हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 243 ☆ लघुकथा – स्माइली 😊☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – स्माइली।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 243 ☆

? लघुकथा – स्माइली 😊 ?

हिन्दी, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, चाइनीज, बंगाली, मराठी, तेलगू …, जाने कितनी भाषायें हैं। अनगिनत बोलियां और लहजे हैं।  पर दुनियां का हर बच्चा इन सबसे अनजान, केवल स्पर्श की भाषा समझता है।  माँ के मृदु स्पर्श की भाषा, मुस्कान की भाषा। मौन की भाषा के सम्मुख क्रोध भी हार जाता है। प्रकृति बोलती है चिड़ियों की चहचहाहट में, पवन की सरसराहट में, सूरज की बादलों से तांक झांक में।

वह इमोजी साफटवेयर बनाता है। उसकी  वर्चुअल दुनियां बोलती है इमोजी के चेहरों की भाषा में। उसे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती गुस्से वाली लाल इमोजी, और आंसू टपकाती दुख व्यक्त करते चेहरे वाली इमोजी। मिटा देना चाहता है वह इसे। सोचता है, क्या करना होगा इसके लिये। क्या केवल साफ्टवेयर अपडेट? या बदलनी होगी व्यवस्था। सोचते हुये जाने कब उसकी नींद लग जाती है। गालों पर सुनहरी धूप की थपकी से उसकी नींद टूटती है, बादलों की की ओट से सूरज झांक रहा था खिड़की से मुस्करा कर। स्माइली वाली इमोजी उसे बहुत अपूर्ण लगती है इस मनोहारी अभिव्यक्ति के लिये, और वह जुट जाता है और बेहतर स्माइली इमोजी बनाने में।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 172 ☆ वह दीपशिखा सी शांत भाव… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना वह दीपशिखा सी शांत भाव। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 172 ☆

वह दीपशिखा सी शांत भाव… ☆

शांति की तलाश में व्यक्ति कहाँ से कहाँ तक भटकता फिरता है; पर मिलती स्वयं को बदलने से है। ये तो अनुभव की बात है किंतु डिजिटल युग में मोटिवेशनल स्पीकर अपने शॉर्ट्स रील द्वारा एक मिनट से भी कम समय में आपको प्रमुख बिंदु समझा देते हैं। मुख्य बिंदु को ध्यान में रखकर जब कथानक हाव- भाव के साथ प्रस्तुत किया जाता है तो सचमुच बात आसानी से समझ में आने लगती है। वैसे भी संगत की रंगत देखना हो तो इन्हें फॉलो करें,कुछ ही दिनों में बदलाव देखने को मिलेगा।

नियंत्रित मन व कार्यों की निरंतरता से सब संभव हो जाता है। बस एक दिशा में पूर्ण मनोयोग से जुड़े रहिए, जब लक्ष्य स्पष्ट हो, श्रेष्ठ गुरु का मार्गदर्शन हो तो राहें सहज होने लगतीं हैं। उन्हीं विषयों पर फोकस करें जिस पर आप कार्य करने की इच्छा रखते हैं।इस युग में सब आसानी से मिल रहा है, बस एकाग्रता की लगन जिसने लगा ली समझो उसकी मुट्ठी में चाँद- सितारे आ गए। अब चाँद तारे तोड़कर लाना कोई कल्पना की बातें नहीं हैं, यहाँ तक हमारे वैज्ञानिक तो पहुँच ही चुके हैं बस आम लोगों का पहुँचना बाकी है।

जब सब कुछ आपके इशारों से हो रहा हो तो मन पर नियंत्रण बहुत जरूरी हो जाता है। भटकता हुआ इंसान न केवल स्वयं को बर्बादी की कगार पर ले जाता है वरन सबको ऐसे गड्ढे में ढकेलने की क्षमता रखता है जो कोई सोच भी नहीं सकता है। जीवन की आपाधापी में हम अधिकारों के प्रति ज्यादा ही सचेत होने लगे हैं, कर्तव्यों को न तो जानते हैं न ही जानने की कोशिश करते हैं। ये अनजाना पन कहीं महंगा न पड़ जाए इसलिए जागिए और जगाइए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #156 – लघुकथा – “तर्क यह भी” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “तर्क यह भी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 156 ☆

 ☆ लघुकथा- तर्क यह भी  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

जैसे ही मेहमान ने सीताफल लिए वैसे ही दूर से आते हुए मेजबान ने पूछा, “क्या भाव लिए हैं?”

“₹40 किलो!” मेहमान ने जवाब दिया।

यह सुनते ही मेजबान सीताफल बेचने वाली पर भड़क उठे, “अरे! थने शर्म नी आवे। नया आदमी ने लूट री है।”

वे कहे जा रहे थे, “दुनिया ₹20 किलो दे री है। थूं मेह्मना ने ₹40 किलो दे दी दा। घोर अनर्थ करी री है।

” वह थारे भड़े वाली ने देख। ₹20 किलो बची री है।”

वह चुपचाप सुन रही थी तो मेजमैन भड़क कर बोले, ” माँका मोहल्ला में बैठे हैं। मांने ही लूते हैं। थेने शर्म कोणी आवेला। ₹20 पाछा दे।”

“नी मले,” उसने संक्षिप्त उत्तर दिया। सुनकर मेजबान वापस भड़क गए। जोर-जोर से बोलने लगे। वहां पर भीड़ जमा हो गई।

भीड़ भी उसे फल बेचने वाली को खरी-खोटी सुनाने लगी। वह लोगों को लूट रही है। तभी मेजबान ने मेहमान से कहा, “ब्याईजी साहब, आपको तो स्वयं को लुटवाना नहीं चाहिए।”

यह सुनकर मेहमान ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,”ब्याईजी सा! जाने दो। ऐसे गरीब लोगों को हमारे जैसे लोगों से ही थोड़ी खुशी मिल जाती है।”

यह सुनकर मेजबान, मेहमान का मुंह देखने लगे और भीड़ चुपचाप छट गई।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-11-2023

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #23 ☆ कविता – “यहाँ भी और वहाँ भी…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 23 ☆

☆ कविता ☆ “यहाँ भी और वहां भी…☆ श्री आशिष मुळे ☆

वहाँ ठहरा यहाँ बरसा

मौसम तो मौसम है

वहाँ जलाती यहाँ डुबाती

बारिश तो बारिश है

यहाँ भी और वहाँ भी….

 

वहाँ सपनों में यहाँ सच्चाई में

धूप तो धूप है

वहाँ बैठी अकेली यहाँ कब से लापता

छांव तो छांव है

यहाँ भी और वहाँ भी…..

 

वहाँ आंखो में यहाँ लब्जों में

दर्या तो दर्या है

वहाँ रूह उबलता यहाँ कागज़ गलाता

पानी तो पानी है

यहाँ भी और वहाँ भी…..

 

वहां भी जिंदगी यहां भी जिंदगी

चाहत उसकी निशानी है

वहां भी मौत यहां भी मौत

सेज चिता की अग्नि है

यहाँ भी और वहां भी……

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 183 ☆ बाल कविता – काश! परी यदि मैं बन जाती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 183 ☆

☆ बाल कविता – काश! परी यदि मैं बन जाती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सपनों की दुनिया में खोई

      प्यारी गुड़िया रानी।

परी लोक की दादी अपनी

     कहतीं कई कहानी।।

 

काश! परी यदि मैं बन जाती

      हर बच्चा मुस्काता।

नए- नए मैं वस्त्र पहनाती

      शाला पढ़ने  जाता।।

 

खूब खिलौने उन्हें दिलाती

      खेल खेलती सँग में।

 पर्वों पर उपहार बाँटती

      रँग जाती मैं रँग में।।

 

सैर भी करती बाग बगीचे

     उड़ती नील गगन में।

हर पक्षी से बातें करती

      रहती सदा मगन मैं।।

 

परियों वाली छड़ी घुमा मैं

     सबको खुश कर देती।

झिलमिल झिलमिल वस्त्र पहनकर

       घूम मजे कर लेती।।

 

नींद हो गई सुंदर पूरी

      सपना टूट गया था।

सपने तो सपने हैं होते

       चंदा रूठ गया था।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #179 ☆ वातानुकुलित… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 179 ☆ वातानुकुलित… ☆ श्री सुजित कदम ☆

एका आलिशान वातानुकुलीत

दुकानाच्या आत

निर्जीव पुतळ्यांना

घातलेल्या रंगीबेरंगी

कपड्यांना पाहून,

मला माझ्या बापाची

आठवण येते…

कारण,

मी लहान असताना,

नेहमी माझ्यासाठी

रस्त्यावरून कपडे खरेदी

करताना,

माझा बाप माझ्या

चेह-यावरून हात

फिरवून त्याच्या

खिशातल्या पाकिटाला

हात लावायचा…

आणि

वातानुकुलीत

दुकानातल्या कपड्यांपेक्षा

रस्त्यावरचे कपडे

किती चांगले असतात

हे किती सहज

पटवून द्यायचा…

खिशातलं एखादं चाॅकलेट

काढून तेव्हा तो हळूच

माझ्या हातात ठेवायचा…

आणि

माझ्या मनात भरलेले कपडे

तेव्हा तो माझ्या नजरेतूनच ओळखायचा…

आम्ही कपडे खरेदी करून

निघाल्यावरही

माझा बाप चार वेळा

मागं वळून पहायचा

आणि

“एकदा तरी आपण

ह्या आलिशान दुकानातून कपडे

खरेदी करू”

इतकंच माझ्याकडे पाहून

बोलायचा…

पण आता,

मला त्या निर्जीव पुतळ्यानां घातलेल्या..

रंगीबेरंगी कपड्यांच्या

किंमतीचे लेबल पाहून…

माझ्या बापाचं मन कळतं

आणि त्यांनं तेव्हा…

डोळ्यांच्या आड लपवलेलं पाणी

आज माझ्या डोळ्यांत दाटून येतं…

कारण,

मी माझ्या लेकरांला

रस्त्यावरून कपडे

खरेदी करताना,

त्याच्यासारखाच मी ही

तेव्हा

किलबिल्या नजरेने

ह्या दुकानांकडे पहायचो…

आणि

ह्या रंगीबेरंगी कपड्यांची

स्वप्नं तेव्हा मी नजरेमध्ये साठवायचो…

अशावेळेस,

नकळतपणे

माझा हात

माझ्या लेकरांच्या चेह-यावर

कधी फिरतो कळत नाही…

आणि

पाकिटातल्या पैशांची

संख्या काही बदलत नाही…

परिस्थितीची ही गोळा बेरीज

अजूनही तशीच आहे

आणि

मनमोकळं जगणं

अजून…

वातानुकुलीत व्हायचं आहे..

 © श्री सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #206 – कविता – ☆ अदले बदले की दुनियाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके “अदले बदले की दुनियाँ…”।)

☆ तन्मय साहित्य  #206 ☆

☆ अदले बदले की दुनियाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

साँझ ढली सँग सूरज भी ढल जाए

ऊषा के सँग, पुनः लौट वह आए।

 

अदले बदले की

दुनिया के हैं रिश्ते

जो न समझ पाये

कष्टों में वे पिसते,

कठपुतली से रहे, नाचते पर वश में

स्वाभाविक ही, मन को यही लुभाये….

 

थे जो मित्र आज

वे ही हैं प्रतिद्वंदी

आत्म नियंत्रण कहाँ

सभी हैं स्वच्छंदी,

अतिशय प्रेम जहाँ, ईर्ष्या भी वहीं बसे

प्रिय अपने ही, झूठे स्वप्न दिखाए….

 

चाह सभी के मन में,

आगे बढ़ने की

कैसे भी हो सफल

शिखर पर चढ़ने की,

खेल चल रहे हैं, शह-मात अजूबे से

समय आज का, सबको यही सिखाए….

 

आदर्शों को पकड़े

अब भी हैं ऐसे

कीमत जिनकी आँके

वे कंकड़ जैसे,

हर मौसम के वार सहे,आहत मन पर

रूख हवा का, समझ नहीं जो पाये….

उषा के सँग, पुनः लौट वह आए।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 31 ☆ खुलकर गीत गाएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “खुलकर गीत गाएँ…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 31 ☆ खुलकर गीत गाएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

मर्सिया पढ़ने से अच्छा

आओ खुलकर गीत गाएँ।

 

माना कठिन है समय

पर उसका ही रोना

कहाँ की है समझदारी

कुछ तो लिखो ऐसा कि

घटते हौसलों में भी

घिरे न यह ज़िंदगी सारी

 

दर्द को ढोने से अच्छा

सुख को काँधों पर उठाएँ।

 

धूप से गठजोड़ कर

हमने खरीदीं रात

मेहनत बेचकर काली

शब्द के घनघोर वन

में बजाते हैं खड़े हो

बस ज़ोर से ताली

 

क्या नियति है यही अपनी

आओ तोड़ें वर्जनाएँ ।

 

दर्द की बैसाखियों पर

चले कब तक ज़िंदगी

उमर घटती जा रही है

जोड़ कर हासिल हुई

आँसुओं के हाथ से

खुशी बँटती जा रही है

 

जो मिला जैसा उसी में

तलाशें संभावनाएँ ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब अमावस की लगती पूनम सी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “शब अमावस की लगती पूनम सी“)

✍ शब अमावस की लगती पूनम सी ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

तय नहीं जिसका भी सफ़र होता

आदमी वो ही दर-बदर होता

ठोकरें तेरे है मुक़द्दर में

क्यों नसीहत का फिर असर होता

अज़्म जिसका रहा बड़ा पुख्ता

उसको अंजाम का न डर होता

हो वजनदार सीखता झुकना

तू भी किरदार से शज़र होता

छल फरेबों के होते कब नरगे

पाक सबका अगर जिगर होता

मजहबी फिर न होते ये दंगे

बस समझदार हर बशर होता

ज़र का चश्मा उतार लेते तुम

उजड़ा दिल का नहीं नगर होता

हो मुहाजिर न काटते जीवन

छोड़ विरसे को जो इधर होता

शब अमावस की लगती पूनम सी

साथिया पास जो क़मर होता

ए अरुण प्यार है नहीं जिसमें

छत पड़ी होने से न घर होता

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 206 ☆ एक स्फुट ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 206 ?

एक स्फुट ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

एका मॅट्रिक्युलेट मैत्रीणीबरोबर,

गप्पांचे मस्त झुरके

घेत असताना,

मी वाचते—

व्हाॅटस अॅप वरचा,

एका एम.ए.एम.फिल.

मैत्रिणीचा मेसेज—-

“उद्या सासूबाईंचं पित्र आहे,

अमूक भाज्या निवडल्या,

आळूची वडी उकडली…

पित्र म्हणून कोणाला जेवायला

बोलवावं हा विचार करतेय,

अगं गंगा भागिरथी बायका

आठवत नाहीत,

अमूक अमूक आठवली

पण ती कितपत पाळते

असे वाटले!”

 

माझ्या चेह-यावरचे सखेद आश्चर्य वाचत,

मैत्रीण म्हणाली,

“कुणाचा मेसेज??”

 

तो कालबाह्य शब्द वापरलेल्या,

त्या उच्चशिक्षित

मैत्रीणीचा मेसेज वाचून दाखवला…

तेव्हा,

ती मॅट्रिक्युलेट मैत्रीण म्हणाली,

 

“कळला तुझ्या त्या मैत्रीणीचा आय. क्यू !”

 

मी “नारी समता मंच” मधे

जायला लागले आणि तेव्हापासून,

कधीच लावली नाही नावापुढे

सौ. ची उपाधी!

 

माझ्या चौथी शिकलेल्या कामवाल्याबाई–

कुसुमताई म्हणाल्या होत्या,

त्या काळात,

“वहिनी मला नाही आवडत,

ते सौ. बिव लावायला!”

विद्याताईंची चळवळ,

केव्हाच तळागाळात

पोचलेली,

पण सो काॅल्ड सुशिक्षित,

त्यापासून अजूनही अनभिज्ञ… कोसो दूर…

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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