(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# उत्सव #”)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है ममता की पराकाष्ठा प्रदर्शित करती एक सार्थक कहानी ‘कबाड़’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 216 ☆
☆ कहानी – कबाड़☆
चन्दन माता-पिता को गाँव से शहर ले आया है। वे अभी तक गाँव में ही थे। अभी तक छोटे भाई की पढ़ाई की वजह से गाँव में रहना ज़रूरी था। अब वह मजबूरी ख़त्म हो गयी है। भाई कंप्यूटर की डिग्री लेकर पुणे में एक कंपनी में नौकरी पा गया है। अब माँ-बाप को वक्त ही काटना है।
चन्दन सरकारी कॉलेज से बी.ई. की डिग्री लेकर विद्युत मंडल में सहायक इंजीनियर के पद पर नियुक्त हो गया था। पिता सन्तराम की आर्थिक स्थिति कमज़ोर थी। गाँव की दस बारह एकड़ ज़मीन के बूते दो बेटों की पढ़ाई कैसे हो सकती थी। भद्रलोक में गिनती होने के कारण खुद हल की मुठिया नहीं थाम सकते थे। मज़दूरों के भरोसे ही खेती होती थी, इसलिए हाथ में कम ही आता था।
स्कूल की पढ़ाई खत्म कर चन्दन बी.ई. की प्रवेश-परीक्षा में बैठा था। जब परिणाम आया और वह पास हुआ तो वह खुशी से पागल हो गया, लेकिन सुसमाचार के बावजूद पिता का मुँह उतर गया। शहर में रहने का खर्च और फिर इंजीनियरिंग की पढ़ाई। कैसे व्यवस्था होगी?
लेकिन उनकी पत्नी मज़बूत थी। उन्होंने फैसला सुना दिया कि बेटे की पढ़ाई तो होगी, दिक्कतों का सामना किया जाएगा। सौभाग्य से चन्दन को सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश मिल गया और फिर कमज़ोर आर्थिक स्थिति के आधार पर छात्रवृत्ति भी मिल गयी। इस तरह पढ़ाई की गाड़ी झटके खाती हुई चलती रही। कई बार परिवार के थोड़े से ज़ेवर गिरवी रखने के लिए बाहर भीतर होते रहे। लेकिन चन्दन की माँ ने कभी हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने दाँत भींचकर पेट पर चार गाँठें लगा ली थीं। घर का खर्च एकदम न्यूनतम पर पहुँच गया था।
उस वक्त हालत यह थी कि चन्दन और उसका भाई रक्षाबंधन पर दस मील दूर अपनी चचेरी बहनों से राखी बँधाने के लिए तो बस से चले जाते, लेकिन बहनों को देने के लिए उन के पास कुछ न होता। सिर झुकाए राखी बँधवाते और शर्माते, झिझकते वापस आ जाते। घर की हालत यह कि ढंग का बिस्तरबंद तक नहीं था। एक पुराना कंबल था लेकिन उसमें छेद हो गये थे। कहीं जाने के मौके पर भारी संकट आ खड़ा होता। रिश्तेदारों से सूटकेस कंबल उधार लेना पड़ता था।
बी.ई. के अन्तिम वर्ष में पहुँचते-पहुँचते चन्दन विवाह-योग्य कन्याओं के पिताओं की नज़र में चढ़ गया। एक एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर साहब ने उसकी पक्की घेराबन्दी शुरू कर दी थी। उसके गाँव के चक्कर, छोटी मोटी भेंटें, योग्य सेवा के लिए हमेशा प्रस्तुत रहने का आश्वासन। साथ ही यह वादा भी कि आगे चन्दन का भविष्य बनाने के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे। चन्दन की नौकरी लगते ही एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर साहब की कोशिशें परवान चढ़ीं और शादी संपन्न हो गयी। इस शादी की बदौलत चन्दन अब स्वतः बड़े लोगों की बिरादरी में शामिल हो गया। विभाग की तरफ से एक फ्लैट भी मिल गया। चपरासी रखने की पात्रता तो नहीं थी, लेकिन ससुर साहब के प्रताप से एक चपरासी भी सेवा के लिए हाज़िर रहने लगा।
