(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “भाग्य हमारा” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 96 ☆ एक नवगीत- भाग्य हमारा ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “अस्त होना है तय उसे समझो…“)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 100 ☆
अस्त होना है तय उसे समझो… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
(वरिष्ठ साहित्यकारडॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “फोटो… “।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 13 ☆
लघुकथा – फोटो… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
मुझे जीवन में एक पत्रिका का संपादक बनने का अवसर मिला। मैं तो बल्लियों उछल गया। लोकतंत्र के तीसरे स्तंभ का हिस्सा। वाह, वाह अपनी ही पीठ थपथपाने लगा। मेरा जो भी सहयोगी सामने आता तो मैं उससे उम्मीद करता कि वह मुझे बधाई दे, मुझसे नमस्ते करे, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं।
एक बात अवश्य हुई कि जिन लोगों की लिखने में रुचि थी, उनका मेरे प्रति नजरिया अवश्य बदला और मुझसे संबंध बनाने के प्रयास करने लगे। जो उच्च श्रेणी के थे वे जहाँ मेरा नाम देखते किसी प्रस्ताव आदि पर तो सहमति व्यक्त कर देते। जो बराबर के थे, वे चाय पिलाने की पहल करने लगे, जबकि पहले पूछते भी नहीं थे। और जो नीचे की श्रेणी के थे वे पहले जो काम टाल जाया करते थे, अब प्राथमिकता से करने लगे। रचनाएं आने लगीं। संपादन क्या होता है, मैं अधिक नहीं जानता था। बस लेख आदि के शब्द, वाक्यों को ठीक करना, विषय के अनुरूप भाषा को बनाए रखना और जो विषय से मेल न खाती हो, उसे काट देना। काफी अच्छा लिखने वाले जुड़ते गए और पत्रिका के अच्छे अंक निकलने लगे। चूंकि सरकारी विभाग की पत्रिका थी इसलिए मुझे कड़े निर्देश थे कि सरकार, मंत्री आदि की आलोचना संबंधी कोई लेख आदि नहीं होना चाहिए। एक लेखक, कवि की एक ही रचना प्रकाशित होनी चाहिए।
एक बार एक कवि महाशय आए और अपनी दो कविताएँ एक ही अंक में प्रकाशित करने का अनुरोध करने लगे। कहने लगे कि इस पत्रिका में छपी अपनी कविताएँ लोगों को दिखाता हूँ तो खुश होते हैं और मुझे कवि सम्मेलन में भी बुलाते हैं। मैं यह जानता था कि वे अधिक पढ़े लिखे नहीं हैं और चतुर्थ श्रेणी में काम करते हैं परंतु लेखन और हिंदी के प्रति उनकी रुचि देखकर मन में आया कि प्रकाशित कर दूँ लेकिन यह नियम विरुद्ध था परंतु उनकी जी हजूरी भी कचोट रही थी। जी हुजूरी करने वाले को मैं एक मजबूर लाचार व्यक्ति समझता था इसलिए मैंने बॉस से अनुमति लेकर उस अंक में उनकी दो कविताएं ले लीं। उसके बाद तो वे उसे ही नज़ीर बना कर हर अंक में दो कविताएँ प्रकाशित करने पर बल देने लगे। उनके व्यवहार में परिवर्तन आ गया। कवि होने का दंभ भरने लगे।
ऐसे ही एक नवोदित लेखक थे। बड़े ही सुंदर अक्षरों में एकदम व्यवस्थित ढंग से निबंध लिखते थे। अपने निबंध में एक अक्षर का भी संशोधन उन्हें बर्दास्त नहीं था। हर निबंध के साथ अपना फोटो और बायो डाटा अवश्य भेजते थे। पत्रिका में लेखक का नाम, पदनाम और पता प्रकाशित करने का नियम था। ऐसा लेखक बहुत बड़ा होता है जिसके निबंध, कविता आदि में कोई भी गलती न हो ऐसा निबंध होना बड़ा मुश्किल था कि उसमें एक वर्तनी भी ग़लत न हो। वर्तनी ठीक करने पर वे लेखक शिकायत करते कि मैं मनमाने ढंग से संपादन करता हूँ। एक बार उनसे किसी बहाने मुलाकात हो गई। मैंने उनके फोटो देखे थे तो उन्हें पहचान गया। पर वे नहीं पहचान पाए। केवल कार्यालय का नाम सुनते ही पत्रिका के संपादक की बुराई करने लगे कि वह अहंकारी और मूर्ख है। हर निबंध के साथ मैं नया फोटो खिंचवा कर अपना आकर्षक फोटो भेजता हूँ पर वह छापता ही नहीं। अब क्या मैं, इतना बड़ा लेखक खुद कहूंगा फोटो छापने के लिए। मेरी ओर से कोई विशेष प्रतिक्रिया न देखकर, उन्हें याद आया कि उन्होंने मेरा परिचय तो जाना ही नहीं सो सामान्य होते हुए मुझसे कह बैठे कि क्षमा कीजिए मैं अपनी ही बातों में बह गया, आपका तो परिचय पूछा ही नहीं। मैंने कहा जी मैं वही नाचीज़ मूर्ख इंसान हूं जिसकी अभी आप तारीफ कर रहे थे। उनके चेहरे का रंग उड़ गया। और जरूरी काम होने का बहाना बना कर चले गए। मैं सोचने लगा कि व्यक्ति में फोटो छपवाने की इतनी लालसा क्यों है?
श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक, चंद कविताएं चंद अशआर” शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता – ऐसी भी क्या थी बाधा?।)
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मां की कीमत।)
मां हम ऑफिस से आते हुए होली के लिए बाजार से गुजिया और सामान ले आएंगे तुम घर में परेशान मत होना तुम बेकार बनाती हो पास में एक अच्छी दुकान है वहां भी एकदम घर जैसी गुजिया मिलती है अरुण ने अपनी मां को कहा।
बेटा तुम और बहू दोनों व्यस्त रहते हो मैं घर में सारा दिन क्या करूं तो सुबह तुम्हारा टिफिन बनाने के बाद मैं बनाकर रख लूंगी फालतू पैसे क्यों खर्च कर रहे हो।
माँ तुम पैसों की चिंता मत करो आखिर हम दोनों काम क्यों रहे हैं?
मां रोमा तो ऑफिस चली गई है अब मैं जा रहा हूं।
शाम को रोमा और अरुण दोनों गुजिया, गुलाल और होली के लिए ढेर सारा सामान लेकर घर आए।
अरुण – “पास में जो दुकान खोली है वहां कितना अच्छा सामान मिलता है मां जी आप खा कर देखो। एकदम तुम्हारे हाथों का स्वाद लग रहा है मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा है।”
कमला ने कहा – “मैं तो बनाती हूं तो तुम लोग नाक मुंह सिकुड़ते हो और अच्छा नहीं लगता अब बाजार से लाए हो तो कह रहे हो कि घर जैसा है।”
तभी अचानक दुकान का मालिक घर में आता है।
“कमला आंटी आप तो बिल्कुल मेरी मां की तरह हो आपके कारण मेरी दुकान चल निकली । होली के लिए कुछ और गुजिया बनाना है मैं माफी चाहता हूं आपको आकर तकलीफ दे रहा हूं आप चाहे तो मेरी दुकान में आकर बस आपकी निगरानी में दुकान में काम करने वाले लोग बना देंगे। क्या-क्या सामान चाहिए ? आप पूरी लिस्ट बना दो आंटी।”
“अरे आप लोग तो अभी थोड़ी देर पहले ही मेरी दुकान में आए थे आपने यह क्यों नहीं बताया कि आप आंटी के बच्चे हो। और हंसते हुए कहा हर बच्चों का यही हाल है अपनी मां की कीमत नहीं जानते।”
बहू नाराज होकर बोली – “मां आपको यदि काम करना ही था कुछ तो हमें बताया होता। इस तरह बेइज्जती तो ना करती सबके सामने । क्या हम आपको अच्छे से नहीं रखते ?
(लावणी ही महाराष्ट्राची लोककला आहे. लावणी पारंपरिक, आकर्षक नृत्यप्रकार आहे, नर्तकीचे पदन्यास, हातांच्या हलचाली आणि मुद्राभिनय मोहक असतात, लावणी नृत्यात गीत आणि संगीताला फार महत्त्व आहे! पूर्वीच्या काळी लावणी, तमाशा ही उपेक्षित कला होती, पण नंतरच्या काळात तिला लोकमान्यता व लोकप्रियता मिळाली! सध्या लावणी महिला वर्गातही आवडीने पाहिली ऐकली जाते! )
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – जानते हैं हम शराफत आपकी…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 93– जानते हैं हम शराफत आपकी… ☆ आचार्य भगवत दुबे
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेंद्र निगम जी ने बैंक ऑफ महाराष्ट्र में प्रबंधक के रूप में सेवाएँ देकर अगस्त 2002 में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली। उसके बाद लेखन के अतिरिक्त गुजराती से हिंदी व अँग्रेजी से हिन्दी के अनुवाद कार्य में प्रवृत्त हैं। विभिन्न लेखकों व विषयों का आपके द्वारा अनूदित 14 पुस्तकें प्रकाशित हैं। गुजराती से हिंदी में आपके द्वारा कई कहानियाँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आपके लेखों का गुजराती व उड़िया में अनुवाद हुआ है। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री यशवंत ठक्कर जी की कथा का हिन्दी भावानुवाद “मायका“।)
☆ कथा-कहानी – मायका – गुजराती लेखक – श्री यशवंत ठक्कर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम ☆
‘मेहुल, क्या आज ऑफिस से कुछ जल्दी आ सकते हो ?’ स्वाति ने पूछा |
‘क्यों ?’
‘आज रात आठ बजे टाउन-हाल में कवि सम्मलेन है | उसमें कई अच्छे-अच्छे कवि आनेवाले हैं | तुम यदि आओ तो चलते हैं |’
हर वक्त जब भी कविता, नाटक या साहित्य का जिक्र होता, तो मेहुल को हँसी आ जाती | इस वक्त भी वह आ गई | वह हँसते-हँसते बोला ; ‘कवि साले कल्पना की दुनिया से कभी बाहर ही नहीं आते | उन्हें कुछ दूसरा भी कुछ काम-धंधा है या नहीं |’
‘मेहुल, यदि न जाना हो, तो मुझे कुछ आपत्ति नहीं है | लेकिन ऐसे किसी का अपमान करना ठीक नहीं है |’
‘लो, तुम तो नाराज हो गई | तुम तो ऐसे बात कर रही हो, मानो मैंने तुम्हारे मायकों वालों की तौहीन कर दी हो |’
हर बार की तरह स्वाति चुप हो गई | लेकिन वह मन ही मन मेहुल से सवाल किए बगैर रह नहीं सकी | ‘मेहुल, यह मेरे मायके वालों के अपमान करने जैसा नहीं है | मायका अर्थात क्या सिर्फ मेरे माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, मामा-मामी आदि ही ? जिन कवियों की कविताओं ने मुझे प्रेम करना सिखाया, सपने देखना सिखाया, अकेले-अकेले मुस्कराना सिखाया, अकेले-अकेले रोना सिखाया, वे कवि क्या मेरे मायके के नहीं हैं ? आज मैं जो भी हूँ, जैसी भी हूँ, उसमें मेरे माता-पिता व मेरे शिक्षकों के साथ इन कवियों का भी अहम योगदान है | यह मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ ? इसे समझने के लिए जब तुम्हारे पास यदि हृदय ही नहीं हो तब !’
स्वाति मेहुल के लिए टिफिन तैयार करने के काम में व्यस्त हो गई | मेहुल ऑफिस जाने की तैयारी में लग गया | लेकिन वातावरण में उदासी का रंग छा गया |
ऑफिस जाते समय मेहुल ने वातावरण को हल्का बनाने के इरादे से कहा, ‘सॉरी स्वाति, तुम तो जानती ही हो कि मैं पहले से ही कुछ प्रेक्टिकल हूँ और मुझे ऐसे कल्पना के घोड़े दौड़ाना अच्छा नहीं लगता | मुझे काम भी बहुत रहता है | जवाबदारी भी बहुत है | हमें अंश के भविष्य के बारे में भी विचार करना है | उसे किसी अच्छे होस्टल में रखना है | अच्छी पढ़ाई के बाद उसे विदेश भेजना है | ऐसे में साहित्य का राग ही अलापना नहीं है |’
स्वाति का मौन टूटा नहीं |
मेहुल ने वातावरण को हलका बनाने का प्रयास जारी रखा | ‘स्वाति, तुम्हें कविता, नाटक व कहानियाँ आदि का शौक है, लेकिन ये सब तो टीवी में आते ही हैं न ? अब तो नेट पर भी यह सब मिल जाता है |’
‘मेहुल, नेट पर तो रोटी-सब्जी भी होती है, लेकिन उससे पेट तो नहीं भरता | टीवी में हरे-भरे पेड़ भी बहुत होते हैं, लेकिन हमें उनसे छाँह तो नहीं मिलती | टीवी की बरसात हमें भिगोती नहीं है | ठीक है, कोई बात नहीं | कवि-सम्मलेन कोई बहुत बड़ी बात नहीं है | न जाएँगे, तब भी चलेगा | हमारी जवाबदारियाँ पहले हैं |’
स्वाति ने हँसने की कोशिश की, लेकिन उसकी रुआँसी आँखें मेहुल की नजरों से छिप न सकीं |
‘तुम्हें खुश रखने के लिए मैं कितनी जी तोड़ मेहनत करता हूँ, फिर भी तुम्हारी आँखों में आँसू ! तुम्हें क्या चाहिए, यह मुझे समझ नहीं आता |’ मेहुल की आवाज कुछ तेज हो गई |
‘मुझे मेरा गुम हुआ मेहुल चाहिए | जो छोटी-छोटी बातों से खुश हो जाता था |’ स्वाति किसी तरह कुछ बोल सकी |
‘छोटी-छोटी बातें !’ मेहुल हँसा और ऑफिस जाने लिए निकल गया |
अकेली रह गई स्वाति और वह जी भर कर रोती रही | वह सोचने लगी | ‘ऐसी जिंदगी, अब जी नहीं सकते, लगता है यह तो अब रोज मानो कॉपी-पेस्ट होती जा रही है | इसमें से अब नया कुछ भी बनने से रहा | जो बनना था, वह बन गया | अब तो जो रोज बनता है, वह सब एक जैसा | कविता, नाटक, संगीत, प्रवास इन सब के बगैर जिंदगी रुक नहीं जाती है, लेकिन इन सब के होने से जिंदगी को एक गति मिलती है | लेकिन इन सब को समझने के लिए मेहुल के पास वक्त नहीं है | शयद उसकी जिंदगी तेजी से भाग रही ट्रेन जैसी है और मेरी जिंदगी यार्ड में पड़े किसी डिब्बे जैसी !’
काम पूरा कर वह बिस्तर पर लेटी और बिस्तर पर पड़े-पड़े यही सोचती रही | उसकी आँखें बोझिल होने लगीं |
जब मोबाईल की रिंग बजी, तब उसकी आँखें खुलीं | फोन मेहुल का था | बात शुरू करने के पहले स्वाति ने अपनी नजर घड़ी की ओर घुमाई | चार बजने वाले थे |
‘हलो, स्वाति, क्या कर रही हो ?’
‘बस अभी उठी हूँ |’
‘कह रहा हूँ कि तुम रिक्शा कर छह बजे शहर में आ जाना | मैं लेने आऊँगा, तो देर हो जाएगी | हम लक्ष्मी-हॉल पर इकट्ठे हो जाएँगे |’
‘लेकिन क्यों ? कुछ खरीदना है ? मेरे पास बहुत कपड़े हैं और अब…’
‘मैं इकट्ठे होने की बात कर रहा हूँ, खरीदी करने की नहीं | मैं फोन रख रहा हूँ | काम में हूँ | आने का भूलना नहीं |’
‘ठीक है |’ स्वाति ने जवाब दिया या देना पड़ा |
स्वाति सोचने लगी, ‘अब मुझे मनाने के इरादे से एकाध साड़ी या ड्रेस दिलाने की बात करेंगे | लेकिन उसका क्या अर्थ है ? छोटी-छोटी खुशियों में अब उसकी कोई दिलचस्पी नहीं | उसकी गणना अलग ही तरह की है | लेकिन आज तो इंकार ही कर देना है | मुझे कपड़े और गहने इकट्ठे नहीं करने हैं |’
वह लक्ष्मी-हॉल पहुँची और वहाँ मेहुल अपनी बाईक पार्क कर उसकी प्रतीक्षा करता हुआ खड़ा था |
‘मेहुल, कुछ खरीदी करना है ?’ स्वाति साड़ी की दुकान की ओर नजर घुमाते हुए बोली |
‘हाँ ‘
‘क्या खरीदना है ?’
‘यह’ फुटपाथ पर बैठी एक बाई सिर को सुशोभित करनेवाले बोर बेच रही थी, मेहुल ने उसकी ओर हाथ से इंगित किया |
‘ओह ! इसकी तो मुझे वास्तव में बहुत जरूरत है |’ स्वाति मानो उस ओर दौड़ गई | वह बोर पसंद करने में मशगूल हो गई |
मेहुल स्वाति को मानो समझ रहा हो, ऐसे उसकी ओर देखने लगा |
‘दस रूपए दो न |’ स्वाति मेहुल की ओर देख कर बोली |
‘क्रेडिट कार्ड नहीं चलेगा ?’ मेहुल ने मजाक में पूछा | मेहुल ने एक लंबे अरसे के बाद इस प्रकार की मजाक की थी | स्वाति को अच्छा लगा |
बोर खरीदने के बाद मेहुल ने स्वाति से कपड़े खरीदने की बात की, लेकिन स्वाति ने इंकार कर दिया |
‘तो चलो, बाजार का एक चक्कर लगाते हैं | शायद बोर जैसी ही कुछ और भी चीज मिल जाए |’ मेहुल ने मजाक की |
स्वाति याद करने की कोशिश करने लागी कि वह आखिर में इस बाजार में कब आई थी| निश्चित दिन तो याद नहीं आया, लेकिन करीब पंद्रह वर्ष पहले के दिन याद आ गए, जब मेहुल का धंधा कुछ-कुछ जमने लगा था | कमाई कम थी, इसलिए खरीदी करने के लिए इस बाजार में आना पड़ता था |
बाजार आज भी चीजों व लोगों से भरा हुआ था | गरीब व माध्यम वर्ग के लोग कपड़े, चप्पल, कटलरी, खिलौने जैसी वस्तुएँ खरीद रहे थे | व्यापारी अपनी चीजें बेचने के लिए जाजम आदि बिछा कर बैठे हुए थे | उनमें से तो कई के लिए चार-छह वर्ग फिट जगह भी कमाई के लिए पर्याप्त थी | वे ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए उनमें जो भी कौशल थी, उसका वे उपयोग कर रहे थे | ग्राहक भाव लम करने के लिए रकझक कर रहे थे | व्यापारियों की चिल्लाहट, भोंपू व सीटियों का संगीत, जोर से बज रहे गीत, ‘जगह दो… जगह दो’ व ‘गाय आई… गाय आई’ जैसी चीखें, ये सब उस बाजार के वातावरण को जीवंत बना रहे थे |
स्वाति को एक लंबे समय के बाद ऐसे जीवंत वातावरण का अनुभव हो रहा था | उसे कोई पुराना सगा-संबंधी मिल गया हो, उस तरह का आनंद मिल रहा था | वस्तुएँ खरीद रहे ग्राहकों की आँखों में दिखाई दे रही आशा, उमंग, लाचारी जैसे भाव उसे अपने स्वयं के लगे | वर्षों पहले वह इसी प्रकार के भाव के साथ इस बाजर में अक्सर आती थी |
दोनों कपड़ों के एक ठेले से कुछ दूर खड़े रह गए | उन्होंने देखा कि एक बाई उसके बेटे के लिए कपड़े खरीदने के लिए आई थी | उसने ठेलेवाले के पास से लड़के के माप के एक जोड़ी कपडे लेकर लड़के को पहनाए | लड़का भी नए कपड़े पहन कर बहुत खुश था, अब मात्र रकम का भुगतान करना ही शेष था और इसलिए वह बाई भाव के लिए व्यापारी के साथ रकझक कर रही थी |
‘मेहुल, तुम्हें याद है ? अंश का पहला जन्मदिन था और तब हम उसके कपड़े लेने के लिए इसी बाजार में आए थे |’ स्वाति ने बालक की ओर प्रेम भरी नजरों से देखते हुए पूछा |
‘हाँ, लेकिन तब हमारी मजबूरी थी | कमाई कम थी न ?’
‘कमाई कम थी, लेकिन जिंदगी छोटी-छोटी खुशियों से छलकती रहती थी ! मैं भी इस बाई की तरह व्यापारियों के साथ रकझक करती थी और कीमत कम करवाने के बाद बहुत खुश हो जाती थी |’
लेकिन आज उस बाई और उसके लड़के के नसीब में शायद ऐसी खुशी नहीं थी | बहुत रकझक के बाद ठेलेवाले व्यापारी ने जो भाव कहा था, उस भाव का वहन करने की सामर्थ्य बाई में नहीं थी | उसके पास बीस रूपए कम थे | बीस रूपए कम लेकर वह कपड़ा देने के लिए गिडगिडा रही थी, लेकिन व्यापारी ने भी उसकी मजबूरी दर्शाई वह बोला, ‘बहनजी, इससे अब एक रुपया भी कम नहीं होगा | मेरे घर भी, मेरा परिवार है, मुझे वह भी देखना है न ?’
अंत में उस बाई के पास एक ही उपाय शेष रहा कि वह लड़के के शरीर पर से कपड़ा उतार कर व्यापारी को लौटा दे | वह जब वैसा करने लगी, तो लड़के ने बिलख कर रोना शुरू कर दिया | देखते-देखते बालक की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी | बच्चा अपनी भाषा में दलील करने लगा कि, ‘माँ, तुम मुझे यहाँ नए कपड़े दिलाने लाई हो तो फिर क्यों नहीं दिला रही हो ?’ बाई ने उसे समझाया, ‘बेटे, मान जाओ, ये कपड़े अच्छे नहीं हैं, तुम्हारे लिए इससे भी अच्छे कपड़े लाएँगे |’ लेकिन लड़के को वह बात गले नहीं उतर रही थी | उसका झगड़ा चालू ही था | बालहठ के समक्ष बाई धर्म-संकट में आ चुकी थी | वह बालक के शरीर पर से जोर लगाकर कपड़े को उतारने की कोशिश कर रही थी और बालक के पास जितनी ताकत थी, उससे वह कपड़े को पकड़े हुए था |
अब मेहुल से नहीं रहा गया | वह तुरंत ठेलेवाले के पास पहुँचा | उसने व्यापारी से, बाई न सुन सके, उतनी धीमी आवाज में पूछा, “कितने कम पड़ रहे हैं ?’
‘साहब, बीस रूपए | मैं जितना कम कर सकता था, उतने कम किए, लेकिन अब कम नहीं कर सकता हूँ | नहीं तो मैं बालक को रोने नहीं देता |’
‘तुम उन्हें कपड़ा दे दो | वे जाए, उसके बाद मैं बीस रूपए देता हूँ | उन्हें कहना नहीं कि बाकी की रकम मैं दे रहा हूँ, नहीं तो खराब लगेगा |’ मेहुल ने यह धीमे से कहा और स्वाति के पास आ गया |
‘’रहने दो | ठीक है, पहने रहने दो |’ व्यापारी ने बाई को कहा | ‘लाओ, बीस रूपए कम हैं, तो ठीक है, चलेंगे |’
बाई ने उसके पास जो थी, वह रकम व्यापारी के हाथ पर रख दी |
‘अब खुश ?’ व्यापारी ने लड़के से प्रेम से पूछा | बालक ने निर्दोष नजर से अपनी प्रसन्नता व्यक्त की |
बाई व्यापारी को आशीर्वाद देती-देती और बच्चे के गालों पर से आँसू पोंछती-पोंछती गई |
बाई और उसका लड़का कुछ दूर पहुँचे और तब मेहुल ने उस व्यापारी को बीस रूपए का भुगतान कर दिया |
‘आज मुझे मेरा गुम हुआ मेहुल वापिस मिल गया है |’ खुश होते हुए स्वाति बोली |
‘स्वाति, आज मैंने ऑफिस में गुम हुए मेहुल को ढूँढने के सिवा और कुछ काम नहीं किया | चार बजे वह मुझे मिला और मैंने तुम्हें तुरंत फोन किया |’ मेहुल ने कहा |
स्वाति ने मेहुल का हाथ पकड़ लिया | ‘चलो, अब मुझे कुछ नहीं चाहिए, जो चाहिए था, वह मिल गया |’
‘अरे ! यहाँ तक आए हैं तो भला राजस्थानी कचोरी खाए बगैर कैसे जाएँगे ?’
राजस्थानी कचोरी खाने के बाद उन्होंने उस हॉटल में आइसक्रीम खाई, जिस हॉटल में उन्होंने अंश को पहली बार आइसक्रीम खिलाई थी |
बाजार में एक चक्कर लगाकर वे दोनों बाईक के पास फिर आए |
मेहुल ने स्वाति को बिठाया और बाईक को दौड़ाया | उसने घर की ओर का रास्ता नहीं लिया, इसलिए स्वाति ने पूछ ही लिया, ‘क्यों इस ओर ? घर नहीं चलना है ?’
‘नहीं, अभी एक ठिकाना और बाकी है |’ मेहुल ने जवाब दिया |
‘कहाँ ?’
‘नजदीक ही है ?’
उस नजदीक की जगह के बारे में स्वाति कुछ अनुमान लगाती रही | लेकिन उसके वे सब अनुमान गलत निकले, जब उस जगह पर मेहुल ने बाईक खड़ी की |
‘यहाँ जाना है |’ उसने जगह की ओर उंगली से इशारा करते हुए बताया |
काव्य-रसिकों का स्वागत करता हुआ टाउन-हॉल स्वाति को उसके मायके जैसा ही लगा |
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “फागुन के दिन आ गये…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री अशोक व्यास जी द्वारा लिखित “राजघाट से राजपाट तक” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 172 ☆
☆ “राजघाट से राजपाट तक” – व्यंग्यकार… श्री अशोक व्यास☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
कृति … राजघाट से राजपाट तक
व्यंग्यकार … अशोक व्यास
भावना प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ १४४
मूल्य २५० रु पेपरबैक
राजपाट प्राप्त करना प्रत्येक छोटे बड़े नेता का अंतिम लक्ष्य होता है। इसके लिये महात्मा गांधी की समाधी राजघाट एक मजबूत सीढ़ी होती है। गांधी के आदर्शो की बातें करता नेता, दीवार पर गांधी की तस्वीर लगाकर सही या गलत तरीकों से येन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्त करने में जुटा हुआ है। यह लोकतंत्र का यथार्थ है। गांधी की खादी के पर्दे हटाकर जनता इस यथार्थ को अच्छी तरह देख और समझ रही है। किन्तु वह बेबस है, वह वोट दे कर नेता चुन तो सकती है किन्तु फिर चुने हुये नेता पर उसका कोई नियंत्रण नहीं रह जाता। तब नेता जी को आइना दिखाने की जिम्मेदारी व्यंग्य पर आ पड़ती है। भावना प्रकाशन, दिल्ली से सद्यः प्रकाशित व्यंग्य संग्रह राजघाट से राजपाट तक पढ़कर भरोसा जागता है कि अशोक व्यास जैसे व्यंग्यकार यह जिम्मेदारी बखूबी संभाल रहे हैं।
विचारों का टैंकर अशोक व्यास जी का पहला व्यंग्य संग्रह था, जिसे साहित्य जगत ने हाथों हाथ लिया और उस कृति को अनेक संस्थाओ ने पुरस्कृत कर अशोक जी के लेखन को सम्मान दिया है। फिर “टिकाऊ चमचों की वापसी” प्रकाशित हुआ वह भी पाठको ने उसी गर्मजोशी से स्वीकार किया। उनके लेखन की खासियत है कि समाज की अव्यवस्थाओं, विसंगतियों, विकृतियों, बनावटी लोकाचार, कथनी करनी के अंतर, अनैतिक दुराचरण उनके पैने आब्जरवेशन से छिप नहीं सके हैं। वे निरंतर उन पर कटाक्ष पूर्ण लिख रहे हैं। अशोक व्यास किसी न किसी ऐसे विषय पर अपनी कलम से प्रहार करते दिखते हैं। “आत्म निवेदन के बहाने” शीर्षक से पुस्तक के प्रारंभिक पृष्ठों में उन्होने आत्मा से साक्षात्कार के जरिये बहुत रोचक शब्दों में अपनी प्रस्तावना रखी है।
राजघाट से राजपाट तक विभिन्न सामयिक विषयों पर चुनिंदा इकतालीस व्यंग्य लेखों का संग्रह है। शीर्षकों को रोचक बनाने के लिये कई रूपकों, लोकप्रिय मिथकों का अवलंबन लिया गया है, उदाहरण के लिये “मेरे दो अनमोल रतन आयेंगे”, “सुबह और शाम चाय का नाम”, ” तारीफ पे तारीफ “, ” मैं और मेरा मोबाइल अक्सर ये बातें करते है ” आदि लेखों का जिक्र किया जा सकता है।
शीर्षक व्यंग्य राजघाट से राजपाट में वे लिखते हैं ” राजघाट ही वह स्थान है जो गंगाघाट के बाद सर्वाधिक उपयोग में आता है। जैसे गंगा घाट पर स्नान करके ऐसा लगता है कि इस शरीर ने जो भी उलटे सीधे धतकरम किये हैं वह सब साफ होकर डाइक्लीन किये हुए सूट की तरह पार्टी में पहनने लायक हो जाता है उसी प्रकार राजघाट तो गंगाघाट से भी पवित्र स्थान बनता जा रहा है। इस घाट पर आकर स्वयं साफ़ झक्कास तो हो जाते हैं, लगे हाथ क्षमा माँगने का भी चलन है। इस घाट पर देशी तो देशी-विदेशी संतों की भीड़ भी लगती रहती है। ” इस अंश को उधृत करने का आशय मात्र यह है कि अशोक व्यास की सहज प्रवाहमान भाषा, सरल शब्दावली और वाक्य विन्यास से पाठक रूबरू हो सकें। हिन्दी दिवस पर हि्दी की बातें में वे लिखते हैं “तुम हिन्दी वालों की एक ही खराबी है, दिमाग से ज्यादा दिल से सोचते हो ” भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के वर्षो बाद भी देश में भाषाई विवाद सुलगता रहता है। राजनेता अपनी रोटी सेंकते रहते हैं। यह विडम्बना ही है। धारदार कटाक्ष, मुहावरों लोकोक्तियों का समुचित प्रयोग, कम शब्दों में बड़ी बात समेटने की कला अशोक व्यास का अभिव्यक्ति कौशल है। वे तत्सम शब्दों के मकड़जाल में उलझाये बगैर अपने पाठक से उसके बोलचाल के लहजे में अंग्रेजी की हिन्दी में आत्मसात शब्दावली का उपयोग करते हुये सीधा संवाद करते हैं। रचनाओ का लक्षित प्रहार करने में वे सफल हुये हैं। यूं तो सभी लेख अशोक जी ने चुनकर ही किताब में संजोये है किन्तु मुझे नंबरों वाला शहर, मिशन इलेक्शन, सरकार की नाक का बाल, हर समस्या का हल आज नहीं कल, चुनावी मौसम, आदि व्यंग्य बहुत प्रभावी लगे। रवीन्द्र नाथ त्यागी ने लिखा है “हमारे संविधान में हमारी सरकार को एक प्रजातान्त्रिाक सरकार’ कह कर पुकारा गया है पर सच्चाई यह है कि चुनाव सम्पन्न होते ही ‘प्रजा’ वाला भाग जो है वह लुप्त हो जाता है और ‘तन्त्र’ वाला जो भाग होता है वही, सबसे ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है। ” अशोक व्यास उसी सत्य को स्वीकारते और अपने व्यंग्य कर्म में बढ़ाते व्यंग्य लेखक हैं, जो अपने लेखन से मेरी आपकी तरह ही चाहते हैं कि तंत्र लोक का बने। मैने बहुत कम अंतराल में आए उनके तीनों ही व्यंग्य संकलन आद्योपांत पढ़े ही नहीं उन पर अपने पुस्तक चर्चा स्तंभ में उन पर लिखा भी है अतः मैं कह सकता हूं कि उनके व्यंग्य लेखन का कैनवास उत्तरोत्तर बढ़ा है। आप का कौतुहल उनकी लेखनी के प्रति जागा ही होगा, तो पुस्तक खरीदिये और पढ़िये। पैसा वसूल वैचारिक सामग्री मिलने की गारंटी है।