हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – जीवनोत्सव — कवयित्री – गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय — ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 22 ?

? जीवनोत्सव  — कवयित्री – गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम : जीवनोत्सव

विधा – कविता

कवयित्री – गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय

प्रकाशन – क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? अस्तित्व का उत्सव : जीवनोत्सव  श्री संजय भारद्वाज ?

दर्शन कहता है कि दृष्टि में सृष्टि छिपी है। किसीकी दृष्टि में जीवन बोझिल है तो किसीके लिए मनुष्य जीवन का हर क्षण एक उत्सव है। बकौल ओशो, मनुष्य का पूरा अस्तित्व ही एक उत्सव है।

अस्तित्व के इस उत्सव में भी दृष्टि पुन: अपनी भूमिका निभाती है। किसी के लिए पात्र, जल से आधा भरा है, किसीके लिए पात्र आधा रिक्त है। रिक्त में रिक्थ देख सकने का भाव ही अस्तित्व की उत्सवधर्मिता का सम्मान करना है। यह भाव बिरलों को ही मिलता है। शिक्षिका-कवयित्री गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय इस भाव की धनी हैं। प्रस्तुत कवितासंग्रह का लगभग हर पृष्ठ  इसका साक्षी है।

गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय का यह प्रथम कविता संग्रह है। वे जीवन के हर पक्ष में हरितिमा की अनुभूति करती हैं। अनुभूति को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली माँ शारदा की वंदना से संग्रह का आरम्भ होता है।

*मुक्तकों, छंदों में, गीतों में, मेरी कविताओं में,

भावों को उत्थान दे पाती कृपा तेरी है,

होकर ॠणी, बन कर कृतज्ञ, हर कण को, सृष्टि के

सदा, हृदय से सम्मान दे पाती कृपा तेरी है।*

सृष्टि के हर कण को सम्मान देने की बात महत्वपूर्ण है। वस्तुतः सृष्टि में हर चराचर अनुपम है। अतः हर इकाई, हर व्यक्ति आदर का पात्र है।

*बस तुम ही तुम हो तो फिर क्या तुम हो?

बस हम ही हम हैं तो फिर क्या हम हैं?

समग्रता से ही संपूर्णता है,

दोनों की सत्ता सिमटे तो हम हैं।*

अनुपमेयता का यह सूत्र कुछ यूँ सम्मान पाता है।

*सबका अपना विकास है ,

सबकी अपनी गति है।

खिलते अपने समय सभी,

सबकी अपनी उन्नति है।*

सबके खिलने में ही, उत्सव का आनंद है। ‘जीवनोत्सव’ इंद्रधनुषी है। इस इंद्रधनुष में सबसे गहरा रंग प्रकृति का है।

यत्र-तत्र सर्वत्र खिले हैं,

न-उपवन, हर डाली

वसुधा की शोभा तो देखो,

अद्भुत छटा निराली!

वयित्री गहन प्रकृति प्रेमी हैं। पर्यावरण का निरंतर हो रहा विनाश हर सजग नागरिक की चिंता और वेदना का कारण है। स्वाभाविक है कि यह वेदना कवयित्री की लेखनी से शब्द पाती-

जो मुफ़्त है और प्राप्त है,

अक्सर वही अज्ञात है।

अभिशप्त ना कर दो उसे,

जो मिल रही सौगात है।

सनातन दर्शन काया को पंचमहाभूतों से निर्मित बताता है। जीवन के लिए अनिवार्य इन महाभूतों को प्रकृति ने नि:शुल्क प्रदान किया है। मनुष्य द्वारा, प्राणतत्वों का आत्मघाती विनाश अनेक प्रश्न उत्पन्न करता है-

इतिहास ना बन जाएँ संसाधन,

प्राप्त का अब तो करें अभिवादन,

ऐसा ना हो मानव की अति से,

दूभर हो इस वसुधा पर जीवन।

वसुधा और वसुधा पर जीवन बचाने का आह्वान कभी प्रश्नवाचक  तो कभी विधानार्थक रूप में आकर झिंझोड़ता है-

इतनी सुंदर धरा को सोचो

यदि हम नहीं बचाएँगे-

तो क्या छोड़ कर जाएँगे,

क्या छोड़ कर जाएँगे?

……………………….

बंद करो दूषण का नर्तन,

बंद करो विकृति का वर्तन।

कसो कमर हे युग-निर्माता,

करने को अब युग परिवर्तन!

