हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 100 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 100 – मनोज के दोहे… ☆

1 सुमुख

करूँ सुमुख की अर्चना, हरें सभी के कष्ट।

गौरी-शिव प्रभु नंदना, रोग शोक हों नष्ट।।

2 एकदंत

एकदंत रक्षा करें, हरते कष्ट अनेक।

दयावंत हैं गजवदन,जाग्रत करें विवेक।।

3 गणाध्यक्ष

गणाध्यक्ष गजमुख प्रभु, हर लो सारे कष्ट।

बुद्धि ज्ञान भंडार भर, कभी न हों पथभ्रष्ट।।

4 भालचंद्र

भालचंद्र गणराज जी, महिमा बड़ी अपार।

वेदव्यास के ग्रंथ को, लेखन-लिपि आकार।।

5 विनायक

बुद्धि विनायक गजवदन, ज्ञानवान गुणखान ।

प्रथम पूज्य हो देव तुम, करें सभी नित ध्यान ।।

6 धूम्रकेतु

धूम्रकेतु गणराज जी, इनका रूप अनूप।

अग्र पूज्य हैं देवता, चतुर बुद्धि के भूप।।

7 गजकर्णक

गजकर्णक लम्बोदरा, विघ्नविनाशक देव।

रिद्धि सिद्धि के देवता, हरें कष्ट स्वयमेव।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 233 ☆ व्यंग्य – भीड़ के चेहरे… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – भीड़ के चेहरे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 233 ☆

? व्यंग्य – भीड़ के चेहरे ?

मैं अखबार की हेड लाईन पढ़ रहा था, जिसमें भीड़ द्वारा की गई तोड़ फोड़  की खबर बोल्ड लैटर में छपी थी,  मुझे उस खबर के भीतर एक अप्रकाशित चित्र दिखा, जिसमें बिलौटा भाग रहा था और चूहे उसे दौड़ा रहे थे. चित्र देखकर मैने बिलौटे से पूछा, ये क्या ? तुम्हें चूहे दौड़ा रहे हैं ! बिलौटे ने जबाब दिया यही तो भीड़तंत्र है. चूहे संख्या में ज्यादा हैं, इसलिये चलती उनकी है. मेरा तो केवल एक वोट है, दूसरा वोट मेरी बिल्लो रानी का है, वह भी वह मेरे कहे पर कभी नही देती. बल्कि मेरी और उसकी पसंद का आंकड़ा हमेशा छत्तीस का ही होता है. चूहो के पास संख्याबल है. इसलिये अब उनकी ही चलती है.

मैने खबर आगे पढ़ी लिखा था अनियंत्रित भीड़ ने ला एण्ड आर्डर की कोशिश करती पोलिस पर पथराव किया. मैने अपने आप से कहा, क्या जमाना आ गया है,  एक वो परसाई  के जमाने के इंस्पेक्टर मातादीन थे, जिन्होने चांद पर पहुंच कर महज अपने डंडे के बल पर पोलिस का दबदबा कायम कर लिया था और एक ये हमारे जमाने के इंस्पेक्टर हैं जो भरी रिवाल्वर कमर में बांधे खुद अपनी ही जान से हाथ धो रहे हैं. मुझे चिंता हो रही है, अब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का वाले मुहावरे का क्या होगा ?

तभी मुझे एक माँ अपने बच्चे को गोद में लिये दिखी, बच्चा अपनी तोतली जवान में बोला गग्गा !  पर जाने क्यो मुझे सुनाई दिया शेर ! मैं जान बचाकर पलटकर भागा,मुझे यूं अचानक भागता देख मेरे साथ और लोग भी भागने लगे,जल्दी ही हम भीड़ में तब्दील हो गये. भीड़ में शामिल हर शख्स का चेहरा गुम होने लगा. भीड़ का कोई चेहरा नही होता. वैसे भीड़ का चेहरा दिखता तो नही है पर होता जरूर है, अनियंत्रित भीड़ का चेहरा हिंसक होता है. हिंसक भीड़ की ताकत होती है अफवाह, ऐसी भीड़ बुद्धि हीन होती है. भीड़ के अस्त्र पत्थर होते हैं. इस तरह की भीड़ से बचने के लिये सेना को भी बख्तर बंद गाड़ियो की जरूरत होती है. इस भीड़ को सहज ही बरगला कर मतलबी अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं, भीड़ पथराव करके, नारे लगाकर, तोड़फोड़ करके या आग लगा कर, हिंसा करके, किसी ला आर्डर बनाने की कोशिश करते इंस्पेक्टर को मारकर,गुम जाती है,तितर बितर हो जाती है,  फिर इस भीड़ को  वीडीयो कैमरो के फुटेज में कितना भी ढ़ूंढ़ो कुछ खास मिलता नही है, सिवाय किसी आयोग की जांच रिपोर्ट के. तब इस भीड़ को लिंचिंग कह कर पल्ला झाड़ लिया जाता है. यह भीड़ गाय के कथित भक्तो को गाय से बड़ा बना देती है. ऐसी भीड़ के सामने पोलिस बेबस हो जाती है.

भीड़ एक और तरह की भी होती है. नेतृत्व की अनुयायी भीड़. यह भीड़ संवेदनशील होती है. इस भीड़ का चेहरा क्रियेटिव होता है.गांधी के दांडी मार्च वाली भीड़ ऐसी ही भीड़ थी. दरअसल ऐसी भीड़ ही लोकतंत्र होती है. ऐसी भीड़ में रचनात्मक ताकत होती है.  जरूरत है कि अब देश की भीड़ को, भीड़ के दोनो चेहरो से परिचित करवाया जाये तभी माब लिंचिंग रुक सकती है. गग्गा शब्द की वही कोमल अनुभूति बने रह सके, गाय से डर न लगने लगे, तोतली जुवान में गग्गा बोलने पर, शेर सुनाई न देने लगे इसके लिये जरूरी है कि हम सुशिक्षित हो कि कोई हमें डिस्ट्रक्टिव भीड़ में बदल न सके.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 169 – मोबाइल में रस्म रिवाज – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है  समाज के चिंतनीय विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा मोबाइल में रस्म रिवाज”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 169 ☆

☆ लघुकथा – 📱मोबाइल में रस्म रिवाज 📱

शकुंतला देवी गांव में तो बस उसका नाम ही बहुत था। सारे गांव के लिए वह देवी के समान थी क्योंकि गांव की बिटिया थी और सभी की सहायता करती थी। जाने अनजाने सब का भला करती थी। बिटिया सयानी हो चली थी। कहने को तो उसकी शादी धूमधाम से रईस खानदान में दूर दराज शहर में एक नामी परिवार में हुआ था। परंतु पति की अय्याशी और गैर जिम्मेदारी के कारण उसका विवाह ज्यादा दिन नहीं चला।

उसे अपना भाग्य समझे या दुर्भाग्य दोनों का एक बेटा था। बेटे को लेकर वह सदा – सदा के लिए फिर से अपने गांव मायके आ गई। अपनी सूझबूझ से गांव की एक पाठशाला से आज वह गवर्नमेंट स्कूल की प्रिंसिपल बन चुकी थी। अपने बच्चे के लालन- पालन में कोई कसर नहीं रखी थी, परंतु कहते हैं कि खून का असर कहीं नहीं जाता है। बेटा भी उसी रंग ढंग का निकला।

वह उसे एक बड़े शहर में हॉस्टल में भर्ती कराकर कि शायद वह सुधर जाएगा, वह आ गई और अकेली समय काट रही थी। साथ में एक आया बाई हमेशा रहती थी।

उम्र का पड़ाव अब ढलान की ओर होने लगा। चिंता की गहरी रेखाएं उसके माँथे को ततेर रही थी। कभी जब बहुत कहने पर वक्त का बहाना बना देने वाला उसका बेटा आज माँ शकुंतला देवी से वीडियो कॉल पर बात कर रहा था….माँ शादी के रीति रिवाज मैं नहीं मानता। परन्तु यह देखो हम दोनों यहां शादी कर रहे हैं। तुम कहती… हो सिंदूर की गरिमा होती है। तो मैं इसके माँग पर सिंदूर भी लगा रहा हूँ। परंतु मुझे आपके रीति रिवाज में कोई दिलचस्पी नहीं है।

हाथ से हेलो करती दूसरी तरफ से कटे बाल वाली लड़की कहने लगी… हमें आशीर्वाद तो दे दो हमारी नई जिंदगी शुरू हो रही है।

शकुंतला देवी के सैकड़ो हजारों अरमान कांच के गिरकर टूटने जैसे एक ही बार में बिखर गए। सपने संजोए वह क्या-क्या सोच रही थी। परंतु बेटे ने तो एक बार में वीडियो कॉल से ही निपटा दिया। आज वह पूरी तरह टूट चुकी थी।

तभी कमरे के दरवाजे से पंडित जी की आवाज आई… बहन जी पिंडदान की पूरी तैयारी हो चुकी है। बस आप कहे तो हम आगे का कार्यक्रम शुरू करें।

शकुंतला देवी ने कहा पंडित जी आज जोड़े से पिंडदान कीजिएगा। मैं अपना स्वयं जीते जी पिंडदान करना चाहती हूँ। कुछ देर बाद वह निर्णय ले अपनी सारी संपत्ति, सामान गाँव के अनाथ बच्चों और बुजुर्गों के लिए रजिस्टर्ड कर अपना पिंडदान कर सारी रस्म – रिवाज पूरी करने लगी।

गांव में हलचल मच गई सभी ने कहा… यह कैसा मोबाइल में रस्म रिवाज चल गया जो आदमी को जीते जी मार रहा है। क्या? मोबाइल से रस्म रिवाज निभाए जाते हैं? शादी विवाह या और कुछ रीति रिवाज निभाए जाते हैं।

गांव में जितने लोग उतनी बातें होने लगी शकुंतला देवी के पास फिर कभी वीडियो कॉल नहीं आया। आज उसके मुखड़े पर चिंता की लकीर नही खुशियों की झलक दिखाई दे रही थी।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 54 – देश-परदेश – Hygiene ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 54 ☆ देश-परदेश – Hygiene ☆ श्री राकेश कुमार ☆

इस शब्द का दो वर्ष पूर्व ही कोविड काल में ज्ञान प्राप्त हुआ था। हमारे देश की जनता तो कचरे और गंदगी के बीच से भी अपना रास्ता निकाल लेती हैं।

स्वच्छ स्थान पर, हाथ और पैर धो कर भोजन करना हमारी दैनिक जीवन का एक अहम भाग है। ये तो जल्द भोजन (फास्ट फूड) के चक्कर में हम सड़कों पर खुले में अधिक से अधिक खाद्य सामग्री अपनी जिव्हा को भेंट करने लग गए हैं।

आज उपरोक्त विज्ञापन पर दृष्टि पड़ी तो कुछ अजीब सा प्रतीत हुआ। चौपहिया वाहन “कार” की भी बिन जल सफाई हो सकती है, और कार भी हाइजेनिक हो सकती है। कितनी भी महंगी कार हो, उसको गंदगी और कीचड़ से भरी सड़कों से ही अपना मार्ग बनाना पड़ता है।

कार की सफाई के भी प्लान आ गए हैं। हो सकता है कार के अगले भाग और पिछवाड़े या साइड की सफाई के अलग अलग प्लान भी हो सकते हैं।    

हमारे मोहल्ले में तो लोग मोटे पाइप से लगातार पानी की धार से कार की धुलाई करते हुए कई लीटर पानी बहा देते हैं। पानी का कोई शुल्क जो नहीं लगता। “जल ही जीवन है” के सिद्धांत की धज्जियां उड़ा देते हैं, ऐसे लोग।

आज एक मित्र से भी इस विज्ञापन के संदर्भ में चर्चा हुई, तो वो तुरंत बोला की चुंकि ये विज्ञापन जयपुर शहर का है, वहां जल की कमी होती है, इसलिए जल की बर्बादी रोकने के लिए बिना जल के कार की सफाई को प्राथमिकता दी जा रही है। यह सब के लिए ये एक अच्छा संदेश हो सकता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #208 ☆ हरला नाही… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 208 ?

हरला नाही… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

भात्यामधला बाणच त्याच्या सुटला नाही

जखमी झाले कशी जरी तो भिडला नाही

मला न कळले कधी निशाणा धरला त्याने

नेम बरोबर बर्मी बसला चुकला नाही

माहिर होता अशा सोंगट्या टाकायाचा

डाव कुणाला कधीच त्याचा कळला नाही

बऱ्याच वेळा चुका जाहल्या होत्या माझ्या

तरी कधीही माझ्यावरती  चिडला नाही

गुन्हास नसते माफी आहे सत्य अबाधित

कधीच थारा अपराधाला दिधला नाही

जुनाट वाटा किती चकाचक झाल्या आता

कधी चुकीच्या वाटेवरती वळला नाही

गुलाम होता राजा झाला तो कष्टाने 

काळासोबत युद्ध छेडले हरला नाही

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 158 – गीत – यादों की बारात… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – यादों की बारात।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 158 – गीत – यादों की बारात…  ✍

जागा सारी रात

अपलक देखी

यादों की बारात।

 

पहली बार मिले थे कब

धुंधवनों में खोया सब

इक दिन सुनकर मधुरिम स्वर

सजग हुआ था मैं सत्वर

खिला मनस जलजात।

 

जब आये थे तुम सम्मुख

मन को मिला अजाना सुख

भीग गये थे मेरे दृग

बिंधा अचानक मन का मृग

नहीं लगा आघात।

 

छोटा सा वह हँसी सफर

सहज कहा था हँस हँसकर

अँगुली की वह क्षणिक हुअन

अंग अंग व्यापी सिहरन

सपनीली सौगात।

 

मन ने देखा मन का रूप

तरल चाँदनी, कच्ची धूप

अपने आप वही सौगंध

किन जन्मों का है सम्बन्ध

आया नवल प्रभात।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 158 – “माँ…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  माँ)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 158 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “माँ” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

एक युद्ध घर के बँटवारे का

सहने को तत्पर, माँ

और दूसरा देख रही बेटों में

आज भयंकर, माँ

 

बहुओं का युद्धाभ्यास

समझाता है इस आशय को

सालेगा अपमान सहित

जो बढी हुई माँ की वय को

 

इन सब का अनदेखा करती

रोज शिवाला जाती है

सहज दिखाई देती हर क्षण

संस्कार की आकर,  माँ

 

इस घर की गतिविधियाँ ध्वंसक

रोज संवरण करने में

धो लेती है समय-समय पर

जिन्हें अश्रु के झरने में

 

सॉंझ सकारे सामंजस्य बिठाने

में खटती रहती

गोया माँ, माँ न होकर

इस घर की हो बस चाकर , माँ

 

सपने कैसे चूर- चूर

होते हैं यह उसने जाना

और यही है नियति विश्व की

यह भी उसने अब माना

 

और कभी इस घर में मंगल

का जिसने रोपा पौधा

उसकी खातिर रहजाती है

जी सहला- सहला कर, माँ

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

30-09-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 233 ☆ 2 अक्तूबर विशेष – गांधी जिंदा हैं, है न…? ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है गांधी जयंती पर एक विशेष कविता – गांधी जिंदा हैं, है न)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 233 ☆

? कविता – गांधी जिंदा हैं, है न…? ?

गांधी जिंदा हैं!

कागज के नोटों पर छपे,

बेजुबान चित्र में नहीं।

बापू की उपाधि में नहीं

संगमरमरी समाधि में भी नहीं।

समाधि पर जलते

दिये की अनवरत लौ में नहीं।

योजनाओ के नामों की

रौ में नहीं।

गांधी जिंदा हैं! हैं न!

 

गांधी जिंदा हैं!

छलावे के अनशन और

राजनीतिक आंदोलन में नहीं

निबंध में लिखे कोट्स में ही नहीं

इमारतों के साइन बोर्डस 

की इबारतों में भी नहीं।

गांधी जिंदा हैं! हैं न!

 

गांधी जिंदा हैं!

स्वच्छता के चश्मे

या झाड़ू के निशान में नहीं।

हाथ में लाठी

या खादी की धोती में भी नहीं।

चरखे में नहीं, सूत में नहीं।

बकरी के दूध में भी नहीं।

गांधी जिंदा हैं! हैं न!

 

गांधी जिंदा हैं!

दफ्तरों की दीवारों पर टंगें

फ्रेम किये अपने ही फोटो में नहीं।

वाशिंगटन, न्यूयार्क, मास्को,

देश विदेश में स्मारकों में लगी

त्रिआयामी

आदमकद मूर्तियों में भी नहीं।

गांधी जिंदा हैं! हैं न!

 

गांधी जिंदा हैं!

जिल्द बंद सफों में लिखी गई

अनगिनत जीवनियों में नहीं।

विकीपीडीया, व्हाट्सअप के भ्रामक संदेशों

गूगल पे क्लिक से निकली

इंफार्मेशन में भी नहीं।

गांधी जिंदा हैं! हैं न!

 

गांधी जिंदा हैं!

परिवार के

नाती पोते पड़पोते में नहीं।

ब्लाक बस्टर किसी मुन्ना भाई या

आस्कर पुरस्कार से सम्मानित

फिल्म में भी नहीं।

गांधी जिंदा हैं! हैं न!

 

गांधी जिंदा हैं!

अष्ट धातु या चांदी के सिक्के

पर मुद्रित जानी पहचानी मुद्रा

में नहीं।

पी एच डी की थिसिस में ही नहीं

क्विज के सवालों

और चार विकल्पों के जबाबों में भी नहीं।

गांधी जिंदा हैं! हैं न!

 

गांधी जिंदा हैं!

मुंह बंद, आंख बंद और

कान बंद, तीन बंदरों की

मूर्तियों में नहीं

संग्रहालयों के वाङ्मय

और कमर में लटकाने वाली

उनकी अब बंद घड़ी में भी नहीं।

गांधी जिंदा हैं! हैं न!

 

दरअसल, गांधी जिंदा हैं!

अंत्योदय के व्यवहार में!

सत्य के लिये संघर्ष में!

गीता के सार में!

अहिंसा में, शाकाहार में

चुटकी भर नमक में

परस्पर प्रेम और विश्वास में।

सादगी और दुनियाई भाई चारे में।

गांधी जिंदा हैं! है ना!

 

गांधी को भारत की सीमा में

मत बांधो दुनियांवालों

हे राम! के साथ अचानक रोक दिया गया

अधूरा स्वप्न हैं गांधी।

गांधी विचार हैं, और

विचार वैश्विक होते हैं। विचार मरते नहीं कभी।

गांधी जिंदा हैं! है ना!

 

गांधी यात्रा हैं, विचारों की अंतहीन यात्रा।

गांधी महज १४० करोड़ भारत वासियों के नहीं

आठ अरब की दुनियां की थाथी हैं

गांधी हर दुर्बल के साथी हैं

जब, जहां कहीं बुनियादी बातें होंगीं

धोती संभाले कृशकाय

हे राम कहते

वे अपनी लाठी उठा उठ आयेंगे

क्योंकि गांधी जिंदा हैं! है ना!

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्यात्मक लघुकथा # 209 ☆ “टाइम पास…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्यात्मक लघुकथा – टाइम पास)

☆ व्यंग्यात्मक लघुकथा – ‘टाइम पास’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

पंडित जी कथा कराने टाइम से आ गये थे, देर घर वाले कर रहे थे। भीषण गर्मी थी, देर होते देख जजमान ने कहा – पंडित जी बेडरूम में एसी लगा है, जब तक थोड़ा देर आराम कर लीजिए। पंडित जी राजी हो गए और बेडरूम के सोफा में पसरकर टीवी देखने लगे।

पंडित जी के हाथ में रिमोट था,जब देखा कि कोई आसपास नहीं है तो फैशन टीवी चैनल चालू कर ‘देखने का सुख’ लेने लगे। थोड़ी देर बाद अचानक जब जजमान कथा के लिए बुलाने आए तो पंडित जी फैशन शो देखने में मग्न थे। पंडित जी अचानक जजमान को कमरे में घुसते देखकर सकपका गये और पट्ट से टीवी बंद कर बोले – ‘जजमान जी, आपको गलतफहमी न हो और श्रद्धा में कमी न हो, इसलिए बताना जरूरी है कि मैं इन्हें बहुत घृणा की दृष्टि से देख रहा था।’

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 150 ☆ # तो ही इंकलाब लाओगे? # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# तो ही इंकलाब लाओगे? #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 151 ☆

☆ # तो ही इंकलाब लाओगे? #

पांव के छालों को मत देखो

इनमें क्या पाओगे ?

ज़ख्म ही ज़ख्म है

इतना मरहम कहां से लाओगे ?

 

कांटों भरी सड़कों पर

कोमल पुष्प ढूंढते हो

कांटों का दंश

क्या कभी भूल पाओगे?

 

कीलें बिछा दी है

जमाने ने तुम्हारी राहों में

इनसे बचकर क्या

तुम चल पाओगे?

 

आंधियां, तूफान तो

रोज उठाते हैं

नशेमन पर बिजलियां

रोज गिराते हैं

इन बवंडरों से

तुम कैसे टकराओगे ?

 

हारना कैसा जीतने की सोचो

दुश्वारियों को ताकत से रोको

घुट घुट कर जीना

कोई जीना है

मौत से लड़ोगे

तो ही इंकलाब लाओगे? /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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