Anonymous Litterateur of Social Media # 189 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 189)
Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.
Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.
He is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!
English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 189
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है दोहा मुक्तिका…।)
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-19 – किताबें उधार लेकर क्यों पढ़ें? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
वैसे तो यादों की पिटारी किसी की कभी खत्म नहीं होती, लेकिन क्या क्या, कहाँ छिपा हुआ है, किस कोने में छिपा है, यह खुद पिटारी रखने वाला भी नहीं जानता क्योंकि यादें हमारे अवचेतन में रहती हैं और सही समय पर कैमरे की फ्लैश की तरह कौंध जाती हैं! बिजली की तरह चमकने लगती हैं! बेशक किसी लेखक से कम मुलाकातें रही हों लेकिन उसका योगदान बहुत ज्यादा हो, फिर तो याद करना बनता है न?
ऐसे ही जालंधर से जुड़े पत्रकार रहे हैं-रमेश कपिला और उनकी पत्नी मधुर कपिला! रमेश कपिला का जिक्र मोहन राकेश के साथ होना चाहिए था, ऐसा बहुत मित्रों ने कहा लेकिन मेरी कपिला जी से चंडीगढ़ रहते हुए भी बड़ी औपचारिक सी मुलाकातें हैं, उनके निकट व पारिवारिक सदस्य अनिल कपिला जरूर दैनिक ट्रिब्यून में मेरे सीनियर रहे, जिनसे काफी निकटता रही। हम दोनों यदि नाइट ड्यूटी साथ आ जाती तो ड्यूटी खत्म होने के बाद टेबल टेनिस खेलते थे और मैं मोहाली रात को और भी देर से घर पहुंचता! अनिल कपिला काफी चुहल करने करते थे न्यूज़ रूम में और आज भी उनकी यह आदत गयी नहीं! रमेश कपिला की पत्नी मधुर कपिला से यादें जुड़ी हैं कि वे संगीत नाटक व चित्रकला कार्यक्र्मों की कवरेज कर पहुंचती थीं और हमारे सम्पर्क की कड़ी साहित्य भी था और वे अच्छी लेखिका थीं! हम साहित्य की चर्चा सेक्टर ग्यारह स्थित मीरा गौतम के यहाँ करते! मीरा गौतम के पति रमेश गौतम ‘नवभारत टाइम्स’ के चंडीगढ़ से विशेष संवाददाता थे। मीरा गौतम ने काफी समय सहारनपुर के किसी काॅलेज में बिताया, फिर वे कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में भी कुछ समय रहीं, वे अच्छी कवयित्री हैं और उनके काव्य संग्रह भी आये!
यहीं मैं पंजाबी के प्रसिद्ध नाटककार आत्मजीत को भी याद कर रहा हूँ, जो मोहाली रहते हैं और उन्होंने बंटवारे के दुखा़ंत को लेकर लिखी मंटो की कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ का ऐसा शानदार रूपांतरण किया कि इससे म़ंटो के साथ आत्मजीत भी खूब याद रहेंगे! यही पंजाबी रूपांतरण नवांशहर में डाॅ देवेंद्र द्वारा गठित ‘ कला संपर्क’ की ओर से हमारे शहर में मंचित किया गया, जिसकी नायिका बीरी थी! इसके मुख्य किरदार में रेशम थे और बहुत भावपूर्ण अभिनय किया था।
इन दोनों का एक संवाद आज तक नहीं भूला। जब बेटी के रूप में बीरी मुख्य किरदार से मिलने जेल जाती है तब वह घर की खैर खबर पूछता है तो बेटी बताती है कि हमारी कुतिया ने बच्चे दिये हैं। इस पर पिता पूछता है कि फिर बधाई के रूप में क्या किया? इस पर बेटी जवाब देती है कि मैं यह खबर बांट आई थी! क्या बात है आत्मजीत! यहीं से मेरा परिचय आत्मजीत से बना!
