(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “एक दिन तेरा तो पक्का ठहरा है…” ।)
ग़ज़ल # 114 – “एक दिन तेरा तो पक्का ठहरा है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना – “ईश्वर सबको शुभ-कामों में देता निश्चित साथ है..” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “ ईश्वर सबको शुभ-कामों में देता निश्चित साथ है…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सोच व संस्कार… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 225 ☆
☆ सोच व संस्कार… ☆
सोच भले ही नई रखो, लेकिन संस्कार पुराने ही अच्छे हैं और अच्छे संस्कार ही अपराध समाप्त कर सकते हैं। यह किसी दुकान में नहीं; परिवार के बुज़ुर्गों अर्थात् हमारे माता- पिता, गुरूजनों व संस्कृति से प्राप्त होते हैं। वास्तव में संस्कृति हमें संस्कार देती है, जो हमारी धरोहर हैं। सो! अच्छी सोच व संस्कार हमें सादा जीवन व तनावमुक्त जीवन प्रदान करते हैं। इसलिए जीवन में कभी भी नकारात्मकता के भाव को पदार्पण न होने दें; यह हमें पतन की राह पर अग्रसर करता है।
संसार में सदैव अच्छी भूमिका, अच्छे लक्ष्य व अच्छे विचारों वाले लोगों को सदैव स्मरण किया जाता है– मन में भी, जीवन में भी और शब्दों में भी। शब्द हमारे सोच-विचार व मन के दर्पण हैं, क्योंकि जो हमारे हृदय में होता है; चेहरे पर अवश्य प्रतिबिंबित होता है। इसीलिए कहा जाता है कि चेहरा मन का आईना है और आईने में वह सब दिखाई देता है; जो यथार्थ होता है। ‘तोरा मन दर्पण कहलाए/ भले-बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए।’ दूसरी ओर अच्छे लोग सदैव हमारे ज़ेहन में रहते हैं और हम उनके साथ आजीवन संबंध क़ायम रखना चाहते हैं। हम सदैव उनके बारे में चिन्तन-मनन व चर्चा करना पसंद करते हैं।
‘रिश्ते कभी ज़िंदगी के साथ नहीं चलते। रिश्ते तो एक बार बनते हैं, फिर ज़िंदगी रिश्तों के साथ चलती है’ से तात्पर्य घनिष्ठ संबंधों से है। जब इनका बीजवपन हृदय में हो जाता है, तो यह कभी भी टूटते नहीं, बल्कि ज़िंदगी के साथ अनवरत चलते रहते हैं। इनमें स्नेह, सौहार्द, त्याग व दैन्य भाव रहता है। इतना ही नहीं, इंसान ‘पहले मैं, पहले मैं’ का गुलाम बन जाता है। दोनों पक्षों में अधिकाधिक दैन्य व कर्त्तव्यनिष्ठा का भाव रहता है। वैसे भी मानव से सदैव परहिताय कर्म ही अपेक्षित हैं।
इच्छाएं अनंत होती है, परंतु उनकी पूर्ति के साधन सीमित हैं। इसलिए सब इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। सो! इच्छाओं की पूर्ति के अनुरूप जीने के लिए जुनून चाहिए, वरना परिस्थितियाँ तो सदैव मानव के अनुकूल नहीं, प्रतिकूल रहती हैं और उनमें सामंजस्य बनाकर जीना ही मानव का लक्ष्य होना चाहिए। जो व्यक्ति इन पर अंकुश लगाकर जीवन जीता है, आत्म-संतोषी जीव कहलाता है तथा जीवन के हर क्षेत्र व पड़ाव पर सफलता प्राप्त करता है।
लोग ग़लत करने से पहले दाएँ-बाएँ तो देख लेते हैं, परंतु ऊपर देखना भूल जाते हैं। इसलिए उन्हें भ्रम हो जाता है कि उन्हें कोई नहीं देख रहा है और वे निरंतर ग़लत कार्यों में लिप्त रहते हैं। उस स्थिति में उन्हें ध्यान नहीं रहता कि वह सृष्टि-नियंता परमात्मा सब कुछ देख रहा है और उसके पास सभी के कर्मों का बही-खाता सुरक्षित है। सो! मानव को सत्य अपने लिए तथा सबके प्रति करुणा भाव रखना चाहिए – यही जीवन का व्याकरण है। मानव को सदैव सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए तथा उसका हृदय सदैव दया, करुणा, ममता, त्याग व सहानुभूति से आप्लावित होना चाहिए– यही जीने का सर्वोत्तम मार्ग है।
