हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 50 ☆ आँधियों के राग… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “आँधियों के राग…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 50 ☆ आँधियों के राग… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

नदी कर स्नान

फिर आ घाट पर बैठी

धूप में रेता सुखाती है।

तप रहे हैं पाँव

होंठों पर दहकती आग

हवा के मस्तूल

बजते आँधियों के राग

दोपहर सुलगी

छुपी पेड़ों के नीचे

छाँव,थोड़े पल बिताती है।

श्वेत खद्दर पहन

बगुले चुन रहे हैं मछलियाँ

खाट पर लेटा

दिवस,ले रहा है झपकियाँ

पसीना खारा

मीठी प्यास के मारे

नींद आलस भर सुलाती है।

दिन थका हारा

लिए घर लौट आई साँझ

अँधेरे में लुटा

सब कुछ,हुईं रातें बाँझ

चाँद मटमैला

छुपा जाने कहाँ है

चाँदनी भ्रम को जगाती है।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मैं रिआया हूँ तुम न कम आंको… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “मैं रिआया हूँ तुम न कम आंको“)

✍ मैं रिआया हूँ तुम न कम आंको… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

जान तुझपे ही मैं निसार करूँ

अय वतन इतना तुझसे प्यार करूँ

 *

पौ है फटने लगी लो शब गुजरी

और कब तक मैं इंतज़ार करूँ

 *

हाथ में हाथ दो न छोडूंगा

कैसे इस दिल पे इख्तियार करूँ

 *

आप तनक़ीद कीजिये खुलकर

अपने किरदार में निखार करूँ

 *

तुम वफ़ा का यकीं दिलाओ तो

मैं तुम्हें अपना राजदार करूँ

 *

गम बँटाने जो मेरे साथ हो तुम

क्यों तलाशे मैं ग़म गुसार करूँ

 *

दुश्मनी कर ले दोस्ती न सही

पीठ पर में कभी न वार करूँ

 *

साथ चल मेरे कारवाँ कर दो

नफरतें सारी तार तार करूँ

 *

मैं बुलंदी पे भी तुम्हें हूँ वही

ये गुजारिश मैं खाकसार करूँ

 *

मैं रिआया हूँ तुम न कम आंको

चाह लूँ रंक ताजदार करूँ

 *

इश्क़ की गलियों में तू रुसवा अरुण

किस तरह तेरा ऐतबार करूँ

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 18 – मूकदर्शक ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मूकदर्शक।)

☆ लघुकथा – मूकदर्शक ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अपने ही चेहरे को दर्पण के सामने खड़ी होकर मैं देख रही हूं – पाषाणवत स्तब्ध   अपने से ही संवाद करती।

इतनी ठंडी में भी माथे से पसीना जो चुहचुहा रहा था। हृदय पर एक भारी बोझ का अनुभव हो रहा था ।

क्या हो गया मेरे साथ?

किसी तरह से इस जिंदगी में चैन नहीं मिल रहा है पुरानी यादों की किरचें चुभ रही धी।

नहीं, ना वह मुझे छोड़ कर जा सकता है, न ही मैं उसे छोड़ सकती?

हे विधाता यह तूने क्या किया?

ऐसे अगणित सवाल मन में गूंज रहे थे।

सीधे सच्चे पथ के हमराही को कोई डर नहीं होता किसी अनुबंध के टूटने का डर कुटिल और दुष्ट को होता है।

समाज में तो सभी लोग ढाढस बनाने की बजाय अनभिज्ञ होने का स्वांग रचाते हैं और बार-बार वही बातों को दोहराते हैं, छल पूर्वक एक दूसरे के साथ झूठी हंसी का स्वांग रचाते हैं।

हृदयाघात होने के कारण अचानक चल बसे।

समझ नहीं आ रहा था कि विधाता ने कैसा खेल रचा?

क्या कोई हल निकालेंगे।

मेरे पति राम की प्राइवेट नौकरी थी और मेरे पास अब जीवन जीने का कोई सहारा नहीं है पढ़ाई लिखाई भी नहीं की है ?

