हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 190 ☆ दोहा मुक्तिका ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है दोहा मुक्तिका…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 190 ☆

☆ दोहा मुक्तिका ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

सत्य सनातन नर्मदा, बाँच सके तो बाँच.

मिथ्या सब मिट जाएगा, शेष रहेगा साँच..

*

कथनी-करनी में कभी, रखना तनिक न भेद.

जो बोया मिलता वही, ले कर्मों को जाँच..

*

साँसें अपनी मोम हैं, आसें तपती आग.

सच फौलादी कर्म ही सह पाता है आँच..

*

उसकी लाठी में नहीं, होती है आवाज़.

देख न पाते चटकता, कैसे जीवन-काँच..

*

जो त्यागे पाता ‘सलिल’, बनता मोह विछोह.

एक्य द्रोह को जय करे, कहते पांडव पाँच..

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

९.४.२०१५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-21 – जाने किस घड़ी वक्त का बदले मिज़ाज… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग – 21 – जाने किस घड़ी वक्त का बदले मिज़ाज… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

यादों से घिरा रहता हूँ, सुबह शाम ! जब जब यादें आती हैं, कितने खट्टे मीठे अनुभव याद कराती हैं और यह भी कि वक्त क्या क्या दिन दिखाता है ! आज जब चंडीगढ़ की ओर निकल रहा हूँ, तब बस स्टैंड के पास ही स्थित हरियाणा आई जी ऑफिस की याद हो आती है, जिसमें आज के दिन साहित्य अकादमी के अध्यक्ष माधव कौशिक, सुभाष रस्तोगी, उर्मिल और गार्गी तिवारी जैसे रचनाकार एक ही ऑफिस में एक साथ काम करते थे यानी पूरा आई जी ऑफिस रचनाकारों से भरा पड़ा था । ‌जब मैंने सन् 1990 में ‘ दैनिक ट्रिब्यून’ में उप संपादक के तौर पर ज्वाइन किया, तब इन लोगों ने मुझे अपनी गोष्ठियों में बुलाना शुरू किया, यही नहीं, ऑफिस की पत्रिका में भी मेरी रचनायें प्रकाशित की जाने लगीं । ये लोग भी मुझसे मिलने ऑफिस आते रहते ! ये दिन कभी भूलने वाले नहीं । ‌यह प्यार और सम्मान भूलने वाला नहीं ! फिर‌ इतने वर्षों के बीच गार्गी तिवारी को हिसार की कारागार में देखने का दुखद दृश्य भी देखा । मैं किसी कवरेज के सिलसिले में कारागार गया था, महिला जेल अधीक्षक ने एक कैदी की तारीफ करनी शुरू की कि वह लेखिका है और पता नहीं उसकी बदनसीबी उसे कैसे यहाँ तक ले आई । मैंने कहा कि आप मिलवाइये उससे। उन्होंने अंदर किसी को भेजा और देखता हूँ कि मेरे सामने कैदियों के भेस में गार्गी तिबारी खड़ी है ! वह मुझे विस्फारित आंखों से देख रही थी और मैं उसे!

– क्या हुआ गार्गी? यहाँ इस हाल में कैसे?

जेल अधीक्षक ने जवाब दिया कि इस प्यारी सी गुड़िया पर अपने ही पति की हत्या का इल्जाम इसके देवर ने मढ़ दिया है !

गार्गी टप् टप् आंसू बहाये जा रही थी और मैं वहाँ से चला आया – निशब्द! क्या और कैसी सांत्वना दूं? फिर जब नया साल आया तब मैंने नीलम को कहा कि आज हम एक व्यक्ति को नया साल मुबारक करने जायेंगे । इस तरह मैं पत्नी को बिना कुछ बताये गंगवा रोड स्थित कारागार की ओर ले गया । महिला अधीक्षक को गार्गी से मिलने की इज़ाज़त मांगी । उन्होंने बुला दिया । तब मैंने कहा कि गार्गी, आज शायद तुमने सोचा भी न हो और मैंने भी कैसे सोच लिया कि गार्गी को नये साल की विश करके जायेंगे हम पति पत्नी और यह विश भी कि आपको फिर यहाँ न देखना पड़े ! इसके बाद उसी साल गार्गी सारे दोषों से मुक्त हो गयी ! फिर एक दो बार चंडीगढ़ में भी मुलाकात हुई और वह ज्योतिष यानी भविष्यवाणी करने का काम करने लगी थी‌ । इन दिनों कहाँ है, नहीं जानता पर इंसान कहाँ से कहां पहुंच जाता है वक्त के फेर मे ! हैरान हूँ आज तक !

इतने वर्षों बाद माधव कौशिक सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते देश की सबसे बड़ी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान हुए और उपाध्यक्ष कुमुद शर्मा भी हरियाणा के आईटी हब गुरुग्राम में रहती हैं। ‌वे प्रसिद्ध कथाकार अमरकांत की पुत्रवधू हैं और इनके पति अरूण बर्धन से ‘सारिका’ के कार्यालय में कुछ मुलाकातें हुईं रमेश बतरा के माध्यम से! खेद उन्हें कोरोना लील गया । जिन दिनों हरियाणा ग्रंथ अकादमी की पत्रिका ‘ कथा समय’ का संपादन कर रहा था , उन दिनों अमरकांत की कहानी ‘अमलतास के फूल’ प्रकाशित की थी और इनके बड़े बेटे से बातचीत भी प्रकाशित की थी ! तब एक स्तम्भ शुरू किया था कि बड़े लेखक अपनी ही संतानों की नज़र में क्या हैं और उनकी कौन सी रचना क्यों पसंद है !

पर एक सवाल जहाँ भी हरियाणा में जाता हूँ जरूर उठता है कि हरियाणा ने साहित्य अकादमी को अध्यक्ष और उपाध्यक्ष तो दिये लेकिन आज तक हरियाणा के किसी साहित्यकार को अकादमी पुरस्कार नहीं मिला ! यह भी एक अलग तरह का कीर्तिमान कहा जा सकता है !

सुभाष रस्तोगी आजकल जीरकपुर में रहते हैं और‌ उनकी कहानियाँ ‘कथा समय ‘ में भी लीं, खासतौर पर दिल्ली के रेप केस पर आधारित ‘सात पैंतालिस की बस ‘ जो मुझे बहुत पसंद आई ! वैसे रस्तोगी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं और प्रमुख कवियों में एक! ‘साक्षी’ नाम से सहित्यिक संस्था भी चलाते रहे!

माधव‌ कौशिक और कुमुद शर्मा के छोटे छोटे साक्षात्कार भी मैंने इनके साहित्य अकादमी के लिए चुने जाने के बाद किये!

शायद आज इतना ही काफी! यह कहते हुए कि अच्छे और बुरे दिन सब पर आते हैं लेकिन अपने दिनों को भूलना नहीं चाहिए और न ही संबंधों को क्योंकि

वक्त की हर शै गुलाम

वक्त का हर शै पे राज

आदमी को चाहिए

वक्त से डर कर रहे

कौन जाने किस घड़ी

वक्त का बदले मिज़ाज!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #240 – 125 – “मिलकर भी तुम तो मिल नहीं पाती हो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल मिलकर भी तुम तो मिल नहीं पाती हो…” ।)

? ग़ज़ल # 125 – “मिलकर भी तुम तो मिल नहीं पाती हो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

तुमको  कहते हैं  लोग  मेरी जाने जाँ,

लेकर मेरा दिल बन गई मेरी जाने जाँ।

*

तुमने मुझ पर नाराज़ होना छोड़ दिया,

 ठीक नहीं है नाराज़ी इतनी जाने जाँ।

*

मिलकर भी तुम तो मिल नहीं पाती हो,

खूब  बहाने  तुम  तो बनाती जाने जाँ।

*

बिजली  सी  चमक  जाती है यकवयक,

तुम  ज़ुल्फ़ें क्यों हो  लहराती जाने जाँ।

*

तुम तो  खोई हो दुनियादारी में जानम,

आतिश को दिखती हो भर्माती जाने जाँ।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 118 ☆ मुक्तक – ।। बस यूँ ही किसी किरदार को नाम नहीं मिलता ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 118 ☆

☆ मुक्तक – ।। बस यूँ ही किसी किरदार को नाम नहीं मिलता ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

हर किसीको यूँ ही जमीं आसमां नहीं मिलता है।

हर किसीको करने को इम्तिहान नहीं मिलता है।।

वह तो खुशनसीब हैं जिन्हें   आजमाया है गया।

हर क़िरदार को यूं ही नाम इंसान नहीं मिलता है।।

[2]

जिम्मेदारी भी मिलती है   काम करने वाले को।

यह दुनिया भी पूछती है    नाम करने वाले को।।

कर्मशील को तो मिलता  है काम  में ही आनंद।

ये मंजिल मिलती है स्वाभिमान करने वाले को।।

[3]

कल को भूलो आज हम रवानी नई लिखते हैं।

छोड़ कर ये पुरानी बातें कहानी नई लिखते हैं।।

गर छूना आसमान तो उड़ान भरोआज ही तुम।

हौसलों   भरी हुई इक जिंदगानी नई लिखते हैं।।

[4]

जो सिर्फ पानी से नहाते  वो लिबास बदलते हैं।

जो नहाते पसीने से जाकर  इतिहास बदलते हैं।।

उनकी सोच खून पसीना रंग लाता है अलग सा।

वो होकर आदमी आम ही कुछ खास बदलते हैं।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 180 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – आदमी कितना भोला है, नादान है… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “आदमी कितना भोला है, नादान है…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 180 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – आदमी कितना भोला है, नादान है… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

आदमी कितना भोला है, नादान है ।

कोरे सपनों से अपने परेशान है ।।

*

देखते सपने दिन रात उसके नयन सपनों में सदा रहता है अक्सर मगन ।

सपनों में खोया, खुद से पै अनजान है ।। १ ।।

*

सपने आते उसे, सपने भाते उसे किन्तु सपने ही अक्स रुलाते उसे ।

सिर्फ सपनों में जीना न आसान है ।। २ ।।

*

सपनों का बड़ा रंगीन संसार है इंद्रधनुषी है, लेकिन निराधार है ।

कड़ी धरती का कम उसको अनुमान है ।। ३ ।।

*

स्वप्न वे ही भले जो कि साकार हों ठोस जिनके कहीं कोई आधार हों ।

लगन से मन की, जिनकी कि पहचान है ।। ४ ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #235 ☆ ख्वाब : बहुत लाजवाब… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ख्वाब : बहुत लाजवाब। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 235 ☆

☆ ख्वाब : बहुत लाजवाब… ☆

‘जो नहीं है हमारे पास/ वो ख्वाब है/ पर जो है हमारे पास/ वो लाजवाब है’ शाश्वत् सत्य है, परंतु मानव उसके पीछे भागता है, जो उसके पास नहीं है। वह उसके प्रति उपेक्षा भाव दर्शाता है, जो उसके पास है। यही है दु:खों का मूल कारण और यही त्रासदी है जीवन की। इंसान अपने दु:खों से नहीं, दूसरे के सुखों से अधिक दु:खी व परेशान रहता है।

मानव की इच्छाएं अनंत है, जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती चली जाती हैं और सीमित साधनों से असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। इसलिए वह आजीवन इसी उधेड़बुन में लगा रहता है और सुक़ून भरी ज़िंदगी नहीं जी पाता। सो! उन पर अंकुश लगाना अनिवार्य है। मानव ख्वाबों की दुनिया में जीता है अर्थात् सपनों को संजोए रहता है। सपने देखना तो अच्छा है, परंतु तनावग्रस्त  रहना जीने की ललक पर ग्रहण लगा देता है। खुली आंखों से देखे गए सपने मानव को प्रेरित करते हैं करते हैं, उल्लसित करते हैं और वह उन्हें साकार रूप प्रदान करने में अपना सर्वस्व झोंक देता है। उस स्थिति में वह आशान्वित रहता है और एक अंतराल के पश्चात् अपने लक्ष्य की पूर्ति कर लेता है।

परंतु चंद लोग ऐसी स्थिति में निराशा का दामन थाम लेते हैं और अपने भाग्य को कोसते हुए अवसाद की स्थिति में पहुंच जाते हैं और उन्हें यह संसार दु:खालय प्रतीत होता है। दूसरों को देखकर वे उसके प्रति भी ईर्ष्या भाव दर्शाते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें अभावों से नहीं; दूसरों के सुखों को देख कर दु:ख होता है–अंतत: यही उनकी नियति बन जाती है।

अक्सर मानव भूल जाता है कि वह खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। यह संसार मिथ्या और  मानव शरीर नश्वर है और सब कुछ यहीं रह जाना है। मानव को चौरासी लाख योनियों के पश्चात् यह अनमोल जीवन प्राप्त होता है, ताकि वह भजन सिमरन करके अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सके। परंतु वह राग-द्वेष व स्व-पर में अपना जीवन नष्ट कर देता है और अंतकाल खाली हाथ जहान से रुख़्सत हो जाता है। ‘यह किराये का मकान है/ कौन कब तक रह पाएगा’ और ‘यह दुनिया है एक मेला/ हर इंसान यहाँ है अकेला’ स्वरचित गीतों की ये पंक्तियाँ एकांत में रहने की सीख देती हैं। जो स्व में स्थित होकर जीना सीख जाता है, भवसागर से पार उतर जाता है, अन्यथा वह आवागमन के चक्कर में उलझा रहता है।

जो हमारे पास है; लाजवाब है, परंतु बावरा इंसान इस तथ्य से सदैव अनजान रहता है, क्योंकि उसमें आत्म-संतोष का अभाव रहता है। जो भी मिला है, हमें उसमें संतोष रखना चाहिए। संतोष सबसे बड़ा धन है और असंतोष सब रोगों  का मूल है। इसलिए संतजन यही कहते हैं कि जो आपको मिला है, उसकी सूची बनाएं और सोचें कि कितने लोग ऐसे हैं, जिनके पास उन वस्तुओं का भी अभाव है; तो आपको आभास होगा कि आप कितने समृद्ध हैं। आपके शब्द-कोश  में शिकायतें कम हो जाएंगी और उसके स्थान पर शुक्रिया का भाव उपजेगा। यह जीवन जीने की कला है। हमें शिकायत स्वयं से करनी चाहिए, ना कि दूसरों से, बल्कि जो मिला है उसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए। जो मानव आत्मकेंद्रित होता है, उसमें आत्म-संतोष का भाव जन्म लेता है और वह विजय का सेहरा दूसरों के सिर पर बाँध देता है।

गुलज़ार के शब्दों में ‘हालात ही सिखा देते हैं सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह होता है।’

हमारी मन:स्थितियाँ परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं। यदि समय अनुकूल होता है, तो पराए भी अपने और दुश्मन दोस्त बन जाते हैं और विपरीत परिस्थितियों में अपने भी शत्रु का क़िरदारर निभाते हैं। आज के दौर में तो अपने ही अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं, उन्हें तक़लीफ़ पहुंचाते हैं। इसलिए उनसे सावधान रहना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए जीवन में विवाद नहीं, संवाद में विश्वास रखिए; सब आपके प्रिय बने रहेंगे। जीवन में  इच्छाओं की पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म में सामंजस्य रखना आवश्यक है, अन्यथा जीवन कुरुक्षेत्र बन जाएगा।

सो! हमें जीवन में स्नेह, प्यार, त्याग व समर्पण भाव को बनाए रखना आवश्यक है, ताकि जीवन में समन्वय बना रहे अर्थात् जहाँ समर्पण होता है, रामायण होती है और जहाल इच्छाओं की लंबी फेहरिस्त होती है, महाभारत होता है। हमें जीवन में चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए। स्व-पर, राग-द्वेष, अपेक्षा-उपेक्षा व सुख-दु:ख के भाव से ऊपर उठना चाहिए; सबकी भावनाओं को सम्मान देना चाहिए और उस मालिक का शुक्रिया अदा करना चाहिए। उसने हमें इतनी नेमतें दी हैं। ऑक्सीजन हमें मुफ्त में मिलती है, इसकी अनुपलब्धता का मूल्य तो हमें कोरोना काल में ज्ञात हो गया था। हमारी आवश्यकताएं तो पूरी हो सकती हैं, परंतु इच्छाएं नहीं। इसलिए हमें स्वार्थ को तजकर,जो हमें मिला है, उसमें संतोष रखना चाहिए और निरंतर कर्मशील रहना चाहिए। हमें फल की इच्छा कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जो हमारे प्रारब्ध में है, अवश्य मिलकर रहता है। अंत में अपने स्वरचित गा त की पंक्तियों से समय पल-पल रंग बदलता/ सुख-दु:ख आते-जाते रहते है/ भरोसा रख अपनी ख़ुदी पर/ यह सफलता का मूलमंत्र रे। जो इंसान स्वयं पर भरोसा रखता है, वह सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है। इसलिए इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि जो नहीं है, वह ख़्वाब है;  जो मिला है, लाजवाब है। परंतु जो नहीं मिला, उस सपने को साकार करने में जी-जान से जुट जाएं, निरंतर कर्मरत रहें, कभी पराजय स्वीकार न करें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 10 – नवगीत – व्याकुल प्यासे हैं चातक… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – व्याकुल प्यासे हैं चातक

? रचना संसार # 10 – नवगीत – व्याकुल प्यासे हैं चातक…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

संत्रास ही संत्रास है,

वक्ष पीटें हम खड़े।

 *

टूट कर बिखरा हृदय है,

ठौर कोई अब कहाँ।

अश्रु झरते हैं नयन से,

मात्र मातम है यहाँ।।

सूखे नातों के बल पर,

किससे कौन अब लड़े।

 *

भाग्य को शनि-ग्रह लगा है,

व्यथा कथा कौन कहे।

शकुनि करें गुप्त मंत्रणा,

पीर कितनी अब सहे।।

भरा स्वार्थ से जग सारा,

नयन लज्जा से गड़े।

 *

ग्रहण लगा है दिनकर को,

कपटी उजाला छले।

शक्ति आसुरी के कारण,

पत्थर मोम बन गले।।

व्याकुल प्यासे हैं चातक,

मगर कितने खग अड़े।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #235 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  प्रदत्त शब्दों पर भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 235 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

कटे पेड़,अब है नहीं, शीतल ठंडी छाँव।

तेज भानु का है बढ़ा, पलट गया है दाँव।।

*

हर युग की पीड़ा रही, रहा मिलन का राग।

योग  न बन पाया कभी, नहीं नदी का भाग।।

*

पेड़ों की रक्षा करो, मत लो इनकी जान।

मिलता है संसार को, इनका ही अवदान।।

*

वृक्ष लगाओ नीम का, करो सभी उपयोग।

दवा रूप में कर रहे, औषधिजन्य  प्रयोग।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #217 ☆ बुंदेली पूर्णिका – कैसे रख हो प्रसन्न सभै खोँ… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है बुंदेली पूर्णिका – कैसे रख हो प्रसन्न सभै खोँ आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 217 ☆

☆ बुंदेली पूर्णिका – कैसे रख हो प्रसन्न सभै खोँ ☆ श्री संतोष नेमा ☆

सबको  बोझा   मूडे   धरत  हो

भैया  काहे खों  सिर  धुनत  हो

*

बखत  पड़े कोऊ काम न  आबे

सुध  ओरन  की  खूब  धरत हो

*

इनकी   उनकी   छोड़ो   भईया

दंद – फंद   में   काय  परत   हो

*

कैसे  रख  हो  प्रसन्न  सभै  खोँ

चिंता  सब  की  काय  करत हो

*

अपनी  सोचो  अपनी  देख  लो

जबरन  सच्चाई   सें   डरत   हो

*

भईया  कब  लौ सुन हो  सबकी

सब  के  लाने   काय   मरत   हो

*

जा  दुनिया  ने  सगी  कोऊ  की

“संतोष”  पीछू  काय  भगत  हो

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 224 ☆ अबोला…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 224 – विजय साहित्य ?

अबोला…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

(मात्रा वृत्त)

वेलीवरल्या, दोन फुलांनी,

कोण अबोला, धरला आहे

उडून गेले, रंग तरीही

गंध त्यातला,जपला आहे.

*

पानोपानी, खट्याळ खोडी

अजून त्यांचा, दंगा चालू

आहे खात्री, परस्परांना

लळा जिव्हाळा,उरला आहे.

*

येतो कोणी,जातो कोणी

देखभाल ती, नावापुरती

सोबत आहे, जुनी जाणती

वसंत देही, मुरला आहे.

*

आहे मैत्री,अतूट नाते

कुणी कुणाला,सांगायाचे

अनुभव खासा,अनुभूतीचा

मौनामध्ये, भरला आहे.

*

क्षिणली आहे, पिचली आहे

तरी घालते, कुणा साकडे

त्या वेलीचे, नाते हळवे

ऋतू बोलका,सरला आहे.

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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