हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 252 – शिवोऽहम्…(3) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 252 शिवोऽहम्…(3) ?

निर्वाण षटकम् का हर शब्द मनुष्य के अस्तित्व पर हुए सारे अनुसंधानों से आगे की यात्रा कराता है। इसका सार मनुष्य को स्थूल और सूक्ष्म की अवधारणा के परे ले जाकर ऐसे स्थान पर खड़ा कर देता है जहाँ ओर से छोर तक केवल शुद्ध चैतन्य है। वस्तुत: लौकिक अनुभूति की सीमाएँ जहाँ समाप्त होती हैं, वहाँ से निर्वाण षटकम् जन्म लेता है।

तृतीय श्लोक के रूप में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य का परिचय और विस्तृत होता है,

न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ

मदो नैव मे नैव मात्सर्यभाव:

न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष:

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।3।।

अर्थात न मुझे द्वेष है, न ही अनुराग। न मुझे लोभ है, न ही मोह। न मुझे अहंकार है, न ही मत्सर या ईर्ष्या की भावना। मैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से परे हूँ। मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ।

राग मनुष्य को बाँधता है जबकि द्वेष दूरियाँ उत्पन्न करता है। राग-द्वेष चुंबक के दो विपरीत ध्रुव हैं। चुंबक का अपना चुंबकीय क्षेत्र है। अनेक लोग, समान और विपरीत ध्रुवों के निकट आने से उपजने वाले क्रमश: विकर्षण और आकर्षण तक ही अपना जीवन सीमित कर लेते हैं। यह मनुष्य की क्षमताओं की शोकांतिका है।

इसी तरह मोह ऐसा खूँटा होता है जिससे मनुष्य पहले स्वयं को बाँधता है और फिर मोह मनुष्य को बाँध लेता है। लोभ मनुष्य को सीढ़ी दर सीढ़ी मनुष्यता से नीचे उतारता जाता है। इनसे मुक्त हो पाना लौकिक से अलौकिक होने, तमो गुण से वाया रजो गुण, वाया सतो गुण, गुणातीत होने की यात्रा है।

एक दृष्टांत स्मरण हो आ रहा है। संन्यासी गुरुजी का एक नया-नया शिष्य बना। गुरुजी दैनिक भ्रमण पर निकलते तो उसे भी साथ रखते। कोई न कोई शिक्षा भी देते। आज भी मार्ग में गुरुजी शिष्य को अपरिग्रह की शिक्षा देते चल रहे थे। संन्यास और संचय का विरोधाभास समझा रहे थे। तभी शिष्य ने देखा कि गुरुजी एक छोटे-से गड्ढे के पास रुक गये, मानो गड्ढे में कुछ देख लिया हो। अब गुरुजी ने हाथ से मिट्टी उठा-उठाकर उस गड्ढे को भरना शुरू कर दिया। शिष्य ने झाँककर देखा तो पाया कि गड्ढे में कुछ स्वर्णमुद्राएँ पड़ी हैं और गुरुजी उन्हें मिट्टी से दबा रहे हैं। शिष्य के मन में विचार उठा कि अपरिग्रह की शिक्षा देनेवाले गुरुजी के मन में स्वर्णमुद्राओं को सुरक्षित रखने का विचार क्यों उठा? शिष्य का प्रश्न गुरुजी पढ़ चुके थे। हँसकर बोले, “पीछे आनेवाले किसी पथिक का मन न डोल जाए, इसलिए मैं मिट्टी पर मिट्टी डाल रहा हूँ।”  

मिट्टी पर मिट्टी डालने की लौकिक गतिविधि में निहितार्थ गुणातीत होने की अलौकिकता है।

गतिविधि के संदर्भ में देखें तो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जीवन के चार पुरुषार्थ हैं। इनमें से हर पुरुषार्थ की विवेचना अनेक खंडों के कम से कम एक ग्रंथ की मांग करती है। यदि इनके प्रचलित सामान्य अर्थ तक ही सीमित रहकर भी विचार करें तो धर्म, अर्थ,  काम या मोक्ष की लालसा न करना याने इन सब से ऊपर उठकर भीतर विशुद्ध भाव जगना। ‘विशुद्ध’, शब्द  लिखना क्षण भर का काम है, विशुद्ध होना जन्म-जन्मांतर की तपस्या का परिणाम है।