5 साल के बेटे को अच्छे से पढ़ा सकूं समाज की हमदर्दी से क्या मेरा घर चलेगा?

काश 12वीं के बाद पढ़ाई की होती।

लेकिन कोई बात नहीं, मुझे अच्छा खाना बनाना आता है, और सिलाई भी आती है।

बेटे के सहारे ही अपना जीवन काट दूंगी। समाज का क्या उसकी हमदर्दी भी 4 दिन की है। कोई किसी का नहीं होता, आज इस सच को जान लिया, सब मूर्ख बनाते हैं, सब मूक दर्शक हैं।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 98 –  इंटरव्यू : 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “इंटरव्यू  : 2

☆ कथा-कहानी # 98 –  इंटरव्यू : 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

असहमत के ज्वाईन करते ही साहब का डमी ऑफिस शुरु हो गया. असहमत का रोल मल्टी टास्किंग था, पीर बावर्ची भिश्ती, खर सब कुछ वही था, सिर्फ आका का रोल साहब खुद निभा रहे थे.इस प्रयोग ने काफी प्रभावित किया, साहब को लगी अवसाद याने डिप्रेशन की बीमारी को और धीरे धीरे असहमत साहब का प्रिय विश्वासपात्र बनता गया.असहमत भी मिल रही importance और चाय, लंच, नाश्ते के कारण काफी अच्छा महसूस कर रहा था पर जो एक जगह रम जाये वो जोगी और असहमत नहीं और अभी तो बहुत कुछ घटना बाकी था जिसमें असहमत का हिसाब बराबर करना भी शामिल था. साहब भी बिना मलाई के अफसरी करते करते बोर भी हो गये थे और अतृप्त भी.

चूंकि अपने मन की हर बात वो अब असहमत से शेयर करने लगे थे तो उन्होंने उससे दिल की बात कह ही डाली कि “वो अफसर ही क्या जो सिर्फ तनख्वाह पर पूरा ऑफिस चलाये ” और इसी बात पर ही असहमत के फ़ितरती दिमाग को रास्ता सूझ गया हिसाब बराबर करने का. तो अगले दिन इस डमी ऑफिस में कहानी के तीसरे पात्र का आगमन हुआ जो बिल्कुल हर कीमत पर अपना काम करवाने वाले ठेकेदारनुमा व्यक्तित्व का स्वामी था. साहब भी भूल गये कि ऑफिस डमी है और लेन देन का सौदा असहमत की मौजूदगी में होने लगा. आगंतुक ने अपने डमी रुके हुये बिल को पास करवाने की पेशगी रकम पांच सौ के नोटो की शक्ल में पेश की और साहब ने अपनी खिली हुई बांछो के साथ फौरन वो रकम लपक ली, थोड़ा गिना, थोड़ा अंदाज लगाया और जेब में रखकर हुक्म दिया “जाओ असहमत जरा इनकी फाईल निकाल कर ले आओ.

फाईल अगर होती तो आती पर फाईल की जगह आई “एंटी करप्शन ब्यूरो की टीम”.साहब हतप्रभ पर टीम चुस्त, पूरी प्रक्रिया हुई, हाथ धुलवाते ही पानी रंगीन और साहब का चेहरा रंगहीन. ये शॉक साहब को वास्तविकता के धरातल पर पटक गया और उन्होंने आयुक्त को समझाया कि सर ये सब नकली है और हमारे ऑफिस ऑफिस खेल का हिस्सा है. पर आयुक्त मानने को तैयार नहीं, कहा “पर नोट तो असली हैं, शिकायत भी असली है और शिकायतकर्ता भी असली है. आपका पुराना कस्टमर है और शायद पुराना हिसाब बराबर करने आया है. फिर उन्होंने रिश्वतखोर अफसर को अरेस्ट करने का आदेश दिया.

जारी रहेगा :::

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 225 ☆ नवीन वर्षा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 225 ?