जो व्यक्ति जीवन में मस्त है; अपने कार्यों में तल्लीन रहता है; वह कभी ग़लत कार्य कर ही नहीं सकता, क्योंकि उसके पास किसी के विषय में सोचने का समय ही नहीं होता। इसलिए कहा जाता है कि खाली दिमाग़ शैतान का घर होता है अर्थात् ऐसा व्यक्ति इधर-उधर झाँकता है, दूसरों में दोष ढूंढता है, छिद्रान्वेषण करता है और उन्हें अकारण कटघरे में खड़ा कर सुक़ून पाता है। वैसे भी आजकल अपने दु:खों से अधिक मानव दूसरों को सुखी देखकर परेशान रहता है तथा यह स्थिति लाइलाज है। इसलिए जिसकी सोच अच्छी व सकारात्मक होती है, वह दूसरों को सुखी देखकर न परेशान होगा और न ही उसके प्रति ईर्ष्या भाव रखेगा। इसके लिए आवश्यक है प्रभु का नाम स्मरण– ‘जप ले हरि का नाम/ तेरे बन जाएंगे बिगड़े काम’ और ‘अंत काल यह ही तेरे साथ जाएगा’ अर्थात् मानव के कर्म ही उसके साथ जाते हैं।
‘प्रसन्नता की शक्ति बीमार व दुर्बल व्यक्ति के लिए बहुत मूल्यवान है’–स्वेट मार्टिन मानव मात्र को प्रसन्न रहने का संदेश देते हैं, जो दुर्बल का अमूल्य धन है, जिसे धारण कर वह सदैव सुखी रह सकता है। उसके बाद आपदाएं भी उसकी राह में अवरोधक नहीं बन सकती। कुछ लोग तो आपदा को अवसर बना लेते हैं और जीवन में मनचाहा प्राप्त कर लेते हैं। ‘जीवन में उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ यूं ही बेवजह न ग़िला किया कीजिए’ अर्थात् जो व्यक्ति आपदाओं को सहर्ष स्वीकारता है, वे उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। इसलिए बेवजह किसी से ग़िला-शिक़वा करना उचित नहीं है। ऐसा व्यवहार करने की प्रेरणा हमें अपनी संस्कृति से प्राप्त होती है और ऐसा व्यक्ति नकारात्मकता से कोसों दूर रहता है।
गुस्सा और मतभेद बारिश की तरह होने चाहिए, जो बरसें और खत्म हो जाएं और अपनत्व भाव हवा की तरह से सदा आसपास रहना चाहिए। क्रोध और लोभ मानव के दो अजेय शत्रु हैं, जिन पर नियंत्रण कर पाना अत्यंत दुष्कर है। जीवन में मतभेद भले हो, परंतु मनभेद नहीं होने चाहिएं। यह मानव का सर्वनाश करने का सामर्थ्य रखते है। मानव में अपनत्व भाव होना चाहिए, जो हवा की भांति आसपास रहे। यदि आप दूसरों के प्रति स्नेह, प्रेम तथा स्वीकार्यता भाव रखते है, तो वे भी त्याग व समर्पण करने को सदैव तत्पर रहेंगे और आप सबके प्रिय हो जाएंगे।
ज़िंदगी में दो चीज़ें भूलना अत्यंत कठिन है; एक दिल का घाव तथा दूसरा किसी के प्रति दिल से लगाव। इंसान दोनों स्थितियों में सामान्य नहीं रह पाता। यदि किसी ने उसे आहत किया है, तो वह उस दिल के घाव को आजीवन भुला नहीं पाता। इससे विपरीत स्थिति में यदि वह किसी को मन से चाहता है, तो उसे भुलाना भी सर्वथा असंभव है। वैसे शब्दों के कई अर्थ निकलते हैं, परंतु भावनाओं का संबंध स्नेह,प्यार, परवाह व अपनत्व से होता है, जिसका मूल प्रेम व समर्पण है।
इनका संबंध हमारी संस्कृति से है, जो हमारे अंतर्मन को आत्म-संतोष से पल्लवित करती है। कालिदास के मतानुसार ‘जो सुख देने में है, वह धनार्जन में नहीं।’ शायद इसीलिए महात्मा बुद्ध ने भी अपरिग्रह अर्थात् संग्रह ना करने का संदेश दिया है। हमें प्रकृति ने जो भी दिया है, उससे आवश्यकताओं की आपूर्ति सहज रूप में हो सकती है, परंतु इच्छाओं की नहीं और वे हमें ग़लत दिशा की ओर प्रवृत्त करती हैं। इच्छाएं, सपने, उम्मीद, नाखून हमें समय-समय पर काटते रहने का संदेश हमें दिया गया है अन्यथा वे दु:ख का कारण बनते हैं। उम्मीद हमें अनायास ग़लत कार्यों करने की ओर प्रवृत्त करती है। इसलिए उम्मीदों पर समय-समय पर अंकुश लगाते रहिए से तात्पर्य उन पर नियंत्रण लगाने से है। यदि आप उनकी पूर्ति में लीन हो जाते हैं, तो अनायास ग़लत कार्यों की ओर प्रवृत्त होते हैं और किसी अंधकूप में जाकर विश्राम पाते हैं।
