हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 102 – देश-परदेश – Working Breakfast ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 102 ☆ देश-परदेश – Working Breakfast ☆ श्री राकेश कुमार ☆

प्रातः काल के समय खाए जाने वाले कलेवा/नाश्ता आदि को ब्रेकफास्ट कहा जाता है। सही भी है, पूरी रात्रि बिना खाए पिए रहकर, सुबह कुछ ग्रहण करने से “उपवास को तोड़ना” ही कह सकते हैं।

दफ्तर या किसी कारण जल्दी या कम समय में कुछ ग्रहण करने को वर्किंग ब्रेकफास्ट कहते हैं। फास्ट फूड भी इसी श्रेणी का हिस्सा है।

पूर्व में बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, हॉस्पिटल आदि के आस पास नाश्ता करने वालों की दुकानें होती थी। अब तो गलियों में भी नाश्ते की दुकानें सजी रहती हैं। घर का स्वच्छ और पौष्टिक नाश्ता छोड़ दिन का आरंभ ही गंदे बाजारू नाश्ते से होने लगी है।

प्रातः भ्रमण वाली टोलियां भी, प्रतिदिन चाय का स्वाद इन्हीं नाश्ता दुकानों से ग्रहण करते हैं। कुछ टोलियां प्रति रविवार या किसी साथी के जन्मदिन, विवाह वर्षगांठ के नाम से सुबह सुबह ही सड़क किनारे समोसे, पोहा आदि का स्वाद लेते हुए दृष्टिगोचर हो जाती हैं।

हमारे गुलाबी शहर में तो वर्षों पुराने शहर वाले प्रसिद्ध प्रतिष्ठानों ने अपने नाम को भुनाने के लिए शहर के सबर्ब क्षेत्रों में भी अपनी शाखाएं स्थापित कर ली हैं।

जन साधारण नाश्ता करते हुए अपने परिवार के साथ मिल जायेंगे, पूछे जाने पर कहते है, कभी कभी “चेंज” (स्वाद परिवर्तन) के लिए बाहर आ जाते हैं।

प्रातः काल मंदिर जाने वालों से बाहर जाकर नाश्ता करने वालों की संख्या अधिक हो गई है। केमिस्ट की दुकानें भी नौ बजे से पहले नहीं खुलती है, परंतु ये नाश्ता विक्रेता सात बजे से पूर्व आपके स्वागत के लिए आतुर रहते हैं। पैसा और समय व्यय कर जिम से निकल वापसी में “जलेबी और कचौरी” खाकर अपनी मेहनत पर पानी फेर देना आज की संस्कृति का हिस्सा बन चुका है।

प्रातः भ्रमण टोलियों की देखा देखी, हमारे व्हाट्स ऐप समूह के एडमिन भी “नाश्ते पर मिलते है”, मुहिम चला रहें हैं। आज ही एक ऐसे कार्यक्रम में हमने भी शिरकत कर गंदे तेल में बने हुए गरमा गर्म नाश्ते का मुफ्त में लुत्फ उठाया है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #256 ☆ अधर्म… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 256 ?

☆ अधर्म ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

दुष्काळाच्या झळा पाहुनी पाझर होऊ

हसवायाचे व्रत घेऊनी जोकर होऊ

*

धर्म आपला माणुसकीचा एकच आहे

सांग कशाला हवी दुष्मनी मैतर होऊ

*

कसा पहावा अधर्म येथे या डोळ्यांनी

तिसरा डोळा उघडू आणिक शेखर होऊ

*

पिझ्झा बर्गर नको व्हायला आता आपण

गरिबाघरची कायम आता भाकर होऊ

*

रस्त्यावरती पोर कुणाचे उघड्यावरती

थंडी आहे त्याच्यासाठी लोकर होऊ

*

माझ्यासाठी कायम झाला बाप फाटका

त्याच्यासाठी आता कोरे धोतर होऊ

*

पोट मारुनी पैसा पैसा जोडत गेला

त्याच्यासाठी भक्कम आपण लॉकर होऊ

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – पितृपक्ष…– ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? – पितृपक्ष…– ? ☆ श्री आशिष  बिवलकर ☆

