मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १७ — श्रद्धात्रयविभागयोगः — (श्लोक ११ ते २०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १७ — श्रद्धात्रयविभागयोगः — (श्लोक ११ ते २0) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते । 

यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥ ११ ॥

*

शास्त्रोक्त यज्ञ कर्तव्य निष्काम कर्म बुद्धीने

सात्विक तो यज्ञ संपन्न समाधानी वृत्तीने ॥११॥

*

अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्‌ । 

इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्‌ ॥ १२ ॥

*

प्रयोजन फलप्राप्तीचे अथवा केवळ दिखाव्याचे

ऐश्या यज्ञा भरतश्रेष्ठा राजस म्हणून जाणायाचे ॥१२॥

*

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्‌ । 

श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ १३ ॥

*

नाही विधी ना अन्नदान, मंत्र नाही दक्षिणा

श्रद्धाहीन यज्ञा ऐशा तामस यज्ञ जाणा ॥१३॥

*

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌ । 

ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ १४ ॥

*

देव ब्राह्मण गुरु ज्ञानी यांची पवित्र आर्जवी पूजा

ब्रह्मचर्य अहिंसा आचरत हे शारीरिक तप कुंतीजा ॥१४॥

*

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्‌ । 

स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥ १५ ॥

*

प्रिय हितकारक यथार्थ क्लेशहीन भाषण

वेदपठण नामस्मरण हे तप वाणीचे अर्जुन ॥१५॥

*

मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः । 

भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ १६ ॥

*

प्रसन्न मन शांत स्वभाव आत्मनिग्रह मौन

पवित्र मानसे भगवच्चिंतन मानस तप जाण ॥१६॥

*

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः । 

अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥१७॥

*

निष्काम वृत्ती श्रद्धाभावे आचरण ही त्रयतप

जाणुन घेई धनंजया तू हेचि सात्विक तप ॥१७॥

*

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्‌ । 

क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्‌ ॥ १८ ॥

*

इच्छा मनी सत्काराची सन्मानाची वा स्वार्थाची

तप पाखंडी हे राजस प्राप्ती क्षणभंगूर फलाची ॥१८॥

*

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः । 

परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्‌ ॥ १९ ॥

*

मन वाचा देहाला कष्टद मूढ हेकेखोर तप

दूजासि असते अनिष्ट जाणी यासी तामस तप ॥१९॥

*

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे । 

देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्‌ ॥ २० ॥

*

दानात नाही उपकार कर्तव्यास्तव दान

देशा काला पात्रा दान तेचि सात्त्विक दान ॥२०॥

 

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 30 – इमोशनल आईसीयू ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना इमोशनल आईसीयू)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 30 – इमोशनल आईसीयू ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

यह कहानी उस दिन की है जब पीताम्बर चौबे अपनी आखिरी सांस लेने के लिए जिले के सबसे ‘प्रसिद्ध’ सरकारी अस्पताल, भैंसा अस्पताल में भर्ती हुए। डॉक्टरों ने कहा था, “बस कुछ और दिनों की बात है, इलाज जरूरी है।” चौबे जी ने सोचा था, चलो सरकारी अस्पताल में जाकर इलाज करवा लेते हैं, पैसे भी बचेंगे और सरकारी व्यवस्था का लाभ भी मिलेगा। मगर क्या पता था कि यहाँ ‘एक्सपायर्ड’ का भी सरकारी प्रोटोकॉल है!

चौबे जी जब अस्पताल के वार्ड में पहुंचे, तो पहले ही दिन डॉक्टर साहब ने बताया, “ये सरकारी अस्पताल है, इमोशन्स का कोई स्कोप नहीं है। हम यहां इलाज करते हैं, बस।”

फिर वह दिन आया, जब पीताम्बर चौबे जी ने अस्पताल के बिस्तर पर आखिरी सांस ली। उनके बगल में खड़ी उनकी गर्भवती पत्नी, संध्या चौबे की दुनिया मानो थम सी गई। लेकिन अस्पताल में तो हर चीज़ ‘मैनेज’ होती है, और इमोशन्स का यहाँ कोई ‘कंसर्न’ नहीं होता। इधर चौबे जी का प्राणांत हुआ और उधर हेड नर्स, शांता मैडम, स्टाफ की भीड़ के साथ वार्ड में आ धमकीं। चेहरा ऐसा, मानो कोई ‘अल्टीमेट हाइजीन चेक’ करने आई हों।

