हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 58 – बंधन से आजाद… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बंधन से आजाद ।)

☆ लघुकथा # 58 – बंधन से आजाद  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

 

क्या बात है दादाजी मम्मी पापा घूमने जाते हैं और हमें छोड़ जाते हैं? हम सब साथ जाते तो कितना मजा आता।

कोई बात नहीं बेटा रिंकू हम दोनों घर में खूब मजे करेंगे और कल मैं तुम्हें सुबह पार्क भी ले जाऊंगा। चलो तुम्हें क्या खाना है मैं वही बनाता हूं। वह लोग तो बाहर खाने में पता नहीं क्या कचरा सड़ा गला कितने दिनों का बासी खाएँगे। मैं तुम्हें ताजा फ्रेश  खिलाता हूं। आलू और मटर की सब्जी बढ़िया रोटी में तुमको रोल करके देता हूं। तुम्हारी दादी बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती थी। मैं उन्हें देखते-देखते ही सीख गया। आज काम आ रहा है।

दादाजी, मैं भी जब बड़ा हो जाऊंगा तो उन्हें लेकर कहीं नहीं जाऊंगा हम और आप चलेंगे?

ठीक है  अच्छे से पढ़ाई कर लो रिंकू।

तभी अचानक बहू बेटे आ जाते हैं और बहू रिंकू की बात सुन लेती है। बाबूजी आप छोटे से बच्चे के कान में हमारे खिलाफ क्या-क्या भरते रहते हैं? कल हम इसे हॉस्टल भेज देंगे आपकी संगत में यह बिगड़ जाएगा।

हां बात तो सही है तुम्हारी। रेनू जब मैं छोटा था तो बाबूजी मुझे यही बात कहते रहते थे। हां किशोर मैं तुम्हें यही बात तो कहता रहता था लेकिन तुमने मेरी बात सुनी कहा विदेश पढ़ने के लिए भेजा था अपने लिए कुछ ना रखते हुए तुम्हें पढ़ाया लिखाया। और मुझे क्या पता था कि तुम मेरा ही जीवन नर्क बनाओगे। नहीं तो तुम कभी रेनू से शादी करते?

मैं इतना ख्याल रखती हूं बाबूजी आपका। तब भी आप मेरे लिए ऐसे ही सोचते हैं अब तो लग रहा है कि आपको वृद्ध आश्रम के रास्ते दिखाने पड़ेंगे।

मैं जानता था कि एक दिन ऐसा आएगा। पंडित जी के आश्रम में अभी जा रहा हूं। यह तो मैं पोते के मोह में यहां पर था। रिंकू में जा रहा हूं पास में आश्रम और मंदिर है तुम बेटा आते रहना। मुझे तुम पर गर्व है तुम मेरी तरह बनना। अपने माता-पिता की तरह नहीं। आज तुम्हारा धन्यवाद अदा करता हूं कि तुम लोगों ने मुझे इस बंधन से आजाद कर दिया। मैं थोड़ा लोभी हो गया था।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 259 ☆ कृष्णार्पण… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 259 ?

☆ कृष्णार्पण… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

गॅसवरचं दूध ऊतू जाणं

तसं नित्याचंच

आणि बोलणं खाणं अटळ!

कानकोंडं होणं, अपराधी वाटणं,

चुटपूट लागणं, हे ही वर्षानुवर्षे!

दूध ऊतू गेलं की वाईट वाटतं ते

साय वाया गेल्याचं,

अंशानं लोणीतुपाचंही नुकसान!

अनेकदा ठरवूनही,

नाही थांबवता आलं ऊतू जाणं!

फायद्याची गणितंही

 नाहीच साधता आली!

आजी म्हणाली होती एकदा,

“आवडत नसलं तरी ,

 कपभर दूध घेत जा रोज, कॅल्शियम असतं त्यात!”

अंगी लागण्यापेक्षा ऊतूजाणंच

अंगवळणी पडत गेलं!

नवरा म्हणतो कुत्सितपणे,

“आमच्या घरी रोजच रथसप्तमी”

स्वतःच्या वेंधळेपणाचं समर्थन न करता ,

मी ही गॅसवर दूध ठेवून,

उचलते फोन, घुटमळते टीव्ही समोर, डोकावते वर्तमानपत्रात…..

