रसिद्ध महाकाव्यात्मक उपन्यास महासमर, महाभारत के पात्रों पर आधारित रचनाओ में धर्मवीर भारती का अंधा युग, आधे-अधूरे, संशय की रात, सीढ़ियों पर धूप, माधवी (नाटक), शकुंतला (राजा रवि वर्मा), कीचकवधम, युगान्त, आदि जाने कितनी ही यादगार पुस्तकें साहित्य की धरोहर बन गयी हैं।

महाभारत से छोटे छोटे कथानक लेकर अनेकानेक रचनायें हुईं हैं जिनमें रचनाकार ने अपनी सोच से कल्पना की उड़ान भी भरी है। इससे निश्चित ही साहित्य विस्तारित हुआ है, किन्तु इस स्वच्छंद कल्पना के कुछ खतरे भी होते हैं। उदाहरण स्वरूप रघुवंश के एक श्लोक की विवेचना के अनुसार माहिष्मती में इंदुमती प्रसंग में कवि कुल शिरोमणी कालिदास ने वर्णन किया है कि नर्मदा, करधनी की तरह माहिष्मती से लिपटी हुई हैं। अब नर्मदा के प्रवाह के भूगोल की यह स्थिति मण्डला में भी है और महेश्वर में भी है। दोनो ही शहर के विद्वान स्वयं को प्राचीन माहिष्मती सिद्ध करने में जुटे रहते हैं। साहित्य के विवेचन विवाद में वास्तविकता पर भ्रम पल रहा है।

मैं भोपाल में मीनाल रेजीडेंसी में रहता हूं, सुबह घूमने सड़क के उस पार जाता हूं। वहाँ हाउसिंग बोर्ड ने जो कालोनी विकसित की है, उसका नाम करण अयोध्या किया गया है, एक सरोवर है जिसे सरयू नाम दिया गया है। हनुमान मंदिर भी बना हुआ है, कालोनी के स्वागत द्वार में भव्य धनुष बना है। मैं परिहास में कहा करता हूं कि सैकड़ों वर्षों के कालांतर में कभी इतिहासज्ञ वास्तविक अयोध्या को लेकर संशय न उत्पन्न कर देँ। दुनियां में अनेक स्थानो पर जहां भारतीय बहुत पहले बस गये हैं जैसे कंबोडिया, फिजी आदि वहां राम को लेकर कुछ न कुछ साहित्य विस्तारित हुआ है और समय समय पर तदनुरूप चर्चायें विद्वान अपने शोध में करते रहते हैं। इसी भांति पढ़ने, सुनने से जो भ्रम होते हैं उसका एक रोचक उदाहरण बच्चों की एक बहस में मिलता है। एक साधु कहीं से गुजर रहे थे, उन्हें बच्चों की बहस सुनाई दी। कोई बच्चा कह रहा था मैं हाथी खाउंगा, तो कोई ऊंट खाने की जिद कर रहा था, साधु का कौतुहल जागा कि आखिर यह माजरा क्या है, यह तो शुद्ध सनातनी मोहल्ला है। उन्होंने दरवाजे पर थाप दी, भीतर जाने पर वे अपनी सोच पर हंसने लगे दरअसल बच्चे होली के बाद शक्कर के जानवरों को लेकर लड़ रहे थे। यह सब मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि मैंने संतोष श्रीवास्तव जी का उपन्यास कर्म से तपोवन तक पढ़ा। और महाभारत के वे श्लोक भी पढ़े जहां से माधवी और गालव पर केंद्रित कथानक लिया गया है। अपनी भूमिका में ही संतोष जी स्पष्ट लिखती हैं, उधृत है ..”माधवी पर लिखना मेरे लिये चुनौती था। इस प्रसंग पर उपन्यास, नाटक, खंडकाव्य बहुत कुछ लिखा जा चुका है, थोडे बहुत उलट फेर से वही सब लिखना मुझे रास नहीं आया। मुझे माधवी के जीवन को नए दृष्टिकोरण से परखना था। गालव, माधवी धीरे-धीरे अंतरंग होते गए और दोनों के बीच दैहिक संबंध बन गए। मैंने इसी छोर को पकडा। ये अंतरंग संबंध मेरी माधवी कथा का सार बन गया, और मैंने माधवी का चरित्र इस तरह रचा जिसमें वह गालव से प्रेम के चलते ही राजा हर्यश, दिवोदास और उशीनर की अंकशायनी बनकर अपने अक्षत यौवना स्वरूप के साथ तीनों के बच्चों की माँ बनी। ” मेरा मानना है कि यह लेखिका की कल्पनाशीलता और उनकी साहित्यिक स्वतंत्रता है।

हो सकता है, यदि मैं इस प्रसंग पर लिखता तो शायद मैं माधवी के भीतर छुपी उस माँ को लक्ष्य कर लिखता जो बारम्बार अपनी कोख में संतान को नौ माह पालने के बाद भी लालन पालन के मातृत्व सुख से वंचित कर दी जाती है। गालव बार बार उसका दूध आंचल में ही सूखने को विवश कर उसे क्रमशः नये नये राजा की अंकशायनी बनने पर मजबूर करता रहा। मुझे संतोष जी की तरह गालव में माधवी के प्रति प्रेम नहीं दिखता। अस्तु।

उपन्यास में सीधा कथानक संवाद ही है, मुंशी प्रेमचंद या कोहली जी की तरह परिवेश के विस्तृत वर्णन का साहित्यिक सौंदर्य रचा जा सकता था जिसका अभाव लगा। उपन्यास का सारांश भूमिका में कथा सार के रूप में सुलभ है। महाभारत के उद्योग पर्व के अनुसार राजा ययाति जब अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु को उसका यौवन लौटाकर वानप्रस्थ ग्रहण कर चुके होते हैं तभी गालव उनसे काले कान वाले ८०० सफेद घोड़ों का दान मांगने आता है। ययाति जिनका सारा चरित्र ही विवादस्पद रहा है, गालव को ऐसे अश्व तो नहीं दे सकते थे, क्योंकि वे राजपाट पुरु  दे चुके थे। अपनी दानी छबि बचाने के लिये वे गालव को अपनी अक्षत यौवन का वरदान प्राप्त पुत्री माधवी को ही देते हैं, और गालव को अश्व प्राप्त करने का मार्ग बताते हैं कि माधवी को अलग अलग राजाओ के संतानो की माँ बनने के एवज में गालव राजाओ से अश्व प्राप्त कर ले। सारा प्रसंग ही आज के सामाजिक मापदण्डों पर हास्यास्पद, विवादास्पद और आपत्तिजनक तथा अविश्वसनीय लगता है। मुझे तो लगता है जैसे हमारे कालेज के दिनों में यदि ड्राइंग में मैने कोई सर्कल बनाया और किसी ने उसकी नकल की, फिर किसी और ने नकल की नकल की तो होते होते सर्कल इलिप्स बन जाता था, शायद कुछ इसी तरह ये असंभव कथानक किसी मूल कथ्य के अपभ्रंश न हों। कभी कभी मेरे भीतर छिपा विज्ञान कथा लेखक सोचता है कि महाभारत के ये विचित्र कथानक कहीं किसी गूढ़ वैज्ञानिक रहस्य के सूत्र वाक्य तो नहीं। ये सब अन्वेषण और शोध के विषय हो सकते हैं।

आलोच्य उपन्यास से कुछ अंश उधृत कर रहा हूं, जो संतोष जी की कहन की शैली के साथ साथ कथ्य भी बताते हैं।

“महाराज आपका यह पुत्र वसुओं के समान कांतिमान है। भविष्य में यह खुले हाथों धन दान करने वाला दानवीर राजा कहलाएगा। इसकी ख्याति चारों दिशाओं में कपूर की भांति फैलेगी। प्रजा भी ऐसे दानवीर और पराक्रमी राजा को पाकर सुख समृद्धि का जीवन व्यतीत करेगी। राजा हर्यश्व और सभी रानियां राजपुरोहित के कहे वचनों से अत्यंत प्रसन्न थी। “

“वसुमना के जन्म के बाद से ही राजा हर्यश्च ने माधवी के कक्ष में आना बंद कर दिया था। इतने दिन तो माधवी को वसुमना के कारण इस बात का होश न था पर राजमहल से प्रस्थान की अंतिम बेला में उसने सोचा पुरुष कितना निर्माही होता है। “

“गालव निर्णय ले चुका था ठीक है राजन, आप माधवी से अपने मन की मुराद पूरी करें। आज से ठीक। वर्ष पक्षात में माधवी को तथा 200 अश्वों को आकर ले जाऊंगा। “

इतने अश्वों का विश्वामित्र जैसे तपस्वी करेंगे क्या? उनके आश्रम का तपोवन तो अश्वों से ही भर जाएगा। ” “मेरे मन में तो यह प्रश्न भी बार-बार उठता है कि गुरु दक्षिणा में उन्होंने ऐसे दुर्लभ अश्वों की मांग ही क्यों की ?

