हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 8 – नवगीत – बस वेदना ही वेदना है… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – बस वेदना ही वेदना है

? रचना संसार # 8 – नवगीत – बस वेदना ही वेदना है…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

लगे पैबंद कपड़ों में उनके,

फ़ीकी पड़ती आस।

गुज़र रहे दिन भी अभाव में,

खोया है विश्वास।।

 *

बस वेदना ही वेदना है,

रूठा है शृंगार।

अंग-अंग में काँटे चुभते,

चलते हैं अंगार।।

मन अधीर तृषित धरा भी,

कौन बुझाये प्यास।

 *

चीर रही उर पिक की वाणी,

कांपें कोमल गात।

रोटी कपड़ा मिलना मुश्किल,

अटल यही बस बात।।

साधन हीन हुआ उर गूँगा,

करें लोग परिहास।

 *

आग धधकती लाक्षागृह में,

विस्फोटक सामान।

अन्तस जलता घुटता दम है,

कैसा है तूफ़ान।।

हुआ अभिशप्त जीवन सारा,

चीख रही हर साँस।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #233 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  प्रदत्त शब्दों पर भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 233 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

दिल की सारी ख्वाहिशें, दिल है तेरे नाम।

हमने बस अब कर दिया, सब कुछ तेरे नाम।।

*

तुझसे अब कहते बना, हुई सुहानी शाम।

प्यारा सा अहसास है, लेना तेरा नाम।।

*

नादानी मुझसे हुई, कही प्यार की बात।

जाने क्या उसको हुआ, नहीं की मुलाकात।।

*

दुआ हमारी आपको, खुशियां मिले हजार।

माना हमने आपको, अपना ही परिवार।।

*

मां के आँचल में सदा, मिलता रहा दुलार।

माँ ममता की छांव में, है सारा संसार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #215 ☆ एक पूर्णिका – खुले जब  त्रिनेत्र शिवा का… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – खुले जब  त्रिनेत्र शिवा का आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 215 ☆

☆ एक पूर्णिका – खुले जब  त्रिनेत्र शिवा का ☆ श्री संतोष नेमा ☆

आंखें जब भी बोलती हैं 

राज हृदय के खोलती हैं

*

कम नहीं समझें दर्पण से

सत्य जहन में घोलती  हैँ

*

चेहरा  बोले   झूठ   अगर

आँखें  मुखड़े  तौलती  हैँ

*

हँसती  रोती  आँखें  स्वयं

सबब  इनका  टटोलती हैँ

*

सुंदरता  के  आगे  अक्सर

आँखें  सबकी  डोलती  हैँ

*

खुले जब  त्रिनेत्र शिवा का

सृष्टि   संग    भूडोलती   है

*

होती  जब  दो  चार  आँखें

मौन  हृदय  का  तोड़ती  हैँ

*

“संतोष” आँखे  मुस्कराकर

खुद  को सबसे जोड़ती  हैँ

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 223 ☆ महाबली हनुमान! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ९ — राज विद्या राज गुह्यः योग — (श्लोक १ ते १०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ९ — राज विद्या राज गुह्यः योग — (श्लोक १ ते १०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

