(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है पूर्णिका – खूब परखते औरों को…। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सुषुम सेतु पर खड़ी…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 201 ☆ सुषुम सेतु पर खड़ी… ☆
अहम,वहम, सहम, रहम और हम के बीच में उलझा हुआ इंसान सही गलत के बीच अंतर को अनदेखा करता है। सभी का मूल्यांकन एक न एक दिन अवश्य होता है, कोई देखे या न देखे हमें सत्य के मार्ग का चयन करना चाहिए। अपने तय किए गए रास्ते पर चलते हुए मंजिल की ओर जाना आसान होता है। अक्सर देखने में आता है कि बच्चे डिजिटल दुनिया से सब कुछ सीखने का प्रयास करते हैं। यहाँ उन्हें एक क्लिक पर बिना रोकटोक, बिना किचकिच प्रश्नों के उत्तर आसानी से मिलते हैं। पर माता- पिता की सशंकित नजर हमेशा घबराती है। बच्चों के भटकने का डर स्वाभाविक है। लगभग सभी माँ अपने बच्चे से कहती हुई मिलेंगी…
कितनी बार कहा कि इस आकर्षण से निकलो ये तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा, इस इंटरनेट की चमक – दमक भरी दुनिया से सिवा धोखे के कुछ नहीं मिलने वाला विनीता ने अपनी बेटी से कहा।
इस पर उसकी बेटी नैना ने कहा माँ ऐसी बात नहीं है। जिस तरह एक सिक्के के दो पहलू होते हैं वैसे ही इस डिजिटल दुनिया से लाभ और हानि दोनों हैं। आज के समय में केवल किताबी ज्ञान से काम चलने वाला नहीं है, हमें समय के साथ तेजी से भागना होगा और उपयोगी व अनुपयोगी वस्तुओं के बीच अंतर भी सीखना होगा।
विनीता ने धीरे से सहमति की मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा वो तो ठीक है बेटा पर माँ का मन है हमेशा इसी चिन्ता में लगा रहता है कि कहीं तुम भटक न जाओ। अच्छी आदतों को सीखने में वक्त लगता है पर बुरी आदतों का मोहजाल ऐसा भयानक होता है कि उसकी गिरफ्त में कोई कब आ जाए कहा नहीं जा सकता।
नैना ने विनीता की आँखों में झाँकते हुए कहा आप की बात एकदम सही है, जब आप मेरे साथ साये की तरह हो तो मुझे घबराने की कोई जरुरत ही नहीं है जहाँ भी ऐसा लगे कि मैं अपने लक्ष्य से भटक रहीं हूँ तो अवश्य टोक दीजियेगा।
हाँ, ये तो है बेटा, जब लक्ष्य निर्धारित हो और उसे पाने के लिए परिश्रम की राह चुन ली गयी हो तो भटकने का खतरा बहुत कम हो जाता है, तथा व्यक्ति अनावश्यक के आकर्षण से भी स्वतः बच जाता है।आज आवश्यकता है सजग रहने की तो जागिए और जगाइए साथ ही डिजिटल दुनिया की ओर कदम से कदम मिलाते हुए आगे बढ़िए।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना चौथे माले की चाय।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 10 – चौथे माले की चाय☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
एनईईटी परीक्षा का नाम सुनते ही एक शानदार नाटक का दृश्य आंखों के सामने आ जाता है। ये नाटक नहीं, बल्कि एक महाभारत है, जिसमें हर पात्र अपनी जगह पर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। परीक्षा का उद्देश्य है डॉक्टर बनना, पर इसमें डाकुओं की तरह नकल करने वालों का भी हिस्सा है। मेहनत करने वाले बेचारे कौरवों की तरह नक्कलचियों के सामने हार मान लेते हैं।
