(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 86 ☆ देश-परदेश – उधो का लेना ना माधो का देना ☆ श्री राकेश कुमार ☆
उपरोक्त चित्र में कुतुर हमारे देश की बहुत बड़ी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व का प्रतीक हैं। चित्र में कुतुर गांव में हो रहे किसी कार्यक्रम की जानकारी बहुत दूर से ले रहा हैं।
ये ही हाल, हमारे जैसे फुरसतिये जो दिन भर सोशल मीडिया के व्हाट्स ऐप, यू ट्यूब, एक्स, फेस बुक पर तैयार शुदा मैसेज को तेज़ी से आदान प्रदान करते रहते हैं, जिनको राजनीति से कुछ भी लेना देना नहीं है। आज सुबह से घर के टीवी पर चैनल बदल बदल कर परिणामों की बाट जोह रहे हैं।
अधिकतर सेवानिवृत है, कोई भी सरकार बने इन पर कोई सीधा प्रभाव नहीं पड़ता हैं। लेकिन सोशल मीडिया के मंच से इतनी चिंता व्यक्त करते है, मानो इनका कोई सगा वाला चुनाव में प्रत्याशी हो। गडरिया की बैलगाड़ी के नीचे छाया में चलने वाले कुतुर की गलतफहमी की कहानी याद आ गई।
ये लोग अपनी नौकरी के समय में भी काम की चिंता का जिक्र करने में अग्रणी रहा करते थे। कार्यालय में कहां/ क्या चल रहा है, इसकी पूरी जानकारी इन्हें कंठहस्त रहती थी, सिवाय इनकी सीट के कार्य को छोड़कर।
अधिकतर व्हाट्स एपिया साथी क्षेत्र के एमएलए छोड़ कॉरपोरेटर तक को कभी ना मिले होंगे। कभी किसी नेता की सभा या रोड़ शो में भी नहीं गए होंगे, लेकिन राजनीति के सैंकड़ो मैसेज प्रतिदिन कॉपी/ पेस्ट करने में इनका कोई सानी नहीं।
टीवी पर महीनों से हो रही स्तरहीन बहस को इतने गौर से सुन कर अपनी तत्काल टिपण्णी करने में ये लोग अव्वल रहते हैं। कभी भी किसी दल को या सामाजिक संस्थाओं को सामाजिक/ आर्थिक सहयोग भी नहीं किया होगा, ऐसे लोगों द्वारा, लेकिन जन सहयोग के ज्ञान की गंगा बहाने में सबसे आगे रहते हैं।
नई सरकार के गठन में एक सप्ताह तक लग सकता है, तब तक ये टीवी चैनल चोबीस घंटे चुनाव विश्लेषण कर घिसी पिटी दलीलें परोसते रह जायेंगे।
“जो जीता वो सिकंदर” जैसे गीत सुनाए जायेंगें। पुराना गीत ” आज किसी की हार हुई है, और किसी की जीत रे” भी इन समय खूब मांग में रहता हैं।
चुनाव में पराजित उम्मीदवारों के लिए उर्दू जुबां के जानकार कहने लगेंगे ” गिरते है शहसवार ही मैदाने जंग में….” चुनाव पर टीका टिप्पणियां करने वालों का मुंह बंद करवाने के लिए कहा जाएगा” every thing is fair in love, war and elections.
हम टीवी और समाचार पत्र प्रेमियों का कुछ नहीं हो सकता है। चुनाव परिणाम से अति उत्साहित या निरुत्तर मत हों। ऐसे ही जीवन चलता रहेगा।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 193 – कथा क्रम (स्वगत)…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “रात सुन्दर रूप चौदस की...”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 193 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “रात सुन्दर रूप चौदस की...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
देश के स्वतंत्रता संग्राम में महाकौशल क्षेत्र का विशेष महत्व रहा है जिसमें अंग्रेज सरकार की रीति – नीति विरोधी उग्र जनसभाओं, प्रदर्शनों के साथ – साथ सम्पूर्ण क्षेत्र में देशभक्ति की वैचारिक लहर का प्रवाह निरंतर बनाए रखने में जबलपुर का योगदान अभूतपूर्व था। जबलपुर के उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में जिन्होंने मैदानी आंदोलनों के साथ ही अपने देशभक्ति पूर्ण साहित्य सृजन से आम आदमी को आंदोलन से जोड़ने का काम किया उनमें सेठ गोविन्द दास एवं सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ ही पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी का नाम प्रमुखता से शामिल है जिन्हें लोग सम्मान से “गोविंदगुरु” कहते थे। एक गीत में उनके तेवर देखिए –
“नवयुग की वह क्रांति चाहिए !
