हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #23 ☆ कविता – “यहाँ भी और वहाँ भी…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 23 ☆

☆ कविता ☆ “यहाँ भी और वहां भी…☆ श्री आशिष मुळे ☆

वहाँ ठहरा यहाँ बरसा

मौसम तो मौसम है

वहाँ जलाती यहाँ डुबाती

बारिश तो बारिश है

यहाँ भी और वहाँ भी….

 

वहाँ सपनों में यहाँ सच्चाई में

धूप तो धूप है

वहाँ बैठी अकेली यहाँ कब से लापता

छांव तो छांव है

यहाँ भी और वहाँ भी…..

 

वहाँ आंखो में यहाँ लब्जों में

दर्या तो दर्या है

वहाँ रूह उबलता यहाँ कागज़ गलाता

पानी तो पानी है

यहाँ भी और वहाँ भी…..

 

वहां भी जिंदगी यहां भी जिंदगी

चाहत उसकी निशानी है

वहां भी मौत यहां भी मौत

सेज चिता की अग्नि है

यहाँ भी और वहां भी……

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 183 ☆ बाल कविता – काश! परी यदि मैं बन जाती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 183 ☆

☆ बाल कविता – काश! परी यदि मैं बन जाती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सपनों की दुनिया में खोई

      प्यारी गुड़िया रानी।

परी लोक की दादी अपनी

     कहतीं कई कहानी।।

 

काश! परी यदि मैं बन जाती

      हर बच्चा मुस्काता।

नए- नए मैं वस्त्र पहनाती

      शाला पढ़ने  जाता।।

 

खूब खिलौने उन्हें दिलाती

      खेल खेलती सँग में।

 पर्वों पर उपहार बाँटती

      रँग जाती मैं रँग में।।

 

सैर भी करती बाग बगीचे

     उड़ती नील गगन में।

हर पक्षी से बातें करती

      रहती सदा मगन मैं।।

 

परियों वाली छड़ी घुमा मैं

     सबको खुश कर देती।

झिलमिल झिलमिल वस्त्र पहनकर

       घूम मजे कर लेती।।

 

नींद हो गई सुंदर पूरी

      सपना टूट गया था।

सपने तो सपने हैं होते

       चंदा रूठ गया था।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #179 ☆ वातानुकुलित… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 179 ☆ वातानुकुलित… ☆ श्री सुजित कदम ☆

एका आलिशान वातानुकुलीत

दुकानाच्या आत

निर्जीव पुतळ्यांना

घातलेल्या रंगीबेरंगी

कपड्यांना पाहून,

मला माझ्या बापाची

आठवण येते…

कारण,

मी लहान असताना,

नेहमी माझ्यासाठी

रस्त्यावरून कपडे खरेदी

करताना,

माझा बाप माझ्या

चेह-यावरून हात

फिरवून त्याच्या

खिशातल्या पाकिटाला

हात लावायचा…

आणि

वातानुकुलीत

दुकानातल्या कपड्यांपेक्षा

रस्त्यावरचे कपडे

किती चांगले असतात

हे किती सहज

पटवून द्यायचा…

खिशातलं एखादं चाॅकलेट

काढून तेव्हा तो हळूच

माझ्या हातात ठेवायचा…

आणि

माझ्या मनात भरलेले कपडे

तेव्हा तो माझ्या नजरेतूनच ओळखायचा…

आम्ही कपडे खरेदी करून

निघाल्यावरही

माझा बाप चार वेळा

मागं वळून पहायचा

आणि

“एकदा तरी आपण

ह्या आलिशान दुकानातून कपडे

खरेदी करू”

इतकंच माझ्याकडे पाहून

बोलायचा…

पण आता,

मला त्या निर्जीव पुतळ्यानां घातलेल्या..

रंगीबेरंगी कपड्यांच्या

किंमतीचे लेबल पाहून…

माझ्या बापाचं मन कळतं

आणि त्यांनं तेव्हा…

डोळ्यांच्या आड लपवलेलं पाणी

आज माझ्या डोळ्यांत दाटून येतं…

कारण,

मी माझ्या लेकरांला

रस्त्यावरून कपडे

खरेदी करताना,

त्याच्यासारखाच मी ही

तेव्हा

किलबिल्या नजरेने

ह्या दुकानांकडे पहायचो…

आणि

ह्या रंगीबेरंगी कपड्यांची

स्वप्नं तेव्हा मी नजरेमध्ये साठवायचो…

अशावेळेस,

नकळतपणे

माझा हात

माझ्या लेकरांच्या चेह-यावर

कधी फिरतो कळत नाही…

आणि

पाकिटातल्या पैशांची

संख्या काही बदलत नाही…

परिस्थितीची ही गोळा बेरीज

अजूनही तशीच आहे

आणि

मनमोकळं जगणं

अजून…

वातानुकुलीत व्हायचं आहे..

 © श्री सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #206 – कविता – ☆ अदले बदले की दुनियाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके “अदले बदले की दुनियाँ…”।)

☆ तन्मय साहित्य  #206 ☆

☆ अदले बदले की दुनियाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

साँझ ढली सँग सूरज भी ढल जाए

ऊषा के सँग, पुनः लौट वह आए।

 

अदले बदले की

दुनिया के हैं रिश्ते

जो न समझ पाये

कष्टों में वे पिसते,

कठपुतली से रहे, नाचते पर वश में

स्वाभाविक ही, मन को यही लुभाये….

 

थे जो मित्र आज

वे ही हैं प्रतिद्वंदी

आत्म नियंत्रण कहाँ

सभी हैं स्वच्छंदी,

अतिशय प्रेम जहाँ, ईर्ष्या भी वहीं बसे

प्रिय अपने ही, झूठे स्वप्न दिखाए….

 

चाह सभी के मन में,

आगे बढ़ने की

कैसे भी हो सफल

शिखर पर चढ़ने की,

खेल चल रहे हैं, शह-मात अजूबे से

समय आज का, सबको यही सिखाए….

 

आदर्शों को पकड़े

अब भी हैं ऐसे

कीमत जिनकी आँके

वे कंकड़ जैसे,

हर मौसम के वार सहे,आहत मन पर

रूख हवा का, समझ नहीं जो पाये….

उषा के सँग, पुनः लौट वह आए।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 31 ☆ खुलकर गीत गाएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “खुलकर गीत गाएँ…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 31 ☆ खुलकर गीत गाएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

मर्सिया पढ़ने से अच्छा

आओ खुलकर गीत गाएँ।

 

माना कठिन है समय

पर उसका ही रोना

कहाँ की है समझदारी

कुछ तो लिखो ऐसा कि

घटते हौसलों में भी

घिरे न यह ज़िंदगी सारी

 

दर्द को ढोने से अच्छा

सुख को काँधों पर उठाएँ।

 

धूप से गठजोड़ कर

हमने खरीदीं रात

मेहनत बेचकर काली

शब्द के घनघोर वन

में बजाते हैं खड़े हो

बस ज़ोर से ताली

 

क्या नियति है यही अपनी

आओ तोड़ें वर्जनाएँ ।

 

दर्द की बैसाखियों पर

चले कब तक ज़िंदगी

उमर घटती जा रही है

जोड़ कर हासिल हुई

आँसुओं के हाथ से

खुशी बँटती जा रही है

 

जो मिला जैसा उसी में

तलाशें संभावनाएँ ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब अमावस की लगती पूनम सी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “शब अमावस की लगती पूनम सी“)

✍ शब अमावस की लगती पूनम सी ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

तय नहीं जिसका भी सफ़र होता

आदमी वो ही दर-बदर होता

ठोकरें तेरे है मुक़द्दर में

क्यों नसीहत का फिर असर होता

अज़्म जिसका रहा बड़ा पुख्ता

उसको अंजाम का न डर होता

हो वजनदार सीखता झुकना

तू भी किरदार से शज़र होता

छल फरेबों के होते कब नरगे

पाक सबका अगर जिगर होता

मजहबी फिर न होते ये दंगे

बस समझदार हर बशर होता

ज़र का चश्मा उतार लेते तुम

उजड़ा दिल का नहीं नगर होता

हो मुहाजिर न काटते जीवन

छोड़ विरसे को जो इधर होता

शब अमावस की लगती पूनम सी

साथिया पास जो क़मर होता

ए अरुण प्यार है नहीं जिसमें

छत पड़ी होने से न घर होता

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 206 ☆ एक स्फुट ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 206 ?

एक स्फुट ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

एका मॅट्रिक्युलेट मैत्रीणीबरोबर,

गप्पांचे मस्त झुरके

घेत असताना,

मी वाचते—

व्हाॅटस अॅप वरचा,

एका एम.ए.एम.फिल.

मैत्रिणीचा मेसेज—-

“उद्या सासूबाईंचं पित्र आहे,

अमूक भाज्या निवडल्या,

आळूची वडी उकडली…

पित्र म्हणून कोणाला जेवायला

बोलवावं हा विचार करतेय,

अगं गंगा भागिरथी बायका

आठवत नाहीत,

अमूक अमूक आठवली

पण ती कितपत पाळते

असे वाटले!”

 

माझ्या चेह-यावरचे सखेद आश्चर्य वाचत,

मैत्रीण म्हणाली,

“कुणाचा मेसेज??”

 

तो कालबाह्य शब्द वापरलेल्या,

त्या उच्चशिक्षित

मैत्रीणीचा मेसेज वाचून दाखवला…

तेव्हा,

ती मॅट्रिक्युलेट मैत्रीण म्हणाली,

 

“कळला तुझ्या त्या मैत्रीणीचा आय. क्यू !”

 

मी “नारी समता मंच” मधे

जायला लागले आणि तेव्हापासून,

कधीच लावली नाही नावापुढे

सौ. ची उपाधी!

 

माझ्या चौथी शिकलेल्या कामवाल्याबाई–

कुसुमताई म्हणाल्या होत्या,

त्या काळात,

“वहिनी मला नाही आवडत,

ते सौ. बिव लावायला!”

विद्याताईंची चळवळ,

केव्हाच तळागाळात

पोचलेली,

पण सो काॅल्ड सुशिक्षित,

त्यापासून अजूनही अनभिज्ञ… कोसो दूर…

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ — श्रीमद् भागवत पुराण कथा ज्ञानयज्ञ… भाग-6 ☆ सुश्री प्रज्ञा मिरासदार ☆

सुश्री प्रज्ञा मिरासदार

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ — श्रीमद् भागवत पुराण कथा ज्ञानयज्ञ… भाग-6 ☆ सुश्री प्रज्ञा मिरासदार

|| श्रीकृष्णार्पणमस्तु ||

श्रीकृष्णाच्या अद्भुत लीलांनी व कथांनी युक्त असा भागवतातील दहावा स्कंध म्हणजे जणू भागवताचा आत्माच!! मागील भागात आपण या दहाव्या स्कंधातील पूर्वार्ध पाहिला. (पाचव्या भागात).आता या दहाव्या स्कंधाचा – पर्यायाने-  श्रीकृष्ण चरित्राचा उत्तरार्ध पाहू या.

सहाव्या दिवसाची सुरुवात लेखकाने वेदस्तुती या कथा भागाने केली आहे. शब्दांनी वर्णन न करता येणाऱ्या परब्रम्ह परमात्म्याची वेदांनी केलेली ही स्तुती आहे. भागवत ग्रंथामध्ये दशम स्कंधाच्या ८७ व्या अध्यायातील हे २८ श्लोक म्हणजे वेद वेदांताचे सार आहे असे लेखक म्हणतात. वाचायला फारच कठीण असणाऱ्या पण सुंदर संस्कृत श्लोकांनी आणि  या वेदस्तुतीने सहाव्या दिवसाची सुरुवात लेखकाने केली आहे.

नंतर लेखक पुन्हा श्रीकृष्ण चरित्राकडे वळले आहेत. शुकाचार्य परीक्षित राजाला कंसवधा नंतरची कथा सांगतात. कंस हा जरासंधाचा जामात होता. जरासंधाच्या दोन मुली अस्ति आणि प्राप्ति या कंसाच्या पट्टराण्या होत्या. कंस वधा नंतर त्या पित्याकडे गेल्या तेव्हा जरासंधाला दुःख व संताप झाला. त्याने तेवीस अक्षौहिणी सैन्यासह मथुरेला वेढा घातला. संपूर्ण यादव कुळ नष्ट करण्याचे ठरवले. श्रीकृष्णानेही पृथ्वीवरील हा दैत्य भूभार कमी करण्याचे ठरवले. आकाशातून सूर्यरथासारखे तेजस्वी दोन रथ पृथ्वीवर उतरले. कृष्णाने एक बलरामाला दिला. श्रीकृष्णाचा दारुक नावाचा सारथी होता. यानंतरच्या या तुंबळ युद्धाला सुरुवात कशी झाली, परस्परांशी कसे युद्ध खेळले गेले , शस्त्रविद्या वगैरेचे अतिशय रोचक, अंगावर काटा आणणारे वर्णन लेखकाने केले आहे. जरासंधाचा पूर्ण पराभव करूनच श्रीकृष्ण मथुरेला परतले. जरासंध पुन्हा मगध राज्यात परतला. पण नंतर असेच तेवीस अक्षौहिणी सैन्य घेऊन त्याने एकूण सतरा वेळा मथुरेवर हल्ला केला. प्रत्येक वेळी त्याचे सारे सैन्य नष्ट करून श्रीकृष्णाने त्याला उदारपणे सोडून दिले. पण भूभार नष्ट केला.

अठराव्या वेळी कालयवन नावाचा म्लेंच्छ तीन कोटी सैन्य घेऊन आला. हे संकट महा भयंकर आहे . हे जाणून श्रीकृष्णाने समुद्रात बारा योजने दूर विस्तीर्ण नगरी विश्वकर्म्या कडून वसवून तिथे सर्व यादवांना सुरक्षित ठेवले. हीच द्वारका नगरी होय!! या नगरीचे वर्णन लेखकाने अत्यंत सुंदर केले आहे. त्या नगरीतून बाहेर पडणाऱ्या श्रीकृष्णाचा कालयवनाने पाठलाग केला. कालयवनाला एका गुहेपर्यंत आणून मांधाता राजाचा मुलगा मुचकुंद याचे कडून त्याला भस्मसात करविले. ही मुचकुंदाची कथाही खूपच सुंदर रंगविली आहे. श्रीकृष्ण रणांगणातून पाठ दाखवून पळाले म्हणून त्यांना रणछोडदास नाव पडले . जरासंधही त्यानंतर पुन्हा युद्धास आला त्या युद्धाचेही वर्णन खूपच रंजक आहे.

यानंतरची रम्य व रसाळ कथा रुक्मिणी स्वयंवर, रुक्मिणी हरण याची आहे. ही कथा प्रत्यक्ष वाचावी अशीच आहे.स्वयंवरानंतर कृष्णाने जमलेल्या सर्व राजांच्या देखत रुक्मिणीला रथात बसवले. शिशुपाल व रुक्मिचा पराभव केला (रुक्मि हा रुक्मिणीचा भाऊ !) आणि श्रीकृष्ण रुक्मिणीस घेऊन द्वारकेला गेले. शंकराने कामदेवाला (मदनाला) भस्म केले. तेव्हा मदनाने पुन्हा देह मिळावा म्हणून भगवंताची प्रार्थना केली होती. तोच कामदेव, भगवंत व रुक्मिणीच्या पोटी प्रद्युम्न म्हणून जन्माला आला. त्या प्रद्युम्नाची छोटी कथा पुढे आली आहे .नंतर श्रीकृष्णाचा जांबवती व सत्यभामाेशीही विवाह झाला. पुढे स्यमंतक मण्याची मनोरंजक कथा आहे. यानंतर श्रीकृष्णाने कालिंदी व इतर स्त्रियांशी विवाह केल्याची कथा आहे. तसेच श्रीकृष्णांनी इंद्राचे छत्र बळकावणाऱ्या नरकासुरास ठार केल्याची रम्यकथा लेखकाने वर्णन केली आहे. त्याने बंदीवासात टाकलेल्या सोळा सहस्त्र स्त्रियांशी भगवंताने तितकी रुपे घेऊन विवाह केले. श्रीकृष्णाने एकदा गंमतीने रुक्मिणीच्या पती प्रेमाची परीक्षाही घेतली. ही कथा खूप छान रंगविली आहे.

यानंतर श्रीकृष्णाच्या मुख्य आठ राण्यांची नावे सांगितली आहेत. रुक्मिणी, सत्यभामा, जांबवती, सत्या (नाग्नजिती), कालिंदी, लक्ष्मणा, मित्रविंदा, भद्रा अशा या आठ राण्या!! या राण्यांच्या मुलांची ही नावे सांगितली आहेत .या  सोळाहजार स्त्रियांनाही प्रत्येकी दहा मुले झाली असल्याचा उल्लेख आहे. प्रद्युम्नाचा विवाह रुक्मिची कन्या रुक्मवती हिच्याशी तर प्रद्युम्नाचा मुलगा अनिरुद्ध याचा विवाह रुक्मिची नात रोचना हिच्याशी झाला होता.  बाणासुर दैत्याची मुलगी उषा! हिचे अनिरुद्धावर प्रेम होते. त्याचे सुंदर वर्णन कथाकाराने केले आहे. त्यावरून बाणासुराचे श्रीकृष्णाशी युद्ध झाले. त्याला कृष्णाने मुक्ती दिली.

या आणि यापुढील काही कथा आपल्याला माहीतही नसाव्यात. श्रीकृष्णाची मुले खेळत असताना त्यांना कृकलास नावाचा पर्वतप्राय खेकडा दिसला. श्रीकृष्णाने त्याला विहिरीतून बाहेर काढले. तो पूर्वजन्मी इक्ष्वाकूचा मुलगा नृग नावाचा दानशूर राजा होता. या नृग राजाला त्याची चूक नसताना केवळ गैरसमजाने खेकड्याचा जन्म मिळाला ही कथा आहे.

एकदा बलरामांनी गोकुळाला भेट दिली, त्याचे वर्णन पुढे दिले आहे. पुढची कथा स्वतःला श्रीकृष्ण समजणाऱ्या पौंड्रकाची आहे. त्याच्याशी युद्ध करून कृष्णाने सुदर्शन चक्राने त्याचे मस्तक उडविले. काशी राजाचा वध केला. ते पाहून सुदक्षिण नावाचा काशीराजाचा मुलगा श्रीकृष्णावर चालून आला. त्याचाही वध कृष्णाने सुदर्शन चक्राने केला व काशीनगरीही भस्मसात केली. बलरामांनीही काही अद्भुत पराक्रम केले. त्याच्या कथा शुकाचार्यांनी परीक्षित राजाला सांगितल्या आहेत. द्विविद नावाच्या वानराचा वध बलरामाने केला. तो सुग्रीवाचा मंत्री होता. पण नरकासुराचा परममित्र होता. बलरामाने हस्तिनापुरास जाऊनही खूप पराक्रम  गाजविला. कौरव घाबरले. दुर्योधनाने बलरामाला बाराशे हत्ती, एक लाख वीस हजार घोडे, सहा हजार सुवर्ण रथ आंदण दिले.

नारद मुनींनी एकदा द्वारकेस जाऊन श्रीकृष्णाचा संपूर्ण संसार व परिवार पाहिला. या कथेनंतर श्रीकृष्णाची दिनचर्या लेखकाने वर्णन केली आहे. नंतर भीमाकरवी श्रीकृष्णाने युक्तीने जरासंधाचा वध करविला. ही कथा आहे. जरासंधाने बंदी बनवलेल्या सर्व राजांची मुक्तता श्रीकृष्णाने केली. शिशुपालाचे शंभर अपराध भरल्यावर त्याचा सुदर्शन चक्राने वध केला. तीन जन्म तो वैरभावनेने का होईना कृष्णाचाच जप करीत होता. त्यामुळे शिशुपालाला कृष्णाने मुक्ती दिली.

मयासुराने निर्माण केलेल्या भवनात दुर्योधनाची फजिती झाली. तेव्हा द्रौपदी त्याला हसली. मग दुर्योधन संतापला. ही कथा थोडक्यात सांगितली आहे. यानंतर शाल्व या शिशुपालाच्या मित्राचा वध, बलराम कौरव पांडवांच्या युद्धात निष्पक्ष म्हणूनच राहिले, ते तीर्थयात्रेस निघून गेले ही कथा आहे. बलराम नैमिषारण्यात आले. प्रभास क्षेत्री गेले. तिथून द्वारकेस परतले. या काळात त्यांनी अनेक पराक्रम केले. त्याचे वर्णन लेखकाने केले आहे.

यानंतरची कथा सुदाम्याची आहे. ही कथा सर्वांनाच ज्ञात आहे. ती लेखकाने फारच सुंदर वर्णलेली आहे. सुदाम्यावर कृष्णाने अनुग्रह केला. यानंतर श्रीकृष्ण खग्रास सूर्यग्रहणाचे वेळी स्यमंतपंचक या क्षेत्री गेले. तिथे त्यांची नंद यशोदा व इतर गोपगोपींची भेट झाल्याचे वर्णन आहे.द्रौपदीने सर्व कृष्णपत्नींची  भेट  घेतल्याची  कथा  पुढे  आली आहे.वसुदेवाने श्रीकृष्णा कडून कर्माचा निरास कसा होईल याविषयी सर्व तत्त्वज्ञान समजून घेतले. श्रीकृष्णांनी देवकीची इच्छा पूर्ण करण्यासाठी, तिला कंसाने मारलेली तिची सात मुले देखील ब्रह्मदेवाकडून आणून आईला त्यांची भेट घडविली.

पुढे सुभद्रा हरणाची कथा आहे. बहिणीच्या स्वयंवराचे वेळी तिचे हरण करण्यास अर्जुनाला श्रीकृष्णाने मदत केली. हा कथा भाग आहे. यानंतर वृकासुराची कथा आहे. त्याने शंकराची आराधना करून- मी ज्याच्या डोक्यावर हात ठेवीन तो जळून जावा- म्हणून वर मागितला. त्यामुळे पृथ्वीवर हाहा:कार माजला. श्रीविष्णूंनी एकदा बटूचे रूप घेऊन त्याला सांगितले की शंकराने तुला खोटा वर दिला आहे. तू त्याची प्रचिती पहा. असे म्हणून त्याला स्वतःच्या डोक्यावर हात ठेवायला लावला आणि त्याला युक्तीने भस्मसात केले.

शेवटी द्वारकेचे वैभव व कृष्ण महिमा या वर्णनाने दहाव्या स्कंधाची व सहाव्या दिवसाच्या कथा भागाची समाप्ती होते.

सहाव्या दिवसाच्या पुस्तकाच्या मुखपृष्ठावर विष्णूंच्या गळ्यातील वैजयंती माळेचे चित्र आहे. तिच्यात मुक्ता, माणिक्य, मरकत, इंद्रनील,हीरक ही पाच रत्ने गुंफलेली असतात. ती पाच रंगांची व गुडघ्यापर्यंत लांब असते. ही माला पंचमहाभूते व पंचतन्मात्रा यांचे प्रतीक आहे.

पंचरूपा  तु या  माला वैजयंतीगदाभृत: |

सा भूत हेतुसंघाता  भूतमाला च वै  द्विज ||

(विष्णपुराण)

© सुश्री प्रज्ञा मिरासदार

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 28 – बेशर्मी के ताले… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – बेशर्मी के ताले।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 28 – बेशर्मी के ताले… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

सत्ता के कानों में हैं

बेशर्मी के ताले 

 

राजनीति में छुटभैये 

बछड़े भर रहे कुलाँचें 

किसको पड़ी जरूरत 

अपना संविधान बाँचें 

कुछ तो बंद किये हैं

कुछ की आँखों में जाले 

 

जहाँ देखिये वहीं घिरे हैं 

आतंकी बादल 

होते हैं विस्फोट 

भला क्या कर लेगी सांकल 

राजनीति की गंगा में

मिल रहे अपावन नाले 

 

सारस्वत मंचों ने 

कैसी ओढ़ी फूहड़ता 

जहाँ चुटकुलेबाज 

बड़ी बेशर्मी से पढ़ता 

कवि-कवित्रियाँ, लगें कि

जीजा, साली औ’ साले

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 105 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 105 – मनोज के दोहे… ☆

1 चाँद

हाथ थाम कर चल प्रिये, प्रेम भरी सौगात।

चाँद हँसा आकाश में, शरद पूर्णिमा रात।।

2 चकोर

नयना चंद्र चकोर बन, प्रिय को रहे निहार।

विरहन-सी रातें लगें, प्रतिदिन लगते भार।।

3 चंद्रिका

शरद रात में चंद्रिका, झिलमिल लगे अनूप।

शृंगारित दुल्हन बनी, धरे मोहनी रूप।।

4 चंद्रमुखी

देख रही आकाश में, चंद्रमुखी वह चाँद।

स्वप्न सलौने बुन रही, प्रेमिल सी उन्माद।।

5 पूनम

पूनम का वह चाँद फिर, खिला आज आकाश।

पृथ्वी पर बिखरा रहा, दुधिया नवल प्रकाश।।

6 शरद

शरद ऋतु ने ठंड की, बिखराई सौगात।

ओढ़ दुशाला काँपते, बूढ़ों की जगरात।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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