हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 182 – “उगा करेंगे प्रश्न अनगिनत…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  उगा करेंगे प्रश्न अनगिनत...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 182 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “उगा करेंगे प्रश्न अनगिनत...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

बहुत लिखा जा सकता था

लेकिन कुछ नहीं हुआ

अब किस लिये स्मरण व

होती आशीष दुआ

 

निपट गया तन राख हुई

अपनी सारी सत्ता

लगे भूलने लोग कह रहे

इसको अलबत्ता

 

इस अप्रत्याशित दुख में तो

थे सारे घर के

नहींआ सकी लकवामारी

कुबड़ी सुधा बुआ

 

पिता कहे थे प्राण यहाँ

कब उड जायें मेरे

उगा करेंगे प्रश्न अनगिनत

अन्धे और घनेरे

 

तब तुम सब इस पिंजरे का

दरवाजा धीमे से

देना खोल , उड़ा देना

यह व्याकुल बन्द सुआ

 

इसी गाँव के बेटा !

सारे भूखे लोगों को

बनवाना तुम भले न

रुचिकर छप्पन भोगों को

 

करवाना भरपेट उन्हे

भोजन इस चौखट पर

चाहे न बन पाये सबको

रबड़ी मालपुआ

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

22-03-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 38 ☆ व्यंग्य – “तब जब आपको बनेसिंग का फोन आए…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  तब जब आपको बनेसिंग का फोन आए…।) 

☆ शेष कुशल # 38 ☆

☆ व्यंग्य – “तब जब आपको बनेसिंग का फोन आए…” – शांतिलाल जैन 

मैं इस समय ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉक्टर के चेंबर के बाहर बैठा अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ. तकलीफ क्या है ये मैं बाद में बताता हूँ, पहले आप बनेसिंग के बारे में जान लीजिए.

जब से बनेसिंग के मन में ये बात घर कर गई है कि मोबाइल कंपनीवाले दूसरी तरफ जाती हुई उसकी आवाज़ रिसीवर तक पहुँचने से पहले धीमी कर देते हैं तब से हर कॉल पर वो इतनी जोर से बात करता है कि आप हज़ार कोस दूर हरा बटन प्रेस किए बिना ही उसे सुन सकते हैं. बनेसिंग जब फोन पर बात करना शुरू करता है तो समूची कायनात सहम उठती है. उसके ‘हेलो’ बोलते ही अफरा-तफरी सी मच जाती है. एक जलजला आ जाने की आशंका में लोग इधर उधर छिपने-दुबकने लगते हैं. डेसीबल मीटर काम करना बंद कर देता है. हमारे विभाग की खिडकियों के कांच बनेसिंग के ट्रान्सफर होकर आने से पहले साबुत अवस्था में हुआ करते थे, चटक गए हैं. बनेसिंग को मैंने जब भी फोन करते सुना है हमेशा आरोह के स्वर में ही सुना है. ‘हेलो, मैं बोल रहा हूँ.’  जी, पता है आप ही बोल रहे हो.  ‘हेलो, मैं बोल रहा हूँ, मेरी आवाज़ आ रही है आपको.’  जी, आ रही है, संसदों-विधायकों का तो नहीं पता परन्तु शेष देश में साढ़े छह करोड़ बधिरों को भी आ रही है.

यूं तो बनेसिंग एक दुबला पतला ज़ईफ़ इंसान है मगर कुदरत की मेहर से उसने फेफड़े मज़बूत पाए हैं, वोकल कार्ड भी उतनी ही सशक्त. कोरोना की दोनों लहरों में बनेसिंग के फेफड़े संक्रमित हुए मगर परवरदिगार ने उसकी ज़ोरदार आवाज़ में कोई कमी नहीं आने दी. काश!! समय रहते उसकी आवाज़ किसी समाचार चैनल के एचआर हेड के कानों में पड़ी होती तो वो आज देश का नंबर वन न्यूज एंकर होता. मुझे विश्वास है एक दिन ऐसा आएगा जब कवि सम्मलेन के मंच से वो पाकिस्तान में किसी को आईएसडी कॉल लगाकर बात करेगा और हम लोग हिंदी कविता के क्षितिज़ पर वीर रस का तेज़ी से उभरता कवि देखेंगे, बनेसिंह ज्वालामुखी.

बहरहाल, वो कितनी तेज़ आवाज़ में बात करे ये उसका संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार है. गला है उसका, फेफड़े उसके, वोकल कार्ड उसकी, मोबाईल हेंडसेट उसका, तो फिर आप कौन? खामोखां. जिस खुदा ने उसे तेज़ आवाज़ के गले की नेमत बख्शी है उसी ने आपको पाँच अंगुलियाँ प्रति कान की दर से प्रोवाइड की हैं, बंद कर लीजिए, स्टरलाईज्ड कॉटन के फाहे लगा सकते हैं. बनेसिंग को दोष नहीं दे सकते. ऊँची आवाज़ के मामले में वो समाजवादी है. ‘आय लव यू’ जैसा नाजुक, कोमल, मृदुल-मधुर वाक्य भी उतनी ही हाय पिच पर बोल लेता है जितने कि हाय पिच पर ‘कमीने, मैं तेरा खून पी जाऊँगा’. कभी उसे मिसेज बनेसिंग से बात करते सुन लीजिए आपको लगेगा किसी प्राईवेट फाइनेंस कंपनी का एजेंट अपना रिकवरी टारगेट पूरा कर रहा है.

फोन पर संवाद बनेसिंग अक्सर खड़े हो कर करता है. शुरूआती पंद्रह सेकंड्स के बाद वह छोटा सा स्टार्ट लेता है और आगे की तरफ चलने लगता है. उसकी आवाज़ के आरोह और पैरों की गति में एक परफेक्ट जुगलबंदी नज़र आती है. आप समझ नहीं पाते कि वो चलते चलते बात कर रहा है कि बात करते करते चल रहा है. कभी कभी तो चलते चलते वो उसी शख्स के पास पहुँच जाता है जिससे कॉल पर बात कर रहा होता है. उसकी मसरूफियत का खामियाजा बहुधा उसकी नाक भुगतती है जो कभी दीवार पर टंगे फायर एक्स्टिंग्युषर से, कभी पुश/पुल लिखे दरवाजे से टकराकर चोटिल होती रहती है. एक बार तो वह बात करते करते बॉस के चेंबर की कांच की दीवार से टकरा चुका है. गनीमत है वे हफ्ते भर के अवकाश पर थे, उनके ज्वाइन करने से पहले रिपेयरिंग करा ली गई, वरना बनेसिंग तो….

