(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 245 ☆ पुनरपि जननं पुनरपि मरणं..
श्मशान में हूँ। देखता हूँ कि हर क्षेत्र की तरह यहाँ भी भारी भीड़ है। लगातार कोई ना कोई निष्प्राण देह लाई जा रही है। देह के पीछे सम्बंधित मृतक के परिजन और रिश्तेदार हैं।
दहन के लिए चितास्थल खाली मिलना भी अब भाग्य कहलाने लगा है। दो देह प्रतीक्षारत हैं। कुछ समय बाद दो खाली चितास्थलों पर चिता तैयार की जाने लगी हैं। मृतक के परिजन और रिश्तेदार केवल ज़बानी निर्देश तक सीमित हैं। सारा काम तो श्मशान के कर्मचारी कर रहे हैं।
पुरोहित अंतिम संस्कार कराने में जुटे हैं। हर संस्कार की भाँति यहाँ भी उनसे शॉर्टकट की अपेक्षा है। मृतक के पुत्र, पौत्र, निकटवर्ती अपने केश अर्पित कर रहे हैं। उपस्थित लोगों में से अधिकांश के चेहरे पर घर या काम पर जल्दी जाने की बेचैनी है। ज़िंदा रहने के लिए महानगर की शर्तें, संवेदनाओं को मुर्दा कर रही हैं। इन मृत संवेदनाओं की तुलना में मरघट मुझे चैतन्य लगता है। यूँ भी देखें तो महानगरों के मरघट की अखंड चिताग्नि ‘मणिकर्णिका’ का विस्तार ही है।
मानस में जच्चा वॉर्ड के इर्द-गिर्द भीड़ का दृश्य उभरता है। अलबत्ता वहाँ आनंद और उल्लास है, चेहरों पर प्रसन्नता है। प्रसूतिगृह में जीव के आगमन का हर्ष है, श्मशान मेंं जीव के गमन का शोक है।
बार-बार आता है, बार-बार जाता है, फिर-फिर लौट आता है। जीव अन्यान्य देह धारण करता है। चक्र अनवरत है। विशेष बात यह कि जो शोक या आनन्द मना रहे हैं, वे भी उसी परिक्रमा के घटक हैं। आना-जाना उन्हें भी उसी रास्ते है। जीवन का रंगमंच, पात्रोंं से निरंतर भूमिकाएँ बदलवाता रहता है। आज जो कंधा देने आए हैं, कल उन्हें भी कंधों पर ही आना है।
‘भज गोविंदम्’ के 21वें पद में आदिशंकराचार्य जी महाराज कहते हैं-
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाऽपारे पाहि मुरारे॥
भावार्थ है कि बार-बार जन्म होता है। बार-बार मृत्यु आती है। बार-बार माँ के गर्भ में शयन करना होता है। बार-बार का यह चक्र अनवरत है। यही कारण है कि संसार रूपी महासागर पार करना दुस्तर है। वस्तुत: काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, राग-द्वेष, निंदा सभी तरह के राक्षसी विषयों का यह संसार महासागर है। यह अपरा है, यहाँ किनारा मिलता ही नहीं। ऐसे राक्षसों के अरि अर्थात मुरारि, भवसागर पार करने की शक्ति प्रदान करें।
श्मशान से श्मशान तक की यात्रा से मुक्त होने का पहला चरण है भान होना। भान रहे कि सब श्मशान की दिशा में यात्रा कर रहे हैं। यह पंक्तियाँ लिखनेवाला और इन्हें पढ़नेवाला भी। श्मशान पहुँँचने के पहले निर्णय करना होगा कि पार होने का प्रयास करना है या फेरा लगाते रहना है। ..इति।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
Anonymous Litterateur of Social Media # 192 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 192)
Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.
Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.
He is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!
English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 192
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है द्विपदियाँ …।)
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग -22 – आजकल पासबुक से बड़ी कोई बुक नहीं… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
आजकल पासबुक से बड़ी कोई बुक नहीं….
मित्रो, चल रहा हूँ, यादों की पगडंडियों पर – बिल्कुल बेखबर कि ये मुझे कहां ले जाने वाली हैं पर मैं डरते-डरते चलता जा रहा हूँ। आज पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ की बहुत याद आ रही है, जिसकी कवरेज लगभग छह साल तक की, यानी छह साल तक इस विश्वविद्यालय के हर मोड़ पर अनजाने चलता गया !
