हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 254 ☆ आलेख – धर्म और धर्म ध्वज ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – धर्म और धर्म ध्वज )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 254 ☆

? आलेख – धर्म और धर्म ध्वज ?

वर्तमान समय वैश्विक सोच का है, क्या धर्म इस विस्तार को संकुचित करता है ?  समान सांस्कृतिक परम्परा के मानने वालों का समूह एक धर्मावलंबी  होता है। धर्म की अनुपालना मनुष्य को मनुष्यत्व  सिखाती  है।

धर्म की अवधारणा ज्यादा पुरानी नहीं है। यह 16वीं और 17वीं शताब्दी में बनाई गई थी। संस्कृत शब्द धर्म, का अर्थ कानून भी है। पूरे  दक्षिण एशिया में, कानून के अध्ययन में धर्मपरायणता  के साथ-साथ व्यावहारिक परंपराओं के माध्यम से तपस्या जैसी अवधारणाएं शामिल थीं। मध्यकालीन जापान में पहले शाही कानून और सार्वभौमिक या बुद्ध कानून के बीच एक समान संघ था, लेकिन बाद में ये सत्ता के स्वतंत्र स्रोत बन गए। परंपराएं, पवित्र ग्रंथ और प्रथाएं सदा  मौजूद रही हैं। अधिकांश संस्कृतियां धर्म की पश्चिमी धारणाओं से अलग है। 18वीं और 19वीं शताब्दी में, बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म, ताओवाद, कन्फ्यूशीवाद और विश्व धर्म शब्द सबसे पहले अंग्रेजी भाषा में आए। अमेरिकी मूल-निवासियों के बारे में भी सोचा जाता था कि उनका कोई धर्म नहीं है और उनकी भाषाओं में धर्म के लिए कोई शब्द भी नहीं है। 1800 के दशक से पहले किसी ने स्वयं को हिंदू या बौद्ध या अन्य समान शब्दों के रूप में पहचाना नहीं था। “हिंदू” ऐतिहासिक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप के स्वदेशी लोगों के लिए एक भौगोलिक, सांस्कृतिक और बाद में धार्मिक पहचान के रूप में इस्तेमाल किया गया है। अपने लंबे इतिहास के दौरान, जापान के पास धर्म की कोई अवधारणा नहीं थी।

19 वीं शताब्दी में भाषाशास्त्री मैक्स मुलर के अनुसार, अंग्रेजी शब्द धर्म की जड़, लैटिन धर्म, मूल रूप से केवल ईश्वर या देवताओं के प्रति श्रद्धा, दैवीय चीजों के बारे में सावधानीपूर्वक विचार करने के लिए इस्तेमाल किया गया था, धर्मपरायणता (जिसे सिसेरो ने आगे अर्थ के लिए व्युत्पन्न किया था) । मैक्स मुलर ने इतिहास में इस बिंदु पर एक समान शक्ति संरचना के रूप में मिस्र, फारस और भारत सहित दुनिया भर में कई अन्य संस्कृतियों की विशेषता बताई। जिसे आज प्राचीन धर्म कहा जाता है, उसे तब केवल सामाजिक व्यवस्था के रूप में समझा जाता था।

सामान्यतः ध्वज चौकोन होते हैं। पर हिंदू धर्म ध्वज त्रिकोणीय होते हैं। ध्वज के रंग, उस पर बने चित्र  आदि संप्रदाय विशेष, एक मतावलंबियो, मठों, के अनुरूप विशिष्ट पहचान के रूप में, बिना किसी पंजीयन के ही मान्य रहे हैं। युद्ध में एक सेना एक ध्वज के तले नियंत्रित और उससे ऊर्जा प्राप्त करती थी। जय, विजय, लोल, विशाल, दीर्घ, वैजांतिक, भीम, चपल आदि ध्वजो के वर्णन महाभारत के युद्ध में मिलते हैं। अस्तु आज जब दुनिया भर में धर्म की व्याख्या को महत्व दिया जा रहा है, धर्म और उसके प्रतीक ध्वज को नई दृष्टि से देखा जा रहा है।  

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 179 ☆ प्रेम डोर सी सहज सुहाई… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना प्रेम डोर सी सहज सुहाई। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 179 ☆ प्रेम डोर सी सहज सुहाई…

भाव भक्ति के रंग में डूबे हुए आस्थावान लोग; सकारात्मक शक्ति के उपासक बन अपनी जीत का जश्न मना रहे हैं । लंबे संघर्ष के बाद जब न्याय मिलता है तो हर चेहरे पर खुशी की मुस्कान देखते ही बनती है । हर आँखों में श्रीराम लला के प्रति उमड़ता स्नेह व अपार श्रद्धा झलक रही है । वनवासी राम से मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनने का क्रम सारे समाज के लिए प्रेरणास्रोत है । सबको जोड़कर साथ रखना, वचन निभाना, सागर पर सेतु बनाकर लक्ष्य भेदना , मित्रता का धर्म निभाना इस सबके आदर्श प्रभु श्रीराम हैं ।

हम सब सौभाग्यशाली हैं जो इन पलों के साक्षी बन रहें हैं । हर घर में अक्षत के साथ राम मंदिर का आमंत्रण, घर- घर दीपोत्सव का आयोजन साथ ही अपने आसपास के परिवेश को स्वच्छ रखने का संदेश । सारे समाज को जोड़ने वाली कड़ी   साबित होगा राम मंदिर ।

बाल सूर्य जब सप्त घोड़े पर सवार होकर नित्य प्रातः बेला को भगवामय करते तो पूरी प्रकृति ऊर्जान्वित होकर अपने कार्यों में जुट जाती है, तो सोचिए जब पूरा विश्व भगवामय होगा तो कैसा सुंदर नजारा होगा । हर घर में लहराता हुआ ध्वज मानो  अभिनंदन गान गा रहा है । स्वागत में पलक पाँवड़े बिछाए हुए लोग समवेत स्वरों में मंगलकामना कर रहें हैं-

☆ कण कण व्यापे राम ☆

प्राण प्रतिष्ठित हो रहे, कण कण व्यापे राम  ।

भाव भक्ति अनुगूँजते, राम राम के नाम ।।

*

धूम अयोध्या में मची, दीप जले चहुँओर ।

भगवामय सब हो गया, सूर्यवंश पुरजोर ।।

*

उदित हुआ आकाश में, सप्तरथी के साथ ।

देव पुष्प वर्षा रहे, जगन्नाथ के नाथ ।।

*

धन्य धरा भारत जगत, प्रगटे जँह श्री राम ।

मर्यादा सिखला गए, चलो अयोध्या धाम ।।

*

गाते मंगल गीत मिल, ढोल नगाड़े साथ ।

झूम झूम झर झूमते , लिए आरती हाथ ।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #30 ☆ कविता – “वसीयत…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 30 ☆

☆ कविता ☆ “वसीयत…☆ श्री आशिष मुळे ☆

कभी सोचता हूँ

पीछे क्या छोड़ जाऊँ

 

सोना, जमीं और जागीर

इनका सदियों से जागीरदार

असल मालिक वो इनका

मैं तो कुछ पल का किरायेदार

 

मगर मेरे दर्या-ए-दिल का

मैं इकलौता वारिसदार

इसकी गहराई और ओछाई का

मैं अकेला पहरेदार

 

तो सोचा इसी दर्या के

मोतियों को पीछे छोड़ जाऊँ

किसी के बुरे वक्त में

उनके काम आ जाऊँ

 

अपने दर्द से निकली रोशनी

उन मोतियों में भर दूँ

अंधेरे में उलझाए किसी को

प्यार की राह दिखा दूँ

 

पाँव के नीचे

फिसलती जमीं किसी की

मेरे जिंदगी की रेत

उसके पैरों तले जमा दूँ

 

कोई खाता गोते

दर्या-ए-दर्द में

दे कर साहिल-ए-लफ्ज़

डूबने से बचा दूँ

 

दिल किसी का गर पड़े सूखा

उसे मेरे दर्या से भर दूँ

मै रहूँ  या ना रहूँ

यह दिल वसीयत में छोड़ दूँ

 

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 190 ☆ बाल गीत – मर्यादा पुरुषोत्तम राम ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 190 ☆

☆ बाल गीत – मर्यादा पुरुषोत्तम राम ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।

तीर्थ अयोध्या – भूमि सुपावन

जन्म लिए मुस्काए।।

 

दशरथ जी के पुत्र विलक्षण

देवी माँ कौशल्या थीं।

लक्ष्मण जी , शत्रुघ्न , भरत की

लेतीं नित्य बलैयाँ थीं।

 

बाल्मीकि ऋषि रामायण लिख

जीवन चरित सुनाए।

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।।

 

गुरु वशिष्ठ से शिक्षा पाई

विश्वामित्र सँग भ्रमण किया।

राक्षस मारे धनुष – बाण से

कुछ असुरों का दमन किया।

 

सीताजी का हुआ स्वयंवर,

जनकपुरी हरषाए।

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।।

 

माँ कैकई के वर के कारण

चौदह वर्ष वनवास मिला।

साथ में सीता , लक्ष्मण भाई

संग – संत के पुष्प खिला।

 

ऋषि , मुनियों की रक्षा करके

अद्भुत शक्ति दिखाए।

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।।

 

सीताहरण किया रावण ने

लंका लेकर पहुँच गया।

सीताजी को रखा वाटिका

खोई उसने शर्म हया।।

 

राम , लखन जंगल में ढूँढें

सीता जी की खोज करी।

सुग्रीव भेजे हनुमत जी को

वानर सेना बढ़ी चली ।

 

लंका पहुँचे मारुति- नंदन

सीता से आशीष लिया।

फल खाए छककर लंका में

रिपुओं का संहार किया।

 

शक्ति , भक्ति के बल पर ही

फिर लंका दिए जलाए।

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।।

 

वानर सेना चली साथ में

राम , लक्ष्मण , हनुमत जी।

जामवंत , सुग्रीव , नील , नल

संग भक्त विभीषण जी।

 

दस दिन चला युद्ध लंका में

सब राक्षस चुन – चुन मारे।

रावण मरा राम के हाथों

सभी राक्षस ही हारे।।

 

विजय हुई फिर लंका जीती

मिलकर दीप जलाए।

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।।

 

लंका सौंप विभीषण जी को

पुष्पक बैठ विमान चले।

राम , लक्ष्मण , सीता जी संग

सब भक्तों के बने भले।

 

मर्यादा पुरुषोत्तम प्रियवर

लौट अयोध्या आए।

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।।

 

रात अमावस की अँधियारी

दिखे नहीं चंदा प्यारे।

घर – घर दीप जलाए सबने

स्वागत में कितने सारे।

 

सत्य सनातन पुण्य भूमि का

मान सदा से पाए।

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।।

 

दीवाली त्योहार तभी से

भारतवर्ष मनाता है ।

ज्योतिर्मय इस धरा गगन में

घर पावन हो जाता है।

 

ज्ञान ज्योति घर – घर में फैले

तम सारा मिट जाए।

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #213 – लघुकथा – ☆ कम्बल… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी लघुकथा  कम्बल”।)

☆ तन्मय साहित्य  #212 ☆

लघुकथा – कम्बल… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जनवरी की कड़कड़ाती ठंड और ऊपर से बेमौसम की बरसात। आँधी-पानी व ओलों के हाड़ कँपाने वाले मौसम में चाय की चुस्कियाँ लेते हुए घर के पीछे निर्माणाधीन अधूरे मकान में आसरा लिए कुछ मजदूरों के बारे में चिंतित हो रहा था रामदीन।

“ये मजदूर जो बिना खिड़की-दरवाजों के इस मकान में नीचे सीमेंट की बोरियाँ बिछाये सोते हैं, इस ठंड को कैसे सह पाएँगे। इन परिवारों से यदा-कदा एक छोटे बच्चे के रोने की आवाज भी सुनाई पड़ती है।”

ये सभी लोग एन सुबह थोड़ी दूरी पर बन रहे मकान पर काम करने चले जाते हैं और शाम को आसपास से लकड़ियाँ बीनते हुए अपने इस आसरे में लौट आते हैं। अधिकतर शाम को ही इनकी आवाजें सुनाई पड़ती है।

स्वावभाववश रामदीन उस मजदूर बच्चे के बारे में सोच-सोच कर बेचैन हो रहा था, इस मौसम को कैसे झेल पायेगा वह नन्हा बच्चा!

शाम को बेटे के ऑफिस से लौटने पर रामदीन ने उसे पीछे रह रहे मजदूरों को घर में पड़े कम्बल व अनुपयोगी हो चुके कुछ गरम कपड़े देने की बात कही।

“कोई जरूरत नहीं है पापाजी, उन्हें कुछ देने की”

पता नहीं किस मानसिकता में उसने रामदीन को यह रूखा सा जवाब दे दिया।

आहत मन लिए रामदीन बहु को रात का खाना नहीं खाने का कह कर अपने कमरे में आ गया। न जाने कब बिना कुछ ओढ़े, सोचते-सोचते बिस्तर पर नींद के आगोश में पहुँच गया पता ही नहीं चला।

सुबह नींद खुली तो अपने को रजाई और कम्बल ओढ़े पाया। बहु से चाय की प्याली लेते हुए पूछा-

“बेटा उठ गया क्या?”

 “हाँ उठ गए हैं और कुछ  कम्बल व कपड़े लेकर पीछे मजदूरों को देने गए हैं, साथ ही मुझे कह गए हैं कि, पिताजी को बता देना की समय से खाना खा लें और सोते समय कम्बल-रजाई जरूर ओढ़ लिया करें।”

यह सुनकर रामदीन की आज की चाय की मिठास और उसके स्वाद का आनंद कुछ और ही अधिक बढ़ गया।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 37 ☆ पतंगों से दिन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “पतंगों से दिन…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 37 ☆ पतंगों से दिन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

खो गये हैं

नभ में उड़ते

पतंगों से दिन।

*

हाथों से

छूटी अचानक

डोर कच्ची सी

कब बड़ी

हो गई जाने

पीर बच्ची सी

*

भर रहे हैं

मन में दहशत

लफंगों से दिन।

*

रिश्ते-नाते

जैसे कोई

राह पथरीली

हो गये

संबंध थोथे

हवा जहरीली

*

भागते हैं

अपनेपन से

दबंगों से दिन।

*

आईनों से

पूछते हैं

अतीतों के रूप

चुभ रही है

आजकल की

चिलचिलाती धूप

*

चलो खोजें

जंगलों में

कुरंगों से दिन।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ रूबरू आ गए और चल भी दिए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “रूबरू आ गए और चल भी दिए“)

✍ रूबरू आ गए और चल भी दिए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

दर्द के गांव में आना जाना रहा

नाता अश्कों से अपना पुराना रहा

भूख और प्यास ख़ामोश सहते रहे

ऐ गरीबी तेरा मू छिपाना रहा

रूबरू आ गए और चल भी दिए

पल में आना हुआ पल में जाना रहा

मीठी बातों से जज़्बों में गर्मी भरी

इस तरह अपना मकसद भुनाना रहा

एक दिन रो लिए एक दिन हँस लिए

ज़िंदगी का बस इतना फ़साना रहा

इक वफादार की बेवफ़ा कह दिया

बात कुछ भी न थी बस सताना रहा

सारी दुनिया है खानाबदोशों का घर

हर घड़ी इक बदलता ठिकाना रहा

अरुणिमा हर घड़ी दर्द सहती रही

एक नादाँ को रस्ते पे लाना रहा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 5 – श्राद्ध ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा – श्राद्ध।) 

☆ लघुकथा – श्राद्ध ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

चतुर्वेदी जी की पूजा खत्म ही हुई थी ।

दरवाजे पर लगातार जोर-जोर से थप-थप की आवाज आ रही थी उसकी थपथपाहट में बेचैनी का एहसास हो रहा था। दरवाजा खुलते ही खुलते ही एक युवक की शक्ल दिखाई दी, उसे देखते ही चतुर्वेदी जी ने कहा अरे  तुम तो जाने पहचाने लग रहे? बेटा तुम मेरे मित्र के बेटे हो तुम्हारी शक्ल में मुझे मेरा मित्र दिखाई दे रहा है।

अंकल प्रणाम आपने मुझे पहचाना मैं पांडे जी का बेटा हूं।

खुश रहो बेटा ।

मैं तुम्हें खूब पहचानता हूँ, तुम्हें देखकर मेरी आत्मा तृप्त हो गई। बुरा मत मानना बेटा तुम तो मुंबई भाग गये थे, अपने बूढ़े लाचार पिता को छोड़कर। अकेले  हम दोस्तों के सहारा छोड़ दिया था,  तू तो घर भी बेचने वाला था। यदि हम लोग पांडे का साथ ना देते तो क्या होता क्या तूने कभी सोचा?

मेरे मित्र पंडित बेचारा तेरी याद में   मर गये ।

हम लोगों के खबर देने पर ही तो तू आया था उनके क्रिया कर्म करने को।

अरे अंकल गुस्सा क्यों होते हो?

हां मैं समझ रहा हूं तुम्हें मेरी बात बुरी लग रही है?

आपने भी तो पिताजी की तरह भाषण देना शुरू कर दिया। पिताजी की बरसी है मंदिर में पूजा पाठ रखा है और भंडारा भी रखा है आपको बुलाने आया हूं आप सब मित्र को लेकर आ जाइएगा?

सब व्यवस्था मैंने कर ली है। गया जी जहां पर पितृ लोगों का तर्पण पंडित जी लोग करते हैं।  उनका तर्पण भी कर दिया, परसों ही लौटा हूं।

चतुर्वेदी जी ने कहा -चलो अच्छा किया!

भगवान ने तुझे अकल तो दी जो तूने कुछ काम किया?

चलो ! मैं अपने मित्र मंडली के साथ तुमसे मिलाता हूं।

तुम्हारा भंडारा देखता हूं ?

जीते जी तो नहीं कुछ किया तुमने?

आज की युवा पीढ़ी  अच्छी नौटंकी कर लेती हैं, वृद्धावस्था तो सभी को आती है उम्र के इस पड़ाव में आज मैं हूं कल तुम होंगे मेरी यह बात को गांठ बांध लेना।

उसे युवक ने बड़ी शीघ्रता से हाथ जोड़कर कहा अंकल तो मैं मंदिर में आपका इंतजार करूंगा?

चतुर्वेदी जी जब शाम के 4:00 बजे मंदिर में अपने मित्र मंडली के साथ पहुंचते हैं। सभी लोग बहुत खुश थे और कह रहे थे बाबा पांडे जी का बेटे ने एक काम तो अच्छा किया है। तभी अचानक उनकी दृष्टि मंदिर के आंगन में पड़ती है और वह सभी भौंचक्का  रह जाते हैं।

वहां पर पंचायत बैठी थी और उनका बेटा घर बेचने की तैयारी में लगा था कि कौन ज्यादा पैसे देगा उसे ही वह घर बेचेगा।

वाह बेटा बहुत अच्छा काम किया शाबाश!

अब मैं समझ गया तुम्हारा प्रेम का कारण?

अंकल जी आपको तो पता है कि बिना कारण कुछ काम नहीं होता भगवान ने भी तो यही सिखाया है हमें कि हर मनुष्य को काम करना चाहिये।

मैं तो कहता हूं अंकल आप भी मेरे साथ शहर चलो?

आपका भी घर बेच देता हूं, इस भावुकता में कुछ नहीं रखा है मैं आपके रहने की व्यवस्था हरे राम कृष्ण मंदिर में कर देता हूं आराम  हरि भजन करना। रोज खाना बनाने की कोई टेंशन नहीं रहेगी वहां आपको योग  कराएंगे और सात्विक भोजन भी मिलेगा और महीने में एक बार डॉक्टर आपका चेकअप भी करेगा।

मेरी चिंता तो छोड़ तो अपनी चिंता कर और यह बात बता बेटा हरे राम कृष्ण मंदिर में कितने लोगों को तूने उनकी जायदाद बेचकर रखा है क्या अब वहां से भी तुझे कुछ मिलने लगा क्या कमीशन?

  मेरी एक बात को ध्यान से  सुन  तू कमाता है तो क्या अपनी कमाई का सारा हिस्सा तू ही खाता है प्रकृति और पशु पक्षी से तूने कुछ नहीं सीखा तुझसे अच्छे तो वे है।

मेरा मित्र तो अब इस दुनिया से चला गया जाने किस रूप में अब वह है उसकी यादें यहां है खैर तेरे पिताजी हैं तुम जैसा चाहो वैसे उनका श्राद्ध करो तुम्हारा उनसे खून का रिश्ता है पर मुझे ऐसा श्रद्धा नहीं करना है।

उमा मिश्रा© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-७ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-७ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

(चेरापुंजी की गुफायें और बहुत कुछ कुछ!)

प्रिय पाठकगण,

आपको बारम्बार कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)

अब हम चेरापूंजी तक आए हैं, तो पहले यहाँ के गुह्य स्थानों के अन्वेषण करने चलें! यहाँ हैं कई रहस्यमयी गुंफायें! चलिए अंदर, देखें और ढूंढें अंदर के अँधेरे में आखिरकार क्या छुपा है!      

मावसमई गुफा (Mawsmai Cave)

मेघालय की एक खासियत यानि भूमिगत गुफाओं का विस्तीर्ण मायाजाल, कुछ तो अभीतक मिली ही नहीं, तो कुछ में चक्रव्यूह की रचना, अंदर चले जाओ, लेकिन बाहर आने की कोई गैरंटी नहीं! कुछेक की राहें एकदम ख़ास, सिर्फ ख़ासियोंके बस की! अब तो सुना है एक ३५ किलोमीटर लम्बी गुफा की खोज हुई है! हम बस सुनते रहें ये फ़साने, मित्रों! मावसमई गुहा सोहरा (चेरापुंजी) से पत्थर फेंक अंतर पर (स्टोन्स थ्रो) और इसी नाम के छोटेसे गांव में है (शिलाँग से ५७ किलोमीटर)| यह गुम्फा कभी सुंदर, आश्चर्यचकित करनेवाली, कभी भयंकर, कभी भयचकित करनेवाली, ऐसा कुछ जो मैंने बस एक बार ही देखा, रोमांचकारी तथा रोमहर्षक! यहाँ हम गए तब (मेरे भाग अच्छे थे इसलिए) यात्रियों का जमघट था, फायदा यह कि वापस जाना मुश्किल, और उसमें गुफा के अंदर का सफर केवल २० मिनट का|  अब तक मेरा साथ निभानेवाले ट्रेकर्स शूज, बाहर ही रखे| नंगे पैर और खाली दिमाग से जाने का फैसला किया| मोबाइल का कोई उपयोग नहीं था, क्योंकि यहाँ खुद को ही सम्हालना बड़ा कठिन था| छोटे बड़े पाषाण, कहीं पानी, शैवाल, कीचड़, अत्यंत टेढ़ी मेढ़ी राह, कभी संकरी, कभी एकदम बंद होने की कगार पर, कभी तो एकदम झुककर जाओ, नहीं तो माथे पर पाषाणों का भीषण प्रहार झेलना पक्का! कुछ जगहों पर अंदर के दियों का प्रकाश, तो कुछ जगहों पर हमने (टॉर्च) का थोडासा प्रकाश डालना चाहिए, इसलिए एकदम अँधेरे में डूबी हुईं! मैं ट्रेकर नहीं हूँ, परन्तु इस गुफा का यह संपूर्ण अंतर मैंने कैसे पार किया, यह मैं अबतक खुद भी समझ नहीं पा रही हूँ! (पाठकों, इस लेख के अंत में गुफा के सौंदर्य का (!) किसी एक ने यू ट्यूब पर डाला विडिओ जरूर देखिये!)

मात्र वहां जिन जिन का स्मरण कर सकती थी उन्हीं भगवानों का नाम लेते लेते, मेरी सहायता करने दौड़ी आयी दो लड़कियां (हैद्राबाद की)! उनसे मेरी जान न पहचान, मेरी फॅमिली पीछे थी,  इन लड़कियों और उनकी माताओंने जैसे मेरा पूरा भार अपने ऊपर वहन कर लिया! एक छोटीसी बच्ची को जैसे हाथ पकड़ कर चलना सिखाया जाता है, उससे भी अधिक ममता दिखाते हुए उन्होंने मुझे अक्षरशः चलाया, उतारा और चढ़ाया| जैसे मैं वहां अकेली थी और ये दोनों बिलकुल राम लक्ष्मण के जैसे एक आगे और एक पीछे, ऐसा मेरा साथ निभा रही थीं! मित्रों, बाहर आकर मेरे आँखोमें गंगाजमनी जल भरा था, ऐसी भावुक हो उठी थी मैं! मेरी फॅमिलीने उनके प्रति आभार प्रकट किये, हमारा हमेशा का सेलेब्रेशन खाने के इर्द-गिर्द घूमता है, इसलिए मैंने उन्हें गुफा से बाहर आते ही कहा “चलो कुछ खाते हैं!” उन्होंने इतना सुन्दर उत्तर दिया, “नानी, आप बस हमें blessings दीजिये!” १४-१५ साल की ये लड़कियां, ये उनके संस्कार बोल रहे थे! (ग्रुप फोटो में बैठी हुईं दाहिने तारफ की दोनों)! उन्हें कहाँ ज्ञान था कि गुफा के संपूर्ण गहन, गहरे गर्भगृह में मैं उन्हीं को मन ही मन ईश्वर मान कर चल रही थी, आशीर्वाद देनेकी मेरी औकात कहाँ थी? मित्रों, आपकी कभी यात्रा के दौरान में ऐसे ईश्वरों से भेंट हुई है? इस वक्त यह लिखते हुए भी उन दोनों बड़ी ही प्यारीसी खिलती कलियों जैसी अनजान बच्चियों को मैं भावभीने ह्रदय से जी भर कर बहुत सारे blessings दे रही हूँ!!! जियो!!!  

आरवाह गुहा (Arwah Cave)

चेरापुंजी बस स्थानक से ३ किलोमीटर अंतर पर है आरवाह गुफा, यह बड़ी गुफा Khliehshnong इस क्षेत्र में है| इसमें खास देखने लायक है चूना पत्थर (लाइमस्टोन) की रचनाएँ और जीवाश्म, अत्यंत घनतम जंगल से घिरी हुई, साहसी ट्रेकर्स तथा पुरातत्व तत्वों पर प्रेम करने वालों के लिए तो बेशकीमत खजाना ही समझिये! यह गुफा मावसमई गुफा से बड़ी है, लेकिन उसका थोड़ासाही हिस्सा पर्यटकोंको देखने के लिए खुला है| ३०० मीटर देखने के लिए २०-३० मिनट लगते हैं| परन्तु यहाँ गाईड जरुरी है, गुफा में गहरे तिमिर का साम्राज्य, तो कहीं कहीं अत्यंत संकरे सुरंग से, कभी फिसलन भरे पथरीले रास्ते से, तो कभी पानी के शीतल प्रवाह के बीच से आगे सरपट सरकते हुए कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है! डरावने माहौल में और टॉर्च के धीमे उजाले में अनेक कक्ष दिखाई देते हैं, उनमें गुम्फा की दीवारों पर, छतपर और पाषाणों पर जीवाश्म (मछलियां, कुत्तेकी खोपड़ी इत्यादी) नजर आते हैं|  यहाँ के चूना पत्थर(लाइमस्टोन) की रचनाएँ और जीवाश्म लाखों वर्षों पूर्व के हो सकते हैं|  प्रिय पाठकों, यह जानकारी मेरे परिवारजनों द्वारा प्रदान की गई है|  गुफा तक ३ किलोमीटर सीढ़ियों का रास्ता, संपूर्ण क्षेत्र में घनी हरितिमा का वनवैभव, मैं गुफा के द्वार के मात्र ५० मीटर अंतर पर ही रुक गई| मुझे गुफा का दर्शन अप्राप्य ही था| इस सिलसिले में वहां का गाइड और हमारे आसामी(ऐसा-वैसा बिलकुल नहीं हाँ!) ड्रायव्हर अजय, इन दोनों की राय बहुत महत्वपूर्ण थी! घर की मंडली गुफा के दर्शन कर आई, तबतक मैं एक व्ह्यू पॉईंट से नयनाभिराम स्फटिकसम शुभ्र जलप्रपात, मलमल के पारदर्शी ओढ़नी जैसा कोहरा, गुलाबदान से छिड़के जाने वाले गुलाबजल के नाजुक छींटे की फुहार जैसी वर्षा की हल्की बूंदा बांदी और मद्धम गुलबदन संध्याकालीन क्षणों का अनुभव ले रही थी! मित्रों, जिनके लिए यह करना मुमकिन है, वे अवश्य इस दुर्गम गुफा का रहस्य जानने की कोशिश करें!

रामकृष्ण मिशन, सोहरा

यहाँ की पहाड़ी की चोटी पर रामकृष्ण मिशन का कार्यालय, मंदिर, संस्था का स्कूल और छात्रावास बहुत ही खूबसूरत हैं। वैसे ही यहाँ उत्तरपूर्व भागोंकी विभिन्न जनजातियों, उनकी विशिष्ट वेशभूषा, उनकी बनाई कलाकृतियों और बांस की कारीगरी से उत्त्पन्न वस्तुओं की जानकारी देनेवाला एक संग्रहालय बहुत सुंदर है| साथ ही मेघालय की तीन प्रमुख जनजातियां, गारो, जैंतिया तथा खासी जनजातियों पर केंद्रित कलाकृतियां, मॉडेल्स और उनकी विस्तृत जानकारी एक कमरे में संग्रहित है, वह भी देखते ही बनती है| रामकृष्ण मिशन के कार्यालय में यहाँ की खास चीजों, अलावा इसके, रामकृष्ण परमहंस, शारदा माता और स्वामी विवेकानंद के फोटो और अन्य वस्तुएं तथा परंपरागत चीजों की बिक्री भी होती है| हमने यहाँ बहुतसी सुन्दर चीज़ें खरीदीं| 

रामकृष्ण परमहंस मंदिर में सम्पन्न हुई सांध्यकालीन आरती हम सब को एक अलग ही भक्तिरस से आलोकित वातावरण में ले गई| हमारे सौभाग्यवश उस आरती की परमपावन बेला मानों हमारे लिए ही संयोग से समाहित थी, अत्यंत प्रसन्नता से हमने इस पवित्र वास्तूका दर्शन किया! कुल मिलाकर देखें तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि, यह अत्यंत रमणीय, भावभीना और भक्तिरस से परिपूर्ण स्थान पर्यटकोंने अवश्य देखना चाहिए| (संग्रहालय की समयसारिणी की अग्रिम जानकारी लेना जरुरी है)

मेघालय दर्शन के अगले भाग में आपको मैं ले चलूंगी मावफ्लांग Mawphlang,सेक्रेड ग्रोव्हज/ सेक्रेड वूड्स/ सेक्रेड फॉरेस्ट्स में और उसके आसपास के अद्भुत प्रवास के लिए! तैयार हैं ना आप पाठक मित्रों?

तो अभी के लिए खुबलेई! (khublei) यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!)    

टिप्पणी

*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें  और वीडियो (कुछ को छोड़) व्यक्तिगत हैं!    

*गाने और विडिओ की लिंक साथ में जोड़ रही हूँ|

मेघालय, मेघों की मातृभूमि! “सुवर्ण जयंती उत्सव गीत”

(Meghalaya Homeland of the Clouds, “Golden Jubilee Celebration Song”)

मावसमई गुफा (Mawsmai Caves) 

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 213 ☆ मकर संक्रांत ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 213 ?

मकर संक्रांत ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सण आवडता संक्रांतीचा,

अनेक पदर असलेला !

आठवतो…

लहानपणीचा,

काळ्या गर्भ रेशमी ताग्याचा,

वडिलांनी मला आणलेला,

खऱ्या जरीचा– परकर पोलक्यासाठी !

 

आणि आईची चंद्रकळाही !

तीळगुळ वडी, आईचं हळदीकुंकू,

अत्तरदाणी गुलाबदाणी !

 

तिचं काचेच्या बांगड्याचं वेड !

आडव्या खोक्यातले चुडे!

अंगणातील सडा रांगोळी!

आजीचा आशीर्वाद,

“जन्म सावित्री व्हा, सोन्याचे चुडे ल्या!”

 

सुगडं, ओंब्या, ओवसा !

“सीतेचा ओवसा जन्मोजन्मीचा

ओवसा”म्हणत,

सासूबाईंनी दिलेला वसा !

डोईवरचा पदर,

हातभार चुडे..उंबरठ्यात पाय अडे!

 

पण मी “नारी समता मंच” मधे

जायला लागले,

आणि सोडून दिली,

नावापुढे सौ.ची उपाधी लावणं,

हळदीकुंकवाला केला राम राम!

आणि

समजला संक्रांतीचा खरा अर्थ,

नात्यात गोडी असेल तरच

जगणं सार्थ…नाहीतर सारंच व्यर्थ,

संक्रांत आता माझ्या लेखी,

फक्त तिळगुळाच्या देवाणघेवाणीचा !

   समृद्ध जीवनानुभवाचा,

  सण– कर्मकांडाच्या पलिकडचा!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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