हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मुसीबतों से हमारा न हौसला टूटा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “मुसीबतों से हमारा न हौसला टूटा“)

✍ मुसीबतों से हमारा न हौसला टूटा... ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

हम ऐसे ऐसे फकीरों के साथ बैठे हैं

ख़ुदा के जैसे सफ़ीरों के साथ बैठे हैं

 *

उतर गए हैं चढ़े रूढ़ियों के सब चश्मे

हयात में जो कबीरों के साथ बैठे हैं

 *

सियासतों की हकीकत से हम हुए वाकिफ

बहुत जो दफ़्य वज़ीरों के साथ बैठे हैं

 *

मुसीबतों से हमारा  न हौसला टूटा

अनेक बार क़दीरों के साथ बैठे हैं

 *

पलट के बात से आँखें फिरायें हम अपनी

बड़ों से सीखे न कीरों के साथ बैठे हैं

 *

ये शुहवतों का असर है नहीं चमक अपनी

मिला है साथ मुनीरों के साथ बैठे है

*

मैं फैसला जो लू तो सोचता सभी पहलू

सबब यही है वशीरों के साथ बैठे हैं

*

मदद को हाथ उठे रहते हैं हमेशा  जो

असर है हमपे नसीरों के साथ बैठे हैं

*

अरुण कभी न कोई बात हम करें छोटी

न आज तक जो हक़ीरों के बैठे हैं

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 106 – बैंक: दंतकथा: 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  बैंक: दंतकथा: 3

☆ कथा-कहानी # 106 –  बैंक: दंतकथा: 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

अविनाश अतीत में गोते लगाते रहते  पर मोबाईल में आई नोटिफिकेशन टोन ने उन्हें अतीत से वर्तमान में ट्रांसपोर्ट कर दिया. आंचलिक कार्यालय की घड़ी रात्रि के 8 बजे के दरवाजे पर दस्तक दे रही थी. पर मोबाईल में वाट्सएप पर आया केके का मैसेज उन्हें लिफ्ट में ही रुककर पढ़ने से रोक नहीं पाया।

मैसेज : Dear AV, Mr. host of the month, what will be the menu of sunday lunch ?

Reply from AV : It will be a secret surprise for both of us, only Mrs. Avantika Avinash & Mrs. Revti Kartikay know. But come on time dear Sir. Reply was followed by various whatsapp emojis which were equally reciprocated by KK.

अविनाश और कार्तिकेय की दोस्ती सही सलामत थी, मजबूत थी. ये दोस्ती ऑफिस प्रोटोकॉल के नियम अलग और पर्सनल लाईफ के अलग से, नियंत्रित थी. हर महीने एक संडे गेट टु गेदर निश्चित ही नहीं अनिवार्य था जिसकी शुरुआत फेमिली लंच से होती थी, फिर बिग स्क्रीन टीवी पर किसी क्लासिक मूवी का लुत्फ़ उठाया जाता और फाईनली अवंतिका की मसाला चाय या फिर रेवती की बनाई गई फिल्टर कॉफी के साथ ये चौकड़ी विराम पाती. जब कभी मूवी का मूड नहीं होता या देखने लायक मूवी नहीं होती तो कैरमबोर्ड पर मनोरंजक और चीटिंग से भरपूर मैच खेले जाते. ये चीटिंग कभी कभी खेले जाने वाले चेस़ याने शतरंज के बोर्ड पर भी खिलाड़ियों को चौकन्ना बनाये रखती. शतरंज के एक खिलाड़ी की जहाँ knight याने घोडों के अटेक में महारत थी, वहीं दूसरा खिलाड़ी बाजी को एंडगेम तक ले जाने में लगा रहता क्योंकि उसे पैदलों याने Pawns को वजीर बनाने की कला आती थी।घोड़े और पैदल शतरंज के मोहरों के नाम हैं और उनकी पहचान भी.

जहाँ अविनाश और अवंतिका प्रेमविवाह से बंधे युगल थे वहीं रेवती का चयन, कार्तिकेय के परंपराओं को  कसकर पकड़े उनके पेरेंट्स की पसंद से हुआ था. मिसेज़ रेवती कार्तिकेय जी विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाती थीं पर उससे भी बढ़कर सांभर बनाने की पाककला में पीएचडी थीं. उनका इस कहावत में पूरा विश्वास था कि दिल तक पहुंचने के रास्ते की शुरुआत, सुस्वादु भोजन के रूप में पेट से होती है.