कवयित्री शिक्षिका हैं। उनके चिंतन के केंद्र में विद्यार्थी का होना स्वाभाविक है। संग्रह की अनेक कविताओं में विद्यार्थियों के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष संदेश हैं। कुछ बानगियाँ देखिए-

स्मरण रहे तुम्हें,

तुम्हारा जीवन स्वयं एक उत्सव है!

इस उत्सव की अलख

सदा अपने भीतर जलाए रखना…!

अपने वर्तमान में उत्साह का एक बीज उगाए रखना!

इस ‘जीवनोत्सव’ को सदा अपने अंदर मनाए रखना…

……………………….

तुम्हारे कर्म से ही तेज

फैलेगा उजाले-सा,

स्वयं ही सिद्ध, होकर पूर्ण,

छलकोगे जो प्याले-सा!

विद्यार्थियों को संदेश देने वाली कवयित्री को अपने शिक्षकों, गुरुओं का स्मरण न हो, ऐसा नहीं हो सकता। गुरुजनों के प्रति यह मान ‘कृतज्ञ’ कविता में प्रकट हुआ है।

मायका स्त्री-जीवन का नंदनवन है। मायके की स्मृतियाँ, स्त्री की सबसे बड़ी धरोहर हैं। पिता को संबोधित कविता, ‘पापा, अब मैं सब्ज़ी काट लेती हूँ’, स्मृतियों में बसी अल्हड़ युवती से परिपक्व माँ होने की यात्रा है। परिपक्वता माता-पिता के प्रति यूँ सम्मान प्रकट करती है-

माता-पिता बड़े स्वार्थी होते हैं,

एक नींद के लिए ही,

वे सारे ख़्वाब पिरोते हैं।

नींद उन्हें यह, तब ही आया करती है,

जब उनके बच्चे, संतुष्ट हो सोते हैं!

स्त्रीत्व, विधाता का सर्वोत्तम वरदान है। तथापि स्त्री होना, दूब-सा निर्मूल होकर पुन: जड़ें जमाना, पुन: पल्ववित होना है। स्त्रीत्व का यह सदाहरी रंग देखिए-

सूखकर फिर से

हरी हो जाती है यह दूब,

विछिन्न होकर फिर से

भरी हो जाती है यह दूब!

स्त्री के अपरिमेय अस्तित्व की यह सारगर्भित व्याख्या देखिए-

मैं, मेरे शब्दों से आगे,

और मेरे रूप से परे हूँ,

क्या मेरे मौन से आगे भी

पढ़ सकते हो मुझे?

स्त्री का मौन भी अथाह है। इस अथाह का श्रेय भी स्वयं न लेकर वह अपने जीवनसंगी को देती है। यही स्त्री के प्रेम की उत्कटता है। नेह की यह अभिव्यक्ति देखिए-

कहूंँ या ना कहूंँ तुमसे,

रखना स्मरण यह तुम।

मेरे मौन में तुम हो,

मेरी हर व्यंजना में हो।

हर पूजा में तुम हो..!

नेह किसीको अपना जैसा बनाने के लिए नहीं, अपितु जो जैसा है, उसे वैसा स्वीकार करने के लिए होता है। विश्वास को साहचर्य का सूत्र बताती ये पंक्तियाँ अनुकरणीय हैं-

ख़ूबी का क्या, ख़ामी का क्या,

तुझ में भी है, मुझ में भी है,

बस प्रेम में ही विश्वास रहे,

हर बात टटोला नहीं करते!

संग्रह की दो कविताएँ आंचलिक बोली में हैं। इनमें भी पौधा लगाने की बात है। आज जब आभिजात्य पैसा बोने में लगा है, लोक ही है जो पौधा उगा रहा है, पेड़ बढ़ा रहा है, पर्यावरण बचा रहा है। लोकभाषा और पर्यावरण दोनों का संवर्धन करता आंचलिक बोली का यह पुट इस संग्रह की पठनीयता में गुड़ की मिठास घोलता है।

देहावस्था का प्राकृतिक चक्र अपरिहार्य है, हरेक पर लागू होता है। समय के प्रवाह में वृद्ध व्यक्ति शनैः-शनै: घर, परिवार, समाज द्वारा उपेक्षित होने लगता है। आनंद की बात है कि इस संग्रह में दादी, नानी के लिए कविता है, अनुभव की घनी छाँव में बैठने का संदेश है-

पास बैठा करो उनके भी तुम कभी

आते जाते मिलेंगी दुआएंँ कई।

देख कर ही तुम्हें जीते हैं वे, सुनो!