परिणाम कहता है कि तुम अनादि हो पर आदि होकर रह जाते हो। तुम अनंत हो पर अपने अंत का साधन स्वयं जुटाते हो। तुम असीम हो पर तन और मन की सीमाओं में बँधे रहना चाहते हो। तुम असंतोष और क्षोभ ओढ़ते हो जबकि तुम परम आनंद हो।

राग, द्वेष, लोभ, मोह, मद, मत्सर, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन सब से हटकर अपने अस्तित्व पर ध्यान केंद्रित करो। तुम अनुभव करोगे अपना अनादि रूप, अनुभूति होगी अंतर्निहित ईश्वरीय अंश की, अपने भीतर के चेतन तत्व की। तब शव होने की आशंका समाप्त होने लगेगी, बचेगी केवल संभावना, जो प्रति पल कहेगी ‘शिवोऽहम्।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 199 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 199 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 199) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 199 ?

☆☆☆☆☆

अधूरी कहानी पर ख़ामोश

लबों का पहरा है

चोट रूह की है इसलिए

दर्द ज़रा गहरा है….

☆☆

Silent lips are the sentinels

Of  the  unfulfilled fairytale…

Wound is of the spirited soul

So the pain is rather intense….

☆☆☆☆☆

हंसते हुए चेहरों को गमों से

आजाद ना समझो साहिब

मुस्कुराहट की पनाहों में भी

हजारों  दर्द  छुपे होते  हैं…

☆☆

O’ Dear, Don’t even consider that

Laughing faces are free of sorrow

Innumerable  pains are  hidden

Even behind the walls of a smile…

☆☆☆☆☆

चुपचाप चल रहे थे

ज़िन्दगी के सफर में

तुम पर नज़र क्या पड़ी

बस  गुमराह  हो  गए…

☆☆

Was walking peacefully

In  the  journey of the life

Just casting a glance on you

Made my journey go astray…

☆☆☆☆☆

ज़रा सी कैद से ही

घुटन होने  लगी…

तुम तो पंछी पालने

के  बड़े  शौक़ीन थे…

☆☆

Just a little bit of confinement

Made you feel so suffocated

But keeping the birds caged

You were so very fond of…!

☆☆☆☆☆ 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 199 ☆ गीत – वाम से इतर… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है गीत – वाम से इतर…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 199 ☆

☆ गीत – वाम से इतर☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

*

आओ! कुछ काम करें

वाम से इतर

*

लोक से जुड़े रहें

न मीत दूर हों

हाजमोला खा न भूख

लिखें सू़र हों

रेहड़ीवाले से करें

मोलभाव औ’

बारबालाओं पे लुटा

रुपै क्रूर क्यों?

मेहनत पैगाम करें

नाम से इतर

सार्थक भू धाम करें

वाम से इतर

*

खेतों में नहीं; जिम में

पसीना बहा रहे

पनहा न पिएँ कोक-

फैंटा; घर में ला रहे

चाट ठेले हँस रहे

रोती है अँगीठी

खेतों को राजमार्ग

निगलते ही जा रहे

जलजीरा पान करें

जाम से इतर

पनघटों का नाम करें

वाम से इतर

*

शहर में न लाज बिके

किसी गाँव की

क्रूज से रोटी न छिने

किसी नाव की

झोपड़ी उजाड़ दे न

सेठ की हवस

हो सके हत्या न नीम

तले छाँव की

सत्य का सम्मान करें

दाम से इतर

छोड़ खास, आम वरें

वाम से इतर

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२-४-२०१७

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #248 – 133 – “हरेक शख़्स को कूच करना है एक दिन…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल हरेक शख़्स को कूच करना है एक दिन,…” ।)

? ग़ज़ल # 133 – “हरेक शख़्स को कूच करना है एक दिन,…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िक्र छेड़ा है तो माहौल बनाए रखिये,