“अरे संध्या देवी! ये बिस्तर साफ करो पहले। यहाँ पर्सनल लूज़ मोमेंट्स का कोई कंसेप्ट नहीं है, ओके? जल्दी क्लीनिंग करो,” नर्स ने एकदम हुक्मनामा सुना दिया। मानो चौबे जी ने सिर्फ एक बिस्तर गंदा किया हो, न कि अपनी जान गंवाई।

संध्या चौबे, जो अपने पति की मौत के गम में डूबी थीं, पर अस्पताल में संवेदनाएँ सिर्फ पब्लिक डिस्प्ले ऑफ इमोशन्स होती हैं। वह तो सरकारी दस्तावेज़ों में एक ‘इवेंट’ हैं, जिसे खत्म होते ही हटा देना होता है। नर्स ने जैसे ही अपना ‘ऑर्डर’ दिया, संध्या की आँखों से आँसू निकल पड़े। उसने बिस्तर की तरफ देखा, मानो अपने पति की आखिरी निशानी को आखिरी बार देख रही हो। लेकिन अस्पताल का स्टाफ मानो एकदम प्रोग्राम्ड मशीन हो, जिसका इमोशन्स से कोई वास्ता ही नहीं।

“मैडम, आँसू बहाने से कुछ नहीं होगा। ये सरकारी अस्पताल है, यहाँ आप ‘एमोशनल अटैचमेंट’ भूल जाइए,” हेड नर्स शांता बोलीं, मानो हर दिन किसी को उसकी भावनाएँ गिनाना उनका रोज का ‘डिपार्टमेंटल प्रोटोकॉल’ हो।

तभी डॉक्टर नंदकिशोर यादव साहब आते हैं, अपने हाथ में नोटपैड लिए हुए, और ऐलान करते हैं, “हमें यहाँ बिस्तर की क्लीनिंग चाहिए। इमोशन्स का यहाँ कोई स्कोप नहीं है। सरकारी बिस्तर पर बस पसीने और खून के दाग चलेंगे, आँसुओं का कोई प्लेस नहीं है।”

संध्या ने डॉक्टर की तरफ देखा। शायद कुछ कहने का प्रयास किया, लेकिन एक ऐसा दर्द, जो शब्दों में नहीं आ सकता। और डॉक्टर यादव ने एक और ‘प्रोफेशनल’ गाइडलाइन दी, “देखिए, यहाँ नया पेशेंट एडमिट करना है। ये अस्पताल है, आपका पर्सनल इमोशनल जोन नहीं!”

तभी सफाई कर्मी हरिचरण सिंह आते हैं, अपने कंधे पर झाड़ू और हाथ में एक पुरानी बाल्टी लिए हुए। “अरे भाभीजी! चलिए, जल्दी फिनिश करें, हमें भी अपना काम निपटाना है। यहाँ ये ‘इमोशनल ड्रामा’ का टाइम नहीं है।”

हरिचरण सिंह का डायलॉग सुनते ही नर्स शांता जोर से हंस पड़ीं, “देखो भई, हार्डवर्किंग स्टाफ है हमारा। भाभीजी, ये आँसू आपकी अपनी ‘पर्सनल केमिकल’ हैं, लेकिन यहाँ पब्लिक हाइजीन का प्रोटोकॉल है। अगर ऐसे ही चलता रहा तो ये अस्पताल एक ‘इमोशनल पार्क’ बन जाएगा!”

संध्या चौबे को यह भी फरमान सुनना पड़ा कि उनके आँसू इस सरकारी बिस्तर की ‘प्योरिटी’ को खराब कर सकते हैं। मानो उनके पति की मौत और इस बिस्तर का ‘सैनिटाइजेशन’ एक ही मुद्दा हो। “ये बेड क्या मंदिर की मूर्ति है, जो उसकी पवित्रता बनाए रखनी है?” संध्या सोचने लगीं। लेकिन कौन सुने? यहाँ सबको सिर्फ काम का ‘आउटकम’ चाहिए था।

बिस्तर, जो किसी के आखिरी पल का गवाह बना, अब उसकी पहचान एक ‘डर्टी गारमेंट’ के रूप में बदल गई। चौबे जी का दुःख, उनकी मौत का दर्द, बस स्टाफ की भाषा में एक ‘मैनेजमेंट टास्क’ था, जिसका निपटारा भी उतनी ही बेरुखी से होना था। मानो बिस्तर पर कोई इंसान नहीं, बल्कि बस एक ‘ट्रॉले की एक्सपायर्ड प्रोडक्ट’ पड़ा हो।