हिंदू धर्म सांगे | पितरांचे ध्यान |

भोजनाचे पान | पितृपक्ष ||१||

*

सात्विक विचार ! चालवती श्राद्ध |

मुक्तीचे प्रारब्ध ! पूर्वजांचे ||२||

*

पूर्वपार त्यांनी | जपली संस्कृती |

जीवन स्विकृती | संस्कारांची ||३||

*

काकस्पर्शसाठी | कावकाव साद |

दयावे आशिर्वाद | वारसांना ||४||

*

पंधरवाड्यात | चाले दानधर्म |

दातृवाचे कर्म | स्मरणाने ||५||

*

चौऱ्याऐंशी लक्ष | योनींचे भ्रमण |

जन्मलो आपण | मुक्तीसाठी ||६||

*

हिंदूनी जपावी | संस्कृती महान !

पितरांचे भान | कृतज्ञता ||७||

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 208 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 208 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

एक हजार श्यामकर्ण अश्व

जो

उन्हें दिये थे वरुण ने ।

कालांतर में

नदी में बह गये

चार सौ अश्व

(क्या पता कैसे ?)

अब

संसार में

श्यामकर्ण अश्व

केवल छै सौ ही हैं

जो तुम्हें प्राप्त हो गये हैं ।

गालव ने पूछा-

‘तो अब

क्या है

शेष गुरु दक्षिणा की पूर्ति

का उपाय?’

गरुड़ ने

मुस्कान बिखेरते हुए कहा

‘प्राप्त अश्वों के साथ

माधवी को भी

समर्पित कर दो

विश्वामित्र को ।

निदान

गालव ने

वही किया

जो गरुड़ ने कहा।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 208 – “कैसे क्या फिसला…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत कैसे क्या फिसला...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 208 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “कैसे क्या फिसला...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

कितना है बौराया

यह अघ – जग

लिखते रहे हैं

महेश अनघ*

खिड़की छू बादल

का उड़जाना

कई -कई आँखो से

छिप जाना

 

कैसे क्या फिसला

निगाह से

दृश्य नया यह

अलग – थलग

 

गिनती में थे

कई मुखर सपने

वाणी में बसते

आये अपने

 

हवादार कच्चे

खपरैल से

प्रवहमान शब्दों

के दुख लगभग

 

समय से जुड़ी

एक सीमा थी

जीवन संचालन

का बीमा थी

 

सुबिधाओं की

बानगी बाली

डगर मिली लेकिन

रही – डगमग

 * महेश अनघ, सारिका में दुष्यंत कुमार के बाद  गजलों के कवि के रूप में प्रकाशित होने वाले एकमात्र कवि ।

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

22-09-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

स्व. वसंत काशीकर

☆ कहाँ गए वे लोग # ३० ☆

☆ “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

‘कोरोना ने लील लिया एक चमकते सितारे – रंगकर्मी स्व. बसंत काशीकर को’

वसंत काशीकर जी, नाट्य जगत का जाना पहचाना नाम जिन्होंने अपनी नाट्य कला से संस्कारधानी जबलपुर के साथ पूरे देश मे हर दर्शक के दिल में अमिट छाप छोड़ी। जबलपुर में रंगमंच और रंगकर्म की एक लंबी और समृद्ध परंपरा रही है। नगर में अनेक नाट्य-संस्थाएं काम कर रही हैं और ये एक-दूसरे के समानांतर नहीं, बल्कि साथ-साथ हैं। भौतिकी का सर्वमान्य सिद्धांत है कि समानांतर क्रम में जुड़ने पर परिणामी प्रतिरोध कम हो जाता है और श्रेणी क्रम में यह इंडिजुअल्स के योग के बराबर हो जाता है। प्रतिरोध क्षमता बढ़ जाती है। सामने लहर बहुत बड़ी हो तो लोग हाथ जोड़कर श्रृंखलाबद्ध हो जाते हैं। समय के इस मोड़ पर जबलपुर की रंग संस्थाओं ने यही किया है। 