तो इस मंथली लंच टुगेदर के होस्ट कभी अविनाश होते तो कभी कार्तिकेय।महीने में एक बार आने वाले ये सुकून और आनंददायक पल, कुछ कठोर नियमों से बंधे थे जहाँ बैंक और राजनीति पर चर्चा पूर्णतया वर्जित थी. स्वाभाविक था कि ये नियम रेवती जी ने बनाये थे क्योंकि उनके लिये तीन तीन बैंकर्स को झेलना बर्दाश्त के बाहर था।

कार्तिकेय जानते थे कि कैरियर के लंबे सफर के बाद पुराने दोस्त से मुलाकात हुई है और पता नहीं कब तक एक सेंटर पर रहना संभव हो पाता है, तो इन खूबसूरत लम्हों को दोनों भरपूर इंज्वाय करना चाहते थे. वैसे इस बार लंच का मेन्यु, अविनाश की बनाई फ्राइड दाल, अवंतिका की बनाई गई मसालेदार गोभी मटर थी और देखी जा रही मूवी थी ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित और राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन अभिनीत “नमकहराम”. और जो गीत बार बार रिपीट किया जा रहा था वो था

दिये जलते हैं, फूल खिलते हैं

बड़ी मुश्किल से मगर, दुनियां में दोस्त मिलते हैं

दौलत और जवानी इक दिन खो जाती है

सच कहता हूँ सारी दुनिया दुश्मन हो जाती है

उम्र भर दोस्त मगर साथ चलते हैं, दिये जलते हैं

ये फिल्म देख रहे दोनों परिवारों का पसंदीदा गीत था और हो सकता है कि शायद कुछ पाठकों का भी हो.

तो खामोश मित्रों और मान्यवरों, ये दंतकथा अब इन परिवारों की समझदारी और दोस्ती को नमन कर यहीं विराम पाती है।हो सकता है फिर कुछ प्रेरणा पाकर आगे चले, पर अभी तो शुभकामनाएं और धन्यवाद !!!

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 26 – बातों का वजन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बातों का वजन।)

☆ लघुकथा – बातों का वजन श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

तुम लोगों ने बहुत ही अच्छा पिकनिक का प्रोग्राम बनाया, आज तो आनंद आ गया। मां नर्मदे का दर्शन पूजन आरती सब कुछ हो गया इतना सुख और आनंद मिला नाव से उतरते हुए रागिनी जी ने अपनी सखी नेहा से कहा।

नेहा बहन आनंद तो आया पर देखो यहां घाट पर कितनी दुकान लगा ली है जरा भी जगह नहीं छोड़ी है और बर्तनों की सफाई भी यहीं पर कर रहे हैं यह लोग।

अपनी बात नेहा  पूरी नहीं कर पाई थी….. तभी अचानक एक महिला ने कहा बहन जी आप लोग यहां आकर किटी पार्टी करती हैं और चली जाती हैं दीपदान भी करती हैं तो सामान हमारी दुकान से मिलेगा, और यह शाम की आरती के बर्तन है हम उसे साफ कर रहे हैं ।

आपके घरों का कचरा फूल और मूर्तियां भी तो आप यहां पर डालते हो और क्या नाले का पानी यहां पर आकर  मिलता है। आप घरों में मशीन (प्यूरीफायर) का पानी पीती हैं।

यह जल भरकर ले जाती है पूजा करती हैं क्या आप पीती भी हैं ?

मेरी बात पर गौर करना, मेरा नाम आराधना है। गरीब हैं तो क्या हुआ लेकिन मैं भी पोस्ट ग्रेजुएट हूं।

उसकी बात सुनते नेहा, रागिनी  सभी सखियों के चेहरे पर एक चुप्पी छा जाती है और सभी चुपचाप  अपने गाड़ी की तरफ शीघ्रता से कदम बढ़ाती है ।

 तभी  एक सखी ने कहा – बहन तोल  कर बोलना चाहिए?

 बातों में भी वजन होता है आज पता चला…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 233 ☆ तू… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 233 ?

☆ तू… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(स्मृति शेष स्व अनिता निकम (न्यूयॉर्क) – 1 जून 2024))

अचानक गेलीस निघून पैलतीरावर,

आणि मनात खूप खळबळ,

असं का व्हावं?

तशी तू अलिप्तच,

पण कधी जुळले सूर,

तुझे माझे ?

अगदी लहानपणापासून–

आवडायचीसच,

 खूपच गोड होतीस,

 

कुरळ्या केसाचं साम्य,

तुझ्यामाझ्यात!

आत्तेमामे भावंडांत असतंच,

तसं थोडं बहुत साम्य!

 

 तू वेगळीच होतीस

 लहानपणापासून….

तुला शोभून दिसायचा..

तो अंगभूत अॅटिट्युड!

 

खूप फिरलो,

सिनेमे पाहिले…

वाचली पुस्तकं, ऐकली गाणी !

खूप लाभली तुझी संगत,

सात -आठ वर्षाचं

अंतर असूनही,

जुळले विचार,

 

वाचलं होतं कुठेतरी,

वृषभ-मकर मित्र राशी !

म्हणूनही असेल,

 

लग्नानंतर गेलीस दूरदेशी…..

तरीही भेटत होतो,

पत्रातून, भेटकार्डातून…

नंतर…

फोन..मोबाईल…व्हाॅटस अॅप वर !

 

 ऐकतेय तुझे व्हाॅईस मेसेज,

वाचतेय वारंवार,

काय सांगत होतीस ते !

तुझ्या बरोबरचे हॉस्पिटल मधले 

दिवस आठवतेय   ….