सबसे पहले यादों में आ रहे हैं- योगेन्द्र यादव! वही जो पहले चुनाव विश्लेषक रहे डी डी चैनल पर, फिर आप पार्टी में शामिल हुए और इसके बाद ‘ स्वराज’ पार्टी बनाई। आजकल कांग्रेस नेता राहुल गाँधी के साथ हैं। भारत जोड़ो यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण यात्री रहे !
जिन दिनों मैं पंजाब विश्वविद्यालय कवर करता था, योगेन्द्र यादव विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र में प्राध्यापक थे और विभाग के नोटिस बोर्ड पर कोई न कोई टिप्पणी लिख कर लगा देते ! मुझे बहुत इंटरेस्टिंग लगी यह बात और ‘दैनिक ट्रिब्यून’ का एक साप्ताहिक स्तम्भ था, हर सोमवार – चंडीगढ़ दर्शन’ उसमें हम स्टाफ के लोग चंडीगढ़ की कोई न कोई रोचक घटना देते थे। एक बार मैंने योगेन्द्र यादव की इस तरह की आदत पर
‘चंडीगढ़ दर्शन’ पर छोटी सी टिप्पणी दे दी, जिसके बाद हमारा परिचय हुआ, जो आज तक बना हुआ है। हालांकि योगेन्द्र यादव जल्द ही पंजाब विश्वविद्यालय से दिल्ली चले गये। इनके पिता श्री संग्राम सिंह हरियाणा के बड़े सर्वोदयी नेता थे। पिता के ही पदचिन्हों पर योगेन्द्र यादव भी चले और चलते चलते राजनीति में आ गये। जब कभी हिसार आते हैं, मुझे दिल्ली से चलते समय ही फोन आ जाता है और हमारी मुलाकातें हिसार में ज्यादा हुईं। एक बार अपना कथा संग्रह देते समय हमारे सहयोगी छायाकार मित्र फोटो खींचने लगे तब बोले कि यह दोस्ताना फोटो है और ये पत्रकार से पहले हमारे दोस्त हैं ! वे अपनी जगह राजनीति में टटोल रहे हैं और मैं पत्रकारिता व लेखन में, पर अलग अलग रास्तों के राही दोस्ती की डगर पर चल रहे हैं। सालों साल से ! हम हैं राही अलग अलग दिशाओं के !
पंजाब विश्वविद्यालय के उन दिनों पी आर ओ हुआ करते संजीव तिवारी, जो कम रोचक नहीं थे! उन्होंने बिल्कुल अपने पीछे एक वाक्य लिखवा रखा था, जिसका भाव यह था कि यदि आप सोचते हैं कि आपके आते ही सब हो जायेगा तो धैर्य रखना सीखिए, सब कुछ आपकी सोच के अनुसार नहीं होगा ! बहुत दिलचस्प ! उन्होंने अपनी ओर से पत्रकारों को आराम की सुविधा भी दे रखी थी। यदि आप आराम करना चाहें तो सामने छोटे से कमरे में जाइये और वहाँ एक बढ़िया वाले तख्तपोश पर आराम कीजिये, चाय या नींबू पानी आ जायेगा ! ऐसा पी आर ओ मैंने फिर कहीं नहीं देखा। हिसार आने के बावजूद जब कभी चंडीगढ़ आना होता तो चलने से पहले तिवारी को फोन लगाता कि एक कमरा बुक करवा दीजिये और कमरा बुक मिलता ! उनकी बहन रत्निका तिवारी सेक्टर दस के गवर्नमेंट गर्ल्ज काॅलेज में संगीत प्राध्यापिका थीं और बहुत ही अच्छी गायिका ! उन्हें जाना बड़ी बेटी रश्मि के चलते क्योंकि वह इसी काॅलेज की छात्रा रही बीए में। उनके कार्यक्रम जालंधर दूरदर्शन पर भी आते थे। कुछ समय विनीत पूनिया भी पंजाब विश्वविद्यालय के पी आर ओ रहे, जो आजकल कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं! वे हिसार के गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के छात्र हैं!
