मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 222 ☆ विश्व सुमनांचे…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय आठवा — अक्षरब्रह्मयोग — (श्लोक २१ ते २८) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय आठवा — अक्षरब्रह्मयोग — (श्लोक २१ ते २८) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम् ।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।।२१।।

*

अव्यक्त जे अक्षर तेचि परमगती

तयासी प्राप्त होता ना पुनर्जन्म गती ॥२१॥

*

पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।

यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ।।२२।।

*

सकल भूतांचे वास्तव्य परमात्म्याअंतरी

तयानेच लाभे समस्त विश्वासी पूर्णतापरी 

प्राप्ती तयाची पार्था असावी आंस तुवा अंतरी

समर्पित भक्तीने होतसे प्राप्ती अव्यक्ताची खरी ॥२२॥

*

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिन: ।

प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ।।२३।।

*

ज्या काळामध्ये देह त्यागता पुनर्जन्म गती

देहत्यागाचा काळ ज्यात प्राप्तीस्तव परमगती

भरतश्रेष्ठा जाणुनि घ्यावे या कालखंडांना

कथितो तुजला आज मी तुला अगाध या ज्ञाना ॥२३॥

*

अग्निर्ज्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम् ।

तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना: ।।२४।।

*

ज्योतिर्मय अग्नी अह शुक्ल उत्तरायण अधिपती 

यांच्या मार्गे देहत्यागुनी ब्रह्मवेत्त्यां होते ब्रह्मप्राप्ती ॥२४॥

*

धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण: षण्मासा दक्षिणायनम् ।

तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ।।२५।।

*

धूम्र निशा कृष्णपक्ष दक्षिणायन देवता अधिपती 

यांच्या मार्गे देहत्यागता फला भोगुनी जन्माला  येती ॥२५॥

*

शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगत: शाश्वते मते ।

एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुन: ।।२६।।

*

शुक्ल पक्षे मार्गस्थ होता प्राप्ती परम गती 

कृष्ण पक्षे देह त्यागिता  पुनर्जन्माची गती ॥२६॥

*

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ।।२७।।

*

उभय मार्गांचे तत्व जाणुनी योग्या प्राप्त मोहमुक्ती

योगयुक्त होई अर्जुना निरंतर साधक मम प्राप्ती ॥२७॥

*

वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।

अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ।।२८।।

*

जाणुनिया हे तत्वगुह्य योगी कर्मफला उल्लंघितो

निःसंशय तो परम पदासी सनातन प्राप्त करितो ॥२८॥

*

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरब्रह्मयोग नाम अष्टमोऽध्याय: ।।८।।

*

ॐ श्रीमद्भगवद्गीताउपनिषद तथा ब्रह्मविद्या योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्णार्जुन संवादरूपी अक्षरब्रह्मयोग नामे निशिकान्त भावानुवादित अष्टमोध्याय संपूर्ण ॥८॥

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 196 ☆ आ पहुँचा था एक अकिंचन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना आ पहुँचा था एक अकिंचन। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 196 ☆ आ पहुँचा था एक अकिंचन

अक्सर हम अपने विचारों में बदलाव उनके लिए करते हैं जो कुछ नहीं करते  क्योंकि हर  व्यक्ति आखिरी क्षण तक जीत के लिए प्रयास करता है उसे लगता है शायद ऐसा करने से कोई अंतर आए। सत्य तो यही है कि मूलभूत स्वभाव किसी का नहीं बदलता, हाँ इतना अवश्य होता है कि परिस्थितियों के आगे  घुटने टेकने  पड़ जाते हैं।

ऐसे लोग जो निरन्तर अपने लक्ष्य के प्रति संकल्पबद्ध होकर परिश्रम करते हैं उनसे भले ही कुछ गलतियाँ जाने- अनजाने क्यों न हो जाएँ अंत में वे विजयमाल वरण करते ही हैं। ऐसी जीत जिससे कई लोगों को फायदा हो वो वास्तव में स्वागत योग्य होती है।