बरी झालीस..असं वाटलं फक्त!

 

गेले तीन महिने,

भासवलंस …

बरी असल्याचं!

मोबाईलवर बोलत होतीस

 भरभरून!

निघालीस परत आत्मविश्वासाने एकटीच….न्यूयॉर्कला  !

 

आणि त्याच दिवशी संपली ईहलोकीची यात्रा ,

 

“डिसेंबर मधे परत भेटू”

म्हणाली होतीस!

नेमकं कोणतं दुःख, वेदना, आजार ??

घेऊन गेला तुला ?

सारं गुढ ,अनाकलनीयच!

 

 गुडबाय, स्वीट प्रिन्सेस,

तिथेही याच दिमाखात रहा —

 

पण दुःख, वेदना विरहित!!

© प्रभा सोनवणे

३ जून २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ एक छानशी गोष्ट – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर ☆

सौ. गौरी गाडेकर

📖 वाचताना वेचलेले 📖

एक छानशी कथा – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर 

एका प्रवासी बोटीचा भर समुद्रात अपघात होतो.

त्याच बोटीवर एक जोडप (पती-पत्नी) प्रवास करत असतात. 

ते दोघेही एकमेकांचे जीव की प्राण असतात. बोटीच्या अपघातामुळे ते एकमेकांना वाचवण्यासाठी आटोकाट प्रयत्न करत असतात. 

त्यांची नजर आधारासाठी काहीतरी शोधण्यासाठी चहूकडे भीरभीरत असते. 

आणि अचानक त्यांना एक जीवरक्षक बोट दिसते. 

एका म्हणीत म्हटलेल आहे की, 

“डुबत्याला काठीचा आधार”

अगदी तसच होते, ते दोघेही जिवाच्या आकांतान त्या जीवरक्षक बोटीजवळ येतात.

परंतु त्यांची घोर निराशा होते.  त्यांना दिसत की, बोटीत फक्त एकच जागा शिल्लक आहे. 

पती, पत्नीला बुडत्या बोटीवर मागे ठेउन जीवरक्षक बोटीत उडी मारतो. 

पत्नी बुडत्या बोटी वर थांबते.

बोट पाण्याखाली जाण्याआधी ती पतीकड़े पाहून जीवाच्या आकांताने काही तरी ओरडून सांगण्यांचा प्रयत्न करते. 

शिक्षक गोष्ट सांगायचे थांबवतात. 

वर्गात निरव शांतता  

वर्गातील प्रत्तेक विद्यार्थी अगदी मन लावून तल्लीन होवून गोष्ट ऐकण्यात गुंग झालेला असतो. 

अनपेक्षितपणे शिक्षकांनी गोष्ट सांगायची का थांबवली हा प्रत्तेकालाच प्रश्न पडलेला असतो. आणि तेवढ्यात शिक्षक  वर्गातील मुलांना विचारतात की, 

पत्नी पतीला काय म्हणाली असेल?

बहुतेक विद्यार्थी तर्क करुन सांगतात की, पत्नी पतीला म्हणाली असेल, 

‘मला तुम्ही धोका दिलात, मी तुम्हाला ओळखलेच नाही, तुम्ही स्वार्थी आहात..!’ 

प्रत्येक विद्यार्थ्यांनी आपआपली मते मांडली. तेवढ्यात शिक्षकांचे एका विद्यार्थ्याकडे लक्ष जाते. 

एक मुलगा मात्र गप्पच असतो.

शिक्षक त्याला विचारतात, “अरे, तुला काय वाटते ते पण सांग!”

तो मुलगा म्हणतो, 

“गुरुजी, मला वाटत, त़ी म्हणाली असेल, मुलांना सांभाळा..!”

शिक्षक चकित होउन विचारतात, “तुला ही गोष्ट माहीत आहे का?”

तो नकारार्थी मान हलवतो आणि म्हणतो, *”नाही गुरुजी, मला माहित नाही. पण; माझी आई वारली तेंव्हा शेवटच्या श्वासाला ती हेच म्हणाली होती!”

“तुझे उत्तर बरोबर आहे!”

शिक्षक हलकेच म्हणाले.

बोट बुडाली. पतीने घरी जाउन, मुलीला एकट्यानेच लहानाचे मोठे केल.

खूप वर्षानंतर, वार्धक्याने त्या पतीला जेंव्हा मरण आले तेंव्हा, त्याच्या पश्चात राहिलेले सामान आवरत असताना, त्याच्या मुलीला एक डायरी सापडते.

त्यातून असे समजते की, तीच्या आईला आधीच दुर्धर आजार झालेला असतो. 

आणि ती त्यातून वाचणार नसते. त्यामुळे पतीला स्वत: जीवंत रहाण्याव्यतिरिक्त दूसरा पर्यायच नसतो.

त्या डायरीत पतीने पुढे लिहिलेले असते, “तुझ्या शेजारीच जलसमाधी घ्यायची माझी किती इच्छा होती. पण आपल्या मुलीसाठी मला तुला त्या सागराच्या तळाशी एकटीलाच कायमसाठी सोडून याव लागल!”