इसी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के जिक्र के बिना आगे नहीं बढ़ पाऊंगा ! यहीं पर डाॅ वीरेंद्र मेहंदीरत्ता, डाॅ यश गुलाटी, डाॅ सत्यपाल सहगल, डाॅ परेश और आजकल अपने दैनिक ट्रिब्यून के सहयोगी रहे डाॅ गुरमीत सिंह, डाॅ जगमोहन, डाॅ अतुलवीर अरोड़ा और इन दिनों डाॅ योजना रावत आदि से कुछ कम और कुछ ज्यादा जान पहचान रही ! न जाने कितने साहित्यिकारो को सुनने का अवसर मिला, जिनमें अपने प्रिय लेखक निर्मल वर्मा और प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी भी शामिल हैं। इन दोनों के इंटरव्यू जो दैनिक ट्रिब्यून के लिए किये, मेरी ‘ यादों की धरोहर’ पुस्तक में शामिल हैं! भीष्म साहनी की बात नहीं भूली कि आजकल साहित्य कम पढ़ा जाता है और आज जो बुक सबसे ज्यादा पढ़ी जाती है वह है बैंक की पासबुक !
कितनी ही साहित्यिक गोष्ठियों की कवरेज और कितने ही रचनाकारों को सुनने का अवसर मिला। मुझे डाॅ मेहंदीरत्ता ने कहा कि कमलेश, अब तुम पीएच डी कर लो, मैने बताया कि मेरा सपना डाॅ धर्मपाल ने तोड़ दिया था, दूसरे डाॅ इंद्रनाथ मदान ने बहुत प्यारी सलाह दी थी कि हिंदी में बहुत बड़ी गिनती में डाॅक्टर हो गये हैं और अब कुछ अच्छे कंपाउंडरों की जरूरत है और मैं चाहता हूँ कि तुम पर पीएचडी हो और यह बात सच साबित हुई, मेरे लेखन पर तीन शोध प्रबंध आ चुके हैं!
खैर! अपने यशोगान के लिए माफी, यह मेरा इरादा बिल्कुल नहीं था ! आज की राम राम!
कल भी पंजाब विश्वविद्यालय ही जाना चाहूँगा ! अभी बहुत प्यारी सी यादें शेष हैं !
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “रूखसत वक्त अश्क़ दर पर ठिठके रहे…” ।)
ग़ज़ल # 126 – “रूखसत वक्त अश्क़ दर पर ठिठके रहे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना – “आदमी कितना भोला है, नादान है…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा # 181 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – हार कैसे मान लूँ मैं ?… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
☆
साफ दिखती जीत को ही हार कैसे मान लूं मैं ?
आ रहे मुधुमास को पतझार कैसे मान लूं मैं ??
हर अँधेरे में उजाले की कहीं सोई किरण है
तपन के ही बाद होता चाँदनी का आगमन है
देखता कुछ, बोलता कुछ, साफ जो कुछ कह न पाता
उस जगत के कथन का एतबार कैसे मान लूं मैं ।। १ ।।
आज अपनी जीत को ही हार को भी
जीत का पर्याय ही मैं मानता हूं
अश्रु पूर्वाभास हैं मुस्कान के मैं जानता हूं ।।
शब्द के संदर्भगत निहितार्थ अक्सर भिन्न होते
भाव को शब्दार्थ के अनुसार कैसे मान लूं मैं ।। ३ ।।
आयुष्यात आता सगळं संपलं असं वाटत असतानाही नव्या उमेदीनं केवळ जिद्द, साहस, चिकाटी, निष्ठा, आत्मविश्वास, स्वीकार आणि प्रचंड इच्छाशक्तीच्या बळावर पुन्हा एक अशी झेप घेणं म्हणजे जणू फिनिक्स भरारीच. असं यश त्यांच्याच वाट्याला येतं, ज्यांच्या शब्दांत, विचारांत, मनात, कृतीत नकारात्मकतेला जराही थारा नसतो. त्यांचा सकारात्मकतेचा झरा ‘राखेतून उगवतीकडे’ या पुस्तकात पानापानांवर झुळझुळत राहतो. पुस्तकातील नायक विंग कमांडर अशोक लिमये हे भारतीय हवाई दलात कार्यरत असताना त्यांना आलेले अनुभव त्यांनी ‘द फिनिक्स रायजेस’ या पुस्तकात मांडले. लेखिका सोनाली नवांगुळ यांनी केलेला त्याचा अनुवाद ‘राखेतून उगवतीकडे’.
रोज एक पाऊल पुढं टाकत यश मिळवायचं असेल तर हे पुस्तक तो विश्वास देतं. ‘तू पुढे हो यश तुझ्या मागं आपोआप येईल’ असा आत्मविश्वास आपल्यात निर्माण करतं. पुस्तक वाचत जसंजसं आपण पुढं सरकत राहतो तसतसं हवाईदलात जाण्याची इच्छा बाळगणारे, आकर्षणापोटी हवाईदल जाणून घेणारे, आपल्या मुलांना सैन्यात पाठवणारे, न पाठवणारे, सामान्य – असामान्य अशा प्रत्येकाच्या डोळ्यांसमोर हवाईदल उभं राहतं. हा लेखनप्रपंच करण्याचा लेखकाचा उद्देशही तोच होता.
पुस्तकाचे दोन भाग. पहिल्या भागात ‘नॅशनल डिफेन्स ॲकॅडमी (एन.डी.ए.)’तील प्रशिक्षणापासून ‘फायटर स्वाड्रनच्या जबाबदारी’ पर्यंतचे टप्पे आहेत. प्रत्येक टप्प्यावर अभ्यास, नियम, कडक शिस्त, यश – अपयश, सततचं रिपोर्टिंग, कुठल्याही आकर्षणाला बळी पडायलाही वेळ नसणं, कधी मजा, कधी सजा, कधी कडवटपणा, कधी मायेनं ओतप्रोत भरलेला आधार अशा पद्धतीनं देशाच्या संरक्षण खात्याची धुरा प्राणपणानं सांभाळण्याची शारीरिक – मानसिक तयारी करावी लागली. ती करत असताना प्रचंड अनुभव मिळत गेले. इथपर्यंतचा लेखकाचा प्रवास थरारपूर्ण अनुभव देतो.
ते अनुभव मांडताना सैन्यातील विशिष्ट शब्द, वाक्यं जशीच्या तशी दिली आहेत. उदा: स्वाॅड्रन, बटालियन, रिग, हँगर, ब्ल्यू बुक किंवा सुखोई ७, पासिंग आऊट परेड,राईट हँड सीट चेक इ. हे शब्द वाचताना वाचकांना कळावेत यासाठी पुस्तकात शेवटी परिशिष्टामधे त्याचे अर्थही दिले आहेत.
प्रत्येक व्यक्तीच्या जीवनात पूर्वार्ध आणि उत्तरार्ध असतोच. पण त्यातील एक कोणतातरी दुसर्यापेक्षा कमी अधिक प्रमाणात आव्हानात्मक असतो. अशोक लिमयेंच्या बाबतीत दोन्ही भागांत त्यांना तितक्याच आव्हानांचा सामना करावा लागला. सैन्यदलात जायचं तर काही शारीरिक – मानसिक निकष पार पाडावेच लागतात. ते सगळं व्यवस्थित पार पडल्यानंतर ‘विंग कमांडर’ झाल्याचा आनंद होताच, पण आणखीही काहीतरी वेगळं घडायचं होतं… घडणार होतं.
नेहमीप्रमाणंच त्यांनी फायटर विमानाचं उड्डाण केलं आणि त्यांचा अपघात झाला. त्यानंतरचं अनुभवकथन पुस्तकाच्या दुसर्या भागात येतं. अपघात होऊनही व्हीलचेअरवर बसून त्यांनी भारतीय हवाईदलाला आपली सेवा दिली. अपघातानंतर पुन्हा घेतलेली झेप वाचताना अनेकदा वेदनांचं मोहोळ उठतं. विंग कमांडरांच्या दुसर्या जन्माचा पहिला दिवस वाचताना डोळ्यांत पाणी आल्यावाचून राहत नाही. त्या दिवशी फिनिक्स राखेतून उठला होता. त्यानं उडायलाही सुरुवात केली होती…पुन्हा एकदा!