चूंकि देवेंद्र हमारे ही घर में किराये पर रहते थे तो उन्होंने यह बात कहते मुझे भी जोड़ लिया कि इस छोटे शहर में रंगकर्म में मेरा सहयोग कीजिये! इस नाटक की रिहर्सल्ज हमारे ही घर हुईं क्योंकि देवेंद्र हमारे ही रहते थे! इसकी एक भूमिका गढ़वाली लड़की सुषमा ने निभाई थी तो मुख्य भूमिका रेशम कलेर ने! निर्दशन पुनीत सहगल का और हमने इसे आर्य स्कूल के पीछे वाले मैदान में नववर्ष की पूर्व संध्या पर पहली बार अपने छोटे से शहर में मंचित किया था! सुधा जैन और बूटा सिंह कोहेनूर ने संगीत व गायन पक्ष संभाला था! मेरे बचपन के मित्र और आजकल नवांशहर के प्रसिद्ध डाॅ आदर्श रामपाल ने नाटक मंचन के आर्थिक पक्ष को दूर करते अपनी दराज खोलकर कहा था कि जितने पैसे चाहिएं ले लो देवेंद्र लेकिन मेरा यह दोस्त किसी और से पैसे मांगने नहीं जायेगा! असल में मैंने नवमी से ग्यारहवी़ तक मेडिकल ही रखा था और राजपाल मेरे तीन वर्ष तक सहपाठी रहे! फिर मैं बीए करने लगा और वे अमृतसर से डाॅक्टर बन कर आये!
तो मित्रो! नाटक के माध्यम से मैं डाॅ आत्मजीत के सम्पर्क में आया और उनके पंजाबी नाटक में दिये योगदान को जान पाया! मैंने उन्हें प्रसिद्ध लेखक मोहन राकेश की पत्नी अनिता राकेश की इंटरव्यू दिखाई, जो दिल्ली जाकर की थी और बरसों बाद मेरी पुस्तक ‘यादों की धरोहर’ का आधार बनी!
खैर! डाॅ आत्मजीत को इससे अपनी पत्रिका मंचन’ के मोहन राकेश विशेषांक का आइडिया आया, जिसमें मेरी वही इंटरव्यू भी अनुवाद कर प्रकाशित की और यही नहीं मैने डाॅ आत्मजीत को सत्रह वर्ष से संभाले ‘सारिका’ का विशेषांक इस आग्रह के साथ दिया कि मुझे लौटा देंगे, विशेषांक तो आया पर ‘सारिका’ का अंक आज तक नहीं लौटा! जैसे मैंने भी एक बार डाॅ चंद्र त्रिखा के निजी पुस्तकालय से ‘अज्ञेय की प्रिय कहानियाँ’ यह कहकर ले ली कि लौटा दूंगा पर मेरी ट्रांसफर हिसार हो गयी और यह मेरे साथ हिसार चली आई! इसीलिए तो कहा जाता है कि गंगा में विसर्जित की गयीं अस्थियाँ और उधार दी गयीं किताबें कभी वापस नहीं आतीं! तभी तो मोहन राकेश कहते थे कि हम किसी से उनके घर की और कोई चीज़ उधार नहीं मांगते तो किताब ही क्यों उधार मांगते हो? यानी किताबें खरीद कर पढ़िए!
