हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 177 – गीत – शपथ है…. ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका एक अप्रतिम गीत – शपथ है।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 177 – गीत  – शपथ है…  ✍

शपथ है उन सात फेरों की

है शपथ संझा सबेरों की

है साक्षी आकाश, मत तोड़ना विश्वास।

हृदय मेरे पास

याद है वह दिन तुम्हें, जाँचे बिना ही ब्याह लाया था

अब कहूँ क्या और ज्यादा, मैं समुन्दर थाह लाया था

रतन से ज्यादा तुम्हें पाया, जिन्दगी के गीत सा गाया

मत तोड़ना विश्वास, साक्षी आकाश।

देवता की बात छोड़ो, आदमी से भूल होती है

निर्मली आकाश के भी, पाश में कुछ धूल होती है

धूल को तुमने हटाया है, रंग मेरा निखर आया है।

मत तोड़ना विश्वास ,साक्षी आकाश।

कवि हृदय को बाँचना भी, एक मुश्किल काम होता है

आँख उसकी है भिखारिन, इसलिये बदनाम होता है

जो सजाई फूल क्यारी है, सम्मिलित खुशबू हमारी है

मत तोड़ना विश्वास, साक्षी आकाश।

मैं हृदय की प्यास।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 177 – “शायद आज पूर्ण हो पाये…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  शायद आज पूर्ण हो पाये...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 177 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “शायद आज पूर्ण हो पाये...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

सुबह-सुबह उसके घर की

छप्पर धुंधुआती है –

जबभी ,भोजन मिलने की

आशा जग जाती है

 

लगती चिडियाँ खूब फुदकने

छपर पर सहसा

ताली खूब बजाता पीपल

जैसे हो जलसा

 

सारे जीव प्रसन्न तो दिखें

मुदित वनस्पतियाँ

पूरे एक साल में ज्यों

दीवाली आती है

 

घर के कीट पतंग सभी

यह सुखद खबर पाकर

एक दूसरे को समझाने

लगे पास जाकर

 

यह सुयोग इतने दिन में

गृहस्वामी लाया है

जिस की सुध ईश्वर को

मुश्किल से आपाती है

 

यों सारा पड़ोस खुश होकर

आशा में डूबा

शायद आज पूर्ण हो पाये

अपना मंसूबा

 

जो रोटीं उधार उस दिन

की हैं,  वापस होंगीं

ठिठकी यह कल्पना,

सभी की , जोर लगाती है

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

06-02-2024 

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 225 ☆ “डिजिटल एनिमल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य – “डिजिटल एनीमल)

☆ व्यंग्य “डिजिटल एनीमल☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

इंसान के बारे में कहा जाता है कि वह सामाजिक प्राणी है। आप मानें या माने पर आज के इंसान को सामाजिक प्राणी की जगह डिजिटल एनीमल कहना ज्यादा उचित लग रहा है। अब इंसान को इंसान के साथ अच्छा नहीं लगता, इंसान का दिमाग विचित्र होता जा रहा है, हर कोई अपने मूड और मस्ती में रहना चाहता है। कान में आइपोड या प्लग्स लगाकर बैठे व्यक्ति से कुछ कहो तो वह चिढ़ जाता है, फिर आज के इंसान को कैसे कहें कि वह सामाजिक प्राणी है।

सभी के दोनों हाथों में मोबाइल है, मोबाइल के अलावा लेपटॉप या टेबलेट जैसा दूसरा कोई न कोई डिजिटल इंस्ट्रूमेंट भी साथ है, यार भाई… तू तो सामाजिक प्राणी है फिर एक घंटे मोबाइल से अलग रहने की बात से इतना तू अपसेट क्यूं होता है, यदि बैटरी लो हो रही हो तो तू डाउन क्यूं हो जाता है? आठ दस घंटे मोबाइल के चक्कर में तू असामाजिक होने जैसी हरकतें क्यूं करने लगता है? तू तो अपने आपको सामाजिक प्राणी कहता है फिर तुझे मोबाइल में वह अमुक चेहरा क्यूं अच्छा लगने लगता है, जिससे तू मिला भी नहीं है जिसे तू पहचानता भी नहीं है। फिर क्यूं दिनों रात उसी के बारे में सोचता रहता है? तेरे दिल दिमाग में वो अमुक हीरोइन छायी रहती है, ऐसा लगता है जैसे वो तुम्हारे साथ रहती है। यार भाई…तू जाग, तू तो सामाजिक प्राणी है तो तू हमेशा ख्यालों में क्यूं जीने लगा? ऐसा लग रहा है कि तू अपनी लवस्टोरी में अपने साथ एक वर्चुअल पार्टनर के संग जी रहा है, फेसबुक, वाट्स अप, इंस्टाग्राम में तुम्हारा प्यार और संबंध डिजिटल हो गए हैं। तुझे प्यार जैसा कुछ होता तो है पर वह लम्बे समय टिकता नहीं, ब्रेकअप के मामले में तू तो ज्यादा सामाजिक हो गया है।      

प्राइवेसी का नाम तू और तेरा मोबाइल हो गया है, दिखावे की दुनिया का तू सरताज हो गया है। याद है जब माता-पिता ने तेरा जबरदस्ती विवाह किया था तो बारात बिदा होते ही कार में बैठे बैठे तू तुरंत नव परिणित युगल स्टेट्स अपलोड करने में लग गया था, फूफा और जीजा की तरफ तो देखा भी नहीं था, फूफा बहुत नाराज हो गए थे तो तुम्हारे माता-पिता उनके चरणों में लोट गये थे पर तुम अपलोड करने और रील बनाने में बिजी हो गए थे। सब बाराती हंस रहे थे और तू नयी पत्नी से कह रहा था कि जब मैं मोबाइल में होऊं तो मुझे डिस्टर्ब नहीं करना, मैं क्या देख रहा हूं…क्या कर रहा हूं इस बारे में कभी कोई सवाल नही करना क्योंकि मेरे पांच हजार फ्रेंड हैं, हालांकि वे जब सामने मिलेंगे तो भले न हम पहचाने पर वे डिजिटल फ्रेंड की श्रेणी में तो आते हैं, यही फ्रेंड हमें दिन-रात लाइक और कमेंट देते हैं, ये हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। नात- रिश्तेदार तो स्वार्थवश जुड़े होते हैं हमारी पोस्ट देखकर भी अनजान बन जाते हैं, आज के युग में नात रिश्तेदार सब असामाजिक प्राणी हो गए हैं पर लाइक और कमेंट देने वाले सच में सामाजिक प्राणी कहलाने लायक होते हैं। तुम्हें याद है शादी के दूसरे दिन तुम्हारा हनीमून था तो उस रात आकाश में पूरा मून तो निकला था पर उस रात को भी तुमने डिजिटल हनीमून मनाने का फैसला कर लिया था, और वह बेचारी रात भर तड़फती रह गई थी…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ माँ… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता माँ…’।)

☆ कविता – माँ… ☆

माँ तो केवल माँ होती है,

माँ को न कुछ और कहो,

सभी देवता गोद में खेले,

तुम तो बस चरणों में रहो,

जन्म दिया हो या पाला हो,

भेद न कोई ममता माने,

अपना पराया कोई नहीं है,

माँ तो सबको अपना माने,

माँ की ममता का मोल नहीं,

ममता है अनमोल कहो,

माँ तो केवल माँ होती है,

माँ को न कुछ और कहो,

माँ की महिमा का बखान,

सुर नर मुनि भी गाते हैं,

वेद पुराण के पन्ने भी,

लिख कर नहीं अघाते हैं,

सब रिश्तों से ऊपर है माँ ,

इससे ऊपर कोई न हो

माँ तो केवल माँ होती है,

माँ को न कुछ और कहो.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 165 ☆ # कलम # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# कलम #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 165 ☆

☆ # कलम #

उसने मुझे कलम थमाई

लिखने की कला सिखाई

हर शब्द कीमती है

शब्दों की गरिमा समझाई

 

तुम कभी –

सत्य का पाथ ना छोड़ना

कमजोर का हाथ ना छोड़ना

बेबस, लाचार, असहाय का

राह में साथ ना छोड़ना

 

वो बात लिखो-

जो तुम्हें कचोटती हो

जो तुम्हें झंझोड़ती हो

जो तुम्हारे शरीर ही नहीं

आत्मा को निचोड़ती हो

 

मैंने उत्साह में

लिखने की चाह में

लिखा-

बढ़ती मंहगाई पर

दिग्भ्रमित तरुणाई पर

खोखले वादों पर

झूठे इरादों पर

भूखे की रोटी पर

निर्धन की लंगोटी पर

कमजोर के अन्याय पर

बिके हुए न्याय पर

सियासत के मोहरों पर

हर पल बदलते चेहरों पर

रूपये के खेल पर

बढ़ते बेढ़ंगे मेल पर

प्रिंट मीडिया की बदहाली पर

पेड मीडिया की दलाली पर

 

और

उसे जब अपनी रिपोर्ट थमाई

पढ़कर उसके चेहरे पर

व्यंग्यात्मक हंसी आई

वो बोला –

यह सब कहानी

लगती सच्ची है

पढ़ने में अच्छी है

पर छप नही सकती है

उसके माथे पर बूंदें उभर आई

उसकी जिव्हा लड़खड़ाई

उसकी आंखों में भय दिखने लगा

उसकी आवाज थी भर्राई

उसने मेरी कलम छीन ली

और बाहर की राह दिखाई

मुझे आज तक

मेरी रचना में

क्या कमी थी

समझ नहीं आई /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 161 ☆ हे शब्द अंतरीचे… नेत्र… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 161 ? 

