मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #237 ☆ मातृदिनानिमित्त – अमृत सिंचन… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 237 ?

☆ मातृदिनानिमित्त – अमृत सिंचन ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

आई म्हणजे माझ्यासाठी झिजणारे ते चंदन आहे

स्तुतिसुमनांना गंध आणण्या करतो मीही चिंतन आहे

*

देव पुजेचा मुहूर्त माझा कधी कधीतर टळून जातो

रोज सकाळी उठल्यावरती माते चरणी वंदन आहे

*

झुंजायाला तयार असते भट्टीसोबत तीही कायम

राख तिची तर झाली नाही जळून होते कुंदन आहे

*

डोळ्यांमधल्या वाचत असते चुका वेदना सारे काही

कधी घालते नेत्री माझ्या जळजळीत ती अंजन आहे

*

मशागतीची सवय लावली मनास माझ्या तिनेच आहे

बीज पेरुनी मग ती करते भरपुर अमृत सिंचन आहे

*

लोक म्हणाया मला लागले अता टोणगा नसे काळजी

ती तर म्हणते तिचा लाडका मी छोटासा नंदन आहे

*

सागरात मी मेरू पर्वत घेउन आलो रवी सारखा

चौदा रत्ने यावी वरती मनात चालू मंथन आहे

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 189 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 189 – कथा क्रम (स्वगत)✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

सुनता रहा हूँ

बाल्यकाल से

वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण

और

महाभारत की कथाएँ।

युवावस्था में

उन्हें

बाँचा

टूट गया साँचा

कल्पना का।

जाग उठीं

जिज्ञासाएँ

किससे पूछें

किसे बतायें?

अतीत के अंधेरे से

निकलकर

मन के शिलालेख पर

टैंकने लगीं छवियाँ, चित्र

और चरित्र,

सीता, तारा, मन्दोदरी

अहल्या, कुन्ती, द्रौपदी

सत्यवती

और

माधवी ।

दीक्षान्त में

गुरु दक्षिणा देने का

हठाग्रह किया

शिष्य गालव ने ।

क्रमशः आगे —

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 190 – “दिवा स्वप्न के चलते…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  दिवा स्वप्न के चलते...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 190 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “दिवा स्वप्न के चलते...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

बाँटे गये तीन बेटों में

साधनहीन पिता ।

रहे कोसते हालातों को

बेहद दीन पिता ॥

 *

बडा, आलसी और निकम्मा

ध्यान नहीं देता।

पत्नी के हर दृष्टि कोण को

जो अपना लेता।

 *

मजबूरी में जलभुन कर

चुप रह जाया करते –

पेशे से जो रहे कभी थे

कुर्क अमीन पिता ॥

 *

वही बादशाहत उनको

अब साला करती है ।

मझले बेटे की उपेक्षा

टाला करती है ।

 *

दिवा स्वप्न के चलते

बस खुश हो जाया करते –

वरना रोज रहा करते

यों ही गमगीन पिता ।।

 *

छोटा बेटा यदा कदा

कुछ अच्छा करने की –

सोच समझ उन पर कर

देता कभी कभी नेकी ।

 *

चरखे में काती जाती

उज्ज्वल कपास जैसे –

वैसे काते जाते घर में

बहुत महीन पिता ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

04-11-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 40 ☆ व्यंग्य – “वे छोटा कुछ सोच ही नहीं पाते हैं…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  वे छोटा कुछ सोच ही नहीं पाते हैं.…”।) 

☆ शेष कुशल # 40 ☆

☆ व्यंग्य – “वे छोटा कुछ सोच ही नहीं पाते हैं…” – शांतिलाल जैन 

एक था मुल्क. मुल्क का था एक बादशाह. आईन से गद्दीनशीन हुआ था. बैलट बॉक्स से निकला हुआ. नए दौर में लिखें तो ईवीएम् से निकला था. बड़े सपने देखता था. कहता था – ‘मैं छोटा कुछ सोच ही नहीं पाता हूँ.’ बड़ा मुल्क, बड़ा बादशाह, बड़ी सोच, बड़े सपने तो गरीब और गरीबी छोटी कैसे रह पाती! जब उसने कहा कि मेरा मुल्क सबसे ऊपर रहना चाहिए तब उसका मतलब रहा आया कि दुनिया में सबसे ज्यादा गरीब हों तो उसके मुल्क में हों. डंका बजे तो उसके मुल्क की गरीबी का बजे. इसके लिए उसने गरीबों को और अधिक गरीब बनाने में कोई कसर बाकी उठा न रखी थी.