नवीन वर्षा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुखसौख्याचे, तोरण दारी ,नवीन वर्षा,

रांगोळीही, सज्ज जाहली,ये उत्कर्षा !

*

हर्षभराने  ,सजले अंगण, गंध दरवळे

कडूलिंबही,फुले ढाळितो,धरा हिरवळे!

*

भगवा झेंडा, असा फडकला, भल्या सकाळी ,

चैत्रामधली ,सुरू जाहली, जणू दिवाळी !

*

श्रीरामाच्या, आगमनाने , पावन धरती

स्वागत करण्या, नर्तन करती साऱ्या गरती!

*

नवीन वर्षा, टाळशील का, या  संघर्षा,

हिंदुराष्ट्र तू बनविणार ना, भारतवर्षा !

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ पुस्तक “मेंदूतला माणूस” – लेखक : डॉ. आनंद जोशी / सुबोध जावडेकर ☆ परिचय – श्री ओंकार कुंभार ☆

☆ पुस्तक “मेंदूतला माणूस” – लेखक : डॉ. आनंद जोशी / सुबोध जावडेकर ☆ परिचय – श्री ओंकार कुंभार ☆ 

लेखक : डॉ. आनंद जोशी / सुबोध जावडेकर

प्रकाशक : राजहंस प्रकाशन, पुणे. 

पृष्ठे : 232

किंमत : रु. 300/-

लेखकद्वयांपैकी एक डॉक्टर तर एक आय.आय.टी. इंजिनिअर. दोघांचेही लिखाण पूर्वी विविध माध्यमांतून छापून आलेले आहे. 

शिर्षकापासूनच वेगळेपणा असणारे हे पुस्तक कमल शेडगे यांनी केलेल्या मुखपृष्ठ रचनेमुळे नक्कीच मन वेधून घेणारे आहे. एकूण 29 प्रकरणांमधून माणसाच्या मेंदूचा आणि मेंदूतल्या माणसाचा वेध घेण्याचा छान प्रयत्न लेखकद्वयांनी केला आहे. 

लेखकद्वयांनी अनेक पुस्तकांतील संदर्भ, उदाहरणे दिली आहेत. त्यामुळे त्यांचे वाचन चौफेर असल्याचे आपल्याला पुस्तक वाचत असताना वेळोवेळी लक्षात आल्यावाचून राहत नाही. विषय जरी किचकट असला तरी विविध उदाहरणांच्या माध्यमातून तो सहज आणि सोपा केला आहे. मेंदूची रचना, मेंदूचे कार्य, मेंदूची उत्क्रांती, मेंदूत स्रवणारी रसायने, त्यांचा वर्तनाशी असणारा संबंध, पिढीजात आपल्यासोबत आलेल्या जीन्सचा परिणाम,  यांविषयी विविध प्रकारच्या जगभरात झालेल्या प्रयोगांविषयी, अभ्यासाविषयी खूप छान इंटरेस्टिंग माहिती या पुस्तकात आपणाला वाचायला मिळते. पुस्तक वाचून पूर्ण झाल्यावर एक सुंदर अर्थपूर्ण पुस्तक वाचल्याचे समाधान नक्कीच मिळते.

हे पुस्तक वाचल्यानंतर लेखकद्वयांनी पुस्तकात म्हंटल्याप्रमाणे मेंदूच्या अभ्यासातून आपल्याला एक अंतर्दृष्टी मिळेल…..  दुसऱ्यातला माणूस पहायची दृष्टी. -आणि आपल्यातला माणूसही !

धन्यवाद!

परिचय –  श्री ओंकार कुंभार

श्रीशैल्य पार्क, हरिपूर सांगली.