उनकी मौजूदगी में शिफ़ाएंँ कई!

कविता अवलोकन से उपजती है। अवलोकन, संवेदना को जगाता है। संवेदना, अनुभूति में बदलती है, अनुभूति अभिव्यक्ति बनकर बहती है। सहज शब्दों में वर्णित कथ्य में बसा कवित्व, मन के कैनवास पर अ-लिखे सुभाषित-सा अंकित हो जाता है-

अपने घोसले

खोने के डर से,

उसी में छुपती,

वह डरी चिड़िया!

बुज़ुर्गों के साथ नौनिहालों पर पर केंद्रित कुछ बाल कविताएँ भी इसी संग्रह में पढ़ने को मिल जाएँगी। इस तरह हर पीढ़ी को कुछ दे सकने का प्रयास संग्रह की कविताओं के माध्यम से किया गया है। 

प्रस्तुत कविताओ में आस्था के रंग हैं, रिश्तों की चर्चा है, शिक्षकों की समस्याओं पर ध्यानाकर्षण है। पर्यावरण, विद्यार्थी, स्त्री तो मुख्य स्वर हैं ही। जीवन के अनेक रंगों का यह समुच्चय इस संग्रह को जीवनोत्सव में परिवर्तित कर देता है।

गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय लिखती रहें, पर्यावरण के संवर्धन के लिए कार्य करती रहें, यही कामना है। आशा है कि जीवनोत्सव के अन्य कई रंग भी भविष्य में उनकी आनेवाली पुस्तकों में देखने को मिलेंगे। अनेकानेक शुभाशंसाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #31 – गीत – भावों की बहती सुरसरिता… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतभावों की बहती सुरसरिता

? रचना संसार # 31 – गीत – भावों की बहती सुरसरिता…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

☆ 

भावों की बहती सुरसरिता,

कमल पुष्प से हम खिल जाते।

पूनम की संध्या बेला में,

सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।

 *

प्रीत सुधा रसधारा बहती,

घोर अमावस भी छट जाती।

उजियारा फिर जग में होता,

पूनम की ये रात सुहाती।।

मधुरिम बोल मधुर धुन सुनते,

पुष्प देवता भी बरसाते।

 *

भावों की बहती सुरसरिता,

कमल पुष्प से हम खिल जाते।।

 *

पावन छुअन सजन की पाकर,

अंग- अंग संदल हो जाता।

धरती अंबर से मिल जाती,

झंकृत रोम -रोम हो जाता।।

अलि करते गुंजार मनोहर,,

सजन लाज से हम सकुचाते।

 *

भावों की बहती सुरसरिता,

कमल पुष्प से हम खिल जाते।।

 *

 मादक इन नयनों में खोकर,

 छंद छंद रस गागर भरता।

 आल्हादित कण- कण हो जाता,

 अलंकार से सृजन निखरता।।

 रति सा सुंदर रूप देखकर ,

 कामदेव बन मुझे लुभाते ।

 *

भावों की बहती सुरसरिता,

कमल पुष्प से हम खिल जाते।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #258 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 258 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

 लिख मैंने तुमको दिया, अपने दिल का राज।

देख रहे हम बाट यों, उत्तर मिला न आज।।

*

पाती तेरे नाम की , आई पढ़कर लाज।

मिलने को बैचेन हैं, आओ अब सरताज।।

*

घर में सबसे कह दिया, अपने दिल का हाल।

हमें प्रिया से प्यार है, ब्याह करें इस साल ।।

*

वो दिन भी अब आ रहा, नहीं मानना  हार।।

सबको दूँगा एक दिन, दुल्हन का उपहार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #240 ☆ एक बुंदेली पूर्णिका – तुम कांटों की बात करो मत… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी – एक बुंदेली पूर्णिका – तुम कांटों की बात करो मत…  आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 240 ☆

☆ एक बुंदेली पूर्णिका – तुम कांटों की बात करो मत… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