यह समाज, यह व्यवस्था – जहाँ संवेदनाएँ सरकारी फाइल में ‘फॉर्मेलिटी’ बनकर रह जाती हैं, और लोग इस तरह की घटनाओं को मानो मनोरंजन की तरह देखते हैं। जैसे ही बिस्तर खाली हुआ, वैसे ही नए मरीज़ के लिए ‘स्पेस’ तैयार हो गया। आखिर सरकारी अस्पताल का काम चलता रहे, पीताम्बर चौबे का ‘इमोशनल केस’ यहाँ का मुद्दा नहीं था।

संवेदनाओं की ऐसी सरकारी व्यवस्था ने जैसे हर इंसान के भीतर एक ‘इमोशनल आईसीयू’ बना दिया है, जिसमें संवेदनाएँ तोड़ दी जाती हैं, लेकिन किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 222 ☆ विचार मंथन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना विचार मंथन। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 22२ ☆ विचार मंथन

कभी – कभी हम सब अनजाने ही नादानी कर  बैठते हैं और फिर जोर- जोर से उसके प्राश्चित हेतु प्रयास करने लगते हैं। ऐसा ही एक बार  अनोखेलाल जी के साथ हुआ। जब ये अपने दोस्त के घर में चाय पी रहे थे तभी   हैंडल इनके हाथ में आ गया और कप नीचे, जिससे चाय कालीन में फैल गयी अब तो इन्होंने आदत के अनुरूप  जेब से फेवीक्विक निकाला और हैंडल को  कप से लगाते हुए बोले, भाभी जी फीस दीजिये  आपके इस टूटे हुए कप को सुधार दिया। तभी उनकी छोटी बिटिया तपाक से बोल पड़ी, “अंकल ये कारपेट कौन साफ करेगा …? वैसे भी मम्मी कहतीं हैं कि आप तो जब देखो  सिर खाने चले आतें हैं, अपने न सही तो दूसरे के समय की कद्र करनी चाहिए।”

अब तो वहाँ एक अनचाहा सन्नाटा छा गया, अनोखेलाल जी उठे और चुप चाप  जाते हुए सोच रहे थे कि शायद कोई उन्हें रुकने के लिए कहे।

***

वातावरण शुद्धता

व्यक्ति मन प्रबुद्धता

हवन करेंगे मिल

अग्नि को जलाइए ।

*

आहुति के साथ- साथ

हवि रखें  हाथ- हाथ

मंत्र मुख बोलकर

ईश को मनाइए ।।

*

कामनाएँ पूर्ण सारी

शुभ कार्यों की बारी

स्वाहा – स्वाहा कहकर

देव को बुलाइए ।।

*

यजेश्वर विष्णु देव

समिधायें खूब लेव

घी गुड़ खीर पूड़ी

भोग को लगाइए ।।

*

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 229 ☆ गीत – अमरत्व हो तुम इस धरा के…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 229 ☆ 

गीत – अमरत्व हो तुम इस धरा के ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

(एक गीत – एक शहीद के नाम)

अमरत्व हो तुम इस धरा के

हार्दिक मेरा नमन है।

हो गए बलिदान इस पर

गूँजता सारा गगन है।

**

प्रेम , श्रद्धा देश-हित ही

लक्ष्य को लेकर बढ़े थे।

अमिट छापों के सहारे

शिल्प चितवन में गढ़े थे।

छोड़ ममता परिजनों की

हिम शिखर पर तुम चढ़े थे।

*

शत्रुओं का काल हो तुम

कह रहा पूरा वतन है।

अमरत्व हो तुम इस धरा के

हार्दिक मेरा नमन है।

**

बचपने के खेल सारे

लिख गए नूतन कहानी।

कर समर्पण स्वयं को ही

देश हित दे दी जवानी।

रक्त था तुम में शिवा का

और था माँ गंग-पानी।

*

साक्ष्य जो माँगें तुम्हारी

धिक्कारती उनको अगन है।

अमरत्व हो तुम इस धरा के

हार्दिक मेरा नमन है।

**

गर्व माँ की कोख करती,

हैं पिता हिमवान थाती।

जन्म भू भी गा रही है

लिख रही है प्रीति-पाती।

प्रियतमा पत्नी तुम्हारी

तुमको निन्द्रा से जगाती।

*

लाड़ली बच्ची तुम्हारी

याद में रोया अमन है।

अमरत्व हो तुम इस धरा के

हार्दिक मेरा नमन है।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 317 ☆ कविता – “भगवान की फोटो, ए आई और मैं…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 317 ☆