गॅसवरच्या दूधासारखंच

मनाचंही ऊतूजाणं !

मनाला शिस्त लावण्याऐवजी,

कृष्णार्पण म्हणून टाकावं,

सा-याच ऊतू जाण्याला!

हेच तेवढं हाती उरलंय ……

ऊतू जाणं अटळ झालंय!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 89 – आज, जीवन मिला दुबारा है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – आज, जीवन मिला दुबारा है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 89 – आज, जीवन मिला दुबारा है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

साथ जबसे मिला तुम्हारा है 

नाम, शोहरत पे अब हमारा है

*

जन्मतिथि याद थी नहीं अपनी 

आज, जीवन मिला दुबारा है

*

नाम, सबकी जुबान पर केवल 

हर तरफ, आपका-हमारा है

*

आज महफिल में मुझको लोगों ने 

आपके नाम से पुकारा है

*

तेरे सजदे में सारा आलम है 

कितना रंगीन ये नजारा है

*

तेरे बिन, किस तरह अकेले में 

वक्त हमने कठिन गुजारा है

*

तेरे बिन, एक पल रहूँ जिन्दा 

ऐसा जीना, नहीं गवारा है

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 331 ☆ कविता – “महानता मां की…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 331 ☆

?  कविता – महानता मां की…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

महिमा मंडन कर खूब

बनाकर महान

मां को

मां से छीन लिया गया है

उसका स्व

मां के त्याग में

महिला का खुद का व्यक्तित्व

कुछ इस तरह खो जाता है

कि खुद उसे

ढूंढे नहीं मिलता

जब बड़े हो जाते हैं बच्चे

मां खो देती हैं

अपनी नृत्य कला

अपना गायन

अपनी चित्रकारी

अपनी मौलिक अभिव्यक्ति,

बच्चे की मुस्कान में

मां को पुकारकर

मां

उसका “मी”

उसका स्वत्त्व

रसोई में

उड़ा दिया जाता है

एक्जास्ट से

गंध और धुंए में ।

 

बड़े होकर बच्चे हो जाते हैं

फुर्र

उनके घोंसलों में

मां के लिए

नहीं होती

इतनी जगह कि

मां उसकी महानता के साथ समा सके ।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 43 – लघुकथा – अनुभवी काल का अंत ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – अनुभवी काल का अंत)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 43 – लघुकथा – अनुभवी काल का अंत ?

घटना तब की है जब पिथौरागढ़ एक छोटी – सी जगह थी। कुमाऊँ- गढ़वाल इलाके का एक साधारण गाँव। यह गाँव पहाड़ों के ऊपरी इलाके में स्थित था। अल्पसंख्यक जनसंख्या थी।

रतनामाई छोटी – सी उम्र में ब्याह कर यहीं आई थी। फिर यही गाँव और अपना छोटा – सा घर उसकी दुनिया बन गई थी। वह निरक्षर थी पर अपने सिद्धांतों की बहुत पक्की थी। आत्मनिर्भरता का गुण उसमें कूट-कूटकर भरा था।

प्रातः उठना घर की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाना और फिर पास के मैदानों से लकड़ियाँ तोड़कर लाना, उन्हें घर के पास पत्थरों से बने एक कमरे में जमा करना उसकी आदत थी। बूढ़ी हो गई थी पर यह आदत न छुटी।

पति के गुज़रने के बाद उसने अपने घर के बाहरी आँगन में पत्थरों को मिट्टी से लीपकर टेबल जैसा बना लिया था और छोटी – सी आँगड़ी पर चाय बनाकर बेचा करती थी। घर की छोटी-मोटी ज़रूरतें उससे पूरी हो जाती थीं। दोनों बेटिओं ने भी अपनी माँ का साथ दिया तो कभी पकोड़े तो कभी मैगी भी अब दुकान में बिकने लगीं थीं।

अब तो माई की उम्र सत्तर के करीब थी। दोनों बेटियाँ ब्याही गई थीं, दो बेटे जवान हो चुके थे, बहुएँ और पोते – पोतियाँ थीं पर अभी भी प्रातः उठकर चूल्हा जलाना, गरम पानी रखना, चाय बनाना, आटा गूँदना और फिर थोड़ी धूप निकलते ही लकड़ियाँ चुनने खुले मैदान की ओर निकल जाना उनकी दिनचर्या में शामिल था।

बेटों ने कई बार अपनी माँ से कहा कि अब तो सरकार ने गैस सिलिंडर भी दे रखे हैं क्या ज़रूरत है लकड़ियाँ एकत्रित करने की भला ? उत्तर में रतनामाई कहतीं -कल किसने देखा बेटा, क्या पता कब ये लकड़ियाँ काम आ जाएँ!