ज्ञान धन से उत्पन्न होता है, क्योंकि धन की मानव को रक्षा करनी पड़ती है, परंतु ज्ञान उसकी रक्षा करता है। संस्कार हमें ज्ञान से प्राप्त होते हैं, जो हमें पथ-विचलित नहीं होने देते। ज्ञानवान मनुष्य सदैव मर्यादा का पालन करता है और अपनी हदों का अतिक्रमण नहीं करता। वह शब्दों का प्रयोग भी सोच-समझ कर सकता है। ‘मरहम जैसे होते हैं कुछ लोग/ शब्द बोलते ही दर्द गायब हो जाता है।’ उनमें वाणी माधुर्य का गुण होता है। ‘खटखटाते रहिए दरवाज़ा, एक
दूसरे के मन का/ मुलाकातें ना सही आहटें आनी चाहिए’ द्वारा राग-द्वेष व स्व-पर का भाव तजने का संदेश प्रदत्त है। सो! हमें सदैव संवाद की स्थिति बनाए रखनी चाहिए, अन्यथा दूरियाँ इस क़दर हृदय में घर बना लेती है, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। हमारी संस्कृति एकात्मकता, त्याग, समर्पण, समता, समन्वय व सामंजस्यता का पाठ पढ़ाती है। ‘सर्वेभवंतु सुखिनाम्’ में विश्व में प्राणी मात्र के सुख की कामना की गयी है। सुख-दु:ख मेहमान है, आते-जाते रहते हैं। सो! हमें निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए और निरंतर खुशी से जीवन-यापन करना चाहिए। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहाँ है अकेला’ के माध्यम से मानव को आत्मावलोकन करने व ‘एकला चलो रे’ का अनुसरण कर खुशी से जीने का संदेश दिया गया है।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक लघुकथा – भोला मन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 225 – साहित्य निकुंज ☆
☆ लघुकथा – भोला मन ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆
केबिन के दरवाजे में ठक तक की आवाज आई।
तुरंत ही हमने कहा ..” कम इन ” ।
देखते ही होश उड़ गए ।सामने से खूबसूरत लड़की हाथ में मिठाई का डिब्बा लिए चली आ रही थी।
आते ही बोली ” सर लीजिए इसी ऑफिस में आज ही मेरी पोस्टिंग हुई है सॉफ्टवेयर इंजीनियर के पद पर।”
हमने …” बधाई है जी कहा “।
और वह “थैंक्स कह कर चली गई।”
दिन रात रूबी के साथ काम के सिलसिले में उठना बैठना जारी रहा मेरा मन तो बस उसका दीवाना होता जा रहा था उसकी बातों में उसके शब्दों में उसके पहनने ओढ़ने में कशिश थी जिसमें मैं रमता चला जा रहा था। कई बार सोचा कि उससे बात करूं उससे कहूं, लेकिन हिम्मत ही नहीं हुई एक दिन पता चला कि वह नौकरी छोड़ कर जा रही है।
उसको शहर से बाहर कहीं और अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई है तब मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उसके जाने से पहले उसको कह ही दिया……..” रूबी जबसे तुमको देखा है तब से मैं तुम्हारा दीवाना हो गया हूं मैं तुम्हें प्यार करता हूं तुम्हारे साथ अपनी जिंदगी गुजारना चाहता हूं।”
तब रूबी का जवाब था… “आप सभी पुरुष वर्ग का मन बड़ा भोला होता है हंसी मजाक मित्रता को आप प्यार समझ लेते हैं और उसी पर अपना जीवन बर्बाद करने के लिए उतारू हो जाते हैं मैंने इस संदर्भ में कभी नहीं सोचा और न ही मैं सोचना चाहती हूं।”
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – बिन पानी.! मुश्किल जिंदगानी..! आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 206 ☆
☆ आलेख – अंतरात्मा की आवाज☆ श्री संतोष नेमा ☆
हर व्यक्ति के अंदर जो परमात्मा के अंश स्वरूप आत्मा विद्यमान है, वह हमारे हर कार्य की साक्षी है और हमें अच्छे बुरे का आभास कराते हुए बुरे कार्य करने से रोकने के लिए प्रेरित भी करती है.! दूसरे शब्दों में हम इसे विवेक भी कह सकते हैं जो बुरे- भले को कसौटी में कसते हुए,हमें सचेत करता है एवं अच्छाई का मार्ग प्रशस्त करता है.! कुछ लोग इसे वॉइस ऑफ गार्ड भी कहते हैं..!! परंतु यह विवेक या अंतरात्मा व्यक्ति के संस्कारों,पृष्ठभूमि,चरित्र,मानसिकता, एवं धर्म आदि पर निर्भर होती है.!