चन्दन की पत्नी मनीषा अपने घर को खूब व्यवस्थित और सजा-सँवरा रखती थी। उसके पिता के प्रताप से घर में किसी चीज की कमी नहीं रहती थी। आराम की हर चीज़ घर में उपलब्ध थी। पिता की पोस्टिंग भोपाल में थी, लेकिन वह रोज़ बेटी के परिवार की खैर-खबर लेते रहते थे। कोई अटक-बूझ होने पर तत्काल भगवान विष्णु की तरह अभय मुद्रा में प्रकट भी हो जाते थे।
शादी के लगभग तीन साल बाद ही चन्दन के माता-पिता का बेटे के घर आना हुआ। अभी तक चन्दन के परिवार में कोई वृद्धि नहीं हुई थी। सन्तराम जी को अपने गाँव का परिवेश छोड़कर शहर में एडजस्ट होने में अड़चन होती थी। उठने-बैठने, खाने-पीने, सभी कामों में कुछ अटपटा लगता था। गाँव में उन्हें कैसे भी उठने- बैठने, बोलने-बताने की आदत थी। कहीं घंटों खड़े रहो तो किसी को कुछ गड़बड़ नहीं लगता था। यहाँ ऐसा नहीं था। देर तक कहीं खड़े रहो तो लोग घूरने लगते थे।
शुरू में सन्तराम शहर में उखड़े- उखड़े रहते थे। सब तरफ बिल्डिंग ही बिल्डिंग। खाली मैदान के दर्शन मुश्किल। आकाश भी आधा चौथाई दिखायी देता। चाँद-तारे दिख जाएँ तो अहोभाग्य। सड़कों के किनारे पेड़ ज़रूर लगे हैं। उनसे ही कुछ सुकून मिलता है।
सन्तराम बेटे-बहू से कहते, ‘आप लोग अपने आप में सिकुड़ते जा रहे हो। अपना टेलीफोन, अपना इंटरनेट, अपनी कार। दूसरों पर निर्भरता कम से कम हो और आदमी की सूरत कम से कम देखना पड़े। गाँव में दुआरे पर बैठ जाते हैं तो हर निकलने वाले से दो दो बातें होती रहती हैं। कोई मौजी हुआ तो घंटों वहीं ठमक जाएगा। एक ज़माने में हमारे अपने नाई, तेली, मोची और धोबी से संबंध होते थे। वे हमारी ज़िन्दगी का ज़रूरी हिस्सा होते थे और हम उनकी ज़िन्दगी के। अब कोई किसी को नहीं पहचानता। सब कुछ घर बैठे मिल जाता है तो चलने-फिरने की ज़रूरत कम होती जा रही है। इसीलिए वज़न बढ़ रहा है और घुटने की तकलीफें बढ़ रही हैं। ‘
चन्दन और मनीषा उनका प्रवचन सुनते रहते हैं। सन्तराम एक और मार्के की बात कहते हैं। कहते हैं, ‘हमारे देश में हाथ से काम करने वालों को कोई इज़्ज़त नहीं देता। बढ़ई, लुहार, दर्जी, धोबी, किसान, मज़दूर को कोई कुर्सी नहीं देता। हाथ से काम करने वालों को मज़दूरी भी बहुत कम मिलती है। इसीलिए कोई हाथ का काम नहीं करना चाहता। सब कुर्सी वाला काम चाहते हैं। सुन्दर भवन बनाने वाले राजमिस्त्री के घर स्कूटर मिल जाए तो बहुत जानो। कार कुर्सी वालों के ही भाग्य में लिखी है। ‘
बात करते-करते सन्तराम पीछे सोफे के कवर पर सिर टिका देते हैं और मनीषा को फिक्र सताने लगती है कि कहीं कवर पर तेल का दाग न पड़ जाए। उसे चैन तभी मिलता है जब ससुर साहब सिर सीधा कर लेते हैं। कभी बैठे-बैठे पाँव उठाकर सोफे पर रख लेते हैं और भय पैदा हो जाता है कि कोई इज़्ज़तदार मेहमान उस वक्त ड्राइंग-रूम में न आ जाए।
सन्तराम जी की एक परेशान करने वाली आदत यह है कि आसपास पड़े कील, स्क्रू, तार, रस्सी, डिब्बे जैसी चीज़ों को बीन बीन कर सँभाल कर रख लेते हैं। कहते हैं, ‘ये काम की चीज़ें हैं। कब इनकी ज़रूरत पड़ जाए, पता नहीं। फिर इधर उधर दौड़ते फिरो। ‘ इधर उधर पड़े कोरे कागज़ों और कपड़े के टुकड़ों को सँभाल कर अलमारी में रख देते हैं।
सन्तराम खाने की मेज़ पर भोजन शुरू करने से पहले आँख मूँद कर थोड़ी देर मौन हो जाते हैं। पहले मनीषा समझती थी कि शायद ईश्वर को धन्यवाद देते हैं। फिर रहस्य खुला। बताया, ‘मैं आँख बन्द करके उन सब को याद करता हूँ जिन्होंने दिन रात मेहनत करके यह अन्न हमारे लिए पैदा किया। ‘ फिर हँस कर कहते हैं, ‘वैसे उस जमात में मैं भी शामिल हूँ। ‘
सन्तराम घर में बैठे-बैठे अचानक ग़ायब हो जाते हैं, फिर किसी घर के गेट से निकलते दिखते हैं। लोगों से मिले-जुले बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता। घर में चपरासी या काम करने वाली महरी से लंबा वार्तालाप चलता है। उनकी सारी कैफियत उनके पास है— कहाँ गाँव-घर है, कितने बाल-बच्चे हैं, गुज़र-बसर कैसे होती है, ज़िन्दगी में कितने सनीचर लगे हैं? दरवाजे़ पर कोई सर पर बोझा लेकर आ जाए तो बिना किसी का इन्तज़ार किये लपक कर उतरवा देते हैं।
सन्तराम को उनके इस्तेमाल की चीज़ों से मुक्त करना बहुत कठिन होता है। कुर्ते कॉलर और कफ पर और पायजामे पाँयचों पर छिन जाते हैं लेकिन उन्हें रिटायर नहीं किया जाता। उनकी मुक्ति तभी होती है जब वे अचानक ग़ायब कर दिये जाते हैं। जूतों की शक्ल-सूरत बिगड़ जाती है लेकिन वे चलते रहते हैं। फिज़ूलखर्ची उन्हें स्वीकार नहीं। मनीषा के पिता इस मामले में बिल्कुल भिन्न हैं। पुरानी चीज़ों से उनका बहुत जल्दी मोहभंग होता है, चाहे वह कार हो या कोई और चीज। पैसे खर्च करने में उन्हें दर्द नहीं होता। उनका उसूल है कि कमाने के लिए खर्च करना ज़रूरी है। खर्च का दबाव हो तभी आदमी कमाने के लिए हाथ-पाँव मारता है। उनके जीवन में यह चरितार्थ भी होता है।
करीब एक माह बेटे के पास रहने के बाद सन्तराम को उनका गाँव बुलाने लगा। गाँव में जन्म लेने वालों को उनका गाँव मरणपर्यन्त पुकारता है। स्मृति में लहकता रहता है। सन्तराम गाँव की पुकार पर चल दिये और मनीषा के लिए यह समस्या छोड़ गये कि उनके छोड़े कबाड़ का वह क्या करे?
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा पुस्तक चर्चा ‘सुंदर सूक्तियाँ’ – पठनीय मननीय कृति – श्री हीरो वाधवानी।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 162 ☆
☆ ☆ पुस्तक चर्चा – ‘सुंदर सूक्तियाँ’ – पठनीय मननीय कृति – श्री हीरो वाधवानी ☆
[कृति विवरण: कृति विवरण – सुंदर सूक्तियाँ, सूक्ति संग्रह, हीरो वाधवानी, आकार डिमाई, पृष्ठ संख्या २७५, मूल्य ₹ ५००, प्रथम संस्करण २०२३, अयन प्रकाशन दिल्ली।]
‘सुंदर सूक्तियाँ’ – पठनीय मननीय कृति
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
किसी भी भाषा में उसे बोलने वालों के जीवन अनुभवों को सार रूप में व्यक्त करने के लिए सूक्तियाँ कही जाती हैं।
सूक्तियों के दो रूप देखने में आते हैं- गद्य और पद्य। सूक्तियाँ, लोकोक्तियों से सृजीत होती हैं, मुहावरे बनकर जन-जन के अधर पर विराजमान रहती हैं और वर्तमान काल में जब शिक्षा सर्व सुलभ है, मुद्रण सहज और मितव्ययी हो गया है, सूक्तियाँ अधरों से उठकर पन्नों पर अंकित हो गई हैं।
श्री हीरो वाधवानी
सूक्तियाँ परंपरागत भी होती हैं और नई सूक्तियाँ भी रची जाती हैं। चिंतक हीरो वाधवानी अपने विचार सागर से जो विचार बिंदु विचार मणिया प्राप्त करते हैं उन्हें सूक्ति के रूप में सर्वसुलभ कराते हैं। उनकी पूर्व कृतियाँ ‘प्रेरक अर्थपूर्ण कथन और सूक्तियाँ’, ‘सकारात्मक सुविचार’, ‘सकारात्मक अर्थपूर्ण सूक्तियाँ’, ‘मनोहर सूक्तियाँ’ पूर्व में प्रकाशित हो चुकी हैं और अब इस क्रम में उनकी छठवीं कृति ‘सुंदर सूक्तियाँ’ पाठक पंचायत में प्रस्तुत हुई है। भाई हीरो वाधवानी सूक्ति सृजन करते हुए हिंदी साहित्य को एक लोकोपयोगी विधा से संपन्न कर रहे हैं।
सूक्ति सजन का कार्य पूर्व में वियोगी हरि जी, प्रभाकर माचवे जी तथा कुछ अन्य साहित्यकारों ने किया है।
सूक्ति का उद्देश्य सामान्य जन को कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक सारगर्भित संदेश देना होता है।
सूक्ति मानव मन की धरती पर भावनाओं के बीज बोकर कामनाओं की खरपतवार को नियंत्रित करती है, सूक्ति मानवीय आचरण को दिशा दिखाती है। सूक्ति का कार्य किसी डंडधारी की तरह प्रताड़ित करना नहीं होता अपितु किसी सद्भावी मार्गदर्शख की तरह अँगुली पकड़ कर सत्पथ पर चलाना होता है। सूक्ति था
जीवनानुभवों से प्राप्त सीख को सर्वजन सुलभ बनाती है, सूक्ति गागर में सागर है, सूक्ति बिंदु में सिंधु है, सूक्ति अंगार में छपी मशाल है।
सूक्ति का सृजन बहुत सरल प्रतीत होता है किंतु होता नहीं है। एक सूक्ति के सृजन के पूर्व गहन चिंतन की पृष्ठभूमि होती है। हीरो वाधवानी जी सूक्ति के माध्यम से कम से कम शब्दों में सार्थक संदेश देते हैं, आदर्श का मंत्र देते हैं, आचरण का सूत्र देते हैं। जिस तरह सड़क पर यातायात को नियंत्रित करने के लिए संकेतक चिन्ह लगाए जाते हैं, उसी तरह मानव जीवन के पथ पर आचरण को संतुलित और सम्यक बनाने के लिए सूक्ति का सृजन अध्ययन और अनुसरण किया जाता है।
शिशु को शैशव काल काल में ही सूक्तियाँ सुनाई जाएँ तो वह उसके मानस पर अंकित होकर उसके आचरण का भाग बन सकती हैं। आज समाज में जो अराजकता व्याप्त है, जो पारिवारिक विघटन हो रहा है, पारस्परिक विश्वासघात रहा है,़ आदर्श सिमट रहे हैं और उपभोक्तावादी संस्कृति बढ़ रही है उसका निदान सूक्ति के माध्यम से किया जा सकता है। सूक्ति की सरलता, सहजता संक्षिप्तता तथा बोधगम्यता मनोवैज्ञानिकता तथा आचरण परकता है। यह सूक्तियाँ सिर्फ किताबी नहीं है, इन्हें पढ़-समझ कर आचरण में उतारि जा सकता है।
‘सुंदर वह है जिसका व्यवहार और वाणी सुंदर है’ यह सूक्ति मनुष्य जीवन में सुंदरता को परिभाषित करती है कि सुंदरता तन की नहीं होती, वस्तुओं में नहीं होती, व्यवहार और वाणी में होती है।
‘ब्याज पर लिया गया धन कृपा और आशीर्वाद रहित होता है’ इस सूक्ति को अगर आचरण में उतार लिया जाए तो ऋण लेकर न चुका पाने वाले आत्महत्या कर रहे लोगों को जीवन मिल सकता है। विडंबना है उपभोक्तावादी संस्कृति ऋण लेने को प्रोत्साहित करती है। यह सूक्ति उसे नियंत्रित करती है।
‘ईश्वर परिश्रम करने वाली की पहले और प्रार्थना करने वाले की बाद में सुनता है’ इस सूक्ति में समस्त धर्म का मर्म छिपा हुआ है। लोक इसे स्वीकार कर लें तो अंध श्रद्धा के व्याल-जिल से मुक्त होकर श्रम देवता की उपासना करने लगेगा जिससे देश समृद्ध और संपन्न होगा।
एक और सूक्ति देखें जो आचरण के लिए महत्वपूर्ण है। ‘बाल की खाल निकालने वाला बुद्धिमान नहीं मूर्ख है’
सामान्य तौर पर बुद्धि का प्रदर्शन करने के लिए लोग छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति अपनाते हैं। यह उक्ति इस प्रवृत्ति का निषेध करती है।
दांपत्य जीवन को लेकर एक बहुत सुंदर सूक्ति देखिए ‘पत्नी और पति दाईं और बाईँ आँख हैं’, जिस तरह एक आँख के न रहने पर भी दूसरी आँख से देखा तो जा सकता है किंतु वह अशुभ या कुरूप हो जाती है, सम्यक दृष्टि तो तभी है जब दोनों आँखें हों। दोनों का समान महत्व हो, दोनों से समान दिखाई देता हो।
इस सूक्ति में पति-पत्नी दोनों की समानता और पारस्परिक पूरकता का भाव अंतर्निहित है।
‘ईश्वर गाना देता है, गुड़ और शक्कर नहीं’, इस सूक्ति में पुरुषार्थ और प्रयास दोनों की महत्ता अंतर्निहित है। ईश्वर उपादान तो देता है स्वास्थ्य देता है किंतु आस पूरी करने के लिए प्रयास मनुष्य को ही करना होता है।
एक और सूक्ति देखें- ‘अच्छी नींद नर्म बिस्तर की नहीं, कठोर परिश्रम की दीवानी है’, यह कटु सत्य हम दैनिक जीवन में देखते हैं जो श्रमिक दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत करता है, रिक्शा चलाता है कुली बनकर सामान उठाता है वह पत्थर पर भी घोड़े बेचकर सोता है और समृद्धिमान पूँजीपति नींद न आने के कारण रेशमी मखमली गद्दे होते हुए भी नींद की गोलियों का सेवन करते हैं।
इस संग्रह के हर पृष्ठ पर अंकित हर सूक्ति जीवन में उतारने योग्य है। मुझे तो ऐसा लगता है कि यह सूक्ति संग्रह हर विद्यालय में होना चाहिए और सूक्तियाँ दीवारों पर लिखी जानी चाहिए।
भाई हीरो वाधवानी इस सार्थक सृजन हेतु साधुवाद के पात्र हैं। ऐसी लोकोपयोगी कृति अल्प मोली होनी चाहिए ताकि वे बच्चे खरीद सकें जिनके लिए यह आवश्यक है।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 215☆ भावात्मक गोला
पिछले दिनों ‘संजय उवाच’ के एक आयोजन के लिए झारखंड के रामगढ़ जनपद के गोला नामक ग्राम में जाने का अवसर मिला। राँची से गोला की दूरी लगभग 64 किलोमीटर है। यहाँ से पास में ही माँ छिन्नमस्तका सिद्धपीठ है। गोला के चित्तरंजन सेवासदन एवं रिसर्च सेंटर के परिसर में स्थित मंदिर में प्रबोधन, सत्संग एवं हरिनाम सुमिरन का आयोजन संपन्न हुआ। तदुपरांत आरती और भंडारा की व्यवस्था थी। इस मंदिर में महादेव-पार्वती, लक्ष्मी-नारायण, श्री गणेश, हनुमान जी, साईंबाबा की मूर्तियाँ स्थापित हैं। आरती आरंभ हुई। सबसे पहले सर्वसामान्य हिंदी आरती ‘ओम जय जगदीश हरे’ हुई। तदुपरांत देवी की आरती हुई। यह बंगाली में थी। बंगाल और झारखंड के आपस में पड़ोसी होने से यह प्रभाव सहज था। बाद में साईं की आरती हुई। आश्चर्य कि यह आरती मराठी में थी। झारखंड के ग्रामीण भाग में मराठी में आरती सुनना एक भिन्न अनुभव था। हुआ यूँ होगा कि मंदिर का प्रबंधन देखनेवाले श्रद्धालु परिजन शिर्डी आए होंगे और वहाँ से मराठी में उपलब्ध आरती संग्रह अपने साथ ले गए होंगे। समय के साथ लगभग पंद्रह सौ किलोमीटर दूर स्थित मराठी भाषी शिर्डी में गाई जानेवाली आरती अमराठी भाषी गोला में भी उसी भाव से गाई जाने लगी।
चिंतन का सूत्र यहीं जन्म लेता है। भाषा से अधिक महत्वपूर्ण है भाव। यूँ देखें तो भावों की शाब्दिक अभिव्यक्ति ही भाषा है। भाव ही मनुष्य-मनुष्य के बीच तादात्म्य स्थापित करता है। भाव को भाव के स्तर पर ग्रहण किया जाए तो जीवन के प्रति दृष्टिकोण ही बदल जाता है।
भाषा इहलोक का साधन हो सकती है, ईश्वर तक तो भाव ही पहुँचता है। शबरी द्वारा अपने जूठे बेर खिलाने के पीछे छिपा वात्सल्यभाव महत्वपूर्ण था। इतना महत्वपूर्ण कि प्रभु प्रशंसा करते नहीं थकते।
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥
भाव-विभोर विदुर द्वारा केले फेंकना और केले के छिलके प्रभु को खिलाने में भी भाव ही महत्वपूर्ण था। सुदामा के पोहे में जो प्रेमरस था, राजभोग उसके आगे फीका था।
गोला की धरती से मिला भाव सुधी साधकों और पाठकों के साथ साझा कर रहा हूँ। इस पर मनन हो सके, भाव के स्तर पर भाव ग्रहण हो सके तो भावात्मकता का एक गोला तैयार हो सकता है। शुभं अस्तु।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
🕉️ 💥 महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से आपको शीघ्र ही अवगत कराएंगे। 💥 🕉️
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
Anonymous Litterateur of Social Media # 163 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 163)
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “ज़िंदगी मौत की ज़ायदाद रहती है…”।)
ग़ज़ल # 99 – “ज़िंदगी मौत की ज़ायदाद रहती है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(सुश्री दीपा लाभ जी, बर्लिन (जर्मनी) में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। हिंदी से खास लगाव है और भारतीय संस्कृति की अध्येता हैं। वे पिछले 14 वर्षों से शैक्षणिक कार्यों से जुड़ी हैं और लेखन में सक्रिय हैं। आपकी कविताओं की एक श्रृंखला “अब वक़्त को बदलना होगा” को हम श्रृंखलाबद्ध प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की अगली कड़ी।)
☆ कविता ☆ अब वक़्त को बदलना होगा – भाग – 5 ☆ सुश्री दीपा लाभ ☆
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना – “सबके भगवान तो एक ही हैं” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ “सबके भगवान तो एक ही हैं” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
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दुनियाँ है बड़ी बिखरी सी कड़ी, पर सबकी बनावट एक सी है
हर रोज छटा नई होती है पर धरती की सजावट एक सी है
जलथल नभ ताप पवन मौसम सारी दुनियाँ में एक से हैं
रोना गाना खुशियाँ औ गम, हर देश में सबके एक से हैं ।।
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पूरब पश्चिम हो देश कोई इन्सान की सूरत एक सी है
गति मति रति चाल चलन जीवन की जरूरत एक सी है।
दिन रात सुबह और शाम कहीं भी हों, सब होते एक से हैं
सब सूरज, चाँद सितारों के संग जगते और सोते एक से हैं
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संसार में हर एक प्राणी की अपनी सक्रियता एक सी है
है साफ इसी से इस सारी दुनियाँ का रचियता एक ही है।
है तथ्य यही है तत्व वही उसे राम कहो या रहीम कहो
रब, वाहे गुरु, अल्लाह, मसीह, जरश्रुस्त या कृष्ण, करीम कहो
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जो जैसा चाहे ध्यान करे, पूजा अर्चन या याद करे
मंदिर मस्जिद गिरजा गुरुद्वारे में जाके अरदास करे।
जब तत्व है एक तो भेद कहाँ ? उसका सन्मान तो एक ही है
साकार हो या आकार रहित जग का भगवान तो एक ही है
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अपने अज्ञान के चक्कर में, हम अलग नाम ले फूले हैं
रंग रूप धर्म या बोली के फिरकों में बँट कर भूले हैं ।।