जो साम्राज्यों पर मानव की विजय गुंजाए।
उनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं था। वे अपनी किशोरावस्था में ही अपने देश को गुलाम बनाने वाली सत्ता के खिलाफ खड़े हो गए थे। उनके आत्म कथ्य के अनुसार –
जब मैं कक्षा आठवीं का छात्र था तभी स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा लेकर उसकी क्रांतिकारी गतिविधियों की एक किशोर इकाई बन गया था। मैंने मई सन 1931 में सिहोरा जाकर सर्वप्रथम सत्याग्रह में भाग लिया। अध्यक्ष थे एड. पं. लल्लू लाल मिश्रा। मैंने और मेरे मित्र जबलपुर के श्री हरगोविंद व्यास ने “भारत में अंग्रेजी राज्य” जप्तशुदा साहित्य पढ़कर ब्रिटिश हुकूमत का कानून तोड़ा। पं. मिश्रा उसी रात गिरफ्तार करके जबलपुर जेल भेज दिए गए और कम उम्र होने के कारण हम दोनों मित्रों को थाने ले जाकर बेतों से पीटा गया और हिरन नदी के उस पार जबलपुर रोड पर छोड़ दिया गया।
पं. गोविंदगुरु के कथन अनुसार – “मैं उन दिनों की बहुचर्चित एवं लोकप्रिय “राष्ट्रीय बालचर संस्था”, “नेशनल ब्वायज स्काउट्स” का एक संस्थापक सदस्य रहा हूं। हरिजन आंदोलन में गांधी जी के मध्यप्रदेश दौरे के समय मैंने जबलपुर और फिर करेली जाकर बालचर के रूप में सेवाएं दी हैं तथा त्रिपुरी कांग्रेस के समय भी मैं एक स्वयं सेवक के रूप में सेवारत रहा हूं। व्यक्तिगत सत्याग्रह के समय मुझे अप्रैल 1941 में दो माह का सश्रम कारावास दिया गया और मैं नागपुर जेल भेज दिया गया।”
भारत छोड़ो आंदोलन में 9 अगस्त 1942 को पं. गोविंद प्रसाद तिवारी के सभी वरिष्ठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी साथी गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए थे और नगर में स्वतंत्रता संग्राम के संचालन का भार उनके कंधों पर आ गया जिसे उन्होंने वीरांगना सुभद्रा कुमारी चौहान के मार्गदर्शन में संचालित किया। 12 अगस्त को सुबह सुभद्रा जी गिरफ्तार कर ली गईं और आधी रात को पं. गोविंदगुरु को भी गिरफ्तार कर जबलपुर जेल भेज दिया गया जहां उन्हें डेढ़ वर्ष तक कारावास की सजा भोगना पड़ी।
जेल से वापस आने के बाद उन्होंने एक निजी शाला में शिक्षक के रूप में कार्य प्रारम्भ कर दिया और स्वतंत्रता के बाद अपना पूरा जीवन शिक्षा, साहित्य और समाज को समर्पित कर दिया। वे देश की प्रगित के लिए जितना आवश्यक नव – निर्माणों को मानते थे उतना ही आवश्यक नागरिकों के आर्थिक उन्नयन और व्यक्तित्व के विकास को भी मानते थे।
उल्लेखनीय है कि 1960 में जब आचार्य विनोबा जी का जबलपुर में आगमन होना तय हुआ और उनके रहने संबंधी व्यवस्था पर विचार – विमर्श हुआ तब गोविंदगुरु ने उन्हें राइट टाउन मैदान में घास और बांस की कुटी बनाकर उसमें ठहराने का प्रस्ताव रखा जिसे सर्वमान्य किया गया और विनोबा जी व उनके दो सचिवों के लिए तिवारी जी के नेतृत्व में सुंदर कुटियों और एक उद्यान का निर्माण कराया गया। अपनी इस आवास व्यवस्था को देख कर विनोबा जी प्रफुल्लित हो उठे। उन्होंने इसकी तुलना पंचवटी में सीता – राम की पर्ण कुटी से की। इसी प्रवास में विनोबा जी ने जबलपुर को “संस्कारधानी” कहा।