उसकी बात सच निकली। मानो उसे दूरदृष्टि थी। एक साल इतनी अधिक बर्फ पड़ी कि पंद्रह दिनों के लिए रास्ते बंद पड़ गए और गैस सिलिंडर दूर -दराज़ गाँवों तक समय पर न पहुँचाए गए। ऐसे समय माई की जमा की गई लकड़ियाँ ही ईंधन के काम आईं, बल्कि पड़ोसियों को भी माई की इस मेहनत का प्रसाद मिला।

अनुभवी और दूरदृष्टि रखनेवाली माँ से अब उनके बेटे विवाद न करते। समय बीतता रहा।

कुछ समय पहले इतनी भारी बर्फ पड़ी कि सारी भूमि श्वेतिमा से भर उठी। दूर – दूर तक बर्फ़ ही बर्फ़ दिखाई देती। जनवरी का महीना था अभी ही तो सबने नए साल का जश्न मनाया था पर उस दिन सुबह रतनामाई नींद से न जागी। रात के किसी समय नींद में ही वह परलोक सिधर गई।

बाहर बर्फ की मोटी परतें चढ़ी थीं, सूर्यदेव भी छुट्टी पर थे। मोहल्लेवालों ने आपस में तय किया कि इतनी भारी बर्फ में माई को श्मशान तक ले जाना कठिन होगा। इसलिए पास के खुले मैदान पर जहाँ बर्फ तो थी पर घर के पास की ही समतल भूमि पर चिता सजाई गई। माई के अंतिम संस्कार में माई द्वारा संचित लकड़ियाँ उस दिन काम आईं।

चिता जल उठी, माई का स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता और दूरदृष्टि धू- धूकर जलती हुई लपटों में लिपट कर आकाश की ओर मानो प्रभु से मिलने को निकल पड़ी। एक अनुभवी काल का अंत हुआ।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 161 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 161 – मनोज के दोहे ☆

मौसम कहता है सदा, चलो हमारे साथ।

कष्ट कभी आते नहीं, खूब करो परमार्थ।।

 *

जीवन में बदलाव के, मिलते अवसर नेक।

अकर्मण्य मानव सदा, अवसर देता फेक।।

 *

कुनकुन पानी हो तभी, तब होंगे इसनान।

कृष्ण कन्हैया कह रहे, न कर, माँ परेशान।।

 *

सूरज कहता चाँद से, मैं करता विश्राम।

मानव को लोरी सुना, कर तू अब यह काम।।

कर्मठ मानव ही सदा, पथ पर चला अनूप।

थका नहीं वह मार्ग से, हरा सकी कब धूप ।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 117 – देश-परदेश – करे कोई भरे कोई ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 117 ☆ देश-परदेश – करे कोई भरे कोई ☆ श्री राकेश कुमार ☆

जुड़वां भाइयों में जब शक्ल मिलती है, तो ये अक्सर सुनने में आता है, कि शैतानी एक भाई करता है, और दंड दूसरे भाई को मिलता है। हमारी फिल्मों में भी ऐसा ही कुछ दिखाया जाता है, लड़की प्रेम एक भाई से करती है, और घूमने दूसरे भाई के साथ निकल जाती है। सीता और गीता नाम से भी एक ऐसी ही फिल्म आई थी। कुंभ में जुड़वा भाई गुम जाते है, एक ईमानदार तो दूसरा बेईमान बन जाता है। ये सब हमारे बॉलीवुड में ही होता है।