मो.नं. 9921108879

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 48 – प्यार से जीत लूँ जहाँ सारा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – प्यार से जीत लूँ जहाँ सारा।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 48 – प्यार से जीत लूँ जहाँ सारा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

मैं, तेरे नाम का प्याला चाहूँ 

अब, न कोई दूसरी हाला चाहूँ

*

दाग, जिसमें न हों बुराई के 

पुण्य का दिव्य दुशाला चाहूँ

*

मैं भी, अंधा था मोह माया में 

ज्ञान का, सिर्फ उजाला चाहूँ

*

नफरतें बो रहे हैं, सब मजहब 

धर्म, इन्सानियत वाला, चाहूँ

*

नाम, हर साँस में तुम्हारा हो 

जिन्दगी की, वही माला, चाहूँ

*

प्यार से, जीत लूँ जहाँ सारा 

कोई बन्दूक न भाला चाहूँ

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 124 – अपने संस्कारों को हमने… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “अपने संस्कारों को हमने…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 124 – कविता – अपने संस्कारों को हमने… ☆

अपने संस्कारों को हमने,

घर-आँगन में तापा।

पथ से भटके संतानों के,

छिप-छिप रोते पापा।

 *

तन पर पड़ीं झुर्रियां देखीं,

सिर में छाई सफेदी ।

दर्पण ने सूरत दिखलाई

दिल ने खोया आपा।

 *

जोड़-तोड़ कर भरी तिजोरी,

अंतिम समय में लोचा।।

जीवन जीना सरल है भैया,

सबसे कठिन बुढ़ापा।

 *

गलत राह पर चढ़े शिखर में,

गिरते आँखों देखा।

बुरे काम का बुरा नतीजा,

जोगी ने घर नापा।।

 *

बनी हवेली रही काँपती,

वक्त में काम न आई।

साँसों की जब डोर है टूटी,

यम ने मारा लापा।

 *

जिन पर था विश्वास हमारा,

घात लगा धकियाया।

गैरों ने ही दिया सहारा,

अखबारों ने छापा।

 *

देर सही अंधेर नहीं है,

सूरज तो निकलेगा।

दशरथ नंदन हैं अवतारी

रावण ने भी भाँपा।

 *

अपने संस्कारों को हमने,

अपने हाथों तापा।

पथ से भटके संतानों के,

छिप-छिप रोते पापा।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 6 – संस्मरण – दिखावा – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  संस्मरण – दिखावा)

? मेरी डायरी के पन्ने से… संस्मरण – दिखावा – द ग्रेट नानी  ?

शिक्षण के क्षेत्र से जुड़े रहने के कारण तथा टीचर ट्रेनर होने के कारण कई स्थानों पर कभी-कभी वर्कशॉप लेने के अवसर मुझे मिलते रहे।

कुछ समय तक मैं निरंतर गुजरात के विभिन्न शहरों में वर्कशॉप लेने जाया करती थी। उस वर्ष भुज शहर के कुछ विद्यालयों के साथ मैं काम कर रही थी।

मेरे साथ एक एसिसटेंट भी हुआ करती थी। उसका नाम था सौदामिनी। मैं उसे अक्सर सौ कहकर ही पुकारती थी। एक तो उसे बात-बात पर खिलखिलाकर हँसने की आदत थी और दूसरी विशेषता यह थी कि उसके सान्निध्य में मुझे सौ लोगों के बीच रहने का सुख अनुभव होता था। वह बहुत बातूनी भी थी। उसकी तत्परता और उपस्थित बुद्धि दोनों ही मुझे बहुत अच्छी लगती थी।

हम लोगों को पुणे से भुज तक जाने के लिए एक रात का सफ़र तय करना था। दिक्कत यह थी कि उस मार्ग की रेलगाड़ी में केटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं थी। अतः अपने साथ पर्याप्त वस्तुएँ ले जाने की जरूरत पड़ती थी।

रात के 7:30 बजे गाड़ी चलती थी और दूसरे दिन शाम को करीबन 6:00 बजे भुज पहुँचती थी। उन दिनों यह गाड़ी सप्ताह में एक ही दिन चलती थी।

समयानुसार गाड़ी चल पड़ी और हमारी यात्रा शुरू हो गई। हमारे साथ डिब्बे में हमारेवाले हिस्से में अधिकतर महिलाएँ ही थीं। थर्ड क्लास एसी की बुकिंग थी।