?  कविता – भगवान की फोटो, ए आई और मैं…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

22 जनवरी 2024 को

मैने एक फोटो खींची , खुद की

 

और एक

भगवान श्री राम की

 

ए आई से कहा

अपनी फोटो इनपुट में डालकर

अपने बचपन की एक फोटो बनाने को और एक बुढ़ापे की भी

 

कंप्यूटर ने बना दिए मेरे

दो चित्र

उसी नाक नक्श के

एक बचपन का

एक पचपन का

 

फिर सोच में पड़ गया

खुद मैं

ईसा, राम , कृष्ण

तो सदियों पहले भी

उसी चेहरे मोहरे

से पहचाने जाते हैं

जिस चेहरे के सम्मुख

हम,

आज भी श्रद्धा नत

होकर ,

मन की बात कह लेते हैं,

और शायद सदियों बाद भी

हमारी पीढ़ियां

उसी आकृति के सम्मुख

आंखों में आख़ें डाल

कुछ

कहती रहेंगी

स्वयं को हल्का करने

 

ईश्वर ए आई से परे हैं

भले ही वे हमारे ही रचे हैं

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ३४ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ३४ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- “माय गॉड वुईल रिइम्बर्स माय लॉस इन वन वे आॅर अदर” हे सहजपणे बोलले गेलेले माझे शब्द असे शब्दशः खरे ठरलेले होते. याच्याइतकेच ते तसे ठरणार असल्याची पूर्वकल्पना अकल्पितपणे माझ्या मनात त्या पहाटेच्या सूचक स्वप्नाद्वारे मला ध्वनित होणे हेही माझ्यासाठी अतिशय महत्त्वाचे, आश्चर्यकारक आणि अलौकिकही होते!!”)

 हे असे अनुभव जीवनप्रवासातील माझी वाटचाल योग्य दिशेने सुरू असल्याच्या मनोमन पटणाऱ्या अंतर्ज्ञानाच्या खूणाच असत माझ्यासाठी!अशा अनुभवांच्या आठवणी नंतरच्या वाटचालीत अचानक निर्माण झालेल्या प्रतिकूल परिस्थितीत किंवा अगदी अकल्पित अशा संकटांच्या वेळीही ‘तो’ आपल्यासोबत असल्याचा दिलासाही देत असत.

 जन्म-मृत्यू, पुनर्जन्म या संकल्पना आपल्यासारख्या सर्वसामान्य व्यक्तींसाठीतरी अनाकलनीय, गूढच राहिल्या आहेत. त्यासंबंधीच्या परंपरेने चालत आलेल्या समजुतींच्या योग्य आकलनाअभावी या संकल्पनांवर नकळत गैरसमजुतींची पुटं चढत जातात आणि परिणामत: या संकल्पनांमधलं गूढ मात्र अधिकच गहिरं होत रहातं.

 नवे नातेबंध निर्माण करणारे जन्म जितके आनंददायी तितकेच आपल्या प्रिय व्यक्तींचे मृत्यू आपलं भावविश्व उध्वस्त करणारे. या दोन्हींच्या संदर्भातले मी अनुभवलेले सुखदु:खांचे क्षण त्या त्या वेळी मला खूप कांही शिकवून गेलेले आहेत. त्या सगळ्याच अनुभवांच्या एकमेकात गुंतलेल्या धाग्यांचं आकलन जेव्हा अनेक वर्षांचा प्रदीर्घ काळ उलटून गेल्यानंतर मला अकल्पितपणे झालं त्या क्षणांच्या मोहरा आजही मी माझ्या मनाच्या तिजोरीत आठवणींच्या रूपात जपून ठेवलेल्या आहेत!!

