(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# कलम#”)
ठसठशीत कुंकू काळजीची नजर आणि त्या नजरेच्या टप्प्यातले एक बालक एवढेच चित्र आणि त्याखाली लिहिलेले बियॉण्ड लिमिट्स हे शीर्षक. बस एवढेच छायाचित्र.
पण बारकाईने पहिले तर हे चित्र खूपसे बोलू लागते.
अगदी सरळ भाषेत म्हटले तर घार उडते आकाशी तिचे लक्ष पिलापाशी या म्हणीवर आधारित चित्र काढा म्हटले तर ते असेच असेल.
एक आई संसार आणि नोकरीं दोन्ही सांभाळताना कायम तिच्या मनात आपल्या बाळाचे विचार असतात. तिला तिच्या बाळाचे रूप नजरेत कायम दिसते. याच विचारात ती आपली नोकरीं करत असते. ती आईची व्यथा, वेदना या चित्रातून स्पष्ट दिसते.
आईचे घर म्हणजे तिची धरती, तिची नोकरी म्हणजे तिचे आकाश. मग या धरती अंबरच्या मिलनी अर्थात क्षितिजावर तिला तिचे मूल स्पष्ट दिसत असते आणि या क्षितिजावरूनच त्याने गगनभरारी घ्यावी हे तिचे स्वप्न अगदी हुबेहूब रेखाटले आहे वाटते.
आपले बाळ हे स्त्रीचे हळवेपण असते तर तेच बाळ त्या बालकावर संकट आले तर तिचे बलस्थान पण होऊ शकते. हीच खंबीर नजर त्याचे कवच ठरू शकते असेही दाखवते.
बियॉण्ड लिमिट्स हे वाचल्यावर याच एका स्त्रीला आपल्या मर्यादा ओलांडून आपल्या बाळासाठी काही करण्याची इच्छा आहे हे लक्षात येते.
आईची नजर कायम आपल्या बाळावर असतेच पण ते कमी आहे म्हणून की काय पण कुंकवाचा तिसरा नेत्रही बाळाकडे रोखून पहात आहे असे वाटते.
हाच तिसरा नेत्र बालसूर्य होऊन बाळाला सकारात्मक ऊर्जा देण्याचे काम करत आहे असे वाटते.
त्या चेहऱ्यावरील काळजीचा एक नेत्र क्षणभरही बाळाला ओझर होऊ देत नसला तरी दुसरा डोळा त्याच्या काळजीने झरतो आहे पण मोठ्या कौशल्याने हे अश्रू ती लपवते कोणाला दाखवत नाही असेही हे चित्र सांगते.
त्या चेहऱ्यावर केस विखुरलेले दाखवले आहेत. तिचे मन त्या प्रमाणे विस्कटलेले असले तरी तेच केस मुलायम रेशमी बंध होऊन मुलाला आईकडे खेचतात असाही अर्थ निघू शकतो पण एक आई आणि तिचे बाळ यामधील अतूट बंधाचे हे चित्र आहे एवढे मात्र निश्चित असले तरी अंतरंगात डोकावल्यावर कळते की आपल्या एकुलत्या एक मुलाला झालेल्या ब्लड कॅन्सर मुळे पिळवटलेले काळीज डोळ्यातून पाझरले तरी त्या लेकराला यातून बाहेर काढण्याची आई वडिलांची ही संघर्ष कथा तर मुलगा तन्मय याची या दुखण्यावर मात केलेली ही यशोगाथा आहे. तेच भाव या चित्रात रेखाटण्याचा प्रयत्न केला आहे.
तसेच या पुस्तकात गव्हान्कुराचा उल्लेख प्रामुख्याने औषधाच्या रूपाने आला आहे. या चित्रातील चेहऱ्यावरील केस किंवा पदराचे काठ हे त्या गव्हांकुरासारखे दिसतात. तेच तिच्या डोक्यात आहेत आणि त्यानेच ते बाळ वाढतंय असेही वाचल्यानंतर चित्रातून प्रतीत होते.
खरोखर वाचण्यासारखी प्रेरणादायी अशी ही कादंबरी किंवा जीवनकथा आहे.
