(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य रचना – ”खुसखबरी’ की मार’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 245 ☆
☆ व्यंग्य – ‘खुसखबरी’ की मार ☆
‘हलो!’
‘हलो!’
‘जी, गप्पू दादा से बात कराइए।’
‘हम उनकी वाइफ बोल रहे हैं। वे आराम कर रहे हैं। हमें बताइए, क्या काम है? उनें बता देंगे।’
‘जी, उन्हें एक खुशखबरी देनी थी।’
‘कैसी खुसखबरी?’
‘उन्हें बताइएगा कि जुगाड़ूलाल का फोन आया था। कल शाम पाँच बजे हमें मानस भवन में मंत्री जी के हाथों से पच्चीस हजार का पुरस्कार दिया जाएगा। कार्यक्रम में गप्पू दादा पधारें तो हमें बड़ी खुशी होगी।’
‘आपने इनाम के लिए किसी से सिफारिस करायी होगी।’
‘राम राम! कैसी बातें करती हैं, भाभी! ये हमारी समाज सेवा का इनाम है।’
‘ठीक है। बधाई आपको। लेकिन उन्नें अभी कोई भी खुसखबरी देने से मना किया है।’
‘क्यों भला?’
‘पिछले दो तीन दिन में उनें तीन चार खुसखबरी मिली थीं। उनें सुनके उनकी तबियत खराब हो गयी थी। बोला है कि अभी दो तीन दिन तक उनें कोई खुसखबरी न बतायी जाए।’
‘अरे, यह तो बड़ी गड़बड़ बात है। दोस्तों को खुशखबरी नहीं देंगे तो किसे देंगे?’
‘वो ठीक है, लेकिन ज्यादा खुसखबरी सुनने से उनकी तबियत बिगड़ जाती है। उन्नें कहा है कि उनें हफ्ते में दो तीन खुसखबरी से ज्यादा न बतायी जाएं। इस्से ज्यादा खुसखबरी झेलना उनके बस में नहीं है।’
‘ठीक है, भाभी। आप जब ठीक समझें, उन्हें बताइएगा। उनकी तबियत का ध्यान रखना हमारा फर्ज है। नमस्ते।’
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 244☆ दर्शन-प्रदर्शन
आज यूँ ही विचार उठा कि समय ने मूल्यों को कितनी गति से और आमूल बदल दिया है। अपवाद तो हर समय होते हैं पर समय के विश्लेषण का मानक तो परम्परा ही होती है। दो घटनाओं के माध्यम से इसे समझने का प्रयास करेंगे।
पहली घटना लगभग चालीस वर्ष पुरानी है। बड़े भाई महाविद्यालय में पढ़ते थे। उनके एक मित्र उनसे मिलने घर आए। यह साइकिल का जमाना था। गर्मी की छुट्टियों का समय रहा होगा। वे काफी दूर से आए थे, पसीने से लथपथ थे। पानी पीने के बाद माँ से बोले, “चाची शिकंजी बनाना।” फिर पैंट की जेब में हाथ डाल कर दो नीबू निकाले और कहा, “सोचा, पता नहीं घर में नीबू होगा या नहीं। रास्ते में एक जगह नीबू दिखे तो खरीद लाया।” माँ ने उन्हीं नीबुओं से शिकंजी बनाई।
ये वे दिन थे जब जीवन को सहजता से जिया जाता था। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का दर्शन हमारे सामाजिक-जीवन का केंद्र था। समय के साथ केंद्र सरका और दर्शन को प्रदर्शन ने विस्थापित कर दिया। इस विस्थापन का एक अनुभव हुआ लगभग दस वर्ष पहले।
एक व्याख्यान के लिए दिल्ली जाना था। सम्बंधित संस्था ने आने-जाने के लिए हवाई जहाज की यात्रा का किराया देने का प्रावधान किया था। मैंने इकोनॉमी क्लास के टिकट खरीदे। एक परिचित भी उसी आयोजन में जाने वाले थे। सोचा एक से भले दो। यात्रा में साथ हो जाएगा। उनसे बात की। उन्होंने बताया कि वे एक अन्य प्रीमियम एयरलाइंस की बिजनेस क्लास से यात्रा करेंगे। बात समाप्त हो गई।… मैं दिल्ली पहुँचा। व्याख्यान हुआ। होटल में मैं और मेरे परिचित अड़ोस-पड़ोस के कमरे में ही ठहरे थे। बातचीत के दौरान किसी संदर्भ में उन्होंने आने-जाने के टिकट दिखाए। उनके टिकट भी इकोनॉमी क्लास के ही थे। उन्हें तो अपना असत्य याद नहीं रहा पर सत्य सारी परतें भेदकर बाहर आ गया।