एक रोज़ उसने महल की छत पर खड़े होकर एक नज़र अपनी रियाया और रियासत पर डाली. मुतमईंन हुआ. दूर, जहाँ तक नज़र जा पाती शहर की झुग्गी-बस्तियों से लेकर गांवों की झोपड़ियों तक में गरीब ही गरीब नज़र आते. अस्सी करोड़ गरीब. अनाज़ के शाही गोदामों से निकली खैरात से पेट पालती रियाया. उसने व़जीर-ए-खज़ाना से पूछा गरीबी में हम कब तलक अव्वल रह सकते हैं? उसने कहा – ‘जान की अमान हो जहाँपनाह, इसे आप इस तरह समझिए कि हमारे मुल्क की किसी कंपनी का सबसे ऊँचा ओहदेदार अपनी तनख्वाह से एक साल में जितना कमाता है उसी फैक्ट्री में न्यूनतम मजदूरी पाने वाले एक मुलाज़िम को उतना कमाने में नौ सौ इकतालीस बरस लगेंगे.’

‘नौ सौ इकतालीस बरस!! और इस बीच रियाया बग़ावत कर बैठी तो?’

‘पेट में अन्न पड़ा रहेगा तो इन सालों को सालों क्रांति की याद भी नहीं आएगी.  कभी लड़ें भी तो मज़हब, जाति, कौम के नाम पर आपस में लड़ जाएँगे, निज़ाम से नहीं लड़ पाएँगे. आप नाहक परेशान न हों आलम पनाह, जब तक आपका निज़ाम कायम है तब तक आपका इक़बाल बुलंद है.’

बादशाह को तसल्ली हुई. बड़ा मुल्क, बड़ा बादशाह, बड़ी सोच, बड़े सपने. बड़ा होने की तमन्ना ठहरती कब है ज़नाब. उसने फिर से रियाया और रियासत पर नज़र दौड़ाई. गरीबी के दरिया के बीच समृद्धि के चंद टापू नज़र आए. मुल्क की रियाया के महज़ एक फ़ीसद लोग संपत्ति की चालीस फ़ीसदी पर काबिज़. आलीशान और मालामाल. बादशाह ने वजीर-ए-खज़ाना की ओर सवालिया नज़र से देखा तो उसने धीरे से अर्ज़ किया – ‘नहीं, हम अव्वल नहीं है जहाँपनाह. अरबपतियों की संख्या में हमारा मुल्क अभी नंबर तीन पर है.’

एक लेडी होने के चलते बच गई वजीर-ए-खज़ाना वर्ना इतनी चूक पर बादशाह वजीर की खाल में भूस भरवा देता. उसने बस इतना ही कहा – ‘अगले पाँच बरस में सबसे ज्यादा अरबपति भी हमारे मुल्क में होने चाहिए.’

‘आपका परचम बुलंद रहे जहाँपनाह, काम जारी है.’ – हुकुम सर आँखों पर धरते हुवे मोहतरमा ने कहा –‘सदी की शुरुआत में दुनिया के अरबपतियों की फेहरिस्त में अपन के मुल्क से दस से भी कम अमीर शामिल हो पाए थे, आज सैंकड़ा पार कर गए हैं. बेफिक्र रहें आप, जरूरत पड़ी तो आईन बदल देंगे मगर आपका कौल पूरा हो कर रहेगा. शाही खजाने से निकलती धाराएँ, नीतियों की नहरों से होती हुई, उनकी तिजोरियों की ओर घुमा दी गई हैं.  बहाव अब और तेज़ किए जाएँगे. रेल अड्डे, बस अड्डे, हवाई अड्डे, बंदरगाहें, खानें-खदानें, जल, जंगल, जमीनें, बहाव कोई सा भी हो किधर से भी गुजरे – समाएगा तो उन्हीं की तिजोरियों में जाकर. पहले एशिया के सबसे अधिक रईसों में शुमार, फिर दुनिया के अव्वल सौ में, फिर दस में. और एक दिन दुनिया का सबसे धनवान, अपन के मुल्क का शहरी.’

बादशाह ने राहत की सांस ली. गरीबी तेज़ी से बढ़ रही है तो अमीरी भी. उसे फ़ख्र महसूस हुआ. सही दिशा में जा रहा है उसका निज़ाम. मालियात के फैसलों को विकास की सड़क पर बायीं ओर चलने से रोकना ही पड़ता है. आल्वेज कीप राईट. जब तक अमीर और अधिक अमीर नहीं होंगे तब तक गरीब और अधिक गरीब कैसे होंगे!!