श्रीभगवानुवाच

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌ ॥१॥

*

वृत्ती तुजठायी ना पार्था दोष शोधण्याची

जाणुनिया पात्रता गुह्य ज्ञान जाणण्याची

विज्ञानासह तुला सांगतो गुह्याची युक्ती

या ज्ञानाने मिळेल तुजला कर्मबंधमुक्ती ॥१॥

*

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्‌ ।

प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्‌ ॥२॥

*

विद्याराज गुह्यश्रेष्ठ परम पवित्र धर्माचे हे ज्ञान

परमात्म्याची देई अनुभूती सुखकर्तव्य कर्माचरण ॥२॥

*

अश्रद्धानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप । 

अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥३॥

*

धर्मप्रती ना श्रद्धा ज्याची तया न मी प्राप्त

जन्ममृत्युच्या फेऱ्यातुनिया ना हो तो मुक्त ॥३॥ 

*

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेषवस्थितः ॥४॥

*

व्यापिले सकल विश्वाला राहुनी अव्यक्त मी

स्थित सर्वभूते माझ्या ठायी त्यांच्या ठायी नाही मी ॥४॥ 

*

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्‌ ।

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥५॥

*

योगसामर्थ्यासी या मम तू जाणुन घेई रे अर्जुन 

सकल जीवांचा मी निर्माता करितो त्या धारण

जीवांच्या त्या ठायी तरीही नच माझे  वास्तव्य 

माझ्यामध्ये जीवांचे कोणत्याही  नसते वास्तव्य ॥५॥

*

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्‌ ।

तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥६॥

*

सर्वत्र लहरतो वायु जैसा अवकाशात स्थित

सकल जीवही माझ्या ठायी सदैव असती स्थित ॥६॥

*

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्‌ ।

कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्‌ ॥७॥

*

समस्त जीव माझ्या ठायी विलीन कल्पान्ते

प्रारंभी नव कल्पाच्या पुनर्निर्मितो मी त्याते ॥७॥

*

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।

भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्‌ ॥८॥

*

परावलंबी विलीन होती समस्त जीव मम प्रकृती 

पुनःपुन्हा मी तया निर्मितो यदृच्छेने मम प्रकृती ॥८॥ 

*

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।

उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥९॥

*

अलिप्त कर्मांपासुनी मी या सदैव धनंजया

बंधन नाही कर्मांचे त्या अनासक्तासी मया ॥९॥

*

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं ।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥१०॥

*

मम इच्छेने समस्त चराचर सृष्टीला मी प्रसवितो

निर्मुनिया अन् नाश करूनी संसारा मी परिवर्तितो ॥१०॥

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 141 ☆ लघुकथा – हद ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा हद। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 141 ☆

☆ लघुकथा – हद ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

मीता ने तेजी से काम निपटाते हुए पति से कहा – ‘रवि ! तुम्हारे फोन पर यह किसके मैसेज आते हैं ? कई दिनों से देख रही हूँ तुम रोज मैसेज पढ़कर हटा देते हो।‘

‘मेरे साथ ऑफिस में काम करती है मारिया। बेचारी अकेली है, तलाक हो गया है बच्चे भी नहीं हैं। उसकी मदद करता रहता हूँ बस।‘

‘पक्का और कुछ नहीं ना?’

‘नहीं यार, बहुत शक्की औरत हो तुम।‘

‘पर उसके मैसेज हटा क्यों देते हो ?’

‘यूँ ही, अपने सुख दुख की बात करती रहती है बेचारी। तुम तो जानती हो मेरा स्वभाव, मदद करता रहता हूँ सबकी।‘

‘मेरे ऑफिस में भी हैं एक मिस्टर वर्मा, बेचारे अकेले हैं। मैं भी उनकी मदद कर दिया करूंगी।’

‘कोई जरूरत नहीं, हद में रहो —-?’

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 197 ☆ लाज भरी अँखियाँ बिहसी… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “आ पहुँचा था एक अकिंचन…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 197 ☆ लाज भरी अँखियाँ बिहसी

हमारे आचरण का निर्धारण कर्मों के द्वारा होता है । यदि उपयोगी कार्यशैली है तो हमेशा सबके चहेते बनकर लोकप्रिय बनें रहेंगे । रिश्तों में जब लाभ -हानि  की घुसपैठ हो जाती है तो कटुता घर कर लेती है । अपने आप को सहज बना कर रखने की कला हो जिससे लोगों को असुविधा न हो और जीवन मूल्य सुरक्षित रह सकें । ये तो आदर्श स्थिति है किंतु जमीनी स्तर पर ऐसा व्यवहार अब कठिन होता जा रहा है । कहने को तो नारी शक्ति संवर्द्धन पर विचार – विमर्श के सैकड़ों सत्र किए जा चुके हैं पर सही समय पर सही निर्णय लेने में जिम्मेदार लोग चूक जाते हैं । कारण साफ है कि  बहुत से ऐसे बिंदु होते हैं जहाँ पर घेर का पीड़ित को ही कसूरवार ठहरा दिया जाता है ।

एक तो बड़ी मुश्किल से कोई हिम्मत जुटा पाता है उस पर इतनी जिरह कि कुछ दिनों बाद उसे अहसास होता है कि ऐसा निर्णय करके उसने अपनी मुसीबतें और बढ़ा ली है । ये सच है कि जुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाना कोई सहज बात नहीं है लेकिन किसी न किसी को तो हिम्मत दिखानी होगी जिससे समाज की सोच को बदला जा सके । लोग जब जागरूक होने लगेंगे तो निश्चित ही अपराधी को सही समय पर उचित  दण्ड मिलेगा जिससे दूसरे भी इस तरह की गलती करने से पहले सौ बार सोचेंगे ।

