मराठी साहित्य – विविधा ☆ गीता जशी समजली तशी… – गीता आणि समत्व – भाग – ५ ☆ सौ शालिनी जोशी ☆

सौ शालिनी जोशी

☆ गीता जशी समजली तशी… – गीता आणि समत्व – भाग – ५ ☆ सौ शालिनी जोशी

आपले जीवन विरोधी गोष्टींनी युक्त आहे. इथे सुख आहे आणि दुःखही आहे. तसेच राग- द्वेष, लाभ-अलाभ, जय- पराजय, शीत- उष्ण असे द्वैत आहे. यापैकी एक गोष्टच एका वेळी साध्य असते. आपली स्वाभाविक ओढ सुखाकडे. ते हातात आल्यावर निसटून जाईल की काय भीती आणि सुख मिळवण्यासाठी केलेले श्रम दुःखच निर्माण करतात. सुखाचे दुःख कसे होते कळतच नाही. जयाच्या उन्मादात पराजय पुढे ठाकतो. साध्याच्या वाटेवर अडचणी येतात, सध्याचे असाध्य होते. असा हा लपाछपीचा खेळ म्हणजे जीवन. माणूस यातच गुंततो आणि खऱ्या शाश्वत सुखाला मुकतो. अशा वेळी या दोन्ही गोष्टी कशा सांभाळाव्या आणि आनंदी जीवन कसे जगावे याचा उपाय गीता सांगते. तो म्हणजे समत्व,समानता.

सुख म्हणजे इंद्रियांना अनुकूल आणि इंद्रियांना प्रतिकुल ते दुःख. (ख- इंद्रिय). या दोन्हीचा परिणाम मनावर होऊ द्यायचा नाही. मन स्थिर असेल तर बुद्धी ही स्थिर राहते. कार्याविषयी दृढभाव निर्माण होतो. इंद्रियांच्या प्रतिक्रिया नाहीत. हळहळ नाही, हुरळून जाणे नाही. सुखदुःख येवो, यश मिळो अथवा न मिळो अशा विरुद्ध परिस्थितीतही मनाची चलबिचल न होता स्थिर राहणे हेच गीतेत सांगितलेले समत्व. गीता म्हणते,’ सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यतेl’ म्हणजेच ‘सुखदुःखे समे कृत्वा लाभा लाभौ जयाजयौl’ अशी ही स्थिती. शीत- उष्ण, शुभ -अशुभ, राग- द्वेष, प्रिय-अप्रिय, निंदा-स्तुती, मान- अपमान असे प्रसंग येतच असतात. कोणतीही वेळ आली तरी जो सुखाने हर्षित होत नाही. दुःखाने खचून जात नाही त्यालाच समत्व साधले. अशा बुद्धीने केलेले कर्म हे निष्काम होते. कर्मातील मनाचा असा समतोलपणा हाच निष्काम कर्मयोग आणि हे ज्याला साधलं तोच श्रेष्ठ भक्त, गुणातीत, जीवनमुक्त.

हेच समत्व वस्तू व प्राणीमात्रांविषयी, सर्व भूतान् विषयी असावे असे गीता सांगते. वस्तू विषयी म्हणजे ‘समलोष्ठाश्मकांचन:’ (६/८)अशी स्थिती. दगड,माती आणि सोन या तीनही विषयी समत्व. माणसाला सोन्याची आसक्ती असते. ती नसणे म्हणजे ‘धनवित्त आम्हा मृत्तिके समान’. असा माणूस अनासक्त असतो. तसेच व्यक्तीविषयी समत्व ही गीता सांगते ‘सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबंधुषु l साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यतेl(६/९). निरपेक्ष मित्र,उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष करणारा, हितकारक बंधू, पापी आणि साधू पुरुष यांचे विषयी समभाव असणारा ब्राह्मण, गाय, कुत्रा, चांडाळ यातही समत्व पाहतो. कुणाच्या द्वेष करत नाही. वरवर ते भिन्न दिसले तरी सर्वांमध्ये एकच परमेश्वर आहे या भावनेने सर्वांचा योग्य आदर करणे हीच समत्वबुद्धी. भगवंत स्वतःही समत्त्वाचे आचरण करतात. ‘समोsहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योsस्ति न प्रिय:l’ ‘सर्व भूतात मी समभावाने व्यापून आहे. मला कोणी अप्रिय नाही आणि प्रिय नाही. हा भेद माझ्या ठिकाणी नाही. आत्मरूपाने मी सर्वांना व्यापून आहे.

सर्व भूतात भगवंत तोच माझ्यात आहे आणि मी त्यांच्यात हा सर्व भुतात्मभाव. ‘ जे जे देखे भूत ते ते भगवंत’ मान्य झाली की राग द्वेष कुणाच्या करणार ? सर्वत्र एकच परमात्मा पाहणे हेच समत्व. असे समत्व प्राप्त झाले की दृष्टिच बदलते. गत काळाचा शोक नाही, भविष्याची चिंता नाही. वर्तमानात सर्वांशी समत्वाने व्यवहार. प्राप्त कर्म उत्कृष्टपणे करणे हाच स्वधर्म होतो. शत्रु- मित्र आणि लाभ-अलाभ इत्यादी सर्व भेद स्वार्थापोटी. पण जेथे स्वार्थच नाही तिथे सर्वच समत्व. दोषांची निंदा नाही, गुणांचे स्तुती नाही दोन्ही सारखेच. आपपर भाव नाही. अशीही भेद रहित अवस्था म्हणजे सर्व सुख, मोक्ष.

