हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 9 – नवगीत – गुलमोहर के पेड़ो में अब… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – गुलमोहर के पेड़ो में अब

? रचना संसार # 9 – नवगीत – गुलमोहर के पेड़ो में अब…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

कुमुदिनियों के गजरे सूखे,

वसंत की अगवानी में।

रोम-रोम छलनी भँवरे का,

माली की मनमानी में।।

 *

परिवर्तन आया जीवन में

फूल गुलाबों के चुभते।

गुलमोहर के पेड़ो में अब,

बस काँटे निशदिन उगते।।

गयीं रौनकें हैं उपवन की

सुगंध न रातरानी में।

 *

बोली लगती सच्चाई की,

मिथ्या सजी दुकानों में।

प्रतिपक्षी आश्वासन देते,

नारों भरे विमानों में।।

दाग लगा अपनी निष्ठा को,

पोंछें चूनर धानी में।

 *

लाक्षागृह का जाल बुन रही,

बैठी कौरव की टोली।

विष का घूँट पी रहे पाँडव,

खाकर रिश्तों की गोली।।

जमघट अधर्मियों का लगता,

आग लगाते पानी में।

 *

पाँच सितारा होटल में तो,

भाग्य गरीबों का सोता।

नित्य करों के नये बोझ से,

व्यापारी बैठा रोता।।

चोट बजट घाटे का देता,

अपनी ही नादानी में।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #234 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  प्रदत्त शब्दों पर भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 234 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

चित्र बनाया आपका, देखे स्वप्न हज़ार।

मैं तुझमें खोती गई, तू ही मेरा प्यार।।

*

तुझको माना साजना, होकर भाव विभोर।

मैं दुल्हन तेरी बनी,  बांँधे जीवन डोर।।

*

दूर नहीं तुमसे हुए, चले गए  परदेश।

आओ जल्दी तुम सजन, बना वियोगी वेश।।

*

  सोये नहीं दिन रात हम, स्वप्न देखते जाग।

बिन तेरे निन्द्रा कहाँ, भड़क रही है आग।।

*

मैं तेरी अभिसारिका, बस तेरी है आस।

टूट रहा है स्वप्न अब, छूट रही है सांस।।

*

तेरी राह निहारती , नहीं मुझे अब चैन।

*कब आआगे पीव तुम, राह देखते नैन।।

*

तुम बिन तो सब रूठ गया, रूठ गया है प्यार।

बिछिया पायल कंगना,  रूठा है शृंगार।।

*

मोर पंख की लेखनी, लिखे भाव उद्गार।

प्रेम प्यार से लिख रहे, शब्दों की झंकार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #216 ☆ एक पूर्णिका – बैठे रहे किनारों पर जो… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – बैठे रहे किनारों पर जो आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 216 ☆

एक पूर्णिका – बैठे रहे किनारों पर जो ☆ श्री संतोष नेमा ☆

स्वप्न    सुनहरे   टूट     गए

अपने   हमसे    रूठ    गए

*

हाथ थामें कब तक सच का

दोस्त    पुराने    छूट     गए

*

मुंह   देखी  न  आती हमको

सच   बोला  तो   झूठ    गए

*

बैठे   रहे   किनारों   पर  जो

धार   देख  कर   कूद    गए

*

मंजिल  मिलती खुद्दारों  को

जो   डर   बैठे     चूक   गए

*

सदा वफा   से  दूर  रहा  जो

गम – सागर में वह  डूब  गए

*

गुलों से यारी  प्यार  गीत से

ये   “संतोष”  को   लूट   गए

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 198 ☆ तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 198 ☆ तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण

कई दिनों से राई का पहाड़ देख रहीं हूँ, जैसे दाना गिरा वैसे  लोग झपटकर उसे उठा लेते हैं। बात का बतंगड़ बनाना और चीख चिल्लाहट करते हुए शांति की अपील करने का नाटक भला कब तक रास आएगा। कोई न कोई मुद्दा बना रहना चाहिए जिससे लोगों में उत्साह रहे।