शाम ढलने को थी. उसने निशान-ए-मुल्क के चार में एक शेर के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और धीरे से पूछा – ‘माय डियर पत्थर के सनम, ठीक चल रहा ना!’ शेर को मन ही मन बादशाह पर दया आई. उसने कहना चाहा कि कितने सम्राटों, चक्रवर्तियों, बादशाहों ने ये भूल की है. जिस दिन मुल्क के अमीर-उमरावों की इमारतों की ऊँचाई शाही महल की ऊँचाई से ऊपर निकल गई, उस दिन निज़ाम उनका होगा तुम्हारा नहीं बादशाह. मगर वो चुप रहा.

फ़िलवक्त बादशाह मुतमईन है. उसका निज़ाम अमीरों की संख्या में अव्वल नंबर होने को है तो गरीबों की संख्या में भी वही तो है. अव्वल नंबर होना उसे सबसे ज्यादा सुहाता है.

-x-x-x-

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत”के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆

☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

डॉ. रामदयाल कोष्टा साधना से बने “श्रीकांत”

डॉ.रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” के नामोल्लेख के साथ ही एक श्याम रंग का सुदर्शन व हंसमुख व्यक्तित्व आंखों के सामने आ जाता है। जब मेरा उनसे परिचय हुआ तब मैं कक्षा चौथी का छात्र था और वे हितकारिणी सिटी कालेज से एम. ए. कर रहे थे। वे मेरे पिता स्व. डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव के प्रिय छात्र थे। अब डॉ. श्रीकांत हमारे बीच नहीं हैं और जब उन पर कुछ कहने अथवा लिखने का विचार आया तो दुविधा खड़ी हो गई। उस बहुआयामी व्यक्तित्व के किस रूप पर, किस गुण पर, किस कार्य पर लिखूं ? स्कूल – कालेज के विद्वान विनोदी व लोकप्रिय शिक्षक कोष्टा जी पर, अपने गुरुओं के प्रिय शिष्य कोष्टा जी पर, अनोखी स्मरण शक्ति के धनी, ज्ञान पिपासु, हिंदी साहित्य के एम. ए. “गोल्ड मेडलिस्ट”, मानस मर्मज्ञ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” पर, वर्तमान धरातल पर मानस के सहज व्याख्याकार प्रखर वक्ता डॉ. श्रीकांत पर, सुयोग्य पत्रकार – संपादक डॉ. श्रीकांत पर, कोष्टा समाज को विकास की धारा से जोड़ने व सदा उनके मार्गदर्शन को उत्सुक रहने वाले डॉ. कोष्टा पर, पंडित रामकिंकर के प्रिय शिष्य, बनारस की व्यास गद्दी प्राप्त प्रथम गैर ब्राह्मण डॉ. कोष्टा पर जिसने अवसर आने पर भी अपने हितों के लिए अपने सिद्धांत, निष्ठाएं और मित्रों को नहीं छोड़ा उस डॉ. कोष्टा पर, माता – पिता के अच्छे पुत्र, एक अच्छे भाई, अच्छे पति, अच्छे पिता कोष्टा पर या विद्यार्थी एवं युवाकाल में दंगल जीतकर ढोल और प्रशंसकों के साथ माला पहने हुए घर लौटने वाले रामदयाल कोष्टा पर। कोष्टा जी का जीवन विविध रंगों – प्रसंगों से भरा रहा, वे हरफन मौला थे। उन्होंने जीवन के हर रंग व प्रसंग के साथ पूरा न्याय किया, उसे पूरी तरह से जिया। कभी – कभी उनकी जीवनी शक्ति व कार्य करने की अद्भुत क्षमता पर आश्चर्य होता है की वे कैसे एक ही जीवन काल में इतना सब कर सके ! उन्हें मैं भाई साहब कहता था, जब उनकी याद आती है तो ऐसा लगता है कि वे बहुत जल्दी चले गए। उनका बहुत कुछ करना शेष रह गया।

जब डॉ. कोष्टा के रूप में प्रथम बार किसी गैर ब्राह्मण मानस विद्वान को बनारस की व्यास गद्दी प्राप्त हुई और उन्होंने इस उपलब्धि पर अपने गुरु याने मेरे पिता डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव के चरण स्पर्श किए तो मेरे पिता ने जो आशीर्वचन कहे, मुझे अभी तक याद हैं। “कोष्टा, गुरु का मूल्यांकन उसके शिष्यों से होता है, मुझे तुम्हारे जैसे बुद्धिमान और योग्य शिष्य पर गर्व है। ये छोटी – छोटी उपलब्धियां और सम्मान तुम्हारी मंजिल नहीं पड़ाव हैं। ” वास्तव में कोष्टा जी के ज्ञानार्जन एवं व्यक्तित्व विकास में कभी भी ठहराव नहीं आया। उन्होंने डी. एन. जैन महाविद्यालय के प्रोफेसर के रूप में सेवानिवृत्ति प्राप्त कर स्वतः के संपादकत्व में धार्मिक – आध्यात्मिक पत्रिका “रामायणम्” का प्रकाशन प्रारंभ किया। उनके संपादन में प्रकाशित “रामायणम्” के अंक राम कथा – आध्यात्म की अमूल्य धरोहर हैं। उन्होंने जबलपुर नगर से प्रकाशित “हितवाद” एवं  “ज्ञानयुग प्रभात” समाचार पत्रों में भी समाचार संपादन का कार्य कर यश प्राप्त किया।