तुमने   झूठी       दई    दुहाई

लुटिआ  प्रेम की  खूब  डुबाई

*

तुम   कांटों की  बात करो मत

चोट   फूल    की  हमने  खाई 

*

धोखा   बहुतई  खा  लये हमने

देब   तुमहि   ने   कोई    बुराई

*

जोन  खों समझो  हमने अपनों

हो    गई    देखो   वोई    पराई

*

खूब   करो   विस्वास  सबई  पै

दुनियादारी   समझ    ने    पाई

*

झूठ-कपट   को   ओढ़   लबादा

तुमने     ऐसी     नीत     निभाई

*

भोलो  सो   “संतोष”   तुम्हे   जा

बात   समझ   में   देर   सें   आई

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “ढुंढते रह जाओगे…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “ढुंढते रह जाओगे…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

नका गडे पुन्हा पुन्हा असे डोळे मोठे मोठे करून माझ्याकडे पाहू… तुमचं तर रोजच ऐकतं असते बिनबोभाट पण माझं ऐकताना किती करता हो बाऊ… नाकी डोळी नीटस, घाऱ्या डोळ्यांची, गोऱ्या रंगाची.. शिडशिडीत बांध्याची पाहून तुम्ही भाळून गेला मजवरती… क्षणाचा विलंब न लावता मुलगी पसंत आहे आपल्या होकाराची दिली तुम्हीच संमती… पण लग्नाच्या बाजारात आम्हा बायकांना आयुष्याचा जोडीदार निवडायचा इतकं का सोपं असते ते… घरदार, शेतीभाती, शिक्षण नोकरी, घरातली नात्यांची किती असेल खोगीर भरती… आणि आणि काय काय प्रश्नांची जंत्री… वेळीच सगळ्या गोष्टींचा करून घ्यावा लागतोय खुलासा वाजण्यापूर्वी सनई नि वाजंत्री… तशी कुठलीच गोष्ट आम्हाला मनासारखी समाधान कारक मिळत नसतेच हाच असतो आम्हा बायकांचा विधीलेख.. साधी साडी घ्यायचं तरी दहा दुकानं पालथी करते.. रंग आहे तर काठात मार खाते… पोत बरा पण डिझाईन डल वाटते… किंमती भारी पण रिचनेस कमी वाटतो… समारंभासाठी मिरवायला छान एकच वेळा मग त्यानंतर तिचं पोतेरंच होणार असतं… आणि शेवटी मग साडी पसंत होते मनाला मुरड घालून… चारचौघी भेटल्यावर साडीचं करतात त्या कौतुक तोंडावर पण मनात होते माझी जळफळ गेला गं बाई हिला आता दृष्टीचा टिळा लागून… जी बाई आपल्या एका साडी खरेदीसाठी इतका आटापिटा करते आणि शेवटी जी खरेदी करते तिला नाईलाजाने का होईना पण पसंत आहे आवडली बरं अशी आपल्याला मनाची समजूत घालावी लागते… अहो तेच नवरा निवडताना, अगदी तसंच होतं.. त्यांच्या पसंतीला उतरले हिथचं आम्ही अर्धी लढाई जिंकलेली असते… मग पसंत आहे आवडला बरं अशी आपल्याला मनाची समजूत घालावी लागते. काय करणार पदरी पडलं पवित्र झालं हेच करतो मग मनाचं समाधान… त्याच गोष्टीचा करतो मगं हुकमाचा एक्का. आणि रोजच्या धबडग्यात देतो टक्का… मी महणून तुमच्या शी लग्न केलं आणि कोणी असती तर तुमच्याकडे ढुंकूनही पाहिलं नसतं… तेव्हा बऱ्या बोलानं गोडी गुलाबीनं माझ्याशी वागावं नाही तर चिडले रागावले तर रुसून कायमची निघून जाईन माहेराला कितीही काढल्या नाकदुऱ्या तुम्ही तर मी काही परत यायची नाही… कळेल तेव्हा बायकोची खरी किंमत…. दुसऱ्या लाख शोधालात तरीही माझ्यासारखी मिळायची नाही तुम्हाला. हथेलीपर हाथ रखे ढुंढते रह जाओगे मैके के चोखटपर…

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ‘माझी शिदोरी… सायकलींचं शहर..’ भाग-१० ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆

सौ राधिका – माजगावकर- पंडित

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☆ ‘माझी शिदोरी…सायकलींचं शहर..’ भाग-१० ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

सायकलींचं शहर..

