हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 9 – किताबों की व्यथा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना किताबों की व्यथा)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 9 – किताबों की व्यथा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

वे किताबें नालों में पड़ी लोट रही थीं। पहले लगा कि उन किताबों में शराब की प्रचार-प्रसार सामग्री छपी होगी, तभी तो उन पर ऐसा नशा चढ़ा होगा। बाद में किसी भलमानुस ने बताया कि इन्हें बच्चों तक पहुँचाना था क्योंकि स्कूल जो शुरू होने वाले हैं। किताबें भी सोचने लगीं – मज़िल थी कहीं, जाना था कहीं और तक़दीर कहाँ ले आई है। कहने को तो स्मार्ट सिटी में हैं, फिर यह स्वच्छ भारत अभियान के पोस्टर के साथ इस नाले में क्या कर रही हैं? बाद में उन्हें समझ में आया कि स्मार्ट होने का मतलब शायद यही होता होगा।

किताबें आपस में बातें करने लगीं। थोड़ी पतली सी, एकदम स्लिम ब्यूटी की तरह लग रही अंग्रेजी की किताब ने कहा – “वाट इज हैपिनिंग हिअर? आयम फीलिंग डिस्गस्टिंग।” तभी हिंदी की किताब, जो थोड़ी मोटी और वाचाल लग रही थी, बीच में कूद पड़ी – “अरे-अरे, देखिए मैम साहब के नखरे। तुमको डिस्गस्टिंग लग रहा है। तुम्हारे चलते मेरे भीतर से कबीर, तुलसी की आत्मा निकाल दी गई है। बच्चे मुझे पाकर न ठीक से दो दोहे सीख पाते हैं और न कोई नौकरी। तुम हो कि ट्विंकिल-ट्विंकिल लिटिल स्टार, बा बा ब्लाक शिप, रेन रेन गो अवे जैसी बिन सिर पैर की राइम सिखाकर बड़ी बन बैठी हो। तुम्हारी इन राइमों के चक्कर में हमारे बच्चे हिंदी के बालगीत भी नहीं सीख पाते। तुमने तो हमारा जीना हराम कर दिया है।”

इस पर अंग्रेजी किताब बोली – “नाच न जाने आंगन टेढ़ा। बच्चों को लुभाना छोड़कर मुझ पर आरोप मढ़ रही हो। बाबा आदम का जमाना लद चुका है। कुछ बदलो। मॉडर्नाइज्ड बनो। चाल-ढाल में बदलाव लाओ।”

इन सबके बीच सामाजिक अध्ययन की किताबें कूद पड़ी – “अरे-अरे! तुम लोगों में थोड़ी भी सामाजिकता नहीं है। मिलजुलकर रहना आता ही नहीं। कुछ सीखो मुझसे।” इतना सुनना था कि विज्ञान की किताबें टूट पड़ी – “अच्छा बहन, तुम चली हो सामाजिकता सिखाने। तुम्हारी सामाजिकता के चलते लोग आपस में लड़ रहे हैं। कोई नरम दल है तो कोई गरम दल। कोई पूँजीवाद का समर्थक तो कोई किसी और का। तुम तो रहने ही दो। कहाँ की बेकार की बातें लेकर बैठ गई हो। आज न कोई भाषा पढ़ता है न सामाजिक अध्ययन। लोग तो विज्ञान पढ़ते हैं। डॉक्टर बनते हैं। कभी सुना किसी को कि वह कवि या लेखक बनना चाहता है या फिर समाज सुधारक?”

तभी मोटी और बदसूरत सी लगने वाली गणित की किताब ने सभी को डाँटते हुए कहा – “मेरे बिना किसी की कोई हस्ती नहीं है। आज दुनिया में सबसे ज्यादा लोग इंजीनियर बन रहे हैं। सबका हिसाब-किताब रखती हूँ।”