ग्रेस अंकों का नाटक ग्रेस अंकों की कहानी भी किसी टीवी सीरियल के ट्विस्ट से कम नहीं है। मानो परीक्षार्थियों की मेहनत पर एक तमाचा मारते हुए ये अंक उनके माथे पर लगते हैं। “मेहनत करने वाले तो बेवकूफ होते हैं,” ऐसा नारा लगाने वाले लोग शायद नहीं जानते कि असली ‘ग्रेस’ तो नकल के बहादुरों में होती है। जिनकी किस्मत अच्छी हो, वे ही ग्रेस अंकों के नाटक में अव्वल आते हैं। मेहनत की क्या जरूरत, जब चाय पीते-पीते ग्रेस अंक मिल जाएं।
नकल का रोमांच एनईईटी परीक्षा की नकल के बारे में पूछना, मानो मुहावरों में चाय की पत्ती डालना हो। परीक्षा से पहले की रात को परीक्षार्थी नकल के सुपरहीरो बनने के सपने देखते हैं। इंटरनेट से लेकर कोचिंग सेंटर तक, हर जगह नकल के नए-नए तरीके ढूंढे जाते हैं। आखिर, मेहनत क्यों करें जब नकल करके टॉप किया जा सकता है? परीक्षा हॉल में नकल करते समय दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं, जैसे किसी एक्शन फिल्म का क्लाइमेक्स हो।
एनटीए और चौथे माले की चाय जो लोग नीट परीक्षा की चोरी के बारे में पूछते हैं, उन्हें एनटीए के चौथे माले पर चाय पीने के लिए बुलाया जाता है। एनटीए के अधिकारी, जो चाय की प्याली में सुकून ढूंढते हैं, नकल के सवाल सुनते ही मुस्कुरा देते हैं। वे सोचते हैं, “ये बेचारे भी क्या समझेंगे, मेहनत और नकल का फर्क।” चौथे माले की चाय, जहां नकलचियों के राज़ खुलेआम बताये जाते हैं, मेहनत करने वालों के लिए सिर्फ एक सपना बनकर रह जाती है।
मेहनत और बेवकूफी मेहनत करने वाले तो बेवकूफ होते हैं, यही तो परीक्षा का असली मंत्र है। जो रात-रात भर जागकर पढ़ाई करते हैं, वे समझते नहीं कि मेहनत का फल सिर्फ किताबों में ही मीठा होता है। असल जिंदगी में, नकल करने वाले ही असली हीरो होते हैं। मेहनत की चक्की में पिसने वाले ये समझ नहीं पाते कि परीक्षा बेवकूफों के लिए नहीं, बल्कि नकलचियों के लिए है।
व्यंग्य का पंच इस व्यंग्य में एक ही पंचलाइन है: मेहनत का फल बेशक मीठा हो, पर नकल का स्वाद चौथे माले की चाय से भी ज्यादा लाजवाब होता है। इसलिए, मेहनत करने वालों को चाहिए कि वे भी इस नाटक का हिस्सा बनें और नकल के गुर सीखें। आखिर, जब तक नकल का खेल चलता रहेगा, मेहनत की किताबें सिर्फ अलमारियों में सजी रहेंगी।
तो दोस्तों, अगली बार जब आप एनईईटी परीक्षा के बारे में सोचें, तो मेहनत और नकल के इस महाभारत को जरूर याद रखें। क्योंकि, मेहनत करने वाले तो बेवकूफ होते हैं, और असली खिलाड़ी तो वही हैं जो नकल के खेल में माहिर होते हैं।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(पूर्वसूत्र- हा आशानिराशेचा खेळ पुढे अनेक महिने असाच सुरू राहिला. खूप प्रयत्न करूनही हाती काही न लागताच अखेर हातातून सगळं निसटून गेलंच.स्टेट बॅंकेची पूर्वीची वेटिंग लिस्ट रद्द होऊन नवीन भरतीसाठी पेपरमधे पानभर जाहिरातही झळकली. केवळ भावाच्या आग्रहाखातर त्या जाहिरातीस प्रतिसाद म्हणून मी पुन्हा नव्याने अर्ज केला. त्याच दरम्यान माझ्या मेहुण्यांच्या ओळखीने शिवडीतल्या ‘स्वान मिल’च्या पीडीएफ् डिपार्टमेंटला मला दिवसभर चरकातून पिळून काढणारी तुटपूंज्या पगाराची नोकरी मिळाली आणि नव्या खेळाला नव्याने सुरुवात झाली!
पुढे जे घडत गेलं ते सगळं योगायोग वाटावेत असंच, पण ते योगायोग मात्र अघटीत म्हणावेत असेच होते!