“क्या कह रहे हो मित्र, माधवी का तो स्वयंवर होने वाला था। ” “हां गालव स्वयंवर तो हुआ था देवी माधवी का, किंतु उन्होंने उस स्वयंवर में पधारे अतिथियों में से किसी का भी चयन न कर तपोवन को स्वीकार किया। यहां तक कि उन्होंने हाथ में पकड़ी वरमाला तपोवन की ओर उछालते हुए कहा कि मैं तुम्हें स्वीकार करती हूं। हे तपोवन, आज से तुम ही मेरे जीवन साथी हो। “

इस तरह की सरल सहज संवाद शैली में  “कर्म से तपोवन तक” के रूप में सुप्रसिद्ध लोकप्रिय बहुविध वरिष्ठ कथा लेखिका, कई किताबों की रचियता और देश विदेश के साहित्यिक पर्यटन की संयोजिका, ढ़ेर सारे सम्मान और पुरस्कार प्राप्त संतोष श्रीवास्तव जी का यह साहित्यिक सुप्रयास स्तुत्य है। मन झिझोड़ने वाला असहज कथानक है। स्वयं पढ़ें और स्त्री विमर्श पर तत्कालीन स्थितियों और आज के परिदृश्य का अंतर स्वयं आकलित करें।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 198 – पग विद्यालय ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा पग विद्यालय”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 198 ☆

🌻लघु कथा🌻 👣पग विद्यालय 👣

संस्कारों की शिक्षा घर से ही आरंभ हो जाती है। बच्चा जैसा देखता सुनता है। वही उसे अच्छा लगने लगता है। आजकल बढ़ते कोचिंग सेंटर, पढ़ाई का खर्च और महंगी पाठशाला सभी को समझ आने लगा है।

घर-घर की कहानी कहते इसमें कब एक वृद्धा आश्रम आ गया और जुड़ गया। पता ही नही चला।

यह केवल शहरों में ही नहीं गाँव तक पहुंच चुका है। गाँव की एक छोटी सी पाठशाला जहाँ पर सभी उम्र के बच्चों को पढ़ाया जाता है ।

अध्यापक भी गिनती में होते हैं। तेज बारिश की वजह से आज सभी एक बड़ी कक्षा में बैठे थे। अध्यापक सभी से बारी – बारी प्रश्न कर रहे थे कि– कौन-कौन बड़ा होकर क्या-क्या बनना चाहता है।

अध्यापक, संस्थापक, संपादक,लेखक, डॉक्टर, इंजीनियर मंत्री, सरपंच, कृषक, बिजनेसमैन, सेनापति, दुकानदार आदि – आदि सभी बालक अपनी-अपनी राय पसंद बता रहे थे।

मासूम सा एक बालक चुपचाप बैठा था। अध्यापक ने पूछा–क्यों? समीर क्या – – तुम क्या बनना चाहते हो।

सिर नीचे झुकते हुए उसने कहा गुरु जी मुझे पग विद्यालय खोलना है। हंसी का फव्वारा फूट पड़ा।

अध्यापक ने शांत परंतु आश्चर्य से कहा – – – यह क्या होता है और क्यों खोलना चाहते हो।

अध्यापक की समझ से भी परे था। समीर ने बड़ी ही मासूमियत से बोला– गुरू जी यह पग, पांव, पैर हैं – – जो यह कभी शिकायत नहीं करता कि मैं नहीं चलूंगा। चाहे कहीं भी जाना हो बिना थकावट के चलता जाता है।

जो हमारे अन्नदाता, किसान, सेना के जवान और जो भी निस्वार्थ हमारी सेवा करते हैं। मैं पग विद्यालय खोलकर उनकी सेवा के लिए संगठन बनान चाहता हूँ।

