हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #225 – 112 – “आफ़त तो अब तय ठहरी…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “आफ़त तो अब तय ठहरी…” ।)

? ग़ज़ल # 112 – “आफ़त तो अब तय ठहरी…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

इश्क़ का रोग लगा लिया,

ग़ैर को अपना बना लिया।

आफ़त तो अब तय ठहरी,

फन्दा गले में लगा लिया।

आग  जाने  कब  बुझेगी,

दामन ख़ुद ही जला लिया।

जब उसने मुँह फेर लिया,

अपने ग़म से सिला लिया।

बोए  नेकी  ने  ख़ार  भी,

आतिश सबका भला किया।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 104 ☆ ग़ज़ल – कोई जो दे रहा है इंसानी पैगाम दुनिया को ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 104 ☆

☆ ग़ज़ल – कोई जो दे रहा है इंसानी पैगाम दुनिया को ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

हम रहें न रहें यह   सिलसिला चलता रहे।

कोई तोड़े नहीं फूल हर खिला चलता रहे।।

[2]

गर चल रहा है कुछ भी गलत  कंही पर।

रोकने को उसे यह जलजला चलता रहे।।

[3]

कोई जो दे रहा है इंसानी पैगाम दुनिया को।

फांसी बेखौफ कयामत तक भला चलता रहे।।

[4]

कोशिश आदमी की  भी   कभी  कम न हों।

अंदर उसके यह पुरजोर वलवला चलता रहे।।

[5]

यह सब बात ठीक हैं लेकिन ये भी है जरूरी।

बढ़े जिससे नफ़रत नहीं वह गिला चलता रहे।।

[6]

दर्द भी सबका ही सबको बराबर महसूस हो।

नहीं कोई ज़ख्म यूं  छिला खुला चलता रहे।।

[7]

कोई आग न लगाए बस्ती में रोटी सेंकने को।

गर जले तो भी हर इक घर जला चलता रहे।।

[8]

दुनिया जलाने वाले इस दिलजले को कह दो।

हो ये कोशिश नहीं कोई दिलजला चलता रहे।।

[9]

हंस ये दुनिया बन जाएगी जन्नत जमीं पर ही।

गर सबका बस दिल से दिल मिला चलता रहे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 166 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “जमाना तुमको बुला रहा है…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “जमाना तुमको बुला रहा है..। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “जमाना तुमको बुला रहा है ” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

मुसीबतों से बचा वतन को जो अपने खुद को बचा न पाये

उन्हीं की दम पै हैं दिख रहे सब ये बाग औ’ घर सजे सजाये

तुम्हारे हाथों है अब ये गुलशन सब इसकी दौलत भरा खजाना

जिसे ए बच्चों बचा के रखना तुम्हें औ’ आगे इसे बढ़ाना ॥

बदलते मौसम में घिर रही हैं घने अंधेरों से सब दिशाएँ है

तेज बारिश कड़कती बिजली कँपाती बहती प्रबल हवाएँ है

भगदड़ हरेक दिशा में समाया मन में ये भारी डर है

न जाने कल क्या समय दिखाये, मुसीबतों से भरा सफर है।

 *

मगर न घबरा, कदम-कदम बढ़ निराश होके न बैठ जाना

बढ़ा के साहस, समझ के चालें, तुम्हें है ऐसे में पार पाना।

चुनौतियों को जिन्होंने जीता उन्हीं का रास्ता खुला रहा है

 बहादुरों, तुम बढ़ो निरन्तर, जमाना तुमको बुला रहा है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #221 ☆ ज़रूरतें व ख्वाहिशें… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़रूरतें व ख्वाहिशें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 221 ☆