आजकल राजनीति में अंतरात्मा शब्द का इस्तेमाल बहुत आम हो गया है.! अब इन नेताओ का आए दिन अंतरात्मा की आवाज के नाम पर दल-बदल एवं सिद्धांतों से समझौता करना आम हो गया है.? और आधुनिकता एवं स्वार्थ के इस दौर में हो भी क्यों न.? अब व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध करना एवं अपना फायदा पहले देखना क्या कोई बुरी बात है.? नेता ही क्यों किसी भी क्षेत्र के व्यक्ति को देख लो चाहे वह व्यापारी हो लोकसेवक हों संत हों साधु हों महात्मा हों कितने लोग अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुनते हैं.? यदि आसाराम बापू ने अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनी होती तो आज जेल में नहीं होते.! ना जाने ऐसे कितने बाबा हैं जो अपने तात्कालिक फायदे के लिए, अपनी अंतरात्मा की आवाज को कुचल देते हैं ! आम जिंदगी में यहां हर कोई लूट- खसोट और एक दूजे को बेवकूफ बनाने में लगे हुए.! अब कुछ लोग कहते हैं कि ऐसे लोगों की आत्मा मर गई है.? अब इन्हें कौन समझाए कि आत्मा कभी मरती नहीं है..! समाज में चोरी करने वाला भी जानता है कि वह गलत काम कर रहा है ऐसे ही हर गलत काम करने वाला व्यक्ति जानता है कि वह यह अनैतिक,अवैधानिक कार्य कर रहा है.! पर सभी जानते हुए भी यह सब किये जा रहे हैं.? अब यहां प्रश्न यह उठता है कि आखिर इनकी विबसता क्या है.? इस प्रश्न के जवाब व्यक्ति के हिसाब से अलग-अलग हो सकते हैं.! हालांकि अपने अंतरात्मा की आवाज को दबाने का सिलसिला नया नहीं है.यह प्राचीन काल से ही चला आ रहा है.त्रेता में रावण,द्वापर में कंस जैसे हर युग में अनेकानेक व्यक्ति हैँ जो विशेष रूप से चर्चाओं के साथ इतिहास का हिस्सा रहे.! कलयुग में तो अब यह आम हो गया है.! स्वार्थ और लोभ इस कदर बढ़ गया है कि व्यक्ति पग पग पर आत्मा की आवाज की अनसुनी कर रहा है.! कहते हैं कुछ तो मजबूरियां रही होंगी यूँ ही कोई बेवफा नहीं होता.!
राजनीति में तो अंतरात्मा की आवाज बहुत सुनाई देती है और नेता लोग अंतरात्मा की आवाज के नाम पर जब चाहे तब सिद्धांतों से समझौता दल बदल ग्रुप बाजी , आराम से अपनी सहूलियत एवं सुविधाओं के हिसाब से कर लेते हैं.? अभी विगत दिनों राज्यसभा चुनाव में हिमाचल,उत्तर प्रदेश एवं , कर्नाटक में अंतरात्मा की आवाज कहकर पाले बदल लिए.? राजनीति मैं तो अंतरात्मा की आवाज का अपना एक लंबा चौड़ा इतिहास है विभिन्न अवसरों पर संसद एवं विधान सभाओं में अंतरात्मा की आवाज का आव्हान भी किया जाता है और बहुतेरे नेता, इस लालच रूपी आव्हान में अपनी असल आवाज को भूल कर चक्कर में आ जाते हैं.! अब आएं भी क्यों ना उन्हें भी अपने भविष्य के बारे में चिंता करने का अधिकार जो है.? सब कुछ आम लोगों के हिसाब से थोड़ी चलेगा.!! लोग है कि बेवजह है नेताओं को बदनाम करते हैं..! कितने लोग हैं जो अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुन रहे हैं..? यह तो भला हो नेताओं का जो अपनी अंतरात्मा की आवाज के नाम पर कुछ तो फैसले कर रहे हैं.!! फिर यह सतयुग थोड़ी ही है जो हर कोई अपनी अंतरात्मा की आवाज सुन ले.! यह कलयुग है भाई.! यहाँ तो बेटे बाप की नहीं सुनते .? पत्नी पति की नहीं सुनती.,भाई भाई का नहीं सुनता,हर कोई अपनी धुन में अपने हिसाब से जी रहा है.! फिर इस दौर में यदि नेता अपनी अंतरात्मा की आवाज के नाम पर अपना फायदा खोजते हैं तो इसमें हर्ज ही क्या है.? अब कुछ विश्लेषक अंतरात्मा की आवाज का भी विश्लेषण करने उतारू हो जाते हैं.! हम तो बस यही कह सकते हैं कि किसी के कृत्यों से अंतरात्मा की आवाज का विश्लेषण करना क्या उचित है. ?
चुनाव के समय भी कई बार मतदाताओं से भी अपील की जाती है कि आप अपनी अंतरात्मा की आवाज पर वोट करें.! अनेकों बार ऐसा लगता है कि कैसे अपने लक्ष्य को साधने के लिए अंतरात्मा की आवाज के नाम का उपयोग किया जाता है.! पर यह क्या कुछ लोग तो अपनी इस आवाज को ही बेच देते हैं.? आखिर इससे भी तो उन्हें कुछ फायदा तो हुआ ना.!
हमारा तो बस यही कहना है की अंतरात्मा की आवाज की यह सुर्खियां हमेशा बनी रहें और लोग, अपनी अंतरात्मा की आवाज को सतत सुनते भी रहें.! क्योंकि एक यही आवाज है जो आपको अपने असल वजूद का एहसास कराती है.!
माणूस माणसाशी बोलताना नकळत हातात हात घेतो. सहज कृती आहे ती. जसा सहज श्वास घेतो तसा सहज जगू शकतो का ? याचे उत्तर बहुधा नाही असेच आहे. जगणे सोपे व्हावे म्हणून प्रत्येकालाच एक मितवा हवा असतो. तो प्रसंगी मित्र , तत्वज्ञ किंवा वाटाड्या, मार्गदर्शक होवू शकेल असा कोणीही आपल्याला हवाच असतो. बरेचदा काय होते , आयुष्यातला प्रॉब्लेम जेवढा मोठा तेवढे समोरचे आव्हान मोठे वाटू लागते. आव्हान आपल्या अहंकारला सुखावण्यासाठीच असते. मुळात अहंकार नसतोच पण तो निर्माण केला जातो. यात मुख्य सहभाग त्या लोकांचा असतो जे त्यांना स्वत:ला आपले हितचिंतक मानतात. एखाद्या छोट्या गोष्टीला डोंगराएवढी करण्यात त्यांचा पुढाकार असतो, Psychoanalyst, गुरु मंडळी, तत्ववेत्ते तुमच्या नसलेल्या problems ना अस्तित्व देतात नाहीतर त्यांचे अस्तित्व धोक्यात येऊ लागेल. अडचणीत जर कोणी आलेच नाही तर ते मदत कोणाला करणार? हा ही प्रश्न उरतोच. खरेतर नक्की काय शोधत असतो आपण? नेमके काय हवे असते आपल्याला? याचा विचार का करत नाही आपण? आपण जे पचायला सोपे ते आणि तेवढेच स्वीकारतो आणि जे पटत नाही ते सोडून देतो. बरेचदा सरावाने आपल्याला कळत जाते काय घ्यायचे आणि काय नाही, पण त्यातही आपली कुवत आड येतेच.