ही गोष्ट आपल्याला सांगण्या मागचा एवढाच उद्देश की,  चांगल्या किंवा वाईट कृतीच्या पाठीमागे, कधी कधी मोठी गुंतागुंत असते. जी आपल्या सहज लक्षात येत नाही.

त्यामुळे वरवर पाहून आपण कुणाहीबद्दल लगेच मत बनवून घेउ नये.

जे कोणत्याही कामात पुढाकार घेतात, ते मुर्ख असतात म्हणून नव्हे तर त्याना त्यांची जबाबदारी कळते म्हणून.

जे भांडल्यावर आधी क्षमा मागतात, त्यांची चुक असते म्हणून नव्हे,तर त्यांना आपल्या माणसांची पर्वा असते म्हणून.

जे तुम्हाला मदत करायला पुढे सरसावतात ते तुमचे काही देणे लागतात म्हणून नव्हे, तर ते तुम्हाला खरा मित्र मानतात म्हणुन…!

लेखक : अज्ञात 

संग्राहिका : सौ. गौरी गाडेकर

संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “गारंबीची राधा” – लेखक : श्री ना. पेंडसे ☆ परिचय – सौ. अलका ओमप्रकाश माळी ☆

सौ. अलका ओमप्रकाश माळी

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “गारंबीची राधा” – लेखक : श्री ना. पेंडसे ☆ परिचय – सौ. अलका ओमप्रकाश माळी  ☆

पुस्तकाचे नाव… गारंबीची राधा

लेखक… श्री. ना. पेंडसे

मैत्रिणींनो यशोदा ह्या श्री. ना. च्या कादंबरीचं  अभिवाचन मी काही दिवसांपूर्वी केलं होत.. त्यामुळे श्री. ना आणि त्यांचं कोकण प्रेम त्यांच्या लिखाणाची शैली आपल्या सगळ्यांना परिचयाची झाली आहे.. खर तर गारंबीची राधा मी खूप वर्षापूर्वी वाचलेलं पुस्तकं आहे.. आज माझ्याकडे तर ते पुस्तक ही नाहीय.. कोणीतरी वाचायला नेलेले दिलेच नाही.. असो.. पण राधा ने अशी काही भुरळ घातली आहे की बरेच प्रसंग अगदी काल वाचल्या सारखे लख्ख आठवतायत त्याच जोरावर मी अभिप्राय लिहिते आहे.. तुम्ही समजून घ्याल च.. खरं तर कोकण प्रदेश त्यातले अनेक लेखक कवी नेहमीच आपल्याला त्यांच्या लिखाणाच्या शैलीमुळे भुरळ घालतात आणि आपण अधाश्या सारखे हे साहित्य वाचतो.. पण ह्या सगळ्या लेखकांमध्ये जास्त आवडतात किंवा लाडके लेखक म्हणू हवं तर ते म्हणजे श्री. ना. पेंडसे.. ह्यांच्या अनेक कादंबऱ्या, कथा संग्रह मी अगदी पारायण केल्या सारखे वाचले आहेत.. कॉलेज लाईफ मध्ये.. श्री. ना. च पहिलं पुस्तकं हातात पडलं ते म्हणजे गारंबीची राधा…ही कादंबरी वाचली आणि मी अक्षरशः श्री. ना. च्या लिखाणाच्या प्रेमातच पडले.. मग काय एका मागून एक त्यांची पुस्तकं वाचली.. गारंबीचा बापू, रथचक्र, लव्हाळी,  ऑक्टोपस, चक्रव्यूह, राजे मास्तर आणि सगळ्यात आवडलेली कादंबरी म्हणजे 1400 पानांची दोन खंडात आलेली कादंबरी तुंबाडचे खोत.. 

गारंबीची राधा  आणि गारंबीचा बापू ह्या अगदी एकाच कथेचे दोन मोठे भाग असावेत असं वाटतं.. कोकणातल्या एका छोट्याशा खेड्यात गारंबी त्या खेड्याच नाव.. तिथे सुरू झालेली ही कहाणी आपल्याला पुन्हा नव्याने कोकणच्या प्रेमात पाडते.. ह्या कादंबरीत अनेक व्यक्ती चित्रण बघायला मिळतात.. मुख्य पात्र तर आहेतच त्यांच्या सोबतच अनेक स्वभावाची वेगवेगळी कोकणी माणसं आपल्याला इथे भेटतात.. कोकणचा प्रदेश, तिथली सामाजिक, आर्थिक परिस्थिती, तिथल्या प्रथा परंपरा, राहणीमान, खानपान ह्याचं अगदी जवळून दर्शन ह्या कादंबरी मध्ये होत.. पुलावरच्या एका बकाल म्हणता येईल अशा वस्तीत.. रावजी च्या हॉटेल मधे काम करणारी राधा एक सामान्य मध्यम वयीन स्त्री.. पण लेखक तिचं तिच्या रुपाच वर्णन करताना म्हणतात राधा म्हणजे पारिजातकाचं टवटवीत फुल. राधा दिसायला सुंदर आहे पण रोज तेलाच्या घाण्यासमोर बसून भजी तळून रापलेली तिची गोरी पान कांती अजूनच तिच्या सौंदर्यात भर घालते.. त्या छोट्याशा टपरी वजा हॉटेलमध्ये रावजी सोबत राधा दिवसभर काम करते, तिथेच तिला गारंबीचा बापू भेटतो. गारंबीमध्ये बापूची ओळख म्हणजे सर्वपित्री अमावस्येला जन्मलेलं एक बिघडलेलं कार्ट अशी आहे.. अशा ह्या उनाड बापू आणि राधाची प्रेम कहाणी ही जगावेगळी आहे.. बापूचा विचित्र स्वभाव आणि राधाचा स्पष्टवक्तेपणा राधेचं खंबीर धीर गंभीर रूप ह्या कादंबरीत वारंवार दिसून येते.. बापू सारखा मन मानेल तसं जगणारा प्रियकर आणि कोणाचाही आधार नसलेली ही राधा यांची प्रेम कहाणी आपल्याला वेड लावते.. प्रत्येक पानावर उत्सुकता अजूनच वाढत जाते…

यासोबत कोकणातील अंधश्रद्धा श्रीमंती थाट जमीनदारांचा मुजोरपणा आणि ह्या सगळ्याशी लढणारा उनाड बापू आपल्याला अधिकच जवळचा वाटू लागतो याच सोबत बापूवर निस्सीम प्रेम करणारी, कुठल्याही बंधनात न अडकलेली ही राधा आपल्या मनात घर करून जाते,… त्या काळी लग्नाशिवाय बापू सोबत एकाच घरात राहून संसार करणारी ती राधा त्या काळची एक आधुनिक विचारांची स्वतंत्र स्त्री या कादंबरीत भेटते,.. गावात असणारे अण्णा खोत, दिनकर भाऊजी ,विठोबा, आणि राधेचा नवरा रावजी ही अशी कित्येक पात्र या कादंबरीत भेटतात,.. रावजी म्हणजे राधाचा नवरा हा एक क्रूर विचारांचा स्त्री स्त्रीला एक भोगवस्तू समजणारा नवरा राधेला याचा तिरस्कार आहे.. राधेच्या सौंदर्यामुळे आपल्या हॉटेलमध्ये गिराईक वाढतील या उद्देशाने हा रावजी राधेला हॉटेलमध्ये बसवत असे,.. 

अशाच एका क्षणी राधेला बापू भेटतो.. आणि रावजीसारख्या माणसाला तो आपल्या ताकतीने हरवू शकतो हे ती काही प्रसंगातून समजून चुकते… एक प्रकारचे सुप्त आकर्षण बापूबद्दल तिला आधीच वाटत असते त्यातूनच ती त्याला अनेक पदार्थ करून पाठवत असे आणि तेही रावजीच्या हातून.. कित्येक दिवसांनी रावजी मरून जातो आणि राधा पुन्हा एकदा एकटी पडते… पण समाजात आधीच गल्ल्यावर बसणारी म्हणून राधेची नाहक बदनामी झालेलीच असते, त्यातच आता तिला एकटेपणा येतो.  या सगळ्यात बापूचा आधार तिला वाटतो,… आणि कोणतीही पर्वा न करता ती बापूसोबत राहायला लागते याचवरून गावात सगळीकडे राधेने बापूला ठेवला अशीच तिची बदनामी सुरू होते… पण बापूचा हळव्या निर्मळ प्रेमामुळे या सगळ्याकडे दुर्लक्ष करून राधा आणि बापूचा संसार सुरू होतो या सगळ्या परिस्थितीत राधेची मानसिक घालमेल सुरू असते… बापूचं कितीही प्रेम असलं तरी या प्रेमाला गावात मान्यता नाही… आपण फक्त एक रखेल म्हणूनच ओळखले जातो याची खंत राधेला नेहमी वाटत असते… 

