हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 41 ☆ व्यंग्य – “धांधलियों से आगे धांधली तक का सफ़र…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  “धांधलियों से आगे धांधली तक का सफ़र.…”।) 

☆ शेष कुशल # 41 ☆

☆ व्यंग्य – “धांधलियों से आगे धांधली तक का सफ़र…” – शांतिलाल जैन 

विशाल सभागृह, अर्धवृत्ताकार मंच, श्रोताओं में शिक्षक, अभिभावक, नीट में धांधली का शिकार छात्रों का समूह, शिक्षा के व़जीर और उनके महकमे के मुलाज़िम. उपस्थित समूह की जननायक से हुई काल्पनिक चर्चा और सवाल-जवाब की संक्षिप्त रपट यहाँ प्रस्तुत है.

“जननायक के सामने सबसे कठिन प्रश्न था बच्चों को हिम्मत हारने से बचने के सुझाव देना. उन्होंने कहा कि परीक्षा में धांधली के शिकार छात्रों को निराश नहीं होना चाहिए. आपने चुनाव में धांधली के शिकार किसी नेता को आत्मघाती कदम उठाते हुए कभी देखा है? वो धांधलियों से आगे धांधली करना सीखता है. राजनीति में जो जितनी अधिक धांधलियाँ कर लेता है उसे उतनी अधिक सफलताएँ प्राप्त होती हैं. जननायक तो अपनी ही पार्टी के एक्जामपल देना चाह रहे थे कि टेलीप्रोम्प्टर पर आई सलाह ने उन्हें रोक दिया. उन्होंने छात्रों को बताया कि ये आर्यावर्त है, यहाँ धांधली कभी सहना होती है, कभी करना होती है. नीट की परीक्षा में धांधली आपके लिए एक स्टेपिंग स्टोन है. आपको धांधली सहना और धांधली करना दोनों सीख लेना चाहिए, अवसर मिले तो कर डालिए नहीं तो सहन करते हुए अवसर की प्रतीक्षा कीजिए. और, अब आर्यावर्त में ऐसा कुछ नहीं रहा कि धांधलियों से जन-विश्वास कमज़ोर हो जाते हों. ये राजनेताओं पर जन-विश्वास ही है जो व्यापम से नीट तक तमाम कारगुजारियों के बावजूद हर बार छात्रों को परीक्षा हॉल तक ले आता है. आर्यावर्त में जीवन धांधलियों से आगे धांधली तक की यात्रा है. यात्रा से याद आया, आप यात्रा करके परीक्षा देने जिस शहर में आए हैं हमने इसका मुगलकालीन नाम बदल दिया है. नाम बदलने से युवाओं का भविष्य सुरक्षित होता है, पेपर लीक रोकने से नहीं.

बैचमेट्स की सफलताओं के दबाव और दोस्तों के बीच कॉम्पिटीशन के सवाल पर जननायक ने कहा कि कॉम्पिटीशन हेल्दी होना चाहिए. एक बार फिर उन्होंने राजनीति का उदहारण सामने रखते हुए कहा कि राजनेता जेल में डालनेवाला हो या जेल में डलनेवाला दोनों के बीच टॉम एंड ज़ेर्री नुमा प्रतिस्पर्धा होती है. जब इसका समय आता है उसको जेल में डाल देता है, जब उसका समय आता है इसको जेल में डाल देता है. एक होड़ सी मची रहती है किसने किस पार्टी के कितने जेल में डाले. अपोजिशन का गला काट लेना लोकतंत्र स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की निशानी है. सिमिलरली, कॉम्पिटीशन मेडिकल कॉलेजों की मंडी में भी कम नहीं है. बारह हज़ार करोड़ रूपये सालाना का बाज़ार है. सीटें भरती नहीं हैं, नीलाम होती हैं. सरकार का काम है मार्किट को सपोर्ट करना. बिग कार्पोरेट्स को इंसेंटिव चाहिए, सरकार देती है. नीट में चहेतों को ग्रेस मार्क्स चाहिए, सरकार देती है. मेडिकल सीट्स के ओपन मार्किट में सर्वाईवल ऑफ़ दी फिटेस्ट का प्रिंसिपल समझ लेंगे तो कभी आत्मघाती कदम नहीं उठाएँगे.

जननायक ने अल्टरनेटिव् कॅरियर के बारे में भी सलाह दी. अभिभावकों से आग्रह किया कि अगर वे डॉक्टरी की सीट अफोर्ड नहीं कर सकते तो बच्चों को पानी-पतासी बेचने जैसे कामों में लगाएँ. उन्हें समझाएँ कि कोई कितना भी बड़ा डॉक्टर क्यों न बन जाए एक दिन वो आपके बच्चे के सामने हाथ में दोना लेकर हींग के पानीवाली पतासी जरूर मांगेगा. पतासी बेचनेवाले युवा की उपलब्धि नीट से परीक्षा पास डॉक्टर की उपलब्धि से कमतर नहीं है. कुछ लोग जो आज संसद में और विधानसभाओं में हैं कभी वे भी पानी-पतासी ही बेचा करते थे. नीट में चूक जाने पर नकारात्मकता का संचार होता है, पानी-पतासी बेचने से सकारात्मकता आती है. आई ऑलवेज सी ए लुकरेटिव कॅरियर इन सेलिंग ऑफ़ पानी पतासी.

परीक्षा के तनाव से मुकाबला करने के लिए उन्होंने रील बनाने की जरूरत पर जोर दिया. रील बनाते रहने में छात्रों के तनाव दूर करने की क्षमता है. सरकार ने डाटा सस्ता रखा है. आप रील बनाएँ और भूल जाएँ कि आपके साथ धोखा हो रहा है. फनी रील बनानेवाले – ‘पापा, मुझे माफ़ कर देना. मैं आपका सपना पूरा नहीं कर सका. आई लव यू पापा’ लिखकर आत्महत्या करना कायरता है, रील बनाते रहना वीरता है.