‘क्वचित कधी अपयश आलंच तरी ते आपल्या हितासाठीच होतं हे कालांतरानं जाणवतंच’ हे कधीकाळी ऐकलेले बाबांचे शब्द मी त्या संघर्षकाळात घट्ट धरून ठेवले होते आणि पुढे ते आश्चर्यकारकरीत्या शब्दशः खरेही ठरले.)
मिलमधल्या कामाचा ताण दिवसेंदिवस वाढतच होता.त्याच धकाधकीत स्टेट बॅंकेचा नव्याने केलेल्या अर्जामुळे पुन्हा रिटनटेस्टसाठी काॅल आला.ती टेस्ट होऊनही महिनाभर उलटून गेला.रोजचं रुटीन अक्षरश: कसंबसं रेटणं सुरु होतं. मिलमधली नोकरी एक तर खाजगी. मिलमजुरांची आणि इतर स्टाफची पीएफ् खाती वर्षानुवर्षे अपडेटच केलेली नव्हती. त्यामुळे ऑडिटर्सनी घेतलेल्या स्ट्रीक्ट ॲक्शनमुळे ते प्रदीर्घकाळ पेंडिंग असलेले काम शिकून घेऊन ठराविक मुदतीत पूर्ण करण्याचं प्रचंड दडपण माझ्यावर असायचं.आमचे मॅनेजर शास्त्रीसाहेब तर कायम कातावलेलेच असायचे. कामासंदर्भातल्या काही शंका असतील तर त्यांच्याकडे जाऊन सांगण्याशिवाय गत्यंतरच नव्हतं. मी अदबीने त्यांच्यासमोर जाऊन उभा राहिलो की मला पाहून त्यांचं कपाळ आठ्यांनी भरून जायचं. ते कामच अतिशय एकसूरी आणि किचकट असल्यामुळे खूप कंटाळवाणं वाटायचं न् तिथं माझ्या शंकांचं निरसन करुन कामाला गती देणारं कुणीही नव्हतं. तरीही ती नोकरी माझी गरज म्हणून मला टिकवणं भागच होतं. कामासाठी रोज रात्री उशीरपर्यंत बसायला लागायचं. खूप उशीर झाला की बस नसल्याने भुकेल्यापोटी शिवडीहून दादरपर्यंत चालत यावे लागे.या सगळ्या प्रतिकूल परिस्थितीत बहिणीच्या घरी मिळणारं घरपण हाच एकमेव दिलासा होता.
बहिणीचं मूळ सासरघर कोल्हापूरला होतं. तिथं घरी सर्वांना आणि इस्लामपूरला आमच्या आईबाबांनाही भेटण्यासाठी म्हणून बहिणीने रजा घेऊन थोडे दिवस तिकडं जाऊन यायचं ठरवलं.तिला पोचवायला मेहुणेही जाणार होते.दोन चार दिवस राहून ते परत येणार होते. त्या दरम्यान दादरला एकट्यानंच रहाणं माझ्या जीवावर आलं होतं. ते न सांगताच समजल्यासारखं माझी डोंबिवलीची मावशी एकदा दादरला बहिणीकडे आली होती, तेव्हा ती ‘तुम्ही जाऊन परत येईपर्यंत याचे इथे जेवणाचे हाल कशाला?थोडे दिवस बदल म्हणून मी याला डोंबिवलीला घेऊन जाते’ म्हणाली.मी चार दिवस मावशीकडे रहायचं आणि मेहुणे परत येतील तेव्हा मी त्यांना दादर स्टॅंडवर उतरवून घ्यायला यायचं न् मग दोघांनी दादरच्या त्यांच्या घरी जायचं असं सगळं आमचं निघतानाच ठरलं. हे सगळं मला त्यावेळी सोईचं वाटलं खरं, पण तेच पुढं माझ्या आयुष्यात मात्र प्रचंड उलथापालथ करणार होतं याची तेव्हा आम्हा कुणालाच कल्पना नव्हती ! आज इतक्या वर्षानंतर ते सगळं आठवतं तेव्हा या सगळ्या घटनाक्रमात लपलेल्या अघटीत योगायोगाचं आश्चर्य वाटतं एवढं खरं!