गाड़ी के शीशे पर लिखा होता है, ‘ऑब्जेक्ट्स इन मिरर आर क्लोजर देन दे एपियर।’ सत्य भी मनुष्य के निकट ही होता है, उसे दिखता भी है पर गाड़ी के शीशे में दिखती वस्तु की भाँति वह उसे दूर मानकर उससे भागने की फिराक में रहता है। नश्वरता को शाश्वत से बड़ा मान लेने की मनुष्य की प्रवृत्ति विचित्र है। ‘लार्जर देन लाइफ’ सामान्यत: अद्वितीय सकारात्मक क्षमता के लिए प्रयोग किया जाता है। इसके मूल को नष्ट करते हुए हमने प्रदर्शन के लिए इसका प्रयोग करना आरंभ कर दिया है।
वस्तुत: जीवन जितना सादा होगा, जितना सरल होगा, जितना सहज होगा, उतना ही ईमानदार होगा। जीवन को काँच-सा पारदर्शी रखें, भीतर-बाहर एक-सा। भीतर कुछ और, बाहर कुछ और.. इस ओर-छोर का संतुलन बनाये रखने की कोशिश में बीच की नदी सूख जाती है। जीवन प्रवाह के लिए है। अपने आप को सूखने से बचाइए।
प्रकृति का एक घटक है मनुष्य। प्रकृति हरी है, जीवन हरा रहने के लिए है। पर्यावरण दिवस पर इस हरेपन का सबसे बड़ा प्रतिदान मनुष्य, प्रकृति को दे सकता है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
Anonymous Litterateur of Social Media # 191 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 191)
Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.
Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.
He is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!
English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 191
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है दोहा मुक्तिका…।)
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग – 21 – जाने किस घड़ी वक्त का बदले मिज़ाज… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
यादों से घिरा रहता हूँ, सुबह शाम ! जब जब यादें आती हैं, कितने खट्टे मीठे अनुभव याद कराती हैं और यह भी कि वक्त क्या क्या दिन दिखाता है ! आज जब चंडीगढ़ की ओर निकल रहा हूँ, तब बस स्टैंड के पास ही स्थित हरियाणा आई जी ऑफिस की याद हो आती है, जिसमें आज के दिन साहित्य अकादमी के अध्यक्ष माधव कौशिक, सुभाष रस्तोगी, उर्मिल और गार्गी तिवारी जैसे रचनाकार एक ही ऑफिस में एक साथ काम करते थे यानी पूरा आई जी ऑफिस रचनाकारों से भरा पड़ा था । जब मैंने सन् 1990 में ‘ दैनिक ट्रिब्यून’ में उप संपादक के तौर पर ज्वाइन किया, तब इन लोगों ने मुझे अपनी गोष्ठियों में बुलाना शुरू किया, यही नहीं, ऑफिस की पत्रिका में भी मेरी रचनायें प्रकाशित की जाने लगीं । ये लोग भी मुझसे मिलने ऑफिस आते रहते ! ये दिन कभी भूलने वाले नहीं । यह प्यार और सम्मान भूलने वाला नहीं ! फिर इतने वर्षों के बीच गार्गी तिवारी को हिसार की कारागार में देखने का दुखद दृश्य भी देखा । मैं किसी कवरेज के सिलसिले में कारागार गया था, महिला जेल अधीक्षक ने एक कैदी की तारीफ करनी शुरू की कि वह लेखिका है और पता नहीं उसकी बदनसीबी उसे कैसे यहाँ तक ले आई । मैंने कहा कि आप मिलवाइये उससे। उन्होंने अंदर किसी को भेजा और देखता हूँ कि मेरे सामने कैदियों के भेस में गार्गी तिबारी खड़ी है ! वह मुझे विस्फारित आंखों से देख रही थी और मैं उसे!
