हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 55 ☆ मुहताज हुए लोग… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “मुहताज हुए लोग…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 55 ☆ मुहताज हुए लोग… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

रीति रिवाजों के

मुहताज हुए लोग

कटे हुए पर के

परवाज़ हुए लोग ।

*

गर्भवती माँ की

अनदेखी लाज

बूढ़े की लाठी

टूटता समाज

*

बटन बिना कुर्ते के

बस काज हुए लोग ।

*

टेढ़ी पगडंडी

गाँवों का ख़्वाब

शहरों ने ओढ़ा

झूठ का रुआब

*

सच के मुँह तोतले

अल्फ़ाज़ हुए लोग ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नहीं हम मांगते है खून तुमसे देश की ख़ातिर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “नहीं हम मांगते है खून तुमसे देश की ख़ातिर“)

✍ नहीं हम मांगते है खून तुमसे देश की ख़ातिर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

जो बंधन रस्मों के रोकें ज़रा उनको हटाओ तो

सभी अवरोध तोडूंगा मुहब्बत से बुलाओ तो

 *

जला के क्या मिला तुमको ये बस्ती और कुछ इंसा

कहूँगा मर्द जो मुफ़लिस के घर चूल्हा जलाओ तो

 *

रगों में दूध मीरा का अभी बहता लहू बनकर

ख़ुशी से ज़ह्र पी लूगाँ महब्बत से पिलाओ तो

 *

जड़ें निकली है जिनकी तख्त पर बरगद बने छाए

पनपने हिन्द को अपने इन्हें पहले गिराओ तो

 *

हो नादिर शाह कोई जीतना उसको नहीं मुश्किल

जो छाया ख़ौफ़ है दिल पर उसे पहले मिटाओ तो

 *

नहीं हम मांगते है खून तुमसे देश की ख़ातिर

सिदक दिल से जो अपना फ़र्ज़ है केवल निभाओ तो

 *

अदावत बुग्ज़  का करना नहीं गाँधी ने सिखलाया

गले से हम लगा लें हाथ जो अपना बढ़ाओ तो

 *

अगर है नाम तेरा पाक तो पाकीज़गी दिखला

हटाकर खाल बकरे की सही सूरत दिखाओ तो

 *

अरुण ये शायरी तेरी रिवायत की हुई हामी

ग़ज़ल कोई जदीद अपनी कभी हमको सुनाओ तो

 * 

अरे जो चल रहा चलने दो छोड़ो भी हटाओ तो

नहीं ऐसे बदलना कुछ ये सब बातें भुलाओ तो

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 25 – अधूरी ख्वाहिश ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अधूरी ख्वाहिश।)

☆ लघुकथा – अधूरी ख्वाहिश श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

मन में तो गुस्सा भरा है पर मीठी आवाज में बोल रेनू ने अब प्यार से अपने पति मयंक से कहा- देखो जी मम्मी आजकल मेरे मेकअप के समान को लेकर रोज शाम को क्या करती है, सारा सामान इधर-उधर भी बिखेर देती हैं। मुझे तो मेकअप करने की कभी-कभी जरूरत पड़ती है पर ये रोज शाम को तैयार होकर कभी घर में या कभी किसी के यहां जाकर नाचना गाना, वीडियो रील्स, बनाना जाने क्या-क्या करती हैं? आप समझा दो ऐसा नहीं चलेगा या इन्हें कुछ देर के लिए कहीं छोड़ आओ मैं थोड़ी देर शांति से रहना चाहती हूं।

मम्मी जी थोड़ी देर के लिए मंदिर में क्यों नहीं जाती है लोग कहते हैं की बहू के आने के बाद और एक उम्र के बाद पूजा पाठ करना चाहिए या इन्हें तीर्थ यात्रा पर भेज दो। अब तो पूरे मोहल्ले का डेरा यहीं आंगन में रहता है। कुछ दिनों बाद यह घर धर्मशाला न बन जाए?

पति ने उसकी ओर आंखें बड़ी करके देखा और कहा मुझे पता है इस उम्र में क्या शोभा देता है?