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “क़यामत एक दिन तो लाज़िमी है…” ।)
ग़ज़ल # 123 – “ क़यामत एक दिन तो लाज़िमी है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना – “अभी भी बहुत शेष है” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ ‘अनुगुंजन’ से – अभी भी बहुत शेष है ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
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मंजिले पार करते हुये नित नई जिंदगी आज इस ठौर तक आ गई ।
राह फिर भी अभी भी बहुत शेष है इन चरण के चिरन्तन चलन के लिये ।। १ ।।
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राह में मोड़ आये, चौराहे मिले कई उतारों-चढ़ावों के भी सिलसिले ।
कुछ तो सीखा है, फिर भी बहुत शेष है मौन मन के निरन्तर मनन के लिये ।। २ ।।
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सड़कें चिकनी औ’ चौड़ी चमकदार हैं फिर भी कचरों औ’कांटों के अम्बार हैं।
रोशनी कम अँधेरा बहुत शेष है दूर करने अभी भी, किरण के लिये ।। ३ ।।
*
आये दिन सुख के नये लाखों साधन बने लोग फिर भी हैं सहमें, डरे अनमने ।
सीखना सबको अब भी बहुत शेष है रीति नई. प्रीति के आचरण के लिये ।। 8 ।।
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पर लगा, आदमी बहुत उड़ने लगा छोड़ धरती सितारों से जुड़ने लगा ।
पर समझना सभी को बहुत शेष है यह धरा ही है जीवन मरण के लिये ।। ५ ।।
☆ “विटामिन जिंदगी…” – लेखक : श्री ललितकुमार ☆ परिचय – डॉ. मुग्धा सिधये तगारे ☆
पुस्तक – विटामिन जिंदगी
लेखक – श्री ललितकुमार
परिचय : डॉ. मुग्धा सिधये तगारे
आयुष्याला खुराक पुरवणाऱ्या, निराशावादी माणसाच्या डोळ्यात सणसणीत अंजन घालणारं हे पुस्तक… 47 वर्षाच्या एका (पोलिओग्रस्त) दिव्यांगाच्या आयुष्याची ही कहाणी आहे. लेखकाने अगदी बालपणापासून आपल्या आयुष्याचा पट इथे उलगडून दाखवला आहे. दिल्लीमधे सुतारकाम, मूर्तीकाम करणाऱ्यांच्या घरात त्यांचा जन्म झाला. चौथ्या वर्षापर्यंत इतरांसारखाच तो सामान्य धडधाकट मुलगा होता. त्यानंतर एक दिवस खूप ताप आला… बरेच दिवस राहिला आणि पोलिओच्या विषाणूचं शरीरावर आक्रमण झालं. लेखक म्हणतो,” पुढच्या दुःख व कष्टांसाठी नियतीनं “माझी” निवड केली आणि जणु आणखी कोणाला वाचवलं.” संपूर्ण पुस्तकामधे लेखकाने आपली संघर्षयात्रा विस्तृतपणे उलगडून तर दाखवली आहे पण कुठेही रडगाण्याचा सूर नाही! शरीर विकलांग असलं तरी मनं अत्यंत सुदृढ आहे. लहानपणापासूनच खरं तर सगळ्याच बाबी त्यांच्या विरोधात होत्या. घरी शिक्षणाची फारशी पार्श्वभूमी नाही (वडिल ११ वी शिकलेले) आर्थिक स्तर निम्न मध्यमवर्गीय, घराजवळ, शाळेत फारसे कोणी मित्र नाहीत…. तरीही त्यांच्याकडे असणाऱ्या + ve गोष्टींच्या जोरावर ते आयुष्यात एक एक पाऊल पुढे टाकत गेले.
सुरुवातीपासूनच एकत्र कुटुंबातील आजी-आजोबा, आई-वडिल काका-काकू, बहिण भाऊ हे सारे ललितच्या मागे भक्कमपणे उभे राहिले. बालपणी ४ वर्षांचा असताना अचानक पाय लुळे पडून उभं राहता येते नाही हा धक्का त्यांच्यासाठी मोठा होता. काहीही करून त्याला उभं करायचं या जिद्दीने त्याच्या घरच्यांनी वैदू, वैदय, डॉक्टर, जो कोणी जे काही सांगेल ते सर्व उपाय केले. सतत मालिश, पहाटे उठून गरम पाण्यात पाय बुडवून बसणे, नाही नाही ती चूर्ण, गोळ्या सतत खाणे काढे पिणे ह्या गोष्टी ४-५ वर्षाच्या मुलाच्या वयाला अतीच होत्या. पण लेखकाने बालपण कोमेजून गेलं असं न म्हणता घरच्यांचे प्रामाणिक प्रयत्न, जिद्द, कष्ट त्यांनी अधोरेखित केली.