आपण सारेच तसे अर्जुन असतो.आपापल्या कुरूक्षेत्रांवर लढण्यासाठी ढकलले गेलेले अर्जुन..आणि प्रत्येकाला कोणी कृष्ण भेटतोच असे नाही.म्हणून आपल्याला स्वतःमधला कृष्ण चेतवावा लागतो परिस्थितीप्रमाणे.. कृष्णच का ??..तर कृष्ण ही वृत्तीची तटस्थता आहे.आपल्या वर्तनाचा त्रयस्थ राहून विचार करणारी.स्वतःला ओळखण्यासाठी त्रयस्थ व्हा..आरसा व्हा स्वतःचाच ..” प्रत्येकात कृष्ण असतोच .तो कोणाला सापडतो , कोणाला भासमान दिसतो , कोणी कृष्ण होतो तर कोणी कृष्णमय…” अर्जुनालाही कृष्णमय व्हावे लागले तेव्हाच त्याला महाभारतीय युद्धाची आवश्यकता , त्यासाठीचे त्याच्या स्वतःच्या अस्तित्वाचे असणे उमजले…” कृष्णायन ”
पण कृष्णायन म्हणजे गीता नव्हे.स्वतःला ओळखणे , स्वतःच्या अस्तित्वाचा हेतू ओळखणे , स्वतःच्या कोषातून बाहेर काय आहे याची जाणिव होणे म्हणजे गीता.एखादा कोणी जेव्हा म्हणतो की तुझ्याकडे कोणतीच कसलीच प्रतिभा नाही..तेव्हा हा विचार करावा कृष्णाने सांगीतलेला..दुस-या कोणापेक्षा तुम्ही स्वतः स्वतःला जास्त ओळखू शकता..तुमची ताकद , तुमची मर्यादा तुम्हाला माहिती हवी..असे कोणी म्हणल्याने तुमच्याकडे काही येत नाही तसे जातही नाही.ते असतेच अंगभूत.. माऊलींनी देखील स्वतःचा स्वतःमध्ये लपलेल्या अर्जुनापासून विलग होऊन कृष्णरुप होण्याचा प्रवासच जणु ज्ञानेश्वरीत मांडला आहे. आपल्याला काय काय हवे आहे ह्याची बकेट लिस्ट नक्कीच करावी. पण आपल्याकडे काय काय आहे आणि नाही हे आपल्याला कळले आहे का ह्याची लिस्टही जरुर करावी आणि ह्या कळण्यातही किती वाढ झाली हे पण पहावे. आपल्याकडे असलेल्याचा वापर आपण कसा करतो यावर आपले व्यक्तिमत्व घडते. “माझ्याबाबतीच असे का होते”? “त्याला मिळू शकते तर मग मला का नाही”? असे प्रश्न पडत असतील तर आपल्याकडे काय आहे हे आपल्याला कळलेच नाही हे पक्के ओळखावे. आयुष्य अनुभवानी आपल्याला समृद्ध करत असते. आणि श्रीमंत ही ! आपले असमाधान आपल्या अपेक्षांना जन्म देते त्यामुळे असे असमाधानी असण्यापेक्षा अप्रगतच असणेच बरे नाही का?
चोरी फक्त गरजा भागवण्यासाठीच केली जाते असे नाही होत. काहीजण गरजा लपवण्यासाठीही चोर्या करतात. उघडपणे केले तर समाज बहिष्कृत करेल या भितीने चोरुन करतात. काय हवे, काय नको हेच साठत जाते नंतर. काय हवे आहे आणि का हवे आहे ह्याचा विचारच करायला विसरतो आपण. हे नाही, हे सुध्दा नाही. असे सगळेच नाकारून पहा एकदा, सर्व नकार संपले. . . की एक आणि एकच होकार उरेल. हेच हवे असते आपल्याला. हेच असते आपले खरे सत्य, सत्व आणि अस्तित्व. मानवी प्रयत्न , मानवी जीवन , मानवी आकांक्षा या सर्वांमध्ये ..यासाठी प्रयत्न करणा-या व्यक्ती अविस्मरणीय ठरतात आणि त्या व्यक्तींच्या आयुष्याचा परिपाक आपल्याला मानवतेच्या छटांचे दर्शन घडवत राहतो….” पिंडी ते ब्रम्हांडी ” जे मनात उपजते तेच आपण अंगिकारतो.हिग्ज बोसाॅन , क्वांटम थिअरी , ब्लॅक होल या संकल्पना ज्ञानेश्वरांनी अभ्यासल्या होत्या की नाही हे माहिती नाही पण ” मी विश्वरुप आहे ” ही कल्पना त्यांनी प्रत्यक्षात आणली.प्रत्येकाने आहे आणि नाही यामधला अवकाश समजून घेतला पाहिजे ही जाणिव जिथे उमगते…तिथे कृष्ण भेटतो. ….