व्यक्ति के अस्तित्व की पहचान उसका व्यक्तित्व होता है। जैसे परिवेश में हम रहते हैं वैसा ही हमारा व्यवहार होने लगता है। संगत का असर हमेशा से ही लोगों के आचरण को प्रभावित करता है। हमारे व्यवहार से ही हमारी पहचान  होती है, जो हम लोगों के साथ करते हैं।

कुछ लोग अकारण  ही क्रोध करते हैं, हर बात पर चीखना चिल्लाना ही उनकी आदत बन जाती है। झूठ बोलने वाले अक्सर नजरें झुका कर ऊँची- ऊँची बातें करते हैं  और पकड़े जाने पर अपशब्दों के प्रयोग से बात को ढाँकने की नाकामयाब कोशिश करते हैं।

हमारे कार्यकलापों का मूल्यांकन लोगों द्वारा किया जाता है इसलिए हमेशा सत्य के साक्षी बन मीठे वचनों के प्रयोग की कोशिश होनी चाहिए। ये बात अलग है कि कार्य क्षेत्रों में कटु शब्दों का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है क्योंकि  बिना डाँट- फटकार अधीनस्थों से कार्य करवाना मुश्किल होता है। कहते हैं न जब घी सीधी उँगली से न निकले तो उँगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है।

कुल मिलाकर कार्यों का उद्देश्य यदि सार्थक हो,  सबके हित में  हो तो ऐसे व्यक्ति सबके प्रिय बन जाते हैं। देर सवेर ही सही  उसकी कार्यकुशलता व व्यक्तित्व से सभी प्रभावित होते हैं व उसके अनुयायी बन पद चिन्हों पर चल पड़ते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – रेप ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – रेप ? ?

रेप क्या होता है पापा?…

चैनलों के चीखते शब्दों

और बहस के कोलाहल के बीच

पाँच साल की बिटिया के

सवाल से सिहर उठा वह!

 

टीवी वाली चिंकी

एकदम बुद्धू है पापा

उसके पेट से तीन मोमबत्तियाँ निकलीं

पर उसने मोमबती खाई कैसे?

उसकी मम्मा ने रोका क्यों नहीं?

 

मैंने उस दिन थोड़ी-सी

मिट्टी खाई थी,

आपने मुझे डाँटा था न पापा!

फिर उसने तेल की शीशी

पेट में डाल ली

तो उसके पापा ने

डाँटा क्यों नहीं?

और पापा,

इतनी बड़ी शीशी

उसके पेट में कैसे गई?

सवाल-पर-सवाल

मूक निरुपाय जवाब

शरीर जड़ होता गया।

सांय-सांय करते कान

पथराती आँखें

भीतर सुन्न होता गया।

 

टीवी निरंतर चीखता रहा

वह मन ही मन दरिंदों को कोसता रहा,

उत्तर जानते हुए भी

चुप रहने की विवशता

वह लगातार भोगता रहा..!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 5 – फेंकू ज्ञान ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना फेंकू ज्ञान)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 5 – फेंकू ज्ञान ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆व

“आप रहने ही दीजिए। आपसे नहीं हो पाएगा। भैया जी आज के जमाने में लोगों को ज्ञान देने के लिए उन्हें अज्ञानी बनाना जरूरी है। केवल वाट्सप ग्रुप बनाकर एडमिन बने रहने से सिर्फ घांस छील पाओगे। ऐसा करते रहोगे तो समझो हो गया, कारवाँ गुज़र जाएगा और आप गुबार में ही फसें रहोगे। टुकड़ों में यहाँ-वहाँ से बटोरने से कुछ नहीं होता। यह फेंकू ज्ञान है। असली ज्ञान से भी ज्यादा कीमती। असली ज्ञान की तथ्यता स्रोतों, संदर्भों, इंटरनेट से सिद्ध हो जायेंगे। लेकिन फेंकू ज्ञान को जलेबीदार उलझाऊ बातों से सिद्ध करना पड़ता है। समझे बरखुरदार! मैं और मेरे जैसे अनेक बंधु ताजमहल, ज्ञानवापी, कुतुब मीनार, जामा मस्जिद, लाल किला देखकर लौट भी आये और अब खुदाई करने वालों सहित सब को अपना ज्ञान रोजाना परोस रहे हैं और आप यहीं व्यंग्य जैसी बेकार चीज़ लिख रहे हैं। आपने कल देखा नहीं कि ऊधर खोजी लोग ज्ञानवापी पहुँचे कि नहीं इधर ज्ञान की सहस्त्रधारा चहुँ ओर बह निकलीं थीं।”