ऐसे पग का निर्माण करना चाहता हूँ । जो भारत की पहचान और शान बने। इस विद्यालय के सभी पग पूजनीय और वंदनीय बनकर निकालेंगे। जहाँ चलेंगे, राहों में फूल बिखरेंगे और फिर एक दिन ऐसा आएगा कि— कभी कोई पग वृद्धा आश्रम, पागलखाना,रैन बसेरा या सेवा आश्रम की ओर नहीं बढ़ेगा।

पूरी कक्षा शांत हो गई। अध्यापक की सोच से कहीं हटकर। समीर अपनी बात कहता जा रहा था।

तालियां बजनी आरंभ हो गई। अध्यापक ने आगे बढ़ कर समीर को सीने से लगा लिया।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 91 – देश-परदेश – अंतरराष्ट्रीय विवाह ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है व्यंग्य की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ व्यंग्य # 91 ☆ देश-परदेश – अंतरराष्ट्रीय विवाह ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज प्रातः काल फोन की घंटी बजी प्रथम तो हमें भ्रम सा प्रतीत हुआ, क्योंकि हमारे फोन पर कॉल आवक शून्य है, हां, जावक ही जवाक हैं। सभी परिचित विभिन्न समूहों  में ही हमारे लेख पर प्रतिक्रिया देकर अपने जीवित रहने का प्रमाण दे देते हैं।

फोन करने वाले की आवाज कुछ पहचानी सी लगी, लेकिन उसने बताया वो फलां ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज से बोल रहा है। उसने शिकायत भरे अंदाज में बोला कि आपने, अपने लेख में हमारे परिवार के विवाह को उसके वैभव से बहुत कम आंका है, वो देश या राष्ट्रीय विवाह के स्तर से कहीं बढ़ कर अंतरराष्ट्रीय स्तर से भी ऊपर है।

पूरे विश्व से अनेक बड़ी बड़ी हस्तियां अपने अपने चार्टर्ड विमानों द्वारा कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए आ रहे हैं। इतनी अधिक संख्या में विमानों की पार्किंग पड़ोस के कुछ हवाई अड्डों तक पर भी की जा रही हैं।

आप अपनी गलती को सुधार कर इसके वास्तविक स्वरूप को जनता के समक्ष प्रस्तुत करें।

हमने डरते हुए क्षमा याचना मांग कर, अपनी भूल को माफ करने का आग्रह किया। इसके साथ हमने विश्वास दिलाया कि हम आज ही इस विवाह को अंतरराष्ट्रीय स्तर का मान कर लेख लिख देंगे।

सामने वाले ने कहा वो तो ठीक, लेकिन जब आप मुंबई में रहे थे, तो हमारी सेवाएं क्यों नहीं ली ? हमारा मोबाइल कभी भी उनके रिकॉर्ड में दर्ज नहीं हैं। यदि आपने वहां कभी सेवाएँ ली होती तो, आप को भी सोन पापड़ी का आधा किलो का डिब्बा मिल जाता।

फिर हंसते हुए वो बोला, हम जॉकी नावेद खान बोल रहे है, और आप रेडियो मिर्ची मुर्गा पर लाइव हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #245 ☆ विठूचा जागर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 245 ?

☆ विठूचा जागर ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

सौख्यसागरात भक्तिचा वावर

मनोभावे चालू विठूचा जागर

*

ज्ञाना तुका दोघे पंढरी निघाले

जनसमुदाय सोबत चालले

डोळ्यांनी टिपला भक्तिचा सागर

*

एकतारी संगे जोडलेली नाळ

बोलू लागलेत मृदंग नि टाळ

प्रसाद वाटते कोरडी भाकर

*

गरीब श्रीमंत नाही उपहास

विठूच्या भेटीची प्रत्येकाला आस

सारेच माऊली केवळ आदर

*

मन हे प्रसन्न वाटे येथे धन्य

मुखी विठू नाम नाही काही अन्य

देह कंटाळता पसरे चादर

*

तुला भेटण्याची लागलेली ओढ

कष्टाचा प्रवास तरी वाटे गोड

आलोय सोडून शेतात नांगर

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ डार्क वेब : भाग – 6 ☆ श्री मिलिंद जोशी ☆

श्री मिलिंद जोशी

? इंद्रधनुष्य ?

