हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 64 – देश-परदेश – नया सवेरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 64 ☆ देश-परदेश – नया सवेरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

जीवन के छै दशक से भी अधिक का काल बीत गया,कान सुन सुन कर पक गए,अब नया सवेरा आयेगा।

जीवन में खुशियां और सुख की बाढ़ आयेगी।

आज फिर एक और अंग्रेज़ी नव वर्ष आरंभ हो रहा हैं।हम प्रतिदिन की भांति तैयार होकर प्रातः भ्रमण के लिए निकल पड़े। मौसम समाचार और व्हाट्स ऐप के माध्यम से प्राप्त सूचनाओं के मद्दे नज़र बंदर टोपी के ऊपर मफलर लपेट लिया,ऊनी मोजे , हाथ में चमड़े के दस्ताने,ओवर कोट के ऊपर लाल इमली,कानपुर वाली पुरष शाल लपेट कर अपनी दिनचर्या का पहला कदम मंजिल की तरफ बढ़ा दिया।

घर के बाहर कोहरे की घनी चादर , खड़े हुए वाहनों पर  ओस की परत देखकर मन में अंतरद्वंद चल रहा था,की लोट चले रजाई में वापिस,कल देखेंगे।

व्हाट्स ऐप के ज्ञान ने हमे हिम्मत और सबल दिया,घर की दहलीज पार कर ली।प्रतिदिन की भांति कुछ लोग कान में यंत्र डाल कर भ्रमण करते हुए दृष्टिगोचर हुए।कुछ नए बरसाती मेंढक भी दिखे, हर नव वर्ष पर दो चार दिन ऐसा ही होता हैं।

एक स्थान पर प्लास्टिक के ग्लास ठंडी हवा मे तांडव करते हुए अवश्य दिखें।एक समाज सुधारक ठेकेदार ने विगत रात्रि मुफ्त गर्म दुग्ध वितरण करवाया था।उनको आगामी लोक सभा में पार्टी के टिकट जो प्राप्त करना हैं।

अगले नुक्कड़ पर कुछ अधिक अंधेरा था,लेकिन दस बारह वर्ष के कुछ बच्चे अंधेरे में कुछ खोज रहे थे।वहां कांच की टूटी बोतलें पड़ी थी।बच्चे साबूत बोतलों को डूंड कर   अपनी पेट की क्षुधा को शांत करने की मुहिम में जीजान से लगें हुए थे।

नए सवेरे की इंतजार में रात्रि के अंधेरे में अवश्य मद्यपान वालों की महफिल सजी होगी।नया सवेरा तो कहीं दिख नहीं रहा था।प्रतिदिन की भांति दो दूध वाले सरकारी नल के पास पानी का इंतजार कर रहे थे।उनके मोबाइल से अवश्य आवाज़ आ रही थी,दूध में कितना पानी मिलाएं ?

भ्रमण से वापसी में घर के पास सफाई कर्मचारी सड़क पर फैले हुए जले हुए पटाखे के कचरे को एकत्र करते हुए,परेशान से दिख रहे थे।

कुछ युवा जो क्षेत्र में कार सफाई का कार्य करते है,आपस में बातचीत करते हुए कह रहे थे,आज पहली तारीख है,गाड़ी अच्छे से साफ करनी पड़ेगी।

ये सब तो प्रतिदिन होता है,वो व्हाट्स ऐप पर हजारों संदेश जो कह रहे थे, कि आज नया सवेरा होगा,आशा की किरण होगी,सब तरफ खुशहाली होगी,खुशियों का समुद्र होगा,कहां हैं,कब होगा ? नया सवेरा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #218 ☆ सूर्य मावळला… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 218 ?

सूर्य मावळला… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

होता सूर्य मावळला, गेल्या वर्षाला घेऊन

काही बुडाले दारूत, होते सामिष खाऊन

सारे नव्हतेच तसे, काही पहाटे उठले

नव्या वर्षाच्या सूर्याचे, त्यांनी दर्शन घेतले

त्याचे रूप पाहुनीया, मन जाते हे मोहून

संध्या स्नान जे करून, अर्घ्य देतात देवाला

ऊर्जा सूर्यकिरणांची, सूर्य देतो त्या देहाला

आहे कोवळी किरणे, त्यात घेऊया न्हाऊन

झाले जीवन गढूळ, शुद्ध संकल्प करुया

घडा पापाचा जरासा, चला रिकामा करुया

गेलेल्याच्यासोबतीने, जावे पापही धुऊन

परप्रकाशी चंद्राला, नका कुणी नावे ठेवू

त्याच्यामुळे धुंद रात्र, त्याला कुशीमध्ये घेऊ

चंद्रावर जाणे सोपे, चला येउया भेटून

स्वप्ने सत्यात येताना, आहे पाहतो हा देश

साऱ्या जगात पोचला, आहे आमुचा संदेश

असो संकटात कोणी, जातो देश हा धावून

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ त्रिगुणात्मक हो… ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– त्रिगुणात्मक हो… – ? ☆ श्री आशिष  बिवलकर ☆

त्रिगुणात्मक हो | गुरुदेव दत्त |

प्रसन्न हे चित्त | दर्शनाने ||१||

अनुसया अत्री | लाभे माता पिता |

ध्यान सर्वज्ञाता | दत्तात्रेय ||२||

ब्रम्हा विष्णू शिव  | एकत्र साकार |

दत्त अवतार | सृष्टीतत्व ||३||

कामधेनू उभी | चार वेद श्वान |

अवधूत ध्यान | गुरुदेव ||४|

दत्त संप्रदाय | कठीण साधना |

आनंद  जीवना | भक्तीमार्ग ||५||

दत्त महाराज |  व्हावी मज कृपा |

भवसिंधू सोपा | तारायासी ||६||

श्री दत्त जयंती  | उत्सव सोहळा |

भक्तीमय मेळा | साधकांचा ||७||

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 169 – गीत – बैठ गया जब तेरे पास ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – क्यों कर पालिश करती हो।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 169 – गीत – बैठ गया जब तेरे पास…  ✍

बैठ गया जब तेरे पास

शंका शूल जले, बन घास।

दिन में सोया सपना देखा

अपने बीच खिंची है रेखा

तब बड़ी देर तक मैं रोया

आँसू से ही आनन धोया

मन बेहद हो गया उदास

बैठ गया जब तेरे पास

शंका शूल जले बन घास

सपनों ने तोड़ा उपवास ।

तरस रहा मन देखा तूने

मुरझ रहा मन देखा तूने

जब तुमने उठकर बाँह गही

शंका तब बिल्कुल नहीं रही।

गाने लगी कंठ की प्यास

बैठ गया जब तेरे पास

शंका शूल जले बन घास

जुड़े सभी टूटे विश्वास।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 168 – “सुबह सुबह…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  सुबह सुबह...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 168 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “सुबह सुबह...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

फिसल गई सूरज के हाथसे

फिर नई सुबह, सुबह सुबह

जान नहीं पाया अब तक वजह

 

फैल गई मधुर गंध दूर तलक

झपकाती रह गई पवन पलक

प्राची के सुनकर उलाहने

तेजतेज लगता रथ हाँकने-

 

अरुण फिर नई तरह, सुबह सुबह

 

पेड़ तले पीलिया कशीदों को

बाँच रहा किरन की रसीदों को

बाँटरहा जैसे प्रमाणपत्र

सभी दिशाओं की उम्मीदों को

 

मौन फिर हुई सुलह, सुबह सुबह

 

सभी कहें कैसे हुआ संभव-

यह , पहले जो था बिलकुल नीरव

धीरे धीरे जिसमें उभर रहा

मीठा मीठा चिडियों का कलरव

 

बढी हुई थी  कलह, सुबह सुबह

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

20-10-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 218 ☆ चिंतन – “विपक्ष की भूमिका में व्यंग्यकार” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक चिंतनीय आलेख – “विपक्ष की भूमिका में व्यंग्यकार”)

☆ चिंतन – “विपक्ष की भूमिका में व्यंग्यकार☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

हमें ऐसा लगता है कि व्यंग्य कभी भी कहीं भी हो सकता है बातचीत में, सम्पादक के नाम पत्र में, कविता और कहानी आदि में भी। व्यंग्य लिखने में सबसे बड़ी सहूलियत ये है कि “जैसे तू देख रहा है वैसे तू लिख”।

समसामयिक जीवन की व्याख्या उसका विश्लेषण  उसकी सही भर्त्सना एवं विडम्बना के लिए व्यंग्य से बड़ा कारगर हथियार और कोई नहीं। समाज में फैली विषमता, राजनीति में व्याप्त ढकोसला, भ्रष्टाचार, दोगलापन आदि सहन नहीं होता तो व्यंग्य लिखा जाता है। जो गलत या बुरा लगता है उस पर मूंधी चोट करने व्यंग्य बाण छोड़े जाते हैं और कहीं न कहीं से लगता है कि व्यंग्यकार की कलम ईमानदार, नैतिक और रुढ़ि विरोधी को नैतिक समर्थन दे रही है। इसलिए हम कह सकते हैं कि व्यंग्य साहित्य की ही एक विधा है।

साहित्य में व्यंग्य की पहले शूद्र जैसी स्थिति थी, कहानीकार, कवि आदि व्यंग्य को तिरस्कृत नजरों से देखते थे, पत्रिकाएं व्यंग्य से परहेज़ करतीं थीं, पर अब व्यंग्य का दबदबा हो चला है परसाई ने लठ्ठ पटककर व्यंग्य को ऊपर बैठा दिया है, व्यंग्य की लोकप्रियता को देखकर आज कहानीकार, कवि जो व्यंग्य से चिढ़ते थे ऐसे अधिकांश लोग व्यंग्य की शरण में आकर अपना कैरियर बनाने की ओर मुड़ गए हैं।

पाठक अब कहानी के पहले व्यंग्य पढ़ना चाहता हैं, क्योंकि आम आदमी समाज में फैली विषमता, राजनीति में व्याप्त ढकोसला, भ्रष्टाचार, दोगलापन, पाखण्ड और केंचुए की प्रकृति के लोगों के चरित्र को देखकर हैरान हैं,जो पाठक व्यक्त नहीं कर पाता है वह व्यंग्य पढ़कर महसूस कर लेता है। व्यंग्य समाज को बेहतर से बेहतर बनाने की सोच के साथ काम करता है। इसीलिए माना जाता है कि समाज और साहित्य में  व्यंग्य की भूमिका बहुत महत्व रखती है।जब लोकतंत्र को खत्म करने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ताले लगाए जाते हैं, प्रेस और मीडिया बिक जाते हैं तो व्यंग्य और व्यंग्यकार की भूमिका अहम हो जाती है।  व्यंग्यकार अपने व्यंग्य से जनता के बीच चेतना जगाने का काम करता है,समाज में जाग्रति फैलाता है और विपक्ष की भूमिका में नजर आता है, पर इन दिनों नेपथ्य में चुपचाप कुछ यश लोलुप, सम्मान के जुगाड़ू लोग शौकिया व्यंग्यकारों की भीड़ इकट्ठी कर चरवाहा बनकर भेड़ें हांक रहे हैं और व्यंग्य को फिर शूद्र बनाने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं, उन्हें समाज और सामाजिक सरोकारों से मतलब नहीं है वे पहले अपने नाम और फोटो से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने में तुले हैं,समाज और साहित्य के लिए ये स्थितियां घातक हो सकतीं हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ मेरी सच्ची कहानी – विचारणीय… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘विचारणीय…’।)

☆ लघुकथा – विचारणीय… ☆

मच्छरों की आपातकालीन बैठक बुलाई गई थी, उसमें विभिन्न प्रकार के मच्छर थे, एनाफ्लीस मच्छर, क्यूलेक्स मच्छर, एडीज मच्छर,जीका वायरस का मच्छर, डेंगू बुखार का मच्छर और भी कई प्रकार के मच्छर थे,जो आदमियों से परेशान हो गए थे, सभी भिन भिन कर रहे थे,आपस में बातें कर रहे थे,शोरगुल था, तभी एक बुजुर्ग मच्छर खड़ा हुआ, उसने कहा, कृपया शांत हो जाएं,आज की बैठक,आपके लिए,अपनों के लिए ही बुलाई गई है, पहले हमसे बचने के लिए, आदमी, हमसे बचाव के लिए मच्छरदानी लगा लेता था, फिर कुछ दिन बाद दवाइयां लगाने लगे कई कंपनियों की, फिर ऑल आउट,वगैरह जला देते थे, जिससे हम भाग जाते थे, परंतु अब उन्होनें नया काम किया है, मॉस्किटो नेट का जो रैकेट होता है,उसको बिजली से चार्ज करते हैं और जिससे जल कर हमारी मृत्यु हो जाती है,बहुत दुखदाई है, इससे बचाव के क्या साधन अपना सकते हैं, हमें विचार करना है, सभी मच्छर विचार कर रहे थे, पर कोई सुझाव नहीं सूझ रहा था.

तब एक बुजुर्ग मच्छर खड़ा हुआ, उसने कहा, सच है, आदमी हमें देख लेता है,और हम पर वार करता है, हमें जला देता है,मार देता है, परंतु आपको एक बात बताऊं, आदमी में अहम बहुत होता है,इस अहम के कारण खुद को नहीं देखता, आसपास देखता है, दूसरों को देखता है,खुद को नहीं देखता, आवश्यकता है कि मच्छर उससे कपड़ों से चिपके, आदमी अपने पास नहीं देखेगा,मच्छर सुरक्षित रहेंगे, क्योंकि आदमी अपने अहम के कारण खुद को नहीं देखता है, सभी लोगों ने तालियां बजा कर सुझाव का स्वागत किया.

और इनके सामने मनुष्य की एक कमजोरी आ गई ,अहम के कारण व्यक्ति अपने आप को नहीं देखता, अपने आसपास नहीं देखता,हमेशा दूसरों को देखता है,दूसरों के पास क्या है, यही देखता है,खुद के पास क्या है,नहीं देखता.

सोचिए जरूर…

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 160 ☆ # नववर्ष की सुबह # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# नववर्ष की सुबह #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 160 ☆

☆ # नववर्ष की सुबह #

नये साल की नई सुबह है

मुस्कुराने की वजह है

झूम रही है दुनिया सारी

खुशियां बिखरी हर जगह है

 

बागों में भंवरों की गुनगुन है

चूम रहे कलियों को चुन-चुन है

मदहोशी में हैं अल्हड़ यौवन

पायल की बजती रुनझुन है

 

नव किरणों की अठखेलियां हैं

ओस की बूंदों से लिपटी कलिया हैं

महक रही है बगिया बगिया

खुशबू लुटाती फूलों की डलिया हैं  

 

वो युगल गा रहे हैं प्रेम के गीत

लेकर बांहों में अपने मीत

आंखों के सागर में डूबे

अमर कर रहे हैं अपनी प्रीत

 

मजदूर बस्ती के वंचित परिवार

झेल रहे जो महंगाई की मार

मध्य रात्रि से देख रहे हैं

पैसे वालों का यह त्यौहार

 

नई सुबह के नए हैं सपने

कौन पराया सब हैं अपने

भेदभाव सब मिटा दो यारों

लगो प्रेम की माला जपने

 

नववर्ष में नए विचार हो

दया, करूणा और प्यार हो

कोई ना रह जाए वंचित

सब के दामन में खुशियां अपार हो /

 © श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 154 ☆ नूतन वर्ष ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

 

?  हे शब्द अंतरीचे # 154 ? 

☆ हे शब्द अंतरीचे… नूतन वर्ष ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

(पाश्चात्य परंपरेची, नवीन वर्षाची सुरुवात आज झाली…. त्या निमित्ताने ह्या काही ओळी…)

नूतन वर्षाची, सुरुवात झाली

सूर्य किरणे, प्राचिवर प्रसवली

मंजुळ स्वरात, कोकिळा वदली

नवीन वर्षाला, सुरुवात झाली

चाफा सुंदर, फुलू लागला

मोगरा सुगंधी, बहरून आला

झाले जे ते, विसरून जावे

नव्याने पुन्हा, तयार व्हावे

पुन्हा नवी दिशा, पुन्हा नवा डाव

करा सावारा-सावर, टाका आपला प्रभाव

होणारे सर्व आता, छान छान व्हावे

चांगले योग्य, तेच घडून यावे

मनोभावे करावी, प्रार्थना देवाला

सुखी ठेव बा, चालू या घडीला

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – बोलकी मुखपृष्ठे ☆ “चाकोरीतल्या जगण्यामधून” ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

? बोलकी मुखपृष्ठे ?

☆ “चाकोरीतल्या जगण्यामधून” ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

एक सुंदर खिडकी वजा दरवाजा••• त्यातून कुतुहलाने बाहेर डोकावणारी स्त्री••• मागे स्वयंपाक घरातील दिसणारी मांडणी•••

बस एवढेच चित्र. पण त्याच्या मोहक सौंदर्याने लक्ष वेधून घेते आणि काही क्षण तरी निरिक्षण करायला भाग पाडते.

नंतर दिसते ते चित्राच्या खाली असलेले पुस्तकाचे शिर्षक••• ‘चाकोरीतल्या जगण्यामधून ‘.

मग लगेच विचारचक्र फिरू लागते आणि चित्राचा वेगळा अर्थ उमगतो की स्त्री••• जी संसाराच्या चाकोरीत अडकली आहे, तिलाही संसाराच्या पलिकडच्या जगाचे कुतूहल आहेच की! त्याच कुतुहलाने ती बाहेर डोकावून बाहेरच्या जगाचा अंदाज घेत आहे•••

नीट पाहिले तर तिचा संसार  म्हणजे तिचे स्वयंपाकघर हे मुख्य असले तरी सध्याची परिस्थिती पहाता ती चूल आणि मूल यामधेच गुरफटून न रहाता संसाराला मदत म्हणून या चौकटीतून बाहेर पडून काही करण्याच्या विचारात आहे आणि त्यासाठी तिचे एक पाउल बाहेर पडले पण आहे .

जरी तिचे एक पाऊल बाहेर पडले असले तरी अवस्था मात्र नरसिंहासारखी द्विधा झाली आहे. ना धड घरात ना धड बाहेर••• ना मुक्त ना बांधलेले तरीही या उंबरठ्याशी जगडलेले••• 

स्त्रीने कितीही बाहेर पडून स्वर्ग हाती घेतले तरी तिला आजही घरचे सगळे बघावेच लागते. ती कोणत्याही कारणाने घराच्या चौकटीच्या बाहेर आली तरी सरड्याची धाव कुंपणार्यंत तसे काहीतरी तिच्या बाबतीत होते आणि घर , घराचा उंबरठा हे तिचे मर्मस्थानच बनते.

हे प्राधान्य असले तरी आजकालची स्त्री ही घराच्या चौकटीतून बाहेर पडू लागली आहे हे वास्तव स्पष्टपणे दिसते.

नीट पाहिले तर या चौकटीवर धावदोर्‍याची टीप दिसते आणि यातूनही बरेच अर्थ प्रेरित होतात. स्त्रीचे आयुष्य हे घरचे बाहेरचे ऑफिसचे सणवार पाहुणेरावळे यामधे धावतेच झालेले आहे .तीच तिची चाकोरी बनली आहे.

अजून विचार केला तर वाटते स्त्रीचे आयुष्य बाहेर वेगळे असले तरी तिच्या भावना या  धावदोरा घालून घराच्या चौकटीतच शिवल्या गेल्या आहेत.

अशा अनेक स्त्री समस्यांना वाचा फोडणारे हे चित्र. त्या स्त्रीच्या चेहर्‍यावरील हावभावामुळे स्त्री व्यथेतून मोकळी होऊन आपले विश्व मी निर्माण करीन. चौकटी बाहेर जाऊनही चौकटीची मर्यादा मान हे जपून संसार फुलवेन या आत्मविश्वासाचे द्योतक वाटते . 

अर्थातच या नावामुळे आणि त्यातील गर्भितार्थामुळे पुस्तकाच्या अंतरंगात डोकावायची ईच्छा होतेच.

ईतके साधे चित्र पण कल्पकतेतून त्याला विविध आयाम द्यायच्या कसबतेमुळे मनाचा ठाव घेते .त्याबद्दल मुखपृष्ठकार नयन बारहाते, संवेदना प्रकाशनचे प्रकाशक नीता,नितीन हिरवे आणि लेखिका सविता इंगळे यांचे मन:पूर्वक आभार

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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