भाव विभोरक हिय हर्षाती

मन भावन सी नार ।

पावन गंगा पावन यमुना

पावन सी  जलधार ।।

जलधार में पत्थरों को चीर कर राह बनाने की शक्ति होती है । जहाँ जल जीवन देता है वहीं धरती को तृप्त कर अन्न से  पूरित करता है ।बिजली की शक्ति को धार कर असम्भव को सम्भव करने वाली कभी असहाय नहीं हो सकती ।

अब समय है सामाजिक जनचेतना का जो  सत्यम शिवम सुंदरम के अर्द्ध नारीश्वर रूप को जाग्रत कर सतत सत्य के मार्ग का वरण करे ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 6 – शहर में झूठ का  पता ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना शहर में झूठ का पता।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 6 – शहर में झूठ का  पता ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆व

आए दिन हर कोई घर-जमीन गांव सब छोड़-छाड़ कर या बेच-बांचकर शहर की ओर कदम बढ़ाता है। पता नहीं शहर में ऐसा कौन सा चुंबक होता है जो लोहे के बदले इंसान को अपनी ओर खींचता है। शहर की चमचमाती सड़कों को देख चमचमाने का कीड़ा बड़ा उछल-कूद करता है। छोटे-छोटे गांवों में शहरी लालच की बड़ी अट्टालिका का निर्माण बिना ईट, सीमेंट, रेत और पानी के हो जाता है। वह क्या है न कि सच्चाई का डाकिया शहर में झूठ का पता कभी नहीं ढूँढ़ सकता। फिर एक दिन इसके-उसके मुँह हमें एक ही बात सुनने को मिलती है- डाकिया ही चल बसा शहर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते। सच कहें तो शहर कुछ लोगों को शह देता है तो कुछ लोगों को हर लेता है।

हमारे गांव में फलां पिछड़ा बाबू रहा करते थे। आजकल शहर में विकास बाबू बनकर हमारे बीच धाक जमा रहे हैं। उन्हीं का नाम ले लेकर गांव में कइयों का जीना हराम हो गया है। मैंने निर्णय किया कि विकास बाबू के यहां जाकर दो-चार दिन ठहरूँगा और अपनी योग्य कोई नौकरी तलाश करूँगा। किंतु जैसे ही मैं शहर पहुंचा वहां विकास बाबू को देखकर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। गांव में खुद को सॉफ्टवेयर कंपनी का कर्मचारी बताने वाले विकास बाबू के कर्म और आचार में बड़ा अंतर दिखाई दिया। वे सॉफ्टवेयर कंपनी में नहीं किसी अपार्टमेंट के वॉचमैन की नौकरी करते थे। पूछने पर बताया कि गांव में खुद की जमीन जायदाद होने के बावजूद वह सम्मान नहीं मिल पा रहा था जो सम्मान शहर में आकर झूठ बोलकर मिल रहा है। आज मेरी झूठमूठ की सॉफ्टवेयर की नौकरी से सचमुच की खूबसूरत अप्सरा जैसी पत्नी, लाखों का दहेज, चार चक्का गाड़ी और ऊपर से इज्जत अलग मिल रही है।

मैंने पूछा कि क्या तुम्हें झूठ के पर्दाफाश होने का डर नहीं है? इस पर उन्होंने किसी दार्शनिक की तरह जवाब दिया – कैसा झूठ? कहां का झूठ? यहाँ हर कोई झूठ में जी रहा है। गांव की सच्चाई छोड़ लोग शहर के झूठ की ओर दौड़ रहे हैं। शहर में रहने वाले अपनी सच्चाई छोड़कर महानगरों की झूठी चकाचौंध के पीछे-पीछे दौड़े जा रहे हैं। महानगर में रहने वाले अमेरिका, इंग्लैंड की झूठी दुनिया में जाना चाहते हैं। और वहां रहने वाले चंद्रमा की झूठी दुनिया में घूमना चाहते हैं। यह दुनिया बड़ी अजीब है। सच को लतियाती और झूठ को पुचकारती है। सच्ची दुनिया में झूठे लोग रह सकते हैं लेकिन झूठी दुनिया में सच्चे लोग कतई नहीं रह सकते। यह दुनिया झूठ बोलने वालों को सिर पर और सच बोलने वालों को पैरों तले रखती है। वॉचमैन की नौकरी करने वाले विकास बाबू सच में सॉफ्टवेयर कर्मचारी थे। उन्होंने दुनिया की सच्चाई को बड़े ही सॉफ्ट ढंग से मेरे बदन के हार्डवेयर में उतार दिया था।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 284 ☆ आलेख – व्यंग्य का अंदाज ए बयां ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक आलेख – व्यंग्य का अंदाज ए बयां । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 284 ☆

? आलेख – व्यंग्य का अंदाज ए बयां ?