 संपूर्ण जगाच्या चलनवलनामागे अदृश्य रुपात कार्यरत असलेल्या सुविहित व्यवस्थेच्या अस्तित्त्वाची जाणीव मला करुन दिलेले ते सगळेच अनुभव आणि त्यातल्या परस्परांमधील ऋणानुबंधांची मला झालेली उकल ही माझ्या मनातील त्या त्या क्षणांमधल्या अतीव दु:ख न् वेदनांवर ‘त्या’ने घातलेली हळूवार फुंकरच ठरलीय माझ्यासाठी! या संदर्भात माझ्या आठवणीत घर करून राहिल्यात त्या माझ्या अगदी जवळच्या अतिशय प्रिय अशा व्यक्तींच्या त्या त्या क्षणी मला उध्वस्त करणाऱ्या मृत्यूंच्या काळसावल्या!आणि तरीही पुढे कालांतराने या सावल्यांनीही जन्म आणि मृत्यू या दोन्हीमधील अतर्क्य अशा संलग्नतेची उकल करुन माझ्या मनात प्रदीर्घकाळ रुतून बसलेल्या दु:खाचं हळूवार सांत्वनही केलेलं आहे.

 २६ सप्टेंबर १९७३ची ती काळरात्र मी अजूनही विसरलेलो नाहीय. मला मुंबईत युनियन बॅंकेत जॉईन होऊन जेमतेम दीड वर्ष झालेलं होतं. माझं वास्तव्य दादरला इस्माईल बिल्डिंगमधे माझ्या मोठ्या बहिणीच्या बि-हाडीच होतं. त्या रात्री जेवणं आवरुन साधारण दहाच्या सुमारास माझी ताई तिच्या छोट्या बाळाला थोपटून निजवत होती. माझे मेव्हणे आणि मी सर्वांची अंथरुणं घालून झोपायची तयारी करत होतो. तेवढ्यात शेजारच्या गोगटे आजोबांचा त्यांच्या लॅंडलाईनवर फोन आला असल्याचा निरोप आला. त्या काळी घरोघरी लँडलाईन फोनही दुर्मिळच असायचे. इस्माईल बिल्डिंगमधल्या पाच-सहा मजल्यांवरील चाळकऱ्यांपैकी फक्त दोन घरांमधे फोन होते. त्यातील एक असं हे गोगटे कुटुंबीयांचं घर बहिणीच्या शेजारीच होतं आणि ते माझ्या मेव्हण्यांचे लांबचे नातेवाईकही होते. मेव्हणे फोन घ्यायला धावले. इतक्या रात्री कुणाचा फोन असावा हाच विचार इकडे आमच्या डोक्यात. फोनवर बोलून मेव्हणे लगोलग परत आले ते तो अनपेक्षित धक्कादायक निरोप घेऊनच. फोन माझ्या मोठ्या भावाचा होता. माझ्या बाबांना डॉक्टरांच्या सांगण्यावरून इस्लामपूरहून हलवून पुण्याला सिव्हिल हॉस्पिटलमधे ऍडमिट केलेलं होतं. आणि आम्ही सर्वांनी तातडीने पुण्याला हाॅस्पिटलमधे लगोलग पोचावं असा तो निरोप होता! बाबांच्या काळजीने आम्ही सगळेच अस्वस्थ झालो होतो. बाबा आजारी होते, झोपून होते हे आम्हाला माहीत होतं पण तोवर येणाऱ्या खुशालीच्या पत्रांतून असं अचानक गंभीर कांही घडेल याची पुसटशी शक्यताही कधी जाणवली नव्हती. आता कां, कसं यात अडकून न पडता तातडीने निघणं आवश्यक होतं. इतक्या रात्री तातडीने निघून पुण्याला सिव्हिल हाॅस्पिटलला लवकरात लवकर पोचणं गरजेचं होतं. त्याकाळी प्रायव्हेट बसेस नव्हत्याच. इतक्या रात्रीचं एस्टीचं वेळापत्रकही माहित नव्हतं. रिझर्व्हेशन वगैरे असं शेवटच्या क्षणी शक्यही नव्हतं. त्यात बाळाला सोबत घेऊन जायचं दडपण होतं ते वेगळंच.

 “तुम्ही तुमचे मोजके कपडे आणि बाळासाठी आवश्यक ते सगळं सामान घेऊन निघायची तयारी करा लगेच. ” मेव्हणे म्हणाले. “मी तुम्हाला रात्री १२ वाजता मु़ंबई-पुणे पॅसेंजर आहे त्यात दादरला बसवून देतो. आपल्या तिघांच्याही आॅफिसमधे रजेचे अर्ज देणं आवश्यक आहे. मी उद्या ते काम करुन मिळेल त्या ट्रेन किंवा बसने पुण्याला हाॅस्पिटलमधे पोचतो. ” मेव्हणे म्हणाले. त्या मन:स्थितीत मला हे सगळं सुचलंच नव्हतं. ताईच्या डोळ्यांना तर खळ नव्हता. ते पाहून कसंबसं स्वतःला सावरत मी माझी घुसमट लपवायचा केविलवाणा प्रयत्न करत होतो.

 “हे बघ, बाळ सोबत आहे आणि प्रवास रात्रीचा आहे. तरीही आता तूच धीर धरायला हवा. कारण माझ्यापेक्षा तुम्ही दोघांनी तिथं आधी पोचणं आवश्यक आहे. म्हणून तू लहान असूनही ही जबाबदारी तुझ्यावर सोपवावी लागतीय. “

 “हो. बरोबर आहे तुमचं. आम्ही जाऊ. “

 “सिव्हिल हॉस्पिटल स्टेशनच्या जवळच आहे. पहाटे पोचाल तेव्हा अंधार असेल. जपून जावा. “

 “हो” मी म्हणालो.

 ‘बाबांना अचानक काय झालं असेल, त्यांना तातडीनं तिथं इस्लामपूरला दवाखान्यात न्यायचं, डॉक्टरांशी सल्ला मसलत, पुण्याला आणायचं, त्यासाठी वाहनाची सोय, पैशांची जुळवाजुळव सगळं माझ्या मोठ्या भावानं कसं निभावलं असेल? माझ्यापेक्षा फक्त दोनच वर्षांनी तर तो मोठा. त्या तुलनेत मला या क्षणी स्वीकारावी लागणारी ही जबाबदारी म्हणजे काहीच नाही’ या विचारानेच तोवर स्वतःला खूप लहान समजत असणारा मी त्या एका क्षणात खरंच खूप मोठा होऊन गेलो !!

 बाबा माझ्यासाठी फक्त वडिलच नव्हते तर ते माझ्या मनात ‘तो’ रुजवायला, त्याची प्रतिष्ठापना करायला नकळत का असेना पण निमित्त ठरलेला कधीच विसरता न येणारा एक अतिशय मोलाचा असा दुवा होते! त्यांना काही होणं हे माझ्या सहनशक्तीच्या पलीकडचं होतं! बाबांइतक्याच आईच्या आठवणीने तर मी अधिकच व्याकूळ होऊन गेलो. या सगळ्या दु:खापेक्षा आपलं अशा अवस्थेत तिच्याजवळ नसणंच मला त्रास देत राहिलं.

 गाडीत बऱ्यापैकी गर्दी होती. तरीही दोघांना कशीबशी बसायला जागा मिळाली. बाळाला आलटून पालटून मांडीवर घेत ताई न् मी अगदी आमच्या लहानपणापासूनच्या बाबांच्या असंख्य आठवणींबद्दलच रात्रभर बोलत राहिलो होतो.

 रात्र सरली ती याच अस्वस्थतेत. भल्या पहाटे पुणे स्टेशनला गाडी थांबताच कसेबसे उतरलो तेव्हा भोवताली अजूनही मिट्ट काळोख होता. तेवढ्यात रात्रभर शांत झोप न झालेलं बाळ किरकिरु लागलं. त्याला सावरत, चुचकारत अंधारातून वाट शोधत कसेबसे सिव्हील हाॅस्पिटलच्या कॅम्पसमधे आलो तेव्हाच नेमके भुकेने व्याकूळ झालेल्या बाळाने भोकाड पसरुन रडायला सुरुवात केली. हॉस्पिटलचा मेन एंट्रन्स समोर बऱ्याच अंतरावर होता. नाईलाजाने मी त्या दोघांना घेऊन वाटेतच जवळच्या वडाच्या पारावर बसलो. ताईला इथं एकटीला सोडून उठण्याशिवाय पर्यायच नव्हता.

 “ताई, तू याला दूध दे तोवर मी बाबांची रूम कुठे आहे ते पाहून येतो लगेच. चालेल?”

 ती ‘बरं’ म्हणाली तसा मी उठलोच. तेवढ्यात मेन एंट्रन्स मधून एक नर्स लगबगीने बाहेर पडताना दिसली. मी तिच्याच दिशेने धावत जाऊन तिला थांबवलं.

 “सिस्टर, एक काम होतं. प्लीज. “

 मी पेशंटचं नाव, गाव, वर्णन सगळं सांगून त्यांना कालच इथं ऍडमिट केल्याचं सांगितलं. त्यांच्या रूमची कुठे चौकशी करायची ते विचारलं. आश्चर्य म्हणजे ती बाबांच्याच रूममधून नाईट ड्युटी संपवून दुसऱ्या नर्सला चार्ज देऊन आत्ताच बाहेर पडली होती.