कोई दस शीष लगा संकेतों में कुटिलता से हँस रहा है, कोई  धैर्यवान बन  पहाड़ टूट कर बिखरने का इंतजार कर रहा है। कोई कुछ भी न करते हुए बस दोषारोपण की राजनीति करता रहता। जिसको जैसा समझ में आयेगा वो वही तो करेगा।अपने – अपने तरकश से विष बुझे तीर चलाने में सभी उस्ताद हैं। जब भी युद्ध होता है परेशान निरीह प्राणी  होते हैं क्योंकि कोई जीते कोई हारे वे तो वही रहेंगे।  क्रोध की दशा में व्यक्ति की मनोवृत्ति का पता चलता है। पर कर्म योगी केवल कर्म को देखते हुए अराजक तत्वों को भी पुनः अपने स्नेह का पात्र बना लेते हैं।

सारी गड़बड़ियों की जड़ को पुनः अपना हिस्सा बना नए हिस्सों को जन्म देने लग जाते हैं।जब मन से मनुष्यता समाप्ति की ओर हो तो सब कुछ कैसे सही होगा।वैसे  ये घटनाक्रम तो  युग- युगान्तर से चल रहा है और इसके दोषी वही होते हैं जो गलतियाँ माफ़ करते हैं कोई कितना भी जरूरी क्यों न हो उसे  उसकी गलती का दंड मिलना चाहिए जैसे रावण, कंस, दुर्योधन व दुशासन को मिला।आवश्यकता इस बात की है कि सत्य को स्वीकार कर, सर्वधर्म सद्भाव को बढ़ावा मिले, अच्छी भावनाओं को फैलाते हुए नेकी करने वालों का सम्मान हो।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 7 – अजीब समस्या ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अजीब समस्या)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 7 – अजीब समस्या ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

रूढ़ीवादी सोच विज्ञान का मजाक उड़ाने में सबसे आगे होती है। यही कारण था कि उसकी कोख में बच्ची थी। अब आप पूछेंगे कि मुझे कैसे पता? कहीं डॉक्टरों को खिला-पिलाकर मालूम तो नहीं करवा लिया। यदि मैं कहूँ कि उसकी कोख में बच्चा था, तब निश्चित ही आप इस तरह का सवाल नहीं करते। आसानी से मान लेते। हमारे देश में लिंग भेद केवल व्याकरण तक सीमित है। वैचारिक रूप से हम अब भी पुल्लिंगवादी हैं। खैर जो भी हो उसकी कोख में बच्चा था या बच्ची यह तो नौ महीने बाद ही मालूम होने वाला था। चूंकि पहली संतान होने वाली थी सो घर की बुजुर्ग पीढ़ी खानदान का नाम रौशन करने वाले चिराग की प्रतीक्षा कर रही थी। वह क्या है न कि कोख से जन्म लेने वालौ संतान अपने साथ-साथ कुछ न दिखाई देने वाले टैग भी लाती हैं। मसलन लड़का हुआ तो घर का चिराग और लड़की हुई तो घर की लक्ष्मी। कोख का कारक पुल्लिंग वह इस बात से ही अत्यंत प्रसन्न रहता है कि उसके साथ पिता का टैग लग जाएगा, जबकि कोख की पीड़ा सहने वाली ‘वह’ माँ बाद में बनेगी, सहनशील पहले।

घर भर के लोगों को कोख किसी कमरे की तरह लग रहा है। जिसमें कोई सोया है और नौ महीने बाद उनके सपने पूरा करने के लिए जागेगा और बाहर आएगा। सबकी अपनी-अपनी अपेक्षाएँ हैं। सबकी अपनी-अपनी डिमांड है। दादा जी का कहना है कि उनका चिराग आगे चलकर डॉक्टर बनेगा तो दादी का कहनाम है कि वह इंजीनियर बनेगा। चाचा जी का कहना है कि वह अधिकारी बनेगा तो चाची जी उसे कलेक्टर बनता देखना चाहती हैं। पिता उसे बड़ा व्यापारी बनता देखना चाहते हैं तो कोई कुछ तो कुछ। सब अपनी-अपनी इच्छाएँ लादना चाहते हैं, कोई उसे यह पूछना नहीं चाहता कि वह क्या बनना चाहता है। मानो ऐसा लग रहा था कि संतान का जन्म इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए हो रहा है, न कि उसे खुद से कुछ करने की।

