हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 180 ☆ # “नौतपा” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “नौतपा”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 180 ☆

☆ # “नौतपा” #

पृथ्वी की कोमल काया

सूर्य की ऊष्मा भरी किरणों से

जब लिपट जाती है

और प्रणय निवेदन करने

धीरे धीरे करीब आती है

तब चारों तरफ

गर्मी की लहर

बहने लगती है

हर जीव जंतु, पशु-पक्षी

बेजान वस्तुएं भी

त्राहि त्राहि करने लगती है

उफान पर होता है आवेग

दोनों के मिलन का

काया जल जाती है

पर नामोनिशान नहीं

होता जलन का

नौ दिन तक

यह प्रणय लीला

चलती है

भीषण गर्मी

ज़मीं और आसमान को

छलती है

तभी

उनके प्रणय का अंकुर

अंकुरित होता है

नभ में

शुभ्र मेघों की जगह

स्याह मेघों का

झुंड विचरित होता है

नभ में और धरती पर

हर्षोल्लास का

उन्माद का

अदभुत दृश्य दिखता है

जिसे देखकर ही

प्रेम में विव्हल कवि

कालिदास मेघदूत लिखता है

हर कोई

पृथ्वी पर

हम और आप

तपता हुआ हर कण

हर क्षण

जल की बूंद बूंद को

तरसता है

तब नभ से

बूंदों के रूप में

प्रेम रस बरसता है

धन्य हो जाती है धरती

उन्माद में चीत्कार है करती

सृष्टि पर यौवन आता है

अपनी गोद नव अंकुर से है भरती

 

नौतपा सिर्फ भीषण गर्मी नहीं

यह नवपल्लवित

जीवन का आभास है

चाहे नौ पल का हो

नौ दिन का हो

या नौ ——- का हो

नौतपा कुदरत का

खुशियों भरा अहसास है /

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – सबको गले लगाना है… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता सबको गले लगाना है…’।)

☆ कविता – सबको गले लगाना है… ☆

(रिटायर्ड भाइयों के लिए – एक कविता)

अभी भ्रमित ना होना राही,

अभी नहीं रुक जाना है,

अभी तो केवल पथ बदला है,

 अब आगे बढ़ते जाना है,

सूरज बनकर नभ में छाए,

 कभी नहीं विश्राम किया,

 कर्मशील और लगन शीलता,

 साथ सभी के काम किया,

 कर्म पथ के शूल हटाकर

 पथ पर फूल बिछाना है,

अभी तो केवल पथ बदला है,

 अब आगे बढ़ते जाना है,

शिवजी की बारात के जैसे,

 भांति भांति के लोग मिले,

 कुछ तो गला काटने आए,

 कुछ आकर के गले मिले,

  सारी बातें बिसरा कर,

  सबको गले लगाना है,

 अभी तो केवल पथ बदला है,

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 176 ☆ वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 176 ? 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

नारे फक्त लावल्या गेले 

वन मात्र उद्वस्त झाले..०१

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे…

अभंग सुरेख रचला

आशय भंग झाला..०२

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

झाडांबद्दलची माया 

शब्द गेले वाया..०३

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

वड चिंच आंबा जांभूळ

झाडे तुटली, तुटले पिंपळ..०४

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

संत तुकारामांची रचना 

सहज पहा व्यक्त भावना..०५

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

तरी झाडांची तोड झाली

अति प्रगती, होत गेली..०६

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

निसर्ग वक्रदृष्टी पडली 

पाणवठे लीलया सुकली..०७

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

पाट्या रंगवल्या गेल्या 

कार्यक्रमात वापरल्या..०८

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

वृक्षारोपण झाले

रोपटे तडफडून सुकले.. ०९

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

सांगणे इतुकेच आता 

कोपली धरणीमाता..१०

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 244 ☆ कहानी – ‘मलबे के मालिक’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम एवं हृदयस्पर्शी कहानी – मलबे के मालिक। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 244 ☆

☆ कहानी – मलबे के मालिक

बलराम दादा अब निस्तेज हो गये हैं। दुआरे पर कुर्सी डाले ढीले-ढाले बैठे रहते हैं। चाल-ढाल में पहले जैसी तेज़ी और फुर्ती नहीं रही। चेहरे पर झुर्रियों का मकड़जाल बन गया है। आँखों में भी पहले जैसी चमक नहीं रही। मोटे फ्रेम वाला बेढंगा चश्मा उनकी सूरत को और अटपटा बना देता है।

