(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक सार्थक व्यंग्य – ‘नये तौर की समीक्षा‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 225 ☆
☆ व्यंग्य – नये तौर की समीक्षा ☆
भाई छेदीलाल इस वक्त समीक्षक के रूप में साहित्य के आकाश में छाये हुए हैं। शेक्सपियर ने लिखा है कि कुछ लोग जन्म से महान होते हैं, कुछ महानता अर्जित कर लेते हैं और कुछ के ऊपर महानता लाद दी जाती है। भाई छेदीलाल इस वर्गीकरण में तीसरी श्रेणी के महान कहे जा सकते हैं।
हुआ यूँ कि उनके आदरणीय जीजा रामभरोसे ‘मायूस’ ने एक गज़ल-संग्रह छपवाया। शीर्षक दिया ‘ज़ुल्फों के असीर’। फिर उन्होंने साहित्यिक वातावरण की नब्ज़ टटोल कर अपने अज़ीज़ साले छेदीलाल से कहा कि, ‘हे भाई, साहित्य में आजकल दूसरों से समीक्षा कराना निरापद नहीं है। लोग जाने कहाँ-कहाँ का बदला निकालने लगते हैं। आप हमारी अर्धांगिनी के भाई होने के नाते भरोसे के आदमी हैं। आप मेरे गज़ल संग्रह की समीक्षा करें। छपाने की ज़िम्मेदारी मेरी। आजकल अखबारों-पत्रिकाओं में लेख की क्वालिटी नहीं, लेखक-संपादक संबंध काम आते हैं। मुझे भरोसा है कि आप अपनी समीक्षा में मेरी और अपनी बहन की प्रतिष्ठा की पूरी रक्षा करेंगे। मदद के लिए मैं ज़रूरी किताबें और शब्दकोश उपलब्ध करा दूँगा।’
जीजा जी साले साहब के पास ज़रूरी किताबें पटक गये और साले साहब ने अपनी वफादारी का सबूत देते हुए शब्दकोश से ‘अद्भुत’, ‘अद्वितीय’, ‘अतुलनीय’, ‘अकल्पनीय’, ‘विरल’, ‘स्तब्धकारी’, ‘नायाब’, ‘बेमिसाल’, ‘रोमांचक’ जैसे ‘सुपरलेटिव’ विशेषणों का उत्खनन कर जीजाजी की किताब को झाड़ पर चढ़ा दिया। बदले में उन्हें जीजा जी और जीजी का भरपूर आशीर्वाद प्राप्त हुआ।
तब से भाई छेदीलाल समीक्षक के रूप में प्रकाश में आये और फिर उनके पास धड़ाधड़ समीक्षा के लिए आतुर लेखकों की किताबें आने लगीं। भाई छेदीलाल अपने बनाये फार्मूले के हिसाब से फटाफट किताबों को निपटा देते थे। चार छः पन्ने पढ़कर काम लायक सामग्री निकाल लेते थे।
जीजा जी की किताब मिलने पर भाई छेदीलाल ने उनसे ‘असीर’ का मतलब पूछा था। ‘असीर’ का मतलब ‘कैदी’ या ‘बन्दी’ जानने के बाद उन्होंने अपनी शंका पेश की थी कि ‘ज़ुल्फों के असीर’ से उनका मकसद उन जीव-जन्तुओं से तो नहीं है जो अक्सर ज़ुल्फों में बसेरा करते हैं। तब ज्ञानी जीजा जी ने उन्हें समझाया था कि ‘ज़ुल्फों के असीर’ से उनका मतलब उन आशिकों से है जो महबूबा की ज़ुल्फों में पनाह लेते हैं और वहीं पड़े शैंपू, हेयर लोशन, हेयर कंडीशनर वगैरः की खुशबू लेते रहते हैं। उन्होंने साले साहब को एक फिल्मी गाने की दुख भरी लाइन भी सुनायी— ‘तेरी जुल्फों से जुदाई तो नहीं माँगी थी, कैद माँगी थी रिहाई तो नहीं माँगी थी।’
मुख़्तसर यह कि भाई छेदीलाल समीक्षक के रूप में स्थापित हो गये और अनेक लेखकों के लिए ‘आदरणीय’ और ‘फादरणीय’ हो गये।
ताज़ा किस्सा यह है कि भाई छेदीलाल ने एक कथाकार ‘निर्मोही’ जी के संग्रह की समीक्षा लिखी है जो उनकी समीक्षा के मयार को दर्शाती है। समीक्षा इस तरह है— ‘मेरे सामने श्री गिरधारी लाल ‘निर्मोही’ का कथा-संग्रह ‘बुझा बुझा मन’ है। संग्रह में बीस कहानियाँ हैं जिनके शीर्षक उत्सुकता जगाते हैं।
‘पहले बात किताब के आवरण की की जाए। आवरण सुन्दर बन पड़ा है। लगता है कश्मीर के पहलगाम का दृश्य है। नदी अठखेलियाँ कर रही है और नदी के पार ढाल पर लंबे-लंबे वृक्ष दिखाई पड़ रहे हैं जो आश्चर्यचकित करते हैं। बहुत से लोग जो शायद पर्यटक होंगे, पानी के बीच में चट्टानों पर बैठे हैं या मोबाइल पर फोटो ले रहे हैं। लहरों का फेन साफ दिखाई पड़ता है। कुल मिलाकर आवरण मनमोहक बन पड़ा है जो पुस्तक की तरफ पाठक का ध्यान खींचने में सहायक है।
‘पुस्तक के आरंभ में दो भूमिकाएँ हैं जो दो विद्वानों के द्वारा लिखी गयी हैं। एक लखनऊ के विद्वान डा. रामनिहोर हैं और दूसरे पटना के पन्नालाल ‘बेचैन’। ये दोनों समीक्षक लेखकों में बहुत लोकप्रिय हैं क्योंकि ये लेखकों को दुखी करना पाप मानते हैं। डा. रामनिहोर ने संग्रह की कहानियों के बारे में लिखा है— जाने-माने कथाकार ‘निर्मोही’ जी के नये संग्रह ‘बुझा बुझा मन’ से रूबरू हूँ। संग्रह की कहानियों के बारे में क्या कहूँ? कहानियों को पढ़कर लेखक का ज्ञान और जीवन की उनकी समझ चमत्कृत करती है। गाँवों का ऐसा चित्रण है कि एक-एक फ्रेम नुमायाँ हो जाता है। चरित्रों का चित्रण भी अद्भुत है। एक-एक चरित्र जीवन्त हो जाता है। कई चरित्र ऐसे यादगार बन पड़े हैं जैसे अंग्रेज़ उपन्यासकार चार्ल्स डिकेंस के चरित्र। जो पढ़ेगा उसके लिए उन्हें भूलना कठिन होगा।मैंने संग्रह की आधी कहानियाँ पढ़ी हैं और उसके आधार पर मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि यह संग्रह लेखक के लिए बहुत मान-सम्मान अर्जित करेगा।
‘श्री पन्नालाल ‘बेचैन’ ने लिखा है— इस संग्रह की कहानियाँ पढ़ने वाले को दूसरे ही धरातल पर ले जाती हैं जहांँ अपनी जानी पहचानी दुनिया को समझने के लिए एक नई दृष्टि अनावृत्त होती है। लेखक हमारी परिचित दुनिया को एक नयी समझ के साथ हमारे सामने प्रस्तुत करता है। मैंने संग्रह की बीस कहानियों में से आठ कहानियों को पढ़ा है और इन आठ कहानियों ने ही मुझे लेखक की क्षमता से पूरी तरह परिचित करा दिया। इन्हें पढ़कर मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि लेखक का भविष्य बहुत उज्ज्वल है।
‘पुस्तक में रचना-क्रम पर नज़र डालें तो वह दोषहीन है। छपाई में कोई प्रूफ की गलती पकड़ में नहीं आती। रचनाओं की क्रम संख्या और पृष्ठ संख्या बिल्कुल सही है। ‘जहाँ तक मेरी बात है, मैंने संग्रह की दो कहानियाँ पढ़ ली हैं। इनमें से पहली कहानी ‘रिसते ज़ख्म’ है जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया है। कहानी के नायक राकेश और उसकी पत्नी सुमन के बीच गलतफहमियों और फिर उनके बीच सुलह का लेखक ने बहुत खूबसूरत चित्रण किया है। कहानी का अन्त पाठक को झकझोर देता है। दूसरी कहानी ‘उलझे धागे’ भी बहुत प्रभावशाली है। इसमें नायिका की परिवार और नौकरी के बीच खींचतान को बहुत बारीकी से चित्रित किया गया है। कहानियों की भाषा दोषहीन है और वह लेखक की अध्ययनशीलता को प्रमाणित करती है। शीघ्र ही मैं बाकी कहानियाँ पढ़कर अपनी राय जाहिर करूंगा। मुझे पूरा भरोसा है कि लेखक साहित्य में ऊँचा मुकाम हासिल करेगा। मेरी शुभकामनाएँ लेखक के साथ हैं।’
Anonymous Litterateur of Social Media # 172 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 172)
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है दोहा सलिला – अक्षर आराधना)
☆ भारतरत्न किताबाचे उपेक्षित मानकरी – भाग-1 – लेखक : श्री सुभाषचंद्र सोनार☆ प्रस्तुती – श्री सुनीत मुळे ☆
भारतरत्न किताबाचे उपेक्षित मानकरी :…. नाना जगन्नाथ शंकरशेठ.
“आपण एतद्देशीय लोक जगन्नाथ शंकरशेठ यांचे अत्यंत ऋणी आहोत. कारण ज्ञानाचे बीज पेरण्यात ते अग्रेसर होते; इतकेच नव्हे तर सध्या त्याची जी जोमाने वाढ झाली आहे त्याचे सर्व श्रेय त्यांनाच आहे.“
– दादाभाई नौरोजी
आमच्या जातिव्यवस्थेचा डंख, महामानवांनाही चुकला नाही. परिणामी सामान्य माणसासारखी, असामान्य माणसं देखील, जातिव्यवस्थेची बळी ठरली आहेत. आमच्या देशात नावलौकिकासाठी, व्यक्तीचं नुसतं कार्यकर्तृत्व पुरेसं नसतं. तर त्याला जातीच्या प्रमाणपत्राचीही जोड असावी लागते. जातीचं प्रमाणपत्र हे अनेकदा, प्रगतीपत्रकावरही कुरघोडी करतं. तुमच्याकडे प्रस्थापित जातीचं प्रमाणपत्र असेल, तर मग तुमच्या राई एवढ्या कर्तृत्वाचेही पर्वत उभे केले जातील. आणि ते नसेल, तर तुमच्या पर्वता एवढ्या कर्तृत्वाचीही राई राई केली जाईल. याचं ज्वलंत उदाहरण म्हणजे नाना जगन्नाथ शंकर शेठ!
आज नाना जगन्नाथ शंकर शेठांची २१२ वी जयंती. हे नाना कोण? असा प्रश्न काहींना पडेल, तर काही म्हणतील हे नाव ऐकल्यासारखं वाटतं, पण हे गृहस्थ कोण ते मात्र आठवत नाही. नानांचं योगदान आणि कार्यकर्तृत्वाचा परिचय असणारेही आहेत, पण थोडेच.
मित्रहो, नानांची एका वाक्यात ओळख सांगायची तर, नाना जगन्नाथ शंकर शेठ हे भारतीय रेल्वेचे जनक आहेत, एवढं सांगितलं तरी पुरेसं आहे. पण ते नानांच्या कार्यकर्तृत्वरुपी हिमनगाचं फक्त टोक आहे. एवढं नानांचं योगदान विशाल आहे.
१० फेब्रुवारी १८०३ रोजी मुंबईत, एका धनाढ्य सोनार (दैवज्ञ) परिवारात, नानांचा जन्म झाला. कुशाग्र बुद्धीच्या नानांचं शिक्षण घरीच झालं. तरुणपणी आपला वडीलोपार्जित व्यापाराचा वारसा तर नानांनी समर्थपणे चालवलाच, पण समाजकारण, अर्थकारण, राजकारण, शिक्षण, कला, विज्ञान अशा जीवनाच्या अनेक क्षेत्रात, त्यांच्या अश्वमेधी अश्वाने निर्विघ्न संचार करुन, नानांच्या कार्यकर्तृत्वाची पताका चौफेर फडकवली. त्यामुळेच आचार्य अत्रेंनी ‘मुंबईचा अनभिषिक्त सम्राट’ असं त्यांचं सार्थ वर्णन केलं आहे.
नाना हे फक्त धनाढ्य नव्हते, गुणाढ्यही होते. नाना इतके धनाढ्य होते की, प्रसंगी इंग्रज सरकारलाही ते अर्थसहाय्य पुरवित, आणि नाना इतके गुणाढ्य होते की, अनेक महत्वपूर्ण प्रश्नांवर इंग्रज अधिकारी, नानांशी परामर्श करीत. नाना जणू त्यांचे थिंक टँक होते. धनाचा आणि गुणांचा असा मनोरम आविष्कार क्वचितच पहायला मिळतो.
मुंबई या आपल्या जन्मभूमि आणि कर्मभूमिवर नानांचं निरतिशय प्रेम होतं. भारतात सुरु होणा-या नव्या गोष्टींचा मुळारंभ, हा मुंबईपासूनच झाला पाहिजे, हा नानांचा ध्यास होता. इंग्रजांची भारतातील राजधानी कलकत्ता होती. तरीही या देशात रेल्वेचा मुळारंभ मुंबईपासून झाला, त्याचं सर्व श्रेय नानांना आहे. हे पाहून मला मेहदी हसन यांच्या गजलेतील —
‘मैंने किस्मत की लकीरों से चुराया है तुझे।’
—- या काव्यपंक्तींचं स्मरण होतं.
आज रेल्वे ही मुंबईची लाईफलाईन (जीवनरेखा) बनली आहे. पण खरोखरच ‘दैवज्ञ’ नानांनी, नियतीच्या हातातली लेखणी काढून घेऊन, स्वहस्ते ती जीवनरेखा मुंबईच्या करतलांवर रेखली आहे. त्यासाठी आपल्या संवादकुशलतेने त्यांनी इंग्रज अधिका-यांचं मन वळवलं. त्यांना सर्वप्रकारच्या सहकार्याचं आश्वासनही दिलं. त्यासाठी १८४३ साली ग्रेट ईस्टर्न रेल्वे कंपनीच्या स्थापनेसाठी पुढाकार घेतला. नुसता पुढाकारच घेतला नाही, तर या कंपनीच्या तीन प्रवर्तकांपैकी एक प्रवर्तक नानाच होते. तसेच रेल्वेच्या कार्यालयासाठी स्वत:च्या घरात जागा उपलब्ध करुन देऊन, नानांनी रेल्वेच्या मार्गातील तोही अडथळा दूर केला. अशाप्रकारे १६ एप्रिल १८५३ रोजी, मुंबई-ठाणे या मार्गावर धावलेली ही रेल्वे, फक्त भारतातील पहिली रेल्वे नव्हती, तर आशिया खंडातील पहिली रेल्वे होती. मुंबई आणि पुणे या दोन महानगरांना जोडणा-या, बोरीबंदर-पुणे या रेल्वेमार्गाचे जनकही, नानाच आहेत. नानांच्या या बहुमोल कार्याचा गौरव इंग्रज सरकारने सोन्याचा पास देऊन केला. त्यायोगे नानांना रेल्वेच्या पहिल्या वर्गातून, प्रवासाची सुविधा सरकारने उपलब्ध करुन दिली.
नानांच्या लोककार्याच्या यज्ञाची सांगता इथेच होत नाही, तर मुंबई विद्यापीठ, ग्रँट मेडिकल कॉलेज, लॉ कॉलेज, जे. जे. स्कूल अॉफ आर्टस, एल्फिन्स्टन कॉलेज या शिक्षणसंस्थांच्या उभारणीत, नानांनी महत्वपूर्ण भूमिका बजावली. स्रीशिक्षणाचेही नाना पुरस्कर्ते होते. मुलींसाठी त्यांनी स्वखर्चाने स्वत:च्या घरात शाळा सुरु केली. तसेच मुलींसाठी शाळा सुरु करणा-या रेव्हरंड विल्सन यांना शाळेसाठी, गिरगावात जागा उपलब्ध करुन दिली. तत्पूर्वी सन १८४६-४७ मध्ये नानांनी महाराष्ट्रभर हिंडून, शैक्षणिक परिस्थितीची पहाणी करुन, आपले अनुभव बोर्ड अॉफ एज्युकेशनचे अध्यक्ष, सर अर्स्किन पेरी यांना कळविले. त्यातूनच महाराष्ट्रात सार्वत्रिक शिक्षणाचा पाया घातला गेला. त्यामुळेच आचार्य अत्रेंनी म्हटले आहे, “आज मुंबई इलाख्यामध्ये विद्यादानाचा जो विराट वृक्ष पसरलेला दिसतो त्याचे बीजारोपण नाना शंकरशेट यांनी केले आहे हे प्रत्येक महाराष्ट्रीयाने ध्यानात धरावेत. आम्ही हे म्हणतो असे नव्हे तर महर्षि दादाभाई नौरोजींनीच मुळी तसे लिहून ठेवलेले आहे.”
– क्रमशः भाग पहिला
लेखक : -सुभाषचंद्र सोनार, राजगुरुनगर.
प्रस्तुती : श्री सुनीत मुळे
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-1 ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी ने अपने संस्मरणों की शृंखला मेरी यादों में जालंधर के प्रकाशन के आग्रह को सहर्ष स्वीकार किया, हार्दिक आभार। आज से आप प्रत्येक शनिवार – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर” पढ़ सकेंगे।)
आज मेरी यादों का कारवां जालंधर की ओर जा रहा है, जो पंजाब की सांस्कृतिक व साहित्यिक राजधानी कहा जा सकता है। नवांशहर से मात्र पचास-पचपन किलोमीटर दूर! यहाँ मेरी बड़ी बुआ सत्या नीला महल मौहल्ले में रहती थीं और उन दिनों बस स्टैंड बिल्कुल रेलवे स्टेशन से कुछ दूरी पर ही धा। सत्या बुआ की शादी के बाद कई साल तक उनके कोई संतान नहीं हुई तो मेरी दादी साग व अन्य सौगातें देकर मुझे सत्या बुआ के यहाँ भेजा करती थीं । मेरी गर्मियों की दो महीने की छुट्टियां भी वहीं कटतीं ताकि बुआ को संतान न होने की कमी महसूस न हो। मेरे फूफा जी पुलिस में थे तो मौहल्ले के बच्चे मुझे सिपाही का बेटा कहकर बुलाते। पतंगबाजी का शौक़ मुझे भी था और फूफा जी को भी। वे छत पर चढ़कर बड़े बड़े पतंग उड़ाते जिन्हें छज्ज कहा जाता था । वे मुझे दूसरों के पतंग काटने के गुर भी सिखाते और छुट्टियां खत्म होने पर बहुत सारे पतंग और पक्की डोर तोहफे के तौर पर देते ।
नीला महल मौहल्ले के पास ही एक छोटी सी लाईब्रेरी भी थी। दोपहर के समय मैं वहाँ समय बिताया करता। इसके कुछ आगे मशहूर माई हीरां गेट था। जहाँ ज्यादातर हिंदी व संस्कृत की किताबों के भारतीय संस्कृत भवन व दीपक पब्लिशर्स आज तक याद हैं । संस्कृत भवन के स्वामी तो हमारे शारदा मौहल्ले के दामाद थे। उनका बेटा राकेश मेरा दोस्त था और मैं संस्कृत भवन पर भी पुस्तकें उठा कर पढ़ता रहता था। आज जो फगवाड़ा में लवली यूनिवर्सिटी है, उनकी जालंधर छावनी में सचमुच मिठाइयों की बड़ी मशहूर दुकान थी । इस पर कभी हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला ने चुटकी भी ली थी। अब लवली यूनिवर्सिटी खूब फल फूल चुकी है।
मेरे फूफा जी का एक बार एक्सीडेंट हो गया और उनकी तीमारदारी में मुझे तीन माह सिविल अस्पताल में रहना पड़ा। वहाँ शाम के समय ईसा मसीह के अनुयायी अपना साहित्य बांटने आते जिनका इतना ही सार याद है कि एक अच्छा चरवाहा अपनी भेड़ों को अच्छी चारागाह में ले जाता है, ऐसे ही यीशु हमें अच्छी राह पर ले जाते हैं। अब समझता हूँ कि कैसे वे अपना साहित्य पढ़ाते थे !
दसवीं के बाद साहित्य में मेरी रूचि बढ़ गयी। संयुक्त पंजाब के सभी हिंदी, उर्दू व पंजाबी के अखबार यहीं से प्रकाशित होते थे और नये बस स्टैंड के पास ही आकाशवाणी का जालंधर केंद्र था। यहाँ मुझे पहली बार डाॅ चंद्रशेखर ने युववाणी में काव्य पाठ का अवसर दिलाया। इसके बाद जालंधर दूरदर्शन भी बना जहाँ मुझे रचना हिंदी कार्यक्रम के पहले एपीसोड में ही जगदीश चंद्र वैद के सुझाव पर आमंत्रित किया गया। जालंधर आकाशवाणी व दूरदर्शन से ही अनेक पंजाबी गायक निकले जिनमें से गुरदास मान भी एक हैं। नववर्ष पर विशेष प्रोग्राम में गुरदास मान को अवसर मिला और फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। काॅमेडी में विक्की ने भी नाम कमाया। नेत्र सिंह रावत, संतोष मिश्रा,रवि दीप, लखविंदर जौहल, पुनीत सहगल, के के रत्तू, मंगल ढिल्लों आदि कुछ नाम याद हैं। मंगल ढिल्लों न्यूज़ रीडर थे बाद में एक्टर बने और कुछ समय पहले ही उनका निधन हुआ। लखविंदर जौहल का लिश्कारा प्रोग्राम खूब लोकप्रिय रहा। पुनीत सहगल आजकल जालंधर दूरदर्शन के कार्यकारी प्रमुख हैं। संतोष मिश्रा कुछ समय हिसार दूरदर्शन के निदेशक भी रहे। इनकी बेटी सुगंधा मिश्रा कपिल शर्मा के काॅमेडी शो के कुछ एपीसोड में भी आई।
कभी आकाशवाणी व दूरदर्शन के बाहर कतारें लगी रहती थीं लेकिन अब वह बीते जमाने की बाते़ं हो गयीं। आकाशवाणी में एक बार लक्ष्मेंद्र चोपड़ा भी निदेशक रहे तो श्रीवर्धन कपिल भी। विश्व प्रकाश दीक्षित बटुक और सोहनसिंह मीशा प्रसिद्ध पंजाबी कवि और डाॅ रश्मि खुराना हिंदी और देवेंद्र जौहल पंजाबी कार्यक्रम के प्रोड्यूसर रहे। हरभजन बटालवी भी याद आ रहे हैं। लक्ष्मेंद्र चोपड़ा आजकल सेवानिवृत्ति के बाद गुरुग्राम में रह रहे हैं। आकाशवाणी से ही माइक के आगे बोलना सीखा।
वीर प्रताप अखबार में मेरी लघु कथा आज का रांझा को प्रथम स्थान मिला। यहाँ मेरी सत्यानंद शाकिर, इंद्र जोशी, दीदी, आचार्य संतोष से लेकर गुरमीत बेदी और सुनील प्रभाकर से भी मुलाकातें होती रहीं। सुनील प्रभाकर बाद में दैनिक ट्रिब्यून में सहयोगी बने और गुरमीत बेदी हिमाचल पब्लिक सर्विस रिलेशन से सेवानिवृत्त हुए। सुनील प्रभाकर भी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। गुरमीत बेदी ने पर्वत राग पत्रिका भी निकाली। उन दिनों वीर प्रताप और हिंदी मिलाप की तूती बोलती थी। हिंदी मिलाप में तो कभी प्रसिद्ध निदेशक रामानंद सागर व हिंदी के प्रसिद्ध लेखक रवींद्र कालिया भी उप संपादक रहे। दोनों अखबार बंद हो चुके हैं। सिर्फ पंजाब केसरी, दैनिक सवेरा, उत्तम हिन्दू और अजीत समाचारपत्र ही हिंदी में चल रहे हैं। हिंदी मिलाप का हैदराबाद संस्करण चल रहा है। अजीत समाचार के संपादन में सतनाम माणक व सिमर सदोष चर्चित हैं। सिमर सदोष वीर प्रताप, हिंदी मिलाप और आज कल अजीत में साहित्य संपादक के रूप में लंबी पारी खेल रहे हैं। उन्हें पंजाब की नयी पीढ़ी को व लघुकथा को आगे बढ़ाने का श्रेय जाता है पर वे हैंडल विद केयर इंसान हैं । बहुत भावुक व सरल। मैंने यह बात पिछले साल उनकी पंकस अकादमी के समारोह में कह दी जो उन्हें खूब पसंद आई लेकिन एक दूसरे साहित्कार को यह बात हजम नहीं हुई। छब्बीस साल से सिमर पंकस अकादमी चला रहे हैं। न जाने कितने साहित्यकारों को सम्मानित कर चुके हैं। बड़ी लम्बी सूची है जिनमें एक नाम मेरा भी शामिल है। जालंधर की साहित्यिक यात्रा का अगला भाग अगले शनिवार। इंतज़ार कीजिये।
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “नाराज़ी इतनी ठीक ना है…” ।)
ग़ज़ल # 107 – “नाराज़ी इतनी ठीक ना है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना – “परीक्षाओं से डर मत मन…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “अनुपम भारत…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
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अपने में आप सा है, भारत हमारा प्यारा
जग में चमकता जगमग जैसे गगन का तारा।
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हैं भूमि भाग अनुपम नदियाँ-पहाड़ न्यारे
उल्लास से तरंगित सागर के सब किनारे ।
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ऋतुएँ सभी रंगीली, फल-फूल सब रसीले
इतिहास गर्वशाली, आँचल सुखद सजीले।
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है सभ्यता पुरानी, परहित की भावनाएँ
सत्कर्ममय हो जीवन है मन की कामनाएँ।
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गाँवों में भाईचारे का सुखद स्नेह व्याप्त था।
हवाएँ नरम थीं, मौसम सुहावना था।
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लोगों में सरलता है दिन-रात सब सुहाने
त्यौहार प्रीतिमय हैं, अनुरागसिक्त गाने।
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रामायण और गीता ज्ञान की अद्वितीय पुस्तकें हैं
जो मन को विचलित नहीं होना, बल्कि स्थिर रहना सिखाती हैं।