अब जब बात फिल्मों की हो रही है, तो मुम्बई का जिक्र ना हो, ये कैसे हो सकता हैं। मुम्बई और फिल्म जगत एक दूसरे के पूरक हैं। कुछ दिन पूर्व ही नवाब ऑफ पटौदी पर  हुए हमले के सिलसिले में छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर में एक संदिग्ध व्यक्ति को पकड़ा गया, क्योंकि उसकी शक्ल सी सी टीवी कैमरे की तस्वीर से जो मिलती थी।

कुछ समय बाद उस संदिग्ध व्यक्ति को छोड़ दिया गया था। मीडिया ने उसको सभी चैनल पर दिखवाकर उसका खूब प्रचार प्रसार कर डाला था। मीडिया ट्रायल में उसको दोषी भी मान लिया था।

जब पुलिस ने उसको बरी किया तब तक उस व्यक्ति की मुम्बई की नौकरी चली गई है। नियोक्ता ने ये विचार किया होगा, पुलिस उससे आगे भी जिरह कर सकती है, इत्यादि। इन सबसे अच्छा है, उसको नौकरी से ही निकाल दो।

मामला इतना सीधा नहीं है, उस व्यक्ति का विवाह भी तय हो चुका था। अब उसकी सगाई भी टूट गई है। जीवन भर का दाग लग गया है। आने वाले समय में उसकी पहचान के साथ “सैफ का नकली कातिल” जैसे जुमले जुड़ जाएंगे।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 215 – हर पल हो आराधना ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित अप्रतिम गीत हर पल हो आराधना”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 215 ☆

🌻 गीत 🌻 🌧️ हर पल हो आराधना 🌧️

हर पल हो आराधना, इस जीवन का सार।

सच्चाई की राह में, प्रभु संभाले भार।।

 *

कुछ करनी कुछ करम गति, कुछ पूर्वज के भाग।

रहिमन धागा प्रेम का, मन में श्रद्धा जाग।।

गागर में सागर भरे, पनघट बैठी नार।

हरपल हो आराधना, इस जीवन का सार।।

 *

बूँद – बूँद से भरे घड़ा, बोले मीठे बोल।

मोती की माला बने, काँच बिका बिन मोल।।

सत्य सनातन धर्म का, राम नाम शुभ द्वार।

हर पर हो आराधना, इस जीवन का सार।।

 *

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।

परहित सेवा धर्म का, सदा लगाना टेर।।

अंधे का बन आसरा, करना तुम उपकार।

हर पल हो आराधना, इस जीवन का सार।।

 *

चार दिनों की चाँदनी, माटी का तन ठाट।

काँधे लेकर चल दिये, लकड़ी का है खाट।।

घड़ी बसेरा साधु का, थोथा सब संसार।

हरपल हो आराधना, इस जीवन का सार।।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #270 ☆ शोकांतिका (धृतराष्ट्र उवाच)… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 270 ?

शोकांतिका (धृतराष्ट्र उवाच) ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

संजया, तू जरी कौरवांच्या बाजूने

उभा असलास तरी

तुझ्या बोलण्यातून

मला पांडवांच्या विजयाची गाथा

ऐकू येते आहे.

मी आंधळा असलो तरी

उघड्या कानांनी

आपल्या अपयशाची लक्तरे

वेशीवर टांगलेली पहातो आहे

तुझ्या या रोजच्या संभाषणातून

कौरवांच्या कुठल्याही यशाचा मार्ग

मला समोर दिसत नाही

एकेक करून, आपले सैनिक

रोज आपल्याला सोडून जात आहेत

परतीचा कुठलाच मार्ग

आपल्यासमोर राहिलेला दिसत नाही

अपयशाच्या शेवटपर्यंत

तू असाच बोलत राहणार आहेस का?

तुझ्या या दिव्यदृष्टीपुढे

माझे काहीच चालत नाही

मी तुला आणि मलाही

थांबवू शकत नाही

हीच आजची शोकांतिका आहे…!

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी जडणघडण… भाग – २७ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ माझी जडणघडण… भाग – २७ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टुडे, संपर्क : ९८६९४८४८००)

अण्णा

कितीतरी वर्षं “आण्णा गद्रे” आमचे भाडेकरू होते. गल्लीतले सगळेजण त्यांना अण्णाच म्हणायचे. त्यांचे प्रथम नाव काय होतं कोण जाणे! त्यांची मुलंही त्यांना आण्णा म्हणायचे म्हणून सगळ्यांचेच ते आण्णा होते. त्यांचा संसार याच घरात फुलला असे म्हणायला काही हरकत नाही. तीन मुली आणि एक मुलगा. एका पाठोपाठ एक मुलीच झाल्या म्हणून आण्णा आणि वहिनी फारच निराश असत. पण तीन मुलींवर नवस सायास करून त्यांंना एक मुलगा झाला आणि आण्णांचा वंश तरला. वहिनी म्हणजे अण्णांची पत्नी. अण्णांचे एक भाऊ आमच्याच गल्लीत राहायचे. ते “वहिनी” म्हणून हाक मारायचे म्हणून त्याही समस्त गल्लीच्या वहिनीच.

कोकणातून आलेलं हे दाम्पत्य. ब्राह्मण वर्णीय. जातीय श्रेष्ठत्वाची भावना पक्की मुरलेली. दोघांच्याही स्वभावात चढ-उतार होते. चांगलेही वाईटही पण धोबी गल्लीवासीयांनी सगळ्यांना सामावून घेतलेलं. नाती बनायची नाती बिघडायची पण नाती कधी तुटली नाहीत. आमच्या कुटुंबाचा आण्णा- वहिनींशी सलोखा नसला तरी वैर नक्कीच नव्हतं. म्हणजे मालक भाडेकरू मधल्या सर्वसाधारण कुरबुरी चालायच्याच पण प्रश्न आपापसात सामंजस्याने सोडवले ही जायचे. शिवाय त्यांच्या विजू, लता, रेखा या मुली तर आमच्या सवंगडी समूहात होत्याच.

अण्णा शिस्तप्रिय होते म्हणण्यापेक्षा तापट आणि हेकेखोर होते. कुटुंब प्रमुखाचा वर्चस्वपणा त्यांच्या अंगा अंगात भिनलेला होता त्यामुळे विजू लता रेखा या सदैव धाकात असत.

अगदी उनाड नव्हतो आम्ही… पण मनात येईल तेव्हा, केव्हाही, कुठल्याही खेळासाठी आम्ही एकत्र जमायचो. खेळणं भारी प्रिय. खेळतानाचा आरडाओरडा, गोंधळ, हल्लाबोल मुक्तपणे चालायचा, गल्लीत घुमायचा. अण्णा घरात आहेत म्हणून विजू लता रेखा उंबरठ्यातूनच आमची खेळ मस्ती बघायच्या. त्यांचे खट्टू झालेले चेहरे मला आजही आठवतात. बाहेर आमचा खेळ चालायचा आणि या उंबरठ्यावर बसून गृहपाठ पूर्ण करायच्या नव्हे गृहपाठ पूर्ण करण्याचा प्रयत्न करायच्या. का तर? अण्णा ओरडतील म्हणून. त्यांच्या घरात मुलांना सरळ करण्यासाठी वेताची छडी होती म्हणे! 

एक दिवस आण्णा आमच्या पप्पांना म्हणाले होते, ” का हो ढगेसाहेब? मी ब्राह्मण ना मग ही सरस्वती तुम्हाला का म्हणून प्रसन्न?”

तेव्हा पप्पा उत्तरले होते, ” अण्णा ती वेताची छडी बंबात टाका मग बघा काय फरक पडतो ते. ”

अण्णांचं कुटुंब विस्तारलं. मुलं मोठी झाली आता त्यांना हे भाड्याचं घर पुरेनासं झालं. आण्णांचे जोडधंदे ही चांगले तेजीत होते. त्यांची वखार होती. आणि त्या माध्यमातून त्यांनी भरपूर पैसा जोडला होता. वृत्ती कंजूष आणि संग्रही त्यामुळे गंगाजळी भरपूर. आण्णांनी धोबी गल्ली पासून काही अंतरावर असलेल्या चरई या भागात प्लॉट घेऊन चांगलं दुमजली घर बांधलं. घराची वास्तुशांती केली आणि एक दिवस गद्रे कुटुंबाने धोबी गल्लीचा निरोप घेतला. मात्र त्यांनी आमच्या घराचा ताबा मात्र सोडला नाही.