व्यंग्य व्यंजनात्मक भाषा का प्रयोग करता है. व्यंग्य में प्रत्यक्षत: जो कहा गया है, वही उसका सीधा अर्थ नहीं होता. वह कुछ अन्य बात व्यंजित कर लक्ष्य भेदन करता है. समझदार के लिये इशारा पर्याप्त होता है. प्रायः कूटनीति में कानून के दायरे में रहते हुये भी इसी प्रकार प्रहार किये जाते हैं. विदेश मंत्रालय की विज्ञप्तियां इसी प्रकार से रची जाती हैं। व्यंग्य के अंदाज ए बयां में भी प्रत्यक्षतः तो मान मर्यादा की दृष्टि से एक परदा बनाये रखा जाता है किन्तु संदर्भो के आधार पर, मिथको का सहारा लेकर, व्यंजना में बहुत कुछ कह दिया जाता है.

कविता न्यूनतम शब्दों में अधिकतम बात कह डालती है जिसमें पाठक के सम्मुख एक कल्पना लोक रचा जाता है. कहानी शब्द चित्र गढ़ती है. निबंध या ललित लेख अमिधा में अपना कथ्य कहते हैं. संस्मरण जिये हुये दृश्यों को रोचक शब्दों में पुनर्प्रस्तुत करते हैं. किन्तु व्यंग्य सामर्थ्य सर्वथा भिन्न होता है. व्यंग्य बिना कहे भी सब कह देता है. इसलिये निश्चित ही व्यंग्य की भाषा और अभिव्यक्ति शैली अन्य विधाओं से अलग होती ही है. अपनी बात पाठक को रोचक तरीके से समझाने के लिये  विषय के अनुरूप फ्रेम पर कथानक गढ़कर उसके गूढ़ार्थ पाठक तक पहुंचाने पर काम करना होता है. व्यंग्य लेखन एक कौशल है, जो शनैः शनैः विकसित होता है. इसके लिये रचनाकार को सामयिक संदर्भों से तादात्म्य बनाये रखना होता है. लेखक का अध्ययन उसे व्यंग्य लिखने में परिपक्वता प्रदान करता है. व्यंग्य लेखन में सीधा नाम लेकर प्रहार अशिष्ट माना जाता है. इसलिये अर्जुन की तरह प्रतिबिंब के सहारे सही निशाने पर लक्ष्य कर तीर चलाने की भाषाई सामर्थ्य व्यंग्य लेखन की बुनियादी मांग होती है. मानहानि के कानूनी दांव पेंचों के साथ ही लोगों की भावना आहत होने के खतरो से बचते हुये लेखन शैली व्यंग्य की विशेषता है .

अंदाजे बयां ऐसा हो कि बयान को नोटिस में लिया जाए ।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 205 ☆ बाल गीत – सदा साहसी विजयी होता ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 205 ☆

☆ बाल गीत – सदा साहसी विजयी होता ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सत्य राह पर चलकर बच्चो

जग में नाम कमाओ जी।

संकल्पित हो बढ़े चलो तुम

जीवन को महकाओ जी।।

 

मन में दृढ़ विश्वास जगाकर

मुड़कर कभी न देखो तुम।

सहज , सरलता हैं आभूषण

कर्तव्यों को परखो तुम।

भटक न जाना अपने पथ से

आगे बढ़ते जाओ जी।

संकल्पित हो बढ़े चलो तुम

जीवन को महकाओ जी।।

 *

कर्मनिष्ठ ही भाग्य बदलते

खुद की वे तकदीर बनें।

सदा देशहित जो जन जीएं

वे ही वीर नजीर बनें।।

 *

सदा साहसी विजयी होता

साधो तीर चलाओ जी।

संकल्पित हो बढ़े चलो तुम

जीवन को महकाओ जी।।

 *

सदा समय का मूल्य समझना

पल – पल का उपयोग करें।

सौरभ में गौरव भर जाए

तन – मन हित ही योग करें।।

 *

सदा गलतियाँ निरखें – परखें

फूलों – सा खिल जाओ जी।।

संकल्पित हो बढ़े चलो तुम

जीवन को महकाओ जी।।

 *

स्वप्न हवा में कभी न पालो

मिले सफलता खुद श्रम से।

हैं विज्ञान – ज्ञान ही पूँजी

सदा बचो संशय , भ्रम से।

 *

आलस और दिखावा छोड़ो

हँसो – हँसाओ गाओ जी।

संकल्पित हो बढ़े चलो तुम

जीवन को महकाओ जी।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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