50, 60 वर्षांपूर्वी पुण्याच्या चार लाखाच्या वस्तीत एक लाखाच्या वर नुसत्या सायकलीचं होत्या. प्रत्येक घरात दोन तरी सायकली असायच्या. मुला मुलींचा कॉलेज प्रवास सुरू झाला तो सायकली वरूनच नव्या सायकलीला 110 ते 140 रुपये किंमत असायची पण अहो!सर्वसामान्यांसाठी ही पण किंमत खूप होती. कशीतरी जोडाजोडी करून, काही वडिलांच्या पगारातून, थोडे आईच्या सांठवलेल्या हिंगाच्या डबीतून तर थोडे स्वकष्टाचे दूध, पेपर टाकून मिळवलेल्या पैशाची जोडणी करून रु50, 60 उभे करायचे आणि सेकंड हॅन्ड सायकल दारात यायची. त्याच्यातही समाधान मानणारी ती पिढी होती. लेखक डॉ एच वाय कुलकर्णी त्यांच्या लेखात गमतीदार किस्सा लिहितात 1955 साली श्रीअंतरकरांकडून मी सायकल घेतली, ती तब्बल 30 वर्ष वापरलेली होती त्यानंतर मी ती 1960 सालापर्यंत वापरली त्यावेळी कॉर्पोरेशनला वार्षिक टॅक्स अडीच रुपये असायचा मग पत्र्याच्या बिल्ला मिळायचा तो सायकलला लावला नाही तर कॉर्पोरेशनच्या लोकांच्या तावडीत सायकल स्वार सहज पकडला जायचा. भर दिवसाची ही कथा तर रात्रीची वेगळीच कहाणी, रात्री रॉकेलचा दिवा हवाच. तो दिवा सायकल खड्ड्यात गेली की डोळे मिटत असे. मग काय सगळाच अंधकार. आणि मग पोलिसांनी अडवल्यावर कष्टाने सांठवलेले अडीचशे रुपये रडकुंडीला येऊन पोलिसांच्या स्वाधीन करावे लागायचे..

मोहिमेवर जाणारी पेशवाई कारकीर्द संपून पुण्याच्या परिसरातील त्यांची घोडदौड संपुष्टात आली आणि पुण्याच्या रस्त्यावर टांग्याच्या घोड्याच्या टापा सुरू झाल्या. प्रमुख साधन म्हणून हजारभर टांगे पुण्यात फिरू लागले विश्रामबाग वाडा आणि सदाशिव पेठ हौद चौकात दत्त उपहारगृहाजवळ टांगा स्टॅन्ड असायचा, बाजीराव रोड वरून नू. म. वि. पर्यन्त आल्यावर आनंदाश्रम ते आप्पा बळवंत चौक हा रस्ता इतका अरुंद आणि गर्दीचा होता की समोरून बस आली तर येणाऱ्या सायकल स्वाराला उडी मारून बाजूलाच व्हावं लागायचं.

1953 पासून टांग्याचा आकडा घसरला आणि रिक्षाचा भाव वधारला.

1960 नंतर आली बजाजची व्हेस्पा स्कूटर, मग स्कूटरची संख्या वाढून सायकलचा दिमाख आटोपला. त्यात पीएमटी बसने भर टाकली. बस भाडं कमी, पुन्हा सुरक्षित, आरामात प्रवास.. मग टांगेवाल्यांना टांग मिळून सायकल स्वारही तुरळक झाले.

पण काही म्हणा हं ! इतर नावाच्या बिरुदाबरोबर पुण्याला सायकलीचं शहर हे नांव पडलं होतं त्या काळी. आत्ताच्या काळात मात्र गाड्यांच्या गर्दीतून सुळकांडी मारून पुढे जाणारा विजयी वीर क्वचितच दिसतो. आणि हो ! एखादा ज्येष्ठ नागरिक तरुणाला लाजवेल अशा चपळाईने सायकल स्वार झालेला आजही दिसतो. पण असं काही असलं तरी तेंव्हांची मजा काही औरच होती.

तर मंडळी आपण ही आठवणींची ही शिदोरी घेऊन सायकलवरून फेरा मारूया का?