बिअंग भैया जैसे व्यंग्यकार के भीतर से व्यंग्य का कीड़ा निकालने की कसम खाए फेंकूराम ने कहा- “हम वॉट्सऐपियों ने ही बताया कि ज्ञानवापी के तहखाने में शिवलिंग दैदीप्यमान की तरह चमक रहा है। एक से बढ़कर एक छवियाँ क्रॉप करके धड़ल्ले से पोस्ट कर डाले। सामने वाले की गैलरिया चुटकियों में फुल कर डाले। वह ससुरा इसी में उलझा रहेगा कि तस्वीरें देखें या गैलरी साफ करे। किसी की जगह पर कोई दूसरा कुछ बनाएगा तो खोजबीन होगी ही। आगे तेजोमहल का भी यही हाल होने वाला है। सारा इतिहास हम अपने व्हाट्सप में धरकर चलते हैं।  ज्ञानवापी से शिवलिंग की ली गयी पहली तस्वीर को खोजियों को प्राप्त करने, देखने और जारी करने के पहले ही हम व्हाट्सपवीरों ने उसे सोशल मीडिया में वायरल कर दिया था। सारी दुनिया जैसा करती है, वैसा आप भी किया करो बिअंग भाई। जानते नहीं, हाथी के दाँत दिखाने के कुछ और तथा खाने के कुछ और होते हैं। भीड़ तंत्र का हिस्सा बनो भीड़ तंत्र का। गधा भी अपने को कभी गधा नहीं बोलता, वह चुप रहने के बजाय मौका मिलते ही अपने को घोड़ा साबित करने पर तुल जाता है चाहे उसका ढेंचू-ढेंचू पसंद किया जाये या न किया जाए।

फेंकूराम ने कहा तुम मूरख के मूरख रहोगे। तुम्हारे काले अक्षर भैंस बराबर नहीं सारी दुनिया की कालिख बराबर है। तुम हमेशा अपनी मुर्गी की डेढ़ टांग पर अटक जाते हो। किसी चीज़ को समझने का प्रयास नहीं करते। अरे भाई जी, कुछ समझ में आये न आये, तो भी इस देश की पितृ भाषा अंग्रेजी में बोला करिये – यस, करेक्ट, सब समझ गया, आई कनो, आई कनो ऑल वैरी वेल। बिअंग भैया आपको कहीं भी ‘नो’ याने ‘नहीं’ तो भूल के भी नहीं बोलना है। ‘नो’ के स्थान पर ‘कनो’ चलेगा, दौड़ेगा। जानते हैं न, आजकल सोशल मीडिया में सब कुछ दौड़ रहा है। सारी दुनिया दौड रही है, आप भी उस मैराथान दौड की भीड़ में शामिल हो जाइए। आप ये जताइए कि आप को सब आता है।” बिअंग भैया इससे आगे नहीं सुन सकते थे। उन्होंने हाथ जोड़े और फेंकूराम की सुबह को शाम और शाम को सुबह बोलने का वादा कर वहाँ नौ दो ग्यारह हो गए।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 282 ☆ आलेख – व्यंग्य पत्रिकाओं का व्यंग्य के विकास में योगदान ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक आलेख व्यंग्य पत्रिकाओं का व्यंग्य के विकास में योगदान। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 282 ☆

? आलेख – व्यंग्य पत्रिकाओं का व्यंग्य के विकास में योगदान ?

अब तो जाने कितनी ई पत्रिकाएं निकल रही हैं, पर पुरानी हार्ड कापी व्यंग्य पत्रिकाओं का तथा अन्य पत्रिकाओं में व्यंग्य स्तंभों का व्यंग्य के विकास में योगदान निर्विवाद है।

मेरे घर में “मतवाला” के कुछ अंक थे, जो पिछली सदी में 1923 में कोलकाता से छपी प्रमुख व्यंग्य पत्रिका थी। जिसके संपादक मंडल के सभी चार प्रमुख सदस्य युवा लेखक थे जो बाद में युग प्रवर्तक लेखक बने। इनमें एक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला थे जो बीसवीं सदी के सबसे बड़े कवि माने गए, इनमे दूसरे शिवपूजन सहाय थे जो हिंदी के गद्य निर्माता और साहित्यकार निर्माता माने गए,इनमें तीसरे पांडेय बेचन शर्मा जैसे अद्भुत लेखक भी थे यद्यपि वे बाद में जुड़े और सबसे उम्रदराज लेखक पत्रकार नवजादिक लाल श्रीवास्तव थे जो अल्पायु में चल बसे। इस पत्रिका के मालिक महादेव प्रसाद सेठ थे जो खुद भी एक लेखक थे। आठ पन्नों की यह साप्ताहिक समाचार पत्र नुमा पत्रिका बंगला की हास्य व्यंग्य पत्रिका “अवतार” की प्रेरणा से निकली थी।

1968 में हैदराबाद से शुरू हुआ, शुगूफ़ा मज़ेदार पत्रिका थी। इसका नाम मुहावरे “शगूफे छोड़ना” (कुछ नया और मजेदार कहना) से लिया गया है, इसकी स्थापना अकादमिक डॉ. सैयद मुस्तफा कमाल ने की थी। यह देश की (किसी भी भाषा में) कुछ पत्रिकाओं में से एक है जो पूरी तरह से हास्य को समर्पित है।

अट्टहास और व्यंग्य यात्रा तो सुस्थापित हैं ही, व्यंग्यम, जयपुर से गुपचुप या ऐसे ही किसी नाम से व्यंग्य पत्रिकाएं छपी। सुरेश कांत जी ने हेलो का एक अंक प्रायोगिक रूप से हाल ही निकाला था।

पुरानी नियमित पत्रिकाओं की याद करूं तो मधुर मुस्कान, दीवाना, धर्मयुग, कादंबिनी, सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान,चंपक,लोटपोट, नंदन,माधुरी, मनोरमा, सरिता, मुक्ता सब में व्यंग्य, कार्टून के स्तंभ होते थे।

हमारे घर में इन पत्रिकाओ को पढ़ने की होड़ लगा करती थी। तब टीवी नही केवल रेडियो था या बड़ी मोटी सेल वाला ट्रांजिस्टर भी आ गया था।

कस्बा उझानी के सुप्रसिद्ध कवि-लेखक टिल्लन वर्मा द्वारा रचित-प्रकाशित हास्य-व्यंग्य पत्रिका ” होली का हुड़दंग ” अपने जीवन के 54वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है। इसे चमत्कार ही कहा जायेगा कि आज जब अनेक नामचीन पत्रिकाएँ बीच रास्ते में ही दम तोड़ गई हैं, तब टिल्लन जी की यह 54 वर्ष लम्बी रचनात्मक यात्रा पूरी तरह वनमैन-शो रहा।

प्रायः होली के मौके पर कई स्थानों से हास्य व्यंग्य पत्रिकाये निकलती थी। निवास जिला मंडला से मनोज जैन ऐसा ही एक प्रयास करते हैं। प्रमुख लोगो को टाइटिल बांटने में इन पत्रिकाओं का स्थान अब सोशल मीडिया ने ले लिया है।

व्यंग्य विविधा, हास्यम व्यंग्यम, रंग चक्कलस, विदूषक, कार्टून वाच, नई गुदगुदी भी उल्लेखनीय पत्रिकाएं रहीं या हैं।

व्यंग्य विविधा इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण इन अर्थों में रही कि उसने व्यंग्य आलोचना और व्यंग्य पर वैचारिक विमर्श की शुरुआत की, जिसे व्यंग्य यात्रा ने और विस्तार दिया।

अस्तु व्यंग्य पत्रिकाओं को हल्के फुल्के मारक तंज के लिए जाना जाता है।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #170 – कविता – शुभ… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम कविता शुभ…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 170 ☆

☆ कविता – शुभ… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

गोधूलि बेला~

घंटी की धुन संग

उड़ती धूल।

धुन= ध्वनि हो सकता हैं।

 *

शुभप्रभात~

डालियों की आकृति

करबद्ध-सी।

 *

शुभ प्रार्थना~

सूर्य को अर्घ्य देती

नवयौवना।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 204 ☆ बाल कविता – आगे फिर पछताना होगा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 204 ☆

☆ बाल कविता – आगे फिर पछताना होगा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

नित्य सवेरे पक्षी आकर

मीठे गीत सुनाते हैं।

सोए रहते अंशी, वीरा

कभी नहीं सुन पाते हैं।।

नन्नू ,सोनम, कुश भी सोएँ

नया जमाना है आया ?

बुलबुल , तोता, मैना सोचें

इन्हें न कलरव है भाया?

 *

शाला जाते बच्चे पैदल,

हास्य व्यंग्य भी करते थे।

कंधे पर बस्ता लटकाए,

हर मौसम में चलते थे।।

 *

नहीं रही वह चहल – पहल भी

जिसमें बचपन चहके था।

बाग बगीचे मधु वसंत में

आम-बौर भी महके था।।

 *

अब तो बदल रहा सब कुछ ही

रहना , खाना , पीना सब।

देर रात तक जगते रहना

मोबाइल सँग जीना अब।।

 *

मात – पिता से बच्चे सीखें,

संस्कृति और संस्कार ।

बचपन होता उनके हाथों,

जीवन है नींव का सार।।

 *

भविष्य सँभालो मात – पिताओ

आगे फिर पछताओगे।

धन होगा पर स्वास्थ्य न होगा

जीते जी मर जाओगे।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ मोगर परडी… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? मोगर परडी?  सुश्री वर्षा बालगोपाल 

हिरव्या पानात

सुगंधी दरवळ

घमघमाटला

मोगरा निर्मळ

*

मोहवते मला

मोगा-याची झाडी

हिरव्या साडीस

सुगंधी ती खड़ी

*

तुझ्याच हाताने

मोगरा माळला

अंतरात माझ्या

दर्या उफाळला

*

तुलाही आवडे

त्याचा तो सुगंध

प्रतीक प्रेमाचे

करीतसे धुंद

*

स्वतः चा तो गंध

आला उधळीत

गुण द्यावे सर्वां

जगाला सांगीत

*

द्यावा मोद जगा

भरून दुथडी

आयु कर देवा

मोगर परडी

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #229 – कविता – अब गुलाब में केवल काँटे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “अब गुलाब में केवल काँटे…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #229 ☆

☆ अब गुलाब में केवल काँटे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

बातें अपनी

कुछ जन-मन की

किससे कहें, सुनें

विचलन की।।

 

नित नूतन आडंबर लादे

घूम रहे राजा के प्यादे

गुटर गुटर गू करे कबूतर

गिद्ध अभय के करते वादे,

बात शहर में

बीहड़ वन की।…

 

सपनों में रेशम सी बातें

करते हैं छिपकर फिर घातें

ये बेचैन, विवश है रोटी

वे खा-खा कर, नहीं अघाते,

बातें भूले

अपनेपन की।……

 

अब गुलाब में केवल काँटे

फूल, परस्पर खुद में बाँटे

गेंदा, चंपा, जूही, मोगरा

इनको है मौसम के चाँटे,

 रौनक नहीं रही

 उपवन की।……,

 

है,अपनों के बीच दीवारें

सद्भावों के नकली नारे

कानों में मिश्री रस घोले

मिले स्वाद किंतु बस खारे

कब्रों से हुँकार

गगन की।….

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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