☆ हे शब्द अंतरीचे… नेत्र… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆/

(अष्ट-अक्षरी)

नेत्र पाहतील जेव्हा, तेव्हा खरे समजावे

उगा कधीच कुठेच, मन भटकू न द्यावे…

*

मन भटकू न द्यावे, योग्य तेच आचारावे

स्थिर अस्थिर जीवन, मर्म स्वतःचे जाणावे…

*

मर्म स्वतःचे जाणावे, जन्म एकदा मिळतो

सर्व सोडून जातांना, कीर्ती गंध तो उरतो…

*

कीर्ती गंध तो उरतो, सत्य करावे बोलणे

राज केले उक्त पहा, पुढे नाहीच सांगणे…

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – बोलकी मुखपृष्ठे ☆ “बियॉन्ड लिमिट्स” ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

? बोलकी मुखपृष्ठे ?

☆ “बियॉन्ड लिमिट्स” ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

ठसठशीत कुंकू काळजीची नजर आणि त्या नजरेच्या टप्प्यातले एक बालक एवढेच चित्र आणि त्याखाली लिहिलेले बियॉण्ड लिमिट्स हे शीर्षक. बस एवढेच छायाचित्र.

पण बारकाईने पहिले तर हे चित्र खूपसे बोलू लागते.

अगदी सरळ भाषेत म्हटले तर घार उडते आकाशी तिचे लक्ष पिलापाशी या म्हणीवर आधारित चित्र काढा म्हटले तर ते असेच असेल.

एक आई संसार आणि नोकरीं दोन्ही सांभाळताना कायम तिच्या मनात आपल्या बाळाचे विचार असतात. तिला तिच्या बाळाचे रूप नजरेत कायम दिसते. याच विचारात ती आपली नोकरीं करत असते. ती आईची व्यथा, वेदना या चित्रातून स्पष्ट दिसते.

आईचे घर म्हणजे तिची धरती, तिची नोकरी म्हणजे तिचे आकाश. मग या धरती अंबरच्या मिलनी अर्थात क्षितिजावर तिला तिचे मूल स्पष्ट दिसत असते आणि या क्षितिजावरूनच त्याने गगनभरारी घ्यावी हे तिचे स्वप्न अगदी हुबेहूब रेखाटले आहे वाटते.

आपले बाळ हे स्त्रीचे हळवेपण असते तर तेच बाळ त्या बालकावर संकट आले तर तिचे बलस्थान पण होऊ शकते. हीच खंबीर नजर त्याचे कवच ठरू शकते असेही दाखवते.

बियॉण्ड लिमिट्स हे वाचल्यावर याच एका स्त्रीला आपल्या मर्यादा ओलांडून आपल्या बाळासाठी काही करण्याची इच्छा आहे हे लक्षात येते.

आईची नजर कायम आपल्या बाळावर असतेच पण ते कमी आहे म्हणून की काय पण कुंकवाचा तिसरा नेत्रही बाळाकडे रोखून पहात आहे असे वाटते.

हाच तिसरा नेत्र बालसूर्य होऊन बाळाला सकारात्मक ऊर्जा देण्याचे काम करत आहे असे वाटते.

त्या चेहऱ्यावरील काळजीचा एक नेत्र क्षणभरही बाळाला ओझर होऊ देत नसला तरी दुसरा डोळा त्याच्या काळजीने झरतो आहे पण मोठ्या कौशल्याने हे अश्रू ती लपवते कोणाला दाखवत नाही असेही हे चित्र सांगते.

त्या चेहऱ्यावर केस विखुरलेले दाखवले आहेत. तिचे मन त्या प्रमाणे विस्कटलेले असले तरी तेच केस मुलायम रेशमी बंध होऊन मुलाला आईकडे खेचतात असाही अर्थ निघू शकतो पण एक आई आणि तिचे बाळ यामधील अतूट बंधाचे हे चित्र आहे एवढे मात्र निश्चित असले तरी अंतरंगात डोकावल्यावर कळते की आपल्या एकुलत्या एक मुलाला झालेल्या ब्लड कॅन्सर मुळे पिळवटलेले काळीज डोळ्यातून पाझरले तरी त्या लेकराला यातून बाहेर काढण्याची आई वडिलांची ही संघर्ष कथा तर मुलगा तन्मय याची या दुखण्यावर मात केलेली ही यशोगाथा आहे. तेच भाव या चित्रात रेखाटण्याचा प्रयत्न केला आहे.

तसेच या पुस्तकात गव्हान्कुराचा उल्लेख प्रामुख्याने औषधाच्या रूपाने आला आहे. या चित्रातील चेहऱ्यावरील केस किंवा पदराचे काठ हे त्या गव्हांकुरासारखे दिसतात. तेच तिच्या डोक्यात आहेत आणि त्यानेच ते बाळ वाढतंय असेही वाचल्यानंतर चित्रातून प्रतीत होते.

खरोखर वाचण्यासारखी प्रेरणादायी अशी ही कादंबरी  किंवा जीवनकथा आहे.

त्यासाठी मुखपृष्ठ कार अरविंद शेलार, परिस पब्लिकेशन आणि सगळ्यात महत्वाचे लेखिका हेमलता तुषार सपकाळ यांचे मन:पूर्वक आभार.

200 पानांची ही कादंबरी 350 रुपये एवढे मूल्य आहे. आशा आहे आपण ही कादंबरी घेऊन वाचालच पण एक प्रेरणादायी कथा म्हणून ती इतरांना पण भेट द्याल.

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 229 ☆ व्यंग्य – ख़ुदगर्ज़ लोग ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य – ख़ुदगर्ज़ लोग। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 229 ☆

☆ व्यंग्य –  ख़ुदगर्ज़ लोग

वह आदमी सहमता, सकुचता मंत्री जी के बंगले में घुसा। भीतर पहुँचा तो देखा, लंबे चौड़े लॉन में बीस पच्चीस लोग इधर उधर आँखें मूँदे या आँखों पर बाँह धरे पड़े हैं। लगता था जैसे बीस पच्चीस लाशें बिछी हों। पास ही दो एंबुलेंस खड़ी थीं। उनमें से एक में दो लोगों को डंगाडोली बनाकर धरा जा रहा था।

आदमी उन ज़िन्दा लाशों के बगल से गुज़रा तो उनमें से एक ने आँखों पर से बाँह हटाकर उसे घूरा, फिर पूछा, ‘कौन हो भैया? कहाँ जा रहे हो?’

आदमी बहुत नम्रता से बोला, ‘मंत्री जी से मिलना था। वे हमें जानते हैं।’

ज़मीन पर लेटा आदमी बोला, ‘ज़रुर जानते होंगे, लेकिन अभी वे किसी से नहीं मिलेंगे। अभी वे शोककक्ष में हैं। ब्लड प्रेशर चेक करने के लिए डॉक्टर को चुप्पे-चुप्पे बुलाया है। विरोधी पार्टी वालों को मंत्री जी की तबियत पता नहीं लगना चाहिए।’

आगन्तुक  वहीं रुक गया। पूछा, ‘क्या हो गया मंत्री जी को?’

लेटा हुआ आदमी उठ कर बैठ गया। बोला, ‘वही राजरोग है। जो पार्टी हमें सपोर्ट कर रही थी उसने समर्थन वापस ले लिया है। राज्यपाल जी को लिखकर दे दिया है। बेईमानों से और क्या उम्मीद करेंगे? अब हमारी सरकार गिरी ही समझो। इसीलिए हम सब मंत्री जी के समर्थक ग़म में डूबे यहाँ बेसुध पड़े हैं। जब मंत्री जी पद पर नहीं रहेंगे तो हमारा क्या होगा? हमें कौन पूछेगा? अँधेरे के सिवा कुछ नहीं दिखता है। आप किस लिए आये थे?’

आगन्तुक बोला, ‘बेटे ने साल भर पहले पटवारी की परीक्षा पास की थी। अभी तक नियुक्ति पत्र नहीं मिला।’

बैठा हुआ आदमी व्यंग्य से बोला, ‘आप लोग, भैया, बड़े स्वार्थी हो। आपको अपना अपना दिखता है, हमारी परेशानी नहीं दिखती। वही नौकरी और मँहगाई का रोना। जरा सोचो, भैया जी मंत्री नहीं रहे तो हमारा क्या होगा? हमारे पास भैया जी की सेवा के सिवा कौन सा रोजगार है? कौन सा मुँह लेकर घर जाएँ?’

आगन्तुक दुखी स्वर में बोला, ‘बड़ी परेशानी है। बेटा चौबीस घंटे टेंशन में रहता है। क्या करें?’

बैठा हुआ आदमी क्रोधित हो गया, बोला, ‘बस अपनी ढपली, अपना राग। हम यहाँ इतनी बड़ी परेशानी में पड़े हैं और आप अपना बेसुरा राग अलापे जा रहे हैं। गज़ब की खुदगर्ज़ी है,भई। क्या आपका दुख हमारे दुख से बड़ा है? ये जो इतने लोग यहाँ बेहाल पड़े हैं इनका दुख आपको दिखाई नहीं देता? अब आप यहांँ से तशरीफ ले जाएँ। आप जैसे खुदगर्ज़ लोगों के कारण ही हमारे देश की जगहँसाई होती है। शर्म आनी चाहिए आपको। ‘

आगन्तुक, सोच में डूबा, धीरे-धीरे बंगले से बाहर हो गया

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 228 – मानस प्रश्नोत्तरी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 228 ☆ मानस प्रश्नोत्तरी ?

एक व्यक्ति को नरश्रेष्ठ कहलाने  होने की इच्छा हुई। इच्छा होना और भाव जगने में बड़ा अंतर है। इच्छा का तो दिनचर्या में कई बार जन्म होता है, कई बार मरण होता है। भाव की बात अलग है। इच्छा स्थितियों से प्रभावित हो सकती है जबकि काल, पात्र, परिस्थिति, भाव के आगे निर्बल होते हैं। 

नानाविध विचार कर व्यक्ति मार्गदर्शन लेने एक साधु के पास पहुँचा। व्यक्ति और साधु में कुछ यों प्रश्नोत्तर हुए-

श्रेष्ठ मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?

– पहले मनुष्य बनने का प्रयास करना चाहिए।

मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?

– परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करना चाहिए।

परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करने के लिए क्या करना चाहिए?

– परकाया प्रवेश आना चाहिए।

परकाया प्रवेश के लिए क्या करना चाहिए?

– अद्वैत भाव जगाना चाहिए।

अद्वैत भाव जगाने के लिए क्या करना चाहिए?

– जो खुद के लिए चाहते हो, वही दूसरों को देना आना चाहिए क्योंकि तुम और वह अलग नहीं हो।

‘मैं’ और ‘वह’ की अवधारणा से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए?

– सत्संग करना चाहिए। सत्संग ‘मैं’ की वासना को ‘वह’ की उपासना में बदलने का चमत्कार करता है।

सत्संग के लिए क्या करना चाहिए?

-अपने आप से संवाद करना चाहिए। हरेक का भीतर ऐसा दर्पण है जिसमें स्थूल और सूक्ष्म दोनों दिखते हैं। भीतर के सच्चिदानंद स्वरूप से ईमानदार संवाद पारस का स्पर्श है जो लौह को स्वर्ण में बदल सकता है।

लौह के स्वर्ण में बदलने की यह भावात्मक प्रक्रिया विभिन्न चरणों में होती है। सच्चा सत्संगी  स्वयं से संवाद करना आरम्भ करता है। जिस तरह स्वयं से संवाद करता है, अगले चरणों में उसी भाँति हरेक से संवाद करने लगता है। अब हरेक में वह है, अब वही हरेक है। स्व का यह विस्तार मनुष्य को अमृतपान कराता है। सारा विषाद, मत्सर, ईर्ष्या, लोभ, वासना, क्रोध, भय मरने लगता है, मनुष्य आत्मतत्व के प्रति रीझने लगता है। आत्म पर जितना मरता है, उतना अमर होता है मनुष्य।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 174 ☆ सॉनेट – धीर धरकर ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है सॉनेट – धीर धरकर।  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 174 ☆

☆ सॉनेट – धीर धरकर ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

पीर सहिए, धीर धरिए।

आह को भी वाह कहिए।

बात मन में छिपा रहिए।।

हवा के सँग मौन बहिए।।

कहाँ क्या शुभ लेख तहिए।

मधुर सुधियों सँग महकिए।

दर्द हो बेदर्द सहिए।।

स्नेहियों को चुप सुमिरिए।।

असत् के आगे न झुकिए।

श्वास इंजिन, आस पहिए।

देह वाहन ठीक रखिए।

बनें दिनकर, नहीं रुकिए।।

शिला पर सिर मत पटकिए।

मान सुख-दुख सम विहँसिए।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१७-२-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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