तो हुआ ये श्रीमान उस रोज़ मैं घर पर ही था और बनेसिंग का फोन आया. मैं उसे बिना हरा बटन दबाए भी सुन सकता था मगर मैंने बेध्यानी में ऑन कर लिया. जैसे ही बनेसिंग ने बोला – “हेलो शांतिबाबू”, मेरे ईयरड्रम्स चोटिल हो गए. अब मैं ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉक्टर के चेंबर के बाहर बैठा अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

श्री अभिमन्यु जैन

परिचय 

  • जन्म – 15 फरवरी 1952
  • रुचि – साहित्य, संगीत, पर्यटन
  • प्रकाशन/प्रसारण –  मूलतः व्यंग्यकार, आकाशवाणी से कभी कभी प्रसारण, फीचर एजेन्सी से पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन।
  • पुरस्कार/सम्मान – अनेक संस्थाओं से पुरस्कार, सम्मान
  • सम्प्रति – सेल्स टैक्स विभाग से रिटायर होकर स्वतंत्र लेखन
  • संपर्क – 955/2, समता कालोनी, राइट टाउन जबलपुर

☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆

“जन संत : विद्यासागर☆ श्री अभिमन्यु जैन

तुम में कैसा सम्मोहन है, या है कोई  जादू टोना,

जो दर्श तुम्हारे  कर जाता नहीं  चाहे  कभी विलग होना.

जी हाँ,  गुरुवर, संत शिरोमणि 108 आचार्य  विद्यासागरजी महामुनिराज का आकर्षण चुम्बकीय रहा. आचार्यश्री के ह्रदय में वैराग्यभाव का बीजारोपण बाल्यावस्था  में ही आरम्भ हो गया था, मात्र 20वर्ष की अवस्था में आजीवन ब्रह्म चर  व्रत  तथा 30जून 1968 को 22 वर्ष की युवावस्था में मुनि दीक्षा हुई. आचार्यश्री के विराट व्यक्तित्व को  कुछ शब्दों या पन्नों में समेटना, समुद्र के जल को अंजुली में समेटने जैसी  कोशिश होगी.

गुरुवर का व्यक्तित्व अथाह, अपार, असीम, अलोकिक, अप्रितिम,, अद्वितीय  रहा. महाराजश्री की वाणी और चर्या  से प्रेरणा लेकर अनगिनत भव्य श्रावक धन्य हुए. आचार्य श्री ने  मूकमाटी जैसे महाकाव्य का सृजन करके साहित्य परम्परा को समृद्ध किया है. विहार के दौरान महाराजश्री के पाद प्रक्षा लन जल को श्रावक सिर माथे धारण करते. इस जल को, खारे जल के कुंवें में डाला तो जल मीठा हो गया, सूखे कुंवें में डाला तो  जल से भर गया, बीमार पशुओं को पिलाया तो, निरोगी हो गया. आचार्यश्री एक, घर के बाहर पड़े पत्थर पर क्या बैठे, पत्थर अनमोल हो गया. उसे खरीदने वाले  लाखों रूपया देने तैयार हो गये, पर  गरीब  ने सब ठुकरा दिया. महाराज जी को मूक पशुओं विशेषकर  गौवंश से बहुत लगाव था, उनका जहां जहां  चातुर्मास हुआ, वहाँ वहाँ  गौशाला की स्थापना कराई. आचार्यश्री को नर्मदाजी से विशेष लगाव था. नर्मदा किनारे अमरकंटक,/ जबलपुर /नेमावर आदि स्थानों पर उनके द्वारा गौशाला एवं जिना लयों का निर्माण कराया गया, उनके द्वारा 500  से अधिक दीक्षा दी गईंउनका सोच, धर्म – अध्यात्म को जीवन से जोड़ने का था. उनके द्वारा चल चरखा के माध्यम से हज़ारों युवाओं को रोजगार मुहैया कराया. इंडिया नहीं भारत बोलो, का  नारा देकर अपनी बोली, अपनी भाषा को बढ़ावा दिया.

महाराजश्री विनोदप्रिय भी थे,  प्रवचनों के दौरान कहते, ” काये सुन रहे हो न ” तो पुरे पंडाल में एक स्वर में आवाज गूंजती  “हओ”.

प्रतिभा स्थली के माध्यम से बालिकाओं के शिक्षण मार्ग को सरल बनाया. पूर्णायु  आयुर्वेद संस्थान  से प्राकृतिक  उपचार और जड़ी बूटीयों  के महत्वपूर्ण को पुनरस्थापित करने के प्रयास हो रहे हैँ. संत सबके, अवधारणा को आचार्यश्री के महाप्रयाण  ने  प्रमाणित किया है. उनकी ख्याति और कीर्ति  जैन समाज तक सीमित न होकर जन जन तक व्याप्त है. उनके समाधिस्ट होने से  हर मन व्याकुल और व्यथित है. हर आँख नम होकर यही कह रही है -:

तेरे चरण कमल द्वय गुरुवर रहें ह्रदय मेरे,

मेरा ह्रदय  रहे सदा ही चरणों में तेरे,

पंडित पंडित मरण हो मेरा  ऐसा  अवसर दो,

मेरा अंतिम मरण समाधि तेरे दर पर हो.

© श्री अभिमन्यु जैन

संपर्क – 955/2, समता कालोनी, राइट टाउन जबलपुर

साभार – जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 170 ☆ # समीक्षा – “अट्टहास” परसाई विशेषांक अगस्त 2023” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी व्यंग्य पत्रिका की समीक्षा  “# समीक्षा – “अट्टहास” परसाई विशेषांक अगस्त 2023”#”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 170 ☆

☆ # समीक्षा – “अट्टहास” परसाई विशेषांक अगस्त 2023” # ☆ 

आज के युग में हर व्यक्ति भागम-भाग की जिंदगी जी रहा है, किसी के भी पास समय नहीं है   की , थककर, बैठकर शांति से कुछ पल बिता सकें. इन्हीं अमूल्य पलों में मन के दरवाजे पर दस्तक देकर, अंतर्मन को आल्हादित कर हृदय को झंकृत करने का प्रयास हास्य-व्यंग्य की पत्रिका द्वारा किया जाता है. इसी कड़ी में “अट्टहास” पत्रिका का योगदान महत्वपूर्ण है.

” अट्टहास” पत्रिका का परसाई विशेषांक अगस्त, 2023 एक अनूठा प्रयास है .

स्वर्गीय हरिशंकर परसाई जी का नाम व्यंग की दुनिया में प्रथम पायदान पर है, उनके जैसा दूसरा व्यंग्यकार होना असम्भव है, जिन्होंने अपने जीवन काल में अनेक व्यंग अनेक विषयों पर लिखें, उन्हें खूब प्रशंसा भी मीली.

उन्होंने सामान्य व्यक्ति के जिव्हा को अपने शब्द दीये, पिड़ा को अपनी समझकर व्यक्त किया, सरल सहज व्यक्ति के मन की बात जन-जन तक पहुंचाई. अपने   तिक्ष्ण बाणों से घांव किये,और उस चुभन को सदा के लिए जागृत छोड़ दिया, जो आज भी हम अपने आसपास महसूस करते है.

इस विशेषांक का विश्लेषण दो भागों में करना मुझे उचित लगा.

1) परसाई जी के लिखे हुए व्यंग्य 

2) परसाई जी पर दूसरे व्यंग्यकारों की टिप्पणियाँ 

1) परसाई जी ने अपने ” व्यंग्य क्यों? कैसे ? किसलिए ? मे लिखा है कि –  आदमी कब हंसता है ?

एक विचार यह है कि जब आदमी हंसता है, तब उसके मन में मैल नहीं होता. हंसने के क्षणभर पहले  उसके मन में मैल हो सकता है और हंसी के क्षणभर बाद भी. पर जिस क्षण वह हंसता है, उसके मन में किसी के प्रति मैल नहीं होता.