डॉ. रामदयाल कोष्टा ने रामचरित मानस का अर्थ सही मायने में समझा और अन्य व्याख्याकारों के मुकाबले अधिक सरसता, सहजता के साथ ग्राह्य बना कर प्रस्तुत कर सके। उन्होंने पंडित रामकिंकर जी के प्रवचनों की अनेक पुस्तकें एवं आडियो कैसेट्स भी अपने नेतृत्व व संपादन में तैयार करवाए और उन्हें जन – जन को सुलभ कराया। उनकी अध्यापन शैली विनोदपूर्ण और ऐसी चमत्कारिक थी कि छात्र मंत्र मुग्ध होकर उनके व्याख्यान सुनते थे। डॉ. कोष्टा अपने अंतरंगों के बीच विशिष्ट अवसरों पर बहुत मधुर स्वर में लोकगीतों का गायन भी करते थे। उनमें सुनी अथवा पढ़ी बातों को याद रखने की अद्भुत क्षमता थी। किसी संस्मरण को वे इस तरह प्रस्तुत करना जानते थे कि श्रोताओं के सामने उस प्रसंग का जीवंत दृश्य व वातावरण ही उपस्थित हो जाता था।

बैठकों – सभाओं अथवा परिचितों के बीच जहां भी डॉ. कोष्टा होते वहां का वातावरण उनकी उपस्थिति से जीवंत हो उठता, वहां बीच बीच में प्रसंग वश उनके ठहाके अवश्य गूंजते। मैंने उन्हें बड़ी से बड़ी परेशानियों और विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य खोते नहीं देखा। उनकी जिज्ञासा, ज्ञान पिपासा, अध्ययन, लोगों के प्रति विश्वसनीयता, कर्तव्य के प्रति समर्पण, गुरु भक्ति, ईश्वर पर आस्था, निश्छल और मधुर व्यवहार, कर्मठता तथा विश्वास भरी वाणी ने उनके व्यक्तित्व में सम्मोहन पैदा कर दिया था। संभवतः इन्हीं गुणों के प्रतिफल ने उन्हें आम आदमी से अलग “श्रीकांत” बना दिया। अनेक साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया। 10 अप्रैल 1933 को जबलपुर में जन्में डॉ. कोष्टा 16 दिसंबर 1998 को चिर निद्रा में लीन हो गए। उनके कार्य नई पीढ़ी का पथ प्रदर्शन करते रहेंगे।

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 177 ☆ # “जुमला” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “जुमला”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 177 ☆

☆ # “जुमला” #

एक उम्मीदवार से

उसके समर्थक ने पूछा -?

आपको इस बार

यह क्या सूझा ?

आप हर बार

एक नया नारा देते हो

हम को सम्मोहित कर

हमारा वोट लेते हो

आपने पिछली बार

जो कसमें खाई  हैं 

वो अब तक नहीं निभाईं हैं 

इस बार नयी ग्यारंटी

और नये नये वादे हैं 

क्या वाकई इसे

पूरा करने के इरादे हैं  ?

या यह भी हमेशा की तरह

मन लुभावना

हवा का झोंका है  ?

या हमारी भावनाओं के साथ

एक खूबसूरत धोका है ?

 

उम्मीदवार ने कहा – भाई!

आपका और हमारा

जनम जनम का साथ है

आपकी हमारी

आपस की बात है

जब तक आपका

हमारे हाथ में हाथ है

तब तक

हमारे सर पर ताज है

आपके बिना हमारी

क्या औकात है ?

कसमें, वादे, लगायें गये नारे

समय ने किये इजाद हैं 

चुनाव जीतने के बाद

किसको रहते याद है

पक्ष हो या विपक्ष

सब एक ही प्रवाह के धारे हैं 

चुनाव जीतने के फंडे सारे हैं 

जनकल्याण के सिध्दांत को, कानून को ,

मानता कौन है

खुद ही सिध्दांत, खुद ही कानून है

सब गिरगिट है यहां

इसलिए बस मौन है

 

भाई !

यहां सब दाग़दार हैं 

जिन्होंने वर्षों से

प्रजातंत्र को कुचला था

अगर आज आप

उनसे पूछोगे –

आपका कथन

कितना सही – कितना झूठ था ?

