हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 225 – देह से हूँ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 225 ☆ देह से हूँ ?

समय के प्रवाह के साथ एक प्रश्न मनुष्य के लिए यक्षप्रश्न बन चुका है। यह प्रश्न पूछता है कि जीवन कैसे जिएँ?

इस प्रश्न का अपना-अपना उत्तर पाने का  प्रयास हरेक ने किया। जीवन सापेक्ष है, अत: किसी भी उत्तर को पूरी तरह खारिज़ नहीं किया जा सकता। तथापि एक सत्य यह भी है कि अधिकांश उत्तर भौतिकता तजने या उससे बचने का आह्वान करते दीख पड़ते हैं।

मंथन और विवेचन यहीं से आरंभ होते हैं।  स्मार्टफोन या कम्प्युटर के प्रोसेसर में बहुत सारे इनबिल्ट प्रोग्राम्स होते हैं। यह इनबिल्ट उस सिस्टम का प्राण है।  विकृति, प्रकृति और संस्कृति मनुष्य में इसी तरह इनबिल्ट होती हैं। जीवन इनबिल्ट से दूर भागने के लिए नहीं, इनबिल्ट का उपयोग कर सार्थक जीने के लिए है।

मनुष्य पंचेंद्रियों का दास है। इस कथन का दूसरा आयाम है कि मनुष्य पंचेंद्रियों का स्वामी है। मनुष्य पंचतत्व से उपजा है, मनुष्य पंचेंद्रियों के माध्यम से जीवनरस ग्रहण करता है। भ्रमर और रसपान की शृंखला टूटेगी तो जगत का चक्र परिवर्तित हो जाएगा, संभव है कि खंडित हो जाए। कर्म से, श्रम से पलायन किसी प्रश्न का उत्तर नहीं होता। गृहस्थ आश्रम भी उत्तर पाने का एक तपोपथ है। साधु (संन्यासी के अर्थ में) होना अपवाद है, असाधु रहना परंपरा। सब साधु होने लगे तो असाधु होना अपवाद हो जाएगा। तब अपवाद पूजा जाने लगेगा, जीवन उसके इर्द-गिर्द अपना स्थान बनाने लगेगा।

एक कथा सुनाता हूँ। नगरवासियों ने तय किया कि सभी वेश्याओं को नगर से निकाल बाहर किया जाए। निर्णय पर अमल हुआ। वरांगनाओं को जंगल में स्थित एक खंडहर में छोड़ दिया गया। कुछ वर्ष बाद नगर खंडहर हो गया जबकि खंडहर के इर्द-गिर्द नया नगर बस गया।

समाज किसी वर्गविशेष से नहीं बनता। हर वर्ग घटक है समाज का। हर वर्ग अनिवार्य है समाज के लिए। हर वर्ग के बीच संतुलन भी अनिवार्य है समाज के विकास के लिए। इसी भाँति संसार में देह धारण की है तो हर तरह की भौतिकता, काम, क्रोध, लोभ, मोह, सब अंतर्भूत हैं। परिवार और अपने भविष्य के लिए भौतिक साधन जुटाना कर्म है और अनिवार्य कर्तव्य भी।

जुटाने के साथ देने की वृत्ति भी विकसित हो जाए तो भौतिकता भी परमार्थ का कारण और कारक बन सकती है। मनुष्य अपने ‘स्व’ के दायरे में मनुष्यता को ले आए तो  स्वार्थ विस्तार पाकर परमार्थ हो जाता है।

इस तरह का कर्मनिष्ठ परमार्थ, जीवनरस को ग्रहण करता है। जगत के चक्र को हृष्ट-पुष्ट करता है। सृष्टि से सृष्टि को ग्रहण करता है, सृष्टि को सृष्टि ही लौटाता है। सांसारिक प्रपंचों का पारमार्थिक कर्तव्यनिर्वहन उसे प्रश्न के सबसे सटीक उत्तर के निकट ले आता है।