गोविंदगुरु जिस शाला में शिक्षक थे उसके उद्यान में उन्होंने 20×20 फुट के क्षेत्र में सीमेंट से बना भारत का नक्शा कुछ इस तरह बनवाया जिसमें सारे प्रमुख पर्वत, नदियां और झीलें बनी थीं। उत्तर दिशा में पानी छोड़ने की व्यवस्था थी जहां से नदियों के उद्गम स्थल तक सुराख थे, जब पानी छोड़ा जाता सभी नदियां प्रवाहित होने लगातीं, झीलें भर जातीं। नक्शा देखने मात्र से विद्यार्थियों को भारत की भौगोलिक स्थिति का ज्ञान हो जाता। उन्होंने अपने विद्यार्थियों को जीवन में कर्म और सादगी का महत्व बताया।
उनके द्वारा रचित प्रकाशित कृतियों में प्रमुख हैं – गांधी गीत (गीत संग्रह), तरुणाई के बोल, अभियान गीत, विश्व शांति के साम गान, भावांजलि (सभी काव्य संग्रह), वीरांगना दुर्गावती (खंड काव्य), रक्ताभ भोर (किशोर काव्य संग्रह) एवम सीमा के प्रहरी।
सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई उनके विषय में कहते हैं – “स्व. गोविंद प्रसाद तिवारी जिन्हें हम “गोविंदगुरु” कहते थे हमारी साहित्यिक पीढ़ी के अग्रज थे। मुझ जैसे रचनाकारों को उनका स्नेह और प्रोत्साहन प्राप्त था। वे निश्छल और भावुक व्यक्ति थे।”
ख्यातिलब्ध कवि रामेश्वर शुक्ल “अंचल” कहते हैं – “हम लोगों के “गोविंदगुरु” कवि और मनुष्य दोनों रूपों में श्रेष्ठ और प्यार की वस्तु हैं। कवि का ओज और माधुर्य दोनों गुणों पर उनका समान अधिकार है।
“गीतांजलि” के अनुगायक पद्मभूषण पं. भवानी प्रसाद तिवारी उनकी कविताओं पर अपना अभिमत देते हुए कहते हैं – “कवि के मन में जिस क्रांति की पदचाप मुखरित हो चुकी है वह साम्राज्यवाद के ध्वंस के लिए गति ग्रहण करती है।
समाज में व्याप्त भूख, गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, शोषण, हिंसा, सांप्रदायिकता आदि को देखकर वे न सिर्फ तड़प उठते थे वरन उसका पूरी शक्ति से विरोध करते हुए समाधान भी सुझाते थे। मेरे पिताश्री स्व. डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव “गोविंदगुरु” के प्रिय साहित्यिक मित्रों में शामिल थे। मैं उन्हें चाचा कहता था, मेरा सौभाग्य है कि मुझे इतने सहज, सरल, विद्वान देश भक्त का पितृ तुल्य स्नेह और आशीर्वाद मिला। उन्हें सादर श्रद्धांजलि।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “नौतपा”)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘सबको गले लगाना है…’।)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम एवं हृदयस्पर्शी कहानी – ‘मलबे के मालिक‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 244 ☆
☆ कहानी – मलबे के मालिक ☆
बलराम दादा अब निस्तेज हो गये हैं। दुआरे पर कुर्सी डाले ढीले-ढाले बैठे रहते हैं। चाल-ढाल में पहले जैसी तेज़ी और फुर्ती नहीं रही। चेहरे पर झुर्रियों का मकड़जाल बन गया है। आँखों में भी पहले जैसी चमक नहीं रही। मोटे फ्रेम वाला बेढंगा चश्मा उनकी सूरत को और अटपटा बना देता है।
घर में भी अब पहले जैसी रौनक नहीं रही। आठ दस साल पहले तक यह घर आदमियों के आवागमन और उनकी आवाज़ों से गुलज़ार रहता था। बलराम दादा के पास भी गाँव के दो-चार लोगों की बैठक जमी रहती थी। अब ज़्यादातर वक्त घर में सन्नाटा रहता था। कभी किसी के आने से यह सन्नाटा टूटता है, लेकिन फिर जल्दी ही मौन दुबारा पसर जाता है।
बलराम दादा के पिता ने काफी ज़मीन- ज़ायदाद बनायी थी। वे राजा की सेवा में थे और उन दिनों ज़मीन का कोई मोल नहीं था। बलराम के पिता दूरदर्शी थे, उन्होंने राजा साहब की मेहरबानी और अपनी कोशिशों से काफी ज़मीन हासिल कर ली। दुर्भाग्य से उनकी असमय मृत्यु हो गयी और परिवार की ज़िम्मेदारी छब्बीस साल के बलराम के ऊपर आ गयी।