मां ने टीवी मोबाइल और जाने कितने बदलते दौर को देखा है।

 तुम्हें भी कभी किसी काम करने को, तुम्हारे कपड़ों को। किसी भी तरह का तुम्हारे ऊपर भी अंकुश नहीं लगाया है मां ने दादा-दादी के साथ भी रही है और हम सबको दो भाई बहनों को पालकर बड़ा किया। आज अगर वह खुश रहती हैं और अपने जीवन जीने का कोई रास्ता ढूंढा है तो तुम उसमें  क्यों बांधा डाल रही हो? तुम्हारी तरह उनकी भी तो एक जिंदगी है।अपना सामान उन्हें सारा मेकअप का दे दो तुम ऑनलाइन ऑर्डर कर लो या मेरे साथ चलकर खरीद लो।

अधूरी ख्वाहिश पूरी तो करके देखो क्या सुख मिलता है वह तुम स्वयं समझ जाओगी।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 105 – बैंक: दंतकथा: 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  बैंक: दंतकथा: 2

☆ कथा-कहानी # 105 –  बैंक: दंतकथा: 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

अविनाश और कार्तिकेय की ज्वाइंट मैस अपनी उसी रफ्तार से चल रही थी जिस रफ्तार से ये लोग बैंकिंग में प्रवीण हो रहे थे. दालफ्राई जहाँ अविनाश को संतुष्ट करती थी, वहीं चांवल से कार्तिकेय का लंच और डिनर पूरा होता था पर फिर भी पासबुक की प्रविष्टियां अधूरी रहती थी.

यह क्षेत्र उत्कृष्ट कोटि की मटर और विशालकाय साईज़ की खूबसूरत फूलगोभी के लिये विख्यात था जो अपने सीज़न आने पर पूरे शबाब पर होती थी. सीज़न आने पर इसने पाककला के प्राबेशनर द्वय को मजबूर कर दिया कि वो किसी भी तरह से इसे भी अपने भोजन में सुशोभित करें. यूट्यूब की जगह उस वक्त पड़ोस की गृहणियां हुआ करती थीं जिनसे सामना होने पर, “नमस्कार भाभीजी” करके आवश्यकता पड़ने पर पाककला को मजबूत बनाने में सहयोग की क्रेडिट लिमिट सेंक्शन कराई जा सकती थी।धीरे धीरे इसी लिमिट के सहारे आत्मनिर्भरता पाने पर लंच और डिनर की प्लेट्स दोनों को संतुष्टि और गर्व दोनों प्रदान करने लगी. उसी तरह की ललक और निष्ठा बैंकिंग में दक्ष बनाने की ओर अग्रसर होती चली गई और शाखा प्रबंधक सहित शेषस्टाफ को इन दोनों में बैंक का और शाखा का उज्जवल भविष्य नजर आने लगा.

शाखा के ही कुछ वरिष्ठ सहयोगियों ने जो खुद CAIIB Exam नामक वायरस से अछूते और विरक्त थे, इन्हें बिन मांगी और बिना गुरुदक्षिणा के यह सलाह दे डाली कि यह एक्जाम पास करना बैंक में अपना कैरियर बनाने की रामबाण दवा है. जबरदस्ती शिष्य का चोला पहनाये गये इन रंगरूटों द्वारा जब यह पूछा गया कि आपने क्यों नहीं किया तो पहले तो सीनियर्स की तरेरी आंखों ने आंखों आंखों में उन्हें धृष्टता का एहसास कराया गया और फिर उदारता पूर्वक इसे इस तरह से अभिव्यक्ति दी कि”हम तो अपने कैरियर से ज्यादा बैंक और इस शाखा के लिये समर्पित हैं और इस विषय में तुम दोनों की प्रतिभा परखकर और उपयुक्त पात्र की पहचान कर तुमलोगों को समझा रहे हैं।इस सलाह को दोनों ने ही पूरी तत्परता से अपने मष्तिकीय लॉकर में जमा किया और इस परीक्षा को पास करने का तीसरा टॉरगेट बना डाला क्योंकि पहले नंबर पर समय पर भोजन करना और दूसरे नंबर पर व्यवहारिक बैंकिंग को अधिक से अधिक सीखना थे।

गाड़ी अपने ट्रेक पर जा रही थी पर नियति और नियंता ने दोनों के रास्ते अलग करने का निश्चय कर रखा था. रास्ते अलग होने पर भी ये लगभग तय था कि दोस्ती पर तो आंच आयेगी नहीं  पर जिसे आना था वो तो आई अर्थात अवंतिका जोशी एक सुंदर कन्या जिसके इस शाखा में बैंक की नौकरी ज्वाइन करते ही, रातों रात अविनाश और कार्तिकेय सीनियर बन गये थे. नियति के इस वायरस ने ही इन नवोन्नत सीनियर्स पर अलग अलग प्रभाव डाले. बेकसूर अविनाश अपने पेरेंटल डीएनए के शिकार बने तो कार्तिकेय अपनी सांस्कृतिक विरासत का लिहाज कर ऐसे विश्वामित्र बने जो मेनका और उर्वशी के प्रभाव को बेअसर करते कवच से लैस थे।

