हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 241 ☆ आलेख – साहित्य का विभाजन कितना उचित ?? ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख साहित्य का विभाजन कितना उचित ??)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 241 ☆

? आलेख – साहित्य का विभाजन कितना उचित ?? ?

हम तरह-तरह की साहित्य खंड या धाराएँ देखते हैं, जैसे स्त्री-विमर्श, दलित साहित्य (संयोग से आभिजात्य साहित्य नहीं), प्रवासी साहित्य, आदि। साहित्य को विभिन्न खेमों में विभाजित करने की क्या सार्थकता है?

 समग्रता में साहित्य बहुत विशाल परिदृश्य है। जिस तरह विधा अनुसार काव्य, व्यंग्य कहानी एकाग्र है, उसी तरह अन्य उपवर्ग अध्ययन की दृष्टि से ही देखे जाने चाहिए। युवा लेखक, या वरिष्ठ कवि अथवा अभियंता रचनाकारों को एक जगह एकीकृत कर देने से वे साहित्य की मूल धारा से अलग नही हो जाते।

यह सब कुछ ऐसा ही है मानो देश के बच्चों को स्कूलों में, कक्षाओ में, पी टी ड्रेस के रंगों में, उम्र के अनुसार, रुचि के अनुसार अलग अलग क्लब में, या शिक्षा के भाषाई माध्यम अथवा सी बी एस ई, आई एस सी, या प्रादेशिक बोर्ड के खेमों में वर्गीकृत किया गया हो।

यह सब समग्रता में साहित्य को नए अवसर और विकसित ही कर रहा है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #22 ☆ कविता – “रावण तो अभी जिंदा हैं…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 22 ☆

☆ कविता ☆ “रावण तो अभी जिंदा हैं…☆ श्री आशिष मुळे ☆

पुतलों में तो वैसे ही जान नहीं

पुतला-कारों में बारूद भरा पड़ा है

आज राम है या नहीं पता नहीं

राक्षस तो अखबारों के पन्नों पर है

क्योंकि… रावण तो अभी जिंदा है…

 

जान इस रावण की

नाभि में नहीं है

इसकी जान, जिसमें नहीं

ऐसा आज कोई चिन्ह  ही नहीं है

क्योंकि… रावण तो अभी जिंदा है…

 

कहानियों और चिन्हों से

लबालब आज लंकाए हैं 

जहां खौफ से लथपथ

हृदय और मन है

क्योंकि… रावण तो अभी जिंदा है…

 

कौन दे रहा है जान

ये रावण क्या खाता है

क्या ग़लतफहमी यही

हमारे खेत का अनाज है

क्योंकि… रावण तो अभी जिंदा है…

 

तुम्हारा राम चौखट के अंदर है

चौखट के बाहर तो घना अंधेरा है

गर कभी चौखट लांघनी पड़े

समझ लो हरण तुम्हारा तय है

क्योंकि… रावण तो अभी जिंदा है…

 

गर रावण को मिटाना है

तीर हमें ही चलाने हैं 

कहानियों की चौखट लांघकर

जान चिन्हों की निकालनी है

क्योंकि… रावण तो अभी जिंदा है…

 

मानवता के दंडकारण्य में अज्ञान अंधेरा है

जिसमें अंधविश्वास यही मूल शिकारी है

इक दिन सूरज निकलेगा, मुझे ये विश्वास है

मगर आज का राम तुम्हे ही बनना है…

क्योंकि… रावण तो अभी जिंदा है…

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #155 – बाल कथा – “चाबी वाला भूत” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय बालकथा  “चाबी वाला भूत)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 155 ☆

 ☆ बालकहानी – चाबी वाला भूत ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

बेक्टो सुबह जल्दी उठा. आज फिर उसे ताले में चाबी लगी मिलीं. उसे आश्चर्य हुआ. ताले में चाबी कहां से आती है ?

वह सुबह चार बजे से पढ़ रहा था. घर में कोई व्यक्ति नहीं आया था. कोई व्यक्ति बाहर नहीं गया था. वह अपना ध्यान इसी ओर लगाए हुए था. गत दिनों से उस के घर में अजीब घटना हो रही थी.  कोई आहट नहीं होती. लाईट नहीं जलती. चुपचाप चाबी चैनलगेट के ताले पर लग जाती.

‘‘हो न हो, यह चाबी वाला भूत है,’’ बेक्टो के दिमाग में यह ख्याल आया. वह डर गया. उस ने यह बात अपने दोस्त जैक्सन को बताई. तब जैक्सन ने कहा, ‘‘यार ! भूतवूत कुछ नहीं होते है. यह सब मन का वहम है,’’

बेक्टो कुछ नहीं बोला तो जैक्सन ने कहा, ‘‘तू यूं ही डर रहा होगा.’’

‘‘नहीं यार ! मैं सच कह रहा हूं. मैं रोज चार बजे पढ़ने उठता हूं.’’

‘‘फिर !’’

‘‘जब मैं 5 बजे बाहर निकलता हूं तो मुझे चैनलगेट के ताले में चाबी लगी हुई मिलती है.’’

‘‘यह नहीं हो सकता है,’’ जैक्सन ने कहा, ‘‘भूत को तालेचाबी से क्या मतलब है ?’’

‘‘कुछ भी हो. यह चाबी वाला भूत हो सकता है.’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘यदि तुझे यकिन नहीं होता है तो तू मेरे घर पर सो कर देख है. मैं ने बड़ वाला और पीपल वाले भूत की कहानी सुनी है.’’

जैक्सन को बेक्टो की बात का यकीन नहीं हो रहा था. वह उस की बात मान गया. दूसरे दिन से घर आने लगा. वह बेक्टो के घर पढ़ता. वही पर सो जाता. फिर दोनो सुबह चार बजे उठ जाते. दोनों अलगअलग पढ़ने बैठ जाते. इस दौरान वे ताला अच्छी तरह बंद कर देते.

आज भी उन्हों ने ताला अच्छी तरह बंद कर लिया. ताले को दो बार खींच कर देखा था. ताला लगा कि नहीं ? फिर उस ने चाबी अपने पास रख ली.

ठीक चार बजे दोनों उठे. कमरे से बाहर निकले. चेनलगेट के ताले पर ताला लगा हुआ था.

दोनों पढ़ने बैठ गए. फिर पाचं बजे उठ कर चेनलगेट के पास गए. वहां पर ताले में चाबी लगी हुई थी.

‘‘देख !’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘मैं कहता था कि यहां पर चाबी वाला भूत रहता है. वह रोज चेनल का ताला चाबी से खोल देता है,’’ यह कहते हुए बेक्टो कमरे के अंदर आया. उस ने वहां रखी. चाबी दिखाई.

‘‘देख ! अपनी चाबी यह रखी है,’’ बेक्टो ने कहा तो जैक्सन बोला, ‘‘चाहे जो हो. मैं भूतवूत को नहीं मानता.’’

‘‘फिर, यहां चाबी कहां से आई ?’’ बेक्टो ने पूछा तो जैक्सन कोई जवाब नहीं दे सकता.

दोपहर को वह बेक्टो को घर आया. उस वक्त बेक्टो के दादाजी दालान में बैठे हुए थे.

जैक्सन ने उन को देखा. वे एक खूटी को एकटक देख रहे थे. उन की आंखों से आंसू झर रहे थे.

‘‘यार बेक्टो !’’ जैक्सन ने यह देख कर बेक्टो से पूछा, ‘‘तेरे दादाजी ये क्या कर रहे है ?’’ उसे कुछ समझ में नहीं आया था. इसलिए उस ने बेक्टो से पूछा.

‘‘मुझे नहीं मालुम है,’’ बेक्टो ने जवाब दिया, ‘‘कभीकभी मेरे दादाजी आलतीपालती मार कर बैठ जाते हैं.  अपने हाथ से आंख, मुंह और नाक बंद कर लेते हैं. फिर जोरजोर से सीटी बजाते हैं. वे ऐसा क्यों करते हैं ? मुझे पता नहीं है ?’’

‘‘वाकई !’’

‘‘हां यार. समझ में नहीं आता है कि इस उम्र में वे ऐसा क्यो ंकरते हैं.’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘कभीकभी बैठ जाते हैं. फिर अपना पेट पिचकाते हैं. फूलाते है. फिर पिचकाते हैं. फिर फूलाते हैं. ऐसा कई बार करते हैं.’’

‘‘अच्छा !’’ जैक्सन ने कहा, ‘‘तुम ने कभी अपने दादाजी से इस बारे में बातं की है ?.’’

‘‘नहीं यार,’’ बेक्टो ने अपने मोटे शरीर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘दादाजी से बात करूं तो वे कहते हैं कि मेरे साथ घुमने चलो तो मैं बताता हूं. मगर, वे जब घुमने जाते हैं तो तीनचार किलोमीटर चले जाते हैं. इसलिए मैं उन से ज्यादा बात नहीं करता हूं.’’

यह सुनते ही जैक्सन ने बेक्टा के दादाजी की आरे देखा. वह एक अखबार पढ़ रहे थे.

‘‘तेरे दादाजी तो बिना चश्में के अखबार पढ़ते हैं ?’’

‘‘हां. उन्हें चश्मा नहीं लगता है.’’ बेक्टो ने कहा.

जैक्सन को कुछ काम याद आ गया था. वह घर चला गया. फिर रात को वापस बेक्टो के घर आया. दोनों साथ पढ़े और सो गए. सुबह चार बजे उठ कर जैक्सन न कहा, ‘‘आज चाहे जो हो जाए. मैं चाबी वाले भूल को पकड़़ कर रहूंगा. तू भी तैयार हो जा. हम दोनों मिल कर उसे पकड़ेंगे ?’’

‘‘नहीं भाई ! मुझे भूत से डर लगता है,’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘तू अकेला ही उसे पकडना.’’

जैक्सन ने उसे बहुत समझाया, ‘‘भूतवूत कुछ नहीं होते हैं. यह हमारा वहम है. इन से डरना नहीं चाहिए.’’ मगर, बेक्टो नहीं माना. उस ने स्पष्ट मना कर दिया, ‘‘भूत से मुझे डर लगता है. मैं पहले उसे नहीं पकडूंगा.’’

‘‘ठीक है. मैं पकडूगा.’’ जैक्सन बोला तो बेक्टो ने कहा,  ‘‘तू आगे रहना, जैसे ही तू पहले पकड़ लेगा. वैसे ही मैं मदद करने आ जाऊंगा,’’

दोनों तैयार बैठे थे. उन का ध्यान पढ़ाई में कम ओर भूत पकड़ने में ज्यादा था.

जैक्सन बड़े ध्यान से चेनलगेट की ओर कान लगाए हुए बैठा था. बेक्टो के डर लग रहा था. इसलिए उस ने दरवाजा बंद कर लिया था.

ठीक पांच बजे थे. अचानक धीरे से चेनलगेट की आवाज हुई. यदि उसे ध्यान से नहीं सुनते, तो वह भी नहीं आती.

‘‘चल ! भूत आ गया ,’’ कहते हुए जैक्सन उठा. तुरंत दरवाजा खोल कर चेनलगेट की ओर भागा.

चेनलगेट के पास एक साया था. वह सफेदसफेद नजर आ रहा था. जैक्सन फूर्ति से दौड़ा. चेनलगेट के पास पहुंचा. उस ने उस साए को जोर से पकड़ लिया. फिर चिल्लाया, ‘‘अरे ! भूत पकड़ लिया.’’

‘‘चाबी वाला भूत !’’ कहते हुए बेक्टो ने भी उस साए को जम कर जकड़ लिया.

चिल्लाहट सुन कर उस के मम्मीपापा जाग गए. वे तुरंत बाहर आ गए.

‘‘अरे ! क्या हुआ ? सवेरेसवेरे क्यों चिल्ला रहे हो ?’’ कहते हुए पापाजी ने आ कर बरामदे की लाईट जला दी.

‘‘पापाजी ! चाबी वाला भूत !’’ बेक्टो साये को पकड़े हुए चिल्लाया.

‘‘कहां ?’’

‘‘ये रहा ?’’

तभी उस भूत ने कहा, ‘‘भाई ! मुझे क्यो ंपकड़ा है ? मैं ने तुम्हारा क्या ंबिगाड़ा है ?’’ उस चाबी वाले भूत ने पलट कर पूछा.

‘‘दादाजी आप !’’ उस भूत का चेहरा देख कर बेक्टो के मुंह से निकल गया, ‘‘हम तो समझे थे कि यहां रोज कोई चाबी वाला भूत आता है,’’ कह कर बेक्टो ने सारी बात बता दी.

यह सुन कर सभी हंसने लगे. फिर पापाजी ने कहा, ‘‘बेटा ! तेरे दादाजी को रोज घुमने की आदत है. किसी की नींद खराब न हो इसलिए चुपचाप उठते हैं. धीरे से चेनलगेट खोलते हैं. फिर अकेले घुमने निकल जाते हैं.’’

‘‘क्या ?’’

‘‘हां !’’ पापाजी ने कहा, ‘‘चुंकि तेरे दादाजी टीवी नहीं देखते हैं. मोबाइल नहीं चलाते हैं. इसलिए इन की आंखें बहुत अच्छी है. ये व्यायाम करते हैं. इसलिए अधेरे में भी इन्हें दिखाई दे जाता है. इसलिए चेनलगेट का ताला खोलने के लिए इन्हें लाइट की जरूरत नहीं पड़ती है..’’

यह सुन कर बेक्टो शरमिंदा हो गया,. वह अपने दादाजी से बोला, ‘‘दादाजी ! मुझे माफ करना. मैं समझा था कि कोई चाबी वाला भूत है जो यहां रोज ताला खोल कर रख देता है.’’

‘‘यानी चाबी वाला जिंदा भूत मैं ही हूं,’’ कहते हुए दादाजी हंसने लगे.

बेक्टो के सामने भूत का राज खुल चुका था. तब से उस ने भूत से डरना छोड़ दिया.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

29.12.2018

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 182 ☆ बालगीत – तुम बढ़े चलो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 182 ☆

☆ बालगीत – तुम बढ़े चलो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

शुभ कर्म करो जीवन पथ पर

तुम बढ़े चलो।

तुम बढ़े चलो।।

बनकर जन – जन के विश्वासी

तुम बढ़े चलो।

तुम बढ़े चलो।।

 

तुम फूल सरीखा महको जी।

तुम बुलबुल जैसा चहको जी।

तुम आसमान के तारे हो,

तुम मन से कभी न बहको जी।

 

तुम पुण्य धरा के हो वासी।

तुम बढ़े चलो।

तुम बढ़े चलो।।

 

तुम साथ चलो हर प्राणी के।

तुम शिखर बनो मधु वाणी के।

तुम उड़ो गगन  में पंछी बन।

तुम बन जाओ प्यारा सावन।

 

भू रहे नहीं अपनी  प्यासी।

तुम बढ़े चलो।

तुम बढ़े चलो।।

 

 

तुम को हर  बाधा से लड़ना।

हर शैल शिखर पर है  चढ़ना।

इस उर  में नई उमंग लिए

स्व: दोष नहीं तुम को मढ़ना।

 

तुम ही मथुरा तुम ही काशी

तुम बढ़े चलो।

तुम बढ़े चलो।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #178 ☆ संत तुकाराम महाराज… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 178 ☆ संत तुकाराम महाराज… ☆ श्री सुजित कदम ☆

माघ मासी पंचमीस

जन्मा आले तुकाराम

जन्मदिन शारदेचा

संयोगाचे निजधाम…! १

 

ऋतू वसंत पंचमी

तुकोबांचा जन्मदिन

जीभेवर ‌सरस्वती

नाचतसे प्रतिदिन…! २

 

साक्षात्कारी संत कवी

विश्व गुरू तुकाराम

संत तुकाराम गाथा

अभंगांचे निजधाम…! ३

 

सतराव्या शतकाचे

वारकरी संत कवी

अभंगात रूजविली

भावनांची गाथा नवी…! ४

 

जन रंजले गांजले

त्यांना आप्त मानियले

नरामधे नारायण

देवतत्व जाणियले…! ५

 

तुकोबांची विठुमाया 

कुणा कुणा ना भावली

एकनिष्ठ अर्धांगिनी

जणू अभंग आवली…! ६

 

सामाजिक प्रबोधन

सुधारक संतकवी

तुकोबांचे काव्य तेज

अभंगात रंगे रवी…! ७

 

विरक्तीचा महामेरू

सुख दुःख सीमापार

विश्व कल्याण साधले

अभंगाचे अर्थसार…! ८

 

केला अभंग चोरीचा

पाखंड्यांनी वृथा आळ 

मुखोद्गत अभंगांनी

दूर केले मायाजाल…! ९

 

एक एक शब्द त्यांचा

संजीवक आहे पान्हा

गाथा तरली तरली

पांडुरंग झाला तान्हा..! १०

 

नाना अग्निदिव्यातून

गाथा  प्रवाही जाहली

गावोगावी घरोघरी

विठू कीर्तनी नाहली…! ११

 

जातीधर्म उतरंड

केला अत्याचार दूर

स्वाभिमानी बहुजन

तुकाराम शब्द सूर…! १२

 

रूजविला हरिपाठ

गवळण रसवंती

छंद शास्त्र अभंगाचे

शब्द शैली गुणवंती..! १३

 

दुष्काळात तुकोबांनी

माफ केले कर्ज सारे

सावकारी पाशातून

मुक्त केले सातबारे….! १४

 

प्रपंचाचा भार सारा

पांडुरंग शिरावरी

तुकोबांची कर्मशक्ती

काळजाच्या घरावरी…! १५

 

कर्ज माफ करणारे

सावकारी संतकवी

अभंगात वेदवाणी

नवा धर्म भाषा नवी…! १६

 

प्रापंचिक जीवनात

भोगियले नाना भोग

हाल अपेष्टां सोसून

सिद्ध केला कर्मयोग…! १७

 

परखड भाषेतून

केली कान उघाडणी

पांडुरंग शब्द धन

उधळले सत्कारणी…! १८

 

अंदाधुंदी कारभार

बहुजन गांजलेला

धर्म सत्ता गुलामीला

जनलोक त्रासलेला…! १९

 

साधी सरळ नी सोपी

अभंगाची बोलगाणी

सतातनी जाचातून

मुक्त झाली जनवाणी…! २०

 

संत तुकाराम गाथा

वहुजन गीता सार

एका एका अभंगात

भक्ती शक्ती वेदाकार…! २१

 

सांस्कृतिक विद्यापीठ

इंद्रायणी साक्षीदार

प्रवचने संकीर्तनी

पांडुरंग दरबार…! २२

 

संत साहित्यांची गंगा

ओवी आणि अभंगात

राम जाणला शब्दांनी

तुकोबांच्या अंतरात. २३

 

साक्ष भंडारा डोंगर

कर्मभूमी देहू गाव 

ज्ञानकोश अध्यात्माचा

नावं त्याचे तुकाराम…! २४

 

सत्यधर्म शिकवला

पाखंड्यांना दिली मात

जगायचे कसे जगी 

वर्णियले अभंगात…! २५

 

युग प्रवर्तक संत

शिवराया आशीर्वाद

ज्ञानगंगा विवेकाची 

तुकोबांच्या साहित्यात…! २६

 

सांप्रदायी प्रवचनी 

नामघोष  ललकार

ज्ञानदेव तुकाराम

पांडुरंग जयकार…! २७

 

नाना दुःख सोसताना

मुखी सदा हरीनाम

झाले कळस अध्याय

संतश्रेष्ठ तुकाराम…! २८

 

तुकोबांच्या शब्दांमध्ये

सामावली दिव्य शक्ती

तुका म्हणे नाममुद्रा

निजरूप विठू भक्ती…! २९

 

नांदुरकी वृक्षाखाली

समाधीस्थ तुकाराम

देह झाला समर्पण

गेला वैकुंठीचे धाम…! ३०

 

फाल्गुनाच्या द्वितीयेला

पुण्यतिथी महोत्सव

संत तुकाराम बीज

अभंगांचा शब्दोत्सव..! ३१

 © श्री सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #205 – कविता – ☆ सही-सही मतदान करें… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके सही-सही मतदान करें”।)

☆ तन्मय साहित्य  #205 ☆

☆ सही-सही मतदान करें… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

चलो! आज कुछ बातें कर लें

जागरूक हो ज्ञान की

क्या महत्व है मतदाता का

क्या कीमत मतदान की।

 

मंदिर बना हुआ है लोकतंत्र का,

सबके वोटों से

बचकर रहना, लोभी लम्पट

नकली धूर्त मुखौटों से,

नहीं प्रलोभन, धमकी से बहकें

सौगन्ध विधान की। …

 

जाती धर्म, रिश्ते-नातों को भूल,

सत्य को अपनाएँ

सेवाभावी, निःस्वार्थी को

वोट सिर्फ अपना जाए,

मन में रहे भावना केवल

देश प्रेम सम्मान की। …

 

जिस दिन हो मतदान

भूल जाएँ

सब काम अन्य सारे

मत पेटी के वोटों से ही

होंगे देश में उजियारे,

महा यज्ञ राष्ट्रीय पर्व पर

आहुति नव निर्माण की। …

 

मतदाता सूचियों में पात्र नाम

सब अंकित हो जाये

है अधिकार वोट का सब को

वंचित कोई न रह पाए,

बजे बाँसुरी सत्य-प्रेम की

जन गण मंगल गान की

क्या महत्व है मतदाता का

क्या कीमत मतदान की।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 30 ☆ सोचता हूँ-… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “सोचता हूँ- …” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 30 ☆ सोचता हूँ- … ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सोचता हूँ गीत सब,नीलाम कर दूँ

आदमी जब आदमी को छल रहा है।

 

सच के कागज पर दिखे

झूठ के अख़बार लिक्खे

हर किसी विश्वास की

लगा क़ीमत चंद सिक्के

 

छल-फ़रेबों की सजी हैं मंडियाँ

बोथरा ईमान घुटनों चल रहा है।

 

खोलते साँकल वही

हाथ में जिनके हिफ़ाज़त

जिस किसी ने पुण्य बेचा

ख़रीदी पापी शरारत

 

कौन हाथों उमर की पतवार सौंपूँ

हर किनारा ज़िंदगी का गल रहा है।

 

देखते ही टूट जाते

बिंब सारे दर्पनों में

हाथ मैले हो गए

धर्म-पूजा अर्चनों में

 

किस हथेली उजाले का दीप धर दूँ

हर किसी के मन अँधेरा पल रहा है।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कहाँ आगाज़ सा अंजाम है इसका… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “कहाँ आगाज़ सा अंजाम है इसका“)

✍ कहाँ आगाज़ सा अंजाम है इसका… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

नई उम्मीद फिर उसने जगाई है

मुझे वो देख के जो मुस्कराई है

कहाँ आगाज़ सा अंजाम है इसका

मुहब्बत खूब मैंने आज़माई है

यहाँ इंसान ने तासीर जो बदली

मुसीबत खुद बुलाना अब भलाई है

न ढूढे से मिली दुनिया में अच्छाई

जहाँ देखो बुराई ही बुराई है

मरीज़ -ए -इश्क़ को केवल दुआ कीजे

कहाँ इस रोग की कोई दवाई है

ख़ुशी घर भाइयों के रोकती आना

ये जो दीवार आँगन में उठाई है

ये अंधे भक्त है रहबर के अब इनकी

बड़ी मुश्किल गुलामी से रिहाई है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 89 – प्रमोशन… भाग –7 समापन किश्त ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की शृंखला “प्रमोशन…“ की समापन कड़ी।

☆ आलेख # 89 – प्रमोशन… भाग –7 समापन किश्त ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

रिजल्ट आने वाला है की खबर कुछ दिनों से ब्रांच में चल रही थी या फिर फैलाई जा रही थी. हर खबर पर मि.100% का दिल धक-धक करने लगता. फिर शाखा में उनके एक साथी भी थे जिनका प्रमोशन से कोई लेना देना नहीं था पर इनकी लेग पुलिंग का मज़ा लेने में उनसे कोई भी मौका नहीं छोड़ा जा सकता था. रोज सामना होते ही “मिठाई का आर्डर क्या आज दे दें” सुन-सुन कर 100% बेचैन होते-होते पकने की कगार पर आ गये थे. जो बाकी चार थे उनका जवाब हमेशा यही रहता कि “आर्डर कर दो उसमें क्या पूछना. हम लोग तो पैसे देने वाले नहीं हैं. आखिर वो दिन आ ही गया जब रिजल्ट आने की शत प्रतिशत संभावना थी क्योंकि ये खबर हेड ऑफिस के किसी परिचित ने शाखा प्रबंधक को फोन पर कहा था.

उस दिन जो कि शनिवार था, मि. 100% के घर में बहुत सारी काली चीटियां अचानक न जाने कहाँ से निकल आईं. मिसेज़ 100%की दायीं आंख फड़क रही थी और वो भ्रमित थीं कि दायीं आंख का फड़कना शुभ होता है या बाईं आंख का. उस जमाने में गूगल,  इंटरनेट, कंप्यूटर मोबाइल नहीँ होता था कि कनफर्म किया जाय कि कौन सी आंख का फड़कना शुभ समाचार लाता है. जो भी गूगल थे वो पड़ोसी थे और उनसे ये सब शेयर करना घातक हो सकता था. मि. 100% के पास एक ही दिल था और वही धड़क रहा था जोर जोर से. खैर उनके द्वारा हनुमानजी के दर्शन करते हुये शाखा में उपस्थिति दर्ज की गई.

शनिवार पहले हॉफ डे हुआ करता था तो काउंटर पर भीड भाड़ सामान्य से ज्यादा थी. पर अधिक काम होने के कारण रिजल्ट के तनाव से मन हट गया था. ठीक दो बजे जब हॉल पब्लिक से खाली हुआ तो फोन की लंबी घंटी बजी. सब समझ गये कि ये तो लोकल कॉल नहीं है. शाखा प्रबंधक महोदय ने लोकल सेक्रेटरी को बुलाया और दोनों के बीच गंभीरतापूर्वक वार्तालाप हुआ. सभी प्रत्याशियों सहित सभी की उत्सुकता चरम पर पहुँच गई. ब्रांच का रिजल्ट परफारमेंस 80% था और जो सिलेक्ट लिस्ट में नहीं थे, वो थे मिस्टर 100%.

हॉल में बधाइयों की हलचल से भारी थी मिस्टर 100% के “पास “नहीं होने की खामोशी, आश्चर्य और खबर पर अविश्वास. पर सूचना को चुनौती कोई भी नहीं दे पा रहा था. लोकल सेक्रेटरी का बाहर निकल कर उन्हें बाईपास करते हुये बाकी चारों से मिलकर बधाई देना और स्टाफ की भेदती नजरों से मि.100% समझ गये कि वे यह टेस्ट पास नहीं कर पाये. निराशा से ज्यादा शर्मिंदगी उन्हें खाये जा रही थी और वे भी सोच रहे थे कि काश ये धरती याने शाखा का फ्लोर फट जाये और वे करेंट एकाउंट डेस्क से सीधे धरती में समा जायें. रामायण सीरियल को वह दृश्य उनके मन में चल रहा था जब सिया, अपने राम को छोड़कर धरती में समा गईं थीं. ये पल सम्मान, इमेज़, आत्मविश्वास, कर्तव्य निष्ठा सब कुछ हारने के पल थे.

शाखा में चुप्पी थी, जश्न का माहौल नदारद था, ठिठोली करने वाले खामोश थे और शाखा प्रबंधक गंभीर चिंतन में व्यस्त. शाखा की सारी हलचल हॉल्ट पर आ गई थी. मि. 100% का मन तो कर रहा था शाखा प्रबंधक कक्ष में जाने का पर छाती हुई घोर निराशा उन्हेँ रोक रही थी.

लगभग आधा घंटे बाद हॉल की खामोशी को चीरती फिर लंबी घंटी बजी. शाखा प्रबंधक इस कॉल पर कुछ देर बात करते रहे और फिर उन्होंने इस बार लोकल सेक्रेटरी को नहीं बल्कि मिस्टर 100% को बुलाया. सिलेक्ट लिस्ट में कोई चूक नहीं हुई थी, दरअसल मिस्टर 100%, लीगली रुके हुये प्रशिक्षु अधिकारी के टेस्ट में पास हुये थे. इस जीत का “हार” बड़ा था, पुरस्कार बड़ा था जो उनके 100% को साकार कर रहा था.

और फिर शाखा के मुख्य द्वार से सेठ जी अपने प्रशिक्षु पुत्र के साथ लड्डू लेकर पधारे. इस बार ये लड्डू उनके खुद की नहीं बल्कि शाखा की खुशियों में शामिल होने का संकेत थे.

विक्रम बेताल के इस प्रश्न का उत्तर भी बुद्धिमान पाठक ही दे सकते हैं कि मि. 100% एक टेस्ट में फेल होकर दूसरे टेस्ट में कैसे पास हो गये जबकि दूसरे टेस्ट में प्रतिस्पर्धा कठिन और चयनितों की संख्या कम होती है.

इतिश्री

अरुण श्रीवास्तव

ये मेरी कथा, कौन बनेगा करोड़पति के विज्ञापन से प्रभावित है, जो डब्बा की उपाधि से प्रचलित अभय कुमार की कहानी है. विज्ञापन के विषय में ज्यादा लिखना आवश्यक नहीं है क्योंकि ये तो प्राय: सभी देख चुके हैं. गांव के स्कूल के जीर्णोद्धार के लिये 25 लाख चाहिये तो गांव के मुखिया जी के निर्देशन में सारे मोबाइल धारक KBC में प्रवेश के लिये लग जाते हैं, किसी और का तो नहीं पर कॉल या नंबर कहिये लग जाता है “डब्बा” नाम के हेयर कटिंग सेलून संचालक का जो प्राय: अशिक्षित रहता है. तो पूरे गांववालों द्वारा माने गये इस अज्ञानी को करोड़पति कार्यक्रम के लिये तैयार करने की तैयारी के पीछे पड़ जाता है पूरा गांव. ये तो तय था कि एक अल्पज्ञानी को करोड़पति कार्यक्रम जिताने के लिये असंभव प्रयास किये जा रहे थे, किसी चमत्कार की उम्मीद में, जो हम अधिकांश भारतीयों की आदत है. पर जब परिणाम आशा के अनुरूप नहीं मिला तो सारे गांववालों ने डब्बा को उठाकर कचरे के डब्बे में डाल दिया. ये हमारी आदत है चमत्कारिक सपनों को देखने की और फिर स्वाभाविक रूप से टूटने पर हताशा की पराकाष्ठा में टूटे हुये सपनों को दफन कर देने की. गांव का सपना उनके स्कूल के पुनरुद्धार का था जो वाजिब था, केबीसी में कौन जायेगा, जायेगा भी या नहीं, चला भी गया तो क्या पच्चीस लाख जीत पायेगा, ये सब hypthetical ही तो था. पर यहां से डब्बा के घोर निराशा से भरे जीवन में उम्मीद की एक किरण आती है उसके पुत्र के रूप में जो हारे हुये साधनहीन योद्धा को तैयार करता है नये ज्ञान रूपी युद्ध के लिये. ये चमत्कार बिल्कुल नहीं है क्योंकि अंधेरों के बीच ये रोशनी की किरण हम सब के जीवन में कभी न कभी आती ही है और हम इस उम्मीद की रोशनी को रस्सी की तरह पकड़ कर, असफलता और निराशा के कुयें से बाहर निकल आते हैं. वही चमत्कार इस विज्ञापन में भी दिखाया गया है जब डब्बा जी पचीस लाख के सवाल पर बच्चन जी से फोन ए फ्रेंड की लाईफ लाईन पर मुखिया जी से बात करते हैं सिर्फ यह बतलाने के लिये कि 25 लाख के सवाल का जवाब तो उनको मालुम है पर जो मुखिया जी को मालुम होना चाहिये वो ये कि उनका नाम अभय कुमार है, डब्बा नहीं.

हमारा नाम ही हमारी पहली पहचान होती है और हम सब अपनी असली पहचान बनाने के लिये हमेशा कोशिश करते रहते हैं जो हमें मिल जाने पर बेहद सुकून और खुशियां देती है. सिर्फ हमारे बॉस का शाम को पीठ थपाथपा कर वेल डन डियर कहना इंक्रीमेंट से भी ज्यादा खुशी देता है. लगता है कि इस ऑफिस को हमारी भी जरूरत है. हम उनकी मजबूरी या liability नहीं हैं.

विज्ञापन का अंत बेहद खूबसूरत और भावुक कर देने वाला है जब इस विज्ञापन का नायक अभय कुमार अपने उसी उम्मीद की किरण बने बेटे को जिस स्कूल में छोड़ने आता है उस स्कूल का नाम उसके ही नाम अभय कुमार पर ही होता है. ये अज्ञान के अंधेरे में फेंक दिये गये, उपेक्षित अभयकुमार के सफर की कहानी है जो लगन और सही सहारे के जरिये मंजिल तक पहुंच जाता है जो कि उसके गांव के स्कूल का ही नहीं बल्कि उसका भी पुनरुद्धार करती है. ये चमत्कार की नहीं बल्कि कोशिशों की कहानी है अपनी पहचान पाने की.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 205 ☆ तगमग ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 205 ?

तगमग ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

घराचे दार बंद,

 

काही बंधने तिनेच

घालून घेतलेली !

पण खिडक्यांना कळते ,

तिला काय हवे आहे ,

मग त्या पोहचवतात,

तिला हवा तेवढा प्रकाश

आणि ती उजळून निघते !

व्यक्त होत रहाते

इथे तिथे !

तशी ती मुक्तच आहे ,

तिने मिळवले मूठभर स्वातंत्र्य,

पण मानसिक गुलामगिरीचे काय?

आणि आमंत्रण न देता

तिच्या पर्यंत येणाऱ्या ,

त्या प्रकाशाचे तरी काय?

ही तगमग तिची तिनेच

 

पाळलेली ,

आजीवन!!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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