प्रपंच में परमार्थ, असार में सार, संसार में भवसार देख पाना उत्कर्ष है। देह इसका साधन है किंतु देह साध्य नहीं है। गर्भवती के लिए कहा जाता है कि वह उम्मीद से है। मनुष्य को अपने आप से निरंतर कहना चाहिए, ‘देह से हूँ पर देह मात्र नहीं हूँ। ‘ विदेह तो कोई बिरला ही हो सकेगा पर  स्वयं को  देह मात्र मानने को नकार देना, अस्तित्व के बोध का शंखनाद है। इस शंखनाद के कर्ता, कर्म और क्रिया तुम स्वयं हो।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 171 ☆ मुक्तिका – सुभद्रा ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है दोहा सलिला – अक्षर आराधना)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 171 ☆

☆ मुक्तिका – सुभद्रा ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

वीरों का कैसा हो बसंत तुमने हमको बतलाया था।

बुंदेली मर्दानी का यश दस दिश में गुंजाया था।।

*

‘बिखरे मोती’, ‘सीधे सादे चित्र’, ‘मुकुल’ हैं कालजयी। 

‘उन्मादिनी’, ‘त्रिधारा’ से सम्मान अपरिमित पाया था।।

*

रामनाथ सिंह सुता, लक्ष्मण सिंह भार्या तेजस्वी थीं। 

महीयसी से बहनापा भी तुमने खूब निभाया था।।

*

यह ‘कदंब का पेड़’ देश के बच्चों को प्रिय सदा रही। 

‘मिला तेज से तेज’ धन्य वह जिसने दर्शन पाया था।।

*

‘माखन दादा’ का आशीष मिला तुमने आकाश छुआ। 

सत्याग्रह-कारागृह को नव भारत तीर्थ बनाया था।।

*

देश स्वतंत्र कराया तुमने, करती रहीं लोक कल्याण। 

है दुर्भाग्य हमारा, प्रभु ने तुमको शीघ्र बुलाया था।।

*

जाकर भी तुम गयी नहीं हो; हम सबमें तुम ज़िंदा हो। 

आजादी के महायज्ञ को तुमने सफल बनाया था।।

*

जबलपुर की जान सुभद्रा, हिन्दुस्तां की शान थीं।  

दर्शन हुए न लेकिन तुमको सदा साथ ही पाया था।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१५-२-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 173 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 173 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 173) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 173 ?

☆☆☆☆☆

Remembrance ☆

कहीं  बैठकर जरूर कोई

मुझे  याद कर रहा होगा…

ये हिचकी शाम से यूँ ही

तो  नहीं आ रही होगी..!

☆☆

Somewhere someone must be

remembering me for sure…

These hiccups aren’t coming

for nothing since evening..!

☆☆☆☆☆

No Difference whatsover ☆

☆☆

पड़ चुका है

फर्क अब इतना…

कि अब फर्क ही

नहीं पड़ता…!

☆☆

Gone through so much

of aberrations…

That it doesn’t

matter anymore…!

☆☆☆☆☆

Quid Pro Quo ☆

☆☆

अगर तुम बदले तो हम भी

क्यों रहेंगे पुराने वाले,

अगर तुम बेरुखी बरतते रहे तो

हम भी कहाँ बोलने वाले…!

☆☆

If you’ve changed yourself then

Why’ll I remain my old self…

If you keep acting indifferently

Then why’ll I be debonair…!

☆☆☆☆☆

कुछ तो बेवफ़ाई है

मुझ में भी…

जो अब तक ज़िंदा हूँ

तेरे बगैर भी…

☆☆

Some infidelity must be

there in me too..

that’s why I am still

alive without you…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ तुझी राख धुंडाळताना !  ☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

? इंद्रधनुष्य ?

तुझी राख धुंडाळताना ! ☆ श्री संभाजी बबन गायके 

त्यादिवशी रडता नाही आलं,राजा ! माझं बापाचं काळीज देहाच्या आत होतं… क्षत विक्षत. आणि माझा देह जबाबदारीच्या वस्त्रांनी पुरता झाकलेला होता. डोळ्यांवर कातडं नाही ओढून घेता येत. डोळ्यांना पहावंच लागलं तुझ्याकडे. आणि मी पहात राहिलोही एकटक…. आणखी काही क्षणानंतर हे पाहणंही थांबणार होतं.

तुझ्या पलटणीचा मी प्रमुख. पलटणीतील सारेच माझे बच्चे. माझ्या एका इशाऱ्यासरशी मरणावर झेप घेणारे सिंहाचे छावे… वाघाचे बछडे. तू तर माझ्या रक्ताचा अंश. माझ्याच पावलांवर हट्टाने पाऊल टाकीत टाकीत थेट माझ्याच पंखांखाली आला होतास. कोणतीही मोहिम असू देत… तुला कधी मागे रेंगाळताना पाहिलं नाही. उलट पलटणीच्या म्होरक्याचा पोरगा म्हणून तू पुढेच सरसावयचा सर्वांआधी… बापाला कुणी नावे ठेवू नये म्हणून. 

आतापर्यंत तू प्रत्येकवेळी परत आला होतास दुश्मनांना यमसदनी धाडून. एखाद्या मोहिमेत आपल्यातलं कुणी कामी आल्याची बातमी यायची तेंव्हा धस्स व्हायचं काळजात. गोळी काही नातं विचारून शिरत नाही शरीरात. असे अनेक प्रसंग आले आयुष्यात जेंव्हा सैनिकांच्या मृतदेहांवर पुष्पचक्र अर्पण करावे लागले…. पूर्ण गणवेशात ! तूही असायचास की मागच्या एखाद्या रांगेत. तुझ्याच एखाद्या साथीदाराच्या शवपेटीला तुलाही खांदा द्यावा लागायचा. 

मी समोर आलो की तू  मला अधिक त्वेषाने सॅल्यूट ठोकायचा…. आणि मला ‘सर’ म्हणायचा. तुझ्या तोंडून ‘पपा’ अशी हाक ऐकल्याला खूप वर्षे उलटून गेली होती. लहानपणी तुझा सहवास नाही मिळाला तसा… मी सतत सीमेवर असायचो आणि तू तुझ्या आईसोबत दूरच्या गावी. बढती झाली आणि पलटणीत कुटूंब आणायची मुभा मिळाली तर तू सैनिक व्हायला निघून गेलास. परत आलास ते रुबाबदार अधिकारी होऊनच. तुझ्याकडे पाहताना मी माझं मलाच आरशात न्याहाळतो आहे, असं वाटायचं. 

‘पपा, तुमच्याच पलटणीत पोस्टेड होतोय…’ तुझा निरोप आला आणि पाठोपाठ ” सेकंड लेफ्टनंट गुरदीप सिंग सलरिया रिपोर्टींग सर ! ” म्हणत तू  पुढ्यात हजर झालास. वाटलं पुढं होऊन तुला घट्ट मिठी मारावी. पण तुझ्यात आणि माझ्यात गणवेश होता…. वरिष्ठ अधिकारी आणि कनिष्ठ अधिकाऱ्यास पाऊलभर दूर उभं राहायला लावणारा. मात्र घट्ट हस्तांदोलन मात्र केलं मी. तू जन्मलास तेंव्हा तुझा एवलासा हात हाती घेतला होता… ते आठवलं. तोच हात आता सामर्थ्यशाली झाला आहे, या हातात आता अधिकार आलेला आहे… हे जाणवलं. मी म्हटलं होतं, ” वेलकम ऑफिसर ! ” यावर तुझ्या डोळ्यांत चमक दिसली होती. आज तुझे डोळे मिटलेत… ती चमक आता या म्हाताऱ्या होत चाललेल्या डोळ्यांना दिसणार नाही…. आणि आयुष्याच्या सायंकाळी मी कुणाच्या नजरेनं पाहणार? 

त्या दिवशीही तू नेहमीप्रमाणे मोहिमेवर गेला होतास. माझं सगळं लक्ष असायचं. पलटणीतली सारी पोरं माझीच तर होती. आणि तू त्यांच्यासोबत होतास, त्यामुळे तर ही भावना अधिकच तीव्र व्हायची. खरं तर तुझी इथली पोस्टींग आता जवळजवळ संपत आली होती. दुसऱ्या एखाद्या शांत ठिकाणी गेला असतास कदचित फार लवकर… तू गेलास खरा… पण कायमच्या शांत ठिकाणी. 

निरोप आला ! निघायला पाहिजे. सर्व तयारी झाली आहे. गाडी उभी आहे. मला तयार व्हायला पाहिजे. पूर्ण लष्करी गणवेश परिधान करायलाच पाहिजे… सैनिकाला अंतिम निरोप द्यायचा आहे. 

पण आज स्वत:चा मुलगा गेल्याची बातमी स्वत:तल्या बापाला सांगावी तरी कशी? एक कमांडिंग ऑफिसर म्हणून मुलाच्या आईला कसं सांगावं की तुझा मुलगा शहीद झालाय? आणि नवरा म्हणून बायकोला काय सांगावं? एवढा मोठा हल्ला तर कोणत्याही लढाईत झाला नव्हता माझ्यावर.

नेहमीच्या सफाईने आवरलं सगळं. तू फुलांच्या गालिच्यात पहुडलेला होतास. देहावर तिरंगा लपेटून. खरं तर तुझ्या जागी मी असायला हवं होतं. मीही मोहिमा गाजवल्या तरूणपणी. पण माझ्या वाटची गोळी नव्हती दुश्मनाच्या बंदुकीत. आणि असलीच तर तू आता तुझं नाव माझ्या नावाच्या आधी जोडलं होतं… गोळीला आपलं काम माहित होतं… ज्याचं नाव त्याच्यात देहात सामावून जायचं. 

छातीवर गोळ्या झेलल्याचं समजलं तुझ्या सोबत्यांकडून.. जे बचावले होते दुश्मनांच्या हल्ल्यातून. त्याआधी तू कित्येक दुश्मन उडवले असंही म्हणताहेत ही पोरं. छातीवर गोळी म्हणजे मानाचं मरण आपल्यात. इथं होणारी जखम जीवघेणी खरी पण जास्त शोभून दिसणारी. 

दोघा जवानांनी तालबद्ध पावलं टाकीत पुष्पचक्र पुढे नेलं. मी ठरलेल्या सवयीनुसार पावलं टाकीत तुझ्या देहाजवळ पोहोचलो. सर्वत्र शांतता… दूरवरच्या झाडांवर पाखरं काहीतरी सांगत होती एकमेकांना. कदाचित मोठं पाखरू लहान पाखराला… दूर कुठं जाऊ नकोस फार ! असं सांगत असावं…  हे मला आता तुला सांगता येणार नव्हतं.. तू श्रवणाच्या पल्याड जाऊन पोहोचला होतास… बेटा ! 

खाली वाकून ते पुष्पचक्र मी तुला अर्पण केलं… काळजीपूर्वक. एक पाऊल मागे सरकलो आणि खाडकन तुला सॅल्यूट बजावला… अखेरचा ! तुझ्या शवाला खांदा दिला. किती जड होतं ओझं म्हणून सांगू… साऱ्या पृथ्वीचा भार एकाच खांद्यावर आलेला. आणि मला खांदा द्यायला तू नसणार याची दुखरी जाणीव तर आणखीनच जड. 

पुढचं काही आठवत नाही. तुझ्या चितेच्या भगव्या ज्वाळांनी डोळे दिपून गेले… अमर रहेच्या घोषणांनी कान तुडुंब भरून गेलेले होते. आसवांना आज किमान सर्वांसमोर प्रकट व्हायला मनाई होती…. आसवं सुद्धा हुकुमाची ताबेदार. त्यांना माहित होतं एकांतात मी त्यांना काही अडवणार नव्हतो ! 

सकाळी तुझ्या राखेपाशी गेलो. एवढा देह आणि एवढीशी राख. मरण सर्व गोष्टी अशा लहान करून टाकते. अलगद हात ठेवला तुझ्या राखेवर…. अजूनही धग होती थोडीशी. असं वाटलं तुझ्या छातीवर तळवा ठेवलाय मी. असं वाटलं माझ्या या तळव्यावर तुझा हात आहे….. त्या मऊ राखेत माझा हात खोलवर गेला आपसूक… आणि हाताला काहीतरी लागलं ! 

तुझं काळीज भेदून गेलेली गोळी…. काळी ठिक्कर पडलेली आणि अजूनही तिच्यातली आग शाबूत असलेली. जणू पुन्हा एखादं हृदय भेदून जाईल अशी. तशीच मूठ बंद केली…. गोळीसह. 

तुला वीरचक्र मिळणार होतंच… आणि ते स्विकारायला मलाच जावं लागणार होतं.. तसा मी गेलोही. तुझ्या पलटणीचा प्रमुख म्हणून नव्हे तर तुझा बाप म्हणून. तोवर भरपूर रडून झालं होतं एकांतात… तुझी आई होतीच सोबतीला. शौर्यचक्र स्विकारताना हात किचिंत थरथरले पण सावरावं लागलं स्वत:ला. अनेक डोळे माझ्याकडे लागलेले होते…. सेकंड लेफ्टनंट गुरदीप सिंग सलारिया यांचे वडील त्यांना मरणोत्तर दिले गेलेले शौर्यचक्र स्विकारताना रडले असते तर पुढे ज्यांना सैन्यात जाऊन मर्दुमकी गाजवायची आहे… त्यांची पावलं नाही का अडखळणार? आणि माझ्या गुरूदीपलाही हे रुचलं नसतं ! 

आजही ते शौर्यचक्र आणि ती गोळी मी जपून ठेवली आहे… त्याची आठवण म्हणून. माझ्या पोराने निधड्या छातीनं दुश्मनांचा मुकाबला केलेला होता…. ती गोळी म्हणजे त्याच्या पराक्रमाची गाथा सांगणारा एक दस्तऐवज… तो जपून ठेवलाच पाहिजे ! 

(दहा जानेवारी, १९९६. पंजाब रेजिमेंटच्या जम्मू कश्मिरमध्ये तैनात असलेल्या तेविसाव्या बटालियनचे कमांडिंग ऑफिसर होते लेफ्ट.कर्नल एस. एस. अर्थात सागर सिंग सलारिया साहेब आणि त्याच बटालियनमध्ये सेकंड लेफ्टनंट म्हणून कार्यरत होते त्यांचे सुपुत्र गुरदीप सिंग सलारिया साहेब….. एकविसाव्या वर्षी सेनेत आले आणि तेविसाव्या वर्षी देशाच्या कामी आले. एका धाड्सी अतिरेकीविरोधी कारवाईत गुरदीप साहेबांनी प्राणपणाने लढून तीन अतिरेक्यांना टिपले परंतू दुसऱ्या एका अतिरेक्याने अगदी नेम धरून झाडलेली गोळी छातीत घुसून गुरदीपसिंग साहेब कोसळले आणि अमर झाले. त्यांना मरणोत्त्तर शौर्य चक्राने सन्मानित करण्यात आले. या शौर्यचक्रालाच ही गोळी बांधून ठेवलेली आहे साहेबांनी…..   सेनेतून निवृत्त झालेले लेफ़्ट. कर्नल सागर सिंग सलारिया आता मुलाच्या आठवणीत जीवन जगत आहेत. गुरदीप सिंग साहेबांच्या मातोश्री तृप्ता २०२१ मध्ये स्वर्गवासी झाल्या. त्यांची ही कहाणी नुकतीच वाचनात आली. ती आपणासाठी जमेल तशी मांडली. इतरांना सांगावीशी वाटली तर जरूर सांगा.) 

© श्री संभाजी बबन गायके 

पुणे

9881298260

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ खात्री असू दे… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

? कवितेचा उत्सव  ?

☆ खात्री असू दे… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के 

‘मंदिर त्याचे अयोध्येमध्ये

माझे का नाही  ?’… 

रुसून बसला बाळकृष्ण

अन् बोलेना काही… 

*

‘द्वारकेआधी जन्मलास ना 

अयोध्येत तू रामरूपाने

का मग रूसतो सांग कन्हैया

उगीच आता हट्टाने !…  

*

सोड हट्ट हा आणिक रुसवा 

लवकर जा रे गोधन घेऊनी 

गोपाल तुझी बघ वाट पहाती

हुंदडायला वनरानी…

*

रुसू नको रे पूर्ण होऊ दे 

अवधनगरी ती सर्वांगानी 

मथुरेतही मग होईल सारे 

खात्री असू दे तुझ्या मनी ‘ —

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-2 ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-2 ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी

जगजीत सिंह की आवाज में गायी यह  ग़ज़ल आप सब सुनते ही नहीं सराहते भी हैं :

वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी, , , , , , ,

सुनते ही आप दाद देने लगते हैं और बार बार सुनना चाहते हैं और सुनते भी हैं। इस ग़ज़ल के लेखक थे जालंधर के ही सुदर्शन फाकिर और गायक जगजीत सिंह! जगजीत सिंह का जन्म बेशक श्रीगंगानगर में हुआ लेकिन ग्रेजुएशन डी ए वी काॅलेज, जालंधर से की और डाॅ सुरेन्द्र शारदा बताते हैं कि जगजीत सिंह व सुदर्शन फाकिर दोनों डी ए वी काॅलेज, जालंधर में इकट्ठे पढ़ते थे। वहीं इनकी जोड़ी बनी। सुदर्शन फाकिर मोता सिंह नगर में अपने भाई के पास रहते थे।

जालंधर की ही डाॅ देवेच्छा भी बताती हैं कि जगजीत सिंह यूथ फेस्टिवल में सुगम संगीत में हिस्सा लेकर महफ़िल लूट लेते थे। डाॅ देवेच्छा ने यह भी बताया कि उनकी सहेली उषा शर्मा के घर भी जगजीत सिंह की ग़ज़लें सुनीं। उषा शर्मा भी यूथ फेस्टिवल में भाग लेती थी। उन दिनों जगजीत सिंह पर ग़ज़ल इतनी सवार थी कि जहाँ भी अवसर मिलता वे ग़ज़ल सुना देते थे। फिर तो जगजीत सिंह ग़ज़ल गायन में देश विदेश तक मशहूर हो गये।

वैसे यह गाना भी आपने सुना होगा – बाबुल मोरा पीहर छूटत जाये! इसके गायक कुंदन लाल सहगल थे, जो जालंधर के ही थे। उन्होंने न केवल गायन बल्कि फिल्मों में अभिनय भी किया। इनके ही कजिन थे नवांशहर में जन्मे मदन पुरी और अमरीश पुरी जिन्हें उन्होंने फिल्मों में काम दिलाया और ये दोनों भाई विलेन के रोल में खूब जमे। सहगल की स्मृति में दूरदर्शक केंद्र, जालंधर के सामने बहुत खूबसूरत सहगल मैमोरियल बनाया गया है। एक मशहूर शायर हाफिज जालंधरी भी हुए हैं। व्यंग्यकार दीपक जालंधरी भी याद आ रहे हैं।

जालंधर की बात करें और उपेंद्रनाथ अश्क को कैसे भूल सकते हैं। इन्होने कथा, उपन्यास और एकांकी में नाम कमाया। इनके पिता रेलवे में थे तो कभी राहों नवांशहर में पोस्टिंग होगी तब इन्होंने जोंक हास्य एकांकी लिखा जिसमें नवांशहर का खास जिक्र है। अश्क पंजाबी पत्रिका प्रीतलड़ी में भी कुछ समय संपादन में रहे। फिर इलाहाबाद बस गये और अपना प्रकाशन भी खोला। इनका उपन्यास बड़ी बड़ी आंखें व कहानी डाची भी पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी पाठ्यक्रम में पढ़ने को मिलीं।

रवींद्र कालिया भी जालंधर से ही निकले और फिर धर्मयुग, ज्ञानोदय व नया ज्ञानोदय पत्रिकाओं के संपादन से जुड़े रहे। इनकी लिखी संस्मरणात्मक आत्मकथा गालिब छुटी शराब व काला रजिस्टर, नौ साल छोटी पत्नी जैसी रचनायें खूब चर्चित रहीं। इनकी पत्नी ममता कालिया इन पर रवि कथा नाम से बहुत ही शानदार पुस्तक यानी संस्मरण लिख चुकी हैं। वह पुस्तक भी चर्चित रही। अभी वे इसका दूसरा भाग लिख रही हैं। ममता कालिया गाजियाबाद में रहती हैं। रवींद्र कालिया ने शुरुआत में हिंदी मिलाप में उप संपादक के रूप में काम किया। काफी साल ये भी इलाहाबाद रहे।

बहुचर्चित कथाकार मोहन राकेश भी जालंधर से जुड़े रहे और डी ए वी काॅलेज में दो बार हिंदी प्राध्यापक लगे। दूसरी बार हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे। इनके अनेक रोचक किस्से जालंधर से जुड़े हुए हैं कि ये क्लास काॅफी हाउस में भी लगा लेते थे। मोहन राकेश ने कहानियों के अतिरिक्त तीन नाटक लिखे-आषाढ़ का एक दिन, आधे अधूरे और लहरों के राजहंस। चौथा नाटक अधूरा रहा जिसे बाद में इनके मित्र कमलेश्वर ने पैर तले की ज़मीन के रूप में पूरा किया। मोहन राकेश के आषाढ़ का एक दिन और आधे अधूरे नाटक देश भर में अनेक बार खेले गये। ये नयी कहानी आंदोलन में कमलेश्वर व राजेन्द्र यादव के साथ त्रयी के रूप में चर्चित रहे। इनकी कहानी उसकी रोटी फिल्म भी बनी और ये एक वर्ष सारिका के संपादक भी रहे पर ज्यादा समय फ्रीलांसर के रूप में बिताया। इन्होंने ज्यादा लेखन सोलन व धर्मपुरा के आसपास लिखा।

खालसा काॅलेज, जालंधर में हिंदी विभाग के अध्यक्ष डाॅ चंद्रशेखर के बिना भी पुराना जालंधर पूरा नहीं होता। इन्होंने कटा नाखून जैसे अनेक रेडियो नाटक लिखे और पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की जीवनी भी लिखी। फगवाड़ा से पत्रिका रक्ताभ भी निकाली। बाद में डाॅ चंद्रशेखर पंजाबी विश्वविद्यालय,  पटियाला के हिंदी विभाग में रीडर रहे लेकिन दिल्ली से लौटते समय कार-रोडवेज बस में हुई टक्कर में जान गंवा बैठे। एक प्रतिभाशाली लेखक असमय ही हमसे छीन लिया विधाता ने! इनके शिष्यों में कुलदीप अग्निहोत्री आजकल हरियाणा साहित्य व संस्कृति अकादमी के कार्यकारी  उपाध्यक्ष हैं। डाॅ कैलाश नाथ भारद्वाज, मोहन सपरा और डाॅ सेवा सिंह, डाॅ गौतम शर्मा व्यथित इनके शिष्यों में चर्चित लेखक हैं। बाकी अगले भाग का इंतज़ार कीजिये।

एक बात स्पष्ट कर दूं कि ये मेरी यादों के आधार पर लिखा जा रहा है। मैं जालंधर का इतिहास नहीं लिख रहा। कुछ नाम अवश्य छूट रहे होंगे। अगली किश्तों में शायद उनका जिक्र भी आ जाये। आभार। भूल चूक लेनी देनी।

क्रमशः… 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #221 – 108 – “तुमने मुझ पर नाराज़ होना छोड़ दिया,…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल तुमने मुझ पर नाराज़ होना छोड़ दिया…” ।)

? ग़ज़ल # 108 – “तुमने मुझ पर नाराज़ होना छोड़ दिया…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

तुमको  कहते हैं  लोग  मेरी जाने जाँ,

लेकर मेरा दिल बन गई मेरी जाने जाँ।

*

तुम आग तन बदन में लगाकर जाती हो

लहराती हो जब ज़ुल्फ़ें छत पर जाने जाँ।

*

तुमने मुझ पर नाराज़ होना छोड़ दिया,

नाराज़ी इतनी  ठीक ना  है जाने जाँ।

*

दुनियादारी में खोई हो तुम तो जानम,

तुम खूब बहाने क्यूँ  बनाती जाने जाँ।

*

तुम खुलकर भी तो मिल नहीं पाती हो,

आतिश को रहती हो  भर्माती जाने जाँ।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 98 ☆ मुक्तक ☆ ।। हर धड़कन हिंदी, हिन्द, हिंदुस्तान चाहिये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 98 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। हर धड़कन हिंदी, हिन्द, हिंदुस्तान चाहिये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

हर रंग से हमें  रंगीन   हिंदुस्तान चाहिये।

खिलते बाग बहार सा गुलिस्तान  चाहिये।।

चाहिये विश्व में  नाम  ऊँचा  भारत  का।

विश्व गुरु भारत का ऊँचा सम्मान चाहिये।।

[2]

मंगल चांद को  छूता भारत महान चाहिये।

अजेयअखंड विजेता सा हिंदुस्तान  चाहिये।।

दुश्मन नज़र उठा कर देख भी ना   सके।

हर शत्रु का  हमको काम तमाम  चाहिये।।

[3]

हमें गले  मिलते राम और रहमान चाहिये।

एक   दूजे के लिए प्रणाम सलाम चाहिये।।

चाहिये हमें मिल कर रहते हुए सब लोग।

एक दूजे के लिए दिलों में एतराम चाहिये।।

[4]

एक सौ पैंतीस  करोड़  सुखी अवाम चाहिये।

कश्मीर कन्याकुमारी प्रेम का पैगाम चाहिये।।

चाहिये  विविधता  में एकता शक्ति दर्शन।

अपने देश का सम्पूर्ण संसार में यशोगान चाहिये।।

[5]

पुरातन  संस्कार मूल्यों का गुणगान चाहिये।

हर  भारतवासी चेहरे पर गर्व मुस्कान चाहिये।।

चाहिये गौरव अभिमान अपने देश भारत पर।

हर धड़कन हिन्दी, हिन्द का ही पैगाम चाहिये।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 161 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “बलिदानी वीरों की याद…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “बलिदानी वीरों की याद। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “बलिदानी वीरों की याद” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

वतन पर मिटने वालों की लगन जब याद आती है

तो मन हो जाता भारी, साँस दुख में डूब जाती है।

 *

मिटाकर अपनी हस्ती देश को जिनने दिया जीवन

उन्हें सब याद करते, माँ सिसक आँसू बहाती है।

 *

हमेशा आँधी-तूफानों से जो लड़ते रहे भरसक

उन्हें श्रद्धा सुमन की भेंट हर बस्ती चढ़ाती है।

 *

लड़े बेखौफ आगे बढ़ सहे सौ वार दुश्मन के

समर की यही गाथाएँ अमर उनको बनाती हैं।

 *

सुरक्षित स्वर्ण पृष्ठों पर उन्हें इतिहास रखता है

जिन्हें निस्वार्थ जीवन औ’ मरण की रीति आती है।

 *

जिन्होंने जान दी अपनी विजय की भोर लाने को

सदा जनता उन्हीं की वीरता के गीत गाती है।

 *

दिवस, मेले औ’ प्रतिमाएँ सजायी जाती उनकी ही

जिन्हें आदर से मन मंदिर में जनता नित बिठाती है।

 *

उन्हीं के त्याग ने हमको बनाया आज जो हम हैं

विदग्ध’ उनकी विमल स्मृति हमें जीना सिखाती है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ स्वप्न अधुरे राहिले… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

 

☆ स्वप्न अधुरे राहिले… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

हात तुझा हाती होता,

राहून गेले चालणे !

साथ तुझी हवी होती,

जमले नाही थांबणे !… १

*

स्वप्नात थवा उंच गेला,

उडून नील आभाळी !

पहात बसले येथे,

भग्न स्वप्नं भूतकाळी !… २

*

अधुऱ्या  स्वप्नांची माला,

गात होती माझ्या मनी!

गीत ते संपले कधी,

कळले नाही जीवनी !… ३

*

आक्रंदणाऱ्या रे मना,

दु:ख जगी दाऊ नको !

हसतील तुज सारे,

अगतिक  होऊ नको!.. ४

*

जे मिळाले आजवर,

जपेन ते अंतरात !

आयुष्य सारे  त्यावर,

पेलेल  खंत मनात !…. ५

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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