हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 73 – दिल की आग बुझाने आये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – दिल की आग बुझाने आये।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 73 – दिल की आग बुझाने आये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

वो अपनत्व दिखाने आये 

जैसे देने ताने आये

 *

वे आँधी का झोंका बनकर

दिल की आग बुझाने आये

 *

जब अंतिम साँसें गिनता था 

मेरा मन बहलाने आये

 *

अग्निपरीक्षा लेने वाले 

लेकर फूल सुहाने आये

 *

इक पल, चाँद दिखा झुरमुट में 

हमको याद जमाने आये

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 146 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत हैं “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 146 – मनोज के दोहे  ☆

लगती भूख विचित्र है, रखिए इस पर ध्यान।

तन-मन को आहत करे, आदि काल से भान।।

*

रोटी से रिश्ते बनें, जीवन का दस्तूर।

झगड़ें रोटी के लिए, रोटी  तन-मजबूर।।

*

मजदूरी मजदूर की, उचित मिलें परिणाम।

क्षुधा पूर्ति को शांत कर, सुख-समृद्धि आराम।।

*

श्रम जीवन का सत्य है, मिले सफलता नेक।

पशु-पक्षी मानव सभी, जाग्रत रखें विवेक।।

*

सत्ता-लोलुपता बढ़े, लोकतंत्र-उपहास।

भरी तिजोरी देखती, जनता रहे उदास।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 28 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 5 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – गुजरात के दर्शनीय स्थल)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 28 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 5 ?

(17 फरवरी 2020)

द्वारकाधीश का उत्तम दर्शन करके तथा आस पास की विशेष जगहें देखकर हम दूसरे दिन बड़ौदा के लिए निकले। आज इसे वडोदरा कहा जाता है।

हम द्वारका से वडोदरा तक की यात्रा ट्रेन से करने जा रहे थे। यह दूरी 516 किमी की है।

इस दूरी को पार करने के लिए साढ़े दस घंटे लगते हैं। हमारी ट्रेन सुबह 11.30 के आसपास थी। हम प्रातः उठकर एक बार फिर द्वारकाधीश का दर्शन कर आए। इस बार किसी पंडित को हमने साथ नहीं लिया। पिछली सुबह ही दर्शन कर आए थे तो मार्ग ज्ञात था।

हम जिस होटल में ठहरे थे वहीं साधारण नाश्ता करके स्टेशन के लिए निकले। यहाँ यह बता दें कि गुजरात के ट्रेनों में केटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं होती है। चाय तक नहीं मिलती। तो हमने होटल वाले से आलू की सूखी सब्ज़ी और पूड़ियाँ पैक करवा लिए। जाते समय हम अपने घर से भोजन लेकर गए थे तो हमारे पास डिसपोज़ीबल प्लेट और स्टील के डिब्बे थे। ये न होते तो वे डिसपोज़िबल बर्तनों में भोजन लपेट देते।

हम ट्रेन में बैठे तो हम चारों (भाई भावज और बहनों में) अब तक की यात्रा की चर्चा चली। समय गुज़र रहा था। हम राजकोट पहुँचे। मेरे एक अत्यंत पुराने मित्र सपत्नीक हमसे मिलने आए। साथ में रात के लिए भोजन भी लेकर आए। उन्हें पता था कि हम ग्यारह बजे के करीब वडोदरा पहुँचेंगे। मित्र की दूरदृष्टि काम आई। हम रात के ग्यारह बजे होटल पहुँचे। गुजराती मुख्य भोजन के साथ कई प्रकार के शेव, फाफड़ा, भजिया आदि खाते हैं। मित्र भी थेपले के साथ अचार और ढोकला तथा अन्य कई वस्तुएँ पैक करके लाए थे। भूख भी लगी थी तो कमरे में चाय बनाई गई और मित्र दम्पति को आशीर्वाद देते हुए हमने भरपेट भोजन का स्वाद लिया।