शाळा कॉलेजमथले त्यांचे अनुभव वाचून समाज म्हणून आपण किती अससंस्कृत आहोत याचा सज्जड पुरावाच मिळतो. शाळेमधली मुलं त्याच्या कुबड्या हिसकावून घ्यायचे, चेष्टा करायचे पण शिक्षकही त्याच्यासमोरच त्याची कीव करायचे. एवढच की ११-१२ च्या वर्गातले शिक्षक, प्रयोगशाळा मदतनीसही त्याला काहीही मदत करायचे नाहीत. केवळ एका मित्राच्या मदतीमुळे मी रसायनशास्त्राचे प्रयोग करू शकलो असं लेखक म्हणतो. टोकाचा स्वाभिमानी, असलेल्या ललितला दुसर्याकडून कीव, दया, उपेक्षा मिळाली की चीड यायची. वाईट वाटायचं. आपल्याला इतरांसारखेच समानतेने वागणूक मिळावी एवढीच त्यांची इच्छा असायची. ती इच्छा फक्त परदेशी शिक्षणाच्या वेळी ‘स्काॅटलंड’ इथे पूर्ण झाली. होती. पण त्याची पायाभरणी फार पूर्वी शाळेतच झाली होती.
इतर दिव्यांगांपेक्षा ललित एवढा वेगळा आहे की त्याने आयुष्यात असाधारण गोष्टी केल्या. प्रत्येक वेळी सुरक्षित कोषातून तो बाहेर पडला व पुढे गेला. याचं कारण म्हणजे जिद्द व आत्मसन्मान. १२ वी मधे वर्गात त्याला सर्वात जास्त मार्क मिळाले. सर्वोत्कृष्ठ विद्यार्थी (best outgoing) म्हणून मंचावरून नाव घोषीत झाले तेव्हा खरं तर त्याला खूप आनंद झाला होता. पण जेव्हा मागच्या ओळीत बसलेला मुलगा तो अपंग आहे ना.. असं म्हणाला तेव्हा क्षणार्थात तो आनंद झाकोळला गेला. तेव्हा मनाशी ठरवले की, मी कधीही अपंग कोट्यातून कुठेही प्रवेश घेणार नाही. इथेच त्याचा ‘वेगळा’ ते ‘विशेष’ हा प्रवास सुरु झाला. पण त्याआधी शाळेच्या पायऱ्या चढण्यासाठी, कुबड्या घेऊन बसमधे चढण्यासाठी, 4-4 km. चालण्यासाठी त्याला अविरत शारीरीक कष्ट कसे घ्यावे लागले ते वाचून अंगावर काटा येतो.
BSC करता करताच माहिती काढून (इ.स. २००० चा सुमार) नवीनच सुरु झालेले जीएनआयटीचे काँप्युटरचे कोर्सेस त्यांनी केले. तिथच उत्तम मार्क मिळवून आधीच्या वर्गातल्या मुलाना शिकवले. शिक्षणाला, ज्ञानाला कसा मान मिळतो याचा प्रथम अनुभव त्यांना तिथे आला. त्यानंतर त्यानी संयुक्त राष्ट्रसंघाच्या दिल्ली कार्यालयात काम करायला सुरुवात केली. बरचसं स्वयंसेवी पद्धतीचं हे काम होत. त्यातून पैसे कमी मिळाले तरी प्रचंड अनुभव गाठीशी आला. त्यातच पुढे त्या ऑफिसमधे कायम नोकरी मिळाली. तरी त्याचा राजीनामा देऊन त्यांनी परदेशात शिक्षणासाठी अर्ज केले. व संपूर्ण शिष्यवृत्तीसह स्कॉटलंडला बायोइनफोरमॅटिक्स मधे दीडवर्ष एकट्याने राहून डिग्री घेतली. पुढे भारतात परतल्यावर अपंगांसाठी online forum स्थापन, केला व भारतभरच्या दिव्यांगांशी ते जोडले गेले – computory ज्ञान वापरुन त्यांनी भारतीय काव्य एकत्र आणून विकीपिडियावर काव्यकोषाची निर्मिती केली. कॅनडामधे शिष्यवृत्ती मिळवून PHD साठीही ते गेले पण शरीर अजिबातच साथ देईना. त्यामुळे परत फिरावं लागलं तरी घरी राहून ते १०-१० तास, काम करतात. त्यांना राष्ट्रपतींच्या हस्ते विशेष व्यक्तीचा रोल मॉडेल हा पुरस्कार मिळाला आहे.