वसंत काशीकर जितने बड़े कलाकार थे उतने ही बड़े निर्देशक भी थे। रंगमंच के सम्पूर्ण क्राफ्ट पर उनकी पकड़ दिखायी देती थी। उन्होंने विवेचना के लिए कोई 30 से भी ज्यादा नाटकों का निर्देशन किया। उनके द्वारा निर्देशित प्रमुख नाटक हैं, मोटेराम का सत्याग्रह, रानी नागफनी की कहानी, पोस्टर, बैरिस्टर, महाब्राह्मण, दूसरी आजादी, सूपना का सपना, मनबोध बाबू, मायाजाल, एक मामूली आदमी, आँखों देखा गदर, मित्र और मौसाजी जैहिंद। सब लोगों के बीच वे मौसाजी जैहिंद बन गए थे। मौसाजी जैहिंद में उनका गजब का अभिनय था। 

काशीकर ने नाटक भी लिखे और कहानियों का नाट्य रूपांतर भी किया। हरिशंकर परसाई के फैंटेसी उपन्यास रानी नागफनी की कहानी और इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर जैसी रचनाओं का उन्होंने प्रभावी रूपांतर किया था। जब वे स्टेट बैंक में अधिकारी थे तो उनके निर्देशन में हरिशंकर परसाई के फैंटेसी उपन्यास रानी नागफनी के नाट्य रूपांतरण हमारा भी सहयोग रहा, नाटक को संगीतमय बनाने में और आंचलिक भाषा में हम लोगों ने मिलकर बीच-बीच में खूब गीत बना कर डाले थे। भोपाल में रवींद्र भवन में मंचन के बाद बेस्ट नाटक का अवार्ड भी मिला था, याद आता है उन दिनों का स्टेट बैंक नाट्य समारोह… 