कुछ तो लौ अरमानों की जलाए रखिये।

*

सिर रोज खपायेंगी अजीब दुश्वारियाँ,

ख़्यालों संग ख़्वाबों को सजाए रखिये।

*

हरेक शख़्स को कूच करना है एक दिन,

साथ भरोसेमंद कन्धों का बनाए रखिए।

*

बूढ़ा शेर भी कभी घास खाते नहीं दिखता,

शिकारी अन्दाज़ मैदान में दिखाए रखिए।

*

‘आतिश’ ज़ाया न कोई पल चिंता चिता में,

लम्हा कूच तक क़िस्सा लय बचाए रखिये।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 125 ☆ ग़ज़ल ☆ ।। बहुत ही यह बेमिसाल है जिंदगी।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 125 ☆

ग़ज़ल ☆ ।। बहुत ही यह बेमिसाल है जिंदगी।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[।।काफ़िया।। आल ।। -।।रदीफ़।। है जिंदगी।।]

[1]

खेलो तो  तब  गुलाल  है   जिंदगी।

बहुत ही यह बेमिसाल है   जिंदगी।।

[2]

हार जाये जब मन से कोई आदमी।

तो बस फिर इक़ मलाल है जिंदगी।।

[3]

बस यूँ ही गुजारी तनाव में  गर  तो।

जान लीजिए कि बेहाल है  जिंदगी।।

[4]

गर ढूंढा न जवाब हर बात का  हमने।

तो मानो सवाल ही सवाल है जिंदगी।।

[5]

जियो जिंदगी अंदाज़ नज़र अंदाज़ से।

नहीं तो फिर बस   बवाल है   जिंदगी।।

[6]

गर जी जिंदगी मिलकर   सहयोग  से।

तो जान लो फिर   कमाल है  जिंदगी।।

[7]

बस लगे रहे हमेशा. अपने मतलब में।

तो बन   जाती    बदहाल  है  जिंदगी।।

[8]

गर घिर गए हम नफरत के   जाल में।

तो फिर ये   बिगड़ी चाल.  है जिंदगी।।

[9]

जियो और जीने दो की राह पर चलो।

तो फिर   बनती   जलाल   है जिंदगी।।

[10]

हंस बस हँसकर ही काटो गमों दुःख में।

यकीन मानो रहेगी खुशहाल है जिंदगी।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 189 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत – आओ नेह बढ़ायें… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण गीत  – “आओ नेह बढ़ायें। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 189 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत – आओ नेह बढ़ायें ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

धो के मन का मैल आपसी, हिलमिल के हम गायें, आओ नेह बढ़ायें ।’

*

जहाँ जहाँ भी अंधियारा है, बुझा-बुझा जीवन-तारा है

घर को भूल जहाँ उलझन में भटक रहा मन-बंजारा है

आशा की किरणें बिखराने, आओ दीप जलायें ।। १ ।।

*

जहाँ भी सँकरा गलियारा है, साँस घुटी, जीवन हारा है

बेबस आहे, हूक हृदय में, आंखों में आँसू-धारा है

ढांढस देने उन दुखियों को, आओ गले लगायें ।। २ ।।

*

बिना सहारा भूखा-प्यासा मन फिरता मारा-मारा है

प्रेम नहीं तो जीवन-पथ में अँधियारा ही अँधियारा है

लाने नया सबेरा जग में ममता को अपनायें ।।३।।

*

धोके मन का मैल आपसी हिलमिल के सब गायें, आओ नेह बढ़ायें ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 184 – माझे माहेर माहेर ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

रंजना जी यांचे साहित्य # 184 – माझे माहेर माहेर ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

(अष्टाक्षरी रचना)

माझे  माहेर माहेर।

जणू  सुखाचा सागर।

अशा थकल्या मनाला।

भासे मायेचे आगर॥

*

माय माऊलीचे प्रेम

जसा फणसाचा गर।

तिच्या शिस्तीच्या धारेला

शोभे वात्सल्याची जर॥

*

आंम्हा मुलांचे दैवत

बाबा आदर्शाची खाण ।

लाखो बालकांचा दादा

त्यांना साऱ्यांचीच जाण॥

*

नाही आपपर भाव

संस्कारांनी शिकविले।

हवी मनाची श्रीमंती

अंतरात रुजविले॥

*

प्रिती भावा बहिणीची

बंध रेशीम धाग्यांचा ।

प्रेम द्यावे प्रेम घ्यावे

मंत्र यशस्वी नात्यांचा॥

*

असे माहेर लाखात

जणू बकुळीचे फूल।

 देव दिसे माणसात

देई संकटांना हूल।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #244 ☆ रिश्ते बनाम उसूल… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख रिश्ते बनाम उसूल… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 244 ☆