आदमी हंसता क्यों है ?

वह  कहते है, लोग किसी भी बात पर हंसते हैं, हलकी, मामूली विसंगति पर भी हंस देते है. दीवाली पर कुत्ते की दूम में पटाखे की लड़ी बांधकर उसमें कुछ लोग आग लगा देते हैं, बेचारा कुत्ता तो मृत्यु के भय से भागता और चीखता है, पर लोग हंसते हैं.

व्यंग्य किसलिए ?

वह  कहते है, मेरा खयाल है, कोई भी सच्चा व्यंग्य लेखक मनुष्य को नीचा नहीं दिखाना चाहता है. व्यंग मानव सहानुभूति से पैदा होता है. वह मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाना चाहता है. वह उससे कहता है – तू अधिक सच्चा, न्यायी मानवीय बन .

अच्छे व्यंग्य में करूणा की अंतर्धारा होती है, चेखव में शायद यह बात साफ है, चेखव की एक कहानी है – बाबू की मौत. इस कहानी को पढ़ते -पढ़ते हंसी आती है पर अन्त में मन करूणा से भर उठता है।

व्यंग के सम्बंध में यह बातें, व्यंग का मर्म समझने में इनसे कुछ सहायता मिलेगी.

2) उखड़े खंभे

इस व्यंग्य में बहुत ही सुन्दर कथा के द्वारा यह बताया गया है की, मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए कैसे प्रपंच रचे जाते हैं।

एक दिन राजा ने खीझकर घोषणा कर दी कि मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भों से लटका दिया जाएगा , लोग शाम तक इंतजार करते रहे कि अब मुनाफाखोर टांगें जाएंगे – और अब, पर कोई टांगा नहीं गया।

सोलहवें दिन सुबह उठकर लोगों ने देखा कि बिजली के सारे खम्भे उखड़े पड़े हैं, राजा ने सभी जिम्मेदार दरबारी यों से जब पूछा, यह जानते हुए भी कि आज मैं इन खम्भों का उपयोग मुनाफाखोरों को लटकाने लिए करने वाला हूं, तुमने ऐसा दुस्साहस क्यों किया?

सेक्रेटरी ने कहा,’ साहब,  पूरे शहर की सुरक्षा का सवाल था, अगर रात को खम्भे ना हटा लिये जाते, तो आज पूरा शहर नष्ट हो जाता. यह सलाह मुझे विशेषज्ञ ने दी थी.यह सुनकर सारे लोग सकते में खड़े रहे,  वे मुनाफाखोरों को बिल्कुल भूल गये. वे सब उस संकट से अविभूत थे,जिसकी कल्पना उन्हें दी गई थी, जान बच जाने की अनुभूति से दबे हुये थे, चुपचाप लौट गये.

उसी सप्ताह बैंक में सेक्रेटरी एवं संबंधित अधिकारियों के खाते में मोटी रकम जमा की गई, उनको उपकृत किया गया।

उसी सप्ताह ” मुनाफाखोर संघ ” के हिसाब में सारी रकमें ‘ धर्मादा ‘ खाते में डाली गयी.

यह व्यंग आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं।

3) विकलांग श्रध्दा का दौर

इस व्यंग्य में दिखावे की श्रद्धा पर चुभता हुआ कटाक्ष है.

” अभी अभी एक आदमी मेरे चरण छूकर गया है, मैं बड़ी तेजी से श्रद्धेय हो रहा हूं, जैसे कोई चालू औरत शादी के बाद बड़ी फुर्ती से पतिव्रता होने लगती है.

मैंने खुद कुछ लोगों के चरण छूने के बहाने उनकी टांग खींची है, लंगोटी धोने के बहाने लंगोटी चुराई है.

अपने श्रद्धालुओं से कहना चाहता हूं -‘ यह चरण छूने का मौसम नहीं, लात मारने का मौसम है. मारो एक लात और क्रांतिकारी बन जाओ.

4) एक अशुद्ध बेवकूफ

बिना जाने बेवकूफ बनाना एक अलग और आसान चीज है। कोई भी इसे निभा देता है। मगर यह जानते हुए कि मैं बेवकूफ बनाया जा रहा हूं और जो मुझे कहा जा रहा है वह सब झूठ है – बेवकूफ बनते जाने का एक अपना मज़ा है।

“एक प्रोफेसर साहब थे क्लास वन के। वे इधर आए। विभाग क डीन मेरे घनिष्ठ मित्र हैं, यह वे नहीं जानते थे। यों वे मुझे पच्चीसों बार मिल चुके थे। पर जब वे डीन के साथ मिले तो उन्होंने मुझे पहचाना ही नहीं। डीन ने मेरा परिचय उनसे करवाया। मैंने भी ऐसा बर्ताव किया, जैसे यह मेरा उनसे पहला परिचय है।

डीन मेरे यार है। कहने लगे- यार चलो केंटीन में, अच्छी चाय पी जाएं। अच्छा नमकीन भी मिल जाए तो मजा आ जाए।

अब क्लास वन के प्रोफेसर साहब थोड़ा चौंके।

हम लोगों ने चाय और नाश्ता किया। अब वे समझ गए कि मैं ” अशुद्ध” बेवकूफ हूं।

5) खेती

सरकारी घोषणाओं में और वास्तविक जमीन पर क्या होता है इस समस्या पर यह व्यंग बहुत ही मार्मिक है।

“एक दिन एक किसान सरकार से मिला और उसने कहा – हुजूर हम किसानों को आप जमीन, पानी और बीज दिला दीजिए और अपने अफसरों से हमारी रक्षा कीजिए, तो हम देश के लिए पूरा अनाज पैदा कर देंगे।

सरकारी प्रवक्ता ने जवाब दिया –‘ अन्न की पैदावार के लिए किसान की अब जरूरत नहीं है। हम दस लाख एकड़ कागज़ पर अन्न पैदा कर रहे हैं।

6) अरस्तू की चिट्ठी

इस व्यंग्य में जनता जनार्दन पर कटाक्ष है कि वे कैसे ईव्हेंट मॅनेजमेंट में शिकार होते हैं

“तुम्हारे मुखिया में यह अदा है। इसी अदा पर तुम्हारे यहां की सरकार टिकी है, जिस दिन यह अदा नहीं है, या अदाकार नहीं है उस दिन वर्तमान सरकार एकदम गिर जायेगी।जब तक यह अदा है तब तक तुम शोषण सहोगे, अत्याचार सहोगे, भ्रष्टाचार सहोगे क्योंकि तुम जब क्रोध से उबलोगे, तुम्हारा मुखिया एक अदा से तुम्हें ठंडा कर देगा।। तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि तुम्हारे मुल्क की सारी व्यवस्था एक ‘ अदा ‘ पर टिकी हुई है।

आज भी यह कितना प्रासंगिक है?

7) गर्दिश के दिन

परसाई जी ने अपने जीवन में विपत्तियों को अलग अंदाज में लिया, कभी टूटें नहीं, बेफिक्र होकर सब कुछ सहा और अपनी पिड़ा को अपने लेखन में लायें, उन्होंने गर्दिश के दिन में लिखा है कि ” मैं डरा नहीं। बेईमानी करने में भी नहीं डरा। लोगों से नहीं डरा  तो नौकरियां गयी।लाभ गये, पद गये, इनाम गये। गैरजिम्मेदार इतना कि बहन की शादी करने जा रहा हूं।रेल में जेब कट गयी, मगर अगले स्टेशन पर पूड़ी – साग  खाकर मजे में बैठा हूं कि चिंता नहीं। कुछ हो ही जायेगा। “

वो आगे लिखते है, ” गर्दिश कभी थी, अब नहीं है,आगे नहीं होगी – यह गलत है। गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है, मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूं। मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता इस लिए गर्दिश नियति है।  “

वो आगे लिखते हैं, ” मेरा अनुमान है कि मैंने लेखन को दुनिया से लड़ने के लिये एक हथियार के रूप में अपनाया होगा। दूसरे, इसी में मैंने अपने व्यक्तित्व की रक्षा का रास्ता देखा। तीसरे, अपने को अवशिष्ट होने से बचाने के लिये मैंने लिखना शुरू कर दिया। यह तब की बात है, मेरा खयाल है, तब ऐसी ही बात होगी।”

वो अंत में लिखते हैं कि,” मेरे जैसे लेखक की एक गर्दिश और है। भीतर जितना बवंडर महसूस कर रहे हैं, उतना शब्दों में नहीं आ रहा है, तो दिन-रात बेचैन है। यह बड़ी गर्दिश का वक्त होता है, जिसे सर्जक ही समझ सकता है। “

उन्होंने सही कहा है,” पर सही बात यह है कि कोई दिन गर्दिश से खाली नहीं है। और न कभी गर्दिश का अन्त होना है।”

8) प्रेमचंद के फटे जूते

इस लेख में उन्होंने लेखक की आर्थिक स्थिति के ऊपर व्यंग किया है कि प्रसिद्ध लेखक भी ऐसे जीते हैं।

वो लिखते हैं, ” प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, 

गालों की हड्डियां उभर आई है, पर घनी मूंछें चेहरे को भरा भरा बतलाती है।

पांवों में केनवास के जूते है, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। दाहिने पांव का जूता ठीक है, मगर बाएं जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अंगुली बाहर निकल आई है।

मैं समझता हूं। तुम्हारी अंगुली का इशारा भी समझता हूं और यह व्यंग – मुस्कान भी समझता हूं।

तुम मुझ पर या हम सभी पर हंस रहे हो, उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उनपर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहें हैं। तुम कह रहे हो – मैंने तो ठोकर मार मारकर जूता फाड़ लिया है, अंगुली बाहर निकल आई, पर पांव बचा रहा और मैं चलता रहा,  मगर तुम अंगुली ढांकने की चिन्ता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे ? “

यहां पर उन्होंने सामाजिक व्यवस्था पर करारा व्यंग किया है , जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है.

9) सरकारी भ्रष्टाचार का विरोध

इस व्यंग्य में भ्रष्टाचार करने वाले महानुभावों की सच्चाई व्यक्त की है।

वो लिखते है,” सबसे निरर्थक आंदोलन भ्रष्टाचार के विरोध का आंदोलन होता है। भ्रष्टाचार विरोधी कोई नहीं डरता। एक प्रकार का यह मनोरंजन है जो राजनीतिक पार्टी कभी कभी खेल लेती है, जैसे कब्बड्डी का मैच। इससे ना सरकार घबड़ाती, न मुनाफाखोर, ना कालाबाजारी, सब इसे शंकर की बारात समझकर मजा लेते हैं। “

यह हमारी व्यवस्था पर किया हुआ व्यंग्य , एक कटु सत्य है।

परसाई जी पर दूसरे व्यंग्यकारों की टिप्पणियाँ  

आइये हम इस कड़ी में सर्व प्रथम ” अट्टहास ” पत्रिका के अतिथि संपादक श्री जयप्रकाश पांडे जी की बात करते हैं,उनका परिश्रम प्रशंसनीय है, उन्होंने सभी व्यंग कारों को आमंत्रित कर, उनकी रचनाओं को सलिके से माला में पीरो कर, एक हास्य -व्यंग का सुगंधित हार बनाया है, जिसकी सुगंध सदैव पाठकों को लुभाती रहेगी, यह प्रयास अविस्मरणीय संस्मरण बनकर पाठकों के हृदय को हमेशा गुदगुदाता रहेगा.

उनके शब्दों में,” समाज से, सरकार से,मान्य परंपराओं के विरोध करने में जो चुनौती का सामना करना होता है उससे सभी कतराते है, पर यह पीड़ा परसाई जी ने उठाई थी। व्यंग्य को लोकोपकारी स्वरूप प्रदान करने में उनके भागीरथी प्रयत्न की लंबी गाथा है।

उनके चाहने वालों की बढ़ती संख्या से अहसास होता है कि – “कबीर इस धरती पर दूसरा जन्म लेकर हरिशंकर परसाई बनकर आए थे”।

उनके द्वारा परसाई जी का साक्षात्कार मील का पत्थर है, उन्होंने परसाई जी के सानिध्य में

काफी समय व्यतीत किया है, यह उनके लिए सौभाग्य की बात है.

अब हम दूसरे व्यंग्यकारों की सम्मिलित रचनाएं, और परसाई पर उनकी टिप्पणी या देखते हैं

डाॅ. आभा सिंह के लेख ” परसाई व्यंग्य के चप्पू ” में लिखती हैं, ” टूटती तो चाल भी है, चलन भी टूटता है। चाल और चलन के टूटने पर चिंतन करो तो टांग भी टूटती है। यह दर असल व्यंग्य का चक्र है”.

डाॅ. नामवर सिंह अपने लेख मे ” एक अविस्मरणीय चरित नायक” में लिखते हैं,” परसाई जी की समस्त रचनाओं में वह तेज पैनी नजर वाला एक व्यक्तित्व है, जो इस दुनिया को तार तार करके देखता है, चिकोटी काटता है, झकझोरता है, चुनौती देता है, वह उनके लेखन का सबसे महत्वपूर्ण चरित्र है “

प्रेम जनमेजय: व्यंग को भी दिल बहलाव के साधन के रूप में अधिक प्रस्तुत किया जा रहा है। ऐसे में आवश्यक है कि परसाई जैसे साहित्यिक व्यक्तित्व को बार-बार इस समय में साथ रखा जाए। उनके चिंतन को आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए ।”

एम.  एम. चंद्रा: इसलिए मेरा स्पष्ट मत है कि परसाई पर बात करने का मतलब उनके समय का इतिहास और विचारधारा पर भी बात करना है। विचारधारात्मक और इतिहास सम्बंधी दृष्टि पर बात करना है और इससे बढ़कर आलोचना और आत्म आलोचना की राह से गुजरना है ।

राजीव कुमार शुक्ल : बुद्धिजीवी वर्ग पर बेहद निर्मम विश्लेषण के साथ परसाई जी ने लिखा है, मसलन ‘ इस देश के बुद्धिजीवी सब शेर है, पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते है”।

अलका अग्रवाल सिग्तिया : परसाई की कलम से आजादी के बाद के मोहभंग, शासक वर्ग के नैतिक पतन, दोगलेपन, भ्रष्टाचार, पाखण्ड, झूठे आचरण, छल,  कपट, स्वास्थ्य परता, सिद्धांतविहीन विचारधारा और गठबंधन सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाना, सत्ता का उन्माद और इन सब में  आम आदमी का पग-पग पर ठगा जाना सबको अपना विषय बनाया। इसलिए उनका लेखन आज भी उतना ही मारक है क्योंकि सरेआम यही तो हो रहा है।

गिरीश पंकज : व्यंग्य विधा है या शैली ? इस प्रश्न पर परसाई जी बोले, ‘ मैं व्यंग्य को एक शैली मानता हूं, जो हर विधा में हो सकती है।”

सुसंस्कृति परिहार : वास्तव में परसाई ने सामाजिक व्यवस्था खासकर शिक्षा संस्थानों की चीर-फाड़ कर यह जताने की पुरजोर कोशिश की कि यदि इस बदरंग व्यवस्था में परिवर्तन नहीं लाया गया तो स्थितियां भयावह होगी। शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय, राजनीति सब पूंजीपतियों के पास पहुंच जायेगी। अफसोसजनक यह कि हम तेजी से इसी दिशा में बढ़ रहे हैं।”

डाॅ. महेश दत्त मिश्र : 

इलाही कुछ न दे लेकिन ये सौ देने का देना है,

अगर इंसान के पहलू में तू इंसान का दिल दे,

वो कुव्वत दे कि टक्कर लूं हरेक गरदावे से,

जो उलझाना है मौजों में, न कश्ती दे न साहिल दे ।

परसाई जी पर यह शेर बखूबी लागू होता है.

डॉ कुन्दन सिंह परिहार :  “परसाई जी का साहित्य सोद्देश्य, समाज के हित में, समाज में परिवर्तन की आकांक्षा से रचा गया। उनके मित्र स्व. मायाराम सुरजन ने उनके विषय में लिखा है,” परसाई जैसे व्यक्ति के बारे में जिसकी निजी जिंदगी केवल दूसरों की समस्यायों की कहानी हो, अपनी कहने को कुछ नहीं।”

परसाई जी ने अपने जन्मदिन पर रचना लिखी, “इस तरह गुजरा जन्मदिन” में कुछ घटनाओं का वर्णन किया है कि जन्मदिन मनाना नहीं चाहते हुए भी उन्हें मनाना पड़ा।

इस संदर्भ में वे लिखते हैं, ” रात तक मित्र शुभचिंतक, अशुभचिंतक आते रहे। कुछ लोग घर में बैठकर गाली बकते रहे कि साला, अभी भी जिंदा है। क्या कर लिया एक साल और जी लिए, कौन सा पराक्रम कर दिया।  नहीं वक्त ऐसा हो गया है कि एक दिन भी जी लेना पराक्रम है।”

डाॅ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’: “परसाई ने आज से पांच साल पहले जो लिखा वह आज भी केवल प्रासंगिक नहीं बल्कि एक तरह से भविष्यवाणी की तरह सिद्ध हो रहा है। उनका लिखा अक्षरशः सही साबित हो रहा है, नई दुनिया में जब  वे “सुनो भाई साधो” स्तंभ लिख रहे थे तो उन्होंने व्यवस्था पर प्रहार किए थे। यह लेख उसी दौर का है जो आज आपको सच जान पड़ेगा क्योंकि आज भी हालत ऐसे हैं। ‘ न खाऊंगा न खाने दूंगा ‘ की असलियत सामने आ गयी है।

श्री अनूप शुक्ल : इन्होंने “परसाई के व्यंग्य बाण” मे उनके व्यंग्य बाणों का संकलन दिया है, जो बहुत ही सुन्दर प्रयास है।

लीजिये एक व्यंग्य बाण – “कुछ आदमी कुत्ते से अधिक जहरीले होते हैं। “

“हरिशंकर परसाई की कलम से” में वे लिखते हैं कि मुझे प्रशंसा के साथ साथ गालियां बहुत मिली है,

“बिहार के किसी कस्बे से एक आदमी ने लिखा कि ‘ तुमने मेरे मामा का, जो फारेस्ट अफसर है, मज़ाक उड़ाया है। उनकी बदनामी की है। मै तुम्हारे खानदान का नाश कर दूंगा। मुझे शनि सिद्ध है।”

वे आगे लिखते हैं कि, “हम सब हास्य और व्यंग्य के लेखक लिखते-लिखते मर जायेंगे, तब भी लेखकों के बेटों से इन आलोचकों के बेटे कहेंगे कि हिंदी में हास्य – व्यंग्य का अभाव है।”

अनूप श्रीवास्तव : आखिरी पन्ना में लिखते हैं, ” परिस्थितियों के चलते चाहे अनचाहे क ई  मोड़ पर उन्हें मन के खिलाफ जाना पड़ा। लेकिन परसाई जी तमाम दबावों के बावजूद न खुद झुके ना ही उनकी विचारधारा बदली। इसलिए उनका व्यंग्य लेखन आज भी शास्वत है। आज भी वे व्यंग्य शिखर पर शक्ति पुंज की तरह स्थापित है। “

यही उनकी जीवन भर की पूंजी है।

पदमश्री (डॉ.) ज्ञान चतुर्वेदी जी ने परसाई जी के बारे में लिखा है कि, “उनका तथाकथित तात्कालिक व्यंग्य लेखन दर असल शोषक शक्तियों और शोषित जनों के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक अंतर्संबंधों से बावस्ता शास्वत प्रश्नों के हल तलाशता शाश्वत लेखन है। तभी वे आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि ये सारे प्रश्न भेष बदलकर आज भी हमारे सामने है।,”

इस “अटृहास” के परसाई विशेषांक में परसाई जी के व्यंग्यों का एक उत्कृष्ट संकलन है, व्यंग्यकारों की टीप्पणी यां है,जो आपको हंसने के साथ साथ सोचने पर भी मजबूर करेगी.

अगर आप तनाव में हैं तो आपको एक सुकून देगी, आप के जीवन में कुछ पल के लिए ही सही शांति प्रदान करेगी. यह विशेषांक संग्रहण करने योग्य है, अदभुत एवं बेमिसाल है.

सभी “अट्टहास” के संपादक मंडल का प्रयास अतुलनीय है, और सोने पे सुहागा अतिथि संपादक श्री जयप्रकाश पांडे जी का संपादन प्रशंसनीय है.

आखिरी में ” शनि की प्रतिमा को विनम्र अभिवादन”

होली की रंग- गुलाल के साथ बहुत बहुत शुभकामनाएं

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – भूख… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘भूख…’।)

☆ लघुकथा – भूख… ☆

शांति, घर घर में जाकर बर्तन धो कर अपनी आजीविका चलाती थी, पिछले कई दिनों से बीमार थी, वह काम पर नहीं जा पाई थी, घर में, दाल, चावल, आटा सब खत्म हो चुका था, फाके की नौबत आ गई थी, अपने बेटे को भी कुछ नहीं बना पाई थी, बेटा कल रात से भूखा था, शाम होने को आई, घर में अन्न का एक दाना भी नहीं था, वह जानती थी, अभी उसका शराबी पति, आकर, पैसे मांगेगा, अब उसके पास पैसे नहीं हैं, जब भी शराब पीने के लिए पैसे नहीं देगी, तो उसका पति उसकी पिटाई करेगा, यह रोज का नियम बन गया था, उसका पति रमेश कई दिनों से बेकार था, काम पर नहीं जाता था, उधार ले लेकर शराब पीता था, और अब तो उसके सभी जानने वालों ने, उसे उधार देना बंद कर दिया था, परंतु वह सोचता था, कि, उसकी पत्नी के पास पैसे रखे होंगे, वही वह मांगता था, जब वह मना करती तो वह अपनी पत्नी को पीटता था, आज भी जैसे ही घर में घुसा उसने देखा, बच्चे ने कागज खा लिया है, उसने बच्चे की पिटाई करना शुरू कर दी, बच्चा रोता रहा, परंतु उसने कुछ नहीं बताया कि कागज क्यों खाया,

क्योंकि बच्चा जानता था, कि पिता कुछ नहीं सुनेगा, फिर मारेगा,

उसके पिता ने, अपनी पत्नी से शराब के लिए पैसे मांगे, जब शांति ने पैसे देने से मना किया, कहा नहीं हैं, तो  रमेश ने उसकी डंडे से पिटाई की,

बहुत मारा, और कहा बच्चा कागज खा रहा था, तो यह भी नहीं देख सकती, ,

और मार पीट कर बाहर चला गया,

शांति कराहती हुई उठी, बेटे को उठाया, और आंसू बहाते हुए, बेटे से बोली,

क्यों जान लेना चाहता है मेरी,

क्यों कागज खा रहा था, ,

बेटे ने कहा, मां कल से भोजन नहीं मिला, बहुत भूख लगी थी, कागज पर रोटी बनी थी, इसलिए कागज खा लिया था..

शांति कुछ नहीं बोल सकी, जड़ हो गई, आंसू भी थम गए, बेटे को गले लगाकर स्तब्ध हो गई.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 165 ☆ होळी… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 165 ? 

☆ होळी… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆/

तप्त उन्हाच्या झळा

चैत्र महिना तापला

पळस फुलून गेले

होळीचा सण आटोपला…०१

*

तप्त उन्हाच्या झळा

जीव कासावीस होतो

थंड पाणी प्यावे वाटते

उकाडा खूप जाणवतो…०२

*

तप्त उन्हाच्या झळा

शेतकरी घाम गाळतो

अंग भाजले उन्हाने

तरी राब राब राबतो…०३

*

तप्त उन्हाच्या झळा

पायाला फोड तो आला

अनवाणी फिरते माय

चारा बैलाला टाकला…०४

*

तप्त उन्हाच्या झळा

सोसाव्या लागतील

काही दिवसांनी मग

सरी पावसाच्या येतील…०५

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 234 ☆ कहानी – गृहप्रवेश ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – गृहप्रवेश। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 234 ☆

☆ कथा-कहानी –  गृहप्रवेश

गौड़ साहब बैंक से वी.आर.एस. लेकर घर बैठ गये। धन काफी प्राप्त हुआ, लेकिन  असमय ही बेकार हो गये। अभी हाथ- पाँव दुरुस्त हैं, इसलिए दो चार महीने के आराम के बाद खाली वक्त अखरने लगा। पहले सोचा था कि फुरसत मिलने पर घूम-घाम कर रिश्तेदारों से मेल- मुलाकात करेंगे, मूर्छित पड़े रिश्तों को हिला-डुला कर फिर जगाएँगे, लेकिन जल्दी ही भ्रम दूर हो गया। सब के पास उन जैसी फुरसत नहीं। घंटे दो- घंटे के प्रेम-मिलन के बाद धीरे-धीरे सन्नाटा घुसपैठ करने लगता है। दो-तीन दिन के बाद सवालिया निगाहें उठने लगती हैं कि (शरद जोशी के शब्दों में) ‘अतिथि तुम कब जाओगे?’

गौड़ साहब तड़के उठकर खूब घूमते हैं। घूमते घूमते पार्क में बैठ जाते हैं तो जब तक मन न ऊबे बैठे रहते हैं। कोई जल्दी नहीं रहती। घर जल्दी लौटकर ‘खटपट’ करके दूसरों की नींद डिस्टर्ब करने से क्या फायदा? पार्क में कुछ और रिटायर्ड मिल जाते हैं तो गप-गोष्ठी भी हो जाती है। लौटते में कई घरों से ढेर सारे फूल तोड़ लाते हैं और फिर नहा-धोकर घंटों पूजा करते हैं।

कुछ दिन तक मन ऊबने पर बैंक में पुराने साथियों के पास जा बैठते थे। उनके जैसे और भी स्वेच्छा से सेवानिवृत्त आ जाते थे। कुछ दिनों में ही ये सब फुरसत-पीड़ित लोग बैंक के प्रशासन की आँखों में खटकने लगे। दीवारों पर पट्टियाँ लग गयीं कि ‘कर्मचारियों के पास फालतू न बैठें।’ कर्मचारियों को भी हिदायत मिल गयी कि आसपास खाली कुर्सियाँ न रखें, न ही फालतू लोगों को ‘लिफ्ट’ दें। इस प्रकार गौड़ साहब का वक्त काटने का यह रास्ता बन्द हुआ।

वैसे गौड़ साहब परिवार की तरफ से निश्चिंत हैं। तीन बेटे और एक बेटी है। दो बेटे काम से लग गये हैं। बड़े बेटे और बेटी की शादी हो गयी है। छोटा बेटा एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा है। उसकी पढ़ाई मँहगी है और इससे गौड़ साहब को सेवानिवृत्ति से प्राप्त राशि में कुछ घुन लगा है। लेकिन उन्हें भरोसा है कि लड़का जल्दी काम से लगकर उन्हें पूरी तरह चिन्तामुक्त करेगा। फिलहाल वे मँझले बेटे की शादी की तैयारी में व्यस्त हैं।

मँझले बेटे की शादी से तीन चार महीने पहले गौड़ साहब मकान में ऊपर दो कमरे और एक हॉल बनाने में लग गये क्योंकि अभी तक मकान एक मंज़िल का ही था और उसमें जगह पर्याप्त नहीं है। बड़े बेटे का परिवार भी उनके साथ ही है। गौड़ साहब ने पहले ऊपर नहीं बनाया क्योंकि वे व्यर्थ में ईंट-पत्थरों में सिर मारना पसन्द नहीं करते। उन्हें किराये पर उठाने की दृष्टि से निर्माण कराना भी पसन्द नहीं। कहते हैं, ‘किरायेदार से जब तक पटी, पटी। जब नहीं पटती तब एक ही घर में उसके साथ रहना सज़ा हो जाती है। जिस आदमी का चेहरा देखने से ब्लड- प्रेशर बढ़ता है उसके चौबीस घंटे दर्शन करने पड़ते हैं। राम राम!’ वे कानों को हाथ लगाते हैं।

निर्माण में गौड़ साहब का ही पैसा लग रहा है। बेटों को पता है उनके पास रकम है। उन्हें बेटों से माँगने में संकोच लगता है। अपनी मर्जी से उन्होंने कोई पेमेंट कर दिया तो ठीक, वर्ना गौड़ साहब अपने बैंक का रुख करते हैं। जब ढाई तीन लाख निकल गये तो उन्होंने धीरे से मँझले बेटे बृजेन्द्र से ज़िक्र किया,कहा, ‘बेटा, सब पैसा खर्च हो जाएगा तो बुढ़ापे में तकलीफ होगी। कभी बीमारी ने पकड़ा तो मुश्किल हो जाएगी। आजकल प्राइवेट अस्पतालों में तीन-चार दिन भी भर्ती रहना पड़े तो बीस पच्चीस हज़ार का बिल बन जाता है। यही हाल रहा तो आदमी बीमार पड़ने से डरेगा।’

बृजेन्द्र ने जवाब दिया, ‘दिक्कत हो तो आप लोन ले लो, बाबूजी। हम चुकाने में मदद करेंगे। हमारे पास इकट्ठे होते तो दे देते। चिन्ता करने की जरूरत नहीं है।’

लेकिन उसके आश्वासन से गौड़ साहब की चिन्ता कैसे दूर हो? जो हो, उन्होंने शादी के पहले काम करीब करीब पूरा कर लिया है। थोड़ा बहुत फिटिंग-विटिंग का काम रह गया है सो होता रहेगा। नयी बहू को अलग कमरा मिल जाएगा।

निर्माण कार्य के चलते ज़्यादातर वक्त गौड़ साहब कमर पर हाथ धरे, ऊपर मुँह उठाये, काम का निरीक्षण करते दिख जाते हैं। धूप में भी निरीक्षण करना पड़ता है। मिस्त्री-मज़दूर का क्या भरोसा? उधर से निकलने वाले उनकी उस मुद्रा से परिचित हो गये हैं। अब अपनी जगह न दिखें तो आश्चर्य होता है।

शादी हो गयी और बहू घर आ गयी। बहू के पिता यानी गौड़ साहब के नये समधी बड़े सरकारी पद पर हैं। अच्छा रुतबा है। उनसे रिश्ता होने पर गौड़ साहब का मर्तबा भी बढ़ा है। पावरफुल होने के बावजूद समधी साहब लड़की के बाप की सभी औपचारिकताओं का निर्वाह करते हैं।

पास का पैसा निकल जाने से गौड़ साहब कुछ श्रीहीन हुए हैं। कंधे कुछ झुक गये हैं और चाल भी सुस्त पड़ गयी है। कहते हैं जब लक्ष्मी आती है तो छाती पर लात मारती है जिससे आदमी की छाती चौड़ी हो जाती है, और जब जाती है तो पीठ पर लात मारती है जिससे कंधे सिकुड़ जाते हैं।

एक दिन उनके भतीजे ने उन्हें और परेशानी में डाल दिया। घर में एक तरफ ले जाकर बोला, ‘चाचा जी, आप यहाँ दिन रात एक करके बृजेन्द्र भैया के लिए कमरे बनवा रहे हैं, लेकिन उन्होंने तो आलोक नगर में डुप्लेक्स बुक करवा लिया है।’

सुनकर गौड़ साहब को खासा झटका लगा। बोले, ‘कैसी बातें करता है तू? बृजेन्द्र भला ऐसा क्यों करने लगा? उसी के लिए तो मैंने तपती दोपहरी में खड़े होकर कमरे बनवाये हैं।’

भतीजा बोला, ‘मेरा एक दोस्त स्टेट बैंक में काम करता है, उसी ने बताया। स्टेट बैंक में लोन के लिए एप्लाई किया है। उनके ससुर भी साथ गये थे।’

गौड़ साहब का माथा घूमने लगा। यह क्या गड़बड़झाला है? बेटा भला ऐसा क्यों करेगा? ऐसा होता तो उनसे बताने में क्या दिक्कत थी? उन्होंने फालतू अपना पैसा मकान में फँसाया।

शाम को बृजेन्द्र घर आया तो उन्होंने बिना सूचना का सूत्र बताये उससे पूछा। सवाल सुनकर उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। हकलाते हुए बोला, ‘कैसा मकान? मैं भला मकान क्यों खरीदने लगा? मुझे क्या ज़रूरत? आपसे किसने बताया?’

फिर बोला, ‘मैं समझ गया। दरअसल मेरे ससुर साहब अपने बड़े बेटे समीर के लिए वहाँ डुप्लेक्स खरीद रहे हैं। मैं भी उनके साथ बैंक गया था। इसीलिए किसी को गलतफहमी हो गयी। आप भी, बाबूजी, कैसी कैसी बातों पर विश्वास कर लेते हैं!’

बात आयी गयी हो गयी, लेकिन कुछ था जो गौड़ साहब के मन को लगातार कुरेदता रहा। बृजेन्द्र के ससुराल पक्ष के लोग आते रहे, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं बताया।

फिर एक दिन बृजेन्द्र उनके पास सिकुड़ता-सकुचता आ गया। हाथ में एक कार्ड। उनके पाँव छूकर, कार्ड बढ़ाकर बोला, ‘बाबू जी, आपका आशीर्वाद चाहिए।’

गौड़ साहब ने कार्ड निकाला। देखा, मज़मून के बाद ‘विनीत’ के नीचे उन्हीं का नाम छपा था। बृजेन्द्र गौड़ के आलोक नगर स्थित नये मकान में प्रवेश का कार्ड था। बृजेन्द्र कार्ड देकर सिर झुकाये खड़ा था। पिता ने प्रश्नवाचक नज़रों से उसकी तरफ देखा तो बोला, ‘आपको बता नहीं पाया, बाबूजी। डर था आपको कहीं बुरा न लगे। ऑफिस के कुछ लोग ले रहे थे तो सोचा मैं भी लेकर डाल दूँ। प्रॉपर्टी है, कुछ फायदा ही होगा।’

गौड़ साहब कुछ नहीं बोल सके।  उस दिन से उनका सब हिसाब-किताब गड़बड़ हो गया। बोलना-बताना कम हो गया। ज़्यादातर वक्त मौन ही रहते। भोजन करते तो दो रोटी के बाद ही हाथ उठा देते— ‘बस, भूख नहीं है।’

गृहप्रवेश वाले दिन के पहले से ही बृजेन्द्र खूब व्यस्त हो गया। प्रवेश वाले दिन दौड़ते- भागते पिता के पास आकर बोला, ‘बाबूजी, मैं गाड़ी भेज दूँगा। आप लोग आ जाइएगा।’

नये भवन में गहमागहमी थी। बृजेन्द्र के ससुराल पक्ष के सभी लोग उपस्थित थे। बहू, अधिकार-बोध से गर्वित, अतिथियों का स्वागत करने और उन्हें घर दिखाने में लगी थी। पिता के पहुँचते ही बृजेन्द्र उनसे बोला, ‘बाबूजी, पूजा पर आप ही बैठेंगे। आप घर के बड़े हैं।’

गौड़ साहब यंत्रवत पुरोहित के निर्देशानुसार पूजा संपन्न कराके एक तरफ बैठ गये। लोग उनसे मिलकर बात कर रहे थे लेकिन उनका मन बुझ गया था,जैसे भीतर कुछ टूट गया हो। भोजन करके वे पत्नी के साथ वापस घर आ गये। घर में उतर कर ऊपर नये बने हिस्से पर नज़र डाली तो लगा वह हिस्सा उनके सिर पर सवार हो गया है।

आठ-दस दिन गुज़रे, फिर एक दिन एक ट्रक दरवाजे़ पर आ लगा। बृजेन्द्र का साला लेकर आया था। ऊपर से सामान उतरने लगा। दोपहर तक सामान लादकर ट्रक रवाना हो गया। शाम को बृजेन्द्र की ससुराल से कार आ गयी। बृजेन्द्र और बहू छोटा-मोटा सामान लेकर नीचे आ गये। बृजेन्द्र पिता-माता के पाँव छूकर बोला, ‘बाबूजी हम जा रहे हैं। मकान को ज्यादा दिन खाली छोड़ना ठीक नहीं। जमाना खराब है। आप आइएगा। कुछ दिन हमारे साथ भी रहिएगा। वह घर भी आपका ही है।’ बहू ने भी पाँव छूते हुए कहा, ‘बाबूजी, आप लोग जरूर आइएगा।’ फिर वे कार में बैठकर सर्र से निकल गये।

उनके जाने के बाद बड़ी देर तक गौड़ साहब और उनकी पत्नी गुमसुम बैठे रहे। अन्ततः पत्नी पति से बोलीं, ‘अब सोच सोच कर तबियत खराब मत करो। बच्चे तो एक दिन अपना बसेरा बनाते ही हैं।’

गौड़ साहब लंबी साँस लेकर बोले, ‘ठीक कहती हो। गलती हमारी ही है जो हम बहुत सी गलतफहमियाँ पाल लेते हैं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 232 – धूलिवंदन☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 232 ☆ धूलिवंदन ?

क्यों बाहर रंग तलाशता मनुष्य

अपने भीतर देखो  रंगों का इंद्रधनुष..,

जिसकी अपने भीतर का इंद्रधनुष देखने की दृष्टि विकसित हो ली, बाहर की दुनिया में उसके लिए नित मनती है होली। रासरचैया उन आँखों में  हर क्षण रचाते हैं रास, उन आँखों का स्थायी भाव बन जाता है फाग।

फाग, गले लगने और लगाने का रास्ता दिखाता है पर उस पर चल नहीं पाते। जानते हो क्यों? अहंकार की बढ़ी हुई तोंद अपनत्व को गले नहीं लगने देती। वस्तुत:  दर्प, मद, राग, मत्सर, कटुता का दहन कर उसकी धूलि में नेह का नवांकुरण है होली।

नेह की सरिता जब धाराप्रवाह बहती है तो धारा न रहकर राधा हो जाती है। शाश्वत प्रेम की शाश्वत प्रतीक हैं राधारानी। उनकी आँखों में, हृदय में, रोम-रोम में प्रेम है, श्वास-श्वास में राधारमण हैं।

सुनते हैं कि एक बार राधारमण गंभीर रूप से बीमार पड़े। सारे वैद्य हार गए। तब भगवान ने स्वयं अपना उपचार बताते हुए कहा कि उनकी कोई परमभक्त गोपी अपने चरणों को धो कर यदि वह जल उन्हें पिला दे तो वह ठीक हो सकते हैं। परमभक्त सिद्ध न हो पाने भय, श्रीकृष्ण को चरणामृत देने का संकोच जैसे अनेक कारणों से कोई गोपी सामने नहीं आई। राधारानी को ज्यों ही यह बात पता लगी, बिना एक क्षण विचार किए उन्होंने अपने चरण धो कर प्रयुक्त जल भगवान के प्राशन के लिए भेज दिया।

वस्तुत: प्रेम का अंकुरण भीतर से होना चाहिए। शब्दों को  वर्णों का समुच्चय समझने वाले असंख्य आए, आए सो असंख्य गए। तथापि जिन्होंने शब्दों का मोल, अनमोल समझा, शब्दों को बाँचा भर नहीं बल्कि भरपूर  जिया, प्रेम उन्हीं के भीतर पुष्पित, पल्लवित, गुंफित हुआ। शब्दों का अपना मायाजाल होता है किंतु इस माया में रमनेवाला मालामाल होता है। इस जाल से सच्ची माया करोगे, शब्दों के अर्थ को जियोगे तो सीस देने का भाव उत्पन्न होगा। जिसमें सीस देने का भाव उत्पन्न हुआ, ब्रह्मरस प्रेम का उसे ही आसीस मिला।

प्रेम ना बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।

राजा, परजा जेहि रुचै, सीस देइ ले जाय।

बंजर देकर उपजाऊ पाने का सबसे बड़ा पर्व है धूलिवंदन। शीष देने की तैयारी हो तो आओ सब चलें, सब लें प्रेम का आशीष..!

इंद्रधनुष का सुलझा गणित,

रंग-बिरंगी छटाएँ अंतर्निहित,

अंतस में पहले सद्भाव जगाएँ,

नित-प्रति तब  होली मनाएँ।….

💥 खेलें होली, मिलें होली…! शुभ होली। 💥

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ महाशिवरात्रि साधना पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। अगली साधना की जानकारी से शीघ्र ही आपको अवगत कराया जाएगा। 🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 180 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 180 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 180) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.  

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 180 ?

☆☆☆☆☆

देख दुनिया की बेरूखी

न पूछ ये नाचीज़ कैसा है

हम बारूद पे बैठें हैं

और हर शख्स माचिस जैसा है

☆☆

Seeing the rudeness of the world

Ask me not how worthless me is coping

I’m sitting on pile of explosives

And every person is like a fuse…

☆☆☆☆☆

शहरों का यूँ वीरान होना

कुछ यूँ ग़ज़ब कर गया…

बरसों से  पड़े  गुमसुम

घरों को आबाद कर गया…

☆☆

Desolation of the cities

Did something amazing…

Repopulated the houses

Lying deserted for years…

☆☆☆☆☆

सारे मुल्क़ों को नाज था

अपने अपने परमाणु पर

क़ायनात बेबस हो गई

एक छोटे से कीटाणु पर..!!

☆☆

Every country greatly boasted of

Being a nuclear super power…

Entire universe was rendered

Grossly helpless by a tiny virus…!

☆☆☆☆☆

कितनी आसान थी ज़िन्दगी तेरी राहें

मुशकिले हम खुद ही खरीदते है

और कुछ मिल जाये तो अच्छा होता

बहुत पा लेने पे भी यही सोचते है…

☆☆

O life! How simple were your ways…

We only bought slew of difficulties on our own

Kept craving continuously, even after acquiring a lot,

How nice it would be if only I could get something more

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 179 ☆ मुक्तिका : रूप की धूप ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है मुक्तिका : रूप की धूप)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 179 ☆

☆ मुक्तिका : रूप की धूप ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

रूप की धूप बिखर जाए तो अच्छा होगा

रूप का रूप निखर आए तो अच्छा होगा

*

दिल में छाया है अँधेरा सा सिमट जाएगा

धूप का भूप प्रखर आए तो अच्छा होगा

*

मन हिरनिया की तरह खूब कुलाचें भरना

पीर की पीर निथर आए तो अच्छा होगा

*

आँख में झाँक मिले नैन से नैना जबसे

झुक उठे लड़ के मिले नैन तो अच्छा होगा

*

भरो अँजुरी में ‘सलिल’ रूप जो उसका देखो

बिको बिन मोल हो अनमोल तो अच्छा होगा

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२८.११.२०१५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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