पिता ने अपने जीते ही बच्चों में ज़मीन का बँटवारा कर दिया था, इसलिए आगे कोई मनमुटाव की संभावना नहीं थी। बच्चों की पढ़ाई के लिए पास के शहर में किराये का मकान ले लिया था जिसमें बलराम के तीन भाई और एक बहन रहते थे। बहन बलराम से छोटी थी। देखभाल के लिए एक सेवक सपत्नीक रख दिया था। बलराम की पढ़ाई में रुचि बारहवीं के बाद खत्म हो गई थी और वे घर पर ही रह कर खेती के कामों में पिता का हाथ बँटाने लगे थे। उनका विवाह भी हो गया था।
पिता की मृत्यु के बाद बलराम चकरघिन्नी हो गये थे। सबेरे से मोटर-साइकिल पर निकलते तो लौटने का कोई ठिकाना न होता। समय से ज़मीनों की जुताई-बुवाई, ज़रूरत पड़ने पर अपने ट्रैक्टर के अलावा और ट्रैक्टरों और दूसरे उपकरणों का इन्तज़ाम, मज़दूरों की व्यवस्था, लोन की किश्तें जमा करने की फिक्र, इन्द्र देवता के समय से कृपालु न होने की चिन्ता— सारे वक्त यही उधेड़बुन लगी रहती। बिजली का कोई ठिकाना न था। आठ-आठ दस-दस घंटे गायब रहती। अचानक रात को दो या तीन बजे आ जाती तो तुरन्त उठकर पंप चलाने के लिए भागना पड़ता। गाँव से हिलना-डुलना भी मुश्किल था। कभी एक-दो दिन के लिए कहीं जाते तो चित्त यहीं धरा रहता। मज़दूरों की बड़ी समस्या थी। अब मज़दूरों को आसपास चल रहे निर्माण कार्यों में अच्छी मज़दूरी मिल जाती है, इसलिए अब वे गाँव में कम मज़दूरी पर काम करने को राज़ी नहीं होते।
समय गुज़रने के साथ बलराम के भाई पढ़-लिख कर काम-धंधे से लग गये। दो की अपने शहर में ही नौकरी लग गयी, जब कि छोटा राजनीति में अपनी पैठ बनाने में लग गया। उसमें शुरू से ही राजनीतिज्ञों के गुण थे। जल्दी ही वह अपने भाइयों के लिए संकटमोचक बन गया क्योंकि आजकल राजनीति से बेहतर कोई कवच नहीं है। तीनों भाइयों और बहन की शादियाँ भी हो गयीं और तीनों भाई शहर में मकान बनाकर स्थापित हो गये। बलराम अब भी अपना चैन हराम करके सबके हिस्से की ज़मीन सँभालने में लगे थे।
बलराम ने भाइयों के लिए बड़े आँगन में अलग-अलग कमरे बना दिये थे। कमरे तो भाइयों के थे, लेकिन उनकी चाबी बलराम की पत्नी के पास रहती थी। घर के मेहमान साझा होते थे। वे किसी के भी कमरे में ठहर जाते थे। गर्मियों में तीनों भाई अपने बच्चों को गाँव भेज देते। तब घर में भयंकर हल्ला-गुल्ला मचता। सब तरफ बच्चों की फौजें दौड़ती फिरतीं। बलराम की पत्नी की व्यस्तता बढ़ जाती। दिन भर बच्चों की फरमाइशें। कहीं चोट न खा जाएँ इसकी फिक्र। शहर के बच्चे गाँव की खुली जगह और चढ़ कर खेलने लायक पेड़ों को देखकर मगन हो जाते। गाँव वाले बलराम के घर में मचती चीख-पुकार को कौतूहल से देखते। बलराम कुर्सी पर बैठे, अपने कुटुंब की बढ़ती बेल को देखकर पुलकित होते रहते।
लेकिन भाइयों और उनकी पत्नियों के बीच कुछ खिचड़ी पकने लगी थी। अभी तक भाई अपनी ज़रूरत के हिसाब से गल्ला गाँव से ले जाते थे, लेकिन अब अपनी ज़मीन अपने कब्जे में लेने और मिल्कियत का सुख लेने की इच्छा बलवती हो रही थी। उनकी पत्नियाँ भी कमर में चाबियों का झब्बा खोंसने के लिए आतुर हो रही थीं। उन्हें यह शिकायत थी कि जेठ जी हर साल खेती की आमदनी का हिसाब क्यों नहीं देते। क्या इतनी बड़ी खेती में कुछ और नहीं बचता होगा?