– क्रमशः… 

© सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १७ — श्रद्धात्रयविभागयोगः — (श्लोक ११ ते २०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १७ — श्रद्धात्रयविभागयोगः — (श्लोक ११ ते २0) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते । 

यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥ ११ ॥

*

शास्त्रोक्त यज्ञ कर्तव्य निष्काम कर्म बुद्धीने

सात्विक तो यज्ञ संपन्न समाधानी वृत्तीने ॥११॥

*

अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्‌ । 

इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्‌ ॥ १२ ॥

*

प्रयोजन फलप्राप्तीचे अथवा केवळ दिखाव्याचे

ऐश्या यज्ञा भरतश्रेष्ठा राजस म्हणून जाणायाचे ॥१२॥

*

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्‌ । 

श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ १३ ॥

*

नाही विधी ना अन्नदान, मंत्र नाही दक्षिणा

श्रद्धाहीन यज्ञा ऐशा तामस यज्ञ जाणा ॥१३॥

*

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌ । 

ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ १४ ॥

*

देव ब्राह्मण गुरु ज्ञानी यांची पवित्र आर्जवी पूजा

ब्रह्मचर्य अहिंसा आचरत हे शारीरिक तप कुंतीजा ॥१४॥

*

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्‌ । 

स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥ १५ ॥

*

प्रिय हितकारक यथार्थ क्लेशहीन भाषण

वेदपठण नामस्मरण हे तप वाणीचे अर्जुन ॥१५॥

*

मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः । 

भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ १६ ॥

*

प्रसन्न मन शांत स्वभाव आत्मनिग्रह मौन

पवित्र मानसे भगवच्चिंतन मानस तप जाण ॥१६॥

*

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः । 

अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥१७॥

*

निष्काम वृत्ती श्रद्धाभावे आचरण ही त्रयतप

जाणुन घेई धनंजया तू हेचि सात्विक तप ॥१७॥

*

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्‌ । 

क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्‌ ॥ १८ ॥

*

इच्छा मनी सत्काराची सन्मानाची वा स्वार्थाची

तप पाखंडी हे राजस प्राप्ती क्षणभंगूर फलाची ॥१८॥

*

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः । 

परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्‌ ॥ १९ ॥

*

मन वाचा देहाला कष्टद मूढ हेकेखोर तप

दूजासि असते अनिष्ट जाणी यासी तामस तप ॥१९॥

*

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे । 

देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्‌ ॥ २० ॥

*

दानात नाही उपकार कर्तव्यास्तव दान

देशा काला पात्रा दान तेचि सात्त्विक दान ॥२०॥

 

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 30 – इमोशनल आईसीयू ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना इमोशनल आईसीयू)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 30 – इमोशनल आईसीयू ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

यह कहानी उस दिन की है जब पीताम्बर चौबे अपनी आखिरी सांस लेने के लिए जिले के सबसे ‘प्रसिद्ध’ सरकारी अस्पताल, भैंसा अस्पताल में भर्ती हुए। डॉक्टरों ने कहा था, “बस कुछ और दिनों की बात है, इलाज जरूरी है।” चौबे जी ने सोचा था, चलो सरकारी अस्पताल में जाकर इलाज करवा लेते हैं, पैसे भी बचेंगे और सरकारी व्यवस्था का लाभ भी मिलेगा। मगर क्या पता था कि यहाँ ‘एक्सपायर्ड’ का भी सरकारी प्रोटोकॉल है!

चौबे जी जब अस्पताल के वार्ड में पहुंचे, तो पहले ही दिन डॉक्टर साहब ने बताया, “ये सरकारी अस्पताल है, इमोशन्स का कोई स्कोप नहीं है। हम यहां इलाज करते हैं, बस।”

फिर वह दिन आया, जब पीताम्बर चौबे जी ने अस्पताल के बिस्तर पर आखिरी सांस ली। उनके बगल में खड़ी उनकी गर्भवती पत्नी, संध्या चौबे की दुनिया मानो थम सी गई। लेकिन अस्पताल में तो हर चीज़ ‘मैनेज’ होती है, और इमोशन्स का यहाँ कोई ‘कंसर्न’ नहीं होता। इधर चौबे जी का प्राणांत हुआ और उधर हेड नर्स, शांता मैडम, स्टाफ की भीड़ के साथ वार्ड में आ धमकीं। चेहरा ऐसा, मानो कोई ‘अल्टीमेट हाइजीन चेक’ करने आई हों।

“अरे संध्या देवी! ये बिस्तर साफ करो पहले। यहाँ पर्सनल लूज़ मोमेंट्स का कोई कंसेप्ट नहीं है, ओके? जल्दी क्लीनिंग करो,” नर्स ने एकदम हुक्मनामा सुना दिया। मानो चौबे जी ने सिर्फ एक बिस्तर गंदा किया हो, न कि अपनी जान गंवाई।