गाड़ी के छूटते ही सभी महिलाएँ जो डिब्बे में थीं एक दूसरे से वार्तालाप करने लगीं। यह सिलसिला काफ़ी समय तक चलता रहा। एक दूसरे से परिचित होना, नाम, धाम, कार्यक्षेत्र आदि विषयों पर कुछ देर तक चर्चा होती रही।

डिब्बे में जो दो पुरुष थे उन्होंने ऊपर के बंकों में अपनी जगह सुरक्षित कर ली थी क्योंकि नीचे चार महिलाएँ और साइड की दो महिलाएँ आपस में घुल मिल गई थीं। इसमें अधिकतर महिलाएँ बिजनेस वोमन थीं।

महिलाओं में आपस में कई विषयों पर चर्चा छिड़ गई। वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर, वर्तमान युवा पीढ़ी के दृष्टिकोण तथा व्यवहारों पर, राजनीतिक परिस्थितियों पर तथा गुजरात की विशेषताओं पर। विशिष्टरूप से अधिक तर महिलाएँ गुजराती थीं तो वे वहाँ के उत्सव, पतंग उत्सव, गरबा नृत्य आदि पर भी गर्व से काफी चर्चा करने लगीं।

रेलगाड़ी में बैठकर दो घंटे तो वैसे बीत चुके थे। महिलाओं का प्रिय विषय भोजन पर चर्चा शुरू हुई। हमारे साथ एक सिंधी महिला भी थीं। वे आधुनिक कई पाक क्रिया पर चर्चा कर रही थीं। कुछ अन्य महिलाओं ने तो अपनी -अपनी डायरियाँ ही खोलकर कुछ लिख भी डालीं। सूप, चायनीज़ भोजन आदि।

उस महिला की उँगलियों में अनेक हीरे की अँगूठियाँ थीं जिस प्रकार के सूटकेस लेकर वे चल रही थीं उससे ज़ाहिर था कि वे काफी धनाढ्य परिवार से थीं। परंतु उसके साथ ही साधारण लोगों के साथ उठना – बैठना एवं मिलना वे शायद पसंद भी करती थीं। वे काफ़ी स्टाइलिश भी थीं यह वेश-भूषा से ही स्पष्ट हो रहा था।

हर जगह ऐसे मौकों पर मैं श्रोता बनकर रहना अधिक पसंद करती हूँ। मुझे लोगों को निहारने, उनकी बातें सुनने में मज़ा आता है इससे मुझे अपनी कहानियाँ या संस्मरण लिखने के लिए पर्याप्त मसाले भी मिल जाते हैं।

वैसे भी मेरे साथ बातूनी सौ उपस्थित थी तो मुझे बात करने की आवश्यकता नहीं होती थी। मेरी सौ मेरी चुप्पी की कमी पूरी कर देती थी। उसमें जिज्ञासा बहुत थी और वह लोगों से खूब सवाल पूछती थी। सहज -सरल, चुलबुली स्वभाव की सौ बड़ी आसानी से सबके साथ घुलमिल जाती थी। ।

सौ की एक और खासियत थी कि वह लोगों से ईमेल आई डी लेकर उनके साथ पत्र व्यवहार भी जारी रखती थी। अब तक तो उसने संभवतः आधी दुनिया से रिश्ता जोड़ लिया होगा। उन दिनों उसके पास एक अत्याधुनिक कैमरा था जिसकी सहायता से वह हमारे वर्कशॉप की विडियो शूट किया करती थी।

हमारी यात्रा जारी थी। सौ सिंधी महिला से अत्यंत प्रभावित थी। चलिए अपनी सुविधा के लिए उनका नाम कोमल रख लेते हैं। वैसे आज मुझे उनका नाम याद नहीं। बस वह घटना याद है जो चिर स्मरणीय है।

रात के नौ बज चुके थे। अब तो हमारे डिब्बे में अलग-अलग प्रकार की खुशबू आ रही थी। सभी अपना – अपना भोजन का डिब्बा खोल चुके थे। ढोकला, थेपला, अचार, मुरब्बे पराँठे, सब्जियां और उसके साथ इडली चटनी, पूड़ी सब्जी आदि।