दूसरे दिन हम देर से उठे और वडोदरा शहर दर्शन करने निकले।

गुजरात के वडोदरा शहर में कई दर्शनीय स्थल हैं। पर चूँकि हमारे पास केवल एक ही दिन हाथ में था तो हम कुछ विशेष स्थानों पर ही दर्शन करने जा सके।

हमने पूरे दिन के लिए एक टैक्सी किराए पर ले ली और सबसे पहले लक्ष्मी विलास पैलेस देखने गए।

यह महल बड़ौदा राज्य पर शासन करने वाले मराठा राजवंश के गायकवाड़ का निवास था।

इसके एक हिस्से में अब भी शाही परिवार के सदस्य रहते हैं।

यह एक विशाल परिसर पर पत्थर से बनाया विशाल महल है। महल के सामने सुंदर हरी घास बिछी है और कुछ सीढ़ियाँ उतरने पर बड़ा सा छायादार वृक्षों का बगीचा है।

इसके भीतर एक ही मंजिल जनता के लिए है जहाँ खूबसूरत वस्तुओं का संग्रह दिखाई देता है। अलग -अलग कमरे में अलग -अलग वस्तुएँ हैं। कहीं सुंदर पॉलिश किए हुए चमकदार फूलदान और अन्य पीतल तथा ताँबे की सजावट की वस्तुएँ रखी हैं। दूसरे कमरे में कई प्रकार के फर्नीचर रखे गए हैं। इस स्थान को देखने के लिए डेढ़ घंटे लगे और वहाँ से निकलकर हम बड़ौदा संग्रहालय की ओर गए।

यह स्थान भी एक बड़ी सी इमारत है। 1894 में बने इस संग्रहालय में विविध कला, मूर्तिकला, , मुग़ल काल में बनाए गए लघुचित्र, भारतीय हस्तशिल्प, और भारतीय विविध काल के सिक्के रखे गए हैं।

दोपहर का समय हो रहा था तो हम भी एक भोजनालय की तलाश में थे। रास्ते में सुरसागर झील पड़ा जो 18वीं शताब्दी में गायकवाड़ शासकों ने बनवाई थी। यह झील 75 एकड़ में फैली है। उस दिन वहाँ कुछ मरम्मत के काम चल रहे थे तो हम बाहर से ही कुछ हिस्से देख पाए।

भोजन के बाद हम अपने निवास स्थान पर लौट आए थोड़ी देर आराम करके हम शाम पाँच बजे पुनः निकले।

इस शहर में एक भारतीय सेना द्वारा निर्मित शिव मंदिर है। हम इस मंदिर का दर्शन करने निकले।

इस मंदिर को ई.एम.ई मंदिर कहा जाता है। इसके परिसर में बाहर की गाड़ियों को प्रवेश नहीं दिया जाता। गाड़ी बाहर खड़ी करके चलकर ही हम अंदर जा सकते हैं। यह भारतीय सैन्य दल की आरक्षित स्थल है।

इस दक्षिणीमूर्ति ई एम ई मंदिर का निर्माण सन 1966 में ब्रिगेडियर ए.एफ यूजीन के कार्यकालमें उनके ही द्वारा किया गया था। वे उन दिनों ई एम ई स्कूल के कमान्डेंट थे। वे स्वयं ईस्ई धर्म के अनुयायी थे। परंतु सभी धर्मों में आस्था रखते थे।

मंदिर का परिसर बहुत बड़ा है और मुख्य मंदिर के अलावा कई छोटे -छोटे मंदिर भी बने हुए हैं। मुख्य मंदिर में शिव जी हैं।

मंदिर के प्रवेश द्वार से ही मंदिर तक जाने के लिए जो पथ बनाया गया है उसके दोनों ओर कई पुरातन उत्खनन से प्राप्त मूर्तियाँ रखी हुई हैं। मंदिर की सजावट और आकार किसी टेंट के समान है।