– क्या हुआ गार्गी? यहाँ इस हाल में कैसे?
जेल अधीक्षक ने जवाब दिया कि इस प्यारी सी गुड़िया पर अपने ही पति की हत्या का इल्जाम इसके देवर ने मढ़ दिया है !
गार्गी टप् टप् आंसू बहाये जा रही थी और मैं वहाँ से चला आया – निशब्द! क्या और कैसी सांत्वना दूं? फिर जब नया साल आया तब मैंने नीलम को कहा कि आज हम एक व्यक्ति को नया साल मुबारक करने जायेंगे । इस तरह मैं पत्नी को बिना कुछ बताये गंगवा रोड स्थित कारागार की ओर ले गया । महिला अधीक्षक को गार्गी से मिलने की इज़ाज़त मांगी । उन्होंने बुला दिया । तब मैंने कहा कि गार्गी, आज शायद तुमने सोचा भी न हो और मैंने भी कैसे सोच लिया कि गार्गी को नये साल की विश करके जायेंगे हम पति पत्नी और यह विश भी कि आपको फिर यहाँ न देखना पड़े ! इसके बाद उसी साल गार्गी सारे दोषों से मुक्त हो गयी ! फिर एक दो बार चंडीगढ़ में भी मुलाकात हुई और वह ज्योतिष यानी भविष्यवाणी करने का काम करने लगी थी । इन दिनों कहाँ है, नहीं जानता पर इंसान कहाँ से कहां पहुंच जाता है वक्त के फेर मे ! हैरान हूँ आज तक !
इतने वर्षों बाद माधव कौशिक सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते देश की सबसे बड़ी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान हुए और उपाध्यक्ष कुमुद शर्मा भी हरियाणा के आईटी हब गुरुग्राम में रहती हैं। वे प्रसिद्ध कथाकार अमरकांत की पुत्रवधू हैं और इनके पति अरूण बर्धन से ‘सारिका’ के कार्यालय में कुछ मुलाकातें हुईं रमेश बतरा के माध्यम से! खेद उन्हें कोरोना लील गया । जिन दिनों हरियाणा ग्रंथ अकादमी की पत्रिका ‘ कथा समय’ का संपादन कर रहा था , उन दिनों अमरकांत की कहानी ‘अमलतास के फूल’ प्रकाशित की थी और इनके बड़े बेटे से बातचीत भी प्रकाशित की थी ! तब एक स्तम्भ शुरू किया था कि बड़े लेखक अपनी ही संतानों की नज़र में क्या हैं और उनकी कौन सी रचना क्यों पसंद है !
पर एक सवाल जहाँ भी हरियाणा में जाता हूँ जरूर उठता है कि हरियाणा ने साहित्य अकादमी को अध्यक्ष और उपाध्यक्ष तो दिये लेकिन आज तक हरियाणा के किसी साहित्यकार को अकादमी पुरस्कार नहीं मिला ! यह भी एक अलग तरह का कीर्तिमान कहा जा सकता है !
सुभाष रस्तोगी आजकल जीरकपुर में रहते हैं और उनकी कहानियाँ ‘कथा समय ‘ में भी लीं, खासतौर पर दिल्ली के रेप केस पर आधारित ‘सात पैंतालिस की बस ‘ जो मुझे बहुत पसंद आई ! वैसे रस्तोगी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं और प्रमुख कवियों में एक! ‘साक्षी’ नाम से सहित्यिक संस्था भी चलाते रहे!
माधव कौशिक और कुमुद शर्मा के छोटे छोटे साक्षात्कार भी मैंने इनके साहित्य अकादमी के लिए चुने जाने के बाद किये!