स्टेट बैंक द्वारा तीन दिवसीय नाट्य स्पर्धा समारोह का आयोजन होता था। सन 1984 में भारतीय स्टेट बैंक ने प्रदेश में स्थापित अपने क्षेत्रीय कार्यालयों एवं स्थानीय प्रधान कार्यालयों के कर्मचारियों के बीच राजभाषा मास के अंतर्गत नाट्य स्पर्धा की शुरुआत की जो अनवरत 25 वर्षों से अधिक चलती रही।इस नाट्य समारोह के प्रणेता श्री एच, एम, शारदा ( सेवानिवृत्त मुख्य महाप्रबंधक ) थे। उन्होंने अपने रायपुर में पदस्थापना के समय स्टेट बैंक नाट्य मंच की स्थापना की थी। श्री शारदा स्वयं “पारिजात ” नाम से अपना लेखन कार्य करते थे। इस नाट्य समारोह में नाटकों की प्रस्तुति किसी पेशेवर कलाकारों से कम नहीं होती थी। इस समारोह का नगर के नाट्य प्रेमियों में आकर्षण बढ़ता चला गया। स्टेट बैंक का नाट्य समारोह भोपाल के लिए इतना लोकप्रिय हो गया कि प्रतिवर्ष राजभाषा मास आते ही नाट्य प्रेमियों के लिए इसकी प्रतीक्षा और उत्सुकता रहती। नाट्य कर्मी महीनों पहले से उसकी तैयारी में जुट जाते। प्रबंधन की ओर से सभी आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध करायी जाती थी। यह स्पर्धा रायपुर, जबलपुर, ग्वालियर, भोपाल आंचलिक कार्यालयों की शाखाओं एवं स्थानीय प्रधान कार्यालय के कर्मचारियों के मध्य आयोजित होती थी। स्टेट बैंक नाट्य समारोह में सैया भये कोतवाल, निर्णय रुका हुआ, दुलारी बाई, एक था गधा, हमीर की सुबह, सूर्यास्त, चेतना घात, रात्री भोज, कफ़न, मारीच वध, रामलीला, संध्या छाया जैसे आदि लोकप्रिय नाटकों का मंचन किया गया। इन समारोहों में प्रसिद्ध रंगकर्मीं एवं निर्देशक बंसी कौल, राजेंद्र गुप्ता, हबीब तनवीर, प्रभात गांगुली, एम, के, रैना, अलखनंदन, राजीव वर्मा, जयंत देशमुख, आलोक चटर्जी, जावेद जैदी, सतीश मेहता, संजय मेहता, अनूप जोशी, पापिया आंटी, सरोज शर्मा, स्वस्तिक चक्रवर्ती जैसे स्वनामधन्य नाट्य जगत की हस्तियां साक्षी बनी और निर्णायक की भूमिका रही है। स्टेट बैंक नाट्य समारोह ने जो कलाकार भोपाल के नाट्य जगत को दिए वे आज भी सक्रिय है। बसंत काशीकर के निर्देशन में जबलपुर आंचलिक कार्यालय का नाट्य दल इस समारोह में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेता था और डंके की चोट में अनेक पुरस्कार सम्मान लेकर नाट्य समारोह से लौटता था। नाटकों में संगीत, गायन और मंच सज्जा भी बैंक कर्मियों द्वारा ही की जाती थी। जबलपुर आंचलिक कार्यालय के नाटक को देखने खूब भीड़ उमड़ती थी। इस नाट्य समारोह ने बड़े बड़े रंगकर्मी और नाट्य निर्देशक दिए जिन्होंने फिल्मी दुनिया में भी खूब नाम कमाया।

मराठी संस्कृति और संस्कारों के कारण काशीकर का कला के प्रति स्वाभाविक रुझान था। सादगी भरा जीवन था और उनका मित्र संसार बड़ा था। परस्परता उनका स्वभाव था। अहंकार और अकड़ न थी। सहजता थी। जुटकर काम करने की आदत थी। प्रायः यह देखने में आता है कि जो कला के किसी क्षेत्र में गहरे उतर जाते हैं, वे अपने अन्य दायित्वों की तरफ पीठ कर लेते हैं, पर उन्होंने पारिवारिक जिम्मेदारियों से कभी मुख नहीं मोड़ा। जब वे अभिनय करते थे, तो उनका सर्वांग बोलने लगता था। संवाद भर उनके किरदार को नहीं खोलते थे, बल्कि उनका अंग-संचालन और हाव-भाव भी किरदार को जीवंत बनाने के काम में सन्नद्ध हो जाया करते थे। लेखक की रचना को मंच पर साकार करने और उसकी व्यंजनाओं को डिकोड करने का काम उन्होंने अंजाम दिया। कला की जीवन के साथ संगति बैठाई। यह कठिन काम है, पर काशीकर ने यह काम दिल से ईमानदारी से करके दिखाया।

नाट्य जगत का चमकता सितारा जिसने अपनी नाट्य कला से संस्कारधानी जबलपुर के हर दर्शक के दिल में अमिट छाप छोड़ी । प्रदेश ही नहीं बल्कि भारत के विभिन्न प्रांतों में जाकर अपनी कला से लोगों को सम्मोहित करने वाला हसमुख स्वभाव के धनी भाई बसंत काशीकर को दिनांक १४ मई २०२१ को कोरोना ने लील लिया और वे नश्वर देह त्याग कर परमपिता में समाहित हो गये।

श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 193 ☆ # “रिटायरमेंट के बाद” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “रिटायरमेंट के बाद”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 193 ☆

☆ # “रिटायरमेंट के बाद” # ☆

रिटायरमेंट के पहले

हर व्यक्ति में

बहुत सारी दबी हुई

इच्छाएं, तमन्नाएं

अधूरे सपने, अधूरी आशाएं

होती हैं   

जो उसे

हरदम, हरपल

अंदर ही अंदर

कचोटती हैं  

वह रिटायरमेंट के

दिन का

बेसब्री से इंतज़ार करता है

सकुशल रिटायर होने क लिए

ईश्वर से प्रार्थना

हर रोज करता है

उसकी आंखों में

अनगिनत सुंदर

सपने होते हैं  

कुछ पाने के लिए

राह देखते

घर मे अपने होते हैं

वह एक एक दिन

बड़ी बेसब्री से बिताता है

अपने रिटायरमेंट की तारीख

घर मे और मित्रों मे

खुशी खुशी बताता है

 

जब रिटायर होकर

घर जाता है तब

खूब खुशीयां मनाता है

लेकिन उसका यह सुंदर सपना

अल्प समय में टूट जाता है

घर और बाहर

लगता है जैसे

कुछ छूट जाता है

जब घर में हर कोई उससे

दूरी बनाता है

वह सबके लिए अवांछित

हो जाता है

पत्नी की आंखों में

पहले सा प्यार नहीं होता

बहू-बेटे का सम्मानपूर्वक

व्यवहार नही होता

अड़ोस-पड़ोस वाले

देखकर मुंह फेर लेते हैं

संगी साथी भी तवज्जो

नही देते हैं

वह एकांत प्रिय हो जाता है

उसे अकेलापन

अंदर ही अंदर खाता है

तब उसे नौकरी करना

और रिटायरमेंट होने का

फर्क समझ मे आता है

 

दिन में रात का और रात में

दिन का इंतजार करता है

पल पल जीता है

पल पल मरता है

और कुछ लोग –

कोई क्लब में,

कोई बार में,

कोई चकाचौंध वाले

संसार में

ढूंढता है

कुछ पल का सुकून

किसी को

ईश्वर को पाने की

होती है धुन

कुछ लोग अवसाद में

डूब जाते हैं

कुछ लोग हताशा मे

टूट जाते हैं

 

कुछ किस्मत के मारे

निराशा मे डूबकर

दिल ही दिल मे घुट कर

अपनों के तानों से

रोज के अपमानों से

हार जाते हैं

वक्त की मार खाते हैं

और बेजान, बेवजह जीते हुए

समय पूर्व बूढ़े होकर

चुपचाप मर जाते हैं

और

कुछ लोग

जिंदादिली से जीते हुए

सुबह शाम

थोड़ा थोड़ा पीते हुए

अपने रूचि मे व्यस्त होकर

सामाजिक

रचनात्मक

कार्यों मे खोकर

कुछ ऐसा अनोखा

उत्कृष्ट कर जाते हैं

जिससे लोगों के दिलों मे

घर कर जाते हैं

और

मरने के बाद भी

अपना नाम अमर

कर जाते हैं/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – यादें… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता यादें…‘।)

☆ कविता  – यादें… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆ 

चांद तारों से पता, पूछता हूं मैं तेरा,

तेरी खुशबू से पता, पूछता हूं मैं तेरा,

तेरी बातें, तेरी यादें, याद आती हैं मुझे,

तेरी गलियों से पता, पूछता हूं मैं तेरा,

चांद तारों से…

*

तुझसे बिछड़े, जाने, कितने, जमाने हो गए,

तुझको यादों में छुपा, तेरे फसाने खो गए,

अब तसव्वर में बसा, बस, चेहरा तेरा,

चांद तारों से…

*

कितना पानी बह गया, कब हम  मिले,

कह न पाया, बात, बढ़ते रहे फासले,

आजा कह दूं बात, कह रहा दिल मेरा,

चांद तारों से..

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 190 ☆ प्रेम… प्रेमकाव्य… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 190 ? 