आयुष्याच्या आजवरच्या प्रवासाबद्दल लेखक म्हणतो दुःख आणि असफलता हे जीवनाच्या इंजिनासाठी इंधन म्हणून उत्तम काम करतं. दुःखात जगणं व दुःखाबरोबर जगणं हया दोन्हीमधे खूप फरक आहे. खरंच किती समर्पक आहेत या ओळी ! म्हणूनच अत्यंत प्रेरणादायी असे हे पुस्तक जरूर वाचलं पाहिजे.
परीक्षण : डाॅ. मुग्धा सिधये – तगारे
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ “वन्ही तापला तापला…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर☆
पूरे करं बाबा आता तुझं असं आग ओकत राहणं… नाही रे नाही होतं आम्हाला हा ताप सहन करणं… त्या तुझ्या कडकडीत उन्हाच्या झळीने सावल्या देखिल करपून गेल्या… हिरव्या लता झाडाझुडांच्या फांद्या फांद्या भेगाळल्या.. नदी नाले ओढे बावी तळी विहिरी कोरडी कोरडी ठाक कि रे झाली… पाण्याच्या एका थेंबासाठी आसुसली भुमी नि माणसं राहिली तहानलेली… भेगाळलेल्या शेतामध्ये फुले निवडूंगाचा लाल बोंड… खायला चारा नसे पाणी नसे पिण्याला सुकून गेली सारी सारी तोंड… अविचाराने करत आलो निर्सगाचा र्हास तो आम्ही… त्याचीच फळे भोगतोय कि रे जन्मोजन्मी… हालेना झाडाचे ते पान वारा देखील रागावला.. जणू होळीचा तो वणवा वणवा गावातून नाही अजूनही शमला… निळ्या आभाळाच्या छताला भास्कर तो सदा तळपला… साऱ्या सृष्टीचा जीव तो व्याकुळला…
… जरा थांब तू घेशील सबुरीने.. देतो तुला वचन गळाशपथेने.. करीन सांभाळ वसुंधरेचा लाविन एकेक झाड..निश्चिय करतो हिरवाई आणायचा…विचाराला देईन कृतीची जोड.. तुझे रूप तुला मुळचे आणीन पुन्हा तू चिंता सोड… पण पण तू आता आवरते घे रे तापण्याला…अंगी अवसान गळपटले ते शिक्षा भोगण्याला… तू आमची मायबाप मग चुकले माकले लेकरू तुझे त्याला तू क्षमा नाही करणार तो कोण करणार सांग बरे आम्हाला…
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ख़ामोशी एवं आबरू… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 233 ☆
☆ ख़ामोशी एवं आबरू… ☆
‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते, कभी समझा नहीं पाते।’ शब्द ब्रह्म है, सर्वव्यापक है, सृष्टि का मूलाधार व नियंता है और समस्त संसार का दारोमदार उस पर है। सृष्टि में ओंम् शब्द सर्वव्यापक है, जो अजर, अमर व अविनाशी है। इसलिए दु:ख, कष्ट व पीड़ा में व्यक्ति के मुख से ‘ओंम्, मैं तथा मां ‘ शब्द ही नि:सृत होते हैं। परमात्मा ने शिशु की उत्पत्ति व संरक्षण का दायित्व मां को सौंपा है। वह नौ माह तक भ्रूण रूप में गर्भ में पल रहे शिशु का, अपने लहू से सिंचन व भरण-पोषण करती है, जो किसी करिश्मे से कम नहीं है। जन्म के पश्चात् शिशु के मुख से पहला शब्द ओंम, मैं व मां ही प्रस्फुटित होता है। मां के संरक्षण में वह पलता-बढ़ता है और युवा होने पर वह उसके लिए पुत्रवधु ले आती है, ताकि वह भी सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देकर अपने दायित्व का वहन कर सके।