छात्रों को प्रेरित करने में शिक्षकों की भूमिका पर जोर देते हुए कहा कि शिक्षकों को आदिवासी युवा और राजकुमारों में फर्क करना आना चाहिए. राजशाही हो कि लोकशाही, अंगूठा किसका लेना है और धनुर्धर किसको बनाना है यह हैसियत से तय होता आया है. अपना आकलन आप स्वयं करें – पाँच सितारा निजी मेडिकल कॉलेज में जाने की हैसियत रखते हैं कि गांधीज में से किसी के नाम पर धरे गए सरकारी कॉलेज में. सर्वाईवल ऑफ़ दी फिटेस्ट. यहाँ फिट नहीं हो पा रहे तो डॉक्टरी पढ़ने यूक्रेन, बेलारूस या चीन निकल जाएँ. वहाँ के वार की चिंता न करें. हम निकाल लाएंगे आपको.

जाँच पर एक अभिभावक के प्रश्न के उत्तर में जननायक ने कहा कि सरकार को सब ज्ञात होता है, मगर वो मामले अज्ञात पर दर्ज करती है. अज्ञात को कब ज्ञात कराना है और ज्ञात को कब अज्ञात करा देना है वो आप हम पर छोड़ दीजिए. आप लोग ज्ञात-अज्ञात के फेर में न रहें, दूरदर्शन पर टी-20 फ्री टेलीकास्ट हो रहा है, एन्जॉय करें.

अंत में, शिक्षा के वज़ीर ने आश्वस्त करते हुए कहा कि सरकार पेपर लीक करने और सॉल्व करने के कारोबार को इंडस्ट्री का दर्जा देने पर गंभीरता से विचार कर रही है. हम चाहते हैं सॉल्वर-गैंग में प्रतिभाशाली बेरोजगार युवा जुड़े और ‘पेपर-लीक एंड सॉल्विंग इंडस्ट्रीज (प्रा.) लिमिटेड’ जैसे स्टार्ट-अप लगा सकें. उन्होंने जननायक और श्रोताओं का धन्यवाद अदा किया और सभी को शुभकामनाएं देकर विदा ली.”

-x-x-x-

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 198 – “जो झुके नहीं किंचित…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत जो झुके नहीं किंचित...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 198 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “जो झुके नहीं किंचित...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

यादें सिर्फ नहीं है यादें

साँसे होती हैं

और जिन्दगी के

परिचय की आसें होती हैं

 

जहाँ एकजुट होकर

शंकायें थमती जाती

जितना जितना सुलझाओ

उतना ही उलझाती

 

मनके तेज दौड़ते

घोड़ों को वश में करने

खींचो सदा नियंत्रण को

जो रासें होती हैं

 

देख रहे हो गति के

भूगोलों की दुर्घटना

कभी लुम्बनी मे या

राँची में या फिर पटना

 

कभी बहुत धीमें से

हाथों चुभी हुई होतीं

साला करती जो रह रह

कर फाँसें होती हैं

 

बड़े बड़े शूरमा यहाँ

आये और चले गये

रौंद गये सभ्यता संस्कृति

हम सब छले गये

 

फिर भी कुचले जाने पर

जो झुके नहीं किंचित

वही दूब की वंशज

हरियल घासें होती हैं

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

04-07-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

स्व. हरिशंकर परसाई

☆ कहाँ गए वे लोग # २० ☆

☆ “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(अगस्त  2023 – अगस्त 2024 हिंदी के महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्मशती वर्ष है।)

देशभर के कोने कोने उनके जन्मशती वर्ष पर परसाई पर केंद्रित लगातार आयोजन हो रहे हैं। हिंदी साहित्य में हरिशंकर परसाई जैसा दूसरा व्यक्ति नहीं हुआ। परसाई के तीखे व्यंग्य बाणों ने सत्ता के अन्तर्विरोधों की पोल खोल दी और अपने युग की राजनीतिक सामाजिक विडंबनाओं को तीखे ढंग से पेश किया। हिन्दी साहित्य में परसाई ही एकमात्र ऐसे लेखक हैं जो प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक माने जाते हैं। आजादी के बाद आज तक वे व्यंग्य के सिरमौर बने हुए हैं, 1947 से 1995 के बीच परसाई जी की कलम ने घटनाओं के भीतर छिपे संबंधों को उजागर किया है, एक वैज्ञानिक की तरह उसके कार्यकारण संबंधों का विश्लेषण किया है और एक कुशल चिकित्सक की तरह उस नासूर का आपरेशन भी किया। वे साहित्यकार के सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहेे और अपनी रचनाओं से जन जन के बीच लोकशिक्षण का काम किया।परसाई जी जीवन के अंतिम समय तक पीड़ा ही झेलते रहे, यह व्यक्तिगत पीड़ा भी थी, पारिवारिक पीड़ा भी थी, समाज और राष्ट्र की पीड़ा भी थी, इसी पीड़ा ने व्यंग्यकार को जीवन दिया। उनका व्यंग्य कोई हंसने हंसाने, हंसी – ठिठोली वाला व्यंग्य नहीं, वह आम जनमानस में गहरे पैठ कर मर्मांतक चोट करता है, वह उत्पीड़ित समाज में नई चेतना का संचार करता है, उन्हें कुरीतियों, अज्ञान के खिलाफ जेहाद छेड़ने बाध्य करता है, वह सरकारी अमले को दिशानिर्देश देता प्रतीत होता है, यह साहस हर कोई नहीं जुटा सकता। समाज से, सरकार से, मान्य परंपराओं के विरोध करने में जो चुनौती का सामना करना होता है उससे सभी कतराते हैं, पर यह पीड़ा परसाई जी ने उठाई थी । व्यंग्य को लोकोपकारी स्वरूप प्रदान करने में उनके भागीरथी प्रयत्न की लम्बी गाथा है।अब उनके व्यंग्य की परिधि आम आदमी से घूमते घूमते राष्ट्रीय सीमा लांघ अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर स्थापित हो चुकी है। दिनों दिन बढ़ती उनकी लोकप्रियता, चकित करने वाली उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता, उनके चाहने वालों की बढ़ती संख्या से अहसास होता है कि कबीर इस धरती पर दूसरा जन्म लेकर हरिशंकर परसाई बनकर आए थे।

जो परसाई की “पारसाई” को जानता है, वही परसाई जी को असल में जानता है, उनके लिखे ‘गर्दिश के दिन’ पढ कर हर आंख नम हो जाती है, हर व्यक्ति के अंदर करूणा की गंगा बह जाती है। ‘गर्दिश के दिन’ पढ़कर एक युवा लेखक ने परसाई के नाम पत्र लिखा, जो उस समय गंगा पत्रिका में छपा था….. 

जनाब परसाई जी, 

मैं नया जवान हूं। कुछ साल पहले मैंने लिखना शुरू किया था। मेरी महत्वाकांक्षा थी कि मैं हरिशंकर परसाई बनूंगा पर आपका लिखा “गर्दिश के दिन” पढ़कर और आपके द्वारा भोगे गये घोर कष्टों का वर्णन पढ़कर मैंने यह विचार त्याग दिया है। मैं हरिशंकर परसाई अब नहीं बनूंगा। हरिशंकर परसाई बनना आपको ही मुबारक हो। मैं हमदर्दी भेजता हूं।

****

परसाई दुनिया के ऐसे अकेले लेखक हैं जिनके जीते जी उनकी “रचनावली” प्रकाशित हुई थी, उनकी रचनाओं में धारदार हथियार करूणा के रस में डूबा रहता था,  उनकी रचनाओं में ऐसा धारदार सच होता है, एक बार उनकी रचना पढकर कुछ लोगों ने उनको इतना पीटा और उनकी दोनों टांग तोड दी, पर वे टूटी टांग लिए जीवन भर लिखते रहे। आजादी के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लोकप्रिय लेखक श्री हरिशंकर परसाई ने अपनी रचनाओं के मार्फत सामाजिक सुधार में अपनी बड़ी भूमिका निभाई है, उनकी रचनाओं को पढ़कर भ्रष्टाचारियों ने भ्रष्टाचार छोड़ा,गिरगिट की तरह रंग बदलने वाली मनोवृत्ति वालों ने अपना स्वाभाव बदला, पुलिस वाले सुधरे, सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था और व्यवहार में कुछ हद तक सुधार हुआ और होता जा रहा है, लाखों लोग उनकी रचनाओं से प्रेरणा लेकर समाज सुधार में लगे हैं। वास्तव में ऐसे समाज सुधारक लोकप्रिय,लोक शिक्षक लेखक भारत रत्न के हकदार होते हैं। परसाई अपने आसपास बिखरे साधारण से विषय को अपनी कलम से असाधारण बना देते थे, उनकी रचनाएं पाठक को अंत तक पकड़े रहतीं हैं। हाईस्कूल के पंडित जी तो सबको मुहावरे और सुभाषित पढ़ाते हैं पर उनकी गहराई में जाकर परसाई जी हंसाते हुए आम आदमी की प्रवृत्तियों को उजागर करते हैं। ऐसी सहज सरल भाषा में जो आमतौर पर सब तरफ हर कान में सुनाई देती है। राजनीति परसाई जी को मुख्य विषय रहा है, राजनैतिक बदलाव की इतनी सारी स्थिति के बाद भी उनकी रचनाएं आज भी सबसे ताजा लगतीं हैं, उनकी घटना प्रधान रचनाएं कहीं से भी बासी नहीं लगती। वाह परसाई,गजब परसाई, हां परसाई …. तेरी गजब पारसाई।

परसाई जी की पहली रचना 1947 में ‘प्रहरी’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, और परसाई जी ने अपने सम्पादन में पहली पत्रिका वसुधा 1956 में निकाली थी। कालेज के दिनों से हम परसाई जी के सम्पर्क में रहे और उनका विराट रूप देखा, उनकी रचनाएँ पढ़ी, “गर्दिश के दिन” में भोगे घोर कष्टों का वर्णन पढ़ा, उनसे हमने लम्बा साक्षात्कार लिया जो बाद में हंस, जनसत्ता,वसुधा में प्रकाशित हुआ। नेपथ्य में चुपचाप हम थोड़ा बहुत रचनात्मक कामों में लगे रहे, पढ़ते रहे लिखते रहे, उन्हें बहुत करीब से जाना समझा।

इस लेख के साथ उसका संक्षिप्त परिचय देना आवश्यक लगता है ताकि नयी पीढ़ी परसाई जी को जान सके।

हरिशंकर परसाईं का जन्म 22 अगस्त¸ 1924 को जमानी¸ होशंगाबाद¸ मध्य प्रदेश में हुआ था। वे हिंदी के पहले रचनाकार हैं जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा  दिलाया और उसे हल्के–फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा है। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी पैदा नहीं करतीं¸ बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने–सामने खड़ा करती हैं¸ जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असंभव है। लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी जीवन–मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने सदैव विवेक और विज्ञान–सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा–शैली में खास किस्म का अपनापा है¸ जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. किया| उन्होंने 18 वर्ष की उम्र में जंगल विभाग में नौकरी भी की। खण्डवा में 6 महीने अध्यापक रहे। दो वर्ष (1941–43) जबलपुर में स्पेस ट्रेनिंग कालिज में शिक्षण कार्य का अध्ययन किया। 1943 से वहीं माडल हाई स्कूल में अध्यापक रहे। 1952 में यह सरकारी नौकरी छोड़ी। 1953 से 1957 तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की। 1957 में नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरूआत की। जबलपुर से ‘वसुधा’ नाम की साहित्यिक मासिकी निकाली¸ नई दुनिया में ‘सुनो भइ साधो’¸ नयी कहानियों में ‘पाँचवाँ कालम’¸ और ‘उलझी–उलझी’ तथा कल्पना में ‘और अन्त में’ इत्यादि का लेखन किया। कहानियाँ¸ उपन्यास एवं निबन्ध–लेखन के बावजूद मुख्यत: हरिशंकर परसाईं व्यंग्यकार के रूप में अधिक विख्यात रहे| परसाई जी जबलपुर रायपुर से निकलने वाले अखबार देशबंधु में पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। स्तम्भ का नाम था-पूछिये परसाई से। पहले हल्के इश्किया और फिल्मी सवाल पूछे जाते थे । धीरे-धीरे परसाईजी ने लोगों को गम्भीर सामाजिक-राजनैतिक प्रश्नों की ओर प्रवृत्त किया। दायरा अंतर्राष्ट्रीय हो गया। यह सहज जन शिक्षा थी। लोग उनके सवाल-जवाब पढ़ने के लिये अखबार का इंतजार तक करते थे।