सभी एक-दूसरे से लड़ने लगीं। वहीं एक कोने में कुछ किताबें सिसकियाँ भर रही थीं। यह देख हिंदी, अंग्रेजी, सामाजिक अध्ययन, विज्ञान और गणित की किताबें लड़ाई-झगड़ा रोककर कोने में पड़ी किताबों की सिसकियों का कारण पूछने लगीं। उन किताबों ने बताया – “हम मूल्य शिक्षा, जीवन कौशल शिक्षा और स्वास्थ्य शिक्षा की किताबें हैं। हम छपती तो अवश्य हैं लेकिन बच्चों के लिए नहीं बल्कि कांट्रेक्टरों के लिए। आप सभी सौभाग्यशाली हो कि कम से कम आप लोगों को बच्चों की छुअन का सुख तो मिलता है। हम हैं कि स्टोर रूम में पड़ी-पड़ी सड़ने के सिवाय कुछ नहीं कर सकतीं।”

उधर, व्हाट्सप पर यह किस्सा पढ़कर बच्चे लोट-पोट हो रहे थे।

इस कथा का यथार्थ केवल उन किताबों की नहीं, बल्कि हमारे शिक्षा तंत्र की भी है। स्मार्ट सिटी की स्मार्टनेस का यही तो प्रतीक है कि कागज पर किताबें स्मार्ट हो गई हैं और असलियत में नाले में बहती नजर आती हैं। ‘स्वच्छ भारत’ का नारा देने वाले ही शायद इन किताबों को नालों में बहा आए। आखिर किताबें भी तो आधुनिक होनी चाहिए, डिजिटल होना चाहिए। यह बात अलग है कि हमारे बच्चे अब किताबें नहीं, बल्कि स्मार्टफोन और टैबलेट में खोए रहते हैं। किताबें अब पुरानी हो गईं, पुराने जमाने की चीज बन गईं। स्मार्ट होने का यही तो मतलब है, कि आधुनिक बनो, किताबें पढ़ने का झंझट छोड़ो और स्क्रीन पर नजरें जमाओ।

किताबों की हालत देखकर लगता है जैसे शिक्षा तंत्र का मजाक उड़ाया जा रहा हो। कितनी विडंबना है कि जिन किताबों को बच्चों के हाथों में होना चाहिए था, वे नाले में बह रही हैं और बच्चे स्मार्टफोन में व्यस्त हैं। शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है और इसके बावजूद हम स्मार्ट सिटी के नारे लगा रहे हैं। क्या यह विडंबना नहीं कि किताबें जिन्हें बच्चों की ज्ञान का स्रोत होना चाहिए, वे नालों में बह रही हैं और हम इसे स्वच्छ भारत अभियान का हिस्सा मान रहे हैं?

विचार करने वाली बात यह है कि हम कहां जा रहे हैं और किस दिशा में बढ़ रहे हैं। अगर शिक्षा का स्तर ऐसा ही रहा तो आने वाली पीढ़ी का भविष्य क्या होगा? क्या हम वाकई में स्मार्ट बन रहे हैं या फिर सिर्फ नारे और पोस्टर के सहारे जी रहे हैं? किताबों की व्यथा हमारी शिक्षा प्रणाली की असली तस्वीर दिखाती है, जिसे सुधारने की सख्त जरूरत है। तब तक, नाले में बहती इन किताबों की आवाज सुनते रहें और सोचें कि हम अपने बच्चों को कैसा भविष्य दे रहे हैं।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 200 ☆ उदित उदयगिरि मंच पर… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना उदित उदयगिरि मंच पर। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 200 ☆ उदित उदयगिरि मंच पर

कहते हैं मंत्रो में बहुत शक्ति होती है। शब्दों की महिमा से हम सभी परिचित हैं पर केवल इनके बल पर जीवन नहीं जिया जा सकता। जिसको सामंजस्य करना नहीं आया उसके लिए सब बेकार है। कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब देखकर अनदेखा करना हितकर होता है। जहाँ सत्य को स्वीकार करने से सुकून मिलता है वहीं बहुत कुछ छोड़ देने से जीवन में शांति बनी रहती है। सब कुछ अपने अनुसार हो यही आदत एक दिन इस दुनिया में हमें अकेला कर देती है।

एक -एक कदम चलते हुए ईंट से ईंट से जोड़ने की कला में माहिर व्यक्ति अपना आशियाना बखूबी तैयार कर लेता है। जिसके पास हिम्मत हो उसे दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती। माना कि संख्या बल का महत्व होता है पर योग्य व्यक्ति सब कुछ अपने अनुसार करता जाता है भले ही हवा का रुख बदलने लगा हो किंतु वो नाविक ही क्या जो धार के विपरीत जाकर अपने मनवांछित तट पर न पहुंच सके। यही कुशलता उसे विजेता बनाती है। शक्ति के साथ एकजुटता के रंग में रंगते हुए मिलजुलकर चलते रहिए। सत्य का साथ सभी देते हैं।