☆ रिश्ते बनाम उसूल… ☆

बात जब रिश्तों की हो, तो सिर झुका के जीओ और जब बात उसूलों की हो, तो सिर उठा कर जियो, क्योंकि अभिमान की बात फरिश्तों को भी शैतान बना देती है और नम्रता भी कम शक्तिशाली नहीं है; वह साधारण इंसान को फरिश्ता बना देती है। इससे सिद्ध होता है कि अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो मानव हृदय में वैमनस्य व ईर्ष्या-द्वेष के भाव जाग्रत करता है तथा स्व-पर को पोषित करता है। दूसरी ओर वह फ़ासलों को इस क़दर बढ़ा देता है कि उनके पाटने का कोई अवसर शेष नहीं रहता। इसीलिए कहा जाता है कि मतभेद भले ही रखो; मनभेद नहीं, क्योंकि विचारधारा की भिन्नता तो समाप्त हो सकती है, परंतु मन में पनपी वैमनस्य की दीवारें सामीप्य भाव को लील जाती हैं। इसलिए कहा जाता है कि ‘दुश्मनी उतनी करो कि दोस्ती व सामीप्यता की संभावना बनी रहे।

‘रिश्ते कंचन व चंदन की तरह होने चाहिए; चाहे टुकड़े हज़ार हो जाएं; चमक व सुगंध अवश्य बनी रहनी चाहिए।’ परंतु यह उस स्थिति में संभव है, जब मानव अपेक्षा व उपेक्षा के भाव से ऊपर उठ जाता है। उस स्थिति में उसे किसी से अपेक्षा, आशा व उम्मीद की आवश्यकता नहीं रहती। वैसे मानव की इच्छा पूर्ति न होने पर उसे निराशा का सामना करना पड़ता है। इसके विपरीत उपेक्षा करने की स्थिति में मन में क्रोध, शंका व संशय की स्थिति उत्पन्न होना स्वाभाविक है, जो उसे अवसाद के भंवर में पहुंचा सकती हैं। यह दोनों स्थितियाँ मानव के पथ में अवरोध उत्पन्न करती हैं तथा उनके अभाव में सहज जीवन की कल्पना करना बेमानी है।

सो! जहां अपेक्षाएं समाप्त होती हैं, सुक़ून वहीं से प्रारंभ होता है। मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं, ख़ुद से रखनी चाहिए, क्योंकि वह आपको ऊर्जस्वित करती है तथा आप में साहस व धैर्य को पोषित करती है। मानव सफलता प्राप्ति के लिए संघर्ष की राह को अपनाता है, भले ही हर कोशिश में उसे सफलता नहीं मिल पाती। लेकिन हर सफलता का कारण कोशिश ही होती है। ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती’ और ‘करत-करत अभ्यास के,जड़मति होत सुजान’ से भी यह सीख मिलती है कि मानव को सदैव प्रयासरत रहना चाहिए। बीच राह से लौटना श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि उससे पूर्व तो आप मंज़िल पर पहुंच सकते हैं।