बलराम इससे बेख़बर थे। वे अपने को परिवार का मुखिया मानते थे और उन्हें इस बात का बड़ा गर्व था कि सब भाई एक हैं और सब उनके आज्ञाकारी हैं। भाइयों को देने के बाद गल्ले से ही खेती के सारे खर्च पूरे होते थे और कई बार बलराम को ऋण लेने की स्थिति आ जाती थी। वे भाइयों से कुछ माँगते नहीं थे, लेकिन भाइयों की नियमित कमाई होने के चलते उनसे मदद की उम्मीद ज़रूर करते थे। लेकिन भाई जब भी मिलते, शहर के बड़े खर्चों का रोना शुरू कर देते, और बलराम को उनसे कुछ कहने की हिम्मत न होती।
भाइयों के अपनी ज़िन्दगी में व्यवस्थित होने के बाद बलराम उम्मीद करते थे कि भाई उनके दो बेटों को अपने पास रखकर उनके पढ़ने- लिखने की व्यवस्था करें, लेकिन उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई। उन्होंने कई बार भाइयों को अपनी कठिनाइयों का संकेत दिया था, लेकिन वे उनके इशारों को अनदेखा करते रहे थे। सभी के पास कोई न कोई बहाना था। हर बार आश्वासन मिलता था कि कुछ दिन और रुक जाएँ, फिर रख लेंगे। लाचार, बलराम ने एक बेटे को उसके मामा के पास भेज दिया था, दूसरे ने शहर में अपने एक दोस्त के साथ रहने की व्यवस्था कर ली।
अब भाइयों का सब्र टूट रहा था। उन्होंने आपस में सलाह करके गांँव के त्रिवेनी पंडित को राज़ी किया कि वे बलराम को समझाएँ कि भाइयों को उनकी ज़मीन सौंप दें। त्रिवेनी पंडित बलराम के पास पहुँचे। बोले, ‘भैया, अब ये इतनी जिम्मेदारियाँ क्यों लादे हो? भाई सयाने हो गये हैं, उनकी जमीन उन्हें सौंप कर हलके हो जाओ। फालतू का बोझ लिये फिर रहे हो।’
सुनकर बलराम की भौंहें चढ़ गयीं। तल्ख स्वर में बोले, ‘बड़ी अच्छी नसीहत दे रहे हो। जब हमें तकलीफ नहीं है तो आपको क्या तकलीफ हो रही है? भाइयों ने तो आज तक कुछ कहा नहीं, आपके दिमाग में यह बात कैसे आयी?’
त्रिवेनी सिटपिटा कर बोले, ‘हम तो आप के भले की बात कर रहे हैं। आपको बुरा लगा हो तो छोड़िए।’
बलराम बोले, ‘हम सब समझते हैं। हम सब भाई मिलकर रह रहे हैं, इसलिए आपकी छाती पर साँप लोटता है। आप चाहते हैं कि हमारे घर में भी और घरों जैसा बाँट- बखरा हो जाए।’
त्रिवेनी पंडित हड़बड़ाकर कर उठ गये। चलते चलते बोले, ‘माफ करो भैया, हमें क्या लेना देना।’
त्रिवेनी पंडित का मिशन विफल होने के बाद भाइयों और उनकी पत्नियों ने समझ लिया कि अब लिहाज तोड़े बिना काम नहीं चलेगा। अगली बार भाई और उनकी पत्नियाँ योजना बना कर आये। वे एक कमरे में इकट्ठे हो जाते और बड़ी भाभी को सुना सुना कर टिप्पणियाँ करते। छोटा भाई और उसकी पत्नी सबसे ज़्यादा मुखर थे। कहा जाता, ‘अरे भाई, मालिक बनने का बड़ा शौक है। दूसरे की जमीन दबाकर राज कर रहे हैं। जमीन हमारी है लेकिन कुछ बोल नहीं सकते। कोई सलाह देता है तो उस पर लाल-पीले होते हैं। त्रिश्ना खतम नहीं होती न।’
भाभी के कान में अमृत-वचन पड़े तो उन्होंने बात बलराम तक पहुँचा दी। बलराम आसमान से ज़मीन पर आ गये। समझ गये कि वे अभी तक खुशफहमी में थे। उन्हें पहले ही समझ लेना चाहिए था।