काही दिवस जाऊ दिले. त्या दरम्यान आण्णा रोज त्यांच्या या जुन्या घरी येत. झाडलोट करत, पाणी भरून ठेवत. बऱ्याच वेळा दुपारच्या वामकुक्षीच्या निमित्ताने ते येतही असत. वखारीच्या हिशोबाच्या वह्या वगैरे तपासत बसत आणि फारसं कुणाशी न बोलता गुपचूपच पुन्हा कडी कुलूप लावून निघून जात. भाडं मात्र नियमित देत.

जीजी (माझी आजी) मात्र फार हैराण झाली होती. ती बऱ्याच वेळा आण्णांना गाठून शक्य तितक्या उंच आवाजात सांगायची, ” आमच्या घराचा ताबा सोडा. आणि व्यवहार मिटवून टाका. बांधलंत ना आता मोठं घर? जरूर काय तुम्हाला हे घर ताब्यात ठेवायचे आणि माझ्या जनाच्याही मुली आता मोठ्या झाल्यात. आम्हालाही आता घर पुरत नाही. अण्णा नुसतंच हसायचे. निर्णयाचं काहीच बोलायचं नाही.

“सोडतो ना आजी. एवढी काय घाई आहे तुम्हाला ?”

त्यावेळी भाडेकरूंचे कायदे अजबच होते. आपलं स्वतःचं घर असूनही भाडेकरूनकडून ते रिकामं करून घेणे हे अत्यंत तापदायक काम होतं. कायदा हा भाडेकरूधार्जिणा होता. असे म्हणायला हरकत नाही. आतासारखे मालक आणि टेनंट मध्ये ११ महिन्याचा करार, कायदेशीर रजिस्ट्रेशन, इच्छा असेल तर कराराचे नूतनीकरण वगैरे मालकांसाठी असलेले संरक्षक कायदे तेव्हा नव्हते. शिवाय भाडोत्री जर अनेक वर्षं तिथे राहत असेल तर ती जागा त्याच्या मालकीची होऊ शकते अशी एक भीती कायद्याअंतर्गत होती पण पप्पांच्या वकील मित्रांनी त्यांना चांगला सल्ला दिला होता.

“हे बघ! त्या गद्र्यांनी घर बांधले आहे. आता त्यांच्या मालकीची स्वतःची जागा आहे. शिवाय तुझी गरज आणि तुझे घर ही दोन कारणे तुला न्याय मिळवून देण्यासाठी पुरेशी आहेत. तुझी बाजू सत्याची आहे. आपण गद्रेंवर केस करूया, तशी नोटीस त्याला पाठवूया”

“शहाण्याने कोर्टाची पायरी चढू नये. ” असा काळ होता तो! पण आमच्या कुटुंबाचा नाईलाज होता.

तर ही कायद्याची लढाई लढायला हवी. साम दाम दंड भेद या तत्त्वातील ही शेवटची पायरी होती. भेद.

घर रिकामं करायची नोटीस आण्णांना गेली. गरम कढईत उडणाऱ्या चण्यासारखे अण्णा टणटण उडले त्यांनी नोटीसीला गरमागरम उत्तर दिले.

“नोटीस देता काय ?एवढ्या वर्षांचे आपले संबंध? थांबाच आता.. बघतोच घर कसे काय खाली करतो ते!” पप्पा कधीच कचखाऊ नव्हते. डगमगणारे तर मुळीच नव्हते.

केस कोर्टात उभी राहिली. आता नातं बदललं. आरोपी आणि फिर्यादीचे नाते निर्माण झाले. आमचं कुटुंब तसं लहानच. माणूसबळ कमी. स्वतःच्या व्यवसायाचा ताप सांभाळून कोर्टाच्या तारखा पाळताना पप्पांची एकट्यांची खूप दमछाक व्हायची.

केस खूप दिवस, खूप महिने चालली. तारखावर तारखा पडायच्या. निकाल लागतच नव्हता. हळूहळू अण्णांना आणि पप्पांनाही कोर्टाच्या वातावरणाची सवय झाली असेल. शिवाय पप्पा म्हणजे माणसं जोडणारे. नावाचा पुकारा होईपर्यंत कोर्टात नियमितपणे येणारी माणसं पप्पांची दोस्त मंडळीत झाली जणू काही. विविध लोकांच्या विविध समस्या पण पप्पा गमती, विनोद सांगायचे. त्यांच्या उपस्थितीत वातावरण हलकं व्हायचं आणि आश्चर्य म्हणजे या समूहात आण्णाही आनंदाने सामील असायचे. न्यायपीठापुढे आरोपी आणि फिर्यादी आणि बाहेर फक्त वक्ता आणि श्रोता. कधीकधी तर कोर्टाच्या बाहेर अण्णा आणि पप्पांच्या गप्पाच चालायच्या. खूप वेळा आण्णा माथ्यावरची शेंडी गुंडाळत, टकलावरून हात फिरवत. डोळ्यात पाणी आणून त्यांच्या कौटुंबिक समस्या सांगत आणि पप्पा त्यांच्या पद्धतीने त्यांचे सांत्वनही करत.

घरी आल्यानंतर आम्ही सारे पप्पांभोवती कडे करायचो. “केस चे काय झाले? निकाल लागला का? कुणाच्या बाजूने लागला ?वगैरे आमचे प्रश्नांवर प्रश्न असायचे आणि पप्पा म्हणायचे, ” हे बघा अण्णांनी डबा भरून खरवस आणला होता. मी खाल्लाय तुम्ही खा. मस्त झालाय खरवस.. ”

याला काय म्हणायचे ?

आज हे लिहिताना माझ्या मनात सहजच आलं. अण्णांनी दिलेला खरवस पप्पांनी कशाला खावा? अण्णांनी त्यांच्यावर विषप्रयोग वगैरे केला असता तर? टीव्हीवरच्या माणूसकी शून्य मालिका बघून झालेली ही मानसिकता असेल पण त्या वेळचा काळ इतका वाईट नक्कीच नव्हता. माणूस काणूस नव्हता झाला.

यथावकाश केसचा निकाल लागला. पपा केस जिंकले, अण्णा हरले. कोर्टाच्या आदेशानुसार अण्णांना तात्काळ घर रिकामे करून द्यावे लागणार होते.

दुसर्‍याच दिवशी आण्णा घराची चावी द्यायला आले. थोडा वेळ आमच्यात बसले. गप्पा -गोष्टी, चहा -पाणी झाले. पपानीही नवे कुलूप आणले होते. दोघेही खाली गेले. आम्ही खिडकीतूनच पाहत होतो. गल्लीतले सर्व आपापल्या गॅलरीतून पाहत होते. बाबा मुल्हेरकर मात्र खाली आले होते. दोघांच्याही सोबत ते उभे होते. आण्णांनी त्यांचे कुलूप काढले आणि पप्पांनी आपले लावले. विषय संपला. कोणीच कोणाचे वैरी नव्हते. “केस” संपली होती. मैत्र उरले होते.

आण्णा दोन पावले चालून गेले आणि माघारी फिरले. आम्हाला वाटले, ” आता काय?”

अण्णांनी घराच्या दोन पायऱ्या चढून दाराला पप्पांनी लावलेले कुलूप ओढून पाहिले. नीट लावले होते आणि त्यांच्या डोळ्यातून पाण्याच्या धारा वाहू लागल्या. त्याच्या खांद्यावर पपांनी हात ठेवला. तेव्हा ते म्हणाले, ” ढगे साहेब! या वास्तूचं खूप देणं लागतो मी. इथेच माझा संसार बहरला. आयुष्य फुललं. तुमच्यासारखी जीवाला जीव देणारी माणसं भेटली. माझा कुलदीपक इथेच जन्मला. या वास्तूचा निरोप घेताना माझं मन खूप जड झाले आहे हो ! पाऊल उचलत नाहीय. ”

हिरव्यागार डोळ्यांचा, डोक्यावर टक्कल असलेला, बोलण्यात अस्सल कोकणी तुसडेपणा असलेल्या या तापट, हेकट माणसाच्या अंतःप्रवाहात हा भावनेचा झरा कुठून उत्पन्न झाला असेल?

“याला उत्तर आहे का?”

“नाही” 

याला फक्त जीवन ऐसे नाव… 

 क्रमशः…

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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