जहाँ अविनाश अपनी पेरेंटल विरासत को प्रमोट करते हुये शाखा में नजर आने लगे वहीं कार्तिकेय ने लगातार बेस्ट इंप्लाई ऑफ द मंथ की रेस जीतने का सिलसिला जारी रखा।शायद यही तथ्य भाग्य नामक मान्यता को प्रतिपादित करते हैं कि शाखा में एक ही दिन आने वाले, एक घर में रहने वाले, एक किचन में सामूहिक श्रम से भोजन बनाने और खाने वालों के रास्ते भी अलग अलग हो सकते हैं।

दंतकथा जारी रहेगी, अगर अच्छी लगे तो मुस्कुराइए।

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 232 ☆ तो दिवस… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 232 ?

☆ तो दिवस… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(जागतिकमासिकपाळीदिवस  -२८मे)

मला आठवतो

माझ्या ऋतूप्राप्तीचा दिवस-

20 नोव्हेंबर 1969!

तेरा वर्षे पूर्ण झाली तोच दिवस !

आईने बटाटेवडे आणि शिरा

केला होता ,

वाढदिवस म्हणून !

“मैत्रिणीं ना बोलव” म्हणाली होती !

पण कसं बोलवणार ?

ही गोष्ट लपवून ठेवायची होती मैत्रिणींपासून !

अपवित्र अस्पृश्य हीचभावना

बिंबवलेली मनावर –

मासिकपाळी बद्दल !

तरी ही बंडखोरी केली होती

त्या काळात ,

सत्यनारायणाचे घेतले होते

दर्शन” त्या” दिवसात !

तरी ही जनरीत रूढी म्हणून

बसावेच लागले होते “बाजूला”

माहेरी आणि सासरी ही !

आज इतक्या वर्षाने,

उठले आहे वादळ ,

बाईच्या “विटाळशी”पणाचे !

आम्ही स्विकारलेल्या अस्पृश्यतेचे आणि अपराधी

भावनेने केलेल्या त्या ऋषीपंचमीच्या उपवासाचे काय ?

आता घेतला आहे का नव्या

मनूने जन्म ?

लिहिली आहे का त्याने नवी संहिता रजस्वलेला पवित्र बनविण्याची ?

मला मात्र आज ही आठवतोय तो दिवस  –

अपराधीपणाच्या भावनेने संकोचून गेलेला !

(काही मंदिरात महिलांना प्रवेश नाही, त्या संदर्भात सुश्री तृप्ती देसाई यांनी आंदोलन केलं होतं तेव्हा सुचलेली कविता)

© प्रभा सोनवणे

20 नोव्हेंबर 1969 !

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆“रामराज्य…” – लेखक : श्री संदीप सुंकले ☆ परिचय – श्री अविनाश सहस्त्रबुध्दे ☆

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “रामराज्य…” – लेखक : श्री संदीप सुंकले ☆ परिचय – श्री अविनाश सहस्त्रबुध्दे ☆

पुस्तक – रामराज्य

लेखक- संदीप सुंकले,

सम्पर्क- 8380019676

प्रकाशक- संकल्प प्रकाशन, अलिबाग.

पृष्ठ –  ६४, 

मूल्य- ₹ १००

रामराज्याच्या दिशेने सम्यक पाऊल टाकण्यासाठी…

दैनंदिन जीवनात जगत असताना अनेक चांगल्या-वाईट घटनांचा अनुभव आपल्याला येतो. एखादी वाईट घटना आपल्याला दिसली की घोर कलियुग असे म्हणत कलियुगाकडे बोट दाखवत आपण आपले नैराश्य अधिक वाढवतो. रामावर भरवसा असणारे आणि जे काही होते ते रामाच्या इच्छेने होते असे म्हणत त्या वाईट घटनेचा क्षण आपल्या मनःपटलावरुन हद्दपार करतात. पण चिंताक्रांत मंडळी रामराज्य कधी येणार, असा विचार करीत वर्तमानात जगण्याऐवजी रामराज्याची प्रतीक्षा करणेच पसंत करतात. पण रामराज्य म्हणजे काय, हे जाणून घेण्याचीदेखील आवश्यकता आहे.