उसकी कोख में संतान की पीड़ा से अधिक घर भर की डिमांड वाली पीड़ा अधिक सालती है। आँसुओं के भी अपने प्रकार हैं। जो आँसू कोरों से निकलते हैं उसकी भावनात्मक परिभाषा रासायनिक परिभाषा पर हमेशा भारी पड़ती है। वह घर की दीवारों, खिड़कियों और सीलन पर पुरुषवादी सोच का पहरा देख रही है। उसकी कोख पीड़ादायी होती जा रही है। उसमें सामान्य संतान की तुलना में कई डिमांडों की पूर्ति करने वाले यंत्र की आहट सुनाई देती है। ऐसा यंत्र जिसे न रिश्तों से प्रेम है न संस्कृति-सभ्यता से। न प्रकृति से प्रेम है न सुरीले संगीत से। उस यंत्र के जन्म लेते ही रुपयों के झूले में रुपयों का बिस्तर बिछाकर रुपयों का झुंझुना थमा दिया जाएगा और कह दिया जाएगा कि बजाओ जितना बजा सकते हो। बशर्ते कि ध्वनि में रुपए-पैसों की खनखनाहट सुनाई दे। भहे ही रिश्तों के तार टूटकर बिखर जाएँ और अपने पराए लगने लगें। चूंकि जन्म किसी संतान का नहीं यंत्र का होने वाला है, इसलिए सब यांत्रिक रूप से तैयार हैं।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 158 ☆ “व्यंग्य लोक त्रैमासिकी” – संपादक – रामस्वरूप दीक्षित ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डॉ. मीना श्रीवास्तव जी द्वारा श्री विश्वास विष्णु देशपांडे जी की मराठी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद – रामायण महत्व और व्यक्ति विशेषपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 158 ☆

☆ “व्यंग्य लोक त्रैमासिकी” – संपादक – रामस्वरूप दीक्षित ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

चर्चा पत्रिका की

व्यंग्य लोक त्रैमासिकी

वर्ष १ अंक १ प्रवेशांक मई जुलाई २०२४

संपादक – रामस्वरूप दीक्षित

समकालीन व्यंग्य समूह की त्रैमासिक

ई पत्रिका

सम्पर्क [email protected]

समकालीन_व्यंग्य समूह एक व्हाट्सअप समूह है। समूह में ३०० से ज्यादा प्रबुद्ध रचनाकार देश विदेश से जुड़े हुये हैं। समकालीन सक्रिय साहित्यिक समूहों में इस समूह का श्रेष्ठ स्थान है। व्यंग्य, कहानी, कविता, साहित्यिक मुद्दों पर लिखित चर्चा, पुस्तकों पर बातें,लेखक से प्रश्नोत्तर, आदि विभिन्न आयोजनो की रूपरेखा निर्धारित है, जिसे अलग अलग स्थानों से विभिन्न साहित्य प्रेमी अनुशासित तरीके से सप्ताह भर, हर दिन अलग पूरी गंभीरता से चलाते हैं। समूह के एडमिन टीकमगढ़ से प्रसिद्ध व्यंग्यकार राम स्वरूप दीक्षित हैं। उन्हीं की परिकल्पना के परिणाम स्वरूप समूह की त्रैमासिक ई पत्रिका व्यंग्य लोक का प्रवेशांक मई से जुलाई २०२४ हाल ही https://online.fliphtml5.com/rfcmc/bbfe/index.html पर सुलभ हुआ है। फ्लिप फार्मेट के प्रयोग से प्रिंटेड पत्रिका पढ़ने जैसा ही आनंद आया। ई पत्रिका के लाभ अलग ही हैं, कोई कागज का अपव्यय नहीं, यदि टैब या फिर कम से कम मोबाईल इंटरनेट के साथ है, तो आप दुनियां में जहां कहीं भी हों पत्रिका आपके साथ है। मैने भी इसे लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर अपनी फ्लाइट के इंतजार में पहली बार पढ़ा।