हरिशंकर परसाईं जी का सन 1995 में देहावसान हो गया।

कहानी–संग्रह: हँसते हैं रोते हैं¸ जैसे उनके दिन फिरे।

उपन्यास: रानी नागफनी की कहानी¸ तट की खोज, ज्वाला और जल।

संस्मरण: तिरछी रेखाएँ , के अलावा और बहुत सी संग्रह।

लेख संग्रह: तब की बात और थी¸ भूत के पाँव पीछे¸ बेइमानी की परत¸ अपनी अपनी बीमारी, प्रेमचन्द के फटे जूते, माटी कहे कुम्हार से, काग भगोड़ा, आवारा भीड़ के खतरे, ऐसा भी सोचा जाता है, वैष्णव की फिसलन¸ पगडण्डियों का जमाना¸ शिकायत मुझे भी है¸ सदाचार का ताबीज¸ विकलांग श्रद्धा का दौर¸ तुलसीदास चंदन घिसैं¸ हम एक उम्र से वाकिफ हैं।

सम्मान: ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित। अनेकों पुरस्कार/ सम्मानों से सम्मानित।

सन् 1985 में प्रकाशित परसाई रचनावली में स्वयं परसाई द्वारा लिखे गये निवेदन का एक अंश…

35 साल अपने विश्वास को मजबूती से पकड़कर, बिना समझौते के, मैंने जो सही समझा, लिखा है। जो कुछ मानव विरोधी है, उस पर निर्मम प्रहार किया है। नतीजे भोगे हैं, अभी भोग रहा हूँ, आगे भी भोगता जाउॅंगा। पर मैं लगातार उसी स्फूर्ति, शक्ति ओर विश्वास से लिखता जा रहा हूँ।

मेरा लिखा हुआ कुल इतना नहीं है, जो इस रचनावली में है। अभी बहुत कुछ शेष है जो आगे प्रकाशित होगा। फिर मैं मरा नहीं हूँ। जिन्दा हूँ और लिख रहा हूँ।

पुराने मित्रों में मैं ‘स्वामीजी’ कहलाता हूँ। परम्परा है कि संन्यासी अपना श्राद्ध स्वयं करके मरता है। तो रचनावली मेरा अपना श्राद्ध कर्म है, जो कर के दे रहा हॅू। वैसे मैं अभी जवान हूँ, मगर श्राद्ध अभी कर दे रहा हूँ।

श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 185 ☆ # “जीने दो मुझको” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “जीने दो मुझको”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 185 ☆

☆ # “जीने दो मुझको” # ☆

मत डराओ

यह विष पीने दो मुझको

मैं अभी जिंदा हूं

कुछ देर और

जीने दो मुझको

 

मेरी हर राह

कीलों से सजा रखी है

मेरी हर चाह

विषधर ने दबा रखी है

तोड़ने यह नागपाश

यह जहर पीने दो मुझको

मैं अभी जिंदा हूं

कुछ देर और

जीने दो मुझको

 

इस दुनिया ने

पग पग पर मुझको छला है

अपनी तरकश से

ज़ख्मी करने

मुझपर हर तीर चला है

मैं सदियों से जख्मी हूं

इन जख्मों को सीने दो मुझको

मैं अभी जिंदा हूं

कुछ देर और

जीने दो मुझको

 

अब कोई वार करे

यह मुझे मंजूर नहीं

हर दफा मैं ही मरूँ  

ऐसा कोई दस्तूर नहीं

यह जंग पुरानी है

इस बार तो जीतने दो मुझको

मैं अभी जिंदा हूं

कुछ देर और

जीने दो मुझको/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – मन के धागे… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘मन के धागे…‘।)

☆ कविता – मन के धागे…☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

मन के धागे,

मन,मन के धागे,

जितने मन हैं,

उतने धागे,  

मन के धागे,

 ये जीवन है,

जीवन,पथ है,

जीवन पथ से,

 बंधे हुए हैं,

 मन के धागे,

 मन मन के धागे,

 मन निष्ठुर है,

 मन चंचल है,

 भागना चाहे,

 तोड़ना चाहे,

 मन के धागे,

 मन मन के धागे,

 मन निर्मल है,

 मन कोमल है,

 मन से मन का,

 भाव अटल है,

 तोड़े से भी,

 टूट न पाएं,

 मन के धागे,

 मन मन के धागे…

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 181 ☆ पहिला पाऊस… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 181 ? 

☆ पहिला पाऊस… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

पहिला पावसाळा, सुचते कविता कुणाला

पहिला पावसाळा, चिंता पडते कुणाला.!!

*

पहिला पावसाळा, गळणारे छत आठवते

पहिला पावसाळा, राहते घर प्रश्न विचारते.!!

*

पहिला पावसाळा, शेतकरी लागतो कामाला

पहिला पावसाळा, चातकाचा आवाज घुमला.!!

*

पहिला पावसाळा, नदी नाले सज्ज वाहण्या

पहिला पावसाळा, झरे आसूसले कूप भरण्या.!!

*

पाहिला पावसाळा, थंड होय धरा संपूर्ण

पहिला पावसाळा, इच्छा होवोत सर्व पूर्ण.!!

*

पहिला पावसाळा, शालू हिरवा प्राची पांघरेल

पहिला पावसाळा, चहू बाजू निसर्ग बहरेल.!!