 ☆ डार्क वेब : भाग – 6 ☆ श्री मिलिंद जोशी ☆ 

(ही अतिशय महत्वपूर्ण माहिती देणारी लेखमाला दर सोमवारी आणि मंगळवारी प्रकाशित होईल) 

मागील भागात डार्कवेब चांगल्या कामासाठी कोण आणि का वापरते याबद्दल चर्चा केली. आज मात्र डार्कवेबच्या अनुचित वापराबद्दल बोलणार आहे. यातील सगळ्यात वाईट गोष्ट ही की डार्कवेबचा ७०% ते ८०% वापर अनुचित गोष्टींसाठीच केला जातो. 

डार्कवेबवर त्या सगळ्या गोष्टी केल्या जातात ज्याला सभ्य समाज मान्यता देत नाही. किंवा त्या त्या देशाचे कायदे अटकाव करतात. इथे तुम्हाला हत्यारांची खरेदीविक्री, माणसांची खरेदी विक्री, लहान मुलांच्या अश्लील फिल्म, आतंकवाद्यांचे परस्परातील व्यवहार या सगळ्याच गोष्टी येतात. कारण यावर कोणत्याही देशाच्या सरकारला किंवा सुरक्षा यंत्रणाना नियंत्रण ठेवणे शक्य होऊ शकत नाही. ज्यावेळी एखादी गोष्ट पूर्णतः बंद करणे शक्य नसते त्यावेळी त्या गोष्टीचा समाजासाठी चांगला वापर कसा करता येईल हेच बघणे जास्त फायदेशीर असते. आणि तेच अनेक देशांच्या सुरक्षा यंत्रणा करतात.

याचे एक उदाहरण देतो. अमीर खानचा एक चित्रपट आला होता. ‘सरफरोश’ नावाचा. त्यात दोन पात्र दाखवले आहेत. एक आहे इन्स्पेक्टर ‘सलीम’ आणि दुसरा आहे ‘फटका’ ( जो मुंबईच्या अशा भागात राहतो जिथे अपराधिक गोष्टी केल्या जातात. ) इन्स्पेक्टर सलीम कायम त्या ‘फटका’ला पैसे देऊन त्याच्याकडून वेगवेगळी माहिती मिळवत असतो. आता जर तो अधिकारी त्या भागात ये जा करत असेल तर त्याला ते बंद करता येणे शक्य नाहीये का? उत्तर मिळते, ‘नाही’. कारण त्याने एका ठिकाणी धाड टाकली तर तो व्यवसाय दुसऱ्या ठिकाणी चालू होईल. दुकान बंद करता येईल पण पण मानसिकता कशी बदलणार? त्यापेक्षा त्या गोष्टी तशाच चालू द्यायच्या, फक्त त्यातून समाजाचा समतोल ढळणार नाही याची काळजी घ्यायची. अगदी त्याच प्रमाणे अनेक सुरक्षा यंत्रणेचे अधिकारी आपली ओळख लपवून डार्कवेबवर वावरत असतात. आणि त्या ठिकाणी जी माहिती मिळेल त्यातून समाजाचे कमीत कमी नुकसान होईल याचा प्रयत्न करतात. 

आता काहींना असाही प्रश्न पडेल की नुसते वावरल्याने माहिती कशी मिळते? डार्कवेबवर कायम वेगवेगळे समूह बनवले जातात. जे अगदी काही दिवसांपुरते किंवा अनेकदा तर काही तासांपुरते सक्रीय असतात. ज्या सदस्यांना अशा समुहात सामील व्हायचे असते त्यांना एक लिंक पाठवली जाते ज्याच्या आधारे ते त्या समूहात सभासद बनतात. ( whatsapp चा वापर करणाऱ्या माणसाला हे लगेच लक्षात येऊ शकेल. कारण त्याचे बरेचशे कार्य डार्कवेबसारखेच असते. ) त्या समूहाच्या माध्यमातून संदेश दिले घेतले जातात. किंवा मग एखादी खरेदी विक्री केली जाते. एकदा का त्याचा उद्देश पूर्ण झाला की तो समूह बंद केला जातो. आणि हेच कारण आहे की जोपर्यंत सुरक्षा यंत्रणा अशा समूहातील गोष्टी डिकोड करतात, समूह बंद केलेला असतो किंवा त्या सदस्यांनी आपले स्थान बदललेले असते. मग कसे कुणाला पकडता येईल?