असा हा जीवनाला आवश्यक विचार गीता सांगते. त्रासदायक गोष्टी टाळून शांत व सुखी जीवनाचा मार्ग दाखवते. अध्यात्माची दृष्टी देते. अर्जुनालाही युद्धातील जय पराजया विषयी समत्व सांगितले. युद्धात समोर येणारा कोणीही असला तरी शत्रूच असतो. ही समत्वबुद्धी सांगून अशा समत्व योगाने कर्म हेच कौशल्य असेही सांगितले. असे निष्काम बुद्धीने केलेल्या कर्माचे अकर्म होते. ते पाप पुण्य द्यायला शिल्लक राहत नाही. अशा प्रकारे अर्जुनाबरोबर सर्वांनाच गीता नवीन विचार देते. सत्कर्म, स्वधर्म, समत्व हा गीतेचा पायाच आहे.

©  सौ. शालिनी जोशी

संपर्क – फ्लेट न .3 .राधाप्रिया  टेरेसेस, समर्थपथ, प्रतिज्ञा मंगल कार्यालयाजवळ, कर्वेनगर, पुणे, 411052.

मोबाईल नं.—9850909383

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #264 ☆ महाकुंभ – रिश्ते-नाते… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख महाकुंभ – रिश्ते-नाते…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 264 ☆

☆ महाकुंभ – रिश्ते-नाते… ☆

महाकुंभ देश में हरिद्वार, उज्जैन, नासिक व प्रयागराज चार स्थानों पर बारह वर्ष के पश्चात् आयोजित किया जाता है। यह विश्व का सबसे बड़ा आध्यात्मिक व अद्वितीय मेला है जो क्रमानुसार चारों तीर्थ-स्थानों पर आयोजित किया जाता है। कुंभ मेला चार प्रकार का होता है–कुंभ, अर्द्धकुंभ, पूर्णकुंभ व महाकुंभ में खगोलीय कारणों के आधार पर भिन्नता होती है। अर्द्धकुंभ मेला 6 वर्ष पश्चात् हरिद्वार व प्रयागराज में लगता है और महाकुंभ पूर्णकुंभ के पश्चात् 144 वर्ष में एकबार लगता है।

ज्योतिष के अनुसार गुरू बृहस्पति प्रत्येक राशि में मेष से मीन तक गोचर करने में 12 वर्ष लगते हैं। इसी कारण 12 वर्ष पश्चात् महाकुंभ का आयोजन होता है। देव-असुर युद्ध 12 दिन अर्थात् मृत्यु लोक के 12 वर्ष तक हुआ और अमृत कलश से चंद बूंदे प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक व उज्जैन में गिरी और उन्हीं स्थानों पर कुंभ का आयोजन होने लगा।

महाकुंभ 2025 का आयोजन 13 जनवरी से 26 फरवरी तक प्रयागराज में होगा। आस्था के संगम में जो भी डुबकी लगाता है; उसे आध्यात्मिक ऊर्जा, आत्मशुद्धि व मोक्ष की प्राप्ति होती है। महाकुंभ मेला इस वर्ष 45 दिन तक चलेगा। यह पौष पूर्णिमा से प्रारंभ होकर महाशिवरात्रि तक चलेगा। सर्वप्रथम साधु-संतों का शाही स्नान होता है। तत्पश्चात्सब लोग मिलकर प्रेम से डुबकी लगाते हैं तथा पुण्य प्राप्त करते हैं। उस समय उनके हृदय में केवल आस्था, श्रद्धा व भक्ति भाव व्याप्त रहता है। वे स्व-पर, राग-द्वेष व रिश्ते-नातों से ऊपर उठ जाते हैं। उनके हृदय में वसुधैव कुटुंबकम् का भाव व्याप्त रहता है। वास्तव में घर-परिवार में प्रेम, सौहार्द, समन्वय व सामंजस्यता स्थापित करना श्रेयस्कर है।

यदि हम इसे परिभाषित करें तो मिलजुल कर रहना, एक-दूसरे की भावनाओं को समझना व सम्मान देना ही महाकुंभ है। इस स्थिति में मानव तुच्छ स्वार्थों व संकीर्ण मानसिकता का त्याग कर बहुत ऊँचा उठ जाता है। संवेदनशीलता हमारे मनोभावों को संस्कारित वह शुद्धता प्रदान करती है और वे संस्कार हमें संस्कृति से प्राप्त होते हैं। संस्कृति हमें सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की ओर ले जाती है और जीने की राह दर्शाती है। इससे हमारे हृदय में दैवीय भाव उत्पन्न होते हैं। हम मानव-मात्र में सृष्टि-नियंता की सत्ता का आभास पाते हैं।

ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या की अवधारणा से तो आप सब परिचित होंगे। माया के कारण यह संसार हमें मिथ्या भासता है। माया रूपी ठगिनी पग-पग पर हाट लगाय बैठी है तथा इसने सबको अपने मोह-पाश में बाँध रखा है। प्रकृति पल-पल रंग बदलती है। “मौसम भी बदलते हैं, दिन-रात बदलते हैं/ यह समाँ बदलता है, जज़्बात बदलते हैं/ यादों से महज़ दिल को मिलता नहीं सुक़ून/ ग़र साथ हो सुरों का, नग़मात बदलते हैं।”

समय परिवर्तनशील है, निरंतर चलता रहता है। सुख-दु:ख दोनों का चोली दामन का साथ है तथा एक के जाने के बाद दूसरा दस्तक देता है। संसार में सब मिथ्या है, कुछ भी स्थायी नहीं है। “यह किराए का मकान है/ कौन कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।” इस नश्वर संसार में कुछ भी सदा  रहने वाला नहीं है। इसलिए मानव को आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे निरंतर आगे बढ़ना चाहिए। ‘एकला चलो रे’ की राह पर चलकर मानव अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है।

मानव के लिए सबके साथ मिलकर रहना बहुत कारग़र है। आजकल रिश्ते-नाते सब स्वार्थ में आकण्ठ डूबे हुए हैं। कोई किसी का हितैषी और विश्वास के क़ाबिल नहीं है। रिश्तों को मानो दीमक चाट गई है। घर-आँगन में उठी दरारें दीवारों का रूप धारण कर रही हैं। संबंध- सरोकार समाप्त हो गए हैं। परंतु कोरोना ने हमें घर-परिवार व रिश्ते-नातों की महत्ता समझाई और हम पुन: अपने घर में लौट आए। बच्चे जो बरसों से कहीं दूर अपना आशियाँ बना चुके थे, अपने परिवार में लौट आए। इतना ही नहीं, हम अपनी संस्कृति की और लौटे और हैलो-हाय व हाथ मिलाने का सफ़र समाप्त हुआ। हम दो गज़ दूरी से नमस्कार करने लगे। पारस्परिक सहयोग की भावना ने हृदय में करवट ली तथा एक अंतराल के पश्चात् दूरियाँ समाप्त होने के पश्चात् ऐसा लगा कि वह समय हमारे लिए वरदान था। कोरोना के समय हम केवल अपने परिवार व रिश्तेदारों से ही नहीं जुड़े बल्कि जनमानस के प्रति हमारे हृदय में करुणा, सहानुभूति, सहयोग, त्याग व सौहार्द का भाव जाग्रत हुआ। मानवता व मानव-मात्र के प्रति प्रेम हमारे हृदय में पल्लवित हुआ। अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि यदि आपके हृदय में मनो-मालिन्य व ईर्ष्या-द्वेष का भाव व्याप्त है तो आपके महाकुंभ में स्नान करने का कोई औचित्य नहीं है। जहाँ आस्था, प्रेम, करुणा, सौहार्द, सहानुभूति, त्याग व श्रद्धा का भाव व्याप्त है, वहीं महाकुंभ है और मन का प्रभु सिमरन व चिंतन में लीन हो जाना महाकुंभ का महाप्रसाद है।

सो! महाकुंभ के महात्म्य को समझिए व अनुभव कीजिए। अपने माता-पिता में गुरुजनों का सम्मान कीजिए और असहाय व वंचित लोगों की सेवा कीजिए। जो आपके पास है, उसे दूसरों के साथ बांटिए, क्योंकि “दान देत धन ना घटै, कह गये भक्त कबीर।” हम जो भी दूसरों को देते हैं, लौटकर हमारे पास आता है, यह संसार का नियम है। इसलिए लोगों के हृदय में अपना घर बनाइए। सुख-दु:ख में समभाव से रहिए तथा सुरसा की भांति बढ़ती हुई इच्छाओं पर अंकुश लगाइए। सहज जीवन जीते हुए परहित करना सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम कार्य है, जो मुक्ति-प्रदाता है।