*

पहिला पावसाळा, छत्री भिजेल अमर्याद भोळी

पहिला पावसाळा, पिकेल शिवार तरच पोळी.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 249 ☆ कथा-कहानी ☆ जन्मदाता ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – जन्मदाता ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 249 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ जन्मदाता 

गायत्री को उनके आने की जानकारी थी। बीच-बीच में फोन आते रहते थे— कभी हरद्वार से, अभी वृन्दावन से, कभी बनारस से।ज़्यादा पूछताछ नहीं करते थे, न गृहस्थी के बारे में कोई सवाल करते थे। बस, ‘आनन्द तो है न?’ बच्चों से बात कर लेते थे। अचानक ही कभी प्रकट हो जाते थे। एक-दो दिन रुकते, फिर डेरा समेट कर बढ़ जाते। गायत्री भी उन्हें रुकने के लिए नहीं कहती थी।जैसे आना वैसे ही जाना। मन में कोई उद्वेग नहीं होता।

इस बार तीन दिन पहले फोन आया था कि गायत्री के शहर में विशाल यज्ञ है। कुछ बड़े सन्त आएँगे। वे खुद भी एक हफ्ते वहाँ रहेंगे। यह निश्चित नहीं कि गायत्री के पास कितना रहेंगे, लेकिन कम से कम एक-दो दिन ज़रूर रहेंगे। गायत्री के पति समर ने बताया था कि गोल बाज़ार में बड़ा सा शामियाना लग गया है और यज्ञशाला का निर्माण हो रहा है। शायद उसी में आएँगे। शहर में दो-तीन जगह आयोजन के बैनर भी दिखाई पड़े थे।

कभी दामाद यानी समर फोन उठा ले तो उसी से बात कर लेते हैं। कहते हैं, ‘गृहस्थी में आदमी सारी उम्र कोल्हू का बैल बना रहता है। आँखों पर माया की पट्टी और गोल गोल चक्कर। ऐसे ही उम्र चुक जाती है और हाथ कुछ नहीं आता। निवृत्ति में ही सच्चा सुख है। बिना खोये कुछ नहीं मिलता। सांसारिक सुख तो मृगतृष्णा है।’

उसे समझाते हैं कि इस संसार को तन से भले ही न छोड़ा जाए लेकिन मन से तो छोड़ा ही जा सकता है। हर गृहस्थ को निर्लिप्त होकर अपना कर्म करना चाहिए। काम करें लेकिन आसक्ति रहित होकर। कीचड़ में कमल की तरह।

समर थोड़ी देर उनकी बात सुनता है, फिर फोन गायत्री को पकड़ा देता है। कहता है, ‘तुम्हीं बात करो।’ बाद में गायत्री से कहता है, ‘ये सब बातें आज की ज़िन्दगी में कहाँ संभव हैं?अपने काम में पूरी तरह ‘इनवाल्व’ हुए बिना कैसे रहा जा सकता है?’

गायत्री जवाब देती है, ‘उनकी बातें सुनते जाओ। ज़िन्दगी तो अपने हिसाब से ही चलेगी।’

इस बार वे नियत दिन पर आ गये। सबेरे सबेरे ऑटो आकर रुका और दरवाज़े की घंटी बजी। गायत्री ने बाहर आकर देखा तो एक दस-बारह साल का साधु-वेश धारी बालक दरवाज़े के बाहर सकुचता सा खड़ा मिला। सामने ऑटो के भीतर वे बैठे थे। उनका नियम है कि जब तक घर का व्यक्ति प्रवेश करने के लिए प्रार्थना न करे, वे सवारी से नहीं उतरते। गायत्री की प्रार्थना पर वे ऑटो से उतरे। वे ही गेरुआ वस्त्र, लंबे केश और दाढ़ी। केश लगभग पूर्णतया श्वेत। चेहरे पर खूब प्रफुल्लता और निश्चिंतता। साथ के बालक  का सिर मुंडित है। समर ने ऑटो का भुगतान कर दिया।

उनके लिए पहले से ही एक कमरा खाली कर दिया था। पूरा कमरा धो कर एक तरफ उनके लिए पूजा-स्थान बना दिया गया था। भीतर आकर वे तकिये के सहारे उठंग कर गायत्री के हाल-चाल लेने लगे। फिर दोनों बच्चों को बुलाकर उनके सिर पर स्नेह से हाथ फेरा, थैली में से मिठाई और मेवा निकालकर दोनों को दिया। बच्चे जानते हैं कि वे नाना जी हैं।

उनके साथ आए बालक का नाम अमृतानंद है। अपने भविष्य के लिए ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से उनका शिष्य बन गया है। उनके साथ ही हर जगह जाता है। साधु-वेश के बावजूद उसका स्वभाव सामान्य बालक का ही है। टीवी पर रोचक कार्यक्रम देखकर आँखें जम जाती हैं। अगल-बगल बच्चों को खेलते देख उसके हाथ पाँव भी सिहरने लगते हैं। लेकिन उसकी एक आँख हमेशा गुरुजी पर रहती है। गुरुजी दोपहर को नींद में हों तो घर के बच्चों के साथ मज़े से खेल कूद लेता है।

लेकिन पिता के आने से गायत्री के मन में कोई विशेष खुशी या उत्साह नहीं होता। लंबे अंतरालों पर उनके आने के बावजूद ठंडक जैसी बनी रहती है। उनकी उपस्थिति अनुपस्थिति से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, न ही कोई लहर उठती है। सब कुछ पूर्ववत चलता रहता है। दोनों बहनों, गीता और गौरी को उनके आने की खबर ज़रूर दे देती है।

गायत्री के बेडरूम में पुराना फोटो टँगा है— माता-पिता और चारों भाई बहन। तब गायत्री नौ दस साल की रही होगी। दोनों बहनें उससे छोटी हैं। विशू तब तीन-चार साल का रहा होगा। पिता के माथे पर लाल बिन्दी है। चित्र में माँ का चेहरा देखते उसका गला भर आता है।

उसे याद आता है सबेरे वे चारों, दो दो माँ के आजू-बाजू लेटे रहते थे। माँ उन्हें दुलारतीं, पुराणों की कथाएँ सुनाती रहतीं। उस वक्त उनके चेहरे पर ऐसा अलौकिक आनन्द  दमकता जैसे सारी सृष्टि उनकी बाँहों में सिमट गयी हो। गायत्री को वैसा सुख फिर जीवन में नहीं मिला।