ज़रूरतें व ख्वाहिशें... ☆

‘ज़रूरत के मुताबिक ज़िंदगी जीओ; ख्वाहिशों के मुताबिक नहीं, क्योंकि ज़रूरतें तो फ़कीरों की भी पूरी हो जाती हैं, मगर ख्वाहिशें बादशाहों की भी अधूरी रह जाती हैं।’ इच्छाएं सुरसा के मुख की भांति बढ़ती चली जाती हैं, जिनका अंत संभव नहीं होता। उनका आकाश बहुत विस्तृत है, अनंत है, असीम है और एक इच्छा के पश्चात् दूसरी इच्छा तुरंत जन्म ले लेती है, परंतु इन पर अंकुश लगाने में ही मानव का हित है। ख्वाहिशें एक ओर तो जीने का मक़सद हैं, कर्मशीलता का संदेश देती हैं, जिनके आधार पर हम निरंतर बढ़ते रहते हैं और हमारे अंतर्मन में कुछ करने का जुनून बना रहता है। दूसरी ओर संतोष व ठहराव हमारी ज़िंदगी में पूर्ण विराम लगा देता है और जीवन में करने को कुछ विशेष नहीं रह जाता।

ख्वाहिशें हमें प्रेरित करती हैं; एक गाइड की भांति दिशा निर्देश देती हैं, जिनका अनुसरण करते हुए हम उस मुक़ाम को प्राप्त कर लेते हैं, जो हमने निर्धारित किया है। इनके अभाव में ज़िंदगी थम जाती है। इंसान की मौलिक आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा और मकान हैं। जहाँ तक ज़रूरतों का संबंध है, वे आसानी से पूरी हो जाती हैं। मानव शरीर पंच-तत्वों से निर्मित है और अंत में उन में ही समा जाता है। वैसे भी यह सब हमें प्रचुर मात्रा में प्रकृति प्रदत्त है, परंतु मानव की लालसा ने इन्हें सुलभ-प्राप्य नहीं रहने दिया। जल तो पहले से ही बंद बोतलों में बिकने लगा है। अब तो वायु भी सिलेंडरों में बिकने लगी है।

कोरोना काल में हम वायु की महत्ता जान चुके हैं। लाखों रुपए में एक सिलेंडर भी उपलब्ध नहीं था। उस स्थिति में हमें आभास होता है कि हम कितनी वायु प्रतिदिन ग्रहण करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़कर पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं। परंतु प्रभुकृपा से वायु हमें मुफ्त में मिलती है, परंतु प्रदूषण के कारण आजकल इसका अभाव होने लगा है। प्रदूषण के लिए दोषी हम स्वयं हैं। जंगलों को काटकर कंक्रीट के घर बनाना, कारखानों की प्रदूषित वायु व जल हमारी श्वास-क्रिया को प्रदूषित करते हैं। गंदा जल नदियों के जल को प्रदूषित कर रहा है, जिसके कारण हमें शुद्ध जल की प्राप्ति नहीं हो पाती।

सो! ज़रूरतें तो फ़कीरों की भी पूरी हो जाती है, परंतु ख़्वाहिशें राजाओं की भी पूरी नहीं हो पाती, जिसका उदाहरण हिटलर है। उसने सारी सृष्टि पर आधिपत्य प्राप्त करना चाहा, परंतु जीवन की अंतिम वेला में उसे ज्ञात हुआ कि अंतकाल में इस जहान से व्यक्ति खाली हाथ जाता है। इसलिए आजीवन राज्य विस्तार के निमित्त आक्रमणकारी नीति को अपनाना ग़लत है, निष्प्रयोजन है। सम्राट अशोक इसके जीवित प्रमाण हैं। उसने सम्राट के रूप में सारी दुनिया पर शासन कायम करना चाहा और निरंतर युद्ध करता रहा। अंत में उसे ज्ञात हुआ कि यह जीवन का मक़सद अर्थात् प्रयोजन नहीं है। सो! उसने  सब कुछ छोड़कर बौद्ध धर्म को अपना लिया।

‘यह किराये का मकान है/ कौन कब तक ठहर पाएगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।’ यहाँ हर इंसान मुसाफ़िर है। वह खाली हाथ आता है और खाली हाथ चला जाता है। इसलिए संचय की प्रवृत्ति क्यों? ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा।’ स्वरचित गीतों की पंक्तियाँ इन भावों को पल्लवित करती हैं कि वैसे तो यह जन्म से पूर्व निश्चित हो जाता है कि वह कितनी साँसें लेगा? इसलिए मानव को अभिमान नहीं करना चाहिए तथा सृष्टि के कण-कण में परमात्मा की सत्ता अनुभव करनी चाहिए, जो उसे प्रभु सिमरन की ओर प्रवृत्त करती है।