घर में गूंजती बच्चों की किलकारियां सुनने को आतुर मां… अपने आत्मज के बच्चों को देख पुनः उस अलौकिक सुख को पाना चाहती है और यह बलवती लालसा उसे हर हाल अपने आत्मजों के परिवार के साथ रहने को विवश करती है। वहां रहते हुए वह ख़ामोश रहकर हर आपदा सहन करती रहती है, ताकि हृदय में खटास उत्पन्न न हो और कटुता के कारण दिलों में दूरियां न बढ़ जाएं। वह परिवार रूपी माला के सभी मनकों को स्नेह रूपी डोरी में पिरोकर रखना चाहती है, ताकि घर में सामंजस्य व सौहार्द बना रहे। परंतु कई बार यह ख़ामोशी उसके अंतर्मन को सालने लगती है। वैसे ख़ामोशी की सार्थकता, सामर्थ्य व प्रभाव- क्षमता से सब परिचित हैं। ख़ामोशी सबकी प्रिय है और वह आबरू को ढक लेती है, जो समय की ज़बरदस्त मांग है। ‘रिश्ते ख़ामोशी का आभूषण धारण कर न केवल जीवित रहते हैं, बल्कि पनपते भी हैं। वे केवल उसकी शोभा ही नहीं बढ़ाते…उसके जीवनाधार हैं।’ लड़की जन्मोपरांत पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे में, विवाह के पश्चात् पति के घर की चारदीवारी में और उसके देहांत के बाद पुत्र के आशियां में सुरक्षित समझी जाती है। परंतु आजकल ज़माने की हवा बदल गई है और वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। सो! समय की नज़ाकत को देखते हुए बचपन से ही उसे मौन रहने का पाठ पढ़ाया जाता है; असंख्य आदेश-उपदेश दिए जाते हैं; प्रतिबंध लगाए जाते हैं और हिदायतें भी दी जाती हैं। अक्सर भाई के साथ प्रिय व असामान्य व्यवहार देख उसका हृदय क्रंदन कर उठता है और उसके समानाधिकारों की मांग करने पर, उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि ‘वह कुल-दीपक है, जो उन्हें मोक्ष के द्वार तक ले जाएगा।’ परंंतु तुम्हें तो यह घर छोड़ कर जाना है… सलीके से मर्यादा में रहना सीखो। ख़ामोशी तुम्हारा श्रृंगार है और तुम्हें ससुराल में जाकर सबकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए ख़ामोश रहना है… नज़रें झुका कर हर हुक्म बजा लाना है तथा उनके आदेशों को वेद-वाक्य समझ हर आदेश की अनुपालना करनी है।
इतनी हिदायतों के बोझ तले दबी वह नवयौवना, पति के घर की चौखट लांघ उस घर को अपना घर समझ सजाने-संवारने में लग जाती है और सबकी खुशियों के लिए अपने अरमानों का गला घोंट, अपने मन को मार, ख्वाहिशों को दफ़न कर पल-पल जीती, पल-पल मरती है; कभी उफ़् नहीं करती है। परंतु जब परिवारजनों की नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरों की भांति उसकी पल-पल की गतिविधियों को कैद करती हैं और उसे प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देती हैं, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है। परंतु फिर भी वह ख़ामोश अर्थात् मौन रहती है; प्रतिकार अथवा विरोध नहीं दर्ज कराती तथा प्रत्येक उचित-अनुचित व्यवहार, अवमानना व प्रताड़ना को सहन करती है। परंतु एक दिन उसके धैर्य का बांध टूट जाता है और उसका मन विद्रोह कर उठता है। उस स्थिति में उसे अपने अस्तित्व का भान होता है। वह अपने अधिकारों की मांग करती है, परंतु कहां मिलते हैं उसे समानाधिकार …और वह असहाय दशा में तिलमिला कर रह जाती है। वह स्वयं को चक्रव्यूह में फंसा हुआ पाती है, क्योंकि जिस घर को वह अपना समझती रही, वह उसका कभी था ही नहीं। उसे तो किसी भी पल उस घर को त्यागने का फरमॉन सुनाया जा सकता है। अक्सर महिलाएं परिवार की आबरू बचाने के लिए ख़ामोशी का बुर्क़ा अर्थात् आवरण ओढ़े घुटती रहती हैं; मुखौटा धारण कर खुश रहने का स्वांग रचती हैं। विवाहोपरांत माता-पिता के घर के द्वार उनके लिए बंद हो जाते हैं और पति के घर में वे सदा परायी अथवा अजनबी समझी जाती हैं…अपने अस्तित्व को तलाशती, हृदय पर पत्थर रख अमानवीय व्यवहार सहन करती, कभी प्रतिरोध नहीं करती। अन्तत: इस संसार को अलविदा कह रुख़्सत हो जाती हैं।