कथेचा नायक आणि अनुवादक दोघंही पॅराप्लेजिक असण्याच्या एका समान धाग्यामुळं हे पुस्तक मराठीत आलं. अगदी तसंच एक वाचक म्हणून हे पुस्तक आवडण्याचं कारण म्हणजे माझा जोडीदार असलेला भारतीय नौदलातील एक सैनिक. विवाहापूर्वीच्या त्यांच्या कष्टांची जाणीव या पुस्तकामुळं माझ्यापर्यंत पोहोचली असं मला वाटतं. एक सैनिक दिसणारा कडक शिस्तीचा कणखर पुरूष अगदीच मवाळ नसला तरी प्रेमळ, सहृदयी, मदतीसाठी तत्पर आणि प्रचंड जिद्द अशा गुणांनी संपन्न असतो हा माझा रोजचा अनुभव. या पुस्तकात असे बरेच समान धागे मला सापडत गेले. त्यामुळे दोन बैठकीत पुस्तक वाचून संपलं.
पहिला भाग पूर्णपणे प्रशिक्षणावर आधारीत आहे. त्यात वाचकांच्या अनुभवातले शब्द नसल्यामुळं काही शब्द वाचताना अडखळायला होतं. पणक्षदोन प्रकरणानंतर सरावानं ते जमतंही. दुसऱ्या भागात अर्थातच ‘फिनिक्स भरारी’. दररोजच्या छोट्या छोट्या गोष्टींनी जे लोक नाराज होतात आणि निराशामय वातावरणात राहतात, अशांसाठी हे पुस्तक महत्त्वाचं. आशेचा किरण दाखवणारे. ज्यांना स्वत:चं छोटं दु:ख खूप मोठं वाटतं असतं ते ‘वेदनेची शिकार’ होतच राहणार. पण अशा वेदनांपासून सुटका हवी असेल तर ‘राखेतून उगवतीकडे’ वाचायला हवं.
ही कहाणी केवळ आकाशात भरारी घेणारा वैमानिक कायमसाठी चाकाच्या खुर्चीत जखडबंद होतो त्याची नाही. तर पुनश्च ‘राखेतून उगवतीकडे’ निग्रहानं झेपावतो त्याची आहे.
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख कलम से अदब तक… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 236 ☆
☆ कलम से अदब तक… ☆
‘अदब सीखना है तो कलम से सीखो; जब भी चलती है, सिर झुका कर चलती है।’ परंतु आजकल साहित्य और साहित्यकारों की परिभाषा व मापदंड बदल गए हैं। पूर्वोत्तर परिभाषाओं के अनुसार…साहित्य में निहित था…साथ रहने, सर्वहिताय व सबको साथ लेकर चलने का भाव, जो आजकल नदारद हो गया है। परंतु मेरे विचार से तो ‘साहित्य एहसासों व जज़्बातों का लेखा-जोखा है; भावों और संवेदनाओं का झरोखा है और समाज के कटु यथार्थ को उजागर करना साहित्यकार का दायित्व है।’
साहित्य और समाज का चोली-दामन का साथ है। साहित्य केवल समाज का दर्पण ही नहीं, दीपक भी है और समाज की विसंगतियों- विश्रृंखलताओं का वर्णन करना, जहां साहित्यकार का नैतिक दायित्व है; उसके लिए समाधान सुझाना व उपयोगिता दर्शाना भी उसका प्राथमिक दायित्व है। परंतु आजकल साहित्यकार अपने दायित्व का निर्वाह कहां कर रहे है…अत्यंत चिंतनीय है, शोचनीय है। महान् लेखक मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य की उपादेयता पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि ‘कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है.. ताक़तवर होती है’ अर्थात् जो कार्य तलवार नहीं कर सकती, वह लेखक की कलम की पैनी धार कर गुज़रती है। इसीलिए वीरगाथा काल में राजा युद्ध-क्षेत्र में आश्रयदाता कवियों को अपने साथ लेकर जाते थे और उनकी ओजस्विनी कविताएं सैनिकों का साहस व उत्साहवर्द्धन कर उन्हें विजय के पथ पर अग्रसर करती थीं। रीतिकाल में भी कवियों व शास्त्रज्ञों को दरबार में रखने की परंपरा थी तथा उनके