श्री रामस्वरूप दीक्षित

आत्म_लोक में संपादक जी समकालीन परिदृश्य पर लिखते हैं कि रचना प्रकाशित होते ही व्यंग्यकार का दिमाग लिखने से ज्यादा छपने में सक्रिय हो जाता है, पाँच छै व्यंग्य छपने के बाद तो कोई स्वयं को वरिष्ठ से कम मानने ही तैयार नहीं। पुरखों के कोठार से स्तंभ में लतीफ घोंघी जी का व्यंग्य हो जाये इसी बहाने एक श्रद्धांजली पुनर्प्रकाशित किया गया है। अपठनीयता के इस समकाल में यह स्तंभ उल्लेखनीय है। पहला ही चयन लतीफ घोंघी को लेकर किया गया यह महत्वपूर्ण है। लतीफ घोंघी और ईश्वर शर्मा की व्यंग्य की जुगलबंदी लम्बे समय तक चली, जिसमें दोनो व्यंग्यकार एक ही विषय पर लिखा करते थे।

पन्ना पलटते ही व्यंग्य विधा पर विचार लोक स्तंभ में डॉ सेवाराम त्रिपाठी, प्रेम जनमेजय, यशवंत कोठारी और अजित कुमार राय के वैचारिक लेख हैं। प्रेम जनमेजय का आलेख व्यंग्य के आज की उलटबासियां पढ़ा, अच्छा लगा।

व्यंग्य की पत्रिका में व्यंग्य तो होने ही थे, अरविंद तिवारी, सुभाष चंदर, सूरज प्रकाश, जवाहर चौधरी, सुधीर ओखदे, अख्तर अली राजेंद्र सहगल, शशिकांत सिंह शशि और कमलेश पांडेय की व्यंग्य रचनाएं व्यंग्यलोक के अंतर्गत छपी हैं। जवाहर चौधरी की रचना खानदानी गरीब घुइयांराम वार्तालाप शैली में लिखा गया अच्छा व्यंग्य है, घुइयांराम कहते हैं कि एक बार वोट को बटन दबा देने बाद हम रुप५या किलो के सड़ा गेहूं हो जात हैं…. तुम ठहरे खानदानी गरीब तुम लोकतंत्र की आत्मा हो । ऑफ द रिकॉर्ड स्तंभ में अनूप श्रीवास्तव का शैलेश मटियानी पर संस्मरण है।कविता लोक में राकेश अचल की पंक्तियां हैं ” सबके सब हैं जहर बुझे तीरों जैसे, किसके दल में शामिल हो जाउं बेटा “। डॉ विजय बहादुर सिंह, हेमंत देवलेकर, कमलेश भारतीय, विमलेश त्रिपाठी, और पद्मा शर्मा की कविताएं भी है।लंदन के तेजेंद्र शर्मा की कहानी दर ब दर कथा लोक में ली गई है। फेसबुक लोक एक हटकर स्तंभ लगा, त्वरित, असंपादित और पल में दुनियां भर में पहुंच रखने वाले फेसबुक को इग्नोर नही किया जा सकता, ये और बात है कि इंस्टाग्राम और थ्रेड युवाओ को फेसबुक से खींच कर अलग करते दिख रहे हैं। राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी की फेसबुक वाल से माखनलाल चतुर्वेदी के कर्मवीर के पहले अंक से १७ जनवरी १९१९ के संपादकीय की ऐतिहासिक सामग्री है, तब भी राजनीति का यही हाल समझ आया। पुस्तक लोक में प्रमोद ताम्बट, शांतिलाल जैन, धर्मपाल महेंद्र जैन, टीकाराम साहू आजाद और प्रियम्वदा पांडेय की किताबों पर क्रमशः राजेंद्र वर्मा, शशिकांत सिंह शशि, मधुर कुलश्रेष्ठ, किशोर अग्रवाल और हितेश व्यास की पुस्तकों की समीक्षाएं हैं। सूचना लोक में पिछले दिनों सम्पन्न हुए साहित्यिक कार्यक्रमों की जानकारी दी गई है।