घर में भी अब पहले जैसी रौनक नहीं रही। आठ दस साल पहले तक यह घर आदमियों के आवागमन और उनकी आवाज़ों से गुलज़ार रहता था। बलराम दादा के पास भी गाँव के दो-चार लोगों की बैठक जमी रहती थी। अब ज़्यादातर वक्त घर में सन्नाटा रहता था। कभी किसी के आने से यह सन्नाटा टूटता है, लेकिन फिर जल्दी ही मौन दुबारा पसर जाता है।

बलराम दादा के पिता ने काफी ज़मीन- ज़ायदाद बनायी थी। वे राजा की सेवा में थे और उन दिनों ज़मीन का कोई मोल नहीं था। बलराम के पिता दूरदर्शी थे, उन्होंने राजा साहब की मेहरबानी और अपनी कोशिशों से काफी ज़मीन हासिल कर ली। दुर्भाग्य से उनकी असमय मृत्यु हो गयी और परिवार की ज़िम्मेदारी छब्बीस साल के बलराम के ऊपर आ गयी।

पिता ने अपने जीते ही बच्चों में ज़मीन का बँटवारा कर दिया था, इसलिए आगे कोई मनमुटाव की संभावना नहीं थी। बच्चों की पढ़ाई के लिए पास के शहर में किराये का मकान ले लिया था जिसमें बलराम के तीन भाई और एक बहन रहते थे। बहन बलराम से छोटी थी। देखभाल के लिए एक सेवक सपत्नीक रख दिया था। बलराम की पढ़ाई में रुचि बारहवीं के बाद खत्म हो गई थी और वे घर पर ही रह कर खेती के कामों में पिता का हाथ बँटाने लगे थे। उनका विवाह भी हो गया था।

पिता की मृत्यु के बाद बलराम चकरघिन्नी हो गये थे। सबेरे से मोटर-साइकिल पर निकलते तो लौटने का कोई ठिकाना न होता। समय से ज़मीनों की जुताई-बुवाई, ज़रूरत पड़ने पर अपने ट्रैक्टर के अलावा और ट्रैक्टरों और दूसरे उपकरणों का इन्तज़ाम, मज़दूरों की व्यवस्था, लोन की किश्तें जमा करने की फिक्र, इन्द्र देवता   के समय से कृपालु न होने की चिन्ता— सारे वक्त यही उधेड़बुन लगी रहती। बिजली का कोई ठिकाना न था। आठ-आठ दस-दस घंटे गायब रहती। अचानक रात को दो या तीन बजे आ जाती तो तुरन्त उठकर पंप चलाने के लिए भागना पड़ता। गाँव से हिलना-डुलना भी मुश्किल था। कभी एक-दो दिन के लिए कहीं जाते तो चित्त यहीं धरा रहता। मज़दूरों की बड़ी समस्या थी। अब मज़दूरों को आसपास चल रहे निर्माण कार्यों में अच्छी मज़दूरी मिल जाती है, इसलिए अब वे गाँव में कम मज़दूरी पर काम करने को राज़ी नहीं होते।

समय गुज़रने के साथ बलराम के भाई पढ़-लिख कर काम-धंधे से लग गये। दो की अपने शहर में ही नौकरी लग गयी, जब कि छोटा राजनीति में अपनी पैठ बनाने में लग गया। उसमें शुरू से ही राजनीतिज्ञों के गुण थे। जल्दी ही वह अपने भाइयों के लिए संकटमोचक बन गया क्योंकि आजकल राजनीति से बेहतर कोई कवच नहीं है। तीनों भाइयों और बहन की शादियाँ भी हो गयीं और तीनों भाई शहर में मकान बनाकर स्थापित हो गये। बलराम अब भी अपना चैन हराम करके सबके हिस्से की ज़मीन सँभालने में लगे थे।

बलराम ने भाइयों के लिए बड़े आँगन में अलग-अलग कमरे बना दिये थे। कमरे तो भाइयों के थे, लेकिन उनकी चाबी बलराम की पत्नी के पास रहती थी। घर के मेहमान साझा होते थे। वे किसी के भी कमरे में ठहर जाते थे। गर्मियों में तीनों भाई अपने बच्चों को गाँव भेज देते। तब घर में भयंकर हल्ला-गुल्ला मचता। सब तरफ बच्चों की फौजें दौड़ती फिरतीं। बलराम की पत्नी की व्यस्तता बढ़ जाती। दिन भर बच्चों की फरमाइशें।  कहीं चोट न खा जाएँ इसकी फिक्र। शहर के बच्चे गाँव की खुली जगह और चढ़ कर खेलने लायक पेड़ों को देखकर मगन हो जाते। गाँव वाले बलराम के घर में मचती चीख-पुकार को कौतूहल से देखते। बलराम कुर्सी पर बैठे, अपने कुटुंब की बढ़ती बेल को देखकर पुलकित होते रहते।