अशातच एक दिवस आप्पा दामले याची एन्ट्री या कादंबरीत होते… आणि राधा आणि बापूचं आयुष्य बदलून जातं..आप्पा दामले हे राधा आणि बापू विषयी ऐकून असतात आणि राधेच्या मनातील खंत ही त्यांना कळते तेंव्हा ते ह्यांना रजिस्टर लग्न करण्याचा सल्ला देतात.. अर्थात ह्या पुस्तकात दाखवलेला काळ म्हणजे केस ठेवलेला ब्राम्हण औषधाला ही सापडणार नाही इतका पूर्वीचा.. त्यात बापू सारखा उनाड कोकणी विक्षिप्त माणूस.. आधीच तो बदनाम मग हे लग्न कोण मान्य करणार असं बापू म्हणतो.. पण इथे हो राधाची हुशारी तिचं बुद्धी चातुर्य दिसुन येत.. गारंबी म्हणजे जग न्हवे.. म्हणत ती बापू सोबत लग्न करते…ह्या सगळ्या मध्ये बापू आणि राधेचा गांधर्व विवाह ही अगदी रोमँटिक आणि निखळ  प्रेमाचं प्रतिक वाटतं… बापू भल्या पहाटे राधेला बागेत घेऊन जातो आणि एक अनंताच फुलं देऊन तिच्याशी लग्न करतो.. तो क्षण तो परिसर ते लिखाण सगळचं कस मोहवून टाकत… तो पर्यंत बापू सुपारी चा मोठा व्यापारी बनतो आणि ज्या गावाने अक्करमाशा म्हणून हिणवलं तेच गावं बापुच कौतुक करताना थकत नाही.. ह्या सगळ्या प्रवासात बापूला मिळालेली राधेची साथ राधेच्या अजूनच प्रेमात पाडते.. मध्येच बापू एका महाराजांना भेटतो आणि बुवा बनतो तेंव्हा ह्या त्याच्या भोंदू पणाला राधेचा विरोध तिच्यातल वेगळेपण दाखवून देतो.. व्याघ्रेश्वर त्याच्यावर असणारी श्रद्धा जेंव्हा अंधश्रद्धेचे रूप घेते तेव्हा राधा त्याला कडाडून विरोध करते.,. बाळाच्या जन्मानंतर राधेची एक वेगळीच ओळख आपल्यासमोर येते.. बापूचं विक्षिप्त वागणं, घर सोडून बाहेर राहणं, अस असलं तरी राधेचं बापू वरील प्रेम जराही कमी होत नाही.. काही दिवसांनी बापूलाही आपला भोंदूपणा कळतो मग तो तेव्हा तो राधेकडे परत येतो आणि पुन्हा एक नवी कहाणी सुरू होते.. सगळ्यात अजून बऱ्याच घटना घडवून जातात…. काय आहेत किती उत्कंठा वर्धक आहेत.. हे जाणून घेण्यासाठी प्रत्येकीने किमान एकदा तरी गारंबीची राधा आणि गारंबीचा बापू वाचलंच पाहिजे… 

जवळजवळ दहा ते बारा वर्षांपूर्वी वाचलेल्या पुस्तकावर मी आज अभिप्राय लिहिलाय त्यामुळे त्यात बऱ्याच चुकाही असतील,.. प्रसंग मागे पुढे झालेले असतील त्या तुम्ही सगळे पुस्तक वाचाल आणि दुरुस्त कराल याची खात्री आहे…

धन्यवाद..

लेखक : श्री ना. पेंडसे

परिचय : सौ. अलका ओमप्रकाश माळी

मोब. 8149121976

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 57 – चाँदनी से मुझे नहाना है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – चाँदनी से मुझे नहाना है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 57 – चाँदनी से मुझे नहाना है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

आज उनका नया बहाना है 

साथ में, फिर किसी के जाना है

*

गीत, उनको ही ये सुनाना है 

इसमें, उनका ही तो फसाना है

*

वो तो मेंहदी लगाये बैठे हैं 

और क्या क्या अभी लगाना है

*

रंग सोने-सा है, बदन चाँदी 

हुस्न का कीमती खजाना है

*

आज फिर हो गये खफा मुझसे 

रोग उनका तो ये पुराना है

*

तीरगी है, बुलाइये उनको 

चाँदनी से मुझे नहाना है

 

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 131 – चिंताओं की गठरी बाँधे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सजल – चिंताओं की गठरी बाँधे…” । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 131 – सजल – चिंताओं की गठरी बाँधे… ☆

(मुक्त दिवस पर मेरी ओर से एक नई सजल)

समांत : ओए

पदांत : —

मात्राभार : 16+10=26

चिंताओं की गठरी बाँधे, जीवन भर ढोए।

स्वार्थी रिश्ते-नातों ने ही, पथ-काँटे  बोए।।

 *

संसाधन के जोड़-तोड़ में, हाड़ सभी टूटे ।

एक लंगोटी रही हमारी, बाकी सब खोए।।

 *

मोटी-मोटी पढ़ी किताबें, काम नहीं आईं।

जाने-अनजाने में हमतो, आँख मींच सोए।।

 *

होती चिंता,चिता की तरह, समझाया मन को ।

उससे मुक्ति है, ना मिल सकी, हार मान रोए।।

 *

प्रारब्धों के मकड़ जाल में, उलझ गए हम सब।

पाप पुण्य के फेरे में पड़, पुण्य सभी धोए।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

30/5/24

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें…” (व्यंग्य संग्रह)– श्री शांतिलाल जैन ☆ पुस्तक चर्चा – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी की कृति कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें… की समीक्षा)

☆ “कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें… ” (व्यंग्य संग्रह)– श्री शांतिलाल जैन ☆ पुस्तक चर्चा – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆ 

पुस्तक चर्चा 

पुस्तक ‏: कि आप शुतरमुर्ग बने रहें (व्यंग्य संग्रह)

व्यंग्यकार : श्री शांतिलाल जैन 

प्रकाशक‏ : बोधि प्रकाशन, जयपुर 

पृष्ठ संख्या‏ : ‎ 160 पृष्ठ 

मूल्य : 200 रु 

“….की आप शुतुरमुर्ग बने रहें” पुस्तक पर चर्चा के पूर्व बात करते हैं इस कृति के कृतिकार श्री शांतिलाल जैन की । शांतिलाल जैन ने अपने जीवन का अमूल्य समय भारतीय स्टेट बैंक में सेवारत रहते हुए व्यतीत किया और कर्त्तव्य निष्ठा से सहायक महाप्रबंधक के पद तक पहुंचे ।  सामान्यतः बैंक कर्मचारी गुणा – भाग, जोड़ – घटाने में माहिर अत्यंत्य सूक्ष्म दृष्टि के हो जाते हैं  । स्वाभाविक ही है कि व्यक्ति के पेशे का प्रभाव उसके जीवन, रुचियों, चिंतन और रचनात्मकता पर भी पड़ता है । कलेक्ट्रेट के बाबुओं, अधिकारियों, न्यायाधीशों, पुलिस कर्मियों, सेल्स टैक्स – रेलवे कर्मियों, शिक्षकों, पत्रकारों, बैंक कर्मचारियों का चिंतन और रचना शैली समान नहीं हो सकती । चूंकि शांति लाल जी बैंक में सेवारत रहते हुए व्यंग्यकार बने अतः उनकी दृष्टि में पैनापन, अवलोकन करके उत्तर के रूप में वास्तविकता प्राप्त करने की क्षमता अन्य पेशारत व्यंग्यकारों से अधिक है। संभवतः यही कारण है कि इनके व्यंग्य बिना किसी लंबी भूमिका के शीघ्र ही मुद्दे पर आकर बिना लाग लपेट के गणितीय शैली में परिणाम तक पहुंच जाते हैं । आपके व्यंग्य छोटे किंतु सटीक हैं ।

पुस्तक की भूमिका में शांति लाल जी कहते हैं कि भयानक मंजरों को मत देखिए, जननेताओं की विफलताओं को मत देखिए । सांप्रदायिकता की आंधी आने वाली है, आर्थिक और सामाजिक असमानता की आंधी आने वाली है, पाखंड, अंधविश्वास और जहालियत की आंधी आने वाली है, आवारा पूंजीवाद की आंधी आने वाली है, फाल्स डेमोक्रेसी की आंधी आने वाली है लेकिन सत्ता की पूरी मशीनरी से कहलवाया जा रहा है कि सकारात्मक बने रहिए । “सकारात्मक रहने की ओट में आपसे रेत में सिर घुसाकर रखने की अपीलें की जा रही हैं । वे कहते हैं “…. कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें ।”

पुस्तक के प्रारम्भ में श्री कैलाश मंडलेकर का कथन है कि इस दौर के व्यंग्य लेखन पर प्रायः नान सीरियस और चलताऊ किस्म की टिप्पणी फैशन के तौर पर की जाती है । आज का व्यंग्य लेखन फार्मूला बद्ध और सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने का जरिया बनता जा रहा है और उसमें उस तरह की गंभीरता नहीं है जैसी कि परसाई या शरद जोशी के लेखन में हुआ करती थी । यहां पहले ही कहा जा चुका है कि प्रत्येक की दृष्टि और चिंतन उसके पारिवारक वातारण, परिस्थितियों, साथियों, शिक्षा, व्यवसाय और उसके जिये समय के अनुसार ही विकसित होते हैं, अतः किसी भी कवि – लेखक, कथाकार, व्यंग्यकार की किसी अन्य से तुलना नहीं की जाना चाहिए । जिसे हम पढ़ रहे हैं, जो हमारे सामने है तर्क पूर्वक उसकी बात करना ही उचित है । व्यंग्य वर्तमान के यथार्थ का लेखन है और शांतिलाल जी ने वर्तमान की वास्तविकता को सहजता, सरलता, सजगता व निर्भयता के साथ प्रस्तुत किया है ।

बोधि प्रकाशन द्वारा 2023 में प्रकाशित श्री शांतिलाल जैन की पुस्तक “…. कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें” में 160 पृष्ठों में विविध विषयों पर 57 व्यंग्य रचनाएं हैं । पुस्तक का मूल्य 200 रुपए है । इस पुस्तक में अनेक रचनाएं कोरोना से पीड़ित समाज की विपदाओं पर केंद्रित हैं । इनमें वैयक्तिक और सामाजिक अंतर्विरोधों के साथ व्यवस्था की लापरवाहियों पर पैने कटाक्ष किए गए हैं । निःसंदेह कोरोनाकाल की  भयानकता को भुलाया नहीं जा सकता। अनेक अव्यवस्थाओं, विसंगतियों के बाद भी ऐसा नहीं है कि इससे निपटने या बचने के लिए कुछ नहीं किया गया । शासन – प्रशासन, समर्थ और आम आदमी सिर्फ हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा, किंतु यदि मात्र दोष खोजने  व उनपर कटाक्ष करने को ही व्यंग्य कहा जाता है तो शांतिलाल जी ने बखूबी व्यंग्यकार का धर्म निभाया है । मैं समझता हूं कि यदि अच्छी बातों पर अच्छी टिप्पणी करते हुए, विसंगतियों पर करारे प्रहार किए जाएं तो भी लेखक अपने व्यंग्य की धार को बनाए रख सकता है ।