दर्शन के बाद संध्या हो गई और हम सूती कपड़े खरीदने के लिए मुख्य मार्केट में घूमते रहे। कुछ खरीदारी कर हम होटल लौट आए और मुँह -हाथ धोकर भोजन के लिए निकले।

हम किसी ऐसे भोजनालत की तलाश में थे जहाँ सूप और अन्य सभी प्रकार के व्यंजन उपलब्ध हो। हम जब से गुजरात आए थे हम हर प्रकार के गुजराती भोजन का ही आनंद ले रहे थे। गुजराती भोजन में मीठापन होता है। कई प्कार की सब्ज़ियाँ बाजरे की छोटी छोटी गरम रोटी उस पर खूब सारा घी और कई प्रकार की सब्ज़ियों का हम आनंद ले चुके थे। आज हम ऐसे रेस्तराँ में पहुँचे जहाँ रोशनी मध्यम थी, हल्की और कर्णप्रिय संगीत बज रहा था। ज्यादावभीड़ न थी और न ही शोर था। हम चारों ने उत्कृष्ट तथा सुस्वादिष्ट भोजन का आनंद लेकर होटल लौटकर आए।

अगले दिन हम स्टैच्यू ऑफ यूनिटी देखने जाने वाले थे।

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 304 ☆ बाल कथा – “पिंटू का स्कूल” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 304 ☆

?  बाल कथा – “पिंटू का स्कूल” ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पिंटू 5 वर्ष का नटखट बच्चा है। उसका एक छोटा भाई है चिंटू । पापा से जिद करके पिंटू ने एक पपी पाला था। उसने प्यार से पपी का नाम ब्राउनी रखा था। चिंटू पिंटू और ब्राउनी खूब खेला करते थे। पिंटू को अपनी टीचर की तरह पढ़ाना बहुत अच्छा लगता था। वह चिंटू और ब्राउनी को बैठाकर अपनी क्लास लगाता था। धीरे धीरे उसने ब्राउनी को अखबार उठाकर लाना और उसे पकड़ना सिखा दिया था।

एक दिन ब्राउनी अखबार पकड़कर पढ़ने का नाटक कर रहा था, और पिंटू चिंटू यह देखकर मस्ती से हँस रहे थे । तभी वहां से पड़ोस में रहने वाले अंकल निकले । ब्राउनी की अखबार पढ़ने की मजेदार हरकत को उन्होंने अपने मोबाईल से कैद कर लिया ।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 206 – विवशता ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “विवशता”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 206 ☆

🌻लघु कथा🌻 🍃विवशता 🍃

किताबों के ढेर की छंटनी की जा रही थी। अभय के बेटे ने कहा–पापा अब इन किताबों का कोई मतलब नहीं है। पुराने हो चुके हैं और सब बेकार हो गए हैं। इन्हें कबाड़ में देकर घर को साफ किजिए।

उन्हीं किताबों के ढेर से झांकती एक तस्वीर अचानक अभय के दिलों दिमाग को झंकृत कर गई। तब कलर फोटो का जमाना नहीं था। बड़े मुश्किल से किसी काम के लिए फोटो खिंचवाई जाती थी और उसे सहेज कर रखा जाता।

एक से दो फोटो वह भी पासपोर्ट साइज। ऐसा लगता मानो जाने कितने पैसे लग रहे हैं, किसी फार्म के लिए।

किताबों को उठा अपने सीने के पास शर्ट से पोछते अभय के अनायास नेत्र भर उठे। आज का समय होता तो शायद वह भी इसे गर्ल फ्रेंड, लिव इन रिलेशन का नाम दे देता।

परंतु न हिम्मत और न किसी प्रकार की सहायता। धीरे से फोटो निकाल कर हाथों से साफ करके देख रहा था पीछे स्याही हल्की हो चुकी थी पर लिखा दिखाई दे रहा था – – सिर्फ तुम्हारी।