पिताजी सरकारी दफ्तर में मुलाज़िम थे, लेकिन वे जीवन भर लापरवाह और गैरजिम्मेदार ही रहे। घर से निकलने पर कब लौटेंगे, ठिकाना नहीं। जेब में पैसे और हाथ में थैला लेकर सामान लेने निकलते और कहीं गप- गोष्ठी में दो-तीन घंटे गुज़ार कर वैसे ही खाली थैला हिलाते वापस आ जाते। उनके ऐसे आचरण से घर में क्या दिक्कत होती है इसे लेकर वे ज़्यादा परेशान नहीं होते थे। कभी किसी साहित्यिक या धार्मिक महफिल में जम जाते तो सारी रात वहीं गुज़र जाती। माँ सारी रात या तो करवटें बदलती रहतीं या कमरे में उद्विग्न टहलती रहतीं। उन पर क्या गुज़रती थी यह पिता महसूस नहीं कर पाते थे। बच्चों को स्कूल के लिए समय से उठाने से लेकर उनकी फीस समय से जमा करवाने तक की सारी फिक्र माँ को ही करनी पड़ती थी। पिता के ऐसे रवैये के कारण माँ के लिए कहीं आना-जाना मुश्किल रहता था। वे घर में ही बँध कर रह गयी थीं।

फिर माँ के सिर में भारीपन और दर्द रहने लगा था। पिता ने पहले टाला-टूली की,फिर डाक्टर को दिखाया। डाक्टर ने जाँच-पड़ताल के बाद कहा, ‘ब्लड प्रेशर बढ़ गया है। रोज एक गोली खानी पड़ेगी। गोली कभी बन्द नहीं करना है।’ लेकिन पिता गोली लाना भूल जाते। वैसे भी उन्हें एलोपैथी में भरोसा नहीं था। कहते, ‘ये एलोपैथी की दवाएँ जितना ठीक करती हैं उतना शरीर में जहर इकट्ठा करती हैं। अपना देसी सिस्टम ठीक होता है।’ नतीजतन माँ हफ्तों बिना दवा के रह जातीं।

फिर वह मनहूस दिन आया जब रोज सबेरे पाँच बजे उठने वाली माँ सोती ही रह गयीं। अफरा-तफरी में पास के अस्पताल ले जाने पर पता चला कि रक्तचाप बढ़ने के कारण मस्तिष्क में रक्तस्राव हो गया। माँ फिर होश में नहीं आयीं। उनके चेहरे पर चारों बच्चों की उम्मीद भरी निगाहें चिपकी थीं, लेकिन उन्होंने दूसरे दिन दोपहर सबसे नाता तोड़ लिया।

पिता उस दिन से गुमसुम हो गये। माँ के सारे कृत्य तो उन्होंने किये, लेकिन वे जैसे गहरे सोच-विचार में डूब गये। बच्चों से भी संवाद न के बराबर हो गया। बच्चे सांत्वना के लिए पिता की तरफ देखते थे, लेकिन पिता कुछ अपनी ही उधेड़बुन में लगे हुए थे। ऐसा लगता था वे सब चीज़ों के प्रति तटस्थ, उदासीन हो गये थे।

माँ की तेरहीं के दिन उन्होंने अचानक विस्फोट कर दिया। घर में जुटे रिश्तेदारों के बीच उन्होंने दोनों हाथ उठाकर घोषणा कर दी, ‘मैं अब सन्यास ले रहा हूँ। सांसारिक रिश्तों को तोड़ रहा हूँ। मेरे पास यह मकान है, दफ्तर में प्राविडेंट फंड का पैसा है। कोई चाहे तो इन सब चीज़ों को ले ले और इन बच्चों की ज़िम्मेदारी सँभाल ले। मेरी तरफ से सब खत्म।’

संबंधियों ने इसे उन पर अचानक आयी विपत्ति और दुख का परिणाम माना। उन्हें समझाया बुझाया, मासूम बच्चों के मुँह की तरफ देखने को कहा। जैसे तैसे उन्हें शान्त कराया गया।

लेकिन इसके दो दिन बाद ही वे बच्चों को सोता छोड़ अचानक गायब हो गये। घर में कोहराम मच गया। पिता से छोटे दो भाई थे, दोनों शहर में ही थे। खबर मिली तो दोनों दौड़े आये। बच्चों को समझाया बुझाया। बड़े चाचा चारों बच्चों को अपने घर ले गये। उनके अपने तीन बच्चे थे— दो बेटे और एक बेटी। अब कुल मिलाकर सात हो गये। बड़े चाचा की जनरल गुड्स की दुकान थी। ठीक-ठाक चलती थी।

पिता गायब हुए हुए तो चार साल तक  गुम ही रहे। बड़े चाचा ने उनके मकान को किराये पर चढ़ा दिया और अपनी बाँहें कुछ और लंबी करके बच्चों को उनमें समेट लिया। गायत्री उनकी सबसे बड़ी बेटी हो गयी। महत्वपूर्ण कामों में उसकी सलाह ली जाने लगी। उनके लिए वे चारों सन्तानें उनके अपने बेटी बेटे थे, भतीजियाँ या  भतीजा नहीं। बड़े चाचा खुद जो भी परेशानी महसूस करते हों, उन्होंने घर में बच्चों को कभी उसकी भनक नहीं लगने दी। कैसी भी चिन्ता हो, वह बच्चों के सामने निश्चिंत और प्रसन्न बने रहते। सब बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाया और हैसियत के मुताबिक सब की शादी की। समाज को उनके परिवार में घटी घटना का पता था, इसलिए समाज के लोगों ने उनके साथ काफी उदारता बरती।

चार साल बाद गायत्री के पिता अचानक साधुवेश में प्रकट हुए। आये तो ऐसे जैसे कुछ हुआ ही नहीं। बच्चों के लिए अब वह एक अजूबा थे। बुलाने पर ही वे पास आते थे। उन्होंने ‘सब ठीक है?’ के छोटे से प्रश्न में सब को समेट कर अपना फर्ज़ पूरा कर लिया। ज़्यादा कुछ पूछना नहीं। पहले जैसे ही बेफिक्र। भाइयों ने उनका हालचाल पूछा तो जवाब मिला, ‘आनन्द ही आनन्द है। सही मार्ग मिल गया। जन्म सुधर गया।’ दो दिन रहकर वे फिर अंतर्ध्यान हो गये। फिर ऐसे ही उनका आना-जाना होने लगा। सब धीरे-धीरे उनके आने जाने के प्रति तटस्थ हो गये।