लेकिन भाइयों और उनकी पत्नियों के बीच कुछ खिचड़ी पकने लगी थी। अभी तक भाई अपनी ज़रूरत के हिसाब से गल्ला गाँव से ले जाते थे, लेकिन अब अपनी ज़मीन अपने कब्जे में लेने और मिल्कियत का सुख लेने की इच्छा बलवती हो रही थी। उनकी पत्नियाँ भी कमर में चाबियों का झब्बा खोंसने के लिए आतुर हो रही थीं। उन्हें यह शिकायत थी कि जेठ जी हर साल खेती की आमदनी का हिसाब क्यों नहीं देते। क्या इतनी बड़ी खेती में कुछ और नहीं बचता होगा?

बलराम इससे बेख़बर थे। वे अपने को परिवार का मुखिया मानते थे और उन्हें इस बात का बड़ा गर्व था कि सब भाई एक हैं और सब उनके आज्ञाकारी हैं। भाइयों को देने के बाद गल्ले से ही खेती के सारे खर्च पूरे होते थे और कई बार बलराम को ऋण लेने की स्थिति आ जाती थी। वे भाइयों से कुछ माँगते नहीं थे, लेकिन भाइयों की नियमित कमाई होने के चलते उनसे मदद की उम्मीद ज़रूर करते थे। लेकिन भाई जब भी मिलते, शहर के बड़े खर्चों का रोना शुरू कर देते, और बलराम को उनसे कुछ कहने की हिम्मत न होती।

भाइयों के अपनी ज़िन्दगी में व्यवस्थित होने के बाद बलराम उम्मीद करते थे कि भाई उनके दो बेटों को अपने पास रखकर उनके पढ़ने- लिखने की व्यवस्था करें, लेकिन उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई। उन्होंने कई बार भाइयों को अपनी कठिनाइयों का संकेत दिया था, लेकिन वे उनके इशारों को अनदेखा करते रहे थे। सभी के पास कोई न कोई बहाना था। हर बार आश्वासन मिलता था कि कुछ दिन और रुक जाएँ, फिर रख लेंगे। लाचार, बलराम ने एक बेटे को उसके मामा के पास भेज दिया था, दूसरे ने शहर में अपने एक दोस्त के साथ रहने की व्यवस्था कर ली।

अब भाइयों का सब्र टूट रहा था। उन्होंने आपस में सलाह करके गांँव के त्रिवेनी पंडित को राज़ी किया कि वे बलराम को समझाएँ कि भाइयों को उनकी ज़मीन सौंप दें। त्रिवेनी पंडित बलराम के पास पहुँचे। बोले, ‘भैया, अब ये इतनी जिम्मेदारियाँ क्यों लादे हो? भाई सयाने हो गये हैं, उनकी जमीन उन्हें सौंप कर हलके हो जाओ। फालतू का बोझ लिये फिर रहे हो।’

सुनकर बलराम की भौंहें चढ़ गयीं। तल्ख स्वर में बोले, ‘बड़ी अच्छी नसीहत दे रहे हो। जब हमें तकलीफ नहीं है तो आपको क्या तकलीफ हो रही है? भाइयों ने तो आज तक कुछ कहा नहीं, आपके दिमाग में यह बात कैसे आयी?’

त्रिवेनी सिटपिटा कर बोले, ‘हम तो आप के भले की बात कर रहे हैं। आपको बुरा लगा हो तो छोड़िए।’

बलराम बोले, ‘हम सब समझते हैं। हम सब भाई मिलकर रह रहे हैं, इसलिए आपकी छाती पर साँप लोटता है। आप चाहते हैं कि हमारे घर में भी और घरों जैसा बाँट- बखरा हो जाए।’

त्रिवेनी पंडित हड़बड़ाकर कर उठ गये। चलते चलते बोले, ‘माफ करो भैया, हमें क्या लेना देना।’

त्रिवेनी पंडित का मिशन विफल होने के बाद भाइयों और उनकी पत्नियों ने समझ लिया कि अब लिहाज तोड़े बिना काम नहीं चलेगा। अगली बार भाई और उनकी पत्नियाँ योजना बना कर आये। वे एक कमरे में इकट्ठे हो जाते और बड़ी भाभी को सुना सुना कर टिप्पणियाँ करते। छोटा भाई और उसकी पत्नी सबसे ज़्यादा मुखर थे। कहा जाता, ‘अरे भाई, मालिक बनने का बड़ा शौक है। दूसरे की जमीन दबाकर राज कर रहे हैं। जमीन हमारी है लेकिन कुछ बोल नहीं सकते। कोई सलाह देता है तो उस पर लाल-पीले होते हैं। त्रिश्ना खतम नहीं होती न।’