शायद आज इतना ही काफी! यह कहते हुए कि अच्छे और बुरे दिन सब पर आते हैं लेकिन अपने दिनों को भूलना नहीं चाहिए और न ही संबंधों को क्योंकि
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “मिलकर भी तुम तो मिल नहीं पाती हो…” ।)
ग़ज़ल # 125 – “मिलकर भी तुम तो मिल नहीं पाती हो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना – “आदमी कितना भोला है, नादान है…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा # 180 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – आदमी कितना भोला है, नादान है… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
☆
आदमी कितना भोला है, नादान है ।
कोरे सपनों से अपने परेशान है ।।
*
देखते सपने दिन रात उसके नयन सपनों में सदा रहता है अक्सर मगन ।
सपनों में खोया, खुद से पै अनजान है ।। १ ।।
*
सपने आते उसे, सपने भाते उसे किन्तु सपने ही अक्स रुलाते उसे ।
सिर्फ सपनों में जीना न आसान है ।। २ ।।
*
सपनों का बड़ा रंगीन संसार है इंद्रधनुषी है, लेकिन निराधार है ।
कड़ी धरती का कम उसको अनुमान है ।। ३ ।।
*
स्वप्न वे ही भले जो कि साकार हों ठोस जिनके कहीं कोई आधार हों ।
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ख्वाब : बहुत लाजवाब… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 235 ☆
☆ ख्वाब : बहुत लाजवाब… ☆
‘जो नहीं है हमारे पास/ वो ख्वाब है/ पर जो है हमारे पास/ वो लाजवाब है’ शाश्वत् सत्य है, परंतु मानव उसके पीछे भागता है, जो उसके पास नहीं है। वह उसके प्रति उपेक्षा भाव दर्शाता है, जो उसके पास है। यही है दु:खों का मूल कारण और यही त्रासदी है जीवन की। इंसान अपने दु:खों से नहीं, दूसरे के सुखों से अधिक दु:खी व परेशान रहता है।
मानव की इच्छाएं अनंत है, जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती चली जाती हैं और सीमित साधनों से असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। इसलिए वह आजीवन इसी उधेड़बुन में लगा रहता है और सुक़ून भरी ज़िंदगी नहीं जी पाता। सो! उन पर अंकुश लगाना अनिवार्य है। मानव ख्वाबों की दुनिया में जीता है अर्थात् सपनों को संजोए रहता है। सपने देखना तो अच्छा है, परंतु तनावग्रस्त रहना जीने की ललक पर ग्रहण लगा देता है। खुली आंखों से देखे गए सपने मानव को प्रेरित करते हैं करते हैं, उल्लसित करते हैं और वह उन्हें साकार रूप प्रदान करने में अपना सर्वस्व झोंक देता है। उस स्थिति में वह आशान्वित रहता है और एक अंतराल के पश्चात् अपने लक्ष्य की पूर्ति कर लेता है।
परंतु चंद लोग ऐसी स्थिति में निराशा का दामन थाम लेते हैं और अपने भाग्य को कोसते हुए अवसाद की स्थिति में पहुंच जाते हैं और उन्हें यह संसार दु:खालय प्रतीत होता है। दूसरों को देखकर वे उसके प्रति भी ईर्ष्या भाव दर्शाते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें अभावों से नहीं; दूसरों के सुखों को देख कर दु:ख होता है–अंतत: यही उनकी नियति बन जाती है।
अक्सर मानव भूल जाता है कि वह खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। यह संसार मिथ्या और मानव शरीर नश्वर है और सब कुछ यहीं रह जाना है। मानव को चौरासी लाख योनियों के पश्चात् यह अनमोल जीवन प्राप्त होता है, ताकि वह भजन सिमरन करके अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सके। परंतु वह राग-द्वेष व स्व-पर में अपना जीवन नष्ट कर देता है और अंतकाल खाली हाथ जहान से रुख़्सत हो जाता है। ‘यह किराये का मकान है/ कौन कब तक रह पाएगा’ और ‘यह दुनिया है एक मेला/ हर इंसान यहाँ है अकेला’ स्वरचित गीतों की ये पंक्तियाँ एकांत में रहने की सीख देती हैं। जो स्व में स्थित होकर जीना सीख जाता है, भवसागर से पार उतर जाता है, अन्यथा वह आवागमन के चक्कर में उलझा रहता है।