लेखक जी कहिन स्तंभ में घुमक्कड़ कहानी लेखिका संतोष श्रीवास्तव का आत्मकथ्य है। बिना पूरी पत्रिका पढ़े आपको मजा नहीं आयेगा। पेज नंबर दिये जाने थे जो चूक हुई है। यह तो हिट्स ही बतायेंगे कि पत्रिका कितनी पढ़ी गई और कहां कहां पढ़ी गई। बहरहाल इस संकल्पना की पूर्ति पर रामस्वरूप दीक्षित जी के मनोयोग तथा समर्पण की उन्हें बधाई। वे निश्चित ही अगले अंक की तैयारियों में जुटे होंगे। ईश्वर करे कि इस अच्छी पत्रिका को कुछ विज्ञापन मिल जायें क्योंकि पत्रिकायें केवल हौसलों से नहीं चलती।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 206 ☆ यहाँ कदमताल मिलते हैं ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 206 ☆

यहाँ कदमताल मिलते हैं ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

(मित्रो 1983 में यह गीत पीटीसी – 2 में बड़ा मशहूर हुआ था सांस्कृतिक कार्यक्रमों में। आप लौट आइए पुरानी स्मृतियों में)

नित परेड में कदम – कदम पर

कदमताल मिलते हैं। 28

भीनी – भीनी खुशबू के यहाँ

अमलतास खिलते हैं।।

होती भोर सभी जग जाते।

दिनचर्या में रत हो जाते।

शौचालय में लाइन लगाते।

स्नानगृह – शौचालय भी

तीनों – तीन में मिलते हैं।।

भीनी – भीनी खुशबू के यहाँ

अमलतास खिलते हैं।।

 *

सीटी बजती फोलिन होते।

सिक वाले के उड़ते तोते।

देर जो करते मुख हैं रोते।

यहाँ तीनों  – तीन में

लाइन बनाकर चलते हैं।।

 *

पीटी होती हर्ष मनाते।

आईटी में सब गुम हो जाते।

फायरिंग में प्यासे रह जाते।

यहाँ प्रेमी , कर्मठ एडुजेंट

टेकचंद जी मिलते हैं।

भीनी – भीनी खुशबू के यहाँ

अमलतास खिलते हैं।।

 *

सम्मेलन में हर्ष मनाते।

हम परेड से सब बच जाते।

प्रश्नों का निदान भी पाते।

सिंघल साहब व डॉक्टर साहब

से योग्य प्रिंसिपल मिलते हैं।

भीनी – भीनी खुशबू के यहाँ

अमलतास खिलते हैं।।

 *

पौने दस बजे कॉलेज जाते।

राघब जी बखूब पढ़ाते।

तीनों गुप्ता जी विधि पढ़ाते।

यहाँ शर्मा जी , अग्निहोत्री जैसे

प्रेमी दिल भी मिलते हैं।

भीनी – भीनी खुशबू के यहाँ

अमलतास खिलते हैं।।

 *

भोजन करते कुत्ते आते।

सदा प्यार से भोजन खाते।

कुछ तो संग परेड में जाते।

यहाँ हर कर्मचारी में

अलग ही नक्शे मिलते हैं।

भीनी – भीनी खुशबू के यहाँ

अमलतास खिलते हैं।।

 *

सोशल होती मौज मनाते।

बातों में सारे रम जाते।

पिक्चर के दिन मन हर्षाते।

यहाँ विश्वविद्यालय में पढ़े युवा

अनुशासन में ढलते हैं।

भीनी – भीनी खुशबू के यहाँ

अमलतास खिलते हैं।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #172 – बाल कथा – कलम की पूजा… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कथा कलम की पूजा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 172 ☆

☆ बाल कथा – कलम की पूजा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्रेया ने जब घर कदम रखा तो अपनी मम्मी से पूछा, “मम्मीजी! एक बात बताइए ना?” कहते हुए वह मम्मी के गले से लिपट गई।

“क्या बात है?” श्रेया मम्मी ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हो पूछा, “आखिर तुम क्या पूछना चाहती हो?”