तुम्हाला हे whatsapp चे उदाहरण यासाठी दिले कारण मध्यंतरी एका मित्राशी चर्चा करताना त्याने हा प्रश्न उपस्थित केला होता की, whasapp ला डार्कवेब म्हणता येईल का? इथेही सगळे संदेश एनकोड करून पाठवले जातात. इथे कधीही समूह तयार करता येतो, कधीही बंद करता येतो. इथे कोणकोणते समूह आहेत हे कुणालाही कुणी सांगितल्याशिवाय समजत नाही. तुम्हालाही हा प्रश्न पडला का? या प्रश्नांचे उत्तर आहे, ‘whatsapp ला डार्कवेब म्हणता येत नाही.’ याला दोन कारणे आहेत. पाहिले कारण म्हणजे इथे तुम्ही तुमच्या फोन नंबर किंवा इमेल आयडी वरून लॉगीन होतात. या दोन्ही गोष्टी तुमची ओळख असतात. म्हणजेच इथे तुम्ही आपली ओळख लपवू शकत नाहीत. आणि दुसरे कारण म्हणजे तुम्ही whasapp वर जे समूह बनवतात त्याचा डेटा जरी एनकोड केलेला असला तरी तो एका सर्व्हरवर साठवलेला असतो. आणि जर सुरक्षा यंत्रणानी सबळ कारण देऊन मागणी केली तर तो त्यांना मिळू शकतो.     

आता अजून एक प्रश्न तुमच्या मनात निर्माण झाला असेल. नेटवर्क जर सर्व्हर आणि क्लाईंट मिळून तयार होते तर इथेही सर्व्हर असणार ना? हो असतोच. पण कोणत्याही सरकारचे त्यावर नियंत्रण नसते. सरकारला त्यावर का नियंत्रण ठेवता येत नाही हे मात्र पुढील भागात. 

– क्रमशः भाग सहावा 

©  श्री मिलिंद जोशी

वेब डेव्हलपर

नाशिक

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ हरवत चाललं आहे बालपण… ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? – हरवत चाललं आहे बालपण  – ? ☆श्री आशिष  बिवलकर ☆

हरवत चाललं आहे बालपण,

मोबाईलच्या व्यसनात |

अभ्यास, मैदानी खेळ, वाचन 

गुंडाळून ठेवलंय बासनात |

*

भूलभुलैय्या या आभासी दुनियेत,

सगळेच झालेत रममाण |

कोवळ्या वयात डोळे मेंदूवर,

पडू लागलाय असह्य ताण |

*

दोन जीबी डेटाचा रोजचा,

मोबाईलला लागतो खुराक |

अनलिमिटेड वायफाय असेल 

तर सर्वच वेळ बेचिराख |

*

लुडो, पब्जी , ऑनलाइन रमी,

क्रिकेट सारेच ऑनलाईन गेम |

भावी पिढीचे व्हावे नुकसान,

हाच आहे एकमेव नेम |

*

असामाजिक तत्व मोबाईल आडून,

मुलांच्या आयुष्यात घुसत आहेत |

तुमचं आमचं साऱ्याच राष्ट्राचं,

उज्वल भविष्य नासवत आहेत |

*

प्रिय सुजाण पालकांनो,

नका पुरवत जाऊ असे बालहट्ट |

वेळ देत रहा पाल्याला,

नात्यातील वीण होऊ द्या घट्ट |

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 198 – नया शब्द संदर्भ… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – नया शब्द संदर्भ।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 198 – नया शब्द संदर्भ… ✍

(काव्य-संग्रह ‘संभावना की फसल’ से)

शायद, शब्दावलियों को

पीलिया हो गया है।

शब्दों का वर्चस्व

जाने कहाँ खो गया है!

 

लगता है

बुरे माहौल ने

शब्दों की आदत बिगड़ दी है –

अब अच्छे नहीं हैं उनके लच्छन।

अब नहीं बना पाएंगे

शब्दों के महल

मैं, भवानी मिश्र या कि बच्चन।

 

हाय !

कैसा हो गया है

इस दुनिया का चलन,

वो चल ही नहीं पाता

कि जो नहीं है बदचलन ।

 

सुना है –

दक्षिण अफ्रीका और वियतनाम में

फरिश्तों के स्कूल खुल गए हैं

सुना है –

पड़ोसी देशों के कुछ आदमी (?)

शब्दावलियों का सतीत्व भंग करने पर

तुल गए हैं।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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