भाभी के कान में अमृत-वचन पड़े तो उन्होंने बात बलराम तक पहुँचा दी। बलराम आसमान से ज़मीन पर आ गये। समझ गये कि वे अभी तक खुशफहमी में थे। उन्हें पहले ही समझ लेना चाहिए था।

उन्होंने भाइयों को बुलाकर उनकी ज़मीनों के कागज़ात सौंप दिये। भाइयों ने थोड़ा ऊपरी संकोच दिखाया— ‘क्या जल्दी है? आप देख तो रहे हैं। हमें कोई दिक्कत नहीं है’, फिर हाथ बढ़ाकर कागज़ ले लिये। बड़ी भाभी ने उनके कमरों की चाबियाँ भी उन्हें सौंप दीं। भाइयों की पत्नियाँ अब स्वामित्व के एहसास से मगन थीं। घर की चीज़ों के मायने अब सब के लिए बदल गये थे। सब कुछ वही था, लेकिन कहीं कुछ था जो दरक गया था। जो कमरे कल तक अपने थे, अब पराये लगने लगे थे।

भाई अपने अपने कमरों का कब्ज़ा पाकर खुश थे। इनकी देखभाल करेंगे। रिटायरमेंट के बाद यहीं लौटेंगे। जन्मभूमि से अच्छी कौन सी जगह हो सकती है? ज़मीनों की जुताई-बुवाई की जद्दोजहद शुरू हो गयी। लेकिन शहर के लोग जल्दी ही समझ गये कि यह काम उनके बस का नहीं है। चौबीस घंटे की ड्यूटी थी। ज़रा सी ग़फलत हुई और फसल गयी। एक साल की खींचतान के बाद जमीनें बटाई पर उठा दी गयीं। लेकिन उसमें भी आशंका बनी रहती थी। भरोसे का बटाईदार मिलना मुश्किल था।

भाइयों ने बलराम के सामने प्रस्ताव रखा कि वे ही उनकी ज़मीनें बटाई पर ले लें। उन्हें सुझाया कि उन्हें कुछ और आमदनी हो जाएगी और भाई निश्चिंत रहेंगें। लेकिन बलराम अब भ्रमों से मुक्त हो गये थे। बोले, ‘नहीं भैया, अब हम से नहीं होगा। मेरे पास जितनी जमीन है उसी से फुरसत मिलना मुश्किल है। पिताजी की विरासत मानकर अब तक किसी तरह सँभाल लिया। अब मुझे माफ करो।’

घर में बने अपने कमरों में शुरू में भाइयों ने खूब दिलचस्पी दिखायी। बीच-बीच में आना, ज़रूरी मरम्मत कराना। फिर धीरे-धीरे आने का अन्तराल बढ़ने लगा। कमरों की उपेक्षा होने लगी। कमरे खपरैल वाले थे। धीरे-धीरे वे बैठने लगे। ऊपर से बारिश का पानी आकर कमरों को बरबाद करने लगा। भाइयों को अब उन कमरों में पैसा लगाना पैसे की बरबादी लगने लगी थी। जब रहना ही नहीं है तो पैसा क्यों लगाना? वही पैसा शहर के मकान में लगे तो कुछ ‘रिटर्न’ मिलेगा।

मनभेद होने के बाद भाइयों के परिवारों का आना कम हो गया। आते भी, तो पहले जैसा प्यार और उत्साह न रहता। बच्चों का व्यवहार भी पहले जैसा नहीं रहा। बड़ों के व्यवहार का उनके ऊपर असर हो रहा था। भाइयों के कमरों के बाहर एक एक बल्ब लगा था जिसका स्विच भीतर था। पहले बड़ी भाभी इन्हें जला दिया करती थीं। अब चाबी न होने के कारण वह हिस्सा रात भर प्रेत- निवास बना रहता था। पहले भाइयों के ससुराल से जो रिश्तेदार आते थे वे एक-दो दिन बलराम के पास ज़रूर टिकते थे, अब वे अपनी बहन बेटी से मिलकर शहर से ही लौट जाते थे।

कुछ दिन में कमरे ज़मीन पर पसरने लगे और देखते ही देखते वे मलबे के ढेर में तब्दील हो गये। बलराम उन्हें ध्वस्त होते देखते थे, लेकिन वे कुछ कर नहीं सकते थे। जब कमरे मलबे के ढेर बन गये तो मलबे को समेटकर एक तरफ कर दिया गया। अब वह खाली जगह सिर्फ टूटे संबंधों का स्मारक बन कर रह गयी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 243 – असार का सार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 243 ☆ असार का सार ?

मनुष्य के मानस में कभी न कभी यह प्रश्न अवश्य उठता है कि उसका जन्म क्यों हुआ है? क्या केवल जन्म लेने, जन्म को भोगने और जन्म को मरण तक ले जाने का माध्यम भर है मनुष्य?

वस्तुत: जीवन समय का साक्षी बनने के लिए नहीं है अपितु समय के पार जाने की यात्रा है। अपार सृष्टि के पार जाने का, मानव देह एकमात्र अवसर है, एक मात्र माध्यम है। यह सत्य है कि एक जीवन में कोई बिरला ही पार जा पाता है, तथापि एक जीवन में प्रयास कर अगले तिरासी लाख, निन्यानवे हजार, नौ सौ निन्यानवे जन्मों के फेरे से बचना संभव है। मानव देह में मिले समय का उपयोग न हुआ तो कितना लम्बा फेरा लगाकर लौटना पड़ेगा!

जीवन को क्षणभंगुर कहना सामान्य बात है। क्षणभंगुरता में जीवन निहारना, असामान्य दर्शन है। लघु से विराट की यात्रा, अपनी एक कविता के माध्यम से स्मरण हो आती है-

जीवन क्षणभंगुर है,

सिक्का बताता रहा,

समय का चलन बदल दिया,

उसने सिक्का उलट दिया,

क्षणभंगुरता में ही जीवन है,

अब सिक्के ने कहा,

शब्द और अर्थ के बीच,

अलख दृष्टि होती है,

लघु से विराट की यात्रा

ऐसे ही होती है.. !

ज्ञान मार्ग का जीव मनुष्येतर जन्मों को अपवाद कर देता है, एक छलांग में इन्हें पार कर लौट आता है फिर मनुज देह को धारण करने, फिर पार जाने के लिए।

मनुष्य जाति का आध्यात्मिक इतिहास बताता है कि ज्ञानशलाका के स्पर्श से शनै:-शनै: अंतस का ज्ञानचक्षु खुलने लगता हैं। अपने उत्कर्ष पर ज्ञानचक्षु समग्र दृष्टिवान हो जाता है महादेव-सा। यह दर्शन सम्यक होता है। सम्यक दृष्टि से जो दिखता है, अद्वैत होता है विष्णु-सा। अद्वैत में सृजन का एक चक्र अंतर्निहित होता है ब्रह्मा-सा। ज्ञान मनुष्य को ब्रह्मा, विष्णु, महेश-सा कर सकता है। सर्जक, सम्यक, जागृत होना, मनुष्य को त्रिदेव कर सकता है।

जिसकी कल्पना मात्र से शब्द रोमांचित हो जाते हैं, देह के रोम उठ खड़े होते हैं, वह ‘त्रिदेव अवस्था’ कैसी होगी! भीतर बसे त्रिदेव का साक्षात्कार, द्योतक है सृष्टि के पार का।

असार है संसार। असार का सार है मनुष्य होना। सार का स्वयं से साक्षात्कार कहलाता है चमत्कार। यह चमत्कार दही में अंतर्निहित माखन-सा है। माखन पाने के लिए बिलोना तो पड़ेगा। माँ यशोदा ने बिलोया तो साक्षात श्याम को पाया।

संभावनाओं की अवधि, हर साँस के साथ घट रही है। अपनी संभावनाओं पर काम आरंभ करो आज और अभी। असार से केवल ‘अ’ ही तो हटाना है। साधक जानता है कि अ से ‘आरंभ’ होता है। आरंभ करो, सार तुम्हारी प्रतीक्षा में है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

निमंत्रण- 🕉️ रामोत्सव

रविवार दि. 2 जून 2024, प्रात: 10:30 बजे, स्थान- श्रीराम मंदिर, खडकी, पुणे

सद्मार्ग मिशन के पाँचवें वर्ष में प्रवेश के अवसर पर रामोत्सव आयोजित किया जा रहा है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित आयोजन होंगे-

1) राम, राम-सा।

प्रभु श्रीराम के विभिन्न आयामों पर ज्ञानमार्ग के पथिक संजय भारद्वाज का संगीतमय प्रबोधन।

2) सामूहिक श्रीरामरक्षास्तोत्रम् पाठ। 3) सामूहिक श्रीराम स्तुति। 4) सामूहिक हनुमान चालीसा।

आप सब रामोत्सव में सादर आमंत्रित हैं। कृपया अपनी उपस्थिति की पुष्टि करें। इससे व्यवस्था में सुविधा रहेगी। साधुवाद।

संयोजक, सद्मार्ग मिशन, 9890122603

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 190 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 190 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 190) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.  