संध्या चौबे, जो अपने पति की मौत के गम में डूबी थीं, पर अस्पताल में संवेदनाएँ सिर्फ पब्लिक डिस्प्ले ऑफ इमोशन्स होती हैं। वह तो सरकारी दस्तावेज़ों में एक ‘इवेंट’ हैं, जिसे खत्म होते ही हटा देना होता है। नर्स ने जैसे ही अपना ‘ऑर्डर’ दिया, संध्या की आँखों से आँसू निकल पड़े। उसने बिस्तर की तरफ देखा, मानो अपने पति की आखिरी निशानी को आखिरी बार देख रही हो। लेकिन अस्पताल का स्टाफ मानो एकदम प्रोग्राम्ड मशीन हो, जिसका इमोशन्स से कोई वास्ता ही नहीं।

“मैडम, आँसू बहाने से कुछ नहीं होगा। ये सरकारी अस्पताल है, यहाँ आप ‘एमोशनल अटैचमेंट’ भूल जाइए,” हेड नर्स शांता बोलीं, मानो हर दिन किसी को उसकी भावनाएँ गिनाना उनका रोज का ‘डिपार्टमेंटल प्रोटोकॉल’ हो।

तभी डॉक्टर नंदकिशोर यादव साहब आते हैं, अपने हाथ में नोटपैड लिए हुए, और ऐलान करते हैं, “हमें यहाँ बिस्तर की क्लीनिंग चाहिए। इमोशन्स का यहाँ कोई स्कोप नहीं है। सरकारी बिस्तर पर बस पसीने और खून के दाग चलेंगे, आँसुओं का कोई प्लेस नहीं है।”

संध्या ने डॉक्टर की तरफ देखा। शायद कुछ कहने का प्रयास किया, लेकिन एक ऐसा दर्द, जो शब्दों में नहीं आ सकता। और डॉक्टर यादव ने एक और ‘प्रोफेशनल’ गाइडलाइन दी, “देखिए, यहाँ नया पेशेंट एडमिट करना है। ये अस्पताल है, आपका पर्सनल इमोशनल जोन नहीं!”

तभी सफाई कर्मी हरिचरण सिंह आते हैं, अपने कंधे पर झाड़ू और हाथ में एक पुरानी बाल्टी लिए हुए। “अरे भाभीजी! चलिए, जल्दी फिनिश करें, हमें भी अपना काम निपटाना है। यहाँ ये ‘इमोशनल ड्रामा’ का टाइम नहीं है।”

हरिचरण सिंह का डायलॉग सुनते ही नर्स शांता जोर से हंस पड़ीं, “देखो भई, हार्डवर्किंग स्टाफ है हमारा। भाभीजी, ये आँसू आपकी अपनी ‘पर्सनल केमिकल’ हैं, लेकिन यहाँ पब्लिक हाइजीन का प्रोटोकॉल है। अगर ऐसे ही चलता रहा तो ये अस्पताल एक ‘इमोशनल पार्क’ बन जाएगा!”

संध्या चौबे को यह भी फरमान सुनना पड़ा कि उनके आँसू इस सरकारी बिस्तर की ‘प्योरिटी’ को खराब कर सकते हैं। मानो उनके पति की मौत और इस बिस्तर का ‘सैनिटाइजेशन’ एक ही मुद्दा हो। “ये बेड क्या मंदिर की मूर्ति है, जो उसकी पवित्रता बनाए रखनी है?” संध्या सोचने लगीं। लेकिन कौन सुने? यहाँ सबको सिर्फ काम का ‘आउटकम’ चाहिए था।

बिस्तर, जो किसी के आखिरी पल का गवाह बना, अब उसकी पहचान एक ‘डर्टी गारमेंट’ के रूप में बदल गई। चौबे जी का दुःख, उनकी मौत का दर्द, बस स्टाफ की भाषा में एक ‘मैनेजमेंट टास्क’ था, जिसका निपटारा भी उतनी ही बेरुखी से होना था। मानो बिस्तर पर कोई इंसान नहीं, बल्कि बस एक ‘ट्रॉले की एक्सपायर्ड प्रोडक्ट’ पड़ा हो।