आइंस्टीन भी परिश्रम को व्यर्थ नहीं मानते थे बल्कि उसे अनुभव की संज्ञा देते थे। नेपोलियन तो आपदा को अवसर स्वीकारते थे और जिसके जीवन में मुसीबत दस्तक देती थी, उसे दिल से बधाई देते हुए कहते थे कि ‘अब तुम्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर प्राप्त हुआ है।’ इसका प्रत्यक्ष  प्रमाण है आइंस्टीन का बल्ब का आविष्कार करना और नैपोलियन का विश्व विजय का स्वप्न साकार होना और अनेक प्रतिभाओं का जीवन में ‘तुम कर सकते हो’ सिद्धांत को मूलमंत्र स्वीकार कर धारण करना और विश्व में अनेक कीर्तिमान स्थापित करना। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियाँ ‘आपदा को अवसर बना लिया कीजिए/ व्यर्थ ही ना दूसरों से ग़िला किया कीजिए।’ जी हाँ! यही संदेश था नेपोलियन का–जो मनुष्य आपदा को वरदान के रूप में स्वीकारता है, वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ आकाश की बुलंदियों को छू लेता है। उसे जीवन में कभी भी पराजय का मुख नहीं देखना पड़ता। यही उक्ति  चरितार्थ होती है रिश्तों के संबंध में–शायद इसीलिए ही मानव को स्नेह, त्याग व समर्पण का संदेश दिया गया है, क्योंकि इससे हृदय में अहम् का लेशमात्र भी स्थान नहीं रहता, जबकि अहंनिष्ठ मानव जीवन-मूल्यों का तिरस्कार कर ग़लत राहों पर चल पड़ता है, जो विनाश रूपी बंद गलियों में जाकर खुलता है।

सो! रिश्तों को स्थायित्व प्रदान करने के निमित्त मानव के लिए पराजय स्वीकारना बेहतर विकल्प है, क्योंकि रिश्तों में भावनाओं, संवेदनाओं, एहसासों व जज़्बातों की अहमियत होती है। दूसरी और उसूलों को बनाए रखने की प्रथम शर्त है– सिर उठाकर जीना अर्थात् अपनी शर्तों पर जीना; ग़लत बात पर झुकना व समझौता न करना, जो विनम्रता का प्रतीक है। विनम्रता में सभी समस्याओं का समाधान निहित है। यह स्थिति हमें शक्तिशाली व मज़बूत ही नहीं बनाती, फ़रिश्ता बना देती है। सो! रिश्ते व उसूल यदि सम दिशा में अग्रसर होते हैं, तो रिश्तों की महक जहाँ जीवन को सुवासित करती है, वहीं उसूल उसे चरम शिखर तक पहुंचा देते हैं। परंतु मानव को अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करना चाहिए, बल्कि ‘सिर कटा सकते हैं, लेकिन सिर झुका सकते नहीं’ उसके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। मानव को एक सैनिक की भांति अपनी राह पर चलते हुए अडिग व अटल रहना चाहिए और युद्धक्षेत्र से पराजय स्वीकार लौटना नहीं चाहिए। उसे गोली पीठ पर नहीं, सीने पर खानी चाहिए। जो व्यक्ति अपने सिद्धांतों चलता है, सीमाओं का अतिक्रमण व मर्यादा का तिरस्कार नहीं करता–एक अंतराल के पश्चात् अनुकरणीय हो जाता है और सब उसका सम्मान करने लगते हैं। वह जीवन के अर्थ समझने लगता है तथा निष्काम कर्म की राहों पर अग्रसर हो जाता है। वह अपनी राह का निर्माण स्वयं करता है, क्योंकि लीक पर चलना उसे पसंद नहीं होता। निजी स्वार्थ के निमित्त झुकना उसकी फ़ितरत नहीं होती। ‘ऐ मन! तू जी ज़माने के लिए’ अर्थात् अपने लिए जीना उसे प्रयोजनहीन व निष्फल भासता है। वास्तव में सिद्धांतों व उसूलों पर चलना रिश्तों को निभाने की प्रथम शर्त है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – मैं सिमट रही हूँ — कवयित्री – रेखा सिंह ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 8 ?

?मैं सिमट रही हूँ — कवयित्री – रेखा सिंह  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- मैं सिमट रही हूँ

विधा- कविता

कवयित्री – रेखा सिंह

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? फल्गु की तरह अंतर्स्रावी कविताएँ  श्री संजय भारद्वाज ?

भूमिति के सिद्धांतों के अनुसार रेखा अनगिनत बिंदुओं से बनी है। इसमें अंतर्निहित हर बिंदु में एक केंद्र होने की संभावना छिपी होती है। ऐसे अनेक संभावित केंद्रों का समुच्चय हैं कवयित्री रेखा सिंह। परिचयात्मक कविता में वे अपनी क्षमताओं, संभावनाओं और आत्मविश्वास का स्पष्ट उद्घोष भी करती हैं-

मैं तो रेखा हूँ

मुझमें क्या कमी…!