परंतु इक्कीसवीं सदी में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं। बचपन से लड़कों की तरह मौज-मस्ती करना, वैसी वेशभूषा धारण कर क्लबों व पार्टियों से देर रात घर लौटना व अपने हर शौक़ को पूरा करना… उनके जीवन का मक़सद बन जाता है और वे अपने ढंग से अपनी ज़िंदगी जीने लगती हैं। सो! प्रतिबंधों व सीमाओं में जीना उन्हें स्वीकार नहीं, क्योंकि वे पुरुष की भांति हर क्षेत्र में दखलांदाज़ी कर सफलता प्रात कर रही हैं। अब वे सीता की भांति पति की अनुगामिनी बनकर जीना नहीं चाहतीं और न ही अग्नि-परीक्षा देना उन्हें मंज़ूर है। वे पति की जीवन-संगिनी बनने की हामी भरती हैं, क्योंकि कठपुतली की भांति नाचना उन्हें अभीष्ठ नहीं। वे स्वतंत्रता-पूर्वक अपने ढंग से जीना चाहती हैं। मर्यादा की सीमाओं व दायरे में बंध कर जीवन जीना उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके भयावह परिणाम हमारे समक्ष हैं। वे रिश्तों की अहमियत नहीं स्वीकारतीं; न ही घर-परिवार के क़ायदे-कानून उनके पांवों में बेड़ियां डाल कर रख सकते हैं। वे तो सभी बंधनों को तोड़ स्वतंत्रता-पूर्वक जीना चाहती हैं। सो! बात-बात पर पति व परिवारजनों से व्यर्थ में उलझना, उन्हें भला-बुरा कहना, प्रताड़ित व तिरस्कृत करना… उनके स्वभाव में शामिल हो जाता है, जिसके भीषण परिणाम तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं।
संयुक्त परिवारों का प्रचलन तो गुज़रे ज़माने की बात हो गया है। एकल परिवार व्यवस्था के चलते पति-पत्नी एक छत के नीचे अजनबी-सम रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख व संबंध- सरोकारों से बेखबर… अपने-अपने द्वीप में कैद। वैसे हम दो, हमारे हम दो का प्रचलन ‘हमारा एक’ तक आकर सिमट गया। परंतु अब तो संतान को जन्म देकर युवा-पीढ़ी अपने दायित्वों का निर्वहन करना ही नहीं चाहती, क्योंकि आजकल वे सब ‘तू नहीं और सही’ में विश्वास करने लगे हैं और ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ ने तो संस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं। इसलिए हर तीसरे घर की लड़की तलाक़शुदा दिखाई पड़ती है। लड़के भी अब इसी सोच में आस्था व विश्वास रखने लगे हैं और वे भी यही चाहते हैं। परंतु उन्हें न चाहते हुए भी घर में सुख-शांति व संतुलन बनाए रखने के लिए उसी ढर्रे पर चलना पड़ता है। अक्सर अंत में वे उसी कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जिसका हर रास्ता अंधी गली में जाकर खुलता है अर्थात् विनाश की ओर जाता है। सो! वे भी ऐसी आधुनिक जीवन-संगिनी से निज़ात पाना बेहतर समझते हैं। अक्सर लड़के तो आजकल विवाह करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को सीखचों के पीछे देखने की भयावह कल्पना-मात्र से कांप उठते हैं। शायद! यह विद्रोह व प्रतिक्रिया है– उन ज़ुल्मों के विरुद्ध, जो महिलाएं वर्षों से सहन करती आ रही हैं।