☆ प्रेम… प्रेमकाव्य… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

(अष्टाक्षरी…)

प्रेम… प्रेमकाव्य…

प्रेम काय असतं…

 

प्रेम एक, अडीच अक्षराचं पत्र

प्रेम एक, मंत्रमुग्ध करणार स्तोत्र

प्रेम म्हणजे, आकर्षण

प्रेम म्हणजे, समर्पण.!!

 *

प्रेम एक, निर्मळ सरिता

प्रेम एक,  मुक्त कविता.!!

 *

नकोत प्रेमात वासना

असाव्या फक्त संवेदना.!!

 *

नुसते शरीराचे, आकर्षण नसावे

प्रेमाने प्रेमाला, हस्तगत करावे.!!

 *

विचार करावा, कोमल मनाचा

प्रेमात राहून, मन जिंकण्याचा.!!

 *

नकोत नुसते, गलिच्छ इशारे

प्रेमासाठी मन, शुद्ध ठेवा रे.!!

 *

गंध असल्यावर

फुले हातात असतात

गंध संपल्यावर

फुले कचऱ्यात सापडतात.!!

 *

प्रेमाचे सूत्र

मुळीच असे नसते

असे असेल तर

प्रेम लगेच संपते.!!

 *

वासनांध प्रेमाला

हवस म्हणतात

त्यात मग कुठे

बलात्कार होतात.!!

 *

म्हणून सांगतो

प्रेम अपराध नसतो

निर्मळ प्रेम

मनाचे मन जोपासतो.!!

मात्र प्रेमात पडून, वेळ निभावणे

गरज संपली की, साथ सोडणे.!!

 *

हा मात्र अक्षम्य, गुन्हा ठरतो

एखाद्याचा मृत्यू, हकनाक होतो.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 258 ☆ व्यंग्य – मनुष्यों में आहार-श्रृंखला ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘मनुष्यों में आहार-श्रृंखला । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 258 ☆

☆ व्यंग्य ☆ मनुष्यों में आहार-श्रृंखला 

आदमी अपनी उपलब्धियों की कितनी ही डींग मार ले, कभी न कभी उसे प्रकृति की अद्भुत व्यवस्था के सामने नतमस्तक होना पड़ता है। प्रकृति की ऐसी ही एक व्यवस्था ‘फूड-चेन’ यानी आहार-श्रृंखला है जिसके अनुसार पोषक-तत्व और ऊर्जा एक जीव से दूसरे जीव में स्थानांतरित होती है। जब एक जीव दूसरे को अपना भोजन बनाता है तो पोषक-तत्वों और ऊर्जा का स्थानांतरण पहले जीव से दूसरे जीव में हो जाता है। सन्देह होता है कि कहीं इस प्रकृति-प्रदत्त ऊर्जा को ही हम ‘आत्मा’ कह कर तो नहीं पुकारने लगे,जिसे भगवद्गीता में अच्छेद्य,अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य कहा गया है।

विज्ञान के अनुसार ऊर्जा न तो निर्मित की जा सकती है, न ही वह नष्ट होती है। वह केवल जीवों के बीच में हस्तांतरित होती है। ऊर्जा के इस हस्तांतरण के कई स्तर होते हैं। सबसे निचले स्तर पर पौधे होते हैं जिन्हें उत्पादक या प्रोड्यूसर कहा जाता है क्योंकि ये सूर्य से ऊर्जा प्राप्त कर अपना भोजन तैयार करते हैं। इस प्रक्रिया को ‘फोटोसिंथेसिस’ कहते हैं। इनके ऊपर उपभोक्ताओं की अनेक श्रेणियां होती है जिन्हें प्राथमिक, द्वितीयक, तृतीयक उपभोक्ता कहा जाता है। उदाहरण के लिए, घास उत्पादकों की श्रेणी में आती है, उसे खाकर एक टिड्डा पोषक-तत्व और ऊर्जा प्राप्त करता है। टिड्डे को चूहा, चूहे को सांप और सांप को उकाब या गरुड़ खाता है। इस प्रकार ऊर्जा के स्थानांतरण का क्रम चलता रहता है और आहार-श्रृंखला का निर्माण होता जाता है। श्रृंखला के अन्तिम छोर पर ‘स्केवेंजर्स’ यानी सियार और लकड़बग्घे जैसे सफाई करने वाले जीव और  ‘डीकंपोज़र्स’ यानी मरे पशुओं को खाकर मिट्टी में बदल देने वाले फंगस और बैक्टीरिया जैसे जीव होते हैं।