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 190 ?

☆☆☆☆☆

चुपचाप चल रहे थे

ज़िन्दगी के सफ़र में

तुम पर नज़र क्या पड़ी

बस गुमराह हो गये…

☆☆

Was walking quietly

In the journey of life

Just a glance at you 

Misguided me forever…

☆☆☆☆☆

हुस्न के कसीदे तो 

पढ़ती रहेंगी महफिलें

अगर झुर्रियाँ भी लगें 

हसीं तो समझो इश्क़ है…

☆☆

Citations for the beauty 

Congregations will keep writing…

If wrinkles still find you smitten

Then it’s undying love for sure…

☆☆☆☆☆

कोई रूठे अगर तुमसे तो

उसे फौरन मना लो क्योंकि

जिद्द की जंग में अक्सर

जुदाई  जीत जाती  है…

☆☆

If someone is upset with you

 Conciliate with him immediately

  Coz in the war of stubborness

   Often separation only wins…! 

☆☆☆☆☆

क्या करेगा रौशन उसे आफ़ताब बेचारा

लबरेज़ हो जो खुद अपने ही रूहानी नूर से

जब चाँद ही हो आफ़ताब से ज़्यादा नूरानी 

तो उसे क्या ताल्लुक़ात अंधेरे या उजाले से

☆☆

How can poor sun illumine him 

Who is self-effulgent with spiritual light

When moon itself is brighter than sun

Then what’s its concern with darkness or light

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 379 ⇒ अथ श्री महाभारत कथा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अथ श्री महाभारत कथा।)

?अभी अभी # 379 ⇒ अथ श्री महाभारत कथा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भारत की यह कथा आजादी से शुरू होती है।  सन् १९४७ में भारत आजाद हुआ, बंटवारे के साथ। नेहरू गांधी जिम्मेदार, कुबूल, आगे बढ़ें। भारत को इंडिया भी कहा जाता था।  एक ही सिक्के के दो पहलू थे, भारत और इंडिया।  केवल सिक्के पर ही नहीं, हर भारतीय मुद्रा पर हिंदी में भारत और अंग्रेजी में India, आज भी अंकित है, और साथ में गांधी जी का चित्र भी।  

जग में सुंदर हैं दो नाम,

चाहे कृष्ण कहो या राम

की तर्ज पर चाहे इंडिया कहो या भारत, दोनों शब्दों में करोड़ों भारतीयों का दिल बसता है।  बड़े गर्व से याद आता है, मेक इन इंडिया, शाइनिंग इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया और डिजिटल इंडिया। भारत माता की जय और आय लव माय इंडिया।।

लोकतंत्र में राजा नहीं होता, सत्ता पक्ष और विपक्ष होता है। पहले देश का बंटवारा, और अब नाम का बंटवारा।  स्वार्थ की राजनीति ने, और सत्ता के मोह ने, एक नया इंडिया राजनीतिक गठबंधन खड़ा कर दिया, और बेचारा भारत देखता ही रह गया।  भारत और इंडिया के नाम पर धर्म और अधर्म की राजनीति भी शुरू हो गई।

सत्ता के लिए एक और महाभारत।

महाभारत के समय में तो कौरव पांडव भी भाई भाई थे, लेकिन वहां भी धर्म अधर्म की लड़ाई थी।  एक तरफ महाराज धृतराष्ट्र – गांधारी पुत्र दुर्योधन और उसके सौ भाई और दूसरी ओर पांच कुंती पुत्र पांडव।  आज के महाभारत में हमें धृतराष्ट्र, दुर्योधन, दानवीर कर्ण, शकुनि, द्रोणाचार्य और कई कृपाचार्य तो नजर आते हैं, लेकिन धर्मराज युधिष्ठिर, वीर अर्जुन, महात्मा विदुर, ज्ञानी उद्धव और सारथी श्रीकृष्ण कहीं नजर नहीं आते।।

इतिहास साक्षी है, जब भी राम रावण युद्ध हुआ है, अथवा महाभारत हुआ है, सदा सत्य की और धर्म की ही विजय हुई है।  जो सनातन सत्य है, वह कभी बदल नहीं सकता।  देवासुर संग्राम में भी सदा देवताओं की ही विजय हुई है।  