 “पेशंट खूप सिरीयस आहे. तुम्ही वेळ घालवू नका.. जा लगेच” ती म्हणाली. एखाद्या प्रतिक्षिप्त क्रियेसारखी मी पुढे धाव घेतली आणि… आणि

ताईची आठवण होताच थबकलो. तीही बाबांच्या ओढीने इथे आलेली होती. तिला तिथं तशी एकटीला सोडून स्वतः एकट्यानेच निघून जाणं योग्य नव्हतंच. मी तसाच मागे फिरलो. धावत तिच्याजवळ आलो. बाळाला उचलून घेतलं.

 “ताई, चल लवकर. बाबांची रूम मिळालीय. आपल्याला लगेच जायला हवं.. चल.. ऊठ लवकर” म्हणत बाळाला घेऊन झपाझप चालूही लागलो.

 आम्ही घाईघाईने रूम पर्यंत पोहोचणार एवढ्यांत माझा मोठा भाऊ दाराबाहेर डोकावून आमच्याच दिशेने पहात असल्याचं जाणवलं…

 “तुमचीच वाट पहातोय, या लवकर… ” म्हणत तो धावत आत गेला पण…. पण… आम्ही बाबांजवळ पोचण्यापूर्वीच बाबांनी अखेरचा श्वास घेतला होता… !! आम्ही त्यांच्यापासून एका श्वासाच्या अंतरावरच उभे… तरीही त्यांच्यापासून लाखो योजने दूरसुध्दा…. !!

 ही एका क्षणाची चुकामूक पुढे कितीतरी दिवस मला कासावीस करीत राहिली होती. दुःख बाबा गेल्याचं तर होतंच, पण ते साधी नजरभेटही न होता गेल्याचं दुःख जास्त होतं!

 बाबांचं असं अनपेक्षित जाणं पुढे येणाऱ्या अतर्क्य अनुभवांना निमित्त ठरणार होतं. पण त्याबद्दल त्या दु:खात बुडून गेलेले आम्ही सर्वचजण त्याक्षणी तरी पूर्णत: अनभिज्ञच होतो एवढं खरं!!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #257 ☆ तन्मय के दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता एक कप कॉफ़ी…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #257 ☆

☆ तन्मय के दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

आस्तीन के साँप जो, बाहर निकले आज।

विचर रहे फुँफकारते, बढ़ी बदन में खाज।।

*

पीले पत्ते झड़ रहे, छोड़ रहे हैं साथ।

बँधी मुट्ठियाँ खुल गयी, हैं अब खाली हाथ।।

*

अलग अलग सब उँगलियाँ, सब की अपनी दौड़।

कैसे मुट्ठी बँध सके, आपस में है होड़।।

*

उँगली एक उठी उधर, चार इधर की ओर।

एक-चार के द्वंद का, मचा हुआ है शोर।।

*

अलग अलग सब उँगलियाँ, उठने लगी मरोड़।

कैसे मुट्ठी बँध सके, आपस में है होड़।।

*

ध्येय एक सब का यही, करना सिर्फ विरोध।

करें विषवमन ही सदा, नहीं सत्य का बोध।।

*

आजादी अभिव्यक्ति की, बिगड़ रहे हैं बोल।

प्रेम-प्रीत सद्भाव में, कटुता विष मत घोल।।

*

रेवड़ियाँ बँटने लगे, होते जहाँ चुनाव।

लालच देकर वोट ले, ये कैसा बर्ताव।।

*

इन्हें-उन्हें के भेद में, खोई निज पहचान।

आयातित अच्छे लगे, घर के कूड़ेदान।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 81 ☆ गुम हो गया शहर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “गुम हो गया शहर…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 81 ☆ गुम हो गया शहर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

***

ने कुहरे के बीच

गुम हो गया शहर ।

*

सुबह पर पहरा

कंपकंपाती धूप

सूर्य लगता उनींदा

ओस खिलते रूप

*

धुँध की चादर लपेटे

चाँद पहुँचा घर।

*

रँभाती है गाय

पक्षियों के दल

पेड़ संन्यासी हुए

हवा के आँचल

*

प्रकृति के रंग सारे

आए हैं निखर।

*

टिमटिमाती रोशनी

ठिठुरते आँगन

मंदिरों में गूँजती

प्रार्थना पावन

*

रात गहराते अँधेरे

हुए लंबे पहर।

      ——

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 85 ☆ हाथ मौला तेरे कितने हैं बता दे मुझको… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “हाथ मौला तेरे कितने हैं बता दे मुझको“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 85 ☆

✍ हाथ मौला तेरे कितने हैं बता दे मुझको… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ये सियासत में अजब मैंने तमाशा देखा

भेड़िया खाल में बकरे की है बैठा देखा

 *

हाथ मौला तेरे कितने हैं बता दे मुझको

मैंने खाली न किसी हाथ का क़ासा देखा

 *

रात कोई हो भले कितनी हो गहरी लेकिन

ढल ही जाती है यहाँ रोज सबेरा देखा

 *

आज़ज़ी के जो पहन के रखे हरदम जेवर

हर बशर उसके लिए मैंने दीवाना देखा

 *

बात मुँह देखी कोई करके भला बन जाये

सत्यवादी को तिरस्कार ही मिलता देखा

 *

दो कदम चल तू भले चलना हमेशा खुद ही

और कि दम पे जो चलता है वो गिरता देखा

 *

चाह मंज़िल की सनक जिसकी अरुण बन जाये

क़ामयाबी के वो आकाश को  छूता देखा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 50 – खुशी के पल… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – खुशी के पल…।)

☆ लघुकथा # 50 – खुशी के पल… श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

आज इतना जल्दी-जल्दी सब काम कर रही हो? खाना भी बनाकर रख दिया, नाश्ता भी कर दिया, कहीं जाने की तैयारी है क्या? लग रहा है आज तुम्हारी किटी पार्टी है!

हां अरुण आज हमारी पार्टी है और मैं ही पार्टी दे रही हूं। नाश्ता भी पैक करा कर ले जाऊंगी।  तुम यह समझ लो हम तुम्हें नहीं छोड़ेंगे। तुम्हें अकेले ही जाना होगा?

ठीक है मैं किसी को छोड़ने को कहां कह रही हूं।

मैं अपनी सहेली मीरा के साथ चली जाऊंगी।

तभी मीरा घर के बाहर जोर से चिल्लाती है – चलो चलना नहीं है क्या?

बहन, हां मैं तो तैयार हूं चल रही हूं।

बहन, चलो पैदल चलते हैं। 50 समोसे के लिए पास की दुकान वाले को बोल दिया है। और बाकी नाश्ता पैक कर के कमला मौसी ले आएंगी।

तभी एक ऑटो वाला आता है वह कहता है – बहन जी कहां जाना है?

हां भैया चलना तो है पर दुकान वाला अभी समोसे तले तो चलते हैं। अरे बहन जी छोड़ो दुकान वाले को बाहर से ले लेना रास्ते में बहुत सारे मिलेंगे। और वह दुकान वाले को चिल्ला के बोलता है दे दो बहन जी ऑटो में ही बैठकर खा लेंगी।

तभी रूबी बोलती है कि नहीं नहीं भैया हमें थोड़ा ज्यादा लेना है तुम जाओ?

हां मैं समझ गया बहन जी आप लोगों को भंडारा करना है ठीक है 5 समोसा मुझे भी दे दो इस गरीब का भी कुछ भला कर देना।

अरे भैया मुझे स्टेशन जाना है छोड़ोगे क्या जल्दी?

 तभी एक आदमी भी ऑटो में आकर बैठ जाता है।

हां हां रुक जाओ। यह बहन जी लोगों को लेकर चलता हूं। रहने दो मैं दूसरे ऑटो से जाऊंगी तुम इन्हें लेकर जाओ।

क्या भैया कहां से पनौती आ गये?

मैं अच्छा खासा मैडम लोगों से पैसे भी लेता और खाने को भी मिल रहा था चलो अब?

पता नहीं कहां-कहां से लोग आ जाते हैं रूबी ने चिल्ला कर कहा देखो मीरा गलतफहमी कैसी कैसी लोगों को हो जाती है।

चलो सखी थोड़ी सी देर हम लोग खुश हो जाते हैं तो इसमें घर वाले को एतराज होता है। अब बाहर यह ऑटो वाले को देखो यह भी…।

दोनों सखियां जोर-जोर से हंसने लगते हैं। सच्ची दोस्त ही यह बात समझ सकती है।

छोड़ो सखी सबको खुशी के पल जहां से मिले उसे ले लेना चाहिए।

****

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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