जब ‘डीकंपोज़र्स’ जीव के शरीर को मिट्टी में परिवर्तित कर देते हैं तो ऊर्जा पुनः मिट्टी की शक्ल में प्रकृति की व्यवस्था में लौट आती है और चक्र पूरा हो जाता है।
मनुष्य भी इसी प्रकार ऊर्जा प्राप्त करता है। वह शाकाहारी भी होता है और मांसाहारी भी। इसलिए उसे प्राथमिक उपभोक्ता या द्वितीयक (अथवा  तृतीयक)उपभोक्ता कहा जा सकता है।

लेकिन मनुष्य अन्य जीवों की तुलना में अधिक बुद्धि-संपन्न प्राणी है, प्रकृति के द्वारा निर्मित आहार-श्रृंखला से उसका पेट नहीं भरता। इसलिए उसने अपने लिए प्रकृति की आहार- श्रृंखला से इतर आहार-श्रृंखला निर्मित की है जो उसे अधिक पोषण और ऊर्जा प्रदान करती है। इस श्रृंखला को ‘उत्कोच-श्रृंखला’ कहा जा सकता है। इस आहार-श्रृंखला के उपभोक्ता कुछ खास पदों पर बैठे खुशकिस्मत लोग होते हैं जब कि इसमें उत्पादक विभिन्न व्यवसायों में लगे बहुसंख्यक लोग होते हैं।

मनुष्य के द्वारा निर्मित इस आहार- श्रृंखला में उत्पादक से ऊर्जा और पोषण का संग्रह सबसे निचले अधिकारी या सबसे ऊपर के अधिकारी के द्वारा किया जाता है। इसके बाद ऊर्जा का स्थानांतरण उचित अंशों में नीचे से ऊपर की ओर या ऊपर से नीचे की ओर होता है। इस क्रम में थोड़ी बहुत हिंसा या क्रूरता उत्पादक के साथ ही होती है। उसके बाद पोषक-तत्वों का हस्तांतरण प्रेमपूर्वक, ईमानदारी से होता है, जबकि अन्य जीवों में उपभोग के प्रत्येक स्तर पर हिंसा और क्रूरता का व्यवहार होता है। इस दृष्टि से मनुष्य के द्वारा निर्मित आहार-श्रृंखला प्रकृति की आहार- श्रृंखला की तुलना में अधिक  मानवीय कही जा सकती है।

मनुष्यों की आहार-श्रृंखला में ‘स्केवेंजर्स’ भी होते हैं जो आहार-ग्रहण की प्रक्रिया के सबूतों को मिटाते हैं। इसी प्रकार इसमें ‘डीकंपोज़र्स’ होते हैं जो मरे-गिरे मनुष्य को अपना भोजन बनाकर उसे मिट्टी बना देते हैं।

मनुष्य को इस श्रृंखला में अपने संचित पोषक-तत्वों को चोरों, लुटेरों,ई.डी.,इनकम टैक्स जैसे शिकारियों से बचाना पड़ता है। इनसे बच गये तो फिर मनुष्य को यह सुविधा मिलती है कि अपने पोषक-तत्वों को अपनी सन्तानों को हस्तांतरित कर सके और अपनी तरह उनके जीवन को भी खुशहाल बना सके।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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