‘शब्द व सोच दूरियां बढ़ा देते हैं। कई बार दूसरा व्यक्ति उसके मन के भावों को समझना ही नहीं चाहता और कई बार वह उसे समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है…दोनों स्थितियां भयावह व गंभीर हैं।’ इसलिए वह अपनी सोच, अपेक्षा व भावों को उजागर भी नहीं कर पाता। इन असामान्य परिस्थितियों में मन की दरारें इस क़दर बढ़ती चली जाती हैं, जो खाई के रूप में मानव के समक्ष आन खड़ी होती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा’ अर्थात् अजनबी बनकर जीने से बेहतर है– संबंध-विच्छेद कर स्वतंत्रता व सुक़ून से अपनी ज़़िंदगी जीना। जब ख़ामोशियां डसने लगें और हर पल प्रहार करने लगे, तो अवसाद की स्थिति में जीने से बेहतर है… उनसे मुक्ति पा लेना। जीवन में केवल समस्याएं नहीं हैं, धैर्यपूर्वक सोचिए और संभावनाओं को तलाशने का प्रयास कीजिए। हर समस्या का समाधान उपलब्ध होता है और उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते। आवश्यकता है, शांत मन से उसे खोजने की,
अपनाने की और विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने की। इसलिए ‘व्यक्ति जितना डरेगा, लोग उसे उतना डरायेंगे’…सो! हिम्मत करो, सब सिर झुकायेंगे। ‘लोग क्या कहेंगे’ इस धारणा-भावना को हृदय से निकाल बाहर फेंक दें, क्योंकि आपाधापी भरे युग में किसी के पास किसी के लिए समय है ही कहां… सब अपने- अपने द्वीप में कैद हैं। सो! व्यर्थ की बातों में मत उलझिए, क्योंकि दु:ख में व्यक्ति अकेला होता है और सुख में तो सब साथ खड़े दिखाई देते हैं।
इसलिए दु:ख आपका सच्चा मित्र है, सदा साथ रहता है… सबक़ सिखाता है और जब छोड़कर जाता है, तो सुख देकर जाता है। वास्तव में दोनों का एक स्थान पर इकट्ठे रहना संभव नहीं है। इसलिए संसार में रहते हुए स्वयं को आत्म- सीमित अर्थात् आत्मकेंद्रित मत कीजिए, क्योंकि यहां अनंत संभावनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह मत सोचिए कि ‘मैं नहीं कर सकता। पूर्ण प्रयास कीजिए और सभी विकल्प आज़माइए। परंतु यदि फिर भी सफलता न प्राप्त हो, तो उस विषम व असामान्य परिस्थिति में अपना रास्ता बदल लेना श्रयेस्कर है, ताकि आबरू सुरक्षित रह सके।
ख़ामोशी मौन का दूसरा रूप है। मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया न देने से समस्याएं, बाधाओं के रूप में आपका रास्ता नहीं रोक सकतीं…स्वत: समाधान निकल आता है। इसलिए समस्या के उपस्थित होने पर क्रोधित होकर त्वरित निर्णय मत लीजिए… चिंतन-मनन कीजिए…सभी पहलुओं पर सोच-विचार कीजिए; समाधान आपके सम्मुख होगा। यही है…जीने की सर्वश्रेष्ठ कला। परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर ही मानव को उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए ख़ामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं। ख़ामोशी अथवा मौन रहना उर्वरक है, जो परिवार में प्रेम व रिश्तों को गहनता प्रदान करता है। दोनों स्थितियों में प्रतिदान का भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि वह हमें स्वार्थी बनाता है। सो! किसी से आशा व अपेक्षा मत रखिए, क्योंकि अपेक्षा ही दु:खों का कारण है और मांगना तो मरने के समान है, परंतु देने में सुख व संतोष का भाव निहित है। इसलिए सहनशक्ति बढ़ाएं। यह सर्वश्रेष्ठ दवा है और ख़ामोशी की पक्षधर है, जिसके संरक्षण में संबंध फलते-फूलते व पूर्ण रूप से विकसित होते हैं।
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – बस वेदना ही वेदना है…।
रचना संसार # 8 – नवगीत – बस वेदना ही वेदना है… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’