यह समाज, यह व्यवस्था – जहाँ संवेदनाएँ सरकारी फाइल में ‘फॉर्मेलिटी’ बनकर रह जाती हैं, और लोग इस तरह की घटनाओं को मानो मनोरंजन की तरह देखते हैं। जैसे ही बिस्तर खाली हुआ, वैसे ही नए मरीज़ के लिए ‘स्पेस’ तैयार हो गया। आखिर सरकारी अस्पताल का काम चलता रहे, पीताम्बर चौबे का ‘इमोशनल केस’ यहाँ का मुद्दा नहीं था।

संवेदनाओं की ऐसी सरकारी व्यवस्था ने जैसे हर इंसान के भीतर एक ‘इमोशनल आईसीयू’ बना दिया है, जिसमें संवेदनाएँ तोड़ दी जाती हैं, लेकिन किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 222 ☆ विचार मंथन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना विचार मंथन। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 22२ ☆ विचार मंथन

कभी – कभी हम सब अनजाने ही नादानी कर  बैठते हैं और फिर जोर- जोर से उसके प्राश्चित हेतु प्रयास करने लगते हैं। ऐसा ही एक बार  अनोखेलाल जी के साथ हुआ। जब ये अपने दोस्त के घर में चाय पी रहे थे तभी   हैंडल इनके हाथ में आ गया और कप नीचे, जिससे चाय कालीन में फैल गयी अब तो इन्होंने आदत के अनुरूप  जेब से फेवीक्विक निकाला और हैंडल को  कप से लगाते हुए बोले, भाभी जी फीस दीजिये  आपके इस टूटे हुए कप को सुधार दिया। तभी उनकी छोटी बिटिया तपाक से बोल पड़ी, “अंकल ये कारपेट कौन साफ करेगा …? वैसे भी मम्मी कहतीं हैं कि आप तो जब देखो  सिर खाने चले आतें हैं, अपने न सही तो दूसरे के समय की कद्र करनी चाहिए।”

अब तो वहाँ एक अनचाहा सन्नाटा छा गया, अनोखेलाल जी उठे और चुप चाप  जाते हुए सोच रहे थे कि शायद कोई उन्हें रुकने के लिए कहे।

***

वातावरण शुद्धता

व्यक्ति मन प्रबुद्धता

हवन करेंगे मिल

अग्नि को जलाइए ।

*

आहुति के साथ- साथ

हवि रखें  हाथ- हाथ

मंत्र मुख बोलकर

ईश को मनाइए ।।

*

कामनाएँ पूर्ण सारी

शुभ कार्यों की बारी

स्वाहा – स्वाहा कहकर

देव को बुलाइए ।।

*

यजेश्वर विष्णु देव

समिधायें खूब लेव

घी गुड़ खीर पूड़ी

भोग को लगाइए ।।

*

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 229 ☆ गीत – अमरत्व हो तुम इस धरा के…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 229 ☆ 

गीत – अमरत्व हो तुम इस धरा के ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

(एक गीत – एक शहीद के नाम)

अमरत्व हो तुम इस धरा के

हार्दिक मेरा नमन है।

हो गए बलिदान इस पर

गूँजता सारा गगन है।

**

प्रेम , श्रद्धा देश-हित ही

लक्ष्य को लेकर बढ़े थे।

अमिट छापों के सहारे

शिल्प चितवन में गढ़े थे।

छोड़ ममता परिजनों की

हिम शिखर पर तुम चढ़े थे।

*

शत्रुओं का काल हो तुम

कह रहा पूरा वतन है।

अमरत्व हो तुम इस धरा के

हार्दिक मेरा नमन है।

**

बचपने के खेल सारे

लिख गए नूतन कहानी।

कर समर्पण स्वयं को ही

देश हित दे दी जवानी।

रक्त था तुम में शिवा का

और था माँ गंग-पानी।

*

साक्ष्य जो माँगें तुम्हारी

धिक्कारती उनको अगन है।

अमरत्व हो तुम इस धरा के

हार्दिक मेरा नमन है।

**

गर्व माँ की कोख करती,

हैं पिता हिमवान थाती।

जन्म भू भी गा रही है

लिख रही है प्रीति-पाती।

प्रियतमा पत्नी तुम्हारी

तुमको निन्द्रा से जगाती।

*

लाड़ली बच्ची तुम्हारी

याद में रोया अमन है।

अमरत्व हो तुम इस धरा के

हार्दिक मेरा नमन है।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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