तो बेशर्मी से कहेंगे

भाई ,

वो तो एक जुमला था /

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 173 ☆ अभंग… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 173 ? 

अभंग☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

भाव सुमनांची, गुंफुनिया माळ

भजनात काळ, घालवावा.!!

*

नका देऊ काही, अन्य भगवंता

कर्ता करविता, तोचि आहे.!!

*

त्यासी नचं लगे, द्रव्य प्रलोभन

त्यानेच निर्माण, केले सर्व.!!

*

स्वतःला ओळखा, स्वतःला पारखा

आखा लेखाजोखा, आयुष्याचा.!!

*

कवी राज म्हणे, भक्तीची आखणी

देईल पर्वणी, मुचण्याची.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 241 ☆ कहानी – ‘जोकर’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी कहानी – जोकर। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 241 ☆

☆ कहानी – जोकर

धनीराम डा. सेन के अस्पताल की नौकरी पर कब लगे यह शायद ही किसी को याद हो। दस पन्द्रह साल तो हो गये होंगे। तब धनीराम खूब चुस्त-दुरुस्त थे। लंबा कद और मज़बूत देह। सब्ज़ रंग की यूनिफॉर्म और बैरेट कैप पहने सारे अस्पताल में उड़ते रहते थे। धीरे-धीरे वे धनीराम से ‘धनीराम दादा’ और फिर सिर्फ ‘दद्दू’ हो गये।

दद्दू के अपने परिवार का अता-पता नहीं था। पूछने पर ज़्यादा बोलते भी नहीं थे। लोग बताते थे कि उनके दो बेटे शहर में ही हैं और उनकी पत्नी बड़े बेटे के पास रहती है। लेकिन दद्दू अस्पताल से ज़्यादा देर के लिए कहीं नहीं जाते। जाते हैं तो घंटे दो-घंटे में ही फिर प्रकट हो जाते हैं। थोड़ी ही देर बाद फिर ‘बैतलवा डार पर’। उनसे  मिलने कुछ बच्चे ज़रूर कभी-कभी अस्पताल में आ जाते थे जो लोगों के अनुसार उनके नाती- पोते थे, लेकिन वे उन्हें ज़्यादा देर टिकने नहीं देते थे। सामने टपरे से उनके लिए बिस्कुट टॉफी खरीद देते और जल्दी चलता कर देते।

दद्दू अस्पताल के गेट के पास बने अस्थायी, शेडनुमा कमरे में रहते थे। खाना खुद ही बनाते थे, लेकिन सिर्फ दोपहर को। रात को ड्यूटी के बाद इतना थक जाते कि खाना बनाना मुसीबत बन जाता। अस्पताल के लोग कहते हैं कि यह कभी पता नहीं चलता कि दद्दू कब सोते हैं और कब उठते हैं। ज़्यादातर वक्त वे चलते-फिरते ही दिखते हैं। बड़े सबेरे नहा-धो कर वे अपनी वर्दी कस लेते हैं और फिर रात तक वह वर्दी चढ़ी ही रहती है। अस्पताल के कर्मचारी उनसे खौफ खाते हैं क्योंकि वे घोर ईमानदार और अनुशासनप्रिय हैं, और अस्पताल की व्यवस्था में कोताही पर किसी को नहीं बख्शते। डा. सेन को उनकी वफादारी और उपयोगिता का भान है, इसलिए उनकी कभी-कभी की ज़्यादतियों को अनदेखा कर देते हैं।

दद्दू बड़े ख़ुद्दार आदमी हैं। न किसी की खुशामद करते हैं, न किसी की सेवा लेते हैं। अस्पताल के कर्मचारी उन्हें खुश करने के लिए चाय का आमंत्रण देते रहते हैं, लेकिन दद्दू हाथ हिला कर आगे बढ़ जाते हैं। दूसरों पर खर्च करने के मामले में भी वे भारी कृपण हैं। कहते हैं, ‘हम गरीब आदमी हैं। किसी की सेवा करने की हमारी हैसियत नहीं है। अपना खर्च पूरा होता रहे वही बहुत है।’

उम्र गुज़रने के साथ साथ दद्दू की चुस्ती और फुर्ती में भी फर्क पड़ने लगा था। उनके बाल खिचड़ी हो गये थे और आँखों के नीचे और बगल में झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। चलने में घुटने झुकने लगे थे। वर्दी में भी पहले जैसी कड़क नहीं रह गयी थी। अब वे चलते कम और बैठते ज़्यादा थे। फिर भी वे शारीरिक अशक्तता को आत्मा के बल से धकेलते रहते थे।