श्री संदीप रामचंद्र सुंकले

आपल्या अंतरमनातील रामाला आपण कधीच स्मरत नाही, दुसऱ्या व्यक्तीतील ह्रदयस्थ रामालाही आपण धूडकावून लावतो. हे सगळे होऊ नये आणि रामराज्य नक्की काय होते, हे समजावे यासाठी एका रामभक्ताने रामराज्य या छोटेखानी पुस्तिकेचे लेखन केले आणि ते जनमानसात पोहचावे म्हणून त्या दासचैतन्याची धडपड सुरु आहे.

गोंदवलेकर महाराजांचे अनुग्रहित असणारे दासचैतन्य म्हणजेच संदीप सुंकले यांची ओघवती, मृदु पण तेवढीच स्पष्ट असलेली भाषा रामराज्याची महती सांगते. लवकुशांनी सांगितलेल्या प्रभु रामचंद्रांच्या महतीबाबत आपण सर्वजण जाणतोच. त्या रामरायांचे रामराज्य कसे होते, हे श्री. सुंकले त्यांच्या सिद्धहस्त लेखणीद्वारे प्रभावीपणे वाचकांपर्यंत पोहचवतात.

शुद्ध आहार-विचार-आचार म्हणजे रामराज्य, शुद्ध आस-ध्यास-व्यास म्हणजे रामराज्य, शुद्ध जल-स्थल-बल म्हणजे रामराज्य, शुद्ध भावना-कल्पना-वासना म्हणजे रामराज्य, शुद्ध मन- तन-धन म्हणजे रामराज्य, शुद्ध वर्ण-कर्म-धर्म म्हणजे रामराज्य, शुद्ध जांबुवंत-हनुमंत- नलनील म्हणजे रामराज्य, शुद्ध राम-सीता-लक्ष्मण म्हणजे रामराज्य, शुद्ध कुटुंब-समाज-राष्ट्र म्हणजे रामराज्य असे नऊ लेख म्हणजे रघुकुळातील सात्विकतेची बीजे आहेत. केवळ दहाच लेख आणि प्रत्येक लेखातील ओजस्वी भाषा, ज्यातून रामराज्याची संकल्पना अधिक समृद्धतेने उलगडत जाते. शुद्धता, निर्मळपणा आणण्यासाठी जर काही आवश्यक असेल तर ते म्हणजे प्रयत्न. ज्या प्रयत्नांबद्दल समर्थ रामदासांनी दासबोधात अनेकदा सांगितले आहे. मूल्यधिष्ठित आचरण करणारे नागरिकांच्या सहाय्याने रामराज्य येऊ शकते. रामराज्य आणायचे असेल तर भौतिक सुखाच्या मागे धावणे सोडण्याची गरज आणि भोगांपुढे लोटांगण न घालणेच अधिक श्रेयस्कर असल्याचे लेखक सुचवतात.

बारामतीच्या कान-नाक-घसा तज्ज्ञ डाॅ. रेवती राहुल संत यांची प्रस्तावना लाभलेल्या या पुस्तकातील प्रत्येक प्रकरण म्हणजे प्रभु रामचंद्रानी  तुमच्याआमच्यातील अवगुणांवर केलेला शस्त्राघात आहे. सध्याच्या राजकीय, आर्थिक, सामाजिक स्थितीकडे पाहताना येणारे नैराश्य स्वाभाविकच आहे, पण ते नैराश्य, मरगळ झटकून  रामराज्य येण्यासाठी प्रयत्नांची पराकाष्ठा करण्याची गरज लेखकाने अधोरेखीत केली आहे.

रामराज्यातील विचारांमधील सौम्यता आणि आधुनिक काळात परिस्थीतीत झालेला बदल यावर टोकदार भाष्य करताना श्री.सुंकले यांनी विज्ञानाची कास सोडलेली नाही, हेदेखील तितकेच महत्त्वाचे. संस्कार, संस्कृती यांच्याबद्दलचा विचार करीत असतानाच विचार-भावना-वर्तन यावर मानसशास्त्रीय अंगाने केले जाणारे भाष्य करताना समर्थांच्या मनाच्या श्लोकाबद्दलही लेखक भाष्य करतात. रामराया म्हणले की समर्थांचे अनुषंगिकपणे तेथे येणे क्रमप्राप्त आहे. त्यामुळे त्यांच्या शिकवणीतील प्रयत्नाबरोबरच, विवेक, वैराग्य, वृत्ती-बदल या बाबीही लेखक उद्धृत करतात. मनाचे श्लोक आणि मनापासून करण्याची सुधारणा त्यांनी वेळोवेळी या रामराज्य पुस्तकात मांडली आहे. 

प्रभु रामचंद्राबद्दल, त्यांच्या राज्याबद्दल लिहित असताना लेखकाने त्यांच्या दासाचा म्हणजेच मारुतीरायांचा उल्लेख केला नसता तरच नवल. हनुमंताचा समर्पित भावदेखील या निमित्ताने त्यांनी मांडला आहे. हनुमंताप्रमाणेच लक्ष्मणाचे रामचंद्रांचे भाऊ म्हणून नाही, तर त्यांच्या दैदीप्यमान बंधूप्रेमाविषयी लिहिले नाही तर रामराज्य ही संकल्पना अर्धवटच राहिली असते, पण त्यांचा यथायोग्य उल्लेख यात आढळतो. रामतत्त्वांचे मूल्य जाणून घेतल्याने, त्यासाठी आवश्यक निश्चय आणि मार्गक्रमण केल्यास रामराज्य येण्यास वेळ लागणार नाही या विषयी लेखकाच्या मनात कोठेही किंतू जसा नाही, तसेच शुद्ध निश्चयाने मार्गक्रमण केल्यास लवकरच रामराज्य येऊ शकते. याबद्दल लेखकाला केवळ आशाच नाही, तर खात्री देखील आहे.

परिचय : श्री अविनाश सहस्त्रबुध्दे

इंदापूर , माणगाव .

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 55 – कद्रदां, कोई बुलाये न गये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कद्रदां, कोई बुलाये न गये।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 55 – कद्रदां, कोई बुलाये न गये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

अपने हालात, दिखाये न गये 

दिल के जज्बात, बताये न गये

*

रोज लिखते हैं खत मुझे लेकिन

फाड़ देते हैं, पठाये न गये

*

दस्तकें देकर लौट आया हूँ 

आप सोते थे, जगाये न गये

*

होंठ तो, बंद कर लिए हमने 

अश्रु आँखों के, दबाये न गये

*

आज महफिल सजाई है उनने 

कद्रदां कोई बुलाये न गये

*

मेरे मरने का गम उन्हें कैसे 

जिनसे, दो अश्रु गिराये न गये

 

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 130 – कलयुग में न्यारी है यारी ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “कलयुग में न्यारी है यारी। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 130 – कलयुग में न्यारी है यारी… ☆

 

कलयुग में न्यारी है यारी।

अंदर से है चले कटारी।।

 *

त्रेतायुग के राम राज्य पर,

कलयुग की जनता बलिहारी।

 *

राजनीति में चोर-सिपाही,

खेलम-खेला बारी-बारी।

 *

विश्वासों पर घात लगाकर,

चला रहे यारी पर आरी।

 *

जनता ही राजा को चुनती,

नहीं समझती जुम्मेदारी।।

 *

मतदाता मतदान न करते,

जीतें-हारें, खद्दर-धारी।

 *

मतदानों का प्रतिशत गिरता,

यह विडंबना सब पर भारी ।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

15/5/24

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 12 – संस्मरण # 6 – खूँटी ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण –  खूँटी)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 12 – संस्मरण # 6 – खूँटी ?

पुराने ज़माने में दीवारों पर या दरवाज़े के पीछे खूँटियाँ लगी होती थीं। इन खूटियों पर कचहरी के कोट, दादाजी की लाठी, चाचाजी का हैट, ताऊजी की छेत्री टँगी रहती थी।

समय के साथ – साथ आधुनिक काल में ये खूटियाँ गायब हो गईं पर जिंदगी तो न जाने समय -समय पर कितने ही प्रकार की खूँटियों से बँधी ही होती है। ये खूँटियाँ न दिखती हैं न कभी हमारा उनकी ओर ध्यान ही जाता है। मगर हम उससे बँधे अवश्य रहते हैं। हर उम्र में ये सुखद अनुभूति दे जाती हैं।

स्त्री हो या पुरुष सभी को अपने जीवन में इन मायाजाल की खूँटियों से बँधना ही पड़ता है।

शैशव  में अपनी मर्ज़ी के सब मालिक होते हैं। ज़िद करते ही इर्द-गिर्द उपस्थित सभी लोग व्यस्त से हो जाते हैं। यह जीवन का वह दौर होता है जब शिशु अपनी हर बात रोकर मनवा लेता है। वह घर के सभी सदस्यों के लिए मनोरंजन का केंद्र होता है। लाड़ -प्यार घर के हर कोने से उँडेलकर उसे दिया जाता है।

जब तक बालक -बालिका बन जाते हैं तो रोना कम हो जाता है और अपनी बात मनवाने का तरीका भी बदल लेते हैं। वे अब रूठने की कला सीख जाते हैं। वे अब भी घर के सदस्यों के लिए आकर्षण का केंद्र होते हैं।

किशोरावस्था के आते -आते किशोर -किशोरियों का घर में कम और बाहर अधिक समय व्यतीत होने लगता है। मित्रों और सखियों का एक समूह जुट जाता है। समय व्यतीत करने के लिए मित्र पर्याप्त होते हैं। उनके चर्चे के विषय, हँसी- ठिठोली सब कुछ अलग ही होती हैं। गपशप मारने के लिए सड़क का कट्टा या टपरी सबसे उत्तम स्थान बन जाता है। किसी को किसी के घर जाने की आवश्यकता ही नहीं होती।

हमारे ज़माने में हम साइकिल हाथ में थामे घंटों किसी पुलिया के पास एकत्रित हो जाते थे। आज दृश्य थोड़ा बदला है। किशोर अब मोटर साइकिल रोककर गपशप करते रहते हैं।

किशोरावस्था में घर मात्र भोजन और शयन का स्थान रह जाता है। माँ के साथ दिनचर्या पर थोड़ी बहुत बातचीत हो भी जाए पर कुछ घरों में पिता की व्यस्तता में अपनी संतानों से नियमित बैठकर बातचीत भी कई बार संभव  हो ही नहीं पाती है। पिता कॉलेज और ट्यूशन फीस जुटाने का कुछ हद तक ज़रिया मात्र रह जाता है। परिवार है तो घर है, घर है तो संबंध हैं और यही संबंध अदृश्य खूँटी से बँधा रिश्ता होता है। भले ही थोड़ा शिथिल – सा पड़ा होता हुआ दिखाई देता है पर फिर भी सभी बँधे रहते हैं।

अपने मित्रों के सौहार्द में रहनेवाला शायद इस बात का अहसास नहीं कर पाता पर मन के भीतर एक भूख सी अवश्य रह जाती है जिसका अहसास जीवन के चालीसवें पड़ाव तक आते -आते महसूस होने लगता है कि उसे पिता के साथ विशेष समय व्यतीत करने का अवसर न मिला। यह जो थोड़ी दूरी बन जाती है उसे पाटना कई बार कठिन भी  हो जाता है। पिता भी बच्चों से बनी दूरी को साठ के आते -आते अनुभव करने लगते हैं। हरेक का अपना व्यक्तित्व, विचारधारा और दृष्टिकोण अनुभव के आधार पर अलग ही होते हैं।

अब समय रफ्तार से दौड़ता है। घर के किशोर युवक बन जाते हैं। अधिकतर निर्णय न जाने कब से वे ही लेने लगते हैं। पिता के कुछ कहने पर यह कहकर चुप करा देते हैं कि

“आप नहीं समझेंगे पापा, आपका समय अलग था। ” यह एक वाक्य समझदार पिता के लिए पर्याप्त होता है और वे कलह, विवाद आदि से बचने के लिए अपने समय में सिमटने लगते हैं।

माता -पिता संतानों के जीवन में  हस्तक्षेप करना बंद कर देते हैं और अपने आनंद और वात्सल्य की क्षुधा को तृप्त करने वे नाती-पोते के साथ समय व्यतीत करते हैं।

यह संबंधों की नई खूँटी अवकाश प्राप्त माता -पिता के लिए अलग अनुभव होता है। वे अपने नाती-पोते के साथ एक सुखद सबंध कायम कर जीवन में एक अद्भुत आनंद के भागीदार होते हैं। इस खूँटी में कलह, विवाद मतभेद के लिए कोई स्थान नहीं होता है। उनकी अनंत जिज्ञासाएँ और प्रश्न जीवन के अंतिम पड़ाव में वृद्धजनों को अलौकिक सुख दे जाते हैं।

जीवन के अंत में यही खूँटी सबसे सशक्त और आनंददायी होती है। जीवन परिपूर्ण प्रतीत होने लगता है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 285 ☆ कथा-कहानी – नवाचारी बिजनेस आइडिया ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्यात्मक लघुकथा – नवाचारी बिजनेस आइडिया। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 285 ☆

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© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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