आज एक स्वयंभू श्रीकृष्ण हमें कलयुग और द्वापर की जगह वापस त्रेता युग में ले जाने को तत्पर हैं।  राम और कृष्ण की तरह वे ही भारत और इंडिया के प्रतीक हैं, भारत फिर एक बार चैन की बंसी बजाएगा, अधर्म का नाश होगा, रामराज्य फिर से आएगा।  इंडिया इज भारत, भारत इज इंडिया।  नो मोर महाभारत।  

मेरा भारत महान।  

जय भारत..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 189 ☆ भोजपुरी दोहे ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है भोजपुरी दोहे…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 189 ☆

☆ भोजपुरी दोहे ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

खेत खेत रउआ भयल, ‘सलिल’ सून खलिहान।

सुन सिसकी चौपाल के, पनघट भी सुनसान।।

*

खनकल-ठनकल बाँह-पग, दुबुकल फउकल देह।

भूख भूख से कहत बा, कित रोटी कित नेह।।

*

बालारुण के सकारे, दीले अरघ जहान।

दुपहर में सर ढाँकि ले, संझा कहे बिहान।।

*

काट दइल बिरवा-बिरछ, बाढ़ल बंजर-धूर।

आँखन ऐनक धर लिहिल, मानुस आँधर-सूर।।

*

सुग्गा कोइल लुकाइल, अमराई बा सून।

शूकर-कूकुर जस लड़ल, है खून सँग खून

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

९.४.२०१५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ फॉरवर्ड… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ फॉरवर्ड… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के 

चौकटीतले चित्र  फुलांचे

फाॅरवर्ड  जिथे तिथेच नाचे

गुड मॉर्निंग सुप्रभात छापील  

तेही कष्ट न हो, लिहायचे

*

चित्रामधला आशय सहसा 

पाठवणारा  पहात नाही

फाॅरवर्ड  करणाराही देतो

त्या वृत्तीची आपसूक ग्वाही

*

कशास हा व्यापार  करावा !

आपुलकीचा शब्द  लिहावा

केले म्हणूनी नको कराया

स्नेहभारला तो दुवा असावा !

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-20 – कुमार विकल मैं बहुत उदास हूँ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग -20 – कुमार विकल मैं बहुत उदास हूँ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

जब जालंधर की यादें लिखनी शुरू की थीं, तब लगता था कि दो चार दिन लिखकर आपसे विदा ले लूंगा लेकिन यादें जालंधर से चलती हुईं मुझे न जाने कौन कौन से देश में लिए जा रही हैं !  थोड़ा सा चंडीगढ़ की ओर भी आ निकला हूँ तो प्रसिद्ध कवि कुमार विकल और पत्रकार निरूपमा दत्त को एक साथ याद कर रहा हूँ क्योंकि जब कुछ समय के लिए निरूपमा दत्त दिल्ली पत्रकारिता के लिए चली गयी थीं तब कुमार विकल ने एक कविता लिखी थी :

निरूपमा दत्त !

मैं बहुत उदास हूँ

तुम चाहे यहाँ से चली गयी हो

लेकिन मैं तुम्हारे आसपास हूँ !

इस तरह इन दोनों को एक साथ ही याद कर रहा हूँ ! वैसे यह अकेलापन या प्रेम सिर्फ कविता तक ही सीमित है न कि कुमार विकल या निरूपमा दत्त किसी और तरह जुड़े रहे । निरूपमा दत्त ने कुमार विकल की कविताओं की निरंतर चर्चा कर उनकी प्रतिभा की ओर आकर्षित किया और‌ यही एक अच्छे पत्रकार का काम भी है और होना भी चाहिए ! यह भी सच है कि कुमार विकल की कविताओं या प्रतिभा को किसी सहारे की जरूरत नहीं थी । साम्प्रदायिक दंगों पर लिखी कविता की याद आ रही हैं कुछ पंक्तियाँ :

यह जो सड़क पर बहता खून है

इसे सूंघ कर बताओ

यह किसका है?

यानी सबके खून का रग एक जैसा ही है, फिर इसे आप हिंदू या मुस्लिम में कैसे बांट रहे हो?

साइकिल से गिरे

मज़दूर के बिखरे डिब्बे की रोटी

खून से लाल है गयी है

कुछ ऐसी पंक्तियां भी रही हैं जो मेहनतकश की ओर ध्यान खींचती हैं !