प्रस्तुत कवितासंग्रह में कवयित्री ने अपने समय के अधिकांश विषयों को बारीकी से छूने का प्रयास किया है। नारी विमर्श, परिवार, आक्रोश, विवशता, गर्भ में पलता स्वप्न, लोकतांत्रिक चेतना, प्रकृति, विसंगतियाँ, धार्मिकता, अध्यात्म जैसे अनेक बिंदु इस रेखा में समाहित है। अपने परिप्रेक्ष्य से शिकायत का स्वर गूँजता है-

मैं गाती / यदि गाने का मौका दिया होता

मैं हँसाती / यदि हँसने का मौका दिया होता

ये शिकायत नारी की विशाल दृष्टि और परिवर्तन की अदम्य जिजीविषा में रुपांतरित होती है। कवयित्री इला के अंतराल में समानेवाली सीता नहीं बनना चाहती। दीपिका तो अवश्य जलेगी भले उजाले में ही क्यों न जलानी पड़े। मीमांसा तार्किक है, उद्देश्य स्पष्ट है-

अंधेरे में जलाऊँगी दीपिका,

क्योंकि उजाले में

दीपिका का अस्तित्व

तुम नहीं समझ सके !

अपराजेय नारीत्व चरम पर पहुँचता है, अभिव्यक्त होता है-

ओ सिकंदर,

तुम, विश्वविजेता बन सकते,

मुझे नहीं जीत सकते..!

पर सिकंदर का प्रेम पाते ही सारी कुंठाएँ विसर्जित हो जाती हैं। प्रेम के आगे सारे वाद बौने लगने लगते हैं। कवयित्री का स्त्रीत्व कलकल प्रवाहित होने लगता है-

आज कोई सिकंदर,

मेरे आगे झुका है,

आज फिर किसी नल ने

दमयंती से स्वयंवर रचाया है,

आ, अब लौट चलें अपनी दुनिया में,

बाकी पल गुज़ार लेंगे हँसते-हँसते..!

मानव के भीतर की आशंका से कवयित्री रू-ब-रू होती हैं, प्रश्न करती हैं-

क्या होती हैं विभ्रम की प्रवृत्तियाँ?

रस्सी को सर्प समझने की रीतियाँ?

रेखा सिंह ने समाज को समग्रता से देखने का प्रयास किया है। ‘सास-बहू’ के उलझे समीकरणों के तार सुलझाने की ईमानदार कोशिश है ‘काश’ नामक कविता। ‘धरातल’ राजनीतिक-सामाजिक विषमता के धरातल पर खड़े देश की सांप्रतिक पीड़ा का स्वर बनती है। ‘जोगी’ ‘स्नातक-भिक्षुक’ बनाती हमारी शिक्षानीति पर व्यंग्य करती है तो ‘जंगल की ओर’ सभ्यता की यात्रा की दिशा पर गंभीर प्रश्न खड़े करती है। ‘आखिर क्यों’ और इस भाव की अन्य कविताएँ आतंकवाद की मीमांसा करने का प्रयास करती हैं।

शासनबद्धता का चोला ओढ़कर अन्याय को रोक पाने में असमर्थता व्यक्त करनेवाले भीष्म पितामह को आदर्श मानने से इंकार करना कवयित्री का सत्याग्रह है। ‘गंगापुत्र’ नामक इस कविता में दायित्व से बचने के बहाने तलाशनेवाली मानसिकता पर कठोर प्रहार है। संवेदना से लबरेज़ संग्रह की इन कविताओं में मनुष्य के सूक्ष्म मन को स्पर्श करने का सामर्थ्य है। ‘पुश्तैनी घर’ में ये संवेदना भारतीय प्रतीकों के संकेत से प्रखरता उभरी है। यथा-

तुलसी का चबूतरा

बन गया दीवार बंटवारे की..!

शहर द्वारा अपहृत होते गाँव ‘अनमोल’ कविता में सजीव हो उठते हैं-

सींचता बही जो बोता है,

उसके अंदर एक बच्चा रोता है..