अभय का बेटा मोबाइल चलाते-चलाते बाहर आया। पापा को छोटी सी तस्वीर को गौर से देखते भावविभोर होते देखा वह बोल उठा– पापा गर्लफ्रेंड या लिंव इन रिलेशन।

कितने सहज रूप से वह इस वाक्य को पापा को कह सुनाया। अभय ने भी बेटे के कंधे पर हाथ रख आँसू पोछते हुए कहा – – – बेटा सिर्फ चाहत।

जो आंखों की थी और आज भी है। अब बोलने की पारी बेटे की थी। बेटे ने बड़ी ही समझदारी और गंभीरता से कहा – – पापा अब यह कहाँ मिलता है। आप बड़े भाग्यवान है और कसकर गले लग गया।

अभय बेटे की विवशता और जमाने का चलन दोनों समझ रहे थे। शायद वह अपनी बेटे को समझा भी रहे थे काश वह समय लौट आता!!!!!

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 102 – देश-परदेश – Working Breakfast ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 102 ☆ देश-परदेश – Working Breakfast ☆ श्री राकेश कुमार ☆

प्रातः काल के समय खाए जाने वाले कलेवा/नाश्ता आदि को ब्रेकफास्ट कहा जाता है। सही भी है, पूरी रात्रि बिना खाए पिए रहकर, सुबह कुछ ग्रहण करने से “उपवास को तोड़ना” ही कह सकते हैं।

दफ्तर या किसी कारण जल्दी या कम समय में कुछ ग्रहण करने को वर्किंग ब्रेकफास्ट कहते हैं। फास्ट फूड भी इसी श्रेणी का हिस्सा है।

पूर्व में बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, हॉस्पिटल आदि के आस पास नाश्ता करने वालों की दुकानें होती थी। अब तो गलियों में भी नाश्ते की दुकानें सजी रहती हैं। घर का स्वच्छ और पौष्टिक नाश्ता छोड़ दिन का आरंभ ही गंदे बाजारू नाश्ते से होने लगी है।

प्रातः भ्रमण वाली टोलियां भी, प्रतिदिन चाय का स्वाद इन्हीं नाश्ता दुकानों से ग्रहण करते हैं। कुछ टोलियां प्रति रविवार या किसी साथी के जन्मदिन, विवाह वर्षगांठ के नाम से सुबह सुबह ही सड़क किनारे समोसे, पोहा आदि का स्वाद लेते हुए दृष्टिगोचर हो जाती हैं।

हमारे गुलाबी शहर में तो वर्षों पुराने शहर वाले प्रसिद्ध प्रतिष्ठानों ने अपने नाम को भुनाने के लिए शहर के सबर्ब क्षेत्रों में भी अपनी शाखाएं स्थापित कर ली हैं।

जन साधारण नाश्ता करते हुए अपने परिवार के साथ मिल जायेंगे, पूछे जाने पर कहते है, कभी कभी “चेंज” (स्वाद परिवर्तन) के लिए बाहर आ जाते हैं।

प्रातः काल मंदिर जाने वालों से बाहर जाकर नाश्ता करने वालों की संख्या अधिक हो गई है। केमिस्ट की दुकानें भी नौ बजे से पहले नहीं खुलती है, परंतु ये नाश्ता विक्रेता सात बजे से पूर्व आपके स्वागत के लिए आतुर रहते हैं। पैसा और समय व्यय कर जिम से निकल वापसी में “जलेबी और कचौरी” खाकर अपनी मेहनत पर पानी फेर देना आज की संस्कृति का हिस्सा बन चुका है।

प्रातः भ्रमण टोलियों की देखा देखी, हमारे व्हाट्स ऐप समूह के एडमिन भी “नाश्ते पर मिलते है”, मुहिम चला रहें हैं। आज ही एक ऐसे कार्यक्रम में हमने भी शिरकत कर गंदे तेल में बने हुए गरमा गर्म नाश्ते का मुफ्त में लुत्फ उठाया है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #256 ☆ अधर्म… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 256 ?