योग्य और अनुभवी लोगों का साथ जिसके पास हो उसे कोई हरा नहीं सकता है। बुजुर्गों का आशीर्वाद , छोटों का प्यार सबको सहेजते हुए आगे बढ़ते रहिए, सारा विश्व आपके निर्णयों का लोहा मानता है। अतः केवल सच्चे मन से कार्य करते हुए सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास, सबका विश्वास के मूलमंत्र पर अडिग रहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 288 ☆ आलेख – उधमसिंग और भगत सिंह में अद्भुत साम्य ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – उधमसिंग और भगत सिंह में अद्भुत साम्य। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 288 ☆

? आलेख – उधमसिंग और भगत सिंह में अद्भुत साम्य ?

भगत सिंह तथा राम प्रसाद बिस्मिल से उधमसिंह बहुत प्रेरित थे. देशभक्ति के तराने गाना उन्हें बहुत अच्छा लगता था. उधमसिंग और भगत सिंह के जीवन में अद्भुत साम्य था. क्रांति का जो कार्य देश में भगत सिंह कर रहे थे उधमसिंग देश से बाहर वही काम कर रहे थे. भगत सिंह से उनकी पहली मुलाकात लाहौर जेल में हुई थी. दोनों क्रांतिकारियों की कहानी में बहुत दिलचस्प समानताएं हैं. दोनों ही पंजाब से थे. दोनों ही नास्तिक थे. उधमसिंग और भगत सिंह दोनों ही हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे. दोनों की जिंदगी की दिशा तय करने में जलियांवाला बाग कांड की बड़ी भूमिका रही. दोनों को लगभग एक जैसे मामले में सजा हुई. जहाँ स्काट की जगह भगत सिंह ने साण्डर्स पर सरे राह गोली चलाई वहीं उधमसिंह को जनरल डायर की जगह ड्वायर को निशाना बनाना पड़ा , क्योकि डायर की पहले ही मौत हो चुकी थी. भगत सिंह की तरह उधमसिंह ने भी फांसी से पहले कोई धार्मिक ग्रंथ पढ़ने से इनकार कर दिया था. उधमसिंह भी सर्व धर्म समभाव में यकीन करते थे. इसीलिए उधमसिंह अपना नाम मोहम्मद आज़ाद सिंह लिखा करते थे. उन्होंने यह नाम अपनी कलाई पर भी गुदवा लिया था.इतिहासकार प्रोफेसर चमनलाल कहते हैं, ”उधम सिंह बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे. उन पर भगत सिंह और उनसे जुड़े आंदोलन का बहुत प्रभाव था. उम्र में वे भगत सिंह से बड़े थे किन्तु वे क्रांति के वैचारिक मंच पर सदैव भगत सिंह को स्वयं से ज्यादा परिपक्व मानते थे. उधम सिंह भगत सिंह की तरह लेखक नहीं थे. रिकॉर्ड पर उनके पत्र ज़्यादातर व्यक्तिगत स्तर पर लिखे गए थे लेकिन कुछ पत्रों में राजनीतिक मामलों का भी ज़िक्र मिलता है. उधम सिंह दृढ़ता से बोलते थे. अदालत में उनके भाषण भगत सिंह की तर्ज पर होते थे. जब उधमसिंह पर माइकल ओ डायर की हत्या के अभियोग का मुकदमा चला तो उन्होने बहुत गंभीरता और ढ़ृड़ता से अपनी बात रखी थी. उन्होने कहा था टेल पीपल आई वॉज़ अ रिवॉल्यूशनरी. 

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #174 – हाइबन – कोबरा… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक हाइबन कोबरा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 174 ☆

☆ हाइबन- कोबरा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

रमन की नींद खुली तो देखा सावित्री के पैर में सांप दबा हुआ था। वह उठा। चौका। चिल्लाया,” सावित्री! सांप,” जिसे सुनकर सावित्री उठ कर बैठ गई। इसी उछल कूद में रमन के मुंह से निकला,” पैर में सांप ।”

सावित्री डरी। पलटी। तब तक सांप पैर में दब गया था। इस कारण चोट खाए सांप ने झट से फन उठाया। फुफकारा। उसका फन सीधा सावित्री के पैर पर गिरा।

रमन के सामने मौत थी । उसने झट से हाथ बढ़ाया। उसका फन पकड़ लिया। दूसरे हाथ से झट दोनों जबड़े को दबाया। इससे सांप का फन की पकड़ ढीली पड़ गई।

” अरे ! यह तो नाग है,” कहते हुए सावित्री दूर खड़ी थी। यह देख कर रमन की जान में जान आई ।

सांप ने कंबल पर फन मारा था।

*

पैर में सांप~

बंद आँखों के खड़ा

नवयुवक।

~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-08-20

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #46 ☆ कविता – “तुम मेरी दास्तां हो…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 46 ☆

☆ कविता ☆ “तुम मेरी दास्तां हो…☆ श्री आशिष मुळे ☆

कहां शुरू कहां खत्म हो

कितनी छोटी बडी गेहरी हो

या बस इक सवाल हो

तुम मेरी दास्तां हो

 

आयी हो जैसे बारिश हो

भिगोकर कुछ पल जाती हो

ख्वाहिशें अंकुरित करती

तुम मेरी दास्तां हो

 

लुभाने की जैसे अदा हो

चले जाने की इक आदत हो

जाकर भी मेरा हिस्सा हो

तुम मेरी दास्तां हो

 

कितनी बार जाकर आती हो

कुछ ना कुछ लिख जाती हो

दिल की इक किताब हो

तुम मेरी दास्तां हो

 

पढ़ने वाला क्या पढे तुझे

अनसुलझी इक पहेली हो

सुनाने वाला क्या सुनाए

तुम मेरी दास्तां हो

 

कभी जिंदगी कभी मौत हो

तकलीफ कभी तसल्ली हो

तहहयात जैसे गले पड़ी हो

तुम मेरी दास्तां हो

 

घूमने का इक नशा हो

अफसोस दुनियां गोल है

घूमकर यहीं पहुंचती हो

तुम मेरी दास्तां हो

 

सुनो, जो सुनना चाहती हो

हरबार अलग हो

मगर मेरी बस तुम ही हो

तुम मेरी दास्तां हो….

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 208 ☆ गीत – अपनी ढपली ताल ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 208 ☆

☆ गीत – अपनी ढपली ताल ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

 घर-घर एसी लगी बिमारी

गर्मी करे कमाल।

पर्वत भी अब गर्म हो रहे

शिमला, नैनीताल।

दो-दो तीन-तीन इक घर में

वाहन का है रेला भारी।

सब ही गाड़ी आज चाहते

सर्विस भी चाहें सरकारी।

 *

मेहनत से सब बचना चाहें

स्वयं हुए कंगाल।

 *

निज वाहन से करें यात्रा

फँसें जाम में तीर्थयात्री।

तौबा-तौबा करें जाम से

चिल्ल- चिल्ल पौं मचती भारी।

 *

वाहन खूब चलावें सरपट

स्वयं बुलाएँ काल।

 *

पथ चलते मोबाइल बातें

भोजन करते टीवी देखें।

कितने व्यस्त लगें अब सब ही

ब्यूटी पार्लर खींचे रेखें।

 *

आत्ममुग्ध अपने ही होकर

अपनी ढपली ताल।

 *

जंगल धधकें मनुज कृत्य से

जगह – जगह अग्निकांड हो रहे

जंगल काटें , जल का दोहन

मानव खोटा बीज बो रहे।

 *

ग्लोबल वार्मिंग करे तबाही

नित्य बढ़ें जंजाल।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग १२ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग १२ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र – “युवर मेडिकल रिपोर्ट इज नॉट फेवरेबल. यू आर मेडिकली अनफिट..” रिसेप्शनिस्टचे शब्द ऐकून मला धक्काच बसला.

“यू मे कॉल ऑन अवर मेडिकल ऑफिसर डाॅ.आनंद लिमये.ही इज अ राईट पर्सन टू टेल यू द करेक्ट रिझन.” ती म्हणाली.

मी नाईलाजाने जड पावलांनी पाठ फिरवली. ‘कां?’ आणि ‘कसं?’ या मनातल्या प्रश्नांना त्याक्षणी तरी उत्तर नव्हतं. आता डॉ.आनंद लिमये हाच एकमेव आशेचा किरण होता! मला अचानक बाबांनी दिलेल्या दत्ताच्या फोटोची आठवण झाली.एखाद्या प्रतिक्षिप्त क्रियेसारखा मी माझ्या शर्टचा  खिसा चाचपला.पण..पण तो फोटो मी नेहमीसारखा आठवणीने खिशात ठेवलेलाच नव्हता.सकाळी निघतानाच्या गडबडीत माझ्या नकळत मी तो फोटो घरीच विसरलो होतो.तीच रुखरुख मनात घेऊन मी डॉ. आनंद लिमये यांच्या क्लिनिक समोर येऊन उभा राहिलो..)

माझं तिथं येणं त्यांना कदाचित अपेक्षित नसावं.मला पहाताच ते काहीसे अस्वस्थ झाल्याचा भास मला झाला.मी तिथे येण्यामागची सगळी पार्श्वभूमी त्यांना थोडक्यात सांगितली. अतिशय पोटतिडकीने त्यांना माझी सगळी कर्मकहाणी सांगून स्टेट बँकेतली ही नोकरी या परिस्थितीत माझ्या जगण्याचा एकमेव आधार आहे हे त्यांना पटवून द्यायचा माझ्यापरीने प्रयत्न करीत राहिलो. ते काहीसे चलबिचल झाल्याचे जाणवले.

“पण तुमच्या ब्लड, यूरिन, स्टूल सगळ्याच रिपोर्ट्समधे निगेटिव्ह ईंडिकेशन्स आहेत. अशा परिस्थितीत मी फेवरेबल मेडिकल रिपोर्ट कसा देणार? आणि आता तर मी ऑलरेडी माझा रिपोर्ट ब्रॅंचला सबमिट केलेला आहे.अशा परिस्थितीत…”

“पण डॉक्टर, मुंबईला आयुष्यात मी प्रथमच आलोय. त्यामुळे हवापाण्यातल्या बदलामुळे मला नुकताच ताप येऊन गेला होता.मेडिकल टेस्टच्या एकदोन दिवस आधीच ताप उतरला होता. रिपोर्ट्समधल्या त्या त्रुटी हा त्याच्याच परिमाण असणार ना?माझी औषधं अजून सुरु आहेत आणि या त्रुटी औषधाने यथावकाश दूर होणाऱ्याच तर आहेत.मग केवळ त्यामुळे बँकेत नोकरी करण्यासाठी मी कायमस्वरूपी अनफिट कसं काय ठरु शकतो?” 

“हो, पण तुम्ही तुमच्या आजारपणाबद्दल मला आधी कल्पना द्यायला हवी होतीत ना? मेडिकल टेस्ट कांही दिवस पुढे ढकलता आली असती. अॅट धीस स्टेज… आय ॲम हेल्पलेस. सॉरी.. आय कान्ट डू एनिथिंग…”

खूप आशेने मी इथे आलो होतो. निराश होऊन बाहेर पडलो. खूप एकटं.. खूप निराधार वाटू लागलं.अंधारुन आलेल्या मनात प्रकाशाची तिरीप यावी तशी ‘त्या’ची आठवण झाली आणि… ‘त्या’नेच मला सावरलं! हो.. ‘त्या’नेच..! कारण त्याची आठवण झाली त्याच क्षणी ‘सगळं सुरळीत होईल काळजी नको’ हे बाबांचे शब्दही आठवले. मनात ध्वनित झालेल्या त्या शब्दांनी ‘तो’च मला दिलासा देतो आहे असा भास झाला आणि मी सावरलो!आता स्वस्थ बसून चालणार नाही, अखेरपर्यंत शक्य असतील ते सगळे प्रयत्न आपणच करायला हवेत याची जाणिव झाली. लहानपणापासून वेळोवेळी कानावर पडलेले बाबांचे शब्द मला आठवले आणि मी सावरलो….!मनात उमटत राहिलेले त्याच शब्दांचे प्रतिध्वनी मला दिलासा देत माझ्या विचारांना योग्य दिशा  देत राहिले…

‘त्याच्याकडे कधीच कांही मागायचे नाही. जे घडेल ते मनापासून स्वीकारायचे. खंबीरपणाने त्याला सामोरे जायचे. आपल्या हिताचे काय आहे ते आपल्यापेक्षा तोच जाणतो. आणि योग्य वेळ येताच आपल्याला तो ते न मागता देतोही. आपण कर्तव्यात कसूर करायची नाही. प्रयत्नांची पराकाष्ठा सोडायची नाही. तो यश देतोच. क्वचित कधी अपयश आलंच, तर ते दीर्घकाळाचा विचार करता आपल्या हिताचंच होतं हे नंतर जाणवतंच…’ मनात घुमणारा बाबांचा शब्द न् शब्द मला त्या हताश मनोवस्थेत योग्य मार्ग दाखवून गेला. मनावरचं दडपण थोडं कमी झालं.

‘काहीही अडचण आली तरी बँकेच्या नंबरवर मला लगेच फोन कर’ हे निरोप घेतानाचे भावाचे शब्द मला आठवले.मनात उलटसुलट विचारांनी पुन्हा गर्दी केली…..

‘त्याला फोन करायलाच हवा. हे सगळं त्याला सांगायलाच हवं… पण.. पण कसं सांगायचं? काय वाटेल त्याला हे सगळं ऐकून? त्याने आणि घरी आई-बाबांनीही आपण आज स्टेट बँकेत जॉईन झालोय हेच गृहीत धरलंय.आता हे सगळं ऐकून काय वाटेल त्यांना..?”

मी मनावर दगड ठेवून  जवळच्याच पोस्टात गेलो. भावाला फोन लावला खरा पण रिसीव्हर धरलेला माझा हात भावनातिरेकानं थरथरु लागला. मोजक्या शब्दात सगळं

सांगतांनाही आवाज भरून येत होता. सांगून संपलं तरी क्षणकाळ त्याच्याकडून काही प्रतिसादच आला नाही. त्याला सावरण्यासाठी तेवढा वेळ तरी आवश्यक होताच.

“हे बघ, तू स्वतःला सावर. डिस्टर्ब होऊ नको. अजूनही यातून काही मार्ग निघेल” तो म्हणाला.

“नाही निघणार…”मी रडवेला होऊन गेलो..”कसा निघणार..?”

“आपण प्रयत्न तरी करु.मी माझ्या मॅनेजरसाहेबांशी बोलतो. स्टाफ डिपार्टमेंटमधे त्यांच्या चांगल्या ओळखी आहेत. ते नक्की मदत करतील. काळजी करू नकोस.मी आधी माझ्या साहेबांशी बोलून बघतो.तू थोड्या वेळाने मला फोन कर. आपण बोलू सविस्तर”

मी रिसिव्हर खाली ठेवला. त्याक्षणी मन स्वस्थ झालं. काहीतरी मार्ग निघण्याची थोडीशी कां असेना पण आशा निर्माण झाली होती.

हा आशानिराशेचा खेळ पुढे अनेक महिने असाच सुरु राहिला. अथक प्रयत्न, संपर्क,गाठीभेटी, रदबदल्या सगळं झाल्यानंतर अखेर या सगळ्या प्रकरणाला अनपेक्षित पूर्णविराम! हाती कांही न लागताच अखेर सगळं हातून निसटून गेलंच. स्टेट बँकेची पूर्वीची वेटिंग लिस्ट रद्दसुद्धा झाली आणि नवीन भरतीसाठी पेपरमधे पानभर जाहिरातही झळकली..!

केवळ भावाच्या आग्रहाखातर त्या जाहिरातीस प्रतिसाद म्हणून मी स्टेट-बँकेत पुन्हा नव्याने अर्ज केला. याच दरम्यान पूर्वी मेहुण्यांच्या ओळखीतून खाजगी नोकरीसाठी त्यांनी शब्द टाकला होता त्याची परिणती म्हणून शिवडीच्या ‘स्वान-मिल’मधल्या पीएफ् डिपार्टमेंटला मला दिवसभर चरकातून पिळून काढणारी तुटपुंज्या पगाराची नोकरी मिळाली. नव्या खेळाला नव्याने सुरुवात झाली..!

पुढे जे काही घडत गेलं ते सगळं योगायोग वाटावेत असंच होतं. पण तरीही जणू काही कुणीतरी ते मुद्दाम घडवत होतं. ‘कुणीतरी’ म्हणजे माझ्या मनात मी श्रद्धेनं जपलेला ‘तो’च होता! कारण वरवर योगायोग वाटणाऱ्या पुढे घडत गेलेल्या सगळ्याच घटना अघटीत वाटाव्यात अशाच होत्या हे माझं मलाच जाणवत होतं. आणि आत्तापर्यंत घडलेल्या या सगळ्या नकारात्मक  बारीकसारीक घटना म्हणजे ‘त्या’नेच केलेले या सगळ्या अनिश्चिततेतून मला अलगद बाहेर काढण्यासाठीचे पूर्वनियोजन होते याचा प्रत्ययही आला. पण तोपर्यंतचा संघर्षाचा काळ मात्र माझी आणि माझ्या ‘त्या’च्यावरील श्रद्धेची कसोटी पहाणाराच होता!

‘क्वचित कधी अपयश आलंच तरी ते आपल्या हितासाठीच होतं हे कालांतरानं जाणवतंच’ हे कधीकाळी ऐकलेले बाबांचे शब्द मी त्या संघर्षकाळात घट्ट धरून ठेवले होते आणि पुढे ते आश्चर्यकारकरित्या शब्दशः खरेही ठरले!!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ कोण असे हा ? ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? कोण असे हा ? ?  सुश्री वर्षा बालगोपाल 

डोंगरावर कोण साधू

ध्यान लावून बसला 

चैतन्याची आभा पसरे 

चराचर जागला ||

*

का असे हा कोणी वैद्य 

दुरून रेकी देणारा 

वठलेले तरु पण तरारती 

प्राण तयात फुंकणारा ||

*

आहे का ही शक्तिदा 

शक्ती स्रोत वाहणारी 

ममतेचे हस्त ठेऊन शिरी 

अपत्यांना जागवणारी ||

*

कोण आहे माहित नाही 

युगानुयुगे कर्म आपले करत राही 

दर्शन याचे उठल्या बरोबर 

आरोग्यदान पदरात येई ||

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #233 – बाल कविता – “करें ज्ञान विज्ञान की बातें…”☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम  बाल कविता – करें ज्ञान विज्ञान की बातें” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #233 ☆

☆ बाल कविता – करें ज्ञान विज्ञान की बातें… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

करें ज्ञान विज्ञान की बातें

क्यों होते दिन होती रातें।

*

तारे टिमटिम क्यों क tvरते हैं

दूर गगन में क्यों रहते हैं।

क्यों मंडराते नभ में बादल

कैसे होती है बरसातें।

करें ज्ञान विज्ञान की बातें।।

*

चंदा क्यों बढ़ता घटता है

सूरज क्यों हर दिन तपता है

सप्त ऋषि तारे क्या कहते

क्यों ध्रुव तारा देख लुभाते।

करें ज्ञान विज्ञान की बातें।।

*

खारा क्यों होता है सागर

भाटा ज्वार में क्या है अंतर

कैसे बिजली पैदा करते

नदियों पर क्यों बांध बनाते

करें ज्ञान-विज्ञान की बातें।।

*

क्यों किसान खेतों को जोते

बीज अंकुरित कैसे होते

कैसे टीवी चित्र दिखाएं

और  रेडियो  गाने गाते।

करें ज्ञान विज्ञान की बातें।।

*

चलो चलें हम जल्दी शाला

हल होगा सब वहीं मसाला

टीचर जी समझायेंगे सब

जैसे  और  प्रश्न समझाते।

करें ज्ञान विज्ञान की बातें।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 57 ☆ धर्म ध्वजा… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “धर्म ध्वजा…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 57 ☆ धर्म ध्वजा… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

पाप-पुण्य की

इस नगरी में

धर्म हमारी ध्वजा रही है ।

 

तिनका- तिनका जोड़ जतन से

एक घोंसला सुघर बनाया

ना जाने कब कौन शिकारी

की पड़ गई अमंगल छाया

 

छन कर आती

धूप नहीं अब

छाँव अँधेरे सजा रही है ।

 

मिलजुल कर बोया फसलों को

काट रहे हैं अपनी-अपनी

ढो-ढो कर रिश्तों की गठरी

पीठ हो गई छलनी-छलनी

 

हवा हुई बे-शर्म

यहाँ की

गंध सुवासित लजा रही है ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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