झारखंड की हरित पृष्ठभूमि में रची गई इन कविताओं में प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है। अधिकांश कविताओं में ऋतुओं का वर्णन शृंगार रस में हुआ है। संग्रह में कई गीत भी शामिल किए गए हैं। इनमें गेयता और मिठास दोनों हैं। पूरे संग्रह में आँचलिकता मिश्री-सी घुली हुई है और उसकी माटी की सुगंध हर रचना में समाहित है। ‘चंबर’, ‘मोजराई गंध’, ‘तुदन’ जैसे शब्द पाठक को कविता की कोख तक ले जाते हैं। ‘शिवजी की बरात’, ‘कल्पगा की धार’ जैसे प्रतिमान लोकसंस्कृति के स्वर को शक्ति प्रदान करते हैं। पपीहा तो कवयित्री के मन से निकलकर कई बार कविता के अनेक पन्नों की सैर कर आता है। ‘मल्हार’ कविता में पंद्रह अगस्त को तीज-त्यौहार से जोड़ना बेहद प्रभावी और सार्थक बन पड़ा है।

कवयित्री ने नारी विमर्श को एकांगी न रखते हुए एक ही कविता से क्यों न हो, पुरुष के मन की भीतरी परतों को टटोलने का प्रयास भी किया है। रेखा सिंह की कुछ हास्य कविताएँ भी इस संग्रह में सम्मिलित हैं। हास्य रस पर कवयित्री की पकड़ साबित करती है कि वे बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं।

शीर्षक कविता ‘मैं सिमट रही हूँ में प्रयुक्त सिमटना को मैं सकारात्मक भाव से सृजन के लिए आवश्यक प्रक्रिया के तौर पर देखता हूँ। बाहर विस्तार के लिए भीतर सिमटना होता है। यह संग्रह इस बात का दस्तावेज़ है कि कवयित्री का रचना सामर्थ्य लोहे के दरवाज़ों की नींव हिलाने में समर्थ है। कितने ही दरवाज़े लग जाएँ, वह ताज़ा हवा का झोंका तलाश लेंगी।

मैं सिमट रही हूँ,

अपने आप में,

धुआँकश कारागार में,

मेरे इर्द-गिर्द लग गए

लोहे के दरवाज़े..!

कवयित्री ने एक रचना में धरती के भीतर प्रवाहित होती फल्गु नदी का संदर्भ दिया है। रेखा सिंह की ये कविताएँ भी फल्गु की तरह अंतर्स्रावी हैं। भीतर ही भीतर प्रवाहित होने के कारण ये अब तक वांछित प्रकाश से वंचित रही हैं। ये अच्छी बात है कि अंतर्स्राव धरती से बाहर निकल आया है। अब इसे सूरज की उष्मा मिलेगी, चंद्र की ज्योत्स्ना मिलेगी। सृष्टि के सारे घात-प्रतिघात, मोह-व्यामोह, प्रशंसा-उपेक्षा सभी मिलेंगे। इनके चलते परिष्कृत होने की प्रक्रिया भी निरंतर चलती रहेगी।

फल्गु अब संभावनाओं की विशाल जलराशि समेटे गंगोत्री-सी कलकल बहने को तैयार है। अपने भूत को झटक कर उसे भविष्य की यात्रा करनी है।

अतीत के पन्ने,

उलटो न बार-बार,

चलते चलो,

कश्ती कर जाएगी

मझधार पार।

शुभाशंसा।

(श्रीमती रेखा सिंह का पिछले दिनों देहांत हो गया। वर्ष 2009 में प्रकाशित उनके कवितासंग्रह ‘मैं सिमट रही हूँ’ की यह समीक्षा दिवंगत को श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं।)

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #244 ☆ भावना के दोहे… जल ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे… जल)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 244 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… जल ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

रोज गिरे बिजली यहाँ, कष्टों का भंडार।

दीन दुखी के भाग में, नहीं सुखद आधार।।

*

बारिश रस्ता भूलती, सूखा पड़ा है गाँव।

गरमी का पुरजोर है, मिले नहीं है छाँव।।

*

बूँद – बूँद जल के लिए, होता हाहाकार।

आखिर ऐसा क्यों हुआ, अब तो करें विचार।।

*

 नैना बहते बाढ़ से, कैसे रोकूँ नाथ।

दर्शन देना प्रभु मुझे, तेरा ही तो साथ।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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