कोमल जी का डिब्बा बड़े करीने से सजा था। वे पेपर प्लेट, टिश्यूपेपर और प्लास्टिक की चम्मच निकालने लगीं। भोजन में हाथ लगाने से पूर्व उन्होंने एक तरह की सुगंधित तरल पदार्थ से अपने हाथों को स्वच्छ किया।

उत्साहवश हमारी सौ ने उनसे पूछ ही लिया कि वह हाथ में क्या लगा रही थीं उत्तर में कोमल जी ने बताया कि यह सैनिटाइजर है। अर्थात हाथ में अगर कोई जीवाणु हो तो उसका सफ़ाया हो जाएगा।

(पाठकों से यह बताना आवश्यक है कि जिस समय की यह घटना है उस समय सैनिटाइजर की प्रथा आम लोगों में नहीं थी और ना ही लोग उसका उपयोग आज की तरह किया करते थे।)

मैं ध्यान से कोमल जी को देखती रही। हर वस्तु बड़ी अच्छी तरह से प्लास्टिक के विभिन्न प्रकार व आकार के पैकेटों में लपेटी हुई थी। पूड़ी- सब्जी तथा सॉस के सेशे भी थे। अब कागज की बनी प्लेटों पर विभिन्न भोजन सजाए वह सभी को बड़े प्रेम से खिला रही थीं ऊपर बंक में लेटे व्यक्तियों को ज़बरन उठा- उठा कर भाई साहब, भाई साहब कहकर प्रेम से सबको खाना परोस कर खिला रही थीं।

सौ ने बड़ी आत्मीयता से पूछा, ” कोमल जी आपके घर पर ना रहने से आपके पति व बच्चे आपको बहुत मिस करते होंगे न!”

इस पर ज़रा – सा झेंपकर अपनी अदा से माथे पर लटकी जुल्फों को उन्होंने गर्दन झटका कर पीछे हटाया एक मधुर – सी मुस्कान के साथ बोलीं, ” जी सो तो है। दे मिस मी अ लॉट ” उनके बातचीत करने के ढंग में भी काफी आधुनिकता थी और वे काफी स्टाइल से बातें किया करती थीं।

सभी ने अनेक प्रकार के भोजन का आनंद लिया। बातचीत में समय अच्छा कट रहा था। अब कोमल जी ने एक बड़ा – सा, ऊँचा – सा टप्पर वेयर का डिब्बा निकाला और उसमें रखे बेसन के लड्डू सबको खिलाने लगीं। साथ में गीले टिश्यू पेपर भी पकड़ाती रहीं। बार-बार कहती रहीं, ” भोजन के बाद थोड़ा स्वीट खाना तो बनता ही है। ” साथ में यह भी बोलीं कि ” यह तो घर का बना हुआ है, मैं अब मायके से लौट रही हूँ न!” जो पुरुष अब तक ऊपर बैठे थे वे भी भोजन करने के लिए नीचे उतर आए थे।

आठ लोगों की अच्छी मजलिस जमी हुई थी अब। कई प्रकार की बातें हँसी – ठठ्ठा आदि सब कुछ चलने लगा। ऐसा लगने लगा मानो सभी एक ही परिवार के सदस्य थे। शायद रेल में सफ़र करनेवाले लोग इसी तरह कुछ समय के लिए मिलते हैं और फिर बिछड़ भी जाते हैं।

भोजन समाप्त कर सब अब सोने की तैयारी करने लगे। रेलवे सेवा की ओर से सभी यात्रियों को कंबल चद् दर व तकिया दिए गए थे। अब सब आराम से सोना चाहते थे। दूसरे दिन शाम को ही सब अपनी मंजिल तक पहुँचने वाले थे।

अचानक बत्ती बंद करने से पहले कोमल जी ने बड़ी मीठी और सुरीली आवाज में एक सवाल किया, ” यहाँ कोई खर्राटे तो नहीं लेता है ना! मुझे खर्राटों से सख्त नफ़रत है।