“नलियाबाखल से मंडी हाउस तक” शीर्षक व्यंग्य में खबर प्रस्तुतिकरण के तरीकों और पत्रकारिता पर करारा व्यंग्य है । “बौने कृतज्ञ हैं, बौने व्यस्त हैं” व्यंग्य में वोट के लिए दिए जा रहे प्रलोभन का वास्तविक चित्र है । “एवर गिवन इन स्वेज आफ इंदौर” में वे सड़क पर पसरे अतिक्रमण और अवरुद्ध यातायात की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं । “हम साथ साथ (लाए गए) हैं” में सामूहिक फोटो खिंचवाने के लिए लोगों के नखरों का हास्य – व्यंग्य भरा सहज चित्रण है । आगे के लेखों में बरसात में शहर में जल प्लावन । दवाखाने में डॉक्टर को दिखाने में लगी भीड़, सास – बहू संबंध, राजनीत में झूठ का महत्व, न्याय व्यवस्था, अदाओं की चोरी, ईमानदार होने की उलझन आदि में विसंगतियों पर सटीक प्रहार है । जैन साहब ने सहजता से सीधे शब्दों में दो टूक बात कही है ।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 286 ☆ आलेख – उधमसिंह भारत पाकिस्तान में बराबरी से चाहे जाते हैं ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – उधमसिंह भारत पाकिस्तान में बराबरी से चाहे जाते हैं। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 286 ☆

? आलेख – उधमसिंह भारत पाकिस्तान में बराबरी से चाहे जाते हैं ?

स्वतंत्रता संग्राम में प्राणों को न्यौछावर करने वाले देश के महान सपूतों को डाक विभाग उन पर टिकिट जारी कर सम्मान देता है। भारतीय डाक विभाग ने ३१ जुलाई १९९२ को शहीद ऊधम सिंह की फोटो की एक रुपए की डाक टिकट जारी की थी। इस की दस लाख टिकिटें जारी कि गईं थी। इस टिकिट का डिजाइन श्री शंख सामंत द्वारा किया गया है। जिससे देश की युवा एवं भावी पीढ़ी को शहीदों के बलिदानों के प्रति जागरूक किया जा सके। टिकिट जारी करते हुये प्रथम दिवस आवरण भी जारी होता है जिस पर उधमसिंह के संदर्भ में प्रामाणिक जानकारियां संजोई गई हैं। किन्तु उसका दोबारा कोई रिप्रिंट नही किया गया इसलिये ऐसा लगता है कि डाक विभाग केवल एक बार ही शहीदों को याद कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है। इस समय देश के किसी भी डाकघर में शहीद ऊधम सिंह से सम्बन्धित डाक टिकट प्रचलन में नहीं है। फिलाटेली में रुचि रखने वाले संग्रह कर्ताओ के पास अवश्य वह टिकट संग्रहित हैं। डाक टिकट पुनः जारी नहीं करने का कारण जानने के बारे में आरटीआई से प्राप्त जानकारी के अनुसार किसी विशेष विषय पर विभाग केवल एक बार डाक टिकट इश्यू करता है, जबकि वाइल्ड लाइफ, एन्वॉयरमेंट, ट्रांसपोर्ट, नेचर, चिल्ड्रन डे, फिलाटैलि डे, सीजनल ग्रीटिंग्स इत्यादि विषयों पर रेगुलर डाक टिकट फिर फिर जारी होते रहते हैं।

पाकिस्तान में भी शहीद उधम सिंह पर डाक टिकट जारी करने की मांग की गई है।

शहीद भगत सिंह, शहीद उधम सिंह, लाला लाजपत राय जैसे स्वातंत्रय वीर संयुक्त भारत में आजादी से पहले आज के पाकिस्तान से थे। कुछ वर्ष पहले लाहौर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के लॉन में उधम सिंह का ८०वां शहीदी दिवस मनाया गया था। शहीद उधम सिंह क्रांतिकारी के साथ एडवोकेट भी थे। उन्होंने विदेश में रह कर ही वकालत की थी। पाकिस्तान ने शहीद भगत सिंह के बाद उधम सिंह को भी अपना शहीद मान लिया है। पाकिस्तान में उधमसिंह के शहीदी दिवस की बरसी पर कैंडल मार्च निकाला गया था और उनकी शहादत को नमन किया गया। इस मौके पर वक्ताओं ने उधम सिंह की देश की आजादी के लिए दी गई कुर्बानी को याद किया गया। भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन पाकिस्तान के चेयरमैन एडवोकेट इम्तियाज कुरैशी और अब्दुल रशीद ने पाकिस्तान सरकार से अपील की कि शहीद उधम सिंह के नाम पर डाक टिकट जारी किया जाए और पाकिस्तान में किसी एक सड़क का नाम उनके नाम पर रखा जाए।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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