ठरल्याप्रमाणे मी त्या रविवारी डोंबिवलीहून माझी बॅग घेऊन मेहुण्याना उतरवून घ्यायला निघालो. त्यांची बस रात्री साडेआठला येणार होती. उशीर व्हायला नको म्हणून मी आठ वाजताच तिथे जाऊन बसची वाट पहात थांबलो.बस अनपेक्षितपणे तासभर उशिरा आली. तिथून चित्रा टॉकीजसमोरच्या इस्माईल बिल्डिंगमधल्या घरी पोहोचेपर्यंत रात्रीचे साडेनऊ वाजून गेले होते. सामान घरी ठेवून,फ्रेश होऊन लगेच बाहेर जेवायला जायचं ठरलं होतं. आम्ही गडबडीने कुलूप काढून दार ढकललं तर समोरच शटरमधून आत टाकलेली दोन तीन पत्रे पडलेली होती. पुढे होऊन मी ती उचलली आणि पाहिलं तर त्यात एक लिफाफा चक्क माझ्या नावाचा होता ! इथे या पत्त्यावर आणि माझं पत्र? उत्सुकतेपोटी तो लिफाफा उचलला आणि घाईघाईने उघडून पाहिला तर आत ‘युनियन बॅंक आॅफ इंडिया’ कडून आलेलं एक पत्र होतं. मुंबईत आल्याबरोबर मी मेहुण्यांच्या सल्ल्याने माझ्या मनात नसतानाही इथल्या एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज मधे नाव नोंदवलं होतं त्याची आठवण करुन देणारं ते पत्र होतं! कारण ते पत्र म्हणजे एम्प्लॉयमेंट एक्स्चेंजद्वारे मागवलेल्या यादीनुसार नुकत्याच राष्ट्रीयीकरण झालेल्या युनियन बँक ऑफ इंडियाने मला पाठवलेलं ते रिटन टेस्टचं कॉल लेटर होतं! जीवघेण्या उकाड्यांत अनपेक्षितपणे मनाला स्पर्शून गेलेली ती गार वाऱ्याची झुळूकच होती जशीकांही! हे अनपेक्षित पत्र म्हणजे ‘स्वान मिल’ मधल्या रुक्ष,कोंदट वातावरणातून मला तात्काळ बाहेर पडणं सहजसुलभ करणारी एक संधीच होती.त्या अनपेक्षित आनंदाच्या भरात क्षणाचाही विलंब न लावता मी ते कॉललेटर झरझर वाचून पूर्ण केलं आणि त्याचक्षणी सगळी शक्तीच कुणीतरी काढून घेतल्यासारखा मटकन् खुर्चीत बसलो. पत्र धरलेला माझा हात थरथरु लागला. डोळे नकळत भरून आले.
फ्रेश होऊन जेवायला जायच्या तयारीने मेहुणे बाहेर आले आणि मला पहाताच थबकले.
“काय रे? काय झालं? कुणाचं..कसलं पत्र आहे ते?”
मी सून्न होऊन गप्प बसलो.आता बोलण्यासारखं कांही शिल्लक होतंच कुठं? मी न बोलता ते पत्र त्यांच्या हातात दिलं.
“ओह्…” तो धक्का त्यांनाही अनपेक्षित होता. कारण प्रवासाला जाण्यापूर्वी दादरच्या घराला कुलूप लावलं होतं त्याच दिवशी हे पत्र इथं येऊन पडलं होतं,म्हणजे साधारण आठवडा होऊन गेला होता.पण ते आमच्या हातात पडायला मात्र बराच उशीर झाला होता. कारण रिटन-टेस्टची तारीख आदल्या दिवशीची म्हणजे शनिवारची आणि वेळ दुपारी अकराची होती. अर्थातच रिटर्न टेस्ट कालच होऊन गेलेली होती!
हातातोंडाशी आलेला सुग्रास घास पुन्हा एकदा हिरावला गेला होता!
मन कोंदट अंधाराने भरुन गेलेलं असतानाच पुढचे तीन साडेतीन तास असे झंझावातासारखे आले की अनपेक्षितपणे आकारलेल्या सकारात्मक घटनांनी त्या अंधारल्या मनात पुन्हा आशेची ज्योत पल्लवित झाली!
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “एक पाती वृक्ष की, मानव के नाम…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #234 ☆
☆ एक पाती वृक्ष की, मानव के नाम… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “नाराज़ हुआ मौसम…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 58 ☆ नाराज़ हुआ मौसम… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