(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता ‘भैय्या ले चल हमको…’।)
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# मधुमास #”)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – ‘दाना पानी ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 231 ☆
☆ कहानी – दाना-पानी ☆
नन्दू मनमौजी है। पढ़ाई, कमाई में मन नहीं लगता। बस दोस्तों के साथ महफिल जमाने और कहीं नाटक-नौटंकी देखने को मिल जाए तो मन खूब रमता है। दूसरे गाँव में रामलीला-नौटंकी की खबर मिले तो बेसुध दौड़ता जाता है। रात रात भर सुध बुध खोये बैठा रहता है। सबेरे लौटकर भाई-भौजाई की बातें सुनता है— ‘निठल्ले, पता नहीं तेरी जिन्दगी कैसे कटेगी। बियाह हो गया तो बहू तेरी हरकतें देखकर माथा कूटेगी।’
नन्दू पर कोई असर नहीं होता। अकेले में भौजाई से कहता है, ‘भौजी, मेरी फिकर मत करो। जिसने चोंच दी है वही चुग्गा देगा। अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम। शादी-ब्याह करके क्या करना है? शादी माने बरबादी।’
वैसे नन्दू आठवीं पास है। शासन की नीति है कि आठवीं तक कोई बच्चा फेल नहीं किया जाएगा, इसी के चलते नन्दू वैतरणी पार कर गया। आगे निश्चित रूप से फेल होना है, इसलिए पढ़ाई छोड़ दी।
अब सुबह तो नन्दू अपने भाई सुमेर के साथ खेत पर जाता है, लेकिन दोपहर के खाने के लिए जो घर आता है तो फिर उधर का रुख नहीं करता। दो-तीन घंटे की नींद और शाम को गाँव के पास वाली नदी के पुल के नीचे रेत पर दोस्तों के साथ गप-गोष्ठी। इस गोष्ठी में हँसी-मज़ाक, चुटकुलों के अलावा अभिनय, नकल, नाच,गाना, सब कुछ होता है। गाँव के कुछ सयाने भी जो जवानी में अपनी कला को कहीं न दिखा पाने के कारण कसमसाते रह गये, शाम को इस महफिल में आकर अपनी भड़ास निकाल कर हल्के हो लेते हैं। आकाश में तारे छिटकने पर ही नन्दू की महफिल खत्म होती है।
गाँव की अनगढ़, साधनहीन रामलीला में नन्दू के प्राण बसते हैं। कोई छोटा-मोटा पार्ट पाने के लिए जोर लगाता रहता है। और कुछ न मिले तो मुखौटा लगाकर वानर-सेना या राक्षस- सेना में शामिल हो जाता है। लीला शुरू होने से पहले पर्दा हटा कर बार-बार झाँकता है ताकि बाहर जनता को उसकी उपस्थिति की जानकारी हो जाए। जब तक रामलीला चलती है तब तक नन्दू दिन भर वहीं मंडराता रहता है।
नन्दू गाँव के बलराम दादा का मुरीद है। बलराम दादा सीधे-साधे, फक्कड़ आदमी हैं। सूती सफेद बंडी, सफेद अंडरवियर और टायर की चप्पलों में ही अक्सर देखे जाते हैं। कमाई का ज़रिया नहीं है इसलिए दरिद्रता घर के हर कोने से झाँकती रहती है। लेकिन बलराम साँप का ज़हर उतारने के लिए आसपास के गाँवों तक जाने जाते हैं। आधी रात को भी कोई बुलाने आये तो बलराम अपने कौल से बँधे दौड़े चले जाते हैं। अक्सर नन्दू को आवाज़ दे देते हैं तो नन्दू उनका झोला थामे पीछे-पीछे दौड़ा जाता है। मरीज़ के पास पहुँचकर बलराम नीम का घौरा थाम कर बैठ जाते हैं और मंत्र पढ़ने के साथ बेसुध पड़ा मरीज़ बक्रना शुरू कर देता है। बलराम साँप से मरीज़ को छोड़ देने के लिए मनुहार करते हैं। नहीं मानता तो घौरे से आघात करते हैं। अन्त में साँप मरीज़ को छोड़ देता है और मरीज़ होश में आ जाता है। नन्दू मंत्रमुग्ध सब देखता रहता है।
मरीज़ के होश में आने के बाद बलराम दादा उस स्थान को तत्काल छोड़ देते हैं। पानी तक ग्रहण नहीं करते, पैसे-टके की बात कौन करे। फिर आगे आगे वे और पीछे पीछे नन्दू। सीधे घर आकर दम लेते हैं। नन्दू की बस यही इच्छा है कि बलराम दादा से जहर उतारने का मंत्र मिल जाए। बलराम दादा ने वादा तो किया है, लेकिन अभी मंत्र दिया नहीं।
बाबा-जोगियों में नन्दू की अपार भक्ति है। कोई बाबा गाँव में आ जाए तो नन्दू सेवा में लग जाता है। बाबाओं की ज़िन्दगी नन्दू को बहुत लुभाती है। किसी भी बाबा से हाल-चाल पूछने पर एक ही जवाब मिलता है— ‘आनन्द है।’ बाबाओं के उपदेश नन्दू मुग्ध भाव से सुनता है। बहुत से जुमले और भजन की पंक्तियाँ सीख ली हैं। दोस्तों के बीच में रोब मारने में वे जुमले खूब काम आते हैं।
गाँव में भी कुछ वैरागी हो गये हैं। एक चूड़ीवाली का जवान बेटा अचानक साधु हो गया। अब वह कमंडल और झोला लिये आसपास के गाँवों में घूमता रहता है। माँ सब काम छोड़ रोज़ खाना लेकर उसे ढूँढ़ती फिरती है। मिल गया तो ठीक, अन्यथा उस दिन माँ के हलक से भी निवाला नहीं उतरता। बेटे के चक्कर में उसका धंधा चौपट हो गया। बेटे का मुँह देखने के लिए बावली सी घूमती रहती है।
गाँव के बुज़ुर्ग नत्थू सिंह को भी बुढ़ापे में वैराग्य हो गया था। नदी के पुल के पास ज़मीन में एक गुफा बनाकर वहीं रहने लगे थे। घर छोड़कर वहीं तपस्या करते थे। लेकिन डेढ़ साल में ही उन्हें फिर घर-द्वार ने खींच लिया। अब गेरुआ वस्त्र पहने नाती-नातिनों को खिलाते रहते हैं। उनकी बनायी गुफा अब धँस गयी है।
नन्दू का भी मन उचटता है। यहाँ गाँव में मजूरी-धतूरी के सिवा कुछ करने को नहीं है। दिन भर भाई भौजाई के उपदेश सुनना। बाबाओं के ठाठ होते हैं। जहाँ जाते हैं पच्चीस पचास आदमी पीछे चलते हैं, सेवा में लगे रहते हैं। पाँव छूते हैं सो अलग। भोजन-पानी की कोई चिन्ता नहीं, सब भक्तों के भरोसे। लोग पूछ पूछ कर दे जाते हैं।
एक दिन हिम्मत करके भौजी को बता दिया कि अब गाँव में मन नहीं लगता, सन्यास लेने का मन करता है। पिछली बार जो चिन्तामन बाबा गाँव में आये थे उनका पता ले लिया है। चुनार में उनका आश्रम है। वहीं जाएगा। भौजी को सुना कर गाता है— ‘अरे मन मूरख जनम गँवायो, ये संसार फूल सेमर को सुन्दर देख लुभायो।’
भौजी ने सुमेर को बताया तो उसने डाँटा, ‘पागल हो गया है क्या? बाबागिरी कोई आसान काम है? उसमें भी अकल चाहिए, नहीं तो जिन्दगी भर भटकता रहेगा। यह तेरे जैसे लोगों के बस का काम नहीं। यहीं कुछ काम-धाम कर।’
नन्दू ज्ञानी की नाईं कहता है, ‘काम धाम में कुछ नहीं धरा है। सब माया का फेर है। ये लोक तो बिगड़ ही गया, अभी नहीं सँभले तो दूसरा लोक भी बिगड़ जाएगा। अब तो सोच लिया है, माया से छुटकारा पाना है।’
उसका निश्चय देखकर भाई बोला, ‘खेती की जमीन में आधा हिस्सा तुम्हारा है। अभी पूरी जमीन दद्दा के नाम ही है। उसका क्या करोगे?’
नन्दू महादानी की तरह हाथ हिलाकर बोला, ‘हमें जमीन जायदाद से क्या मतलब! माया रहेगी तो बार बार वापस खींचेगी। हमें अब जमीन जायदाद से कुछ लेना-देना नहीं।’
भाई बोला, ‘तो चलो, पटवारी के पास लिख कर दे दो। जमीन मेरे नाम चढ़ जाएगी।’
नन्दू ने तुरन्त सहमति दे दी। पटवारी के पास जाकर सब काम करा दिया। बोला, ‘जी हल्का हो गया। जितने बंधन कम हो जाएँ उतना अच्छा।’
नन्दू का बाप दमा का मरीज़ था। रात रात भर बैठा खाँसता रहता था। लेटने में ज़्यादा तकलीफ होती थी। साँस खींचते खींचते गले की नसें उभर आयी थीं। गाँव में इलाज नहीं था। सरकारी डाक्टर सबेरे दस बजे आता था और घड़ी के पाँच छूते ही शहर चल देता था, जहाँ उसका परिवार था। दवाखाना कंपाउंडर के हवाले। परिवार गाँव में रहकर क्या करेगा? अन्ततः खाँसते-खाँसते नन्दू का बाप दुनिया से विदा हो गया।
नन्दू की माँ अभी ज़िन्दा थी, लेकिन उसे मोतियाबिन्द के कारण ठीक से दिखायी नहीं पड़ता था। बार-बार चित्रकूट ले जाने की बात होती थी, लेकिन भाई को फुरसत नहीं थी और नन्दू अकेले चित्रकूट में माँ को संभालने की कल्पना से ही घबरा जाता था। इसलिए दिन टल रहे थे।
आखिरकार नन्दू के विदा होने का दिन आ गया। दोस्त-रिश्तेदार इकट्ठे हो गये। सब के मन में नन्दू के लिए प्रशंसा और आदर का भाव था। नन्दू ने माँ,भाई,भाभी के पाँव छुए, बोला, ‘फिकर मत करना। ऊपरवाला मेरी रच्छा करेगा। आदमी के बस में कुछ नहीं है।’
माँ रोते रोते बोली, ‘मत जा बेटा। जाने कहाँ भटकता फिरेगा।’
नन्दू हाथ उठाकर बोला, ‘मत रोको माता। मुझे मारग मिल गया है। अब मुझे रोकने से पाप लगेगा।’
जुलूस के आगे आगे गर्व से चलता नन्दू बस पर बैठकर गाँव से रवाना हो गया। दो-चार दिन बाद दोस्त उसे भूल गये। बस माँ थी जो उसके लिए बिसूरती रहती थी। वह गाँव के लिए पराया हो गया।
साल डेढ़-साल तक नन्दू की कोई खबर नहीं मिली। भाई-भाभी को लगा कि वह बाबाओं के साथ रम गया। अचानक एक दिन उसका फोन आया। भाई से बात हुई। पहले माँ के और गाँव के हाल-चाल पूछे, फिर बोला, ‘यहाँ मन नहीं लगता। सब की याद आती है। बाबागिरी मेरे जैसे लोगों के लिए नहीं है। यहाँ मेरे लिए कोई काम नहीं है। गाँव लौटने का मन होता है।’
भाई व्यंग्य से बोला, ‘हो गयी बाबागिरी? मैंने पहले ही रोका था। आना है तो आजा। कौन रोकता है?’
तीन-चार दिन बाद नन्दू सचमुच आ गया, लेकिन हुलिया ऐसी कि पहचानना मुश्किल। सूखे मुँह पर लंबी दाढ़ी मूँछ, बढ़े हुए अस्तव्यस्त बाल, बेरंग, पुराने गेरुआ वस्त्र, पाँव में खस्ताहाल चप्पल। माँ से मिला तो वह खुश हो गयी।
शाम तक वह दाढ़ी, मूँछ और बाल कटवा कर और कपड़े बदल कर सामान्य हो गया। लेकिन बाबागिरी वाली बात पर वह बार-बार शर्मा रहा था।
दो दिन तक नन्दू बेहोश सोता रहा, जैसे लंबी थकान उतार रहा हो। तीसरे दिन सबेरे भाई से बोला, ‘मैं भी खेत चलूँगा।’
भाई बोला, ‘जैसी तेरी मर्जी। चल।’
उस दिन दोपहर तक काम करके लौट आया। लौट कर सो गया।
अगले दिन हल चलाते चलाते भाई के मुँह की तरफ देख कर बोला, ‘अब तो मुझे यहीं रहना है। यहीं खेती-बाड़ी करूँगा। चल कर फिर से मेरा नाम जमीन पर चढ़वा दो।’
भाई हल चलाते चलाते रुक गया, बोला, ‘कौन सी जमीन की बात कर रहा है? यह जमीन तो अब सिर्फ मेरी है। तूने ही तो लिखा- पढ़ी की थी।’
नन्दू का मुँह उतर गया, बोला, ‘तो हमें कहाँ पता था कि हम लौट आएँगे। लौट आये हैं तो जमीन का हमारा हिस्सा हमें मिलना चाहिए।’
भाई कठोरता से बोला, ‘तो ले ले जैसे लेते बने। अब कल से खेत पर पाँव मत रखना, नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।’
नन्दू चुपचाप घर लौट आया। अब घर भी पराया लगने लगा। एक माँ ही प्रेम करने वाली बची थी। भौजी नज़र चुराती थी।
रात किसी तरह कटी। दूसरे दिन नन्दू सबेरे ही खेत के कुएँ पर जाकर बैठ गया। भाई पहुँचा तो उठ कर बोला, ‘यह मेरे बाप की जमीन है। मेरा हिस्सा कोई नहीं छीन सकता।’
सुमेर ने उसकी बाँह पकड़ कर घसीट कर खेत से बाहर कर दिया। दाँत पीसकर बोला, ‘एक लुहाँगी हन के मारूंँगा तो भरभंड फट जाएगा। जान की सलामती चाहता है तो फिर इस तरफ मुँह मत करना।’
नन्दू रोने लगा। रोते रोते गाँव के सयानों से फरियाद कर आया। हर जगह एक ही जवाब मिला, ‘अब तुमने खुद अपने हाथ काट लिये तो हम क्या करें? मामला-मुकदमा कर सको तो करो।’
मामला-मुकदमा करने कहाँ जाए? मामला-मुकदमा करने के लिए उसके पास पैसा कहाँ है? वैसे एक दो विघ्नसंतोषी उसके कानों में मंत्र ज़रूर फूँक गये— ‘छोड़ना नहीं। अदालत में घसीटना।’
नन्दू अब घर के सामने उदास बैठा रहता। भौजी दरवाज़े पर आकर रूखे स्वर में आवाज़ देती, ‘थाली रखी है।’ वह बेमन से उठकर दो चार कौर ठूँस लेता। माँ से बताया था और माँ ने भाई से बात भी की थी, लेकिन सुमेर ने उसकी बात को अनसुना कर दिया था।
दो-तीन दिन नन्दू घर के सामने बैठा दिखा, फिर वह अचानक ग़ायब हो गया। गाँव में कुछ लोगों का कहना है कि वह फिर से चिन्तामन बाबा के आश्रम चला गया, जब कि कुछ लोगों का कथन है कि वह दाना-पानी के चक्कर में दिल्ली चला गया।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 229☆ सदाहरी
किसी आयोजन से लौटा हूँ। हाथ में आयोजन में मिला पुष्पगुच्छ है। पुष्पगुच्छ घर में नियत स्थान पर रख देता हूँ।
दैनिक आपाधापी में ध्यान ही नहीं रहा और तीन दिन बीत गए। चौथे दिन गुच्छ पर दृष्टि पड़ी। गुच्छ लगभग सूख चुका है। देखता हूँ कि छोटे-छोटे श्वेत पुष्पों के समूह के बीचो-बीच कुछ गुलाब फँसा कर रखे गए थे। वे पूरी तरह पुष्पित हुए बिना ही सूखने की कगार पर हैं। पुष्पों को एक जगह एक आकार में टिकाए रखने के लिए कसकर टेप चिपकाया गया है। टेप के बंधन से मुक्त कर गुच्छ के पुष्पों को एक छोटे खाली गमले में रखकर थोड़ा जल छिड़कता हूँ। खुली हवा में साँस लेने के साथ धूप और जल मिलने से संभवत: उनका जीवन दो-तीन दिन और बढ़ जाए।
विचार शृंखला यही से आरंभ हुई। कितने लोगों का जीवन प्रतिकूलता में ही बीत जाता है। उनके बंधन भी इस टेप की तरह उन्हें बांधे रखते हैं। इनमें थोपे हुए, मानसिक, वैचारिक सभी प्रकार के बंधन होते हैं। स्त्री, पुरुष दोनों इस प्रतिकूलता के शिकार हैं। तथापि अन्यान्य कारणों से स्त्रियों को प्रतिकूलता का दंश अधिक भोगना पड़ता है।
स्त्री मायके की माटी से निकालकर ससुराल की माटी में रोपी जाने वाली बेल है। अधिकांश समय नए स्थान, नई परिस्थितियों, नए क्षेत्र की माटी के तत्वों से संतुलन बैठाने का समय दिए बिना ही बेल से जड़ें जमाने और पल्लवित होते रहने की अपेक्षा कर ली जाती है। जबकि बहुधा उसकी जड़ें मिट्टी की तह तक पहुँच ही नहीं पातीं। पुष्पगुच्छ के गुलाब की तरह उसका विकास रुक जाता है।
दैनिक जीवन में ऐसी अनेक मुरझाई बेलों से आपका भी सामना हुआ होगा। एक ऐसी वरिष्ठ महिला मिलीं जिन्हें जीवन के छह दशक देख लेने के बाद भी सलवार-कुर्ता ना पहन सकने की कसक थी। उनके घोर रुढ़िवादी परिवार में इसकी अनुमति नहीं थी। अब उनकी बहू इच्छित वस्त्रों में रहती है पर वे जाने-अनजाने एक मानसिक बंधन स्वयं पर लाद चुकी हैं। स्वयं ही उससे मुक्त नहीं हो पा रहीं पर भीतर मुरझाई हुई इच्छा अब भी साँस ले रही है। स्त्रियों के संदर्भ को ही आगे बढ़ाएँ तो संभव है कि किसी स्त्री के मायके में भोजन में मिर्च- मसाला न के बराबर डाला जाता रहा हो। ससुराल में मिर्च मसाले के बिना भोजन की कल्पना ही नहीं की जाती। ऐसे में पहले कुछ महीने तो उसके लिए भोजन भी दूभर हो जाता है।
अपना परिवार छोड़कर एक नए परिवार में आई अकेली महिला की पसंद-नापसंद का सम्मान करना नए परिवार का दायित्व होता है। प्राय: होता उल्टा है और नए परिजनों की सारे आदतों का सम्मान करने का बोझ नवेली पर डाल दिया जाता है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में स्त्रियाँ निरंतर संघर्ष करती दिखाई देती है। पारिवारिक दायित्वों के चलते अनेक बार वे नौकरी में पदोन्नति को ठुकरा देती हैं ताकि स्थानांतरण ना हो और परिवार बंधा रह सके।
कंटकाकीर्ण पथ पर चलती स्त्रियों के लिए सुगम पगडंडी बनाने में हाथ बँटाइए। पुष्पित- पल्लवित होने के लिए उन्हें उर्वरा माटी मुहैया कराइए। जिसे दूसरे घर से लाए हैं, उसे आपके घर की होने, इस घर को अपना बनाने के लिए समय दीजिए।
स्त्रियाँ सदाहरी बेल हैं। सृष्टि में मनुष्य प्रजाति के सातत्य का बीड़ा उन्होंने उठा रखा है। इस सप्ताह महिला दिवस भी है। भारी-भरकम शाब्दिक जंजालों से बचते हुए उनका मार्ग निष्कंटक करने और उन्हें विकास के समुचित अवसर देने के लिए प्रयास करें। आइए, इन सदाहरी बेलों का सदा समुचित सम्मान करें।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
Anonymous Litterateur of Social Media # 177 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 177)
Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.
Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.
He is also an IMM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!
English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 177
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है गीत – समा गया तुम में।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 176 ☆
☆ गीत – समा गया तुम में ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆
फायर डान्स —अग्नि नृत्य म्हणजे बाली बेटावरचे एक प्रमुख आकर्षण.
समुद्रकिनाऱ्यावर उतरत्या संध्याकाळी या नृत्याचे भव्य सादरीकरण असतं. बीचवर जाण्याच्या सुरुवात स्थानापर्यंत आम्हाला हॉटेलच्या शट्ल सर्विस ने सोडले. उंच टेकडीवरून आम्हाला समुद्राचे भव्य दर्शन होत होते. ज्या किनाऱ्यावर हे अग्नी नृत्य होणार होते तिथपर्यंत पोहोचाण्याचा रस्ता बराच लांबचा, डोंगरावरून चढउताराचा, पायऱ्या पायऱ्यांचा होता. सुरुवातीला कल्पना आली नाही पण जसजसे पुढे जात राहिलो तसतसे जाणवले की हे फारच अवघड काम आहे. त्यापेक्षा आपण खालून किनाऱ्यावरून चालत का नाही गेलो? तो रस्ता जवळचा असतानाही— असा प्रश्न पडला. अर्थात त्याचे उत्तर यथावकाश आम्हाला मिळालेच. ती कहाणी मी तुम्हाला नंतर सांगेनच. तूर्तास आम्ही धापा टाकत जिथे नृत्य होणार होते तिथे पोहोचलो.
बरोबर संध्याकाळी सहा वाजता हे अग्नी नृत्य सुरू झाले. चित्र विचित्र ,रंगी बेरंगी,चमचमणारी वस्त्रं ल्यायलेले, अर्धे अधिक उघडेच असलेले नर्तक आणि नर्तिकांनी हातात पेटते पलीते असलेली चक्रे फिरवून नृत्याला सुरुवात केली. समोर सादर होत असलेल्या त्या नृत्य क्रीडा, पदन्यास आणि ज्वालांशी लीलया चाललेले खेळ खरोखरच सुंदर तितकेच चित्तथरारक होते. आपल्याकडच्या गोंधळ, जागर यासारखाच लोकनृत्याचा तो एक प्रकार होता. संगीताला ठेका होता. अनेक आदिवासी नृत्यंपैकी हे एक नृत्य.साहस आणि कला यांचं अद्भुत मिश्रण होतं.
लख लख चंदेरी तेजाची न्यारी दुनिया
झळाळती कोटी ज्योती या….
या जुन्या गाण्याचीही आठवण झाली.
काळोखात चाललेलं आभाळ, लाटांची गाज, मऊ शुभ्र वाळू यांच्या सानिध्यात चाललेलं ते अग्नी प्रकाशाचे नृत्य फारच प्रेक्षणीय होतं. उगाच काहीसं भीषण आणि गूढही वाटत होतं.एक तास कसा उलटला ते कळलंही नाही.
परतताना मात्र आम्ही आल्यावाटेने गड चढत जाण्यापेक्षा सरळ वाळूतून चालत जायचे ठरवले. तिथल्या स्थानिक माणसाने आम्हाला एवढेच सांगितले,” अर्ध्या तासात समुद्राला भरती येईल. मात्र दहा ते पंधरा मिनिटात तुम्ही शटल पॉईंट ला पोहोचालच. जा पण सांभाळून..”
मग असे आम्ही सहा वृद्ध वाळूतून चालत निघालो. वाळूतून चालणारे फक्त आम्हीच असू.बाकी सारे मात्र ज्या वाटेने आले त्याच वाटेने जाऊ लागले.
हळूहळू लक्षात आले वाळूच्या अनंत थरातून चालणे सोपे नव्हते. पाय वाळूत रुतत होते. रुतणारे पाय काढून पुढची पावले टाकण्यात भरपूर शक्ती खर्च होत होती. अंधार वाढत होता.समुद्र पुढे पुढे सरकत होता. आमच्या सहा पैकी सारेच मागे पुढे झाले होते. समुद्राच्या भरतीची वेळ येऊन ठेपत होती.
विलासला फूट ड्रॉप असल्यामुळे तो अजिबात चालूच शकत नव्हता. आम्ही दोघं खूपच मागे राहिलो. मी विलासला हिम्मत देत होते. थोड्या वरच्या भागात येण्याचा प्रयत्न करत होतो पण विलास एकही पाऊल उचलूच शकत नव्हता आणि तो वाळूत चक्क कोसळला. त्या विस्तीर्ण समुद्राच्या वाळूत, दाटलेल्या अंधारात आम्ही फक्त दोघेजण! आसपास कुणीही नाही. दोघांनाही आता जलसमाधी घ्यावी लागणार हेच भविष्य दिसत होतं. मी हाका मारत होते…” साधना, सतीश प्रमोद हेल्प हेल्प”
मी वाळूत उभी आणि विलास त्या थंडगार वाळूत त्राण हरवल्यासारखा निपचीत पडून. एक भावना चाटून गेली.
We have failed” आपण उंट नव्हतो ना…
कुठून तरी साधना धडपडत कशीबशी आमच्याजवळ आली मात्र. सतीश ने माझी हाक ऐकली होती. समोरच बीच हाऊस मधून त्यांनी काही माणसांना आमच्यापर्यंत जाण्यास विनंती केली.. दहा-बारा माणसं धावत आमच्या जवळ आली. सतीशच्या प्रसंगावधानाचे कौतुक वाटले. कारण त्याने त्याच क्षणी जाणले होते की हे एक दोघांचं काम नव्हे. मदत लागणार.मग त्या माणसांनी कसेबसे विलासला उभे केले आणि ओढत उंचावरच्या पायऱ्या पर्यंत आणले. तिथून एका स्विमिंग बेड असलेल्या खुर्चीवर विलासला झोपवून पालखीत घालून आणल्यासारखे शटल पॉईंट पर्यंत नेले. हुश्श!!आता मात्र आम्ही सुरक्षित होतो. चढत जाणाऱ्या समुद्राला वंदन केले. त्याने त्याचा प्रवाह धरुन ठेवला होता का? त्या क्षणी ईश्वर नावाची शक्ती अस्तित्वात आहे याची जाणीव झाली. आमच्या मदतीसाठी आलेली माणसं मला देवदूता सारखीच भासली. जगाच्या या अनोळखी टोकावर झालेल्या मानवता दर्शनाने आम्ही सारेच हरखून गेलो. श्रद्धा, भक्ती आणि प्रेम या संमिश्र भावनांच्या प्रवाहात मात्र वाहून गेलो. या प्रसंगाची जेव्हा आठवण येते तेव्हा एकच जाणवते, देअर इज नो शॉर्टकट इन लाईफ
बिकट वाट वहिवाट नसावी धोपट मार्ग सोडू नको..हेच खरे.
शरीराने आणि मनाने खूप थकलो होतो गादीत पडताक्षणीच झोप लागली.
दुसऱ्या दिवशीची सकाळ छान प्रसन्न होती. विलास जरा नाराज होता कारण कालच्या थरारक एपीसोडमध्ये त्याचा मोबाईल मात्र हरवला.पण आदल्या दिवशी ज्या दुर्धर प्रसंगातून आम्ही दैव कृपेने सही सलामत सुटलो होतो, त्या आठवणीतच राहून निराश, भयभीत न होता दुसऱ्या दिवशी आमची टीम पुन्हा ताजीतवानी झाली. सारेच पुढच्या कार्यक्रमाचे बेत आखू लागले.
आज सकाळी कर्मा कंदारा— विला नंबर ६७ च्या खाजगी तरण तलावावर जलतरण करण्याचा आनंद मनसोक्त लुटायचा हेच ठरवले.
अवतीभवती हिरव्या गच्चपर्णभाराचे वृक्ष आणि मधून मधून डोकावणारी पिवळ्या चाफ्याची गोजीरवाणी झाडे यांच्या समवेत तरण तलावात पोहतानाचा आनंद अपरंपारच होता.
अनेक वर्षांनी इथे, बालीच्या या नयनरम्य पार्श्वभूमीवर, सुरुवातीला काहीशा खोल पाण्यात झेप घेताना भयही वाटलं. पण नंतर वयातली ३०/४० वर्षं जणू काही आपोआपच वजा झाली आणि पोहण्याचा मनमुराद आनंद लुटू शकलो. झाडं, पाणी आणि सोबतीला आठवणीतल्या कविता.
थोडं हसतो थोडं रुसतो
प्रत्येक आठवण
पुन्हा जागून बघतो ।।
अशीच मनोवस्था झाली होती.
सिंधुसम हृदयात ज्यांच्या
रस सगळे आवळले हो
आपत्काली अन् दीनांवर
घन होउनी जे वळले हो
जीवन त्यांना कळले हो..
बा.भ. बोरकरांच्या या कवितेतले ‘जीवन कळणारे’ ते म्हणजे जणू काही आम्हीच होतो हीच भावना उराशी घेऊन आम्ही तरण तलावातून बाहेर आलो.
असे हे बालीच्या सहलीत वेचलेले संध्यापर्वातले खूप आनंदाचे क्षण!!
तसा आजचा दिवस कष्टमय, भटकण्याचा नव्हता. जरा मुक्त,सैल होता.
इथल्या स्थानिक लोकांशी गप्पा करण्यातली एक आगळी वेगळी मौज अनुभवली.
ही गव्हाळ वर्णीय,, नकट्या नाकाची, गोबर्या गालांची, मध्यम उंचीची, गुगुटीत ईंडोनेशीयन माणसं खूप सौजन्यशील, उबदार हसतमुख आणि आतिथ्यशीलही आहेत.
भाषेचा प्रमुख अडसर होता.कुठलीही भारतीय भाषा त्यांना अवगत असण्याचा प्रश्नच नव्हता. पण इंग्रजीही त्यांना फारसं कळत नव्हतं. ते त्यांच्याच भाषेत संवाद साधण्याचा प्रयत्न करत होते. पण गंमत सांगते,भाषेपेक्षाही मुद्राभिनयाने, हातवारे, ओठांच्या हालचालीवरूनही प्रभावी संवाद घडू शकतो याचा एक गमतीदार अनुभवच आम्ही घेतला.
सहज आठवलं ,पु.ल. जेव्हा फ्रान्सला गेले होते तेव्हा दुधाच्या मागणीसाठी त्यांनी शेवटचा पर्याय म्हणून कागदावर चक्क एका गाईचे चित्रच काढून दाखवलं होतं. तसाच काहीसा प्रकार आम्ही येथे अनुभवला.
बाली भाषेतले काही शब्द शिकण्याचा खूप प्रयत्न केला पण लक्षात राहिला तो एकच शब्द सुसु.
बाली भाषेत दुधाला सुसू म्हणतात.
पण त्यांनीही आपले ,’नमस्कार, शुभ प्रभात, कसके पकडो वगैरे आत्मसात केलेले शब्द, वाक्यं, त्यांच्या पद्धतीच्या उच्चारात बोलून दाखवले. माणसाने माणसाशी जोडण्याचा खरोखरच तो एक भावनिक क्षण होता!
या भाषांच्या देवघेवीत आमचा वेळ अत्यंत मजेत मात्र गेला आणि त्यांच्या प्रयत्नपूर्वक मोडक्या तोडक्या इंग्लिश भाषेद्वारे बाली विषयी काही अधिक माहितीही मिळाली.
राजा केसरीवर्माने या बेटाचे नाव बाली असे ठेवले.
बाली या शब्दाचा अर्थ त्याग.
बाली या शब्दाचे मूळ, संस्कृत भाषेत आहे आणि या शब्दाचा सामर्थ्य, शक्ती हाही एक अर्थ आहे.आणि तो अधिक बरोबर वाटतो.
आणखी एक गमतीदार अर्थ त्यांनी असा सांगितला की बाली म्हणजे बाळ. बालकाच्या सहवासात जसा स्वर्गीय आनंद मिळतो तसेच स्वर्गसुख या बाली बेटावर लाभते.
बाली बेटावरच्या स्वर्ग सुखाची कल्पना मात्र अजिबात अवास्तव नव्हतीा हे मात्र खरं!!
संध्याकाळी कर्मा ग्रुप तर्फे झिंबरान बीच रिसॉर्टवर आम्हाला कॉम्प्लिमेंटरी डिनर होते.जाण्या येण्यासाठी त्यांच्या गाड्या होत्या.
संगीत ,जलपान आणि गरमागरम पदार्थांची रेलचेल होती.वातावरणात प्रचंड मुक्तता होती. खाणे पिणे आणि संगीत ,सोबत तालबद्ध संगीतावर जमेल तसे केवळ नाचणे. थोडक्यात वातावरणात फक्त आनंद आणि आनंदच होता आणि या आनंदाचे डोही आम्हीही अगदी आनंदे डुंबत होतो.LIVE AND LET LIVE.
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-7- ताप के ताये हुए दिन… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
इधर तीन चार दिन आप सबसे मुलाकात न कर सका! आपने नये कथा संग्रह- सूनी मांग का गीत के फाइनल प्रूफ देखने के काम में व्यस्त हो गया!
चलिए आपको फिर जालंधर लिए चलता हू। आज कुछ और मित्रों से आपका परिचय करवाता हूँ और कुछ साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ी बातें भी करूंगा! पंजाब साहित्य अकादमी और बड़े भाई सिमर सदोष की यादें पहले आपको सुना चुका हूँ। आज अवतार जौड़ा और हम सभी मित्रों की संस्था विचारधारा की बात करूँगा, जिसकी बैठक हर माह में एक बार होती थी और इसमें भी दिल्ली से रमेश उपाध्याय,आनंद प्रकाश सिंह जैसे अनेक वरिष्ठ रचनाकारों को विशेष तौर पर आमंत्रित किया जिससे कि हमें न केवल अपने विचार बल्कि विचारधारा को समझने का अवसर मिल सके। यानी मीरा दीवानी की तरह
संतन डिग बैठि के
मैं मीरा दीवानी हुई!
अपने से ज्यादा अनुभवी रचनाकारों से सीखने समझने की कोशिश रही। मुझे अपनी एक कहानी -देश दर्शन का पाठ करने का सुअवसर मिला था और वहाँ मौजूद मित्र व उन दिनों ‘लोक लहर’ पंजाबी समाचारपत्र से आये सतनाम माणक ने वह कहानी तुरंत मांग ली जिसे उन्होंने पंजाबी में अनुवाद कर अपने समाचारपत्र में प्रकाशित किया! इस तरह समझ लीजिये कि हम अगर इकट्ठे बैठ कर कुछ विचार विमर्श करते हैं तो हमारी समझ बनती है और नयी राहें खुलती हैं। आज सतनाम माणक जालंधर से निकलने वाले अजीत समाचारपत्र में संपादक हैं और बीच बीच में उनकी ओर से कुछ विषयों पर लिखने का न्यौता आ जाता है। पंजाबी अजीत में भी मेरी रचनायें आज भी प्रकाशित होकर आती हैं जिन पर फोन नम्बर होने के चलते पंजाब से अनेक मित्रों की प्रतिक्रिया सुनने को मिलती है। इस तरह जालंधर से जुड़े रहने का अवसर सतनाम माणक बना देते हैं।
आगे मुझे जनवादी लेखक संघ की याद है जिसके अध्यक्ष प्रसिद्ध आलोचक व सौंदर्य शास्त्र के लिए जाने जाते डाॅ रमेश कुंतल मेघ थे और यही प्रिंसिपल रीटा बावा से मुलाकातें हुईं। मुझ जैसे नये रचनाकार को भी इसकी कार्यकारिणी में स्थान मिला! इसमें एक खास विचारधारा से जुड़े साहित्य पर आयोजन किये जाते! इसमें प्रसिद्ध आलोचक डाॅ शिव कुमार मिश्र की कही बात आज भी स्मृतियों में एक सीख की तरह गांठ बांध रखी है कि प्रेमचंद ऐसे ही प्रेमचंद नहीं हो गये, उन्होंने अपने समय की खासतौर पर किसान और गांव की समस्याओं को गहरे समझ कर गोदान जैसा बहुप्रशंसित उपन्यास लिखा जो विश्व की 127 भाषाओं में अनुवादित हुआ। प्रेमचंद ने बहुत सरल भाषा में बड़ी बातें कही हैं और इस तरह कठिन को सरल बनाना बहुत ही मुश्किल काम है। यह भी कहा कि काले ब्लैक बोर्ड पर सफेद चाॅक से ही कोई नयी इबारत लिखी जा सकती है यानी लेखक काले समाज को अपनी कलम से कल्याणकारी बना देता है!
कितनी बातें सीखने समझने को मिलतीं ! कुछ समय पूर्व ही पंचकूला में डाॅ रमेश कुंतल मेघ ने आखिरी सांस ली और रीटा बावा को महाविद्यालय में मिले आवास में बड़ी बेरहमी से मौत के घाट सुला दिया गया। वे एक बार हिसार के फतेह चंद कन्या महाविद्यालय यूजीसी की टीम की सदस्यता के रूप में आई दी तब प्रिंसिपल डाॅ शमीम शर्मा ने मुझे बुलाया था और इस तरह वर्षों बाद जनवादी लेखक संघ के दो पुराने साथी मिल पाये थे! आज के लिए शायद इतना ही काफी!
वे विचार विमर्श के ताप के ताये हुए दिन आज भी याद हैं!