मैं रात भर सो नहीं सकती। अगर किसी को खर्राटों की आदत हो तो….प्लीज़……

उनकी मधुर, मीठी, सुरीली आवाज़ में पूछे गए प्रश्न का किसीने कोई उत्तर नहीं दिया। लेकिन एक चुप्पी और सन्नाटा ने अचानक सबको चुप रहने के लिए विवश कर दिया।

थोड़ी देर सभी चुप रहे तथा बगलें झाँकने लगे। पर हमारी सौ कहाँ चुप रहती भला! उसने तुरंत कोमल जी से पूछ ही लिया, ” मैडम, आपको खर्राटे से इतनी नफ़रत आख़िर क्यों है ?”

कोमल जी मानो उत्तर देने के लिए प्रस्तुत ही बैठी थीं। अपनी अदाओं और लटकों -झटकों से अपनी ज़ुल्फों को पीछे हटाते हुए बोलीं, “एक्चुअली मेरे हस्बैंड को खर्राटे लेने की बड़ी बुरी आदत है। मैं उनके इस आदत से बहुत परेशान हूँ। मुझे रात भर नींद नहीं आती। आजकल तो अक्सर मैं बाहर के बैठक में ही सो जाती हूँ। क्या करूँ मुझे तकलीफ़ जो होती है। “

फिर क्या था सब को मानो चर्चा के लिए नया विषय ही मिल गया। कोई अपने पति की कोई पिता की और तो कोई माता के खर्राटे भरने की बात पर चर्चा करने लगा। घंटा भर सभी चर्चा का आनंद लेते रहे। उस चर्चा के दौरान विभिन्न प्रकार के खर्राटों की भी चर्चा होती रही। सभी ने सहर्ष इस चर्चा में हिस्सा लिया। इस प्रकार एक मनोविनोद का वातावरण वहाँ निर्माण हो गया।

रात काफी हो चुकी थी। उस एसी कंपार्टमेंट के अन्य सभी सदस्य अपनी बत्तियाँ बुझा कर सोने का प्रयास कर रहे थे। पर हम सब की चर्चा हँसी और शोर ने औरों को भी शायद परेशान ही कर दिया था।

मैंने धीरे से कहा, ” चलिए अब सोया जाए। इस विषय पर चर्चा कल सुबह जारी रखेंगे। ” सभी को इस बात का अहसास हुआ कि बाकी सभी लोगों ने बत्ती बंद कर दी थी अतः हम लोगों ने भी एक दूसरे को गुड नाईट कहा और अपनी-अपनी चादरों और कंबलो में दुबक गए।

दूसरे दिन सुबह सभी उठे तो पहले कोमल जी ने सबसे फिर उसी सुरीली, मधुर आवाज में धन्यवाद कहा। सबको पता तो था कि कोमल जी ने सुबह-सुबह सबको धन्यवाद क्यों कहा पर फिर भी सौ उनकी थोड़ी बहुत खिंचाई करना चाहती थी। फिर अपनी मधुर मीठी सुरीली आवाज में कोमल जी ने कहा, “आप सब ने रात को खर्राटे नहीं लिए और मैं आराम से सो सकी इसलिए धन्यवाद कह रही हूँ। इतना कहकर वे अपना ब्रश- पेस्ट और हैंड टॉवेल लेकर डिब्बे के बाहर की ओर चली गईं।

उनके पीछे मुड़ते ही सौ ने अपना मोबाइल निकाला और मुझे कोमल जी की सभी तस्वीरें जो उसने पिछली रात को खींची थी दिखाई। रात के समय वह विभिन्न आवाजों में खर्राटे भर रही थीं। उस तस्वीर को देखकर और आवाज सुनकर डिब्बे की बाकी महिलाएँ ठहाका मारकर हँसने लगीं। इतने में कोमल जी ब्रश करके लौट आईं। तो सब की ओर देखकर थोड़ी देर अवाक – सी सबका मुँह ताकती रह गईं। फिर उन्हें देखकर हँसने वालों ने अपने मुँह पर हाथ रख लिया या दुपट्टे रख लिए। तो उन्होंने फिर सुरीली आवाज में पूछा, ” वाह किस जोक पर आप सब हँस रही हैं? मुझे भी तो उसमें शामिल कीजिए “।