बेटियों की शादी के बाद वे वहाँ भी गाहे-बगाहे पहुँचने लगे। बस, एकाएक पहुँच जाते  और फिर एक-दो दिन रुक कर अचानक ही पोटली उठाकर चल देते। शुरू में दामादों को उन्हें समझने और उनके साथ ‘एडजस्ट’ करने में दिक्कत हुई, फिर वे भी आदी हो गये।

इस बार गायत्री के घर आने से पहले उन्होंने दोनों भाइयों को खबर दे दी थी कि वहाँ आकर मिलें। सन्तों के प्रवचन सुनने का लाभ भी मिल जाएगा। गायत्री को वे बता चुके थे कि अपने अखाड़े में अब उनकी पोज़ीशन बहुत ऊपर है, बस बड़े महन्त जी के बाद उन्हीं को समझो।

कॉलोनी के लोग उन्हें जानने लगे थे। उनका साधुवेश वैसे भी लोगों को आकर्षित करता था। लोग जान गये थे कि वे मिस्टर त्रिवेदी के ससुर हैं। अब उनके आने पर दो-चार लोग श्रद्धा भाव से उनके पास आ बैठते थे।

दोनों चाचा बड़े भैया के निर्देश पर पहुँच गये। बड़ी चाची भी पहुँचीं। सोचा इसी बहाने गायत्री से भेंट हो जाएगी। जेठ जी के जाने के बाद से वे ही गायत्री और उसके भाई-बहनों की माँ रहीं और उन्होंने अपने ऊपर आयी ज़िम्मेदारी को खूब निभाया भी। कभी भी जेठ जी के बच्चों को अन्तर महसूस नहीं होने दिया। जीवन की कठिन परीक्षा पति-पत्नी दोनों ने खूब अच्छे अंको से पास की। इसीलिए गायत्री पिता के आने से ज़्यादा खुश बड़े चाचा और चाची के आने से हुई।

शाम को सभी लोग प्रवचन सुनने गये। मंच पर प्रवचनकर्ताओं के साथ गायन-मंडली भी विराजमान थी। प्रवचन के बीच में प्रवचनकर्ता गायन शुरू कर देते और संगीत-मंडली वाद्ययंत्रों के साथ उन्हें सहयोग देने में लग जाती। गायत्री, दोनों चाचा और चाची देर तक प्रवचन सुनते रहे। पिता पहले ही वहाँ पहुँच गये थे, लेकिन वे कहीं अन्यत्र व्यस्त थे।

प्रवचन-स्थल के बाहर अनेक दूकानें सजी थीं जिनमें मालाएँ, शंख, पूजा-पात्र, हवन- सामग्री, धार्मिक पुस्तकें, देवियों-देवताओं के चित्र उपलब्ध थे।

रात को पिता आ गये। दोनों भाइयों से बात करते रहे, किन्तु उनकी रूचि पारिवारिक और सामाजिक मसलों में नहीं थी। मित्रों, रिश्तेदारों की सामान्य जानकारी लेकर वे अपने अनुभव सुनाने में लग गये। कहाँ रहे, कहाँ कहांँ घूमे, किन किन सन्तों की संगत की, यह सब बताते रहे। पारिवारिक और सामाजिक प्रसंग उठते ही उनका ध्यान भटकने लगता। उस दुनिया में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।

दूसरे दिन सबेरे स्नान-पूजा से निवृत्त होकर वे जल्दी तैयार हो गये। बोले, ‘आज से यज्ञ शुरू होगा। पति-पत्नी जोड़े से यज्ञ के लिए बैठेंगे। मुझे वहाँ प्रबंध देखना होगा। अब दिन भर वहीं रहना पड़ेगा। आगे का जैसा कार्यक्रम होगा, बताऊँगा।’

वे निस्पृह भाव से चले गये। बेटी या भाइयों को छोड़ने का कोई दुख उनके चेहरे पर दिखायी नहीं पड़ा। घर छोड़कर जाने के बाद वे जितनी बार भी गायत्री के पास लौटे, उन्होंने कभी अपने कदम पर पश्चात्ताप ज़ाहिर नहीं किया, न ही कभी उस प्रसंग को उठाया। जैसे जो उन्होंने किया, सब सामान्य और उचित था।

उनके जाने के बाद बड़े चाचा भावुक हो गये। हाथ जोड़कर बोले, ‘बड़े भाग्यशाली हैं। सही रास्ता मिल गया। लोक-परलोक सुधर गया। एक हम जैसे लोग हैं जो जिन्दगी भर मिट्टी गोड़ते रह गये। खाली हाथ आये, खाली हाथ चले जाएँगे।’

गायत्री पिता द्वारा खाली किये गये कमरे में सामान जमाने में व्यस्त थी। बड़े चाचा की बात सुनकर रुक कर बोली, ‘चाचा जी, अफसोस मत करिए। आपके मिट्टी गोड़ने से हम चार प्राणियों की जिन्दगी मिट्टी होने से बच गयी, वर्ना हमारे तो दोनों लोक बिगड़ने वाले थे। भरोसा रखिए, जिस दिन आपके कर्मों का हिसाब होगा, आप नुकसान में नहीं रहेंगे।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 248 – क्षणभंगुरता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 248 क्षणभंगुरता ?

इन दिनों घर पर अकेला हूँ। वॉशिंग मशीन के बजाय हाथ से कपड़े धोने को सदा प्राथमिकता देता रहा हूँ। कपड़े भी दो-चार ही हैं, सो आज भी यही सुविधाजनक लगा।

कपड़ों पर साबुन लगाया। नल हल्का-सा चलाकर कपड़े उसके नीचे डाले। देखता हूँ कि साबुन के झाग से कुछ बुलबुले उठते हैं, कुछ देर पानी पर सवारी करते हैं। कोई जल्दी तो कोई देर से पर फूटता हरेक है।

विशेष बात यह कि इस पूरे दृश्य का चित्र सामने की दीवार पर बन रहा है। इसका कारण यह है कि बाथरूम के दरवाज़े के सामने वॉश बेसिन है। बेसिन पर एक बल्ब लगा है, जिसके कारण बुलबुलों के जन्म  और आगे की यात्रा का छायाचित्र दीवार पर बहुत बड़ा होकर दिख रहा है। इस दृश्य के साथ मानस में चिंतन भी विस्तार पा रहा है।

चिंतन बताता है कि  विसर्जन है, तभी सृजन है। पुरानी इमारतें कभी टूटती ही नहीं तो अधुनातन सुविधाओं वाली गगनचुंबी अट्टालिकाएँ कैसे बनतीं?  जो राजा मानव प्रजाति के आरंभ में होता, सदा वही राजा बना रहता। महान डॉन ब्रैडमैन आज भी क्रिकेट खेल रहे होते। जन्म हरेक पाता पर मृत्यु किसी की नहीं होती। इसके चलते धरती पर संसाधन कम पड़ने लगते। लोग एक दूसरे के प्राणों के ही शत्रु हो जाते।

सार यह कि यह मर्त्यलोक है। इसमें विनाश है तभी जीवन की आस है।  अनेक  ज्ञानी-ध्यानी कहते हैं कि जीवन क्षणभंगुर है। मैं विनम्रता से कहता हूँ, सिक्का पलट दो …, तुम पाओगे कि क्षणभंगुरता में ही जीवन है।

वस्तुत: क्षणभंगुरता वरदान है जीवन के लिए। हर क्षण को जीने का दर्शन है क्षणभंगुरता। समय की सत्ता है क्षणभंगुरता।

वन विभाग के एक अधिकारी मित्र ने एक बार निजी बातचीत में एक सत्य घटना सुनाई थी। मुख्यालय से उनके उच्चाधिकारी आए हुए थे।  उच्चाधिकारी अपने इस अधीनस्थ के साथ वनक्षेत्र के निरीक्षण के लिए निकले। रास्ते में  विशाल बरगद के नीचे एक औघड़ बैठे थे। पास के गाँव के कुछ ग्रामीण अपना भविष्य जानने की आस में उन्हें घेरे हुए थे। उच्चाधिकारी को जाने क्या सूझा!  कुछ व्यंग्य से आदेशात्मक स्वर में औघड़ से बोले, “इन गाँववालों को क्या भविष्य बताता है। बता सकता है तो मेरा भविष्य बता।” औघड़ गंभीरता से बोला, “तेरा क्या भविष्य बताना। तेरे पास अब तीन दिन ही बचे हैं।” उच्चाधिकारी आग-बबूला हो गए। औघड़ को अपशब्द कहे और आगे निकल गए।

संयोग कहें या विधि का लेखा, औघड़वाणी सत्य सिद्ध हुई और उच्चाधिकारी तीन दिन बाद सचमुच चल बसे।

मेरे मित्र ने यह घटना अपनी पत्नी को बताई। उसकी पत्नी ने तुरंत औघड़ बाबा से मिलने की इच्छा व्यक्त की ताकि पूरे परिवार का भविष्य पूछा जा सके। मित्र ने इंकार करते हुए कि जीवन में जो घटना होगा, अपने समय पर घटेगा। उसे पहले से जान लिया तो जीवन जीना ही असंभव हो जाएगा। बाद में औघड़बाबा से मिलने से बचने के लिए उन्होंने अन्य क्षेत्र में स्थानांतरण ले लिया।

कबीर ने लिखा है,

‘पाणी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।

एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।।

आयु का बुलबुला कब फूट जाए, कोई नहीं जानता। अत: हर क्षण जिएँ,  क्षणभंगुरता का आनंद उठाएँ। स्मरण रहे, क्षण-क्षण जीवन है, हर क्षण में एक जीवन है।…इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 195 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 195 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 195) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 195 ?

☆☆☆☆☆

कभी बेपनाह बरस पड़ी…

तो कभी गुम सी है…

यह बारिश भी

कुछ-कुछ तुम सी है…

☆☆

Sometimes it pours heavily…

and sometimes it seems silent…

this rain is also a bit like you…

☆☆☆☆☆

तुझे याद ना करें तो

बेचैन से हो जाते हैं,

पता नहीं जिन्दगी सासों से

चलती है या तेरी यादों से…

☆☆

If I don’t remember you,

I become restless. 

Knoweth not, whether life

is run by breaths or by your memories…

☆☆☆☆☆

आये  हो  जो  आँखों  में

तो  कुछ  देर  ठहर जाओ,

एक  उम्र  गुजर  जाती है

यूँही एक ख्वाब सजाने में…

☆☆

Now that you’ve come in eyes

then, stay there for a while,

An  epoch  passes  by  in

Realising  such  a   dream…!

☆☆☆☆☆

मेंरे जुनूँ का नतीजा

ज़रूर निकलेगा

इसी सियाह समुंदर से

नूर निकलेगा…

☆☆

Result of my passion

Will definitely come out

From the same dark sea only

The effulgence shall emerge…

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 195 ☆ सॉनेट – सीता ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है सॉनेट – सीता…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 195 ☆

☆ सॉनेट – सीता ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

वसुधातनया जनकदुलारी।

रामप्रिया लंकेशबंदिनी।

अवधमहिष वनवासिन न्यारी।।

आश्रमवासी लव-कुश जननी।।

क्षमामूर्ति शुभ-मंगलकारी।

जनगण पूजे करे आरती।

संतानों की विपदाहारी।।

कीर्ति कथा भव सिंधु तारती।।

योद्धा राम न साथ तुम्हारे।

रण जीते, सत्ता अपनाई।

तुम्हें गँवा, खुद से खुद हारे।।

सरयू में शरणागति पाई।।

सियाराम हैं लोक-हृदय में।

सिर्फ राम सत्ता-अविनय में।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२-४-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares