हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 244 ☆ लघुकथा – रील बनाम रियल लाइफ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – रील बनाम रियल लाइफ)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 244 ☆

? लघुकथा – रील बनाम रियल लाइफ  ?

उसने कैमरा स्टैंड पर लगाया, फोकस किया और हिट गाने के मुखडे पर, अधखुले कपड़ों में बेहूदे बेढ़ब लटके झटके का डांस कैमरे में कैद किया। थोड़ी एडिटिंग करनी पड़ी, पर उसे लगता है एक बढ़िया रील बन गई। इंस्टा, फेसबुक, यू ट्यूब हर प्लेटफार्म पर प्लीज लाइक, शेयर, सब्सक्राइब की रिक्वेस्ट करते हुये रील अपलोड कर दी। उसके फालोअर हजारों में हो चुके हैं। उसने सोचा यदि यह रील हिट हो गई तो अकेले यू ट्यूब से ही इतनी कमाई तो हो ही जायेगी कि इस महीने बापू के इलाज में जो खर्च पड़ा है वह निकल जायेगा। पर वह रील के हिट्स पर भरोसा नहीं कर सकती थी। उसने रील बनाने के लिये पहने हुये कपड़े बदले और रियल लाइफ का सामना करने के लिये तैयार होकर काम पर निकल पड़ी।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #24 ☆ कविता – “मौत…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 24 ☆

☆ कविता ☆ “मौत…☆ श्री आशिष मुळे ☆

ए मेरी दिलरुबा, किसी दिन तो मिलोगी

मेरे इश्क की कयामत, कभी तो लाओगी ।

वैसे लोग बहुत डरते है तुझसे

लेकिन इश्क करते है तेरी बहन से ।

 

बहन से बहन कब तक अलग रहेगी

आज नहीं तो कल जरूर मिलेगी ।

शायर हूँ मै, प्यार करता हूँ तुम दोनों से

जानता हूँ कीमत दोनों की, तुम रूठो ना मुझसे ।

 

अगर समय पे तुम ना आओ,

 तो तुम्हारी बहन बेकाबू होती है

तुम्हारे हवाले मुझे, वही तो सौंपती है ।

वैसे जुनून पैदा तो, वो करती है

मगर समझदार तो, तुम्हारी याद बनाती है ।

 

जो कमिया बदली नहीं जाती

उन्हें समाप्त तुम ही करती हो ।

तुम्हारी बहन की गलतियां

माफ़ तो तुम ही करती हो ।

 

तुम दोनों जरूरी हो

असल मे जीने के लिए

वक्त पर आ जाना

मेरी हयात अमीर बनाने के लिए ।

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #157 – “मेरी आत्मकथा – पहचानो मैं कौन हूं ?” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  रचित – “मेरी आत्मकथा -पहचानो मैं कौन हूं ?)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 157 ☆

 ☆ मेरी आत्मकथा -पहचानो मैं कौन हूं ? ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

 मैं अपने बारे में सब कुछ बताऊंगा। तब आप को मेरे बारे में बताना है । क्या, आप मेरे आत्मकथा सुनना चाहते हो ? हां, तो लो सुनो। मैं अपनी आत्मकथा सुनाता हूं।

मेरे बिना दुनिया का काम नहीं चलता है । आप भी मेरे बिना नहीं रह सकते हो। यह सुन कर आप को मेरे बारे में कुछ पता नहीं चला होगा ?

चलो ! मैं अपने बारे में और कुछ बताता हूं। मुझे सब से पहले हान राजवंश के समय खोजा गया था । मेरे खोजकर्ता का नाम काईलुन था। यह 202 ई की बात है । उस से पहले मेरे अन्य रूप का उपयोग किया जाता था। उस समय तक मुझे बांस या रेशम के कपड़े के टुकड़े के रूप में उपयोग में  लिया जाता था।

अब आपको कुछ पता चला ? नहीं । कोई बात नहीं। मैं कुछ ओर बताता हूं । इस रुप के बाद में मुझे भांग, शहतूत, पेड़ की छाल तथा अन्य रेशों की सहायता से बनाया जाने लगा। उस वक्त मैं मोटा और खुरदरा था । मुझे कई तरकीब से चिकना किया जाता था ।

मेरा आविष्कार जिस व्यक्ति ने किया था उस कोईलुन को कागज का संत कहते थे।

मैं 610 में चीन से चला था। यहां से जापान पहुंचा। मैं वही नहीं रुका। मैं ने अपनी यात्रा जारी रखी। यहां से होता हुआ 751 में समरकंद पहुंच गया। यहां मुझे बहुत प्यार और मोहब्बत मिली।

इसलिए मैंने अपनी यात्रा जारी रखी है। वहीं से 793 में बगदाद पहुंचा। यहां मेरा बहुत उपयोग किया गया। यहां से मैं 1150 में स्पेन पहुंचा। जहां सबसे पहले व्यापारिक तौर पर  मेरा निर्माण शुरू हुआ।

लोग मुझे बहुत प्यार करते थे । मेरी वजह से ही उन को बहुत सी बातें याद रहती थी।  इसलिए वे मुझे अपनी यात्रा में अपने साथ ले जाते रहे । मेरी यात्रा यहीं नहीं रुकी। यहां से इटली, फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड, पोलैंड होते हुए आस्ट्रिया, रूस, डेनमार्क, नार्वे पहुंचा। इस तरह मैं धीरे-धीरे मैं पूरे विश्व में फैल गया।

पहले पहल में बहुत मोटा बनाया जाता था। धीरे-धीरे मुझ में बहुत सुधार हुआ। आजकल बहुत ही पतला बनाया जाने लगा हूं। इतना पतला कि आप मेरा अंदाज नहीं लगा सकते।

आपको पता होगा कि मिस्र में नील नदी बहती है। उसी के किनारे पेपरिस नामक घास बहुतायात में पैदा होती है। इस  घास के डंठल के बाहरी आवरण रेशेदार होते हैं । इसी रेशेदार आवरण से मुझे बनाया जाने लगा।

इस के लिए वे एक विधि का उपयोग करते थे। घास के रेशे को आड़ातिरछा जमा लिया जाता था। फिर भारी चीज से दबा दिया जाता था। तब उसे सुखा लिया जाता था। सूखने पर ही मेरा उपयोग किया जाता था। इसे पेपरिस कहते थे । जो आगे चल कर पेपर कहलाया।

इस के पूर्व, अलग रूप में मेरा उपयोग होता था । रूस तथा यूनान में लकड़ी की पतले पटिए का उपयोग किया जाता था। वहीं चीन में 250  ई.पू. कपड़े के रुप में  मेरा उपयोग होता था। उस पर  ऊंट के बालों से बने ब्रश से मुझ पर लिखा जाता था।

भारत में ताड़ नामक वृक्ष पाया जाता है। इस वृक्ष के पत्ते को ताड़पत्र कहते हैं । यहां ताड़पत्र के रूप में मेरे उपयोग किया जाने लगा। भोजपत्र नामक वृक्ष एक पतली परत छोड़ता है । इसी पतली पर्त पर मेरा उपयोग किया जाता था।

प्राचीन रोम में जिस वृक्ष की छाल का लिखने के लिए उपयोग करते थे उसे लिबर कहते थे। जहां इस पत्र को रखते थे उसे लिब्रेरी कहा जाता था। यही शब्द आगे चल कर लैटिन में लाइब्रेरी बना।

यूनान में 4000 वर्ष पूर्व भेड़बकरी की खाल का उपयोग किया जाता था। इसी पर लिखा जाता था। इस पर पार्चमेंट से लिखते थे। यह लिखी हुई खाल बहुत ज्यादा सुरक्षित मानी जाती थी।

अब तो आप समझ गए होंगे कि मुझे क्या कहते हैं ? नहीं समझे  ? तो मैं बताता हूं। मुझे हिन्दी में कागज या पन्ना और अंग्रेजी में पेपर कहा जाता है । यही मेरी कहानी है।

आशा है आप को मेरी कहानी यानी आत्मकथा बहुत पसंद आई होगी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

09-02-2021

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 184 ☆ बाल कविता – शक्ति खुद की जानो जी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 184 ☆

☆ बाल कविताशक्ति खुद की जानो जी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

मुश्किल में जो ना घबराए

     उसे कहें हिम्मतवाला।

धैर्य रखे जो मुसीबतों में

      होता विजयी मतवाला।।

 

इन्द्रियों पर करे नियंत्रण

      उसे कहें संयमवाला।

अलख जगाए अन्नकोश की

      कभी न पीए वह हाला।।

 

करता शाकाहार सदा ही

       प्रेम पगा भोजन खाए।

खूब चबाकर शांत चित्त से

      सदा ईश के गुण गाए।।

 

सिद्धान्तों पर जीने वाले

    यश वैभव को पाते हैं।

मीठी वाणी हो विवेक यदि

     वे महान कहलाते हैं।।

 

मन, मस्तिष्क से अच्छा सोचो

     अच्छा ही अच्छा करना।

जीवन को सार्थक ही करके

        मन में मैल नहीं भरना।।

 

इसको कहते प्राणकोश हम

      जो भी सबल बना लेते।

चले सफलता साथ उन्हीं के

       जो चाहें सो पा लेते।।

 

मन भागेगा इधर – उधर को

      उसको वश में तुम रखना।

द्वेष ,कपट , ईर्ष्या से बचना

       लोभ लालची मत बनना।।

 

जो भी रखते मन को वश में

    उनका देव साथ हैं देते।

मनोकोश को प्रबल बनाकर

     जीवन सुंदर कर लेते।।

 

सभी देवता अपने अंदर

     उनको खुद पहचानो जी।

दूर न जाओ इन्हें देखने

       शक्ति अपनी जानो जी।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ ते सतरा दिवस – भाग -2 ☆ डॉ. जयंत गुजराती ☆

डॉ. जयंत गुजराती

? इंद्रधनुष्य ?

☆ ते सतरा दिवस… – भाग-2 ☆ डॉ. जयंत गुजराती ☆

(निराश होता कामा नये हा संदेश प्रत्येकापर्यंत पोहोचला. सर्वांनी एका आवाजात साहेबांच्या शब्दांवर प्रतिध्वनी उमटवला, जय हो !!) — इथून पुढे 

आजचा तिसरा दिवस, बहात्तर तास उलटून गेलेले बाहेरचं जग पाहून. विजेची लाईन शाबूत असल्याने त्या उजेडात एकमेकांना पाहू तरी शकत होतो. पाण्याच्या बाटल्या, रेशनिंगचं धान्य संपत आलेले.  हेल्मेटमधे तांदूळ शिजवून गिळत असलेलो. काही ठिकाणी डोंगरातून पाणी ठिबकत असलेलं. तिथेही हेल्मेट उपडी ठेवलेली. ते काही वेळानं जुजबी भरत असे. सुकलेला गळा ओला करायला तेवढंसं पुरे. पण ..  पण हे असं किती दिवस? हा यक्षप्रश्न आ वासून उभा ठाकलेलाच. नुकतंच थोडंफार पोटात ढकलून आडवं पडणं झालं, डोळे पेंगुळत असलेले…. 

… तेवढ्यात सरसर आवाज आला. वाटलं जनावर वगैरे काही आलं की काय? आवाजाच्या रोखानं मोबाईलची बॅटरी रोखली तर काय सहा इंची पाईप बोगद्यात तोंड उघडत असलेला. त्यातून पाठोपाठ अनोळखी आवाज येत असलेला. ” कैसे हो सब लोग?” बोगद्यातील सर्वजण चित्कारलेच. “ ठीक है भैया, कैसे तो भी गुजारा कर रहै है. हमें यहां से निकालो जल्दी.”  आमचा आवाज ऐकून बाहेर एकच गलका झाला असावा. लगेच, “ डरो मत, हम कोशिश कर रहे हैं. जल्दही आप निकल पाओगे. धैर्य रखना, बौखनाग की कृपा से सब बाहर आओगे.” सर्वांना आठवलं, मागच्याच आठवड्यात तर बौखनागचं मंदिर पाडलं होतं. तोच कोपला असेल. सर्वांनी हात जोडून त्याचा धावा सुरू केला. त्या सहा इंची पाईपमधून पाण्याच्या बाटल्या यायला लागल्या. मग बिस्कीटांचे पुडे, ड्रायफ्रूटचे पॅकेट्स, फळं. चला, निदान शिदोरी वाढत असलेली पाहून सर्वांचे डोळे चमकले. त्या खाऊपेक्षाही बाहेरच्या जगाशी संपर्क होत असलेला पाहून हायसं वाटलं. त्यातून येणारा आवाज तर वॉकीटॉकीपेक्षाही स्पष्ट होता. 

नियमित खुराक मिळण्याची सोय तर झाली. गोळ्या औषधंही आली पाईपमधून. सगळ्यांचं मनोबल वाढावं म्हणून मनोचिकित्सक ही हजर पाईपच्या दुसऱ्या टोकाला. तितकंच बरं वाटलं. थोडंफार निर्धास्त होता आलं. कुणीतरी आपल्यासाठी धडपडतंय ही जाणीव सुखावहच. आणखीन दोन दिवसांनी तर घरच्यांचा आवाज पाईपमधून. कोळशाच्या खोलीत कोंडणारी आई  गलबलून हुंदका देत बोलत होती, 

“बबुआ कैसन बा?” कोळशाच्या खोलीत रमणारा बबुआ हमसून हमसून रडत बोलत होता, “ ठीक हूं मैय्या, फीकर मत करना, टेम से तू खाना खा लेना. ” सर्वांचेच डोळे पाणावले. 

दहाएक दिवसांनी गरम गरम जेवण मिळू लागले. छोले, पराठे अन् खिचडी.  शीख बांधवांनी लंगर चालू केलंय वाटतं. वाहे गुरू त्यांचं भलं करो. रोज चिणल्या गेलेल्या भिंतीतून मोठाले पाईप टाकण्याचे काम प्रगतीपथावर आहे हे बातम्यांसारखं सांगितलं जायचं. मधेच अडथळे यायचे. काम थांबवावं लागायचं. प्रगती खुंटायची. काहीच कळायचं नाही. बाहेर तरी निघू की नाही ही साशंकता. मग इतके दिवस नेहेमी सोबतीला असणारे, एकमेकांचेच चेहरे पाहून कंटाळलेलो, एकमेकांवरच चिडचिड करू लागलो. काहींनी तर त्रागाही केला. इंजिनीयर साहेबांनी मग वेगवेगळे खेळ खेळण्याची टूम काढली. काहींचे मोबाईल अजूनही चालू, त्यांनी मोबाईलवरच लुडो खेळायला सुरुवात केली. इंजिनीयर साहेबांनी मग मोजकेच चार्जर मागवून घेतले. चार्ज केल्यावर फोन तर लागत नव्हते, पण त्यातील खेळ व जुने मेसेजेस वाचून, दिवस वा रात्र ते काहीच कळत नव्हतं, तरीही पण ढकलत होतो.  सगळेच्या सगळे काही मोबाईल वेडे नव्हते.  मग काहींनी दगडावर रेघोट्या ओढून चल्लस खेळायला सुरुवात केली.  काही दगडी चेंडूने क्रिकेट खेळायला लागले, बोगद्याच्या भिंतीवरच स्टम्प्स उगवले. एकाने चार पाच गोल दगड  एका पाठोपाठ वर फेकत जगलर्स स्कील ही दाखवले. काहींनी गाणी म्हणायला सुरुवात केली. त्यात बंगाल्यांनी तर कहरच केला. अगोदर ऐकायला गोड वाटलं, पण किती गावं? सारखं तेच तेच कानी यायला लागलं, आमार शोनार बांग्ला आणि बाऊल गीति, काय काय ते. सगळ्यांचे कान किटले.  फिल्मी गाण्यांची अंताक्षरीही काही काळ चालली मग त्याचाही वीट आला.  

कितीही मन रमवण्याचा प्रयत्न करत असलो तरीही मोकळ्या वातावरणाची आस प्रत्येकाच्या मनात. जसजसा वेळ सरकत होता तसे बोगद्याच्या भिंती खायला उठतात की काय? वाटायचे. एकमेकांना धीर देणं तर चालूच होतं, पण बोगद्यामधला मुक्काम लांबतच चाललेला. घरच्या माणसांची ओढही बळावत चाललेली.  कधी त्यांची गळाभेट घेऊ असं होऊन गेलेलं. उद्या सकाळपर्यंत बाहेर निघणार, अगदी चार पाच तासच उरलेत म्हणता म्हणता विघ्न समोर ठाकल्याचंही कानी यायचं. मशिन बिघडलं, बंद पडलं. अडकून पडलं. दोन दिवस अधिक लागतील.  ऐकून ऐकून कान विटले. देवाचा धावा तर सारखा चालूच होता. नवसाचंही बोलून झालं होतं. मधेच दिवाळी होऊन गेल्याचं कळलं. बाहेरच्या जगात सगळ्यांसाठी दिवाळी होती. बोगद्यात व मनात तर अंधारच अंधार दाटलेला. 

थोडक्यावर अडून पडलंय. नवीन खुदाई सुरू झालीय. काही हाताचेच अंतर बाकी आता. इंजिनीयर साहेबही तांत्रिक भाषेत बोलत होते. बाकी सगळे कधी शिळा उघडते, सीम सीम खुलजाच्या धर्तीवर याची प्राण कंठाशी आणून वाट पहात होते. काहीही करत नसले तरी सगळे दमूनभागून पेंगुळलेल्या डोळ्यांनी निपचित पडले होते. तेवढ्यात धपकन् काही पडल्याचा आवाज आला, पाठोपाठ खणन् खणन्  व लगेच कटरचा चिरपरिचित आवाज येऊ लागला.  तो आवाज पहिल्यांदाच मंजुळ नादमय वाटला. सर्वांचे डोळे बंद झालेल्या बोगद्याच्या मुखावर. त्याला चिरे पडू लागले. मोठमोठाले घाव हातोड्याचे व मग भगदाडच पडले एकदम. सरसर पाईप सरकत आत आला.  त्यातून नवा चेहरा व नवा उजेडही आत आला. सगळ्यांनी आरोळी दिली, जय हो !! तो आवाज बोगदाभर घुमला. धुळीने माखलेल्या चेहेऱ्यांवर आनंद पसरला. कुणी नाचू लागले, कुणाला अश्रू आवरेना. बौखनाग बाबांचा जयघोष केला गेला. आता खरी दिवाळी साजरी होईल याची खात्री पटली.  शेवटी एकदाचे गिळू पाहणाऱ्या बोगद्याच्या कराल जबड्यातून बाहेर येत मोकळा श्वास घेतला. हुश्श ! एक दुःस्वप्न विरलं !! 

– समाप्त – 

© डॉ. जयंत गुजराती

२९/११/२०२३

नासिक

मो. ९८२२८५८९७५

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #207 – कविता – ☆ हाथ मिलाये फसलों ने… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके हाथ मिलाये फसलों ने…”।)

☆ तन्मय साहित्य  #207 ☆

हाथ मिलाये फसलों ने☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(फेसबुक के स्मृतिकोष से 2011में लिखा एक गीत)

हाथ मिलाये फसलों ने

खरपतवारों से

मठों, आश्रमों ने

राजा के दरबारों से।

 

सजा मिली सच्चाई को

तो झूठ हँसा

मुफ़्त गवाही दी,सच की

ईमान फँसा,

बिका हुआ हाकिम

फरेबी उपकारों से। हाथ मिलाए……….

 

विद्या ने वैभव से मिलकर

जुगत भिड़ाई

और कलम ने लफ्फाजों से

प्रीत बढ़ाई,

भटक रहा इंसान

भ्रमित हो बाजारों से। हाथ मिलाए………

 

संत, मौलवी अभ्यासी

सब भोगों के

अस्पताल में रोगाणु

सब रोगों के,

अमन शांति के हैं प्रयास

अब हथियारों से।

 

हाथ मिलाये फसलों ने

खरपतवारों से।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 32 ☆ शहर के मकान… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “शहर के मकान…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 32 ☆ शहर के मकान… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

आँगन को तरस गए

शहर के मकान।

 

खिड़कियों पर लेटी

थोड़ी सी धूप

दरवाज़े पर ठिठके

सूरज के रूप

 

छज्जों पर झुलस गए

लतिका के प्रान।

 

सटे-सटे घर हैं पर

दूर-दूर मन

अपने अपनेपन में

सभी हैं मगन

 

प्रीति गंध बिना छुए

फूलों के गान।

 

भटकता सा हर दिन

फ़ुरसत की रात

परिचित सी चुप्पियाँ

बहरे हालात

 

बोझिल से पंख लिए

हवा पर उड़ान ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ एक ग़ज़ल – इबादत में अक़ीदत की कसर होगी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “प्यार जब रूह नहीं सूरत से…“)

✍ एक ग़ज़ल – इबादत में अक़ीदत की कसर होगी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

(एक ग़ज़ल – 1222  1222  1222  1222, रदीफ़ टूट जाता है, काफ़िया आ स्वर)

जरा सी चोट लगते प्रेम धागा टूट जाता है

वफ़ा में खोट आते दिल का शीशा टूट जाता है

पड़ेगी गांठ चुभती उम्र भर जो जोड़कर फिर से

किसी इंसा से जब इंसा का रिश्ता टूट जाता है

समझ के साथ बढ़ता आदमी का नजरिया सच है

लुटा समझे जो बच्चे का खिलौना टूट जाता है

गुनाहों की सज़ा मुजरिम को दो  रोको ये बुलडोजर

भुगतता है घराना जब घरौदा टूट जाता है

बड़ी जब शख्सियत कोई जहां से कूच है करती

फ़लक से लोग कहते हैं सितारा टूट जाता है

दिलों में फासला होता दिखावा करना जो कर लो

किसी का जब किसी पर से भरोसा टूट जाता है

ये मेरी बद नसीबी का सितम भी देखिये साहिब

जो साक़ी भेजती मुझको वो प्याला टूट जाता है

बचाना जिसको वो चाहे उसे फिर कौन मारेगा

शिकारी जो भी फैलाये वो फंदा टूट जाता है

शरीफों के लिए घर में लगाया जाता है इनको

हो कोई चोर तो कोई भी ताला टूट जाता है

इबादत में अक़ीदत की कसर होगी तो ये समझो

करोगे लाख कोशिश फिर भी रोज़ा टूट जाता है

जो तैयारी बिना मैदान में आ पेंच लड़वाओ

उड़ाओगे पतंग ऊँची तो मांजा टूट जाता है

अरुण कमजोर कड़ियों पर नजर  दुश्मन रखें बचन

रहेगी गर पकड़ कच्ची तो घेरा टूट जाता है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 207 ☆ आला क्षण गेला क्षण ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 207 ?

आला क्षण गेला क्षण ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

तू कितीही नाकारलेस तरी,

मला आठवताहेत ते सारे क्षण,

कारण,जे घडून गेलं ते खोडून टाकताच येत नाही !

 

आयुष्य म्हणजे तरी काय?

आला क्षण गेला क्षण…..

काही लक्षात ठेवायचे, काही विसरून  जायचे!

पण नाकारायचे नाहीत!

कारण ते सारे क्षण मिळून तर,

बनते आयुष्य!

 

अनेक साक्षीदार असतात,

आपण जगलेल्या त्या क्षणांचे,

काही क्षण आनंदाचे,

काही दुःखाचे!

 

मनात साचलेले ते क्षण,

वेचावेत, बकुळ फुलासारखे!

आणि गंधाळून जावं स्वतःच आतल्या आत!

 

म्हणूनच सखये,

त्या साऱ्या क्षणांच्या सावल्या,

असतातच अवती भवती!

तू कितीही अलिप्त होऊ पाहिलंस…

तरीही घुटमळतच राहणार,

आपल्या अवती भवती ,

आला क्षण गेला क्षण……

 

स्मृतिभ्रंश होऊ नये

म्हणूनच जपलेला, जगलेला,

प्रत्येक क्षण मला हवा आहे…

तहहयात,

आणि तू तर बंद केलीत,

त्या क्षणांची सारीच कवाडे….

 माझ्या कानावर आदळत आहेत…..

“आदमी जो कहता है, आदमी जो सुनता है….

जिंदगीभर वो सदाये पिछा करती है”

 

चे आर्त स्वर क्षणो क्षणी !

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ — श्रीमद् भागवत पुराण कथा ज्ञानयज्ञ… भाग-7 ☆ सुश्री प्रज्ञा मिरासदार ☆

सुश्री प्रज्ञा मिरासदार

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ — श्रीमद् भागवत पुराण कथा ज्ञानयज्ञ… भाग-7 ☆ सुश्री प्रज्ञा मिरासदार

श्रीमद् भागवत कथा ज्ञान यज्ञाच्या निमित्ताने मी प्रस्तावनेसह एकूण सात भागांच्या पुस्तकांवर लिहित गेले. भागवत कथा ही कोटी सूर्याच्या तेजाएवढी आहे. मी त्यापुढे फक्त काजवा आहे. तरीही मी त्यावर लिहिण्याचे धाडस केले आहे. वाचकांनी ते गोड मानले असेल अशी अपेक्षा करते. आजच्या सातव्या दिवसाच्या पुस्तकावर लिहिताना मला खूप आनंद होतो आहे. या ज्ञानसागरातील एक बिंदू तरी मला वेचता आला, तो तुम्हासारख्या सुजाण वाचकांसमोर ठेवता आला. याचा तो आनंद आहे. यात काही संशोधन, पांडित्य प्रदर्शन अजिबातच अभिप्रेत नाही. संस्कृत भाषेचे थोडे फार ज्ञानही मला इथे उपयोगी पडले आहे.

या पुस्तकाच्या सुरुवातीस लेखकाने यानंतरच्या समाप्ती विषयी सांगितले आहे. ते असे– की सात दिवस सात पुस्तकांचे वाचन वा श्रवण करावे. रोजच शेवटी आरती करावी. त्यासाठी या भागाच्या शेवटच्या पानांवर लेखकाने संस्कृत व प्राकृत भाषेत भागवताची आरती दिली आहे. आठव्या दिवशी सामुदायिक रीत्या अठरा अध्याय गीता व विष्णुसहस्त्रनामाचे पठण करावे. महाप्रसाद करून हा सप्ताह संपवावा. असे लेखकाने स्पष्ट केले आहे.

या पुस्तकाची सुरुवात अकराव्या स्कंधाने होते. हा श्रीकृष्ण चरित्राचा उत्तरार्ध आहे. शुकाचार्य परीक्षिताला यादवांच्या विनाशाची कारणे सांगतात. प्रथम नारद व वसुदेव यांची भेट झाली. वसुदेवाला नारदांनी भागवत धर्माचे महत्त्व सांगितले आहे. भगवद् भक्तांचा श्रेष्ठ धर्म म्हणजे,

कायेन वाचा मनसेंन्द्रियैर्वा

बुद्ध्यात्मना वानुसृत् स्वभावात् |

करोति यद्यद् सकलं तदस्मै

नारायणेति समर्पयेत् तत् ||

असे नारदांनी सांगितले आहे. सर्व प्राणिमात्रात परमेश्वर आणि आपल्या आत्म्यात सर्व प्राणिमात्र आहेत. असे जो पाहतो तो खरा सर्वश्रेष्ठ भगवद्भक्त! असे भगवद् भक्ताचे लक्षण येथे दिले आहे.

भागवताचा हा कथा भाग म्हणजे केवळ गोष्टीरूप नाही तर येथे केवळ जीवनाचे तत्त्वज्ञानच महर्षी व्यासांनी सांगितले आहे. जीव, शरीर हेच आत्मा असे समजतो. कर्माची फळे भोगतो. हेही विशद केले आहे. मुनींनी सृष्टीच्या अंताची प्रक्रिया सांगितली आहे. शंभर वर्षे सतत अनावृष्टी होईल. नंतर सांवर्तक नावाचे मेघ शंभर वर्षे मुसळधार वर्षाव करतील. मग प्रलय होईल. पृथ्वीवरील सुखे लगेच नष्ट होणारी आहेत. भागवताच्या अभ्यासाने जीव तरुन जाऊ शकतो, इत्यादी तत्त्वज्ञान सांगितले आहे. शुकाचार्य सांगतात की ज्याच्यामुळे आपण जिवंत असतो, इंद्रिये हालचाल करतात, ती शक्ती म्हणजे परमात्मा !! चराचर सृष्टीतील भगवंताची पूजा कशी करावी हे पुढे सविस्तर सांगितले आहे.

यानंतर विष्णूंनी जे चोवीस अवतार घेतले त्यांचे थोडक्यात वर्णन आले आहे. पुढे चार युगातील पूजा पद्धती कशा कशा होत्या,त्या त्या देवतांचे वर्णन केले आहे. लाभाच्या दृष्टीने कलियुग श्रेष्ठ आहे. कारण केवळ भगवंताचे नामस्मरण, कीर्तन, श्रवण यानेच या युगात मोक्ष मिळतो. असे लेखक म्हणतात.

यानंतर ब्रह्मदेवासह सर्व देव ऋषीमुनी द्वारकेत येऊन कृष्णाला भेटतात. ब्रह्मदेव श्रीकृष्णाला परत वैकुंठाला यावे अशी प्रार्थना करतात. तेव्हा यादव कुलाचा विनाश झाल्यावर मगच मी वैकुंठाला येईन असे श्रीकृष्ण म्हणतात. उद्धव मात्र श्रीकृष्णाच्या सह वैकुंठास जाण्याची इच्छा व्यक्त करतो. तेव्हा कृष्ण उद्धवाला उपदेश करतात. हा उपदेश म्हणजे सुद्धा फक्त जीवनाचे तत्त्वज्ञानच आहे. श्रीकृष्ण त्यासाठी उद्धवाला अवधूत या विरक्त, आत्मानंदात मग्न असणाऱ्या तरुणाची कथा सांगतात. तो विरक्त का असतो? याचे उत्तर म्हणजे “अवधूत गीता” आहे. या अवधूतानेच हा सर्व उपदेश केला आहे, असा वृत्तांत सांगून श्रीकृष्णांनी उद्धवाला सुखदुःखाची अशाश्वतता कशी असते, हे सांगण्यासाठी अनेक उदाहरणे दिलेली आहेत. अनेक छोटे मोठे दाखले व गोष्टी या ठिकाणी आल्या आहेत. सत्संगतीचे महत्त्व, भक्ती व ध्यान यांचे महत्त्व, सर्व अष्टसिद्धींचे विवेचन करून भगवंत उद्धवाला — कुरुक्षेत्रावर अर्जुनाला जी विभूतीची पवित्र स्थाने सांगितली– तीच स्थाने सांगतात. सर्व प्राणिमात्रातील आत्मा मीच आहे वगैरे वगैरे.

यानंतर चार वर्ण, चार आश्रम स्वीकारताना लोकांनी कसे वागावे, याचा उपदेश कृष्ण उद्धवाला करतात. ते कसे कठीण आहे हेही इथे सांगितले आहे. पुढे वैराग्य युक्त ज्ञान,भक्तीयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग यांचे सविस्तर विवेचन श्रीकृष्ण करतात. पुढचे, शुद्ध काय, अशुद्ध काय याचे वर्णन तर आजच्या काळातही प्रत्येकाला उपयोगी पडणारे आहे.

अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोsपि वा |

य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतर:शुचि: ||

या मंत्राने कोणत्याही कर्माच्या कर्त्याची शुद्धी होते, असे श्रीकृष्ण सांगतात.

मूलतत्त्वे किती? प्रकृती- पुरुष यात भेद की अभेद? याविषयी उद्धवाच्या शंकेचे निरसन श्रीकृष्णाने केले आहे. उद्धवाने एक प्रश्न विचारला आहे की, विद्वानांनाही दुष्ट लोकांनी केलेले अपमान सहन होत नाहीत. मग सामान्यांना ते कसे शक्य होईल? यावर श्रीकृष्णाने उद्धवाला जो उपदेश केला, तो “भिक्षु गीता” म्हणून प्रसिद्ध आहे. “मी” ही भावनाच या सर्वाला कारणीभूत ठरते. यानंतर सांख्य तत्त्वज्ञान, सत्व, रज, तम या तीन वृत्ती यांचे वर्णन आले आहे. पुढे पुरूरवा व उर्वशीची छोटी कथा आली आहे. श्रीकृष्ण उद्धवाला कर्मयोग पूजा पद्धतीची माहिती देतात. ज्ञानयोग भक्तीयोग वगैरे सविस्तर सांगून श्रीकृष्ण उद्धवाला बद्रिकाश्रमात जाण्याची आज्ञा देतात. भागवत धर्माचे चिंतन केल्याने तू जीवन्मुक्त होशील असे सांगतात.

यानंतरचा कथा भाग– द्वारकेत काही उत्पात सुरू होतात. ही यादवांच्या विनाशाची चिन्हे असतात. यावर श्रीकृष्ण सर्व यादवांसह प्रभासक्षेत्री शंखोद्धार तीर्थाला जाण्याचा पर्याय शोधतात. तिथे मद्य पिऊन सर्व यादव आपापसात लढले व यादव कुळाचा विनाश झाला. बलरामही समुद्र काठावर योगधारणा करीत बसले व सदेह पृथ्वीतल सोडून गेले. श्रीकृष्णही एका पिंपळाच्या झाडाखाली डावा पाय उजव्या मांडीवर ठेवून बसून राहिले. त्याचवेळी जरा नावाच्या शिकाऱ्याने हरीण समजून कृष्णाच्या पायावर अणकुचीदार बाण मारला. तो बाण जमिनीवर पडला. त्या भिल्लाने जवळ येऊन पाहिले तर त्याला चतुर्भुज श्रीकृष्णाचे दर्शन झाले. त्याला श्रीकृष्ण म्हणाले,” हे सारे माझ्या इच्छेनेच घडले आहे. मी आता तुला वैकुंठप्राप्ती देतो.” त्याच वेळी कृष्णाचा सारथी दारूक रथ घेऊन तिथे आला. त्याला सर्व हकीकत सांगण्यास कृष्णाने द्वारकेस धाडले. तो खिन्न मनाने द्वारकेस गेला. त्याने हस्तिनापुरासही हे वर्तमान कळविले. पुढचे वर्णन श्रीकृष्णाचे निजधामाला जाणे आणि द्वारका नगरी समुद्रात पूर्ण बुडणे याचे केलेले आहे. परमेश्वराच्या अवतार समाप्तीनंतर इथे अकरावा स्कंध समाप्त होतो.

बाराव्या स्कंधाच्या सुरुवातीला शुकाचार्य पृथ्वीवर पुढे कोणकोणत्या राजांनी राज्य केले, याची परीक्षिताला माहिती देतात. कलियुगात लोक कसे वागतील, जगतील याचे पूर्ण वर्णन, आजच्या काळात जे घडते आहे, तसेच तंतोतंत भागवतात केले आहे. पण त्यावर कलियुगातील दोषांवरचे उपायही सांगितले आहेत. प्रलय, युगे, कल्प यांचे वर्णन करताना शुकाचार्य सांगतात की, नैमित्तिक, प्राकृतिक, आत्यंतिक व नित्य हे चार प्रलयाचे प्रकार आहेत. शुकाचार्य परीक्षित राजाला सांगतात की, आपण मरणार! ही बुद्धी तू आता सोडून दे. कारण आत्मा अमर आहे.

परीक्षित राजाचा देह भस्मसात झाल्यावर त्याचा पुत्र जनमेजय सर्पयज्ञ करतो. ही कथा आली आहे. बृहस्पती त्याला उपदेश करतात. मग तो सर्पयज्ञ थांबवतो.सूत महर्षींनी शौनकांना ही कथा सांगितली. ते शौनकांना वेदविस्तार, विभागणी याविषयी विवेचन करतात. प्रथम शब्द ॐकाराविषयीची माहिती पुढे दिली आहे.

पुराणे म्हणजे काय? ती कोणती आहेत? याचे थोडक्यात वर्णन पुढे लेखकाने केले आहे. यानंतर मार्कंडेय ऋषींची कथा सांगितली आहे. त्यांना नरनारायणांनी वर दिला. त्यात त्यांनी प्रलयही अनुभवला. त्यांना नरनारायणांनी – तुम्ही कल्पांतापर्यंत अजरामर व्हाल, त्रिकालज्ञ व्हाल, पुराणांचे आचार्य व्हाल असा वर शंकरांनी प्रदान केला. पुढे सूर्याच्या सृष्टीचक्राचे वर्णन आले आहे. सनातन धर्म म्हणजे काय? हे पुढे शौनकांनी सूतांना सांगितले आहे. शिवाय पहिल्यापासून भागवतात कोणते विषय आले आहेत? त्या सर्व कथानकांचा थोडक्यात आढावा घेतला आहे. थोडक्यात — भागवतमहिमा वर्णिलेला आहे. अठरा पुराणांची प्रत्येकी श्लोक संख्या किती? हे सांगितले आहे. अकरावा स्कंध हे भगवंताचे मन तर बारावा स्कंध हा भगवंताचा आत्मा आहे. असे लेखक म्हणतात.

यानंतर लेखकाने ब्रह्मदेव, नारद, वेदव्यास, शुकाचार्य यांना वंदन केले आहे.

सर्वात शेवटी परमात्म्याला वारंवार नमस्कार करून लेखकाने भगवंताची प्रार्थना केली आहे.

इथे बारावा स्कंध समाप्त होतो व सातव्या दिवसाचा कथा भाग संपतो.

या पुस्तकाच्या मुखपृष्ठावर परब्रम्ह परमात्म्याचे समग्र दर्शन घडविले आहे.

भवे भवे यथा भक्ति: पादयोsस्तव जायते |

तथा कुरुष्व देवेश नाथस्त्वं नो यत: प्रभो ||१||

*

नामसंकीर्तनं यस्य सर्वपाप प्रशमनम् |

प्रणामो दुःख शमनस्तं नमामि हरीम् परम् ||२||

सर्वात शेवटी हे दोन श्लोक दोन वेळा म्हणून, सर्वांनी पोथीची पूजा करून, नैवेद्य आरती करावी व जयजयकार करावा असे लेखकाने सांगितले आहे. हा श्लोक म्हणजे भागवताचा उपसंहार आहे. संपूर्ण भागवत श्रवणाचा निष्कर्ष म्हणून, सर्व दुःखे दूर करून, निरंतर आनंद देणाऱ्या या भगवंत मूर्तीचे आपाद मस्तक ध्यान करून त्याच्या चरणारविंदाला नमस्कार करूया.

 || श्रीकृष्णार्पणमस्तु ||

इथेच मी प्रस्तावनेसह लिहिलेले आठ भाग संपले. भागवत कथेवरील सात पुस्तकांचे वाचन, अभ्यास आणि तोडके मोडके का होईना, पण विवेचन करण्याचे बळ मला परमात्म्यानेच दिले. हे माझे महद्भाग्य आहे. यात जर काही चुकत असेल तर आपण मोठ्या मनाने क्षमा करावी.

 प्रज्ञा मिरासदार — पुणे

© सुश्री प्रज्ञा मिरासदार

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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