सो! मानव को स्वयं को इच्छाओं का गुलाम नहीं बनाना चाहिए। यह बलवती इच्छाएं मानव को ग़लत कार्य करने को विवश करती हैं। उस स्थिति में वह उचित-अनुचित के भेद को नहीं स्वीकारता और नरक में गिरता चला जाता है। अंतत: वह चौरासी के चक्कर से आजीवन मुक्त नहीं हो पाता। इससे मुक्ति पाने का सर्वोत्तम उपाय है प्रभु सिमरन। जो व्यक्ति शरणागत हो जाता है, वह निर्भय होकर जीता है आगत-अनागत से बेखबर…उसे भविष्य की चिंता नहीं होती। जो गुज़र गया है, वह उसका स्मरण नहीं करता, बल्कि वह वर्तमान में जीता है और प्रभु का नाम स्मरण करता है और गीता का संदेश ‘जो हुआ, अच्छा हुआ/ जो होगा, अच्छा ही होगा ‘ वह इसे जीने का मूलमंत्र स्वीकारता है। प्रभु अपने भक्तों की कदम-कदम पर सहायता करता है।

अक्सर  ज़्यादा पाने की चाहत में हमारे पास जितना उपलब्ध है, उसका आनंद लेना भूल जाते हैं। इसलिए संतोष को सर्वश्रेष्ठ धन स्वीकारा गया है। इसलिए कहा जाता है कि श्रेय मिले ना मिले, अपना श्रेष्ठ देना बंद ना करें। आशा चाहे कितनी कम हो, निराशा से बेहतर होती है। इसलिए दूसरों से उम्मीद ना रखें और सत्कर्म करते रहें। दूसरों से उम्मीद रखना ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल व ग़लती है, जो हमें पथ-विचलित कर देती है। इंसान का मन भी एक अथाह  समुद्र है। किसी को क्या मालूम कि कितनी भावनाएं, संवेदनाएं, सुख-दु:ख, हादसे, स्मृतियाँ आदि उसमें समाई हैं। इसलिए वह मुखौटा धारण किए रखता है और दूसरों पर सत्य उजागर नहीं होने देता। परंतु इंसान कितना भी अमीर क्यों ना बन जाए, तकलीफ़ बेच नहीं सकता और सुक़ून खरीद नहीं सकता। वह नियति के हाथों का खिलौना है। वह विवश है, क्योंकि वह अपने निर्णय नहीं ले सकता।

‘जो तकलीफ़ तुम ख़ुद बर्दाश्त नहीं कर सकते, वो किसी दूसरे को भी मत दो।’ महात्मा बुद्ध का यह कथन अत्यंत कारग़र है। इसलिए वे दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार न करने का संदेश देते हैं, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से नहीं करते हैं। संसार में जो भी आप किसी को देते हैं, वह लौट कर आपके पास आता है। इसलिए दूसरों की ज़रूरतों की पूर्ति का माध्यम बनिए ताकि आपकी ख़्वाहिशें पूरी हो सकें। इसके साथ ही अपनी इच्छाओं आकाँक्षाओं, तमन्नाओं व लालसाओं पर अंकुश लगाइए, यही जीवन जीने की कला है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “धर्म की सासू माँ” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय लघुकथा –धर्म की सासू माँ“.)

☆ लघुकथा – धर्म की सासू माँ ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

‘आए थे हरि भजन को ओंटन लगे कपास।’ जैसी कहानी हमारे साथ घट गयी।

सुबह-सुबह  अच्छे मूड में घूमने निकले थे हम पति-पत्नी। रास्ते में एक मुसीबत गले पड़ गई।

एक अम्मा जी बीच राह रोते हुए मिल गई।

‘क्यों रो रही हैं माताजी’ – पत्नी ने संवेदना जताई।

अम्मा जी  बुक्का फाड़कर रोने लगी – मेरा घर गुम गया है बेटी। मेरा घर ढुंढ़वा दे। मैं तेरा एहसान कभी नहीं भूलूंगी। मैं अपना घर भूल गई हूं।

‘घर का पता बताइए अम्माजी।’ पत्नी ने पूछ लिया।

‘अपने बेटे के घर गांव से आई थी। सुबह-सुबह बिना बताए घूमने निकल पड़ी। शहर की गलियों में फंस कर रह गई हूं।’

‘बेटे का नाम बताइए और यह बताइए कि वह कहां काम करते हैं?’

‘बैंक में काम करता है मेरा बेटा और रामलाल नाम है उसका।’

पत्नी ने बैंक का नाम पूछा और वह तथाकथित अम्मा जी बैंक का नाम नहीं बता पाईं। वह अपने घर से कितनी दूर चली आई थी इसका भी उन्हें कोई अनुमान नहीं था। अम्मा जी पत्नी को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थी। मैं उन दोनों को वहीं छोड़कर अपने ऑफिस चला गया।

——–

शाम को घर लौटा तो बैठक में चाय भजिया का नाश्ता चल रहा था। वही अम्माजी विराजमान थी। खुश खुश दिखाई दे रही थीं।

बच्चे नानी मां नानी मां कहकर अम्मा जी से लिपटे चले जा रहे थ। यह चमत्कार से कम नहीं था।

‘लो दामाद जी आ गए’ – कहकर अम्मा जी ने घूंघट कर लिया।

पत्नी बोली – बमुशिकल अम्मा जी का घर ढूंढ पाई मैं और अम्मा जी ने मुझे धर्म की बेटी मान लिया है। इस तरह आप जमाई बाबू बन गए हैं।’

‘अब कुछ दिन वह अपनी बेटी के घर रहने चली आई हैं। मुझे एक कीमती साड़ी भी भेंट कर दी है उन्होंने। क्या पता था कि अम्मा जी अपने पीछे वाली लाइन में ही रहती है।’

मुझे पत्नी जी के पेशेन्स की प्रशंसा करनी पड़ी। उनकी मां नहीं थी और मुझे धर्म की सासू मां मिल गई थी। जैसे मुझे धर्म की सासू मां मिली, सभी को मिले।

❤️

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #204 ☆ बाल गीत – मेरी माँ… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है बाल गीत – मेरी माँआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 204 ☆

☆ बाल गीत – मेरी माँ.. ☆ श्री संतोष नेमा ☆

लल्ला  कह कर मुझे बुलाती

लोरी  गा  कर  मुझे   सुलाती

देकर  छाँव स्वयं आँचल  की

मेरी   माँ   मुझको   सहलाती

*

गिरूं  जरा तो तुरत उठाती

हर  आहट  पर  दौड़ी  आती

भर भर देती दूध – मलाई

माँ  ममता  का  रस बरसाती

*

सीधी – सादी भोली -भाली

मेरी  माँ पूजा की थाली

नजर  लगे  ना मुझको  कोई

काला  टीका   मुझे   लगाती

*

बिना  कहे  माँ  खूब  समझती

सबकी  चिंता सिर  पर  धरती

अपने दुख को छिपा छिपा कर

घर  में  सुख – संतोष   बढ़ाती

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 211 ☆ माय मराठी… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

? कवितेचा उत्सव # 211 – विजय साहित्य ?

☆ माय मराठी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

माय मराठी मराठी, बकुळीचा दरवळ

दूर दूर पोचवी गं , अंतरीचा परीमल . . . !

*

कधी ओवी ज्ञानेशाची ,कधी गाथा तुकोबांची

शब्द झाले पूर्णब्रम्ह, गाऊ महती संतांची. . . . !

*

संतकवी, पंतकवी,संस्कारांचा पारीजात .

रूजविली पाळेमुळे, अभिजात साहित्यात. . . !

*

कधी भक्ती, कधी शक्ती,कधी सृजन मातीत

नृत्य, नाट्य, कला,क्रीडा,धावे मराठी ऐटीत. . !

*

माय मराठीची वाचा,लोकभाषा अंतरीची .

भाषा कोणतीही बोला,नाळ जोडू ह्रदयाशी . . !

*

कधी मैदानी खेळात,कधी मर्दानी जोषात.

माय मराठी खेळते,पिढ्या पिढ्या या दारात. ..!

*

कोसा कोसावरी बघ, बदलते रंग रूप.

कधी वर्‍हाडी वैदर्भी,कधी कोकणी प्रारूप. . . !

*

माय मराठीचे मळे ,रसिकांच्या काळजात.

कधी गाणे, कधी मोती,सृजनाच्या आरशात. . !

*

महाराष्ट्र भाषिकांची,माय मराठी माऊली

जिजा,विठा,सावित्रीची,तिच्या शब्दात साऊली . !

*

अन्य भाषिक ग्रंथांचे,केले आहे भाषांतर

विज्ञानास केले सोपे,करूनीया स्थलांतर. . . !

*

शिकूनीया लेक गेला,परदेशी आंग्ल देशा

माय मराठीची गोडी, नाही विसरला भाषा. . . !

*

नवरस,अलंकार,वृत्त छंद,साज तिचा .

अय्या,ईश्य,उच्चाराला,प्रती शब्द नाही दुजा.. !

*

माय मराठीने दिला,कला संस्कृती वारसा

शाहीरांच्या पोवाड्यात,तिचा ठसला आरसा. !

*

माय मराठीने दिली,नररत्ने अनमोल.

किती किती नावे घेऊ,घुमे अंतरात बोल. . .!

*

माय मराठी मराठी,कार्य तिचे अनमोल .

शब्दा शब्दात पेरला,तीने अमृताचा बोल. . !

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय पाचवा— कर्मसंन्यासयोग — (श्लोक २१ ते २९) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय पाचवा— कर्मसंन्यासयोग — (श्लोक २१ ते २९) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।

स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ।।२१।।

*

आसक्ती ना विषयसुखांची अंतर्यामी सुखानंद 

ध्यान तयाचे परब्रह्मी  निरंतर समाधानानंद  ॥२१॥

*

ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते ।

आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध: ।।२२।।

*

सुखदायी जरी भासती गात्रविषय भोग

दुःखदायी ते खचित असती तू त्यांना त्याग

क्षणात ते भंगुनिया जाती अनित्य ते अर्जुना

प्रज्ञावान विवेक ठेवी रुची त्यांच्यातुनी  ना ॥२२॥

*

शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।

कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर: ।।२३।।

*

अधीन केले षड्रिपुविकार याची देही इहलोकी

जाणावे त्या योगी म्हणुनी तोच खरा या जगी सुखी ॥२३॥

*

योऽन्त:सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव य: ।

स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ।।२४।।

*

अंतरात्म्यात सुखी रत  आत्म्यात ज्ञानतेज जया प्राप्त 

योगी अद्वैत परमात्म्याशी शांत ब्रह्म तयासी  प्राप्त  ॥२४॥

*

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मषा: ।

छिन्नद्वैधा यतात्मान: सर्वभूतहिते रता: ।।२५।।

*

पापाचे ज्याच्या होत विमोचन  तमकिल्मिष नष्ट प्रकाश ज्ञान

सर्वभूत हितात रत मन परमात्मे स्थित ब्रह्मवेत्त्या परब्रह्म प्राप्त ॥२५॥

*

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ।।२६।।

*

कामक्रोधापासून अलिप्त वश जया चित्त

परब्रह्म त्या साक्षात्कार परमात्मा हो सर्वत्र ॥२६॥

*

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो: ।

प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ।।२७।।

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण: ।

विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव स: ।।२८।।

*

वैराग्य मनी रुजवुन । अलिप्त विषयांपासुन ॥

पंचेंद्रिय बुद्धी मन । सदा अपुल्या स्वाधिन ॥ 

भ्रूमध्यात दृष्टी स्थिर । प्राणापानासी रोखून ॥

ऐक्य हो सुषुम्नेतुन । ध्यानातुनी राही मग्न ॥

भयक्रोधेच्छा समस्त ।  नष्ट करूनी त्यागत ॥

वास्तव्य जरी देहात । मोक्षपरायण  मुक्त ॥२७-२८॥

*

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ।।२९।।

*

मला जाणतो माझा भक्त यज्ञ तपांचा भोक्ता

सर्वलोक महेश्वर मी सुहृद म्हणोनी  सर्वभूता

प्रेमळ दयाळू निःस्वार्थी मी त्रिकाल आहे पार्थ

जाणीतो मनी हे तत्त्व  तयास शांती हो प्राप्त  ॥२९॥

*

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पंचमोऽध्याय: ।।५।।

ॐ श्रीमद्भगवद्गीताउपनिषद तथा ब्रह्मविद्या योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्णार्जुन संवादरूपी कर्मसंन्यासयोग नामे निशिकान्त भावानुवादित पंचमोऽध्याय संपूर्ण ॥५॥

— अध्याय पाचवा समाप्त —

– क्रमशः भाग तिसरा

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 135 ☆ लघुकथा – जिज्जी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘जिज्जी’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 135 ☆

☆ लघुकथा – जिज्जी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

किसी ने बड़ी जोर से दरवाजा भड़भड़ाया, ऐसा लगा जैसे कोई दरवाजा तोड़ ही देगा, ‘अरे! जिज्जी होंगी, सामने घर में रहती हैं, बुजुर्ग हैं। हमारे सुख-दुख की साथी हैं, जब से शादी होकर आई हूँ इस मोहल्ले में, माँ की तरह मेरी देखभाल करती रही हैं। सीढ़ी नहीं चढ़ पातीं इसलिए नीचे खड़े होकर अपनी छड़ी से ही दरवाजा खटखटाती हैं’–सरोज बोली। यह सुनकर मैं मुस्कराई कि तभी आवाज आई – ‘तुम्हारी दोस्त आई है तो हम नहीं मिल सकते क्या? हमसे मिले बिना ही चली जाएगी?’

‘नहीं जिज्जी, हम उसे लेकर आपके पास आते हैं।‘

‘लाना जरूर’, यह कहकर जिज्जी छड़ी टेकती हुई अपने घर की ओर चल दीं। पतली गली के एक ओर सरोज और दूसरी ओर उनका घर। दरवाजे पर खड़े होकर भी आवाज दो तो सुनाई पड़ जाए। गली इतनी सँकरी कि दोपहिया वाहन ही उसमें चल सकते थे। गलती से अगर गली में गाय-भैंस आ जाए फिर तो उसके पीछे-पीछे गली के अंत तक जाएं या खतरा मोल लेकर उसके बगल से भी आप जा सकते हैं।

सरोज बोली– ‘जिज्जी से मिलने तो जाना ही पड़ेगा, नहीं तो बहुत बुरा मानेंगी।‘ हमें देखते ही वह खुश हो गईं, बोली – ‘आओ बैठो बिटिया’। सरोज भी बैठने ही वाली थी कि वह बोलीं – ‘अरे तुम बैठ जाओगी तो चाय-नाश्ता कौन लाएगा? जाओ रसोई में।’ ‘हाँ जिज्जी’ कहकर वह चाय बनाने चली गई। जिज्जी बड़े स्नेह से बातें करे जा रही थीं और मैं उन्हें देख रही थी। उम्र सत्तर से अधिक ही होगी, सफेद साड़ी और सूनी मांग उनके वैधव्य के सूचक थे। सूती साड़ी के पल्ले से आधा सिर ढ़ँका था जिसमें से सफेद घुंघराले बाल दिख रहे थे। गाँधीनुमा चश्मे में से बड़ी-बड़ी आँखें झाँक रही थीं। झुर्रियों ने चेहरे को और भी ममतामय बना दिया था। बातों ही बातों में जिज्जी ने बता दिया कि बेटियां अपने घर की हो गईं और बेटे अपनी बहुओं के। सरोज तब तक चाय, नाश्ता ले आई, उसकी ओर देखकर बोलीं- ‘हमें अब किसी की जरूरत भी नहीं है, डिप्टी साहब (उनके पति) की पेंशन मिलती है और ये है ना हमारी सरोज, एक आवाज पर  दौड़कर आती है। बिटिया हमारे लिए तो आस-पड़ोस ही सब कुछ है।‘

‘जिज्जी, बस भी करिए अब, बीमारी -हारी में आप ही तो रहीं हैं हमारे साथ, मेरे बच्चे इनकी गोद में बड़े हुए हैं, जगत अम्माँ हैं ये —-‘ सरोज और जिज्जी एक दूसरे की कुछ भी ना होकर, बहुत कुछ थीं। कहने को ये दोनों पड़ोसी ही थीं, जिज्जी का स्नेहपूर्ण अधिकार और सरोज का सेवा भाव मेरे लिए अनूठा था। महानगर की फ्लैट संस्कृति में रहनेवाली मैं हतप्रभ थी, जहाँ डोर बेल बजाने पर ही दरवाजा खुलता है नहीं तो दरवाजे पर लगी नेमप्लेट मुँह चिढ़ाती रहती है। दरवाजा खुलने और बंद होने में घर के जो लोग दिख जाएं, बस वही परिचय। फ्लैट से निकले अपनी गाड़ियों में बैठे और चल दिए, लौटने पर दरवाजा खुलता और फिर अगली सुबह तक के लिए बंद।

मन ही मन बहुत कुछ समेटकर जब मैं चलने को हुई, जिज्जी छड़ी टेकती हुई उठीं – ‘हमारा बटुआ लाओ सरोज, बिटिया पहली बार हमारे घर आई है’, जिज्जी टीका करने के लिए बटुए में नोट ढ़ूंढ़ रही थीं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 184 ☆ मरतु प्यास पिंजरा पयो… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना मरतु प्यास पिंजरा पयो। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 184 ☆ मरतु प्यास पिंजरा पयो

किसी से बदला मत लो उसे बदल दो बहुत सुंदर, सकारात्मक विचार है। कर्म का फल अवश्य सम्भावी है, ये बात गीता में कही गयी है और इसी से प्रेरित होकर लोग निरन्तर कर्म में जुटे रहते हैं; बिना फल की आशा किए। उम्मीद न रखना सही है किन्तु हमारे कार्यों का परिणाम क्या होगा ? ये चिन्तन न करना किस हद तक जायज माना जा सकता है।

अक्सर लोग ये कहते हुए पल्ला झाड़ लेते हैं कि मैंने सब कुछ सही किया था, पर लोगों का सहयोग नहीं मिला जिससे सुखद परिणाम नहीं आ सके। क्या इस बात का मूल्यांकन नहीं होना चाहिए कि लोग कुछ दिनों में ही दूर हो रहे हैं, क्या सभी स्वार्थी हैं या जिस इच्छा से वे जुड़े वो पूरी नहीं हो सकती इसलिए मार्ग बदलना एकमात्र उपाय बचता है।

कारण चाहे कुछ भी हो पर इतना तो निश्चित है कि सही योजना द्वारा ही लक्ष्य मिलेगा। केवल परिश्रम किसी परिणाम को सुखद नहीं बना सकता उसके लिए सही राह व श्रेष्ठ विचारों की आवश्यकता होती है।

बुजुर्गों ने सही कहा है, संगत और पंगत में सोच समझ के बैठना चाहिए। जिसके साथ आप रहते हो उसके विचारों का असर होने लगता है यदि वो अच्छा है, तब तो आप का भविष्य उज्ज्वल है, अन्यथा कोयले की संगत हो और कालिख न लगे ये संभव नहीं।

इसी तरह जिन लोगों के साथ आपका खान- पान, उठना – बैठना हो यदि वे निरामिष प्रवत्ति के हैं तो आपको वैसा होने में देर नहीं लगेगी। कहा भी गया है जैसा होवे अन्न वैसा होवे मन।

मन यदि आपके बस में नहीं रहा तो कभी भी उन्नति के रास्ते नहीं खुलेंगे। क्योंकि सब कुछ तो मन से नियंत्रित होता है। मन के जीते जीत है मन के हारे हार।

इस सब पर विजय केवल अच्छे साहित्य के पठन- पाठन से ही पायी जा सकती है क्योंकि जैसी संगत वैसी रंगत।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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