☆ अधर्म ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

दुष्काळाच्या झळा पाहुनी पाझर होऊ

हसवायाचे व्रत घेऊनी जोकर होऊ

*

धर्म आपला माणुसकीचा एकच आहे

सांग कशाला हवी दुष्मनी मैतर होऊ

*

कसा पहावा अधर्म येथे या डोळ्यांनी

तिसरा डोळा उघडू आणिक शेखर होऊ

*

पिझ्झा बर्गर नको व्हायला आता आपण

गरिबाघरची कायम आता भाकर होऊ

*

रस्त्यावरती पोर कुणाचे उघड्यावरती

थंडी आहे त्याच्यासाठी लोकर होऊ

*

माझ्यासाठी कायम झाला बाप फाटका

त्याच्यासाठी आता कोरे धोतर होऊ

*

पोट मारुनी पैसा पैसा जोडत गेला

त्याच्यासाठी भक्कम आपण लॉकर होऊ

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – पितृपक्ष…– ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? – पितृपक्ष…– ? ☆ श्री आशिष  बिवलकर ☆

हिंदू धर्म सांगे | पितरांचे ध्यान |

भोजनाचे पान | पितृपक्ष ||१||

*

सात्विक विचार ! चालवती श्राद्ध |

मुक्तीचे प्रारब्ध ! पूर्वजांचे ||२||

*

पूर्वपार त्यांनी | जपली संस्कृती |

जीवन स्विकृती | संस्कारांची ||३||

*

काकस्पर्शसाठी | कावकाव साद |

दयावे आशिर्वाद | वारसांना ||४||

*

पंधरवाड्यात | चाले दानधर्म |

दातृवाचे कर्म | स्मरणाने ||५||

*

चौऱ्याऐंशी लक्ष | योनींचे भ्रमण |

जन्मलो आपण | मुक्तीसाठी ||६||

*

हिंदूनी जपावी | संस्कृती महान !

पितरांचे भान | कृतज्ञता ||७||

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 208 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 208 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

एक हजार श्यामकर्ण अश्व

जो

उन्हें दिये थे वरुण ने ।

कालांतर में

नदी में बह गये

चार सौ अश्व

(क्या पता कैसे ?)

अब

संसार में

श्यामकर्ण अश्व

केवल छै सौ ही हैं

जो तुम्हें प्राप्त हो गये हैं ।

गालव ने पूछा-

‘तो अब

क्या है

शेष गुरु दक्षिणा की पूर्ति

का उपाय?’

गरुड़ ने

मुस्कान बिखेरते हुए कहा

‘प्राप्त अश्वों के साथ

माधवी को भी

समर्पित कर दो

विश्वामित्र को ।

निदान

गालव ने

वही किया

जो गरुड़ ने कहा।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 208 – “कैसे क्या फिसला…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत कैसे क्या फिसला...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 208 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “कैसे क्या फिसला...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

कितना है बौराया

यह अघ – जग

लिखते रहे हैं

महेश अनघ*

खिड़की छू बादल

का उड़जाना

कई -कई आँखो से

छिप जाना

 

कैसे क्या फिसला

निगाह से

दृश्य नया यह

अलग – थलग

 

गिनती में थे

कई मुखर सपने

वाणी में बसते

आये अपने

 

हवादार कच्चे

खपरैल से

प्रवहमान शब्दों

के दुख लगभग

 

समय से जुड़ी

एक सीमा थी

जीवन संचालन

का बीमा थी

 

सुबिधाओं की

बानगी बाली

डगर मिली लेकिन

रही – डगमग

 * महेश अनघ, सारिका में दुष्यंत कुमार के बाद  गजलों के कवि के रूप में प्रकाशित होने वाले एकमात्र कवि ।

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

22-09-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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