लेकिन दद्दू की इस ठीक-ठाक चलती  ज़िन्दगी में ऊपर वाले ने अचानक फच्चर फँसा दिया। उस दिन दद्दू रोज़ की तरह आने जाने वालों को नियंत्रित करने की गरज़ से अस्पताल के प्रवेश-द्वार पर जमे थे कि अचानक उनका सिर पीछे को ढुलक गया और शरीर एक तरफ झूल गया। आंँखों की पुतलियाँ ऊपर को चढ़ गयीं और मुँह की लार बह कर पहले ठुड्डी और फिर गले तक पहुँची। लोगों ने दौड़ कर उन्हें सँभाला और उठाकर भीतर ले गये। सौभाग्य से वे अस्पताल में थे इसलिए तुरन्त उपचार हुआ। थोड़ी देर में वे होश में आ गये, लेकिन कमज़ोरी काफी मालूम हो रही थी। डाक्टरों ने जाँच-पड़ताल करके दिल में गड़बड़ी बतायी। बताया कि रक्त-संचालन ठीक से नहीं होता। दद्दू के लिए कुछ गोलियाँ मुकर्रर कर दीं जिन्हें नियमित लेना ज़रूरी होगा। साफ हिदायत मिली कि दवा लेने में कोताही की तो किसी दिन फिर उलट जाओगे।

दद्दू एक दिन के आराम के बाद ड्यूटी पर लौट आये, लेकिन चेहरा विवर्ण था और आत्मविश्वास हिल गया था। बैठे-बैठे ही कमज़ोर आवाज़ में निर्देश देते रहे। दो-तीन दिन में फिर सभी ज़िम्मेदारियाँ सँभालने लगे, लेकिन चेहरे से लगता था कुछ चिन्ता में रहते हैं। बेटों को पता चला तो आये और हाल-चाल पूछ कर चले गये। जब अस्पताल में ही हैं तो घरवालों को चिन्ता करने की क्या ज़रूरत? मुफ्त में सारी मदद उपलब्ध है। ऐसा भाग्य वालों को ही नसीब होता है।

इस झटके के बाद दद्दू कुछ ढीले-ढाले हो गये हैं। पहले वाली कड़क और चुस्ती नहीं रही। अब लोगों पर चिल्लाते-चीखते भी नहीं थे। लेकिन ड्यूटी में कोताही नहीं करते थे। शायद कहीं डर भी था कि ड्यूटी में कोई छूट माँगने पर अनुपयोगी या अनफिट न मान लिये जाएँ।

लेकिन दद्दू दवा खाने के मामले में चूक करते थे। कई बार ड्यूटी में इतने मसरूफ़ रहते कि दवा का ध्यान ही न रहता। कोई याद दिलाने वाला भी नहीं था। रात को थके हुए लौटते और खाना खा कर सो जाते। बाद में याद आता कि दवा नहीं खायी। दद्दू इतने पढ़े-लिखे भी नहीं थे कि दवा न लेने से होने वाले परिणामों को ठीक से समझ सकें।

इसी चक्कर में दद्दू कुछ दिन बाद फिर पहले जैसा झटका खा गये। इस बार तीन-चार दिन बिस्तर पर ही रहे। ठीक होने में भी हफ्ता भर लग गया, फिर भी कमज़ोरी कई दिन तक बनी रही। इस बार दद्दू की जि़न्दगी की रफ्तार धीमी पड़ गयी। ज़्यादा चलना-फिरना या ज़्यादा देर तक खड़े रहना मुश्किल हो गया। बीच-बीच में मतिभ्रम हो जाता। याददाश्त भी धोखा देने लगी। मुख़्तसर यह कि अनेक प्रेतों ने दद्दू को घेरना शुरू कर दिया। अब उन्हें हर काम में सहायक की ज़रूरत पड़ने लगी।

ऊपर के स्तर पर यह महसूस किया जाने लगा कि दद्दू अब ज़्यादा काम के नहीं रहे। किसी दिन अस्पताल में ही कुछ हो गया तो क्या होगा? उनके बेटों का क्या ठिकाना, अपनी ज़िम्मेदारी निभायें, न निभायें। तय हुआ कि उनसे कह दिया जाए कि अपने बेटों के पास चले जाएँ और वहीं आराम करें। समझें कि अब उनकी हालत काम करने की नहीं रही।

दद्दू तक बात पहुँची उनका चेहरा दयनीय हो गया। बोले, ‘बेटों के पास कहाँ जाएँगे? बेटों के पास रह सकते तो नौकरी में क्यों चिपके रहते?’