यह सिर्फ एक बानगी भर है , कुमार विकल की कविताओं की लेकिन कुछेक लोग इनकी शराब पीने की बात उठा कर इनकी कविताओं और व्यक्तित्व को कम करने की कोशिश करते हैं, जो कभी सफल नही हुए और न ही इनका लेखन कभी इनको सफल होने देगा ! यह यक्ष प्रश्न जरूर है‌ कि कुमार विकल‌ के बाद फिर पंजाब या चंडीगढ़ का कोई कवि इतनी ऊंचाई को क्यों नहीं छू पाया?

ऐसे ही किस्से पंजाबी के प्रसिद्ध कवि शिव कुमार बटालवी के बारे में चर्चित हैं लेकिन उनके गीत आज भी बड़े लोकप्रिय हैं और ऐसे ही उन्हें विरह का सुल्तान नहीं कहा जाता है!

खैर, कुमार विकल पंजाब विश्वविद्यालय के प्रकाशन विभाग में काम करते थे और यदि इनसे कोई हिंदी के प्रसिद्ध कवि धूमिल से कम आंके तो यह नादानी होगी ।

अब  रही बात निरूपमा दत्त की तो वे पत्रकार के साथ साथ एक्टिविस्ट हैं और आधी दुनिया की आवाज़ बड़े ज़ोर शोर से उठाती आ रही हैं । मैं इन्हें चंडीगढ़ आने से पहले से जानता था और चंडीगढ़ आकर और ज्यादा जाना ! एकदम खुली किताब जैसी ज़िंदगी और खुला व्यक्तित्व ! इन्होंने एक किताब पंजाबी में प्रकाशित की थी, जो मुम्बई की किसी महिला वकील की सच्ची कथा पर आधारित थी और उसका एक वाक्य नहीं भूलता कि मेरा पति मुझे बुरी तरह मारता था । उसकी मार से मिले ज़ख्म तो कुछ दिन बाद भर जाते और भूल जाते पर आत्मा से उनके निशान कभी न जाते! निरूपमा दत्त बहुत अच्छी कवयित्री भी हैं और एक्टिविस्ट तो हैं ही! निरूपमा दत्त ने एक बार इंडियन एक्सप्रेस के अपने काॅलम में मेरे बारे में लिखा था- गुडमैन द लालटेन! यह सर्टिफिकेट की तरह आज भी मेरी फाइलों में से कभी कभी झांक जाता है ! निरूपमा दत्त के खिलंदड़दने की एक रोचक याद है । ‌उस दिन मेरे मित्र रमेंद्र‌ जाखू के काव्य संग्रह पर पंजाब विश्वविद्यालय के आईसीसीएसआर के सभागार में विचार गोष्ठी थी और मैं और‌ निरूपमा सबसे पीछे बैठे थे। निरूपमा दत्त अपने स्वभाव के अनुसार सुन रही थी दत्तचित्त होकर । गोष्ठी खत्म हुई। ‌हम अपने अपने अखबार के दफ्तर भागे । दफ्तर में रमेंद्र का फोन आया कि यार, किसी तरह निरूपमा को रोक लो, वह मेरे बारे में पता नहीं क्या लिख दे । मैंने कहा कि आप आ जाओ, आपको निरूपमा के घर ले चलता हूँ और ऐसा ही हुआ। हम निरूपमा के सेक्टर आठ स्थित घर पहुंचे और निरूपमा को मैंने कहा कि मेरी दोस्ती दोनों से है। रमेंद्र को जो लग रहा है कि आप अच्छा नहीं लिखने जा रही तो इतना ही करो कि कुछ भी न लिखो। यह मित्र इसी में खुश है। ‌निरूपमा ने हमें उस बरसात में ही बढ़िया चाय पिलाई और‌ हंसते हंसते विदा किया। रिपोर्ट से जाखू गद्गद्‌ हो गये!

निरूपमा में दूसरों की प्रशंसा करने और कवरेज की सराहना करने का बहुत बड़ा गुण है, जो सीखने लायक है। मैंने प्रयाग शुक्ल के दामाद सिद्धार्थ की कला प्रदर्शनी पर राइट अप लिखा जो निरूपमा दत्त को बहुत पसंद आया और उसने मुझे फोन पर बधाई दी ! यह गुण सीखने की बात है । वह आज भी अपने अंदाज में जी रही है, कोई और महिला पत्रकार चाह कर भी वैसी ऊंचाई को छू नहीं पाई !

ज्यादा न कह कर इतना ही कहूँगा कि मेरी बात को महसूस कर रहे होंगे कि निरूपमा जैसी होना बहुत मुश्किल है!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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