त्यासाठी मुखपृष्ठ कार अरविंद शेलार, परिस पब्लिकेशन आणि सगळ्यात महत्वाचे लेखिका हेमलता तुषार सपकाळ यांचे मन:पूर्वक आभार.
200 पानांची ही कादंबरी 350 रुपये एवढे मूल्य आहे. आशा आहे आपण ही कादंबरी घेऊन वाचालच पण एक प्रेरणादायी कथा म्हणून ती इतरांना पण भेट द्याल.
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य – ‘ख़ुदगर्ज़ लोग‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 229 ☆
☆ व्यंग्य – ख़ुदगर्ज़ लोग ☆
वह आदमी सहमता, सकुचता मंत्री जी के बंगले में घुसा। भीतर पहुँचा तो देखा, लंबे चौड़े लॉन में बीस पच्चीस लोग इधर उधर आँखें मूँदे या आँखों पर बाँह धरे पड़े हैं। लगता था जैसे बीस पच्चीस लाशें बिछी हों। पास ही दो एंबुलेंस खड़ी थीं। उनमें से एक में दो लोगों को डंगाडोली बनाकर धरा जा रहा था।
आदमी उन ज़िन्दा लाशों के बगल से गुज़रा तो उनमें से एक ने आँखों पर से बाँह हटाकर उसे घूरा, फिर पूछा, ‘कौन हो भैया? कहाँ जा रहे हो?’
आदमी बहुत नम्रता से बोला, ‘मंत्री जी से मिलना था। वे हमें जानते हैं।’
ज़मीन पर लेटा आदमी बोला, ‘ज़रुर जानते होंगे, लेकिन अभी वे किसी से नहीं मिलेंगे। अभी वे शोककक्ष में हैं। ब्लड प्रेशर चेक करने के लिए डॉक्टर को चुप्पे-चुप्पे बुलाया है। विरोधी पार्टी वालों को मंत्री जी की तबियत पता नहीं लगना चाहिए।’
आगन्तुक वहीं रुक गया। पूछा, ‘क्या हो गया मंत्री जी को?’
लेटा हुआ आदमी उठ कर बैठ गया। बोला, ‘वही राजरोग है। जो पार्टी हमें सपोर्ट कर रही थी उसने समर्थन वापस ले लिया है। राज्यपाल जी को लिखकर दे दिया है। बेईमानों से और क्या उम्मीद करेंगे? अब हमारी सरकार गिरी ही समझो। इसीलिए हम सब मंत्री जी के समर्थक ग़म में डूबे यहाँ बेसुध पड़े हैं। जब मंत्री जी पद पर नहीं रहेंगे तो हमारा क्या होगा? हमें कौन पूछेगा? अँधेरे के सिवा कुछ नहीं दिखता है। आप किस लिए आये थे?’
आगन्तुक बोला, ‘बेटे ने साल भर पहले पटवारी की परीक्षा पास की थी। अभी तक नियुक्ति पत्र नहीं मिला।’
बैठा हुआ आदमी व्यंग्य से बोला, ‘आप लोग, भैया, बड़े स्वार्थी हो। आपको अपना अपना दिखता है, हमारी परेशानी नहीं दिखती। वही नौकरी और मँहगाई का रोना। जरा सोचो, भैया जी मंत्री नहीं रहे तो हमारा क्या होगा? हमारे पास भैया जी की सेवा के सिवा कौन सा रोजगार है? कौन सा मुँह लेकर घर जाएँ?’
आगन्तुक दुखी स्वर में बोला, ‘बड़ी परेशानी है। बेटा चौबीस घंटे टेंशन में रहता है। क्या करें?’