उन्होंने भाइयों को बुलाकर उनकी ज़मीनों के कागज़ात सौंप दिये। भाइयों ने थोड़ा ऊपरी संकोच दिखाया— ‘क्या जल्दी है? आप देख तो रहे हैं। हमें कोई दिक्कत नहीं है’, फिर हाथ बढ़ाकर कागज़ ले लिये। बड़ी भाभी ने उनके कमरों की चाबियाँ भी उन्हें सौंप दीं। भाइयों की पत्नियाँ अब स्वामित्व के एहसास से मगन थीं। घर की चीज़ों के मायने अब सब के लिए बदल गये थे। सब कुछ वही था, लेकिन कहीं कुछ था जो दरक गया था। जो कमरे कल तक अपने थे, अब पराये लगने लगे थे।
भाई अपने अपने कमरों का कब्ज़ा पाकर खुश थे। इनकी देखभाल करेंगे। रिटायरमेंट के बाद यहीं लौटेंगे। जन्मभूमि से अच्छी कौन सी जगह हो सकती है? ज़मीनों की जुताई-बुवाई की जद्दोजहद शुरू हो गयी। लेकिन शहर के लोग जल्दी ही समझ गये कि यह काम उनके बस का नहीं है। चौबीस घंटे की ड्यूटी थी। ज़रा सी ग़फलत हुई और फसल गयी। एक साल की खींचतान के बाद जमीनें बटाई पर उठा दी गयीं। लेकिन उसमें भी आशंका बनी रहती थी। भरोसे का बटाईदार मिलना मुश्किल था।
भाइयों ने बलराम के सामने प्रस्ताव रखा कि वे ही उनकी ज़मीनें बटाई पर ले लें। उन्हें सुझाया कि उन्हें कुछ और आमदनी हो जाएगी और भाई निश्चिंत रहेंगें। लेकिन बलराम अब भ्रमों से मुक्त हो गये थे। बोले, ‘नहीं भैया, अब हम से नहीं होगा। मेरे पास जितनी जमीन है उसी से फुरसत मिलना मुश्किल है। पिताजी की विरासत मानकर अब तक किसी तरह सँभाल लिया। अब मुझे माफ करो।’
घर में बने अपने कमरों में शुरू में भाइयों ने खूब दिलचस्पी दिखायी। बीच-बीच में आना, ज़रूरी मरम्मत कराना। फिर धीरे-धीरे आने का अन्तराल बढ़ने लगा। कमरों की उपेक्षा होने लगी। कमरे खपरैल वाले थे। धीरे-धीरे वे बैठने लगे। ऊपर से बारिश का पानी आकर कमरों को बरबाद करने लगा। भाइयों को अब उन कमरों में पैसा लगाना पैसे की बरबादी लगने लगी थी। जब रहना ही नहीं है तो पैसा क्यों लगाना? वही पैसा शहर के मकान में लगे तो कुछ ‘रिटर्न’ मिलेगा।
मनभेद होने के बाद भाइयों के परिवारों का आना कम हो गया। आते भी, तो पहले जैसा प्यार और उत्साह न रहता। बच्चों का व्यवहार भी पहले जैसा नहीं रहा। बड़ों के व्यवहार का उनके ऊपर असर हो रहा था। भाइयों के कमरों के बाहर एक एक बल्ब लगा था जिसका स्विच भीतर था। पहले बड़ी भाभी इन्हें जला दिया करती थीं। अब चाबी न होने के कारण वह हिस्सा रात भर प्रेत- निवास बना रहता था। पहले भाइयों के ससुराल से जो रिश्तेदार आते थे वे एक-दो दिन बलराम के पास ज़रूर टिकते थे, अब वे अपनी बहन बेटी से मिलकर शहर से ही लौट जाते थे।
कुछ दिन में कमरे ज़मीन पर पसरने लगे और देखते ही देखते वे मलबे के ढेर में तब्दील हो गये। बलराम उन्हें ध्वस्त होते देखते थे, लेकिन वे कुछ कर नहीं सकते थे। जब कमरे मलबे के ढेर बन गये तो मलबे को समेटकर एक तरफ कर दिया गया। अब वह खाली जगह सिर्फ टूटे संबंधों का स्मारक बन कर रह गयी।