“यही कि गुरुजी अपनी कलम की पूजा बसंत पंचमी को क्यों करते हैं?” श्रेया ने पूछा तो उसकी मम्मी ने जवाब दिया, “यह भारतीय संस्कृति और परंपरा है जिस चीज का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होता है हम उस को सम्मान देने के लिए उसकी पूजा करते हैं।

“इससे उस उपयोगी चीज के प्रति हमारे मन में अगाध प्रेम पैदा होता है तथा हम उसका बेहतर उपयोग कर पाते हैं।”

“मगर बसंत पंचमी को ही कलम की पूजा क्यों की जाती है?” श्रेया ने पूछा।

“इसका अपना कारण और अपनी कहानी है,” मम्मी ने कहा, “क्या तुम वह कहानी सुनना चाहोगी?”

“हां!” श्रेया बोली, “सुनाइए ना वह कहानी।”

“तो सुनो,” उसकी मम्मी ने कहना शुरू किया, “बहुत पहले की बात है। जब सृष्टि की संरचना का कार्य ब्रह्माजी ने शुरू किया था। उस समय ब्रह्माजी ने मनुष्य का निर्माण कर लिया था।”

“जी।” श्रेया ने कहां।

“उस वक्त सृष्टि में सन्नाटा पसरा हुआ था,” मम्मीजी ने कहना जारी रखा, “तब ब्रह्माजी को सृष्टि में कुछ-कुछ अधूरापन लगा। हर चीज मौन थीं। पानी में कल-कल की ध्वनि नहीं थी।

“हवा बिल्कुल शांति थीं। उसमें साए-साए की ध्वनि नहीं थी। मनुष्य बोलना नहीं जानता था। इसलिए ब्रह्माजी ने सोचा कि इस सन्नाटे को खत्म करना चाहिए।

“तब उन्होंने अपने कमंडल से जल निकालकर छिटका। तब एक देवी की उत्पत्ति हुई। यह देवी अपने एक हाथ में वीणा और दूसरे हाथ में पुस्तक व माला लेकर उत्पन्न हुई थी।

“इस देवी को ब्रह्माजी की मानस पुत्री कहा गया। इसका नाम था सरस्वती देवी। उन्होंने ब्रह्माजी की आज्ञा से वीणा वादन किया।”

“फिर क्या हुआ मम्मीजी,” श्रेया ने पूछा।

“होना क्या था?” मम्मीजी ने कहा, “वीणा वादन से धरती में कंपन हुआ। मनुष्य को स्वर यानी- वाणी मिली। जल को कल-कल का स्वर मिला। यानी पूरा वातावरण से सन्नाटा गायब हो गया।”

“अच्छा!”

“हां,” मम्मीजी ने कहा, “इसी वीणा वादन की वर्ण लहरी से बुद्धि की देवी का वास मानव तन में हुआ। जिससे बुद्धि की देवी सरस्वती पुस्तक के साथ-साथ मानव तन-मन में समाहित हो गई।”

“वाह! यह तो मजेदार कहानी है।”

“हां। इसी वजह से माघ पंचमी के दिन सरस्वती जयंती के रुप में हम बसंत पंचमी का त्यौहार मनाते हैं,” मम्मी ने कहा, “इस वक्त का मौसम सुहावना होता है। ना गर्मी,  ना ठंडी और ना बरसात का समय होता है। प्रकृति अपने पूरे निखार पर होती है।

“फसल पककर घर में आ चुकी होती है। हम धनधान्य से परिपूर्ण हो जाते हैं। इस कारण इस दिन बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती की पूजा करके इसे धूमधाम से मनाते हैं।

“चूंकि शिक्षक का काम शिक्षा देना होता है। वे सरस्वती के उपासक होते हैं। इस कारण कलम की पूजा करते हैं,” मम्मी ने कहा।

“तब तो हमें भी कलम की पूजा करना चाहिए।” श्रेया ने कहा, “हम भी विद्यार्थी हैं। हमें विद्या की देवी विद्या का उपहार दे सकती है।”

“बिल्कुल सही कहा श्रेया,” मम्मी ने कहा और श्रेया को ढेर सारा आशीर्वाद देकर बोली, “हमारी बेटी श्रेया आजकल बहुत होशियार हो गई है।”

“इस कारण वह इस बसंत पंचमी पर अपनी कलम की पूजा करेगी,” कहते हुए श्रेया ने मैच पर पड़ी वीणा के तार को छेड़ दिया। वीणा झंकृत हो चुकी थी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14-12-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ बोट चार पाकळ्यांची… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? बोट चार पाकळ्यांची?  सुश्री वर्षा बालगोपाल 

चार मित्रांमध्ये अहमहमिका अशी लागली 

बोट चार पाकळ्यांची जागी थांबली ||

*

सहकार गाव होतं, त्यात चार दोस्त 

सुख – दु:ख समान त्यांचे रहात होते मस्त 

चार दिशांची आमिशे कोणी दावली 

बोट चार पाकळ्यांची जागी थांबली ||

*

चार दिशेला तोंडे परी, एका थाळीत जेवत होते 

एकजूट होऊन संकटा ध्वस्त ते करत होते 

सत्ता मोहाने डोकी अशी का फिरली 

बोट चार पाकळ्यांची जागी थांबली ||

*

प्रकृतीच्या एका प्रवाही चौघांची ही नाव 

विरुद्ध दिशेला नेण्या जो तो खेळे डाव 

मला नाही तर तुलाही नाही, मती भ्रष्ट कशी जाहली 

बोट चार पाकळ्यांची जागी थांबली ||

*

कुठे गेली एकता अन कुठे समानता 

सोप्या गोष्टी अवघड झाल्या नुरली सहजता 

तुला नाही मला नाही, नाव भोवऱ्यात बुडली 

अशी देशाची आपल्या स्थिती असे जाहली ||

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #231 ☆ बाल कविता – गोलू को पानी की सीख… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कविता – गोलू को पानी की सीख…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #231 ☆

☆ बाल कविता – गोलू को पानी की सीख… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

पानी के संकट को लेकर

गोलू को कितना समझाएँ

ध्यान नहीं देता है बिल्कुल

कैसे उसको सीख सिखाएँ।

*

गर्मी का आतंक मचा है

रोज-रोज फिर घटना पानी

जल को लेकर तू-तू मै-मैं

हुई रोज की नई कहानी,

उस पर गोलू की शैतानी

जब तब पानी व्यर्थ बहाए

गोलू को कितना समझाएँ।

*

सुबह-सुबह जब शौच को जाए

मुँह धोए ब्रश करे नहाए

पानी सतत बहता रहता

टोंटी खुली छोड़ आ जाए,

नहीं भुलक्कड़ है इतना वह

जान बूझ कर हमें चिढ़ाए

गोलू को कितना समझाएँ।

*

सूझा एक उपाय आज अब

गया नहाने बाथरूम जब

साबुन मला बदन में सिर में

पानी आना बंद हुआ तब,

रोया चिल्लाया तड़पा वह

पानी दे कोई मुझे बचाए

गोलू को कितना समझाएँ।

*

पहले तो कबूल करवाया

गलती का एहसास कराया

फिर टंकी का वाल्व खोलकर

पानी का महत्व समझाया,

सीख मिली गोलू जी को

अब बूँद-बूँद जल रोज बचाए

गोलू को कितना समझाएँ।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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