सौ ने बड़ी अदा से कोमल जी के सीट पर बैठ जाने पर कहा, ” यह देखिए आपकी तस्वीरें। क्या आपने धन्यवाद इसलिए कह रही थीं क्योंकि सब ने आपके खर्राटे सहन किए रात भर ? वैसे मैं तो जागती ही रही रात भर। तभी तो यह तस्वीरें ले सकी। सॉरी आपको पूछे बिना ही मैंने ये क्लिक किए। “

कोमल जी कैमरे में कैद अपनी खर्राटे भरती हुई तस्वीरें देखकर अत्यंत लज्जित हुईं शायद क्रोधित भी।

सौ ने भी क्षमा माँगकर सारी तस्वीरें डिलीट कर दी।

फिर बाकी सारा दिन कोमल जी किसी से ना बोलीं और ना ही भोजन की पिटारी खुली। शायद अपने अमृततुल्य भोजन खिलाकर वे सबको उनके खर्राटे सहन करने के लिए तैयार कर रही थीं।

सौ की शरारती मैं कभी नहीं भूलूँगी।

आज वह मेरे साथ नहीं है लेकिन उसकी कुछ बातें और भुज की वह यात्रा सदैव स्मरणीय रहेगा।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 273 ☆ आलेख – लंदन से 9 – डे लाइट सेविंग – मतलब बिना जिए ही गुजर गया जिंदगी का एक घंटा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख डे लाइट सेविंग – मतलब बिना जिए ही गुजर गया जिंदगी का एक घंटा। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 273 ☆

? आलेख – डे लाइट सेविंगमतलब बिना जिए ही गुजर गया जिंदगी का एक घंटा ?

यूके में प्रति वर्ष मार्च महीने के आखिरी रविवार को 1 बजे घड़ियाँ 1 घंटा आगे बढा दी जाती हैं, इस तरह जीवन का एक घंटा बिना जिए ही आगे बढ़ जाता है।

यह वापस प्रति वर्ष अक्टूबर के आखिरी रविवार को 2 बजे 1 घंटा पीछे कर दी जाती हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि अप्रैल से यहां समर सीजन शुरू हो जाता है जब सूर्योदय जल्दी होने लगता है।

वह अवधि जब घड़ियाँ 1 घंटा आगे होती हैं उसे ब्रिटिश ग्रीष्मकालीन समय (BST) कहा जाता है। शाम को अधिक और सुबह में कम दिन का प्रकाश होता है (जिसे डेलाइट सेविंग टाइम भी कहा जाता है)। इस वर्ष 31 मार्च को आखिरी रविवार था, इसलिए जब मैं सुबह लंदन में सोकर उठा तो इंटरनेट से जुड़े होने के कारण मोबाइल में तो समय अपडेट हो चुका था, पर टेबल पर रखी घड़ी एक घंटे पीछे का टाइम ही बतला रही थी। रात 1 बजे समय को एक घंटा फारवर्ड कर दिया गया था। अब अक्तूबर के आखिरी रविवार अर्थात इस वर्ष 27 अक्तूबर को घड़ी वापस एक घंटा पीछे की जाएंगी। मतलब भारत के समय से जो साढ़े चार घंटे का अंतर यूके के समय का है, वह पुनः साढ़े पांच घंटो का कर दिया जायेगा।

दुनियां के कई देशों में इस तरह की प्रक्रिया अपनाई जाती है।

भारत में डेलाइट सेविंग टाइम का उपयोग नहीं किया जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भूमध्य रेखा के पास स्थित देशों में मौसमों के बीच दिन के घंटों में अधिक अंतर का अनुभव नहीं होता।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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