मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 145 ☆ दहा दिवस गणपती… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 145 ? 

☆ दहा दिवस गणपती…

दहा दिवस गणपती

माणसात येतो

माणसातले नखरे

मुकाट्याने पाहतो.!!

 

दहा दिवस गणपती

बंदिस्त होतो

ढोल ताशे बडबड

मोठया कानाने ऐकतो.!!

 

दहा दिवस गणपती

हतबल बनतो

दारुड्याचे नाचगाणे

मुकाट्याने साहतो .!!

 

दहा दिवस गणपती

प्रत्यक्ष दर्शी असतो

जुगार खेळणारे हात

तो कां नं रोखतो? .!!

 

दहा दिवस गणपती

गोड मोदक खातो

शेवटच्या दिवशी मात्र

जलसमाधी का घेतो.!!

 

दहा दिवस गणपती

वैतागून जातो

भक्तांचा भाव

निमूट सहन करतो.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 213 ☆ कहानी – उड़ान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आपकी एक विचारणीय कहानी उड़ान। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 213 ☆

☆ कहानी – उड़ान 

नन्दो बुआ जब घर से बाहर निकलती हैं तो ऐसे ठसक से चलती हैं जैसे विश्व -विजय पर निकली हों। वजह यह है कि नन्दो बुआ एक काम की विशेषज्ञ हैं और यह काम है शादी कराना। यह नन्दो बुआ की ‘हॉबी’ है और इसके प्रति वे पूरी तरह समर्पित हैं। अगर उन्होंने ‘मैरिज ब्यूरो’ खोला होता तो भारी कमाई कर लेतीं। उनके बगल में उनका फूला हुआ बैग दबा रहता है जिसमें लड़कों- लड़कियों के फोटो, उनकी जन्मपत्रियाँ और अते-पते भरे रहते हैं।

जहाँ ब्याह लायक लड़कियाँ हैं वहाँ नन्दो बुआ को खूब आदर-सम्मान मिलता है। जहाँ बैठ जाती हैं वहाँ से घंटों नहीं उठतीं। घर में उनकी नज़र घूमती रहती है। हर लड़की में उन्हें संभावनाशील दुलहन नज़र आती है। घरों में उनका रोब भी खूब चलता है। इच्छानुसार चाय- भोजन की फरमाइश कर देती हैं। नाराज़ होने पर किसी को भी ‘बेसहूर’ ‘बेवकूफ’ कह देती हैं।

नन्दो बुआ के हिसाब से लड़का-लड़की की शादी की उम्र इक्कीस और अठारह साल मुकर्रर करना सरकार की सरासर ज़्यादती और बेवकूफी है। शादी-ब्याह के मामले में भला कानून का क्या काम? यह तो नन्दो बुआ जैसे लोगों की पारखी नज़र ही बता सकता सकती है कि कौन लड़की शादी-योग्य है और कौन नहीं। सरकार खामखाँ हर मामले में टाँग अड़ाती है।

नन्दो बुआ का दृढ़ मत है कि लड़की की सुरक्षा और चरित्र-रक्षा के लिए अगर कोई पुख़्ता मार्ग है तो वह शादी ही है। लड़की का चरित्र काँच  जैसा होता है, एक बार टूटा सो टूटा। फिर जोड़े नहीं जुड़ता। लड़की के माँ-बाप चौबीस घंटे तनावग्रस्त रहते हैं। इसलिए जितनी जल्दी गंगा- स्नान हो जाए उतना अच्छा।

लड़कियाँ नन्दो बुआ को वे ही पसन्द आती हैं जो नितान्त आज्ञाकारी, गऊ समान होती हैं,कि जिसके पल्ले माँ-बाप बाँध दें चुपचाप खुशी-खुशी चली जाएँ। स्कूटर पर फर-फर उड़ने वालीं, चबड़- चबड़ करने वालीं, हर बात में अपनी नाक घुसेड़ने वाली लड़कियाँ नन्दो बुआ को फूटी आँख नहीं सुहातीं। उनके हिसाब से आजकल की लड़कियों की आँख का शील मर गया है। आँख में आँख डाल कर बात करती हैं और मज़ाक उड़ाने से भी बाज़ नहीं आतीं। राह चलते अगर नन्दो बुआ को लड़कियाँ बैडमिंटन खेलतीं या हँसती-बोलती दिख जाएँ तो रुक कर हिदायत दे देती हैं—‘ए लड़कियो, कुछ लाज शरम रखो।यह क्या हुड़दंग मचा रखा है? क्या ज़माना आ गया है!’

सीधी-सादी, कम पढ़ी- लिखीं, आत्मविश्वास से हीन लड़कियाँ नन्दो बुआ को प्रिय हैं क्योंकि वे न कोई आपत्ति उठाती हैं, न कोई अपनी राय रखती हैं। ऐसी लड़कियों के सिर पर नन्दो बुआ का हाथ बार-बार घूमता है,कहती हैं, ‘फिकर मत करियो बिटिया। तुम्हारी शादी की जिम्मेदारी हमारी। ऐसे घर में भेजूँगी कि रानी बनकर राज करोगी।’

नन्दो बुआ की मानें तो दुनिया रसातल की तरफ जा रही है। पहले लड़कियाँ मर्यादा के साथ रहती थीं, अब झुंड की झुंड, बगल में किताबें दबाये घूमती हैं। जहाँ देखो लड़के-लड़कियाँ साथ खड़े हीही-ठीठी करते हैं। कपड़े देखो तो सब ऊटपटाँग। शर्म-लिहाज सब गया। पहले लड़कियाँ स्कूटर पर सिमट कर बाप या भाई के पीछे बैठती थीं, अब खुद माँ-बाप को पीछे बिठाये सर्र-सर्र दौड़ती हैं। दूसरी बात यह कि लड़कियों का मुँह खुल गया है। माँ-बाप की बात का सीधे विरोध कर देती हैं। वे उन लाजवन्तियों को हसरत से याद करती हैं जिन का मुँह तो क्या, हाथ-पाँव की उँगलियाँ देख लेना भी मुश्किल होता था। जो मुँह छिपाये ससुराल में आती थीं और मुँह छिपाये ही संसार से विदा हो जाती थीं। अब की लड़कियाँ तो आधी रात को भी घर से बेझिझक निकल पड़ती हैं।

पटेल परिवार की गीता पर बुआ की नज़र तब से थी जब वह दसवीं ग्यारहवीं में थी। लड़की सुन्दर, हाथ- पाँव से दुरुस्त थी। और क्या चाहिए? बारहवीं पास कर ले तो शादी के लिए बिल्कुल फिट हो जाएगी। गीता की माँ के पास बुआ की बैठकें जमती रहती थीं। उन्हें भी वे आश्वासन दे चुकी थीं कि गीता को रानी बना देंगीं।

गीता शोख थी। बुआ को चिढ़ाने में उसे मज़ा आता था। माँ के सामने ही बुआ से कहती, ‘बुआ, रानी कैसे बनाओगी? राजा- रजवाड़े तो सब खतम हो गये। अब तो देश में प्रजातंत्र है।’

बुआ आँखें चढ़ाकर कहतीं, ‘बिट्टी, थोड़ा पढ़-लिख गयी हो तो जुबान पर मत बैठो। रानी बनने से मेरा मतलब है कि ऐसे घर में भेजूँगी जहाँ खूब आराम मिले। दस नौकर-चाकर सेवा में रहेंगे।’

लेकिन बुआ की मुराद पूरी नहीं हुई। गीता ने बारहवीं पास करने के बाद नीट की तैयारी शुरू कर दी और उसके माता-पिता ने फिलहाल उसकी शादी का विचार त्याग दिया। बुआ ने भी बात को समझ कर दूसरी, कम महत्वाकांक्षी, लड़कियों पर ध्यान देना शुरू कर दिया। बारहवीं में गीता के अंक अच्छे आये थे इसलिए उसे भरोसा था कि वह नीट में निकल जाएगी।

दुर्भाग्यवश गीता नीट पास नहीं कर पायी और उसकी आगे की पढ़ाई की सारी योजना गड़बड़ा गयी। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। कॉलेज की पढ़ाई से ध्यान हटाकर वह फिर नीट की तैयारी में लग गयी। एक साल गुज़र जाने के बाद परिणाम आया। इस बार भी सफलता नहीं मिली। अब गीता को मायूसी हुई। आत्मविश्वास डगमगा गया। कॉलेज छोड़ देने के कारण आगे की राह अनिश्चित हुई। लेकिन उसने उम्मीद पूरी तरह छोड़ी नहीं। एक बार और नीट में बैठने का निश्चय उसने कर लिया।

गीता का सपना था कि डॉक्टर बनकर समाज की खूब सेवा करेगी। अशिक्षा और अंधविश्वास से जकड़े समाज में वह असमर्थ लोगों को छोटे छोटे रोगों से मरते और पीड़ा भोगते देखती थी। उसका सोचना था कि बड़ी असमानताओं वाले इस देश में कम से कम शिक्षा और स्वास्थ्य-सेवाएँ तो सबको सुलभ होना चाहिए। उसे लगता था कि अपने बूते के अनुसार उसे लोगों का दुख-निवारण ज़रूर करना चाहिए। लेकिन दो बार की असफलता के बाद उसे अपना सपना टूटता दिखता था।

दूसरी बार की असफलता के बाद नन्दो बुआ की नज़र फिर गीता पर टिक गयी। अब फिर उन्हें उसकी जगह एक सजी-धजी दुलहन दिखायी देने लगी थी। उसके घर में उनकी बैठकें बढ़ने लगीं।

गीता की माँ को भी अब लगने लगा था कि वक्त बेकार ज़ाया हो रहा था। लड़की की शादी हो जाए तो अच्छा। दो बार की असफलता से बेटी के चेहरे पर आयी मायूसी उन्हें तकलीफ देती थी। वे सोचती थीं कि ब्याह हो जाए तो यह सब पीछे छूट जाएगा। लड़की की उम्र बढ़ने से भविष्य में होने वाली परेशानियों से वे वाकिफ थीं। इसलिए उनकी तरफ से नन्दो बुआ को ज़्यादा सहयोग और प्रोत्साहन मिलने लगा था।

नन्दो बुआ के बटुए में हमेशा आठ दस लड़कों-लड़कियों के फोटो और ज़रूरी जानकारी रहती थी। उनके संपर्क के लड़के अक्सर साधारण पढ़े-लिखे और छोटी-मोटी नौकरियों या धंधे वाले होते थे। आधुनिक घरों में उनकी पैठ कम थी। ज़्यादा पढ़े-लिखे लोगों के हाव-भाव उन्हें पसन्द नहीं आते थे। उन्हें परंपरावादी, रूढ़िवादी लोग ज़्यादा रास आते थे। ज़्यादा पढ़े-लिखे लड़कों की डिग्रियाँ और योग्यताएँ उनकी समझ में नहीं आती थीं।

वे गीता की माँ को दो तीन लड़कों की जानकारी दे चुकी थीं। लड़के पढ़ने-लिखने में सामान्य थे लेकिन उनके परिवार मालदार थे, जो बुआ की नज़र में खास बात थी। बुआ गीता की माँ को आश्वासन देती रहती थीं कि उन लड़कों के परिवार इतने संपन्न थे कि लड़का ज़िन्दगी भर कुछ न करे तब भी उनकी बेटी को तकलीफ नहीं होगी।
गीता को बुआ की उसमें इतनी रुचि से चिढ़ होती थी। एक दिन उसने बुआ से कहा, ‘बुआ, थोड़ा गम खाओ। मुझे आदमी बन जाने दो।’

सुनकर बुआ ठुड्डी पर तर्जनी टिका कर बोलीं, ‘एल्लो, सुन लो पोट्टी की बातें! क्या अभी तू आदमी नहीं है?’

गीता ने जवाब दिया, ‘कहने को तो आदमी तब भी आदमी था जब वह गुफाओं में रहता था और पत्थर के हथियारों का इस्तेमाल करता था, लेकिन तब के आदमी और आज के आदमी में बहुत फर्क है।’

नन्दो बुआ ने अप्रतिभ होकर पूछा, ‘क्या मतलब है तेरा?’

गीता बोली, ‘मतलब यह कि लड़कियों को भी इतना मौका और वक्त दो कि वे दुनिया में अपने लिए जगह बना सकें। जिस दुनिया में रहती हैं उसे थोड़ा समझ सकें। लड़कियाँ उतनी कमजोर और लाचार नहीं होतीं जितना आप समझती हैं। वे अपने भविष्य का खयाल कर सकती हैं।’

बुआ पुचकार कर बोलीं, ‘अरे बिटिया, तू अभी नादान है। लड़की का जीवन बड़ा कठिन होता है। भले भले कट जाए तो गनीमत जानो। कब जरा सी बात पर बदनामी गले आ पड़े, कोई ठिकाना नहीं। हमारी सोसाइटी लड़कियों के लिए बड़ी निर्दयी होती है।’

गीता ने पलट कर प्रश्न किया, ‘यह बताओ बुआ कि आपकी सोसाइटी लड़कों और लड़कियों के बीच इतना भेद क्यों करती है? लड़कियों पर आप लोगों को भरोसा क्यों नहीं होता? सारी नसीहतें और सारे प्रतिबंध लड़कियों के लिए ही क्यों हैं? लड़कियों के आगे पीछे ताक- झाँक और जासूसी क्यों होती है? हमें अपने निर्णय करने की छूट क्यों नहीं मिलती?’

नन्दो बुआ निरुत्तर हो गयीं। ठंडी साँस लेकर बोलीं, ‘क्या कहें बिटिया, यह समाज ऐसा ही है। सदियों से यही होता रहा है।’

वैसे इस तरह की बातों से नन्दो बुआ को कोई फर्क नहीं पड़ता था। लड़कियों की शादी कराना उनके लिए मिशन था। इस काम से उन्हें घरों में जो मान-सम्मान मिलता था वह उनकी पूँजी थी और उसे वे किसी कीमत पर गँवाना नहीं चाहती थीं। इसलिए उन्होंने गीता की बातों को झाड़ कर दिमाग से निकाल दिया।

गीता तीसरी बार नीट की परीक्षा में बैठ गयी थी लेकिन अब उसे ज़्यादा उम्मीद नहीं थी। आँखों के सपने बुझ गये थे। इस बार असफल होने पर शायद शादी के सिवा कोई रास्ता न बचे। वह ऊपर से खुश दिखती थी, लेकिन मन पर उदासी की घेराबन्दी निरन्तर बढ़ रही थी। उसकी हार में नन्दो बुआ की जीत छिपी थी।

उस दिन गीता की माँ के पास नन्दो बुआ की बैठक जमी थी। नन्दो बुआ बताने आयी थीं कि एक लड़के ने गीता की फोटो को पसन्द कर लिया था। लड़के ने बी. कॉम. पास किया था और अब घर के धंधे में लगा था। नन्दो बुआ का विचार था कि एक बार गीता के पापा लड़के वालों से मिल लें तो बात आगे बढ़े।

तभी भीतर फोन की घंटी बजी। गीता ने फोन उठाया। उसकी सहेली का फोन था। फोन सुनती गीता की खुशी से भरी आवाज़ सुनायी पड़ी— ‘वाउ, ग्रेट न्यूज़। आई एम सो हैप्पी।’

गीता बाहर निकली तो उसकी मुट्ठियाँ फैली हुई थीं और आँखें चमक रही थीं। चिल्ला कर बोली, ‘मम्मी, मैं नीट में पास हो गयी। मैं कितनी खुश हूँ!’

नन्दो बुआ हकला कर बोलीं, ‘बड़ी खुशी की बात है। तेरी मेहनत सफल हो गयी।’

गीता बोली, ‘हाँ बुआ! मेरी जान बच गयी। अब आप पिंजरे में डालने के लिए दूसरी लड़की ढूँढ़ो। मैं तो आकाश में उड़ने चली।’

बुआ का मुँह उतर गया, बोलीं, ‘उड़ो बेटा, खूब उड़ो। हम तो लड़कियों का भला करते हैं। तुम नहीं, और सही।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 211 ☆ श्राद्ध पक्ष के निमित्त ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 211 श्राद्ध पक्ष के निमित्त ?

पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं। भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक श्राद्धपक्ष चलता है। इसका भावपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और कर्तव्य का निर्वहन है। व्यवहार पक्ष देखें तो पितरों को  खीर, पूड़ी व मिष्ठान का भोग इसे तृप्तिपर्व का रूप देता है। जगत के रंगमंच के पार्श्व में जा चुकी आत्माओं की तृप्ति के लिए स्थूल के माध्यम से सूक्ष्म को भोज देना लोकातीत एकात्मता है। ऐसी सदाशय व उत्तुंग अलौकिकता सनातन दर्शन में ही संभव है। यूँ भी सनातन परंपरा में प्रेत से  प्रिय का अतिरेक अभिप्रेरित है। पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने की ऐसी परंपरा वाला श्राद्धपक्ष संभवत: विश्व का एकमात्र अनुष्ठान है।

इस अनुष्ठान के निमित्त प्राय: हम संबंधित तिथि को संबंधित दिवंगत का श्राद्ध कर इति कर लेते हैं। अधिकांशत: सभी अपने घर में पूर्वजों के फोटो लगाते हैं। नियमित रूप से दीया-बाती भी करते हैं।

दैहिक रूप से अपने माता-पिता या पूर्वजों का अंश होने के नाते उनके प्रति श्रद्धावनत होना सहज है। यह भी स्वाभाविक है कि व्यक्ति अपने दिवंगत परिजन के प्रति आदर व्यक्त करते हुए उनके गुणों का स्मरण करे। प्रश्न है कि क्या हम दिवंगत के गुणों में से किसी एक या दो को आत्मसात कर पाते हैं?

बहुधा सुनने को मिलता है कि मेरी माँ परिश्रमी थी पर मैं बहुत आलसी हूँ।…क्या शेष जीवन यही कहकर बीतेगा या दिवंगत के परिश्रम को अपनाकर उन्हें चैतन्य रखने में अपनी भूमिका निभाई जाएगी?… मेरे पिता समय का पालन करते थे, वह पंक्चुअल थे।…इधर सवारी किसी को दिये समय से आधे घंटे बाद घर से निकलती है। विदेह स्वरूप में पिता की स्मृति को जीवंत रखने के लिए क्या किया? कहा गया है,

यद्यष्टाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो: जनः।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।

अर्थात श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसी का अनुसरण करते हैं। भावार्थ है कि अपने पूर्वजों के गुणों को अपनाना, उनके श्रेष्ठ आचरण का अनुसरण करना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

विधि विधान और लोकाचार से पूर्वजों का श्राद्ध करते हुए अपने पूर्वजों के गुणों को आत्मसात करने का संकल्प भी अवश्य लें। पूर्वजों की आत्मा को इससे सच्चा आनंद प्राप्त होगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 अगले 15 दिन अर्थात श्राद्ध पक्ष में साधना नहीं होगी। नियमितता की दृष्टि से साधक आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना करते रहें तो श्रेष्ठ है। 💥

🕉️ नवरात्र से अगली साधना आरंभ होगी। 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 159 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 159 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 159) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 159 ?

☆☆☆☆☆

 ☆ Richly Poor

न जाने कहाँ से खरीद

लाया है इतनी फुरसतें ,

वो जो बहुत अमीर भी 

नहीं दिखाता है…!

☆☆

Knoweth not from where has he

bought so much of leisure,

The one who does not even

look rich from any angle…!

☆☆☆☆☆

 ☆ Palmistry

कमबख्त एक भी काम

की ना निकली,

और हाथ भरा पड़ा है

तमाम लकीरों से…

☆☆

Alas! Not even a single    

one was of any use,

While, the hand was full

of these wretched lines…

☆☆☆☆☆

Adorable Weather

कितना सुहाना सा लगता है

तुम्हारे शहर का मौसम,

अगर इजाजत हो तो

मैं एक शाम चुरा लूँ…

☆☆

How endearing is the

weather of your city

If you permit me, then I’d

like to steal an evening.

☆☆☆☆☆

Maze of Relationships

अगर  दिलों  में  फर्क  और

रिश्तों  में  गांठ  पड़  जाये

तो सारी दलीलें, मिन्नतें और

फलसफे बेमानी हो जाते  हैं..!

☆☆

If there’re differences in the hearts

and bitterness in the relationships

Then all the arguments, pleadings and

philosophies become meaningless…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 159 ☆ नवगीत: संजीव ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं – नवगीत: संजीव)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 159 ☆

☆ नवगीत: संजीव ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

एक शाम

करना है मीत मुझे

अपने भी नाम

.

अपनों से,

सपनों से,

मन नहीं भरा.

अनजाने-

अनदेखे

से रहा डरा.

परिवर्तन का मंचन

जब कभी हुआ,

पिंजरे को

तोड़ उड़ा

चाह का सुआ.

अनुबंधों!

प्रतिबंधों!!

प्राण-मन कहें

तुम्हें राम-राम.

.

ज्यों की त्यों

चादर कब

रह सकी कहो?

दावानल-

बड़वानल

सह, नहीं दहो.

पत्थर का

वक्ष चीर

गंग

सलिल सम बहो.

पाये को

खोने का

कुछ मजा गहो.

सोनल संसार

हुआ कब कभी कहो

इस-उस के नाम?

.

संझा में

घिर आयें

याद मेघ ना

आशुतोष

मौन सहें

अकथ वेदना.

अंशुमान निरख रहे

कालचक्र-रेख.

किस्मत में

क्या लिखा?,

कौन सका देख??

पुष्पा ले जी भर तू

ओम-व्योम, दिग-दिगंत

श्रम कर निष्काम।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

बेंगलुरु, २२.९.२०१५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #209 – 95 – “तयशुदा है मुलाक़ात उस नाज़नीन से…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “तयशुदा है मुलाक़ात उस नाज़नीन से…”)

? ग़ज़ल # 95 – “तयशुदा है मुलाक़ात उस नाज़नीन से…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

जो हमें मिले वो दिल खुले ही नहीं,

जो खुल पाते वो दिल मिले ही नहीं।

ज़िंदगी गुमसुम लिबास में लिपटी रही,

किताब के कुछ सफ़े तो खुले ही नहीं।

तेज बारिश में अरमान सारे बह गए,

वक़्ते ज़रूरत दो बूँद टपके ही नहीं।

हमारे अपने बिछाते रहे राहों में काँटे,

परायों से कोई शिकवे गिले ही नहीं।

ताउम्र जिन्हें अपने सपने कहते रहे,

ख़्वाब शायद कभी अपने थे ही नहीं।

रिश्ते भी अब सड़े पत्तों से गलने लगे,

यक़ीनन रिश्तेदार कभी वे थे ही नहीं।

आँसुओं का भी लम्बा सिलसिला रहा,

बारिश में बहे किसी को दिखे ही नहीं।

एक झलक दिखा कर छुप गई माशूका,

हिल गए  ‘आतिश’ ख़ाली डरे ही नहीं।

तयशुदा है  मुलाक़ात उस नाज़नीन से,

साथ ले जाएगी वो पड़ेगी गले ही नहीं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – अब वक़्त  को बदलना होगा – भाग -1 ☆ सुश्री दीपा लाभ ☆

सुश्री दीपा लाभ 

(सुश्री दीपा लाभ जी  का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत। आप बर्लिन (जर्मनी) में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। हिंदी से खास लगाव है और भारतीय संस्कृति की अध्येता हैं। वे पिछले 14 वर्षों से शैक्षणिक कार्यों से जुड़ी हैं और लेखन में सक्रिय हैं।  आपकी कविताओं की एक श्रृंखला “अब वक़्त  को बदलना होगा” को हम श्रृंखलाबद्ध प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। आप प्रत्येक शनिवार को इस श्रृंखला की कविता आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ कविता ☆ अब वक़्त  को बदलना होगा – भाग -1 सुश्री दीपा लाभ  ☆ 

[1]

इस धरती पर जो आये हो

मन को कठोर करना होगा

एक दिन में कुछ बदलता नहीं

वर्षों तक तप करना होगा

समाज जगाना है गर आज

भाषण नहीं, आचरण होगा

अब वक्त को बदलना होगा

कुछ सरल-सहज नहीं होता

जब तक अन्दर झंकार ना हो

उस हासिल का कोई मोल नहीं

मेहनत जिसमें दिन-रात ना हो

दुर्दशा का रोना बहुत हुआ

अब दशा आप बदलना होगा

हो गया बहुत आरोप-प्रत्यारोप

अब वक़्त को बदलना होगा

© सुश्री दीपा लाभ 

बर्लिन, जर्मनी 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 85 ☆ मुक्तक ☆ ॥ वीर सपूत महान क्रांतिकारी शहीदे आजम भगत सिंह॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 85 ☆

☆ मुक्तक ☆ ॥ वीर सपूत महान क्रांतिकारी शहीदे आजम भगत सिंह☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

(भारत माता के वीर सपूत महान क्रांतिकारी शहीदे आजम भगत सिंह जी के जयंती दिवस (28 सितंबर) पर श्रद्धा सुमन व ह्रदय उदगारअर्पित।)

[1]

भगत सिंह की गाथा तो है, आज भी प्रेरणा की कारण।

आज़ादी के लिए हँसते हँसते, किया था मृत्यु को धारण।।

पराधीनता सपनेहुँ सुख नाही, चढ़ गए वह सूली पर।

गुलामी में नहीं किया, कभी भी वंदना चारण।।

[2]

जालियाँ वाला बाग का समय, और समय उसके बाद।

भारत की स्वाधीनता को बेताब, थे भगत सिंह और आजाद।।

प्राण किये न्यौछावर और हो गए वह शहीद।

आज सब भारतवासी कर रहे, नम आँखों से याद।।

[3]

नमन है इन शहीदों को, जो देश पर कुरबान हो गए।

वतन के लिये देकर जान वह बेजुबान हो गए।।

उनके प्राणों की आहुति से ही स्वाधीन है देश हमारा।

उठ कर जमीन से ऊपर वह आसमान हो गए।।

भारत माता की जय ।।जय हिंद।। वन्देमातरम।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 149 ☆ “वर्षा बीती खुशियां ले कर आई दीवाली” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल  – “वर्षा बीती खुशियां ले कर आई दीवाली। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ कविता – “वर्षा बीती खुशियां ले कर आई दीवाली” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

वर्षा बीती सुखद शरद ऋतु खुशियाँ ले आई दीवाली।

नई उमंगें, नये फूल-फल नई बहