मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ जय जय रामकृष्ण हरी ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– जय जय रामकृष्ण हरी – ? ☆ श्री आशिष  बिवलकर ☆

फुलला मोगरा | ज्ञानियाच्या दारी |

सुगंध ईश्वरी | देऊनिया ||१||

मिटूनिया चक्षु  | ध्यान ज्ञानेश्वर |

प्रकटे ईश्वर | ज्ञान योग ||२||

ब्रम्हानंदी लागे | ज्ञानियाची  टाळी |

भावार्थाच्या ओळी | लिहूनिया ||३||

भावार्थ दीपिका | एक एक ओवी |

स्व अनुभवावी | ज्ञानेश्वरी ||४||

कैवल्य पुतळा | झाली ही माऊली |

ज्ञानाची सावली | उद्धारासी ||५||

एक एक ओवी |  अमृता समान |

मराठी सन्मान | मायबोली ||६||

भागवत धर्म  | रचलिया पाया |

समाधीस्त काया | तेजोमय ||७||

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 167 – गीत – बिना मोल अब तेरे हाथ बिकानी हूँ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – बिना मोल अब तेरे हाथ बिकानी हूँ।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 167 – गीत –बिना मोल अब तेरे हाथ बिकानी हूँ…  ✍

मोल लगाया था जग ने मैं बिकी नहीं

बिना मोल अब तेरे हाथ बिकानी हूँ

 

मंत्र चलाया, जादू डाला

तार तार चादरिया

झूठ खबर ही भिजवा देता

मैं आती साँवरिया

मैं भी तो मीरा सी दरद दिवानी हूँ।

 

जाने किस चुम्बक ने खींचा

खिंची चली मैं आई

क्या है तेरा कर्ज पावना

आज करूँ भरपाई

तुम कहते मधुमती मुझे, मैं पानी हूँ।

 

मन पहले ही भेज दिया था

देह फूल अब लाई

करो विसर्जित मन का संशय

प्राणों की पहुनाई

रंगी पिया के रंग में प्रेम दिवानी हूँ ।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 166 – “इधर आँख में थमें नहीं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  इधर आँख में थमें नहीं...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 166 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “इधर आँख में थमें नहीं...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

पहुँची उन्हें विदेश, मृत्यु की

खबर, पिता जी की

है पहाड़ दुख का पर दोनों

कहें नहीं जी की

 

बड़ा भाई बोला छोटे से-

इधर जर्मनी में

मिलें छुट्टियाँ बहुत अल्प

छत्तीस महीने में

 

ऐसा करो अभी तुम

भारत-वर्ष स्वयम् जाओ

मैं जाऊँगा माँ के टाइम

समझो बारीकी

 

छोटा बोला ड्यू हैं मेरी

बाइफ की जाँचें

आप अगर घर से आयी

चिट्टी को जो बाँचें

 

कुछ हिदायतें, गर विदेश के

घर में कुछ अड़चन

तो मत आना, शोक सभा

करने को तुम फीकी

 

दोनों ही उधेड़ बुन में थे

जायें ना जायें

पर वे जाना नहीं चाहते

थे क्या बतलायें

 

इतना पैसा फ्लाईट का

बेकार खर्च होगा

चार पाँच महिने घर में

छायेगी तारीकी

 

इधर आँख में थमें नहीं

आँसू बुढ़िया माँ के

ऐसे क्या टूटा करते

सम्बंन्धों के टाँके

 

और अंत में माँ को

दोनों बेटों ने सूचित-

किया-  ” नहीं आसकते

करना तेरहवीं नीकी

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

08-10-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 216 ☆ लघुकथा – “आंखों में क्या जी, गजब की हलचल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक मनोरंजक लघुकथा – “आंखों में क्या जी, गजब की हलचल”)

☆ लघुकथा – “आंखों में क्या जी, गजब की हलचल☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय  

पहली बार आंख की महिला डाक्टर को दिखाया तो बोली – आपकी आंखें बहुत अच्छी हैं, प्यारी हैं।

दूसरी बार दिखाया तो बोली – अब तो हर तीन महीने में दिखाना ही पड़ेगा।

तीसरी बार दिखाया तो बोली – अब आपको अपने आंखों की जीवन भर रखवाली करनी पड़ेगी, क्योंकि कोई आपकी आंख चुरा भी सकता है….

महिला डॉक्टर से डरकर आंखों के पुरूष डाक्टर को जब दिखाया तो बोला – गलतफहमी में मत रहना ये ग्लूकोमा के प्रारंभिक लक्षण हैं…..

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ मेरी सच्ची कहानी – भेदभाव… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘शहीद’।)

☆ लघुकथा – भेदभाव…. ☆

पंडाल में,श्री गणेश जी की भव्य मनोहर मूर्ति विराजमान थी,पंडाल रोशनी से जग मग हो रहा था,भक्तों में धार्मिक भावना,और धार्मिक उल्लास नजर आ रहा था,भजन मंडली, भजन कीर्तन कर रही थी सभी रसास्वादन कर रहे थे, मैं अपने परिवार के साथ, पत्नि और बेटी के साथ उपस्थित था,आयोजन भव्य था,तभी श्रीगणेश आरती की घोषणा हुई,और आरती शुरू हुई,जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा…. आरती संपन्न हुई,सभी आरती ले रहे थे,तभी मेरी बेटी ने मुझसे कहा,पापा भगवान श्री गणेश जी की आरती में,बांझन को पुत्र देत,क्यों,,पुत्री क्यों नहीं,यह तो पुत्र और पुत्री के मध्य भेदभाव है ना,समाज में ऐसा भेदभाव क्यों,,

मैं सोच में पड़ गया,,आज तक ये ही आरती गाता आ रहा हूं,,कभी किसी ने प्रश्न नहीं किया,मेरे मन में भी कभी ख्याल नहीं आया,,आरती में बांझन को पुत्र देत क्यों,,पुत्री क्यों नहीं,,

घर आकर विचार किया, कि आरती तो किसी व्यक्ति ने ही लिखी होगी,सुधार तो हो सकता है,और आरती में थोड़ा सुधार किया,,,बांझन की गोद भरे,,निर्धन को माया,

अब मैं यही आरती गाता हूं,आप भी विचार कीजिए,आपको मेरी सोच अच्छी लगे, तो आप भी यही आरती गाएं,ताकि पुत्री के साथ भेदभाव न हो

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 158 ☆ # शरद ऋतु की एक सुबह # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# शरद ऋतु की एक सुबह #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 158 ☆

☆ # शरद ऋतु की एक सुबह #

कितना सुहावना

 मौसम आया है

गुनगुनी ठंड

साथ लाया है

कलियों पर

मोती चमक रहे है

आस की बूंदें

दमक रही है

चिड़ियों की चहचहाहट

कोमल पत्तों की थरथराहट

किरणों की देखो बाजीगरी

चूम रही है ओस की परी

ताल-तलैया शबनम

लुटा रहे हैं

आंखों को कितना

लुभा रहे है

ताल में वो

छोटी सी नाव

पतवार थामे

बैठे है राव

ताल में तैरती

सिंघाड़े की बेल

नाविक कर रहा

उनसे खेल

सिंघाड़े तोड़ रहा है

टोकरी में भर रहा है

पक्षियों के झुंड

उड़ रहे है

रंग बिरंगे रंगोंसे

जुड़ रहे है

कहीं कहीं धरती पर

बर्फ़ की चादर है

कहीं कहीं इठलाता

आवारा बादर है

पनघट पर

जल उड़ाती सखियां

अपने अपने प्रियतम की

कर रही बतियां

उनके पावों की

रुनझुन करती पायल

हर राहगीर को

कर रही है घायल

बागों में

भंवरों की गुनगुन

चूम रहे है

कलियों को चुन-चुन

कितना अलौकिक

दृश्य है

नयनों को सम्मोहित करता

स्वर्ग सा सदृष्य है

यह ऋतु जीवन की

आस बंधाता है

जीवन सुंदर है,

अनमोल है

समझाता है

शरद ऋतु का आगमन

कितना मनमोहक है

कितना सुहाना है

शरद ऋतु की यह सुबह

हर मनुष्य के लिए

प्रकृति का

खुशियों से भरा

खजाना है /

 © श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – बोलकी मुखपृष्ठे ☆ “उजेडाचे मळे” ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

? बोलकी मुखपृष्ठे ?

☆ “उजेडाचे मळे” ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

परदेशात मोठमोठ्या चित्रांचे लिलाव होतात आणि त्याला करोडो रुपये मिळतात. मला फार आश्चर्य वाटायचे, काय असतं एवढं या चित्रात? का त्याला एवढी किंमत मिळते? कशी ठरते ही किंमत.

कुतुहल म्हणून मी काही चित्रे त्या दृष्टीने पाहिली आणि नंतर त्याची कथाही वाचली तर समजले की वरवर दिसते तसे ते चित्र नसतेच मुळी. त्यामधे खूप गूढार्थ सामावला आहे. ही चित्रे मॉडर्न आर्ट म्हणून विक्रीस ठेवलेली होती. 

अचानक पुरुषोत्तम सदाफुले सरांच उजेडाचे मळे पुस्तक हाती पडले आणि त्या मुखपृष्ठाकडे पहातच राहिले. खरोखर मॉडर्न आर्ट असलेले चित्र वाटले.

सहज बघितले तर असंख्य उडणारे पक्षी••• थोडं नीट पाहिलं तरं माणसाच्या डोक्यातून आलेले विचार पक्षी••• 

परंतु जरा वेगळ्या दृष्टीने पाहिले आणि त्यातील गहनता जाणवत गेली•••

मध्यभागी असणारी माणसाची आकृती ही फक्त माणसाची नसून कारखान्यात जाम करणार्‍या एका कामगाराची आहे. कामगारांच्या समस्या कारखान्यातील प्रश्नांमुळे निर्माण झाल्या आहेत हे दाखवण्यासाठी कामगाराचे हृदय कारखान्याच्या आकाराचे जणू काळीज चिरले जात आहे हे दर्शवते. त्या समस्यांचे विचार पक्षी रुपाने उडू पहात आहेत.

कामगाराचे मन जरी हिरवे असले तरी आजूबाजूचा परिसर प्रदुषणामुळे पिवळा पडत चालला आहे आणि याच प्रदुषणात जगणे अवघड होऊन हे पक्षी हा परिसर सोडून उडून जात आहे आणि बिचारा कामगार जरी अवघड झाले तरी असहाय्य होऊन या प्रदुषणात, कारखान्यात होरपळत आहे.

कामगारांचे प्रश्न कोण सोडवेल? मी सोडवू शकेन का? कसे सोडवता येतील हे प्रश्न या कामगार विषयीच्या प्रश्नांची पाखरे डोक्यात घिरट्या घालत आहेत.

विद्येविना मती गेली। मतिविना नीती गेली। नीतिविना गती गेली। गतिविना वित्त गेले। वित्ताविना शूद्र खचले। इतके अनर्थ एका अविद्येने केले  क्रांतीसूर्य महात्मा ज्योतिबा फुले यांची विचारधारणा सगळ्यांनी विशेषतः कामगारांनी तरी विसरली नाहीच पाहिजे म्हणून हा क्रांतीसूर्य सतत कामगाराच्या विचारात तळपत आहे. कामगारांबद्दलचे विचार त्याला मूर्त रूप येत नसल्याने हा अर्धाच सूर्य तळपत आहे हे सांगणंयासाठी लाल रंगाचा सूर्य आणि त्याची पांढरी आभा दाखवली आहे. 

कारखान्याच्या भोवती वाढणारा कचरा, त्यातून निघालेले धुरांचे पक्षी,बाहेर पडणारी रसायने यातून कामगारांचे जीवन धोक्यात येऊन कामगार हिरवा- निळा पडत आहे. 

अगदी लहान मुलाच्या नजरेतून बघितले तर ती लहानमुलाची आकृती आत लाल मधे पांढरे आणि खाली हिरवे असलेले कलिंगड खाण्याचा विचार करत आहे. पण हे कलिंगडही म्हणावे तितके शुद्ध राहिले नाही हे दुर्दैव.(माहित आहे की कलिंगड आणि लेखन यांचा दुरान्वयेही काही संबंध नाही पण लहानमुल सहज असे म्हणेल म्हणून तोही अर्थ निघू शकतो असे सुचवायचे आहे)

असे अनेक सांकेतिक विचार प्रश्न घेऊन येणारे हे चित्र आणि त्याला तितक्याच सच्चतेने उत्तर देणारे सच्चेपणा आणि निरागसता यांचे प्रतिक असलेले निळंया रंगातील आकाशाचेही निळेपण घेऊन येणारे वाचकांच्या मनात फुलवणारे उजेडाचे मळे.

खरेच असे मॉडर्न आर्टने खुलणारे  सरदार जाधव यांचे हे वेगळेच चित्र मुखपृष्ठ म्हणून निवडणार्‍या प्रतिमा पब्लीकेशनच्या डॉ.दीपक चांदणे ,अस्मिता चांदणे आणि लेखक पुरुषोत्तम सदाफुले यांचे आभार.

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 220 ☆ व्यंग्य – लेखक-पाठक प्रेमपूर्ण संवाद ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक बेहतरीन व्यंग्य – ‘गुरूजी का अमृत महोत्सव’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 220 ☆

☆ व्यंग्य – लेखक-पाठक प्रेमपूर्ण संवाद 

‘हलो, चतुर बोल रहे हैं?’

‘जी, आपका सेवक चतुर। चरण स्पर्श। सबेरे सबेरे कैसे स्मरण किया?’

‘भैया, तुम बड़े चतुर हो गये हो। बिना पढ़े रचना पर ‘लाइक’ ठोकते हो। अभी मैंने रचना फेसबुक पर डाली, और पाँच सेकंड में तुम्हारा ‘लाइक’ प्रकट हो गया। तीन पेज

की रचना पाँच सेकंड में पढ़ ली? लेखक को मूर्ख बनाते हो?’

‘कैसी बातें करते हैं गुरुदेव! हम तो आपकी दो लाइनें पढ़ते ही पूरी रचना के मिजाज़ को पकड़ लेते हैं। एक चावल को टटोलकर पूरी हंडी का जायज़ा ले लेते हैं। आप जैसे हर-दिल- अज़ीज़ लेखक को पूरा पढ़ने की ज़रूरत ही नहीं होती। आपने वह कहावत सुनी होगी कि ख़त का मज़मूँ भाँप लेते हैं लिफाफा देखकर। और फिर आपकी तारीफ करने के मामले में हम किसी से पीछे क्यों रहें? हम तो आपके पुराने मुरीद हैं। सच कहूँ तो आपका नाम देखते ही उँगलियाँ ‘लाइक’ दबाने के लिए फड़कने लगती हैं।’

‘अरे भैया, तो पाँच दस मिनट बाद भी ‘लाइक’ ठोक सकते हो ताकि लेखक को लगे कि रचना पढ़ी गयी। तुम्हारा झूठ तो सीधे पकड़ में आता है। मेरे अलावा दूसरे भी समझते हैं।’

‘गलती हो गई गुरू। आइन्दा पाँच दस मिनट बाद ही ‘लाइक’ मारूँगा।’

‘पढ़ कर।’

‘बिलकुल गुरुदेव, पढ़कर ही मारूँगा। आप भरोसा रखें। इस बार की भूल को चित्त में न धरें।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 219 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 219 ☆ गीता सुगीता…. ? 

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।

अर्थात धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुए मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?

यह प्रश्न धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा था। यही प्रश्न श्रीमद्भगवद्गीता का प्रथम श्लोक भी है।

18 अध्यायों में विभक्त श्रीमद्भगवद्गीता 700 श्लोकों के माध्यम से जीवन के विभिन्न आयामों का दिव्य मार्गदर्शन है। यह मार्गदर्शन विषाद योग, सांख्य योग, कर्म योग, ज्ञानकर्म-संन्यास योग, कर्म-संन्यास योग, आत्मसंयम योग, ज्ञान-विज्ञान योग, अक्षरब्रह्म योग, राजविद्याराजगुह्य योग, विभूति योग, विश्वरूपदर्शन योग, भक्ति योग, क्षेत्रक्षेत्रज्ञ विभाग योग, गुणत्रयविभाग योग, पुरुषोत्तम योग, दैवासुरसंपद्विभाग योग, श्रद्धात्रय विभाग योग, मोक्षसंन्यास योग द्वारा अभिव्यक्त हुआ है।

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की मोक्षदा एकादशी को गीता का ज्ञान दिया था। गीता जयंती इसी ज्ञानपुंज के प्रस्फुटन का दिन है। इस प्रस्फुटन की कुछ बानगियाँ देखिए-

1) यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचराम्।।

अर्थात, हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह मैं ही हूँ। मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है।

इस श्लोक से स्पष्ट है कि हर जीव, परमात्मा का अंश है।

2) यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।

अर्थात जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

3) न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।

अर्थात न ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तू नहीं था अथवा ये सारे राजा नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।

इसे समझने के लिए मृत्यु का उदाहरण लें। मृत्यु अर्थात देह से चेतन तत्व का विलुप्त होना। आँखों दिखता सत्य है कि किसी एक पार्थिव के विलुप्त होने पर एक अथवा एकाधिक निकटवर्ती उसका प्रतिबिम्ब -सा बन जाता है।

विज्ञान इसे डीएनए का प्रभाव जानता है, अध्यात्म इसे अमरता का सिद्धांत मानता है। अमरता है, सो स्वाभाविक है कि अनादि है, अनंत है।

4) या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥

सब प्राणियोंके लिए जो रात्रि के समान है, उसमें स्थितप्रज्ञ संयमी जागता है और जिन विषयों में सब प्राणी जाग्रत होते हैं, वह मुनिके लिए रात्रि के समान है ।

इसके लिए मुनि शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है। मुनि अर्थात मनन करनेवाला, मननशील। मननशील कोई भी हो सकता है। साधु-संत से लेकर साधारण गृहस्थ तक।

मनन से ही विवेक उत्पन्न होता है। दिवस एवं रात्रि की अवस्था में भेद देख पाने का नाम है विवेक। विवेक से जीवन में चेतना का प्रादुर्भाव होता है। फिर चेतना तो साक्षात ईश्वर है। ..और यह किसी संजय का नहीं स्वयं योगेश्वर का उवाच है। इसकी प्रतीति देखिए-

5) वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।

इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥

मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इंद्र हूँ, इंद्रियों में मन हूँ और प्राणियों की चेतना हूँ।

जिसने भीतर की चेतना को जगा लिया, वह शाश्वत जागृति के पथ पर चल पड़ा। जाग्रत व्यक्ति ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ का अनुयायी होता है।

6) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।

अर्थात कर्म करने मात्र का तुम्हारा अधिकार है, तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।

मनुष्य को सतत निष्काम कर्मरत रहने की प्रेरणा देनेवाला यह श्लोक जीवन का स्वर्णिम सूत्र है। सदियों से इस सूत्र ने असंख्य लोगों के जीवन को दिव्यपथ का अनुगामी किया है।

श्रीमद्भगवद्गीता के ईश्वर उवाच का शब्द-शब्द जीवन के पथिक के लिए दीपस्तंभ है। इसकी महत्ता का वर्णन करते हुए भगवान वेदव्यास कहते हैं,

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रसंग्रहै:।

या स्वंय पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ।।

(महा. भीष्म 43/1)

श्रीमद्भगवद्गीता का ही भली प्रकार से श्रवण, कीर्तन, पठन, पाठन, मनन एवं धारण करना चाहिए क्योंकि यह साक्षात पद्मनाभ भगवान के  मुख कमल से निकली है।

इस सप्ताह गीता जयंती है। इस अवसर पर श्रीमद्भगवद्गीता के नियमित पठन का संकल्प लें। अक्षरों के माध्यम से अक्षरब्रह्य को जानें, सृष्टि के प्रति स्थितप्रज्ञ दृष्टि उत्पन्न करें।

शुभं अस्तु।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 167 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 167 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 167) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 167 ?

☆☆☆☆☆

 ☆ Venerated Passage…

Just tread through my mind

with due reverence only…

My silence too has its own status

and charismatic panache…!

 ☆  ☆

ज़रा आदाब से ही गुज़ारियेगा

मेरे जेहन की सल्तनत में…

मेरी खामोशीयों का भी वहाँ

अपना ही एक रुतबा है…!

☆☆☆☆☆

 ☆ Aspirational Hope ☆

काँटा क्या चुभा पैर में

एक आस सी बांध गई…

कि कोई तो एक गुलाब

जरूर होगा इस गली में….!

 ☆  ☆

Just a thorn prick in the foot,

 rekindled a ray a hope…

That atleast a rose must be

 there in this street…!

☆☆☆☆☆

Doorstep of Fate 

हम भी खड़े थे कतार में,

तकदीर के दरवाजे पे…

लोग दौलत पर मारे, मगर हमने

आप जैसा दोस्त मांग लिया…!

 ☆  ☆

Is too kept standing in the queue

at the allotment door of kismet

People yearned for the wealth

I craved for a friend like you….!

☆☆☆☆☆

Silent Echoes 

अब उसे आवाज देना

ही निहायत बेमानी है,

जिसे मेरी खामोशी की

गूंज सुनाई नहीं देती…!

 ☆  ☆

It’s utterly pointless

To all him now…

Who’s unable to hear the

echo of my silence..!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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