बैठा हुआ आदमी क्रोधित हो गया, बोला, ‘बस अपनी ढपली, अपना राग। हम यहाँ इतनी बड़ी परेशानी में पड़े हैं और आप अपना बेसुरा राग अलापे जा रहे हैं। गज़ब की खुदगर्ज़ी है,भई। क्या आपका दुख हमारे दुख से बड़ा है? ये जो इतने लोग यहाँ बेहाल पड़े हैं इनका दुख आपको दिखाई नहीं देता? अब आप यहांँ से तशरीफ ले जाएँ। आप जैसे खुदगर्ज़ लोगों के कारण ही हमारे देश की जगहँसाई होती है। शर्म आनी चाहिए आपको। ‘
आगन्तुक, सोच में डूबा, धीरे-धीरे बंगले से बाहर हो गया
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 228☆ मानस प्रश्नोत्तरी
एक व्यक्ति को नरश्रेष्ठ कहलाने होने की इच्छा हुई। इच्छा होना और भाव जगने में बड़ा अंतर है। इच्छा का तो दिनचर्या में कई बार जन्म होता है, कई बार मरण होता है। भाव की बात अलग है। इच्छा स्थितियों से प्रभावित हो सकती है जबकि काल, पात्र, परिस्थिति, भाव के आगे निर्बल होते हैं।
नानाविध विचार कर व्यक्ति मार्गदर्शन लेने एक साधु के पास पहुँचा। व्यक्ति और साधु में कुछ यों प्रश्नोत्तर हुए-
श्रेष्ठ मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?
– पहले मनुष्य बनने का प्रयास करना चाहिए।
मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?
– परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करना चाहिए।
परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करने के लिए क्या करना चाहिए?
– परकाया प्रवेश आना चाहिए।
परकाया प्रवेश के लिए क्या करना चाहिए?
– अद्वैत भाव जगाना चाहिए।
अद्वैत भाव जगाने के लिए क्या करना चाहिए?
– जो खुद के लिए चाहते हो, वही दूसरों को देना आना चाहिए क्योंकि तुम और वह अलग नहीं हो।
‘मैं’ और ‘वह’ की अवधारणा से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए?
– सत्संग करना चाहिए। सत्संग ‘मैं’ की वासना को ‘वह’ की उपासना में बदलने का चमत्कार करता है।
सत्संग के लिए क्या करना चाहिए?
-अपने आप से संवाद करना चाहिए। हरेक का भीतर ऐसा दर्पण है जिसमें स्थूल और सूक्ष्म दोनों दिखते हैं। भीतर के सच्चिदानंद स्वरूप से ईमानदार संवाद पारस का स्पर्श है जो लौह को स्वर्ण में बदल सकता है।
लौह के स्वर्ण में बदलने की यह भावात्मक प्रक्रिया विभिन्न चरणों में होती है। सच्चा सत्संगी स्वयं से संवाद करना आरम्भ करता है। जिस तरह स्वयं से संवाद करता है, अगले चरणों में उसी भाँति हरेक से संवाद करने लगता है। अब हरेक में वह है, अब वही हरेक है। स्व का यह विस्तार मनुष्य को अमृतपान कराता है। सारा विषाद, मत्सर, ईर्ष्या, लोभ, वासना, क्रोध, भय मरने लगता है, मनुष्य आत्मतत्व के प्रति रीझने लगता है। आत्म पर जितना मरता है, उतना अमर होता है मनुष्य।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है सॉनेट – धीर धरकर। )
आमच्या रिसॉर्टला लागूनच समुद्रकिनारा असल्यामुळे आम्ही सकाळी समुद्रावरच फेरफटका मारला. ढगाळ वातावरणामुळे सूर्योदयाचा आनंद मात्र मनासारखा घेता आला नाही. पण एकंदर सारे सुखद होते.
एक मच्छीमार त्याची छोटीशी नाव समुद्रात ढकलून काहीसा आत जाऊन मासेमारी करत होता. थोड्यावेळाने तो परतला आणि त्याच्या जाळ्यात अडकलेली मासळी तो सोडवू लागला. किनाऱ्यावर बोट खेचली, तिला उलटी करून त्यातले पाणी रेती उपसले. पसरलेल्या जाळ्यांची नीट घडी घालून सारे आवरले आणि पकडलेल्या मासळीची थैली घेऊन तो परतला. संपूर्ण भिजला होता. कमरेला आपल्या कोळ्यांसारखेच घट्ट वस्त्र आणि डोक्यावर आडवी टोकदार टोपी. एकटाच मन लावून काम करत होता. कदाचित मिळालेल्या मासळीवरच त्याची आजच्या दिवसाची उपजीविका असेल. पण तो त्रासलेला, थकलेला वाटला नाही. कर्तव्यनिष्ठ, जीवनाला सामोरा जाणारा धीट दर्यावर्दीच भासला. पुन्हा एकदा वाटलं, देश कोणताही असू दे, माणूस भले रंगा रूपाने वेगळा असू दे, पण माणूस हा माणूसच असतो. भाव भावनांचं, जगण्याचं एकच रसायन. प्रवासामध्ये असे वैचारिक दृष्टिकोन आपोआपच विस्तृत होत जातात.वसुधैव कुटुंबकम*याचा अर्थ कळतो. एक सांगायचं राहिलंच! त्या मच्छीमाराच्या टोपलीतले ताजे मासे पाहून आम्हा सगळ्यांनाच त्याच्याकडून एक तरी फ्रेश कॅच घ्यावा आणि मस्त भारतीय पद्धतीने तेलावर परतून खावा असे वाटले. आम्हाला पाकखाना व्यवस्था होती. मात्र तेल, मीठ, तिखट आणावे लागले असते आणि त्यासाठी पुन्हा काही हजार आयडिआर लागले असते! म्हणून ती खमंग, चमचमीत कल्पना नाईलाजाने आम्ही सोडूनच दिली.
बाली इंडोनेशियन बेटावर मुक्तपणे हिंडताना जाणवत होता तो इथला नयनरम्य निसर्ग !रम्य समुद्रकिनारे. पारंपारिक संस्कृती, सर्जनशीलता, कला, हस्तकला आणि इथल्या स्थानिक लोकांचा अस्सल उबदारपणा. बाली बेटावर फिरत असताना वेगळेपणा जाणवत असला तरी आपण भारतापासून दूर आहोत असे मात्र वाटत नाही. आंबा, केळी, नारळाची झाडे आपल्याला कोकण केरळची आठवण करून देतात. हिरवीगार भाताची पसरलेली शेतं, त्यावर अलगद पडलेले सूर्यकिरण आणि वातावरणात दरवळलेला आंबेमोहोराचा सुगंध हा अनुभव केवळ वर्णनातीत. डिसेंबर महिन्यातही आंब्याच्या झुबक्यांनी लगडलेले आम्रवृक्ष पाहताना मन आनंदित होते, थक्क होते. रस्त्यावर जिकडे तिकडे बहरलेले गुलमोहर भारतातल्या चैत्र वैशाखाची आठवण करून देतात. टवटवीत विविध रंगाच्या बोगन वेली, पांढऱ्या आणि पिवळ्या चाफ्यांनी पानोपानी बहरलेली झाडं कॅमेरातली मेमरी संपवतात. इथली जास्वंदी, एक्झोरा, झेंडू जणू काही आपल्याशी संवाद साधतात.
“तुम्ही आणि आम्ही एकच आहोत” अशी भावना निर्माण करतात.
रस्त्याच्या कडेला असलेली दुकाने, फळवाले, खाद्यपदार्थांच्या गाड्या पाहताना तर वाटते हे सारं अगदी आपल्या देशातल्या सारखंच आहे.
रस्ते आखीव आणि रुंद असले तरी वाहनांची वर्दळ जाणवते. मात्र एक जाणवतं ते या वर्दळीला असलेली शिस्त. अजिबात घाई नाही. नियम मोडण्याची वृत्ती नाही, हॉर्नचा कलकलाट, नाही सिग्नलचे इशारे काटेकोरपणे पाळणारा हा ट्रॅफिक मात्र अमेरिकन वाटतो. चुकारपणे मनात येते हे इंडोनेशियन लोक मुंबई पुण्यात गाडी चालवू शकतील का?
इथली टप्पे असलेली लाल कौलारू घरे लक्षवेधीच आहेत. या घरांची बांधणी काहीशी चिनी, नेपाळी, हिमाचल प्रदेशीय वाटते. हिंदू मंदिरे जशी आहेत तसेच इथे बौद्धविहारही आहेत. भिंतीवरची रंगीबेरंगी तिबेटियन कलाकारी आणि वास्तुकला इथे पहायला मिळतेच पण वैविध्य व निराळेपण जाणवतं ते चौकाचौकातली हिंदू पुराणातल्या व्यक्तींची भव्य शिल्पे पाहताना. संगीत आणि नृत्यकलेसाठी हे बेट प्रसिद्ध आहे हे इथल्या नृत्यांगना, वाद्यं यांची शिल्पं अधोरेखित करतात. ही रस्त्यावरची शिल्पं अतिशय काळजीपूर्वक सांभाळलेली आहेत. कुठेही धूळ नाही, रंग उडालेले नाहीत. बालीत हिंडताना नेत्रांना दिसणारा हा नजारा फारच सुखद वाटतो.
शहरीकरण आणि परंपरा यांची सुरेख सरमिसळ इथे आहे. कोकोमार्ट, अल्फा मार्ट सारखी सुपर मार्केट्स, ब्रँडेड दुकाने एकीकडे तर पारंपारिक कला, संस्कृती हिंदू धर्माचे वर्चस्व दाखवणारी मंदिरे आणि विहार, तसेच सर्वत्र पसरलेला अथांग सागर आणि झाडीझुडपातला निसर्ग एकीकडे. मानवनिर्मित आणि निसर्ग यांची झालेली दोस्ती एक सुंदर संदेश देते.. विकास करा निसर्ग जपा
चांडीसार मधला आजचा आमचा शेवटचा दिवस होता. दुसऱ्या दिवशी आम्ही सानुरला जाणार होतो. तत्पूर्वी आमच्या रिसॉर्ट तर्फे समुद्रकिनारी असलेल्या रेस्टॉरंट मध्ये कर्मा सदस्यांना बार्बेक्यू आणि वाईन डिनर होतं. तरुण आणि ज्येष्ठ पर्यटकांसाठी ही एक मनोरंजक भेट(treat) होती. गंमत म्हणजे इथे रात्रीचे भोजनही संध्याकाळी पाच पासूनच सुरू होते आणि आठला संपते. त्यामुळे आम्ही सकाळचे लंच घेतलेच नाही. या कॉम्प्लिमेंटरी डिनरचा आस्वादच पूर्णपणे घ्यायचा ठरवला आणि तो घेतलाही. समुद्राची गाज, सोबत बालीनियन लोक संगीत.. हेही काहीसे भारतीय संगीताच्या जवळपासचे आणि गरमागरम तंदुरी व्हेज नॉनव्हेज पदार्थ आणि सोबत रेड वाईनचा प्याला. वाचकहो! गैरसमज करून घेऊ नका पण अशा वातावरणात जीवन जगण्याचा हलका आणि चौफेर आनंद का घेऊ नये?”थोडासा झूम लो..”
आमच्याबरोबर आमच्यासारखेच सारे तरुण, म्हातारे पर्यटक मस्त रंगीन पणे या सहलीची मौज लुटत होते, वय विसरत होते हे मात्र नक्की.
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-5 – अपनी पीढ़ी की बात ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
आज फिर मन जालंधर की ओर उड़ान भर रहा है। आज अपनी पीढ़ी को याद करने जा रहा हूँ । जैसे कि रमेश बतरा ने अपने एक कथा संग्रह में हम सबके नाम लिखकर कहा था कि जिनके बीच उठते बैठते मैं इस लायक बना! मैं भी आज अपने सब मित्र लेखकों को याद करते विनम्रता से यही बात दोहराना चाहता हूँ कि आप सबको मैं इसीलिए याद कर रहा हूँ कि आप सबकी संगत में कुछ बन पाया। आप सबको मैं भूल नहीं पाया। मेरी हालत ऐसी हो गयी है :
जैसे उड़ी जहाज को पंछी
उड़ी जहाज पे धावै!
मुझे अपनी पीढ़ी के रचनाकार आज भी अपने परिवार के सदस्यों जैसे लगते हैं। जब भी कोई मौका जालंधर जाने का बनता है, मैं अपना बैग उठाकर वहाँ पहुँच जाता हूँ। सबसे पहले मैं हिंदी मिलाप के साहित्य संपादक सिमर सदोष को याद कर रहा हूँ जो आजकल अजीत समाचार में साहित्य संपादक हैं। इनसे हम नये लेखक मिलने जाते और इनकी कमीज़ को खींच खींच कर अपनी रचनायें बच्चों की तरह सौंपते और वे बड़े धैर्य से हमारी रचनायें लेते और प्रकाशित करते। हिंदी मिलाप संघ के हम सब सदस्य भी थे। धीरे धीरे मुझे इसी मिलाप संघ के प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंप दी। इनके साथ अमृतसर, जालंधर हिंदी मिलाप के हरे भरे लाॅन में और अपने शहर नवांशहर में साहित्यिक आयोजन किये जिनकी कवरेज पूरे पन्ने पर प्रकाशित होती थी। यहीं मैं कमलेश कुमार भुच्चर से कमलेश भारतीय बना। कुछ नाम याद आ रहे हैं- रमेश बतरा,गीता डोगरा, कृष्ण दिलचस्प, रमेश शौंकी, रत्ना भारती (जम्मू), फगवाड़ा से जवाहर धीर आज़ाद, शिमला (हिमाचल) से कुमार कृष्ण जो बाद में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रहे और स्वर्ण पदक भी पाया था। आजकल वे पंचकूला रहते हैं और दो तीन बार शिमला के कार्यकमों में हम पिछले दो चार साल में फिर मिले। रमेश बतरा तो मेरा ऐसा मित्र बना जिसका जन्म तो जालंधर का था लेकिन वह पहले करनाल में नौकरी करता रहा, फिर उसकी ट्रांस्फर चंडीगढ़ हो गयी। इस तरह मेरा दूसरा घर चंडीगढ़ भी बन गया। कभी हम इकट्ठे ही सिमर सदोष के घर रहते और रचना भाभी हमारे लिए खाना बनातीं। वे खुद भी लेखिका थीं। अब वे नहीं हैं और उनकी कमी जालंधर जाने पर हर बार खलती है। सिमर जब कभी हम पर किसी बात पर नाराज़ हो जाते तो रचना भाभी ही सब मामला संभालतीं! इसीलिए मैने पिछले वर्ष इनकी पंजाब साहित्य अकादमी के समारोह की अध्यक्षता करते कहा था कि सिमर एक ऐसा शख्स है जिसे बहुत नाजुक चीज़ की तरह हैंडल विद केयर रखना पड़ता है। पहले हमारी भाभी रचना संभाल लेती थी। अब इनकी बहूरानी ने को सब संभालना पड़ता है। वही इनकी पंकस अकादमी को भी पृष्ठभूमि में संभाल रही है। मंच पर सारी भागदौड़ वही करती दिखाई देती है। सिमर अपनी संस्था को पिछले छब्बीस साल से चला रहे हैं जिसके मंच पर डाॅ प्रेम जनमेजय, लालित्य ललित, नलिनी विभा नाजली, आशा शैली, जवाहर आजाद, सुरेश सेठ, मोहन सपरा न जाने कितने लेखक सम्मानित हो चुके हैं। मुझे प्यार से दो दो बार सम्मानित किया। एक बार जब मैं हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बना और दूसरी बार दो साल पहले। सिमर का असली इरादा तो मुझे जालंधर खींच लाने का होता है। इस वर्ष अस्वस्थता के कारण जा नहीं पाया नहीं तो मेरी क्रिकेट की तरह हैट्रिक बन जाती !
खैर! यहीं मेरी दोस्ती तरसेम गुजराल से हुई जो आज तक कायम है। वे उन दिनों शेखां बाजार में रहते थे और इनके पापा गुजराल बैग हाउस चलाते थे और ये भी अपने पिता का हाथ बंटाया करते थे। इनका घर भी दुकान के ऊपर ही था जो सिमर के घर के बिल्कुल पास था। आज तरसेम गुजराल कम से कम अस्सी किताबें अपने नाम कर चुके हैं और अनेक संकलनों का संपादन भी किया है। अनेक पुरस्कार भी इनके नाम है। मज़ेदार बात यह कि इनके संपादित प्रथम कथा संग्रह -खुला आकाश के रूप आया जिसमें सबसे पहली कहानी मेरी ही थी-अंधेरे के कैदी। इसमें दस रचनाकार शामिल थे जिनमें रमेंद्र जाखू जो बाद में आई ए एस बने और हरियाणा में अपनी सेवायें दीं। आजकल सेवानिवृत्त होकर पंचकूला के मनसा देवी कम्लैक्स में रहते हैं। बीच में हरियाणा उर्दू अकादमी का अतिरिक्त कार्यभार भी संभाला। बहुत अच्छे शायर भी हैं और आवाज़ भी खूब है! जिन दिनों चंडीगढ़ दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक रहा इनके सरकारी आवास पर हर माह हम काव्य गोष्ठी में मिलते। दैनिक ट्रिब्यून में शुरू शुरू में मैंने एक रविवार यह बात अपने सहयोगियों को बताई तो वे मेरी गप्प मानने लगे और कहा कि यदि वह आपका दोस्त है तो ऑफिस आभी बुलाओ तो माने ! मैंने ऑफिस के फोन पर यही बात जाखू को कहते कह दिया कि यहाँ हमारी दोस्ती का इम्तिहान लिया जा रहा है। आप मुझे मिलने आ जाओ। उस दिन ड्राइवर की छुट्टी होने के बावजूद जाखू खुद गाड़ी ड्राइव करते आ पहुंचे और कहा कि देख लो मुझे, मैं ही रमेंद्र जाखू हूँ जो भारती का दोस्त है। सब हक्के बक्के रह गये और मेरे कहने पर तरन्नुम में एक ग़ज़ल भी सुनाई। चाय की प्याली बड़ी विनम्रता से पीकर गये। वे हरियाणा हैफेड के भी निदेशक रहे। इनकी पत्नी शकुंतला जाखू भी हरियाणा में आई ए एस रहीं जो राजनीतिज्ञ सुश्री सैलजा की कजिन हैं। इस तरह हिसार आने से पहले से ही जाखू के मुंह से सैलजा की जानकारी मिली। खुला आकाश में रमेश बतरा भी शामिल थे जो बाद में पहले चंडीगढ़ से शाम लाल मेहंदीरत्ता प्रचंड की मासिक पत्रिका साहित्य निर्झर का संपादन करते रहे बाद में मुम्बई से निकलने वाली चर्चित पत्रिका सारिका के उपसंपादक बने और जब यह पत्रिका दिल्ली आई तब हमारी मुलाकातें फिर शुरू हुईं और इस तरह मैं दिल्ली के लेखको से भी जुड़ पाया जिनमें आज भी डाॅ प्रेम जनमेजय, राजी सेठ, रमेश उपाध्याय , महावीर प्रसाद जैन, सुरेंद्र सुकुमार, जया रावत,हरीश नवल, बलराम, अरूण बर्धन, रमेश उपाध्यायऔर अन्य अनेक मित्र बने ! जया रावत का बाद में रमेश बतरा से विवाह हो गया लेकिन जोड़ी ज्यादा लम्बे समय तक जमी नहीं और रमेश अब इस दुनिया में नहीं ओंर जया भाभी गाजियाबाद में बच्चों के साथ रहती हैं और एक एन जी ओ भी चलाती हैं । सारिका के संपादक कन्हैयालाल नंदन से भी मुलाकात यही हुई। मेरी अनेक कहानियां सारिका में आईं जिसमें प्रकाशित होना बड़े गर्व की बात होती थी। फिर नंदन जी के साथ ही रमेश संडे मेल साप्ताहिक में चला गया, फिर वहाँ भी मेरी लघुकथाओं को स्थान मिलता रहा। शायद आज जालंधर की नयी अपनी पीढ़ी को यही विराम देना पड़ेगा। बाकी कल मिलते हैं। जैसे रमेश कहता था कि आज के जय जय!
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “तुमने निगाहों से गिरा नश्तर चुभा दिया…” ।)
ग़ज़ल # 109 – “तुमने निगाहों से गिरा नश्तर चुभा दिया…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’