जो हमारे पास है; लाजवाब है, परंतु बावरा इंसान इस तथ्य से सदैव अनजान रहता है, क्योंकि उसमें आत्म-संतोष का अभाव रहता है। जो भी मिला है, हमें उसमें संतोष रखना चाहिए। संतोष सबसे बड़ा धन है और असंतोष सब रोगों का मूल है। इसलिए संतजन यही कहते हैं कि जो आपको मिला है, उसकी सूची बनाएं और सोचें कि कितने लोग ऐसे हैं, जिनके पास उन वस्तुओं का भी अभाव है; तो आपको आभास होगा कि आप कितने समृद्ध हैं। आपके शब्द-कोश में शिकायतें कम हो जाएंगी और उसके स्थान पर शुक्रिया का भाव उपजेगा। यह जीवन जीने की कला है। हमें शिकायत स्वयं से करनी चाहिए, ना कि दूसरों से, बल्कि जो मिला है उसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए। जो मानव आत्मकेंद्रित होता है, उसमें आत्म-संतोष का भाव जन्म लेता है और वह विजय का सेहरा दूसरों के सिर पर बाँध देता है।
गुलज़ार के शब्दों में ‘हालात ही सिखा देते हैं सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह होता है।’
हमारी मन:स्थितियाँ परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं। यदि समय अनुकूल होता है, तो पराए भी अपने और दुश्मन दोस्त बन जाते हैं और विपरीत परिस्थितियों में अपने भी शत्रु का क़िरदारर निभाते हैं। आज के दौर में तो अपने ही अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं, उन्हें तक़लीफ़ पहुंचाते हैं। इसलिए उनसे सावधान रहना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए जीवन में विवाद नहीं, संवाद में विश्वास रखिए; सब आपके प्रिय बने रहेंगे। जीवन में इच्छाओं की पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म में सामंजस्य रखना आवश्यक है, अन्यथा जीवन कुरुक्षेत्र बन जाएगा।
सो! हमें जीवन में स्नेह, प्यार, त्याग व समर्पण भाव को बनाए रखना आवश्यक है, ताकि जीवन में समन्वय बना रहे अर्थात् जहाँ समर्पण होता है, रामायण होती है और जहाल इच्छाओं की लंबी फेहरिस्त होती है, महाभारत होता है। हमें जीवन में चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए। स्व-पर, राग-द्वेष, अपेक्षा-उपेक्षा व सुख-दु:ख के भाव से ऊपर उठना चाहिए; सबकी भावनाओं को सम्मान देना चाहिए और उस मालिक का शुक्रिया अदा करना चाहिए। उसने हमें इतनी नेमतें दी हैं। ऑक्सीजन हमें मुफ्त में मिलती है, इसकी अनुपलब्धता का मूल्य तो हमें कोरोना काल में ज्ञात हो गया था। हमारी आवश्यकताएं तो पूरी हो सकती हैं, परंतु इच्छाएं नहीं। इसलिए हमें स्वार्थ को तजकर,जो हमें मिला है, उसमें संतोष रखना चाहिए और निरंतर कर्मशील रहना चाहिए। हमें फल की इच्छा कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जो हमारे प्रारब्ध में है, अवश्य मिलकर रहता है। अंत में अपने स्वरचित गा त की पंक्तियों से समय पल-पल रंग बदलता/ सुख-दु:ख आते-जाते रहते है/ भरोसा रख अपनी ख़ुदी पर/ यह सफलता का मूलमंत्र रे। जो इंसान स्वयं पर भरोसा रखता है, वह सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है। इसलिए इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि जो नहीं है, वह ख़्वाब है; जो मिला है, लाजवाब है। परंतु जो नहीं मिला, उस सपने को साकार करने में जी-जान से जुट जाएं, निरंतर कर्मरत रहें, कभी पराजय स्वीकार न करें।
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – व्याकुल प्यासे हैं चातक…।
रचना संसार # 10 – नवगीत – व्याकुल प्यासे हैं चातक… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’