बीच अपने राजाओं को प्रसन्न करने हेतु अच्छी कविताएं सुनाने की होड़ लगी रहती थी। श्रेष्ठ रचनाओं के लिए उन्हें स्वर्ण मुद्राएं भेंट की जाती थी। बिहारी का दोहा ‘नहीं पराग, नहीं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल/ अलि कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल’ द्वारा राजा जयसिंह को बिहारी ने सचेत किया गया था कि वे पत्नी के प्रति आसक्त होने के कारण, राज-काज में ध्यान नहीं दे रहे, जो राज्य के अहित में है और विनाश का कारण बन सकता है। इसी प्रकार भक्ति काल में कबीर व रहीम के दोहे, सूर के पद, तुलसी की रामचरितमानस के दोहे- चौपाइयां गेय हैं, समसामयिक हैं, प्रासंगिक हैं और प्रात:-स्मरणीय हैं। आधुनिक काल को भी भक्तिकालीन साहित्य की भांति विलक्षण और समृद्ध स्वीकारा गया है।
सो! सत्-साहित्य वह कहलाता है, जिसका प्रभाव दूरगामी हो; लम्बे समय तक बना रहे तथा वह परोपकारी व मंगलकारी हो; सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् के विलक्षण भाव से आप्लावित हो। प्रेमचंद, शिवानी, मनु भंडारी, मालती जोशी, निर्मल वर्मा आदि लेखकों के साहित्य से कौन परिचित नहीं है? आधुनिक युग में भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, निराला, बच्चन, नीरज, भारती आदि का सहित्य अद्वितीय है, शाश्वत है, समसामयिक है, उपादेय है। आज भी उसे भक्तिकालीन साहित्य की भांति उतनी तल्लीनता से पढ़ा जाता है; जिसका मुख्य कारण है…साधारणीकरण अर्थात् जब पाठक ब्रह्मानंद की स्थिति तक पहुंचने के पश्चात् उसी मन:स्थिति में रहना पसंद करता है तथा उस स्थिति में उसके भावों का विरेचन हो जाता है…यही भाव-तादात्म्य ही साहित्यकार की सफलता है।
साहित्यकार अपने समाज का यथार्थ चित्रण करता है; तत्कालीन समाज के रीति-रिवाज़, वेशभूषा, सोच, धर्म आदि को दर्शाता है…उस समय की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों का दिग्दर्शन कराता है… वहीं समाज में व्याप्त बुराइयों को प्रकाश में लाना तथा उनके उन्मूलन के मार्ग दर्शाना…उसका प्रमुख दायित्व होता है। उत्तम साहित्यकार संवेदनशील होता है और वह अपनी रचनाओं के माध्यम से, पाठकों की भावनाओं को उद्वेलित व आलोड़ित करता है। समाज में व्याप्त बुराइयों की ओर उनका ध्यान आकर्षित कर जनमानस के मनोभावों को झकझोरता, झिंझोड़ता व सोचने पर विवश कर देता है कि वे ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हैं, दिग्भ्रमित हैं। सो! उन्हें अपना रास्ता बदल लेना चाहिए। सच्चा साहित्यकार मिथ्या लोकप्रियता के पीछे नहीं भागता; न ही अपनी कलम को बेचता है; क्योंकि वह जानता है कि कलम का रुतबा संसार में सबसे ऊपर होता है। कलम सिर झुका कर चलती है, तभी वह इतने सुंदर साहित्य का सृजन करने में समर्थ है। इसलिए मानव को उससे अदब व सलीका सीखना चाहिए तथा अपने अंतर्मन में विनम्रता का भाव जाग्रत कर, सुंदर व सफल जीवन जीना चाहिए…ठीक वैसे ही जैसे फलदार वृक्ष सदैव झुक कर रहता है तथा मीठे फल प्रदान करता है। इन कहावतों के मर्म से तो आप सब अवगत होंगे… ‘अधजल गगरी, छलकत जाए’ तथा ‘थोथा चना, बाजे घना’ मिथ्या अहं भाव को प्रेषित करते हैं। इसलिए नमन व मनन द्वारा जीवन जीने के सही ढंग व महत्व को प्रदर्शित दिया गया है। मन से पहले व मन के पीछे न लगा देने से विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न नहीं होती, बल्कि नमन व मनन एक- दूसरे के पूरक हो जाते हैं। वैसे भी इनका चोली-दामन का साथ है। एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन है। यह सामंजस्यता के सोपान हैं और सफल जीवन के प्रेरक व आधार- स्तंभ हैं।
प्रार्थना हृदय का वह सात्विक भाव है; जो ओंठों तक पहुंचने से पहले ही परमात्मा तक पहुंच जाती है… परंतु शर्त यह है कि वह सच्चे मन से की जाए। यदि मानव में अहंभाव नहीं है, तभी वह उसे प्राप्त कर सकता है। अहंनिष्ठ व्यक्ति स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है, केवल अपनी-अपनी हांकता है तथा दूसरे के अस्तित्व को नकार उसकी अहमियत नहीं स्वीकारता। सो! वह आत्मजों, परिजनों व परिवारजनों से बहुत दूर चला जाता है। परंतु एक लंबे अंतराल के पश्चात् समय के बदलते ही वह अर्श से फ़र्श पर पर आन पड़ता है और लौट जाना चाहता है…अपनों के बीच, जो सर्वथा संभव नहीं होता। अब उसे प्रायश्चित होता है… परंतु गुज़रा समय कब लौट पाया है? इसलिए मानव को अहं को त्याग, किसी भी हुनर पर अभिमान न करने की सीख दी गई है, क्योंकि पत्थर की भांति अहंनिष्ठ व्यक्ति भी अपने ही बोझ से डूब जाता है, परंतु निराभिमानी मनुष्य संसार में श्रद्धेय व पूजनीय हो जाता है।
‘विद्या ददाति विनयम्’ अर्थात् विनम्रता मानव का आभूषण है और विद्या हमें विनम्रता सिखलाती है… जिसका संबंध संवेदनाओं से होता है। संवेदना से तात्पर्य है… सम+वेदना… जिसका अनुभव वही व्यक्ति कर सकता है, जिसके हृदय में स्नेह, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, सहनशीलता, करुणा, त्याग आदि भाव व्याप्त हों…जो दूसरे के दु:ख की अनुभूति कर सके। परंतु यह बहुत टेढ़ी खीर है…दुर्लभ व दुर्गम मार्ग है तथा उस स्थिति तक पहुंचने के लिए वर्षों की साधना अपेक्षित है। जब तक व्यक्ति स्वयं को उसी भाव-दशा में अनुभव नहीं करता; उनके सुख-दु:ख में अपनत्व भाव व आत्मीयता नहीं दर्शाता …अच्छा इंसान भी नहीं बन सकता; साहित्यकार होना, तो बहुत दूर की बात है; कल्पनातीत है।
आजकल समाजिक व्यवस्था पर दृष्टिपात करने पर लगता है कि संवेदनाएं मर चुकी हैं, सामाजिक सरोकार अंतिम सांसें ले रहे हैं और इंसान आत्म-केंद्रित होता जा रहा है। त्रासदी यह है कि वह निपट स्वार्थी इंसान अपने अतिरिक्त किसी अन्य के बारे में सोचता ही कहां है? सड़क पर पड़ा घायल व्यक्ति जीवन-मृत्यु से संघर्ष करते हुए सहायता की ग़ुहार लगाता है, परंतु संवेदनशून्य व्यक्ति उसके पास से नेत्र मूंदे निकल जाता हैं। हर दिन चौराहों पर मासूमों की अस्मत लूटी जाती है और दुष्कर्म के पश्चात् उन्हें तेज़ाब डालकर जला देने के किस्से भी आम हो गए हैं। लूटपाट, अपहरण, फ़िरौती, देह-व्यापार व मानव शरीर के अंग बेचने का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है। यहां तक कि चंद सिरफिरे अपने देश की सुरक्षा बेचने में भी कहां संकोच करते हैं?
परंतु कहां हो रहा है… ऐसे साहित्य का सृजन, जो समाज की हक़ीकत बयान कर सके तथा लोगों की आंखों पर पड़ा पर्दा हटा सके। आजकल तो सबको पद-प्रतिष्ठा, नाम-सम्मान व रूतबा चाहिए, वाहवाही सबकी ज़रूरत है; जिसके लिए वे सब कुछ करने को तत्पर हैं, आतुर हैं अर्थात् किसी भी सीमा तक झुकने को तैयार हैं। यदि मैं कहूं कि वे साष्टांग दण्डवत् प्रणाम तक करने को प्रतीक्षारत हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
सो! ऐसे आक़ाओं का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है, जो नये लेखकों को सुरक्षा प्रदान कर, मेहनताने के रूप में खूब सुख-सुविधाएं वसूलते हैं। सो! ऐसे लेखक पलक झपकते अपनी पहली पुस्तक के प्रकाशित होते ही बुलंदियों को छूने लगते हैं, क्योंकि उन आक़ाओं का वरद्-हस्त नये लेखकों पर होता है। सो! उन्हें फर्श से अर्श पर आने में समय लगता ही नहीं। आजकल तो पैसा देकर आप राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय अथवा अपना मनपसंद सम्मान खरीदने को स्वतंत्र हैं। सो! पुस्तक के लोकार्पण करवाने की भी बोली लगने लगी है। आप पुस्तक मेले में अपने मनपसंद सुविख्यात लेखकों द्वारा अपनी पुस्तक का लोकार्पण करा कर प्रसिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। अनेक विश्व-विद्यालयों द्वारा पीएच•डी• व डी•लिट्• की मानद उपाधि प्राप्त कर, अपने नाम से पहले डॉक्टर लगाकर, वर्षों तक मेहनत करने वालों के समकक्ष या उनसे बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर उन्हें धूल चटा सकते हैं; नीचा दिखा सकते हैं। परंतु ऐसे लोग अहंनिष्ठ होते हैं। वे कभी अपनी ग़लती कभी स्वीकार नहीं करते, बल्कि दूसरों पर आरोप-प्रत्यारोप लगा कर अहंतुष्टि कर सुक़ून पाते हैं। यह सत्य है कि जो लोग अपनी ग़लती नहीं स्वीकारते, किसी को अपना कहां मानेंगे? सो! ऐसे लोगों से सावधान रहने में ही सब का हित है।
जैसे कुएं में उतरने के पश्चात् बाल्टी झुकती है और भरकर बाहर निकलती है…उसी प्रकार जो इंसान झुकता है; कुछ लेकर अथवा प्राप्त करने के पश्चात् ही जीवन में पदार्पण करता है। यह अकाट्य सत्य है कि संतुष्ट मन सबसे बड़ा धन है। परंतु ऐसे स्वार्थी लोग और…और…और की चाह में अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं। वैसे बिना परिश्रम के प्राप्त फल से आपको क्षणिक प्रसन्नता तो प्राप्त हो सकती है, परंतु उससे संतुष्टि व स्थायी संतोष प्राप्त नहीं हो सकता। इससे भले ही आपको पद-प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाए; परंतु सम्मान नहीं मिलता। अंतत: सत्य व हक़ीक़त के उजागर हो जाने के पश्चात् आप दूसरों की नज़रों में गिर जाते हैं।
‘सत्य कभी दावा नहीं करता कि मैं सत्य हूं और झूठ सदा शेखी बघारता हुआ कहता है कि ‘मैं ही सत्य हूं। परंतु एक अंतराल के पश्चात् सत्य लाख परदों के पीछे से भी सहसा प्रकट हो जाता है।’ इसलिए सदैव मौन रह कर आत्मावलोकन कीजिए और तभी बोलिए; जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों। सो! मनन कीजिए, नमन स्वत: प्रकट हो जाएगा। जीवन में झुकने का अदब सीखिए; मानव-मात्र के हित के निमित्त समाजोपयोगी लेखन कीजिए…सब के दु:ख-दर्द की अनुभूति कीजिए। वैसे संकट में कोई नज़दीक नहीं आता, जबकि दौलत के आने पर दूसरों को आमंत्रण देना नहीं पड़ता…लोग आप के इर्दगिर्द मंडराने लगते हैं। इनसे बच के रहिए…प्राणी-मात्र के हित में सार्थक सृजन कीजिए…यही ज़िंदगी का सार है; जीने का मक़सद है। सस्ती लोकप्रियता के पीछे मत भागिए …इससे आप की हानि होगी। इसलिए सब्र व संतोष रखिए, क्योंकि वह आपको कभी भी गिरने नहीं देता… सदैव आपकी रक्षा करता है। ‘चल ज़िंदगी नयी शुरुआत करते हैं/ जो उम्मीद औरों से थी/ ख़ुद से करते हैं’… इन्हीं शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देती हूं।
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – पल्लू से आँसू पोंछे माँ…।
रचना संसार # 10 – नवगीत – पल्लू से आँसू पोंछे माँ… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’