‘यह जीवन बड़ा अनमोल/ मनवा राम-राम तू बोल।’ मानव जीवन चौरासी लाख योनियों के पश्चात् मिलता है। इसलिए ‘एक भी साँस न जाए वृथा/ तू प्रभु सिमरन कर ले रे। अंतकाल यही साथ जाए रे।’ यही मोक्ष की राह दर्शाता है। ‘जो सुख अपने चौबारे/ सो! बलख न बुखारे।’ इसके माध्यम से मानव को अपने घर को स्वर्ग बनाने की सीख दी गई है, क्योंकि घर में ही महाकुंभ है। सब पर स्नेह, प्यार व दुलार लुटाते चलो। दुष्प्रवृत्तियों को हृदय से निकाल फेंकिए। अनहद नाद में अवगाहन कर अलौकिक आनंद को प्राप्त कीजिए। प्रकृति सदैव तुम्हारे अंग-संग रहेगी तथा पथ-प्रदर्शन करेगी। एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव, निष्काम कर्म व त्याग महाकुंभ से भी बढ़कर है, क्योंकि स्नान करने से तो शरीर पावन होता है, मन तो आत्म-नियंत्रण, आत्म-चिंतन व आत्मावलोकन करने से वश में होता है। ‘मन चंगा, तो कठौती में गंगा’ अर्थात् यदि मन पावन है, पंच विकारों से मुक्त है तो उसे किसी तीर्थ में जाने की आवश्यकता नहीं है। वैसे भी मन को मंदिर की संज्ञा दी गई है। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित गीत की पंक्तियाँ जो उपरोक्त भाव को प्रेषित करती हैं– ‘मैं मन को मंदिर कर लूँ/ देह को मैं चंदन कर लूँ/ तुम आन बसो मेरे मन में/ मैं हर पल तेरा वंदन कर लूँ।’ सो! चंचल मन को एकाग्र कर ध्यान लगाना अत्यंत दुष्कर कार्य है। परंतु जो भी ऐसा करने में सफल हो जाता है, जीते-जी मुक्ति प्राप्त कर लेता है।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #37 – गीत – जीवन एक चुनौती… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीत – जीवन एक चुनौती

? रचना संसार # 37 – गीत – जीवन एक चुनौती…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

संघर्षों के जीवन में,

बस मैंने तो प्यार किया।

जीवन एक चुनौती है,

हँस कर के स्वीकार किया।।

 **

शूल चुभे थे हिय में तो,

अंगारों की शैय्या थी।

तूफानों सा जीवन था,

और भँवर में नैय्या थी।।

धीरज खोया नहीं कभी ।

सपनों को साकार किया।।

 *

संघर्षों के जीवन में,

बस मैं ने तो प्यार किया।

**

पाषाणों के  नगरों में,

क्षुब्ध हुई शहनाई है।

प्राणों का भी मोल नहीं,

लक्ष्य हीन तरुणाई है।।

दुख का सागर जीवन भी

हिम्मत से नित पार किया।

संघर्षों के जीवन में,

बस मैं ने तो प्यार किया।

 **

दावानल सी आँधी ये,

अंगारे सँग में लाती।

ज्वार तिमिर जब जब उठता ,

उषा दूर फिर हो जाती।।

कंपित है परछाईं पर,

नहीं कभी प्रतिकार किया।

 *

संघर्षों के जीवन में,

बस मैंने तो प्यार किया।

 **

रिश्ते नाते झूठे सब,

पैसों का अब रेला है।

स्वार्थ भरा सारा जग है,

मानव हुआ  अकेला है।।

मानव ने तो पग-पग पर

रिश्तों का व्यापार किया ।

 *

संघर्षों के जीवन में,

बस मैं ने तो प्यार किया।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #264 ☆ भावना के दोहे – कुम्भ ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – कुम्भ )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 264 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  – कुम्भ ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

गंगा जी की धार में, बहते पुण्य अपार।

संगम तट पर कुंभ है, आए भक्त हजार।।

*

साधु संत नागा सभी, करते  जय जयकार।

महाकुंभ उत्सव सजे, लगे भक्त दरबार।।

*

 पावन डुबकी गंग में,तन – मन का आधार।

 पाप  धुले सारे यहां ,यहां मोक्ष अगार ।।

*

 मेले की है भव्यता, पावनता  संचार।

केंद्र सजा आध्यात्म का, होता बहुत प्रचार।।

*

संगम तट की रेत पर, ज्ञान भक्ति वैराग्य।

भजन भाव सब कर रहे, पूज रहे आराध्य।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #246 ☆ संतोष के दोहे … महाकुंभ ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे … महाकुंभ आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 246 ☆

☆ संतोष के दोहे … महाकुंभ  ☆ श्री संतोष नेमा ☆

सरस्वती भागीरथी, कालिंदी के घाट।

महाकुंभ संक्रांति का, संगम पर्व विराट

*

इक डुबकी से मिट रहे, सौ जन्मों के पाप

सच्चे मन से आइए, एक बार बस आप

*

अमृतमयी अवगाह का, संगम में आगाज

तीर्थ राज के घाट पर, आगत संत समाज

*

संगम में होता नहीं, ऊंच नीच का भेद

मान सभी का हो यहाँ, रहे न कोई खेद

*

होता संगम में खतम, जन्म-मृत्यु का फेर

सागर मंथन से गिरा, जहाँ अमृत का ढेर

*

साहित्यिक उत्कर्ष की, है पुनीत पहचान

गंगा- जमुना संस्कृति, तीरथराज महान

*

श्रद्धा से तीरथ करें, कहते तीरथराज

काशी मोक्ष प्रदायिनी, सफल करे सब काज

*

चारि पदारथ हैं जहाँ, ऐसे तीरथराज

करें अनुसरण धर्म का, हो कृतकृत्य समाज

*

स्वयं राम रघुवीर ने, किया जहाँ अस्नान

पूजन अर्चन वंदना, संगम बड़ा महान

*

सुख – दुःख का संगम यहाँ, पूजन अर्चन ध्यान

तर्पण पितरों का करें, पिंडदान अस्नान

*

महाकुंभ में आ रहे, नागा साधू संत

जिनका गौरव है अमिट, महिमा जिनकी अनंत

*

नागा साधू संत जन, जिनके दरश महान

करें त्रिवेणी घाट में, जो पहले अस्नान

*

महिमा संगम की बड़ी, कह न सके संतोष

तीर्थराज दुख विघ्न हर, दूर करो सब दोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 240 ☆ सौभाग्य कंकण..! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 240 – विजय साहित्य ?

☆ सौभाग्य कंकण..! ☆

(काव्यप्रकार अष्टाक्षरी.)

सौभाग्य कंकण,

संस्कारी बंधन.

हळव्या मनाचे,

सुरेल स्पंदन…! १

*

सौभाग्य भूषण,

पहिले‌ कंगण.

माहेरी सोडले,

वधुने अंगण…!२

*

सौभाग्य वायन ,

हातीचे कंकण.

मनाचे मनात,

संस्कारी रींगण..!३

*

सप्तरंगी चुडा,

हिरव्या मनात .

हिरवी बांगडी,

हिरव्या तनात…!४

*

प्रेमाचे प्रतीक,

लाल नी नारंगी .

जपावा संसार   ,

नानाविध अंगी..!५

*

निळाई ज्ञानाची,

पिवळा आनंदी.

सांगतो हिरवा,

रहावे स्वच्छंदी…!६

*

यशाचा केशरी ,

पांढरा पावन .

जांभळ्या रंगात,

आषाढ श्रावण..!७

*

वज्रचुडा हाती ,

स्वप्नांचे कोंदण.

माया ममतेचे,

जाहले गोंदण…!८

*

आयुष्य पतीचे ,

वाढवी कंगण.

जपते बांगडी,

नात्यांचे बंधन…!    ९

*

चांदीचे ऐश्वर्य,

सोन्याची समृद्धी.

मोत्यांची बांगडी ,

करी सौख्य वृद्धी..!१०

*

भरल्या करात,

वाजू दे कंकण ,

काचेची बांगडी,

संसारी पैंजण…!११

*

चुडा हा वधूचा,

हाती आलंकृत .

सासर माहेर ,

झाली सालंकृत..!१२

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “काटे नसलेला गुलाब…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “काटे नसलेला गुलाब…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

…आम्ही भाजी मंडईतून घरी निघालो होतो… अर्थात आम्ही म्हणजे आम्ही दोघं नवरा बायको… गद्दे पंचवीशीचा माझा बहर लग्नाच्या दशकपूर्ती दरम्यान केव्हाच उतरलेला… आणि हिचा गरगरीत बहरलेला… तिच्या हाताला पैश्याने भरलेल्या पाकिटाचाच भार तेव्हढाच सहन व्हायचा आणि माझा  पैश्याचं पाकिट सोडून बाकी सगळ्याचा भारच उचलून उचलून हर्क्युलस झालेला…त्या भाजीने भरलेल्या दोन जड पिशव्यांचे बंदानीं  माझ्या हाताला घातलेले आढेवेढे …तर  माणसानं सुटसुटीत कसं जगावं याचाच आर्दश जगापुढे ठेवायला हिचं पाऊल नेहमीच पुढे पुढे…. आणि हो भाजीवरुन आठवलं अहो त्या भाजी बाजारात मला ये पडवळ्या नि हिला ढब्बू मिरची या नावानेच  ओळखतात.. अहो त्यांना मी सतत डोळे मिचकावून ‘ असं निदान आमच्या समोर तरी म्हणून नका ‘ असं ज्याला त्याला डोळ्यांच्या सांकेतिक भाषेत सांगू पाहत राही.. पण  ते टोमणे ऐकून ज्याला त्याला  हि मात्र रागाने डोळे वटारून बघत असते.. आणि चुकून माकून त्याचवेळी मी करत असलेल्या नेत्रपल्लवीकडे  तिचे लक्ष गेलेच तर डोळे फाडून फाडून बघते हा काय पांचटपणा चालवलाय तुम्ही असे कायिक आर्विभाव करते… आता एकदा हिच्या बरोबर लग्न करून पस्तावा पावल्यावर लग्न या गोष्टीवरचा माझा विश्वासच उडाला असताना आणि इथून तिथून बायकांची जात शेवटी एकच असते तेव्हा खाली मान घालून चालणं ठरवल्यावर पुन्हा मान वर करून दुसऱ्या स्त्री कडे बघण्याचा सोस तरी उरेल का तुम्हीच सांगा! तरी पुरूष जातीचा स्वयंभू चंचलपणा कधीतरी डोकं वर काढतोच… आणि तशी एखादी हिरवळ नजरेला पडलीच तर माझा मीच अचंबित होतो…  अहो तुम्हाला म्हणून सांगतो आमच्या त्या घराच्या वाटेवर एक सुंदरशी बाग आहे… रोज संध्याकाळी तिथं प्रेमी युगुलांचा नि कुटुंब वत्सलांचा जथ्था जागोजागी प्रेमाचे आलाप आळवताना दिसतात ना डोळ्यांना.. अगदी सहजपणे… कितीतरी मान वळवून दुसऱ्या दिशेला पाहायचा प्रयत्न केला तरी… मनचक्ष्चू तेच तेच चित्र दाखवत राहतात… मग वाटायचं आपलं मनं शुद्ध भावनेचं आहे यावर आपला विश्वास असताना कशाला उगाच दिसणाऱ्या सृष्टीला दृष्टिआड जबरदस्तीने करा… प्रत्येकाची आपापली तर्हा असते आपलं प्रेम व्यक्त करण्याची… करू देत कि बिचारे… आपल्याला हे सुख मिळालं नाही याची खंत  करण्यापेक्षा ते प्रेमी युगुल किती नशीबवान आहे.. कि त्यांच्या वाट्याला काटे नसलेला गुलाब आला… आणि आपल्याला गुलाब तर कधीच कोमेजून, सुकून गळून गेला आणि हाती फक्त काटेच काटे असणारा देठ मिळाला… असा मी काहीसा मनातल्या मनात विचार करत तिथून चाललो असताना मधेच हिने माझ्याकडे तिरप्या नजरेने पाहिले आणि ती सुद्धा मनात विचार करू लागली… काय पाहतायेत कोण जाणे आणि कसल्या विचारात पडलेत काही कळत नाही.. इथं कशी जोडप्यानं बसलेले प्रेम करतात ते बघून घ्या म्हणावं.. अगदी तसच नसलं तरी बायकोवर कसं प्रेम करावं ते बघून तरी माणसानं शिकायला करायला काय हरकत आहे म्हणते मी… आणि मी एव्हढी घरात असताना जाता येता दुसऱ्यांच्या बायकांकडे बघणं शोभतं का या वयाला…

बराच वेळ मी माझ्या तंद्रीत होतो हे पाहून हिने माझी भावसमाधी कोपराची ढूशी देऊन भंग केली आणि वरच्या पट्टीत आवाज चढवून म्हणाली…  “बघा बघा तो नवरा आपल्या बायकोवर  मनापासून  कसं प्रेम करतोय आणि ती देखील छान प्रतिसाद देतेय… तुम्हाला कधी माझ्याबाबतीत असं जमलयं काय?… नेहमीचं एरंडाचं झाड असल्यासारखं तुमचं वागणं… “

माझ्यातल्या पुरूषार्थाला तिने चुनौतीच दिली…मग मीही ती संधी  साधली तिला म्हटले ” तुला जे दिसते ते कुठल्याही बाजूनें  खरं नाहीच मुळी… एकतरं  ते खरे नवरा बायको नसावेत, आणि  दुसरे  त्यांचे दोघांचे आपापले जोडीदार कुणी वेगळेही असू शकतात…प्रियकर प्रेयसीचं युगुल प्रेम करत आहेत तेच उद्या त्यांचं लग्न झाल्यावर आपल्या जागेवर ते नक्कीच दिसतील… भ्रभाचा भोपळा फुटायाचाच काय तो अवकाश… आणि शेवटचं लांबून कोणीतरी त्यांच्या या लवसिनचं शुटींग करत असणार.. कि या सिनसाठी त्यांनी पैसे घेतले असणार… हे विकतचं दिखाऊ बेगडी प्रेम पडद्यावर दाखवतात त्यावर तू भाळून जाऊ नकोस.. आणि तुला जर मी अगदी असच   तुझ्यावर प्रेम करावसं वाटत असेल तर मला थोडी तुझ्यापासून सुटका कर बाहेर प्रेमाचे धडे गिरवायला मला नवी प्रेयसीचा शोध घेतो  ते धडे शिकल्यावर मग तुझ्यावर प्रेमच प्रेम करत राहिन… “

माझं म्हणणं तिच्या पचनी पडणारं नव्हतचं मुळी.. तिने इतक्या झटक्याने मला म्हणाली “काही नको बाहेर वगैरे जायला तुम्ही जितकं प्रेम सध्या दाखवताय ना तितकसचं पुरेसे आहे मला… घरी तरी चला मग बघते तुमच्या कडे…म्हणे मला नव्याने प्रेयसी शोधायला हवी.. “

आमचा सुखसंवाद चालत असताना माझ्या मनाला सारखी ‘काटे नसलेला गुलाब मात्र दुसऱ्यांना मिळतो आणि मला मात्र गुलाब हरवलेला टोकदार काट्याचा देठच हाती यावा..’ हि सल सतत बोचत राहिली…

©  श्री नंदकुमार इंदिरा पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १८ — मोक्षसंन्यासयोगः — (श्लोक ३१ ते ४०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १८ — मोक्षसंन्यासयोगः — (श्लोक ३१ ते ४०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च । 

अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥ ३१ ॥ 

*
विवेक नाही धर्माधर्म कर्तव्य-अकर्तव्याचा 

त्या पुरुषाला जाणी धनंजया राजस बुद्धीचा ॥३१॥

*
अधर्मं धर्ममिति या मन्यसे तमसावृता । 

सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥ ३२ ॥ 

*
अधर्मास जी मती जाणते श्रेष्ठधर्म म्हणोनीया

सर्वार्थासी विपरित मानित तामसी बुद्धी धनंजया ॥३२॥

*

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः । 

योगोनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥ ३३ ॥ 

*

ध्यानयोगे धारण करितो मनप्राणगात्रकर्मणा

अव्यभिचारिणी ती होय पार्था सात्विक धारणा ॥३३॥

*
यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन । 

प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ॥ ३४ ॥ 

*
फलाशाऽसक्तीग्रस्त धर्मार्थकाम धारियतो

राजसी धारणाशक्ती पार्था तयास संबोधितो ॥३४॥

*
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च । 

न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ॥ ३५ ॥ 

*
निद्रा भय दुःख शोक मद धारयितो दुष्टमती

धारणाशक्तीसी ऐश्या धनंजया तामसी म्हणती ॥३५॥

*
सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ । 

अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥ ३६ ॥

*
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्‌ । 

तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्‌ ॥ ३७ ॥ 

*
भरतकुलश्रेष्ठा तुजसी त्रिविध सुखांचे गुह्य सांगतो

ध्यान भजन सेवेसम परिपाठे दुःख विसरुनी रमतो

प्रारंभी गरळासम भासतो तरीही अमृतासम असतो

सुखदायी प्रसाद आत्मबुद्धीचा सात्त्विक खलु असतो ॥३६, ३७॥

*
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्‌ । 

परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्‌ ॥ ३८ ॥ 

*
सुखे विषयेंद्रियांचे भोगकाळी परमसुखदायी असती

विषसम परिणती तयाची सुख तया राजस म्हणती ॥३८॥

*
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः । 

निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्‌ ॥ ३९ ॥ 

*

भोगकाळी परिणामी मोहविती जी आत्म्याला

निद्राआळसप्रमाद उद्भव तामस सुख म्हणती त्याला ॥३९॥

*
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु व पुनः । 

सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥ ४० ॥ 

*

इहलोकी अंतरिक्षात देवलोकी वा विश्वात 

सृष्टीज त्रिगुणमुक्त कोणी नाही चराचरात ॥४०॥

 

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 12 – कालजयी कृति राग दरबारी के रचयिता: सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “कालजयी कृति राग दरबारी के रचयिता: सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल”।) 

☆  दस्तावेज़ # 12 – कालजयी कृति राग दरबारी के रचयिता: सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

श्रीलाल शुक्ल का नाम हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ व्यंग्यकारों में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और रवींद्रनाथ त्यागी के साथ बहुत सम्मानपूर्वक लिया जाता है। एक सरकारी अफसर जो फाइलों के ढेर में उलझा रहता हो, इतना बारीक व्यंग्य लिख देता है कि पढ़ते-पढ़ते आप सोचने लगते हैं कि ये तो हमारे ही आसपास का हाल है।

वे आईएएस अफसर थे और इस सरकारी नौकरी में उन्होंने भारतीय समाज और प्रशासन की हर बारीकी को इतने करीब से देखा कि उसे कागज़ पर उतार दिया। लेकिन उन्होंने केवल देखा ही नहीं, महसूस भी किया। शायद यही वजह थी कि उनका व्यंग्य महज़ हंसी-मज़ाक नहीं था, बल्कि समाज की गहरी सच्चाइयों को दिखाने वाला एक आईना था।

उनका व्यंग्य उपन्यास ‘राग दरबारी’  एक कालजयी कृति है। 1968 में जब यह उपन्यास प्रकाशित हुआ तो जैसे साहित्य जगत में खलबली मच गई। यह उपन्यास भारत के ग्रामीण जीवन, राजनीति और शिक्षा प्रणाली का ऐसा सजीव चित्रण करता है कि जो भी इसे पढ़ता है, वह खुद को शिवपालगंज के किसी गली-कूचे में घूमता हुआ महसूस करता है।

‘शिवपालगंज’ गाँव हर जगह है। आपका अपना गाँव, कस्बा, मोहल्ला। और इसमें जो पात्र हैं – वैद्य जी, रंगनाथ, छोटे पहलवान – ये सब ऐसे लगते हैं जैसे हमारे ही आसपास के लोग हों। वैद्यजी ऐसे किरदार हैं जिनका नाम लेते ही चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। उनकी चतुराई, उनकी राजनीति और उनके तंज इतने अनोखे हैं कि वे हिंदी साहित्य का हिस्सा बन गए हैं।

‘राग दरबारी’ में शिक्षा प्रणाली पर लाजवाब कटाक्ष है। शुक्ल ने लिखा कि हमारे स्कूल सिर्फ़ परीक्षा पास करने की मशीनें हैं। ज्ञान से कोई मतलब नहीं है।

जब इस उपन्यास को टीवी पर दिखाया गया, तो लोग देखकर ऐसे खुश होते थे मानो उनके ही गाँव की कहानी हो। 1986 में दूरदर्शन पर ‘राग दरबारी’ को धारावाहिक के रूप में दिखाया गया था। अगर आपने देखा हो, तो आपको याद होगा कि हर किरदार जैसे किताब के पन्नों से निकलकर आपके सामने आ गया हो।

मुझे लगता है कि ‘राग दरबारी’ की खासियत यही है कि यह महज़ एक उपन्यास नहीं, बल्कि एक समय, एक समाज का दस्तावेज़ है। और यह दस्तावेज़ तब भी प्रासंगिक था, आज भी है, और शायद आगे भी रहेगा।

शुक्ल का कहना था कि शिवपालगंज जैसा गाँव हर जगह है। मैं जब-जब ‘राग दरबारी’ पढ़ता हूँ तो मुझे लगता है कि वह गाँव कहीं और नहीं बल्कि मेरे ही भीतर है।

उनका व्यक्तित्व बहुत सहज था। लगता ही नहीं था कि वे इतने बड़े सरकारी अधिकारी और व्यंग्यकार हैं। उनके द्वारा लिखा गया एक पत्र आज भी मेरे पास अमूल्य निधि की तरह सुरक्षित है। उस पोस्टकार्ड को मैं ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के साथ साझा कर रहा हूं। उन्होंने लिखा:

=======

बी 2251 इंदिरा नगर लखनऊ 226016

                                      17.1.’99

प्रिय बिष्ट जी,

‘कुछ लेते क्यों नहीं’ की प्रति मिली। कृतज्ञ हूं। एक बार देख गया हूं। काफी दिलचस्प है और अमौलिक विषयों पर मौलिक दृष्टि से संपन्न है। इत्मीनान से बाद में पढूंगा।

समस्त शुभकामनाओं के साथ,

                                  आपका

                               श्रीलाल शुक्ल

=======

उन्हें शत् शत् नमन!💐

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 229 ☆ इस राह के राही अनेक… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “इस राह के राही अनेक। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 229 ☆ इस राह के राही अनेक…

बहुत से लोगों की आदत  काम को टालने की होती है, वे अपने कार्यों के प्रति उत्तरदायी नहीं होते, बस परिणाम शत प्रतिशत चाहिए, सोचिए ऐसा कैसे होगा? जब तक हम पल- पल का सदुपयोग नहीं करेंगे तब तक ऐसा ही चलता रहेगा। जहाँ वर्तमान को गुरु मानकर जीवन जीने वाले हमेशा सफलता का परचम फहराते हैं तो वहीं दूसरी ओर कल पर टालने की आदत आपको असफल बना कर कहीं का नहीं छोड़ती। कारण साफ है जब कल आता ही हीं तो आपको उसका लाभ कैसे मिल सकता है।

जिस प्रकार से अच्छे कार्य हमेशा सुखद परिणाम देते हैं वैसे ही यदि हम सतत सक्रिय रहे तो निश्चय ही परिणाम आशानुरूप होगा। वक्त रेत के ढेर की तरह फिसलता जा रहा है,  कर्मयोगी तो इसे अपने वश में कर लेते हैं परन्तु जो कुछ नहीं करते वे दूसरों के ऊपर आरोप- प्रत्यारोप करने में ही समय व्यतीत करते रह जाते हैं। इस दुनिया में सबसे मूल्यवान समय  है, वही आपको रंक से राजा बनाएगा।आप जिस भी क्षेत्र में कार्य करते हों  वहाँ पर ईमानदारी से अपने दायित्वों का निर्वाहन करें यदि वो भी न बनें तो कम से कम आलोचक न बनें क्योंकि निंदक नियरे राखिए आज भी प्रासंगिक है पर वो  सार्थक तभी होगा जब निंदक ज्ञानी हो, उसमें निःस्वार्थ का भाव हो, सच्चा निंदक ही मार्गदर्शक का कार्य करता है।

वर्तमान कब भूत में बदल जाता है पता  नहीं चलता पर अभी भी बहुत से लोग पुराना राग अलाप रहे हैं, आज के तकनीकी युग में जब हर पल स्टेटस व डी पी बदली जा रही है तब व्यवहार कैसे न बदले पर कुछ भी हो नेकी व सच्चाई नहीं छोड़नी चाहिए  हम सबको अपने कर्तव्यों के प्रति जागरुक रहना चाहिए।

तेजी से बदलती दुनिया में कुछ भी तय नहीं रह सकता …

कल के ही अखबार आज नहीं चलते ये बात  सुविचार की दृष्टि से, प्रतियोगी परीक्षार्थी  की दृष्टि से तो सही है परन्तु व्यवहार यदि पल- पल बदले तो उचित नहीं कहा जा सकता है।

खैर जिसको जो राह सही लगती है वो उसी पर चल पड़ता है कुछ ठोकर खा कर संभल जाते हैं, कुछ दोषारोपण करके अलग राह पर चल पड़ते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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