लेकिन ऊपर से पक्का आदेश प्रसारित हो चुका था। उनका हिसाब-किताब करके अनुकम्पा-स्वरूप एक माह की पगार अतिरिक्त दे दी गयी। अब दद्दू अस्पताल में फालतू हो चुके थे। अब कोई उनमें पहले जैसी दिलचस्पी नहीं लेता था।

बार-बार मिलते इशारों को समझ कर एक दिन दद्दू ने अपना सामान समेट कर अस्पताल छोड़ दिया। लेकिन तीन दिन बाद ही वे अस्पताल के गेट के पास बैठे दिखे। वे हर परिचित को अपनी कैफियत दे रहे थे— ‘बेटों के साथ गुज़र कैसे हो भाई? दोनों बेटे समझते हैं कि मेरे पास बहुत पैसा है। किसी न किसी बहाने दिन भर फरमाइश होती रहती है। बच्चों को सनका देते हैं कि मुझ से पैसा माँगें। आराम से बैठना मुश्किल हो जाता है। छोटा बेटा रोज़ रात को दारू पी कर आता है। खूब हंगामा मचाता है। मैं समझाता हूँ तो मुझे भी उल्टी-सीधी सुनाता है। ऐसे लोगों के साथ रहकर मैं क्या करूँगा? मैं हमेशा भले आदमियों के साथ रहा हूँ।’

दिन भर दद्दू  अस्पताल में इधर-उधर घूमते और पुराने साथियों से गप लगाते रहे। रात को ग़ायब हो गये। दूसरे दिन सुबह फिर हाज़िर हो गये। अस्त-व्यस्त कपड़े, बढ़ी दाढ़ी और उलझे बाल। दद्दू अब अस्पताल के हर काम के लिए प्रस्तुत दिखते हैं। कोई मदद के लिए किसी को आवाज़ लगाता और पुकारे गये व्यक्ति से पहले दद्दू लपक कर पहुँच जाते। गाड़ियाँ अस्पताल का सामान लेकर आतीं तो टेलबोर्ड खुलते ही सामान उतारने के लिए दद्दू पहुँच जाते। भारी सामान को लेकर अकेले ही लड़खड़ाते हुए चल देते। दरअसल वे साबित करना चाहते थे कि वे अब भी उपयोगी और फिट हैं।

अस्पताल में अब दद्दू नये लड़कों के सामने पंजा बढ़ा देते, कहते, ‘आजा, पंजा लड़ा ले।’ सामने वाला उनके काँपते हुए पंजे में अपना पंजा फँसाता, फिर थोड़ी देर ज़ोर लगाने के बाद खुद ही अपना पंजा झुका देता, कहता, ‘दद्दू, आप में अभी बहुत दम है। आप से कौन जीतेगा?’ दद्दू खुश हो जाते। वे खुद को और दूसरों को आश्वस्त करना चाहते थे कि उन में अब भी कोई कमी नहीं है।

दद्दू सबेरे अस्पताल आते तो वहाँ लोगों को दिखा कर चारदीवारी के किनारे किनारे दौड़ कर दो-तीन चक्कर लगाते, फिर स्कूली बच्चों की तरह उछल उछल कर पी.टी. करने में लग जाते। लोग उनके कौतुक देख सहानुभूति और दया से हँसते और उनकी हालत देखकर उन्हें दस बीस रुपये पकड़ा देते। कभी बड़े खुद्दार रहे दद्दू अब पैसे ले लेते थे।

एक दिन बड़े डाक्टर साहब की गाड़ी गेट के पास रुकी तो दद्दू ने दौड़कर उनके सामने सलाम ठोका। कई दिन की बढ़ी दाढ़ी और माथे पर रखे खिचड़ी बालों की वजह से वे खासे जोकर दिखते थे। तन कर खड़े होकर बोले, ‘सर, मैं अब भी बिल्कुल फिट हूँ। मुझे ड्यूटी पर बहाल किया जाए।’

डाक्टर साहब ने उनकी तरफ देख कर कहा, ‘अब आप ड्यूटी की चिन्ता छोड़ कर आराम कीजिए। आपको आराम की ज़रूरत है।’ फिर उन्होंने जेब से दो सौ रुपये निकाल कर दद्दू की तरफ बढ़ा दिये। कहा, ‘ये रख लीजिए और घर जाइए।’

उसी रात आदेश प्रसारित हो गया कि दद्दू को गेट के भीतर प्रवेश न करने दिया जाए। उस दिन के बाद दद्दू दो-तीन दिन गेट के बाहर मंडराते दिखे, फिर हमेशा के लिए ग़ायब हो गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 240 – छह बजेंगे अवश्य..! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 240 ☆ छह बजेंगे अवश्य..! ?

सोसायटी की पार्किंग में लगभग चार साल का एक बच्चा खेल रहा है। वह ऊपरी मंज़िल पर रहने वाले आयु में अपने से बड़े किसी मित्र को आवाज़ लगा रहा है, “…भैया खेलने आओ।”…”अभी पढ़ रहा हूँ “…, मित्र बच्चे का स्वर सुनाई देता है।…” अच्छा कब आओगे?”… ” छह बजे…”, …”ठीक है, छह बजे आओ..।” वह फिर से खेलने में मग्न हो गया।

यह छोटू अभी घड़ी देखना नहीं जानता। छह कब बजेंगे, इसका कोई अंदाज़ा भी नहीं है पर उसका अंतःकरण शुद्ध है, विश्वास दृढ़ है कि छह बजेंगे और भैया खेलने आएगा।

विचारबिंदु यहीं से विस्तार पाता है। जीवन में ऐसा कब- कब हुआ कि कठिनाइयाँ हैं, हर तरफ अंधेरा है पर दृढ़  विश्वास है कि अंधेरा छँटेगा, सूरज उगेगा। इस विश्वास को फलीभूत करने के लिए कितना डूबकर कर्म  किया? कितने शुचिभाव से ईश्वर को पुकारा? ईश्वर को मित्र माना है तो शत-प्रतिशत समर्पण से  पुकार कर तो देखो।

कुरुसभा के द्यूत में युधिष्ठिर अपने सहित सारे पांडव हार चुके। दाँव पर द्रौपदी भी लगा दी। दु:शासन केशों से खींचते हुए पांचाली को सभा में ले आया। दुर्योधन के आदेश पर सार्वजनिक रूप से वस्त्रहरण का विकृत कृत्य आरम्भ कर दिया। द्रुपदसुता ने पराक्रमी पांडवों की ओर निहारा।  पांडव सिर नीचा किये बैठे रहे। यथाशक्ति संघर्ष के बाद  असहाय कृष्णा ने अंतत: अपने परम सखा कृष्ण को पुकारा, ‘ अभयम् हरि, अभयम् हरि।’ मनसा, वाचा, कर्मणा जीवात्मा पुकारे, परमात्मा न आए, संभव ही नहीं। कृष्ण चीर में उतर आए। चीर, चिर हो गया। खींचते-खींचते आततायी दु:शासन का श्वास टूटने लगा, निर्मल मित्रता पर द्रौपदी का विश्वास जगत में बानगी हो चला।

इसी भाँति गजराज का पाँव  पानी में खींचने का प्रयास ग्राह ने किया। अनेक दिनों तक हाथी और मगरमच्छ का संघर्ष चला। मृत्यु निकट जान गजराज ने आर्त भाव से प्रभु को पुकारा। गजराज की यह पुकार ही स्तुति रूप में गजेन्द्रमोक्ष बनी।

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं

क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।

*

अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते

स आत्ममूलोवतु मां परात्परः।

अर्थात अपनी संकल्प शक्ति द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए, सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले, कार्य-कारणरूप जगत को जो निर्लिप्त भाव से साक्षी रूप से देखते रहते हैं, वे परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें।…गज की न केवल रक्षा हुई अपितु भवसागर से मुक्ति भी मिली।

शुद्ध मन, निष्पाप भाव, दृढ़ विश्वास की त्रिवेणी भीतर प्रवाहित हो रही हो और आर्त भाव से ईश्वर से पूछ सको कि भैया कब आओगे, तो विश्वास रखना कि हाथ में घड़ी हो या न हो, समय देखना आता हो या न आता हो, तुम्हारे जीवन में भी छह बजेंगे अवश्य।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 187 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 187 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 187) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.  

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 187 ?

☆☆☆☆☆

हम दोनों को

हम जैसे बहुत मिलेंगे,

बस हम दोनों को

हम दोनों नहीं मिलेंगे..

☆☆

We both will find

many like us,

It’s just that we won’t

find each other…

☆☆☆☆☆

खुद के सामने खड़े होके मैंने

खुद से ही माफ़ी माँग ली…

मैंने खुद अपना दिल दुखाया है

औरों को खुश करते करते

☆☆

Standing in front of myself

I apologized to myself

Since I kept others happy

by hurting my heart

☆☆☆☆☆

कैदी हैं सब यहाँ…

कोई ख्वाबों का..

तो कोई ख्वाहिशों का..

तो कोई ज़िम्मेदारियों का…

☆☆

Everyone is prisoner here,

Some of their dreams,

While some of their desires…

Others of responsibilities…

☆☆☆☆☆

होती तो हैं ख़ताएँ

हर एक से मगर…

कुछ जानते नहीं हैं

कुछ मानते नहीं…

☆☆

Committal of mistakes

Happens by everyone…

Some are not aware of it

While others don’t accept it…

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares