हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 327 ☆ व्यंग्य – “मेड, इन इंडिया…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 327 ☆

?  व्यंग्य – मेड, इन इंडिया…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

 मेड के बिना  घर के सारे सदस्य और खासकर मैडम मैड हो जाती हैं.

मेड की महिमा, उसका महात्म्य कोरोना ने हर घर को समझा दिया है. जब खुद झाड़ू पोंछा, बर्तन, खाना नाश्ता, कपड़े, काल बेल बजते ही बाहर जाकर देखना कि दरवाजे पर कौन है, यह सब करना पड़ा तब समझ आया कि इन सारे कथित नान प्राडक्टिव कामों का तो दिन भर कभी अंत ही नही होता. ये काम तो हनुमान जी की पूंछ की तरह बढ़ते ही जाते हैं. जो बुद्धिजीवी विचारवान लोग हैं, उन्हें लगा कि वाकई मेड का वेतन बढ़ा दिया जाना चाहिये. कारपोरेट सोच वाले मैनेजर दम्पति को समझ आ गया कि असंगठित क्षेत्र की सबसे अधिक महत्वपूर्ण इकाई होती है मेड. बिना झोपड़ियों के बहुमंजिला अट्टालिकायें कितनी बेबस और लाचार हो जाती हैं, यह बात कोरोना टाईम ने एक्सप्लेन कर दिखाई है. भारतीय परिवेश में हाउस मेड एक अनिवार्यता है. हमारा सामाजिक ताना बाना इस तरह बुना हुआ है कि हाउस मेड यानी काम वाली हमारे घर की सदस्य सी बन जाती है. जिसे अच्छे स्वभाव की, साफसुथरा काम करने वाली, विश्वसनीय मेड मिल जावे उसके बड़े भाग्य होते हैं. हमारे देश की ईकानामी इस परस्पर भरोसे में गुंथी हुई अंतहीन माला सी है. किस परिवार में कितने सालों से मेड टिकी हुई है, यह बात उस परिवार के सदस्यो के व्यवहार का अलिखित मापदण्ड और विशेष रूप से गृहणी की सदाशयता की द्योतक होती है.

विदेशों में तो ज्यादातर परिवार अपना काम खुद करते ही हैं, वे पहले से ही आत्मनिर्भर हैं. पर कोरोना पीरियड ने हम सब को स्वाबलंब की नई शिक्षा बिल्कुल मुफ्त दे डाली है. विदेशो में मेड लक्जरी होती है. जब बच्चे बहुत छोटे हों तब मजबूरी में  हाउस मेड रखी जाती हैं. मेड की बड़ी डिग्निटी होती है. उसे वीकली आफ भी मिलता है. वह घर के सदस्य की तरह बराबरी से रहती है. कुछ पाकिस्तानी, भारतीय युवाओ ने जो पति पत्नी दोनो विदेशो में कार्यरत हैं, एक राह निकाल ली है, वे मेड रखने की बनिस्पत बारी बारी से अपने माता पिता को अपने पास बुला लेते हैं. बच्चे के दादा दादी, नाना नानी को पोते पोती के सानिध्य का सुख मिल जाता है, विदेश यात्रा और कुछ घूमना फिरना भी बोनस में हो जाता है, बच्चो का मेड पर होने वाला खर्च बच जाता है.

मेरे एक मित्र तो बहू बेटे को अमेरिका से अपने पास बुलाना ज्यादा पसंद करते हैं, स्वयं वहां जाने की अपेक्षा, क्योंकि यहां जैसे मेड वाले आराम वहां कहां ? बर्तन, कपड़े धोने सुखाने की मशीन हैं जरूर पर मशीन में कपड़े बर्तन डालने निकालने तो पड़ते ही हैं। पराठे रोटी बने बनाए भले मिल जाएं पैकेट बंद पर सारा खाना खुद बनाना होता है। यहां के ठाठ अलग हैं कि चाय भी पलंग पर नसीब हो जाती है मेड के भरोसे । इसीलिए मेड के नखरे उठाने में मैडम जी समझौते कर लेती हैं।

सेल्फ सर्विस वाले अमरीका में होटलों में हमारे यहां की तरह कुनकुने पानी के फिंगर बाउल में  नींबू डालकर हाथ धोना नसीब नहीं, वहां तो कैचप, साल्ट और स्पून तक खुद उठा कर लेना पड़ता है और वेस्ट बिन में खुद ही प्लेट डिस्पोज करनी पड़ती है । मेड की लक्जरी भारत की गरीबी और आबादी के चलते ही नसीब है । मेड इन इंडिया, कपड़े धोने सुखाने प्रेस करने, खाना बनाने से लेकर बर्तन धोने, घर की साफ सफाई, झाड़ू पोंछा फटका का उद्योग है, जिसके चलते रहने से ही साहब साहब हैं और मैडम मैडम । इसलिए मेड, इन इंडिया खूब फले फूले, मोस्ट अनार्गजाइज्ड किंतु वेल मैनेज्ड सेक्टर है मेड, इन इंडिया।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 235 ☆ गीत – घर – घर बड़ा झमेला है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 235 ☆ 

☆ गीत – घर – घर बड़ा झमेला है…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

शिकवे – गिले दूर कर लेना,

आई अंतिम बेला है।

हमने तो बस पुष्प लुटाए,

हंसा चला अकेला है।।

 **

मिलीं उपाधी खुशियों वाली,

अनगिन जन ने प्रेम दिया।

कुछ ने ही खुद काँटे बोकर,

जाने क्या – क्या खेल किया।

 *

चक्रव्यूह – सा जीवन सारा

पाप – पुण्य का खेला है।।

 **

जोड़ा हमने ये भी वो भी

सबका ही इतिहास बना।

पर भूगोल बदल न पाए,

शतरंजी यह पाश बना।

 *

आडम्बर की नई दुकानें

घर – घर बड़ा झमेला है।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 200 – व्यंग्य- – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख “परीक्षा की तैयारी के पंच)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 200 ☆

☆ आलेख – परीक्षा की तैयारी के पंच ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

परीक्षा की तैयारी छात्र जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती है। यह सफलता प्राप्त करने का एक माध्यम है, लेकिन इसके लिए सही रणनीति और मानसिक तैयारी की आवश्यकता होती है। हम इसकी जितनी बेहतर तैयारी करेंगे सफलता उसी अनुपात में हमें प्राप्त होगी।यही वजह है कि अच्छे परिणामों के लिए एक व्यवस्थित योजना बनानी चाहिए और उसे समय पर लागू करना चाहिए।

1. समय प्रबंधन:

राजीव कहता है कि यदि समय प्रबंधन करके मैंने पढ़ाई नहीं की होती तो मैं आज सर्वोत्तम अंकों से उत्तीर्ण नहीं होता। यही वजह हैं कि छात्रों के लिए सबसे पहले, समय का सही उपयोग करना आवश्यक है। इसके लिए आप तीन काम कर सकते हैं –

अध्ययन के लिए निश्चित समय तय करें और उसे नियमित रूप से पालन करें।

लिखने और पढ़ने का एक टाइम टेबल बनाकर उसे सही तरीके से फॉलो करें।

इसके साथ खेलने और मनोरंजन का समय भी तय करें।

2. विषयों को प्राथमिकता:

अपने समय में सर्वोत्तम अंकों से उत्तीर्ण हुई अनीता का कहना है कि सबसे पहले मैंने अपनी कमजोरी को समझा। मैं किस विषय में कमजोर हूं। यह जानकर मैंने विषय को प्राथमिकता देना तय किया। इसके लिए मैंने एक महत्वपूर्ण कार्य किया जो इस प्रकार है–

सभी विषयों को एक समान महत्व देने के बजाय, कठिन और महत्वपूर्ण विषयों को पहले तय करें।

उन्हें अच्छे से समझने का प्रयास करें।

अध्ययन के समय पहले कठिन फिर सरल, फिर कठिन और फिर सरल के क्रम में विषय को विभक्ति करें। तदनुसार उसको समझने का प्रयास करें।

3. मानसिक शांति:

वैभव कहता है कि एक बात बहुत जरूरी है जिनका छात्र कभी ध्यान नहीं रखते हैं। वह है- परीक्षा के समय तनाव प्रबंधन करने की। परीक्षा के समय मानसिक तनाव सामान्य होना, सामान्य बात होती है, मगर इसे नियंत्रित करना जरूरी है। इसके लिए प्रत्येक छात्र को दोएक काम करना चाहिए–

योग, ध्यान, और अच्छी नींद नियमित रूप से ले।

परीक्षा से घबरा बिना मानसिक शांति बनाए रखें।

4. निरंतर अभ्यास:

गौरव अपनी सफलता का राज अपने अभ्यास को देता है। उसका कहना है कि हरेक छात्र को यह काम नियमित रूप से करना चाहिए—

नियमित रूप से मॉक टेस्ट और पुराने प्रश्न पत्र को हल करें। इससे न केवल आत्मविश्वास बढ़ता है, बल्कि परीक्षा के पैटर्न का भी ज्ञान होता है।

5. आत्म-मूल्यांकन:

मोनिका कहती है कि परीक्षा में आत्मविश्वास बनाए रखना सबसे बड़ी बात है। यदि हमने अपना आत्म मूल्यांकन किया हो तो हमें अपने ऊपर आत्मविश्वास भरपूर होता है। इसके लिए हम निम्न काम कर सकते हैं –

समय-समय पर अपनी तैयारी का मूल्यांकन करें।

यह देखे कि कौनसा विषय मजबूत हैं और किसमें सुधार की आवश्यकता है।

जिसमें सुधार की आवश्यकता है उसमें मेहनत करके उसमें सुधार करें।

निष्कर्षतः

राहुल का कहना है कि इसके बावजूद हमें एक बात सदैव ध्यान रखना चाहिए। परीक्षा की तैयारी धैर्य, समर्पण और सही दिशा से की जाए तो सफलता प्राप्त की जा सकती है। इसे अपने आत्मविश्वास और सही दृष्टिकोण से अपनाने की जरूरत है। इस बात को हमें कभी नहीं भूलना चाहिए।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

03/01/2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ३९ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ३९ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- “शांत हो. काळजी नको करू. सगळं व्यवस्थित होईल. बेबीचं तर होईलच तसं तुझंही होईल. येत्या चार दिवसात तुला दत्तमहाराजांनी ठरवलेल्या स्थळाकडूनच मागणी येईल. बघशील तू”

 बाबा गंमतीने हसत म्हणाले. कांहीच न समजल्यासारखी ती त्यांच्याकडे पहातच राहिली. )

 आज जवळजवळ पन्नास वर्षांनंतर हे सगळे प्रसंग नव्याने आठवताना त्या आठवणींमधला एकही धागा विसविशीत झालेला किंवा तुटलेला नसतो ते त्या अनुभवांच्या त्या त्या वेळी माझ्या अंतर्मनाला जाणवलेल्या अलौकिक अनुभूतीमुळे! आणि या अनुभूतीमधला मुख्य दुवा ठरली होती ती हीच लिलाताई!

 लिलाताई माझ्यापेक्षा जवळजवळ बारा वर्षांनी मोठी. अर्थातच माझ्या सर्वात मोठ्या बहिणीपेक्षाही सहा वर्षांनी मोठी. केवळ वयातलं अंतर म्हणूनच ती माझी ताई नव्हती तर तिने आपल्या सख्ख्या दहा भावंडांइतकंच आमच्यावरही मोठ्या बहिणीसारखंच प्रेम केलं होतं! मी तर तिचा तिच्या लहान भावंडांपेक्षाही कणभर जास्तच लाडका होतो. आम्ही त्यांच्या शेजारी रहायला गेलो तेव्हा मी चौथीतून पाचवीत गेलो होतो. त्याआधी मला अभ्यासात कांही शंका आली तर आईला किंवा मोठ्या बहिणीला विचारायचो. आता त्याकरता लिलाताई माझा पहिला चाॅईस असायची. तिचं शांतपणे मला समजेल असं समजावून सांगणं मला आवडायचं. माझी पुढची चारपाच वर्षे शाळेतल्या सगळ्या बौध्दिक स्पर्धांची तयारीसुध्दा तीच करुन घ्यायची चित्रकला, वक्तृत्व, कथाकथन, गद्यपाठांतर, गीतापठण, निबंधलेखन, हस्ताक्षर अशा सगळ्या स्पर्धांची तिने करुन घेतलेली तयारी म्हणजे खणखणीत नाणंच. अशा सगळ्या स्पर्धांत मला बक्षिसं मिळायची, कौतुक व्हायचं तेव्हा मिळालेलं बक्षिस, प्रमाणपत्र हातात घट्ट धरुन मी पळत घरी यायचो ते थेट शेजारी लिलाताईकडेच धाव घ्यायचो. तिला मनापासून झालेला आनंद, तिच्या नजरेतलं कौतुक आणि मला जवळ घेऊन तिने दिलेली शाबासकी हेच माझ्यासाठी शाळेत मिळालेल्या बक्षिसापेक्षाही खूप मोठं बक्षिस असायचं! तिच्यासोबतचे माझे हे भावबंध गतजन्मीचे ऋणानुबंधच म्हणायला हवेत. विशेषकरुन मला तसे वाटतात ते नंतर आलेल्या ‘अलौकिक’ अनुभवामुळेच!!

 बाबांनी सांगितल्याप्रमाणे ती बाहेर जाऊन दत्ताला नमस्कार करुन आली, बाबांनी दिलेला तीर्थप्रसाद घेतला. बाबांना नमस्कार करून झरकन् वळली आणि डोळे पुसत खालमानेनं घरी निघून गेली.

 “किती गुणी मुलगी आहे ना हो ही? दुखावली गेलीय बिचारी. तिच्या डोळ्यांत पाणी बघून बरं नाही वाटत. “

 ” ते दु:खाचे नाहीत, पश्चातापाचे अश्रू आहेत. देव पहातोय सगळं. तो तिची काळजी नक्की घेईल. बघच तू. “

 बाबांच्या तोंडून सहजपणे बाहेर पडलेल्या या सरळसाध्या शब्दांमधे लपलेलं गूढ त्यांनाही त्याक्षणी जाणवलेलं होतं की नाही कुणास ठाऊक पण त्याची आश्चर्यकारकपणे उकल झाली ती पुढे चारच दिवसांनी कुरुंदवाडच्या बिडकर जमीनदारांच्या घराण्यातून लिलाताईसाठी मागणी आली तेव्हा!!

 हे सर्वांसाठीच अनपेक्षितच नाही तर सुखद आश्चर्यकारकही होतं!

 लिलाताईच्या आनंदाला तर पारावार नव्हता. “शांत हो. काळजी नको करू. सगळं व्यवस्थित होईल. बेबीचं तर होईलच, तसंच तुझंही होईल. येत्या चार दिवसात तुला दत्त महाराजांनी ठरवलेल्या स्थळाकडूनच मागणी येईल. बघशील तू. ” बाबांच्या अगदी अंतःकरणापासून व्यक्त झालेल्या या बोलण्यातला शब्द न् शब्द असा खरा झाला होता! कारण तिला मागणी आली होती ती कुरुंदवाडच्या जमीनदार घराण्याकडून!!

 “काका, मी लग्न होऊन सासरी गेले तरी आता नित्य दत्तदर्शन चुकवायची नाही. कारण कुरुंदवाडहून नृसिंहवाडी म्हणजे फक्त एक मैल दूर. हो की नै?” तिने बाबांना त्याच आनंदाच्या भरात विचारले होते.

 “तुझी मनापासून इच्छा आहे ना? झालं तर मग. तुझ्या मनासारखं होईल. पण त्यासाठी अट्टाहास नको करू. तू सासरी जातेयस. आधी त्या घरची एक हो. तुझं कर्तव्य चुकवू नको. बाकी सगळं दत्त महाराजांवर सोपवून निश्चिंत रहा. “

 बाबांनी तिला समजावलं होतं.

 पाटील आणि बिडकर या दोन्ही कुटुंबांची कोणत्याच बाबतीत बरोबरी होऊ शकत नव्हती. पाटील कुटुंब कसंबसं गुजराण करणारं. बिडकर जमीनदार घराणं. सख्खं-चुलत असं वीस बावीस जणांचं

एकत्र कुटुंब. उदंड धनधान्य. दुभती जनावरं त्यामुळं दूधदुभतं भरपूर. ददात कशाचीच नव्हती. रोज दिवसभर डोक्यावर पदर घेऊन वावरणं मात्र लिलाताईला एक दिव्य वाटायचं. इकडच्या मोकळ्या वातावरणामुळे या कशाची तिला सवयच नव्हती. पण सासरची माणसं सगळी चांगली होती. हिच्या डोक्यावरचा पदर पहिल्या दिवशी सारखा सारखा घसरत राहिला तेव्हा सगळ्या सासवा एकमेकींकडे पाहून गंमतीने हसायच्या. तिला सांभाळून घ्यायच्या. ‘सवयीने जमेल हळूहळू’ म्हणायच्या. दारापुढं हिने काढलेल्या रांगोळ्या बघून बायकाच नव्हे तर घरातले कर्ते पुरुषही तिचं मनापासून कौतुक करायचे. मूळच्याच शांत, हसतमुख, कलासक्त, कामसू, सुस्वभावी लिलाताई त्या आपुलकीच्या वातावरणामुळे अल्पकाळातच त्या घरचीच एक कधी होऊन गेली तिचं तिलाच समजलं नाही.

 “घरचं सगळं आवरून मी नृसिंहवाडीला रोज दर्शनाला जाऊन आले तर चालेल?”

 एक दिवस तिने नवऱ्याला विचारलं. त्याने चमकून तिच्याकडे पाहिलं.

 “एकटीच?”

 “हो. त्यात काय?”

 “घरी नाही आवडायचं. “

 “कुणाला?”

 “कुणालाच. मोठे काका नकोच म्हणणार. ते म्हणतील तीच पूर्व दिशा असते. “

 “मी विचारु त्यांना?”

 “तू? भलतंच काय?”

 “मग मोठ्या काकींना विचारते हवंतर. त्या परवानगी काढतील. चालेल?”

 तिच्या निरागस प्रश्नाचं त्याला हसूच आलं होतं.

 “नको. मी बोलतो. विचारतो काकांना. ते हो म्हणाले तरच जायचं”

 “बरं” तिने नाईलाजाने होकारार्थी मान हलवली. काका काय म्हणतील या विचाराने रात्रभर तिच्या डोळ्याला डोळा लागला नव्हता.

 “देवदर्शनालाच जातेय तर जाऊ दे तिला. पण एकटीने नाही जायचं. तू तिच्या सोबतीला जात जा. त्यानिमित्ताने तुझंही देवदर्शन होऊ दे. ” काका म्हणाले. घरच्या इतर बायका़ंसाठी हे आक्रीतच घडलं होतं. ज्या घरच्या बायका आजपर्यंत नवऱ्याबरोबर कधी फिरायला म्हणून घराबाहेर पडल्या नव्हत्या त्याच घरची ही मोठी सून रीतसर परवानगी घेऊन रोज देवदर्शनासाठी कां असेना नवऱ्याबरोबर फिरून येणार होती याचं त्या सगळ्यांजणींना अप्रूपच वाटत राहिलं होतं!

 दुसऱ्याच दिवसापासून लिलाताईचं नित्य दत्तदर्शन सुरु झालं. पहाटे उठून आंघोळी आवरून झपाझप चालत दोघेही नृसिंहवाडीची वाट धरायचे. दर्शन घेऊन अर्ध्यापाऊण तासात परतही यायचे.

 लिलाताईच्या या नित्यनेमानेच तिला आमच्याशीही जोडून ठेवलं होते. कारण मोबाईल नसलेल्या पूर्वीच्या त्या काळात पाटील कुटुंबीयांपैकी बाकी कोणाशीच भेटीगाठी, संपर्क राहिला नव्हता. पण लिलाताई मात्र आम्हाला अधून मधून भेटायची ती तिच्या या नित्यनेमामुळेच. आईचाही पौर्णिमेला वाडीला जायचा नेम असल्याने दर पौर्णिमेला न ठरवताही लिलाताईची न् तिची भेट व्हायचीच. लिलाताई रोज तिथे आली की ‘अवधूत मिठाई भांडार’ मधेच चप्पल काढून ठेवून दर्शनाला जायची. पौर्णिमेदिवशी “लिमयेवहिनी आल्यात का हो?” अशी त्यांच्याकडे चौकशी ठरलेलीच. त्यांच्यामार्फत निरोपानिरोपी तर नेहमीचीच. कधी आईला सवड असेल तेव्हा आग्रहाने कुरुंदवाडला आपल्या सासरघरी घेऊन जायची. पुढे माझा नित्यनेम सुरु झाल्यावर आम्हीही संपर्कात राहू लागलो.

 हे सगळे घटनाप्रसंग १९५९ पासून नंतर लिलाताई १९६४ साली लग्न होऊन कुरुंदवाडला गेली त्या दरम्यानच्या काळातले. पण तिचा तोच नित्यनेम पुढे प्रदीर्घकाळ उलटून गेल्यानंतर माझ्या संसारात अचानक निर्माण झालेल्या दु:खाच्या झंझावातात मला सावरुन माझ्या दु:खावर हळूवार फुंकर घालणाराय याची पुसटशी कल्पनाही मला तेव्हा नव्हती.

 प्रत्येकाच्याच आयुष्यात घडणाऱ्या वरवर सहजसाध्या वाटणाऱ्या घटनांचे धागेदोरे ‘त्या’नेच परस्परांशी कसे जाणीवपूर्वक जोडून ठेवलेले असतात याचा प्रत्यय मात्र त्यानिमित्ताने मला येणार होता!!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #263 – कविता – ☆ हम पढ़ रहे ककहरे हैं… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता हम पढ़ रहे ककहरे हैं…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #263 ☆

☆ हम पढ़ रहे ककहरे हैं… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

हम पढ़ रहे ककहरे हैं

विषय बाद के गहरे हैं।

कौन सुनें मन की बातें

कान सभी के बहरे हैं।

 *

अलग अलग सब के झंडे

एक साथ कब फहरे हैं।

 *

गठबंधन को  यूँ समझें

आती जाती लहरें हैं।

 *

वे सरिता वे हैं सागर

बाकी केवल नहरें हैं।

 *

सोच समझ कर कहें सुनें

लगे चतुर्दिश पहरे हैं।

 *

है कुछ दिन की बात यहाँ

बस कुछ पल को ठहरे हैं।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 87 ☆ किसको दें इल्ज़ाम… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “किसको दें इल्ज़ाम…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 87 ☆ किसको दें इल्ज़ाम… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

शहर बिक गया

औने-पौने दाम।

 

कचरा ठेके पर

बिजली की आँखमिचोली

गड्ढों में सड़कें

सड़कों पर धूल की होली

शहर सो गया

बोलो सीताराम ।

 

सत्ता खेले खेल

दाँव पर लगी है जनता

पैसों के पीछे

चकमक में खोया रिश्ता

शहर लुट गया

गली-गली बदनाम।

 

सुस्त पड़े कानून

नियम सब कागज ढोते

मंदिर-मस्जिद के

झगड़े में वैमनस्य बोते

शहर रुक गया

किसको दें इल्ज़ाम ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

१०.१२.२४

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 91 ☆ हाथों को मिलाना है महज रस्म निभाना… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “हाथों को मिलाना है महज रस्म निभाना“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 91 ☆

✍ हाथों को मिलाना है महज रस्म निभाना… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

मतलब पे नहीं झूठ को तू सत्य कहा कर

इतना भी न किरदार से तू दोस्त गिरा कर

*

इंसान करे जैसा है अंजाम भी वैसा

मज़लूम पे ऐसे न सितम देख किया कर

*

मलहम न लगा सकते न कर सकते हवा गर

ज़ख्मों पे किसी के नहीं तू लौन मला कर

*

अल्लाह हर इक वंदे की करता है ख़ता मुआफ़

मतलब नहीं है ये कि ख़ताऐं तू किया कर

*

ये शौक़ ख़राबात के लाते है सड़क पर

फिर क्या तू करेगा बता विरसे को उड़ा कर

*

ये प्यार भी क्या चीज है दो ज़िस्म हों इक जां

खुद अश्क़ बहाते है सनम तुमको सता कर

*

दमकल के नहीं वश का बुझा पाना है देखो

नफ़रत के शरारों से कभी आग लगा कर

*

हाथों को मिलाना है महज रस्म निभाना

यक ज़हती को मजबूत करो दिल को मिला कर

*

भारी कोई हुंडी या खज़ाना मिला है क्या

जो आपने हासिल किया है मुझको भुला कर

*

खरसूदा रिवायात है सदियों से अभी तक

क्या पाया है दुनिया ने मुहब्बत को ज़ुदा कर

*

दे आया है बदले में तू ईमान व पगड़ी

क्या पास अरुण रह गया है ताज को पा कर

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 5 ☆ लघुकथा – जल है तो कल है… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “जल है तो कल है“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 5 ☆

✍ लघुकथा – जल है तो कल है… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह 

जल की उपयोगिता और आवश्यकता बताने के लिए तरह तरह के नारे लगाए जा रहे हैं। रणजीत जब भी घर में देखता है कि नल चल रहा है और उसकी मम्मी बर्तन घिस रही है। यानी पानी बेकार बह रहा है। वह चीख पड़ता है, “मम्मी, प्लीज़, नल तो बंद कर दो, पानी बेकार बह रहा है। अगर ऐसे ही पानी बहाना है तो यह स्लोगन क्यों टाँग रखा है, “जल है तो कल है।”

रणजीत घर से बाहर निकल जाता है। उसका मन उदास हो जाता है। अभी वह दस वर्ष का है और सोचता है ” जब मैं जवान होऊंगा तो पानी की हालत क्या होगी।  क्या हम प्यासे ही मर जाएंगे?”  वह अपनी गर्दन झटकता है, “नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अपने भविष्य के लिए कुछ करना होगा।” सोहन की आवाज़ सुनकर वह होश में आता है। सोहन पूछता है,”कहाँ खोए हुए थे।” विचारमग्न अवस्था में रणजीत ने सोहन से पूछा, ” तुम्हारे घर में ऐसा होता है कि नल चलता रहे और पानी बहता रहे।” सोहन बोला, “हाँ होता है, माँ बर्तन माँजती है तो नल चलता रहता है। ऐसे ही नहाते समय भी होता है कि हम साबुन लगा रहे होते हैं पर नल चलता रहता है। लेकिन हुआ क्या?”

रणजीत ने धीरे से कहा, ” यार ऐसे ही चलता रहा तो हम बड़े होकर प्यासे ही मर जाएंगे। हमारे लिए तो पानी बचेगा ही नहीं।  सब कहते हैं, जल है तो कल है, पर कल की चिंता तो किसी को है ही नहीं।”  सोहन बोला, ” हाँ रणजीत मैंने जगह जगह लिखा देखा है, जल है तो कल है, पर पानी बरबाद करते रहते हैं।  मैंने बड़े लोगों के मुँह से सुना है कि जमीन में पानी का लेवल नीचे चला गया है, पीने के पानी का संकट बढता जा रहा है।” रणजीत बोला, ” यही तो मेरी चिंता है पर हम छोटे बच्चे हैं, करें क्या?” सोहन बोला, “कहते तो तुम ठीक हो। क्या स्कूल में अपनी मिस से बात करें। वो बहुत अच्छी हैं और बड़ी भी हैं, हमारी बात सुनेंगी और कुछ करेंगी भी। घर में तो किसी से कहना बेकार है। ऐसी बातों को फालतू समझते हैं।” “तो मिला हाथ, कल मिस से बात करेंगे।” सोहन गर्व से बोला। लेकिन दोनों बच्चों ने और प्रयास किए और अपनी क्लास के बच्चों को भी बताया। पूरी क्लास के बच्चे मिस से बात करने को तैयार हो गए।

जब मिस से बात की तो वह बहुत प्रभावित हुई और उसने कहा कि शुरूआत घर से ही होनी चाहिए। उसने कहा ” घर जाकर एक तख्ती पर लिखना “हमारी रक्षा करो, जल है तो कल है, और हम ही कल हैं।”  और दो दो या चार बच्चे वह तख्ती लेकर अपनी सोसायटी में मेन गेट के पास ऐसे खड़े होना कि आने जाने वाले सभी लोग तख्ती देख पढ सकें।”… “और हाँ अगले दिन तख्ती लेकर स्कूल में आ जाना।” बच्चों ने ऐसा ही किया। लोग रुकते और तख्ती पढकर अपने घर चले जाते।  रणजीत जब अपने घर पहुँचा तो उसकी मम्मी ने बड़े लाड़ से अपने पास बिठाया और दोनों कानों पर हाथ रखकर कहने लगी ” सॉरी रणजीत, ऐसी गलती अब नहीं होगी।” ऐसा ही कुछ सोहन के यहाँ भी हुआ। रणजीत अपनी सफलता पर बहुत खुश हुआ। अगले दिन रणजीत की क्लास के बच्चे स्कूल पहुँचे तो अपने अपने घर के अनुभव मिस को सुनाए। अब मिस ने स्कूल छूटने के समय उन बच्चों को एक कतार में खड़ा कर दिया जहाँ बच्चों को लेने पेरेंट्स आते हैं। सभी बच्चों के पेरेंट्स ने पढा। दूसरे दिन स्कूल के सभी बच्चे तख्ती बनाकर ले आए। और तख्ती हाथ में लेकर स्कूल से निकलने लगे।

 मिस ने बच्चों को समझाया कि जब किसी चौराहे पर लाल बत्ती देखकर तुम्हारी गाड़ी रुक जाए तो गाड़ी से उतर कर सबको तख्ती दिखलाओ। धीरे धीरे तख्ती की खबर मीडिया तक पहुँची। और अखबारों तथा चैनलों पर इसकी चर्चा होने लगी। रणजीत और सोहन बहुत खुश थे कि उन्होंने अपने कल के लिए कुछ तो किया। अपना कल बचाने की दिशा में एक छोटा सा कदम।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 55 – मिस मैचिंग…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मिस मैचिंग।)

☆ लघुकथा # 55 – मिस मैचिंग  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

एक रिसोर्ट में पार्टी हैं ऑफिस के सभी लोग अपने परिवार के साथ आ रहे हैं। मेरे बॉस सुशांत सर ने कहा है कि तुम्हें जरूर आना है। तुम ठीक 1:00 बजे पहुंच जाना अरुण ने फोन पर कहा। घर के काम और सभी की सेवा में रोज लगी रहती हो देखना देर नहीं होनी चाहिए?

प्राची ने अपनी सास से कहा कि मां मुझे ऑफिस की पार्टी में जाना है घर का सारा काम हो चुका है मैं 11:00 बजे निकलती हूं तभी समय पर वहां पहुंच पाऊंगी।

सास ने हां कर दी बोली तुम जाओ तुम्हारे पति को बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता है। उसने जीवन में कोई काम अच्छा नहीं किया। लेकिन, तुम्हें चुनकर हमारे लिए यह काम सबसे अच्छा किया है।

वह तैयार होकर पीले परिधान में जाती है पर उसका उसे शूट के साथ का दुपट्टा नहीं मिल रहा था इसलिए उसने लाल रंग का दुपट्टा डाला और एक पीला शॉल लेकर घर से बाहर निकली।

उसे विचार आया कि क्यों ना मैं सिटी बस में बैठकर आराम से जाती हूं, एंजॉय करते हुए जैसे कॉलेज में अपनी सखियों के साथ जाती थी। बस में बैठकर उसने कंडक्टर से कहा जब सिटी पार्क आएगा तो मुझे बता देना ।

बस पूरी खचाखच भरी थी उसमें कुछ बेचने वाले भी चढ़ गए थे। कई लोग खरीद भी रहे थे।  उसने भी दो कान के झुमके और चूड़ियां खरीद लिया।

फिर सोचने लगी की कॉलेज के दिन कितने अच्छे थे तब अरुण मेरा कितना ख्याल भी रखते थे लेकिन यह नहीं पता था कि वह अकाउंटेंट और गणित में इतना खो जाएंगे। एक-एक चीज का हिसाब किताब रखेंगे। अब तो पल-पल और सांसों का भी हिसाब किताब रखते हैं।

काश! मैं भी कुछ काम करती लेकिन घर में सब लोगों के चेहरे पर खुशी देखकर मुझे एक  शांति मिलती है।

तभी फोन की घंटी बाजी। उसने उठाया और कहा हेलो इतनी देर से मैं तुम्हें फोन कर रहा हूं तुम फोन उठा क्यों नहीं रही हो, घर से निकली या नहीं?

हां मैं घर से निकल चुकी हूं आप चिंता मत करो  सिटी पार्क में आपको मिल जाऊंगी। आधे घंटे में मैं वहां पहुंच जाऊंगी। अरे तुम तो जल्दी आ गई। ठीक है मैं भी ऑफिस से वहां पर पहुंच जाता हूं। वह जैसे ही बस से उतरती है तो देखती है कि अरुण वहीं पर खड़ा है। तुमने झूठ क्यों कहा कि तुम देर से पहुंचोगे।

यह तुमने क्या पहन रखा है?

आज के दिन पीला कलर का कपड़ा पहनना चाहिए और मुझे दुपट्टा नहीं मिल रहा था ? आजकल फैशन भी यही है?

अरुण धीरे से मुस्कुराया। तुम अच्छी लग रही हो।

मैं या मेरे कपड़े प्राची ने कहा।

तुम्हारे कपड़े भी हमारी तरह है हम लोग भी अलग होकर एक है मिस मैचिंग।

प्राची ने कहा – जिस तरह खिचड़ी संक्रांति में सब कुछ डालकर बनती है हम लोग भी ऐसे हैं।

दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर रिसोर्ट में जल्दी जल्दी जाने लगते हैं।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 256 ☆ तिळगुळ… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 256 ?

☆ तिळगुळ… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

संक्रातीच्या गोड दिवसाच्या ,

अनेक आहेत आठवणी,

हेडसरांच्या घरी,

मिळायची मोठ्ठी तिळवडी!

आईच्या चंद्रकळेवर,

चांदण्याची खडी ,

संक्रातीचा दिवस खूपच छान,

लहानपणी नव्हतंच कसलं भान !

  आत्ताच आला ,

बालमैत्रीणीचा फोन,

“तिळगुळ घे गोड बोल”

म्हटलं, “तिळगुळ घे गोड बोल”!

 

“ओवसून आलीस का ?”

म्हटलं , “नाही गं , तसलं काही नाही करत !”

पूर्वी हे सर्व केलंय रूढी परंपरेनं,

अंतर्मुख झाले तिच्या फोन नं !

पारंपरिक जगणं,

सोडून माणूस म्हणून,

जगण्याचा ध्यास घेतला —

तेव्हापासूनच आयुष्य,

मुक्त होत गेलेलं!

जगण्याचे दोन प्रवाह,

समांतर!!

बदललं आयुष्य पण—

तिळ आणि गुळ तोच —

जीवनाची गोडी वाढवीत,

दरवर्षीच तो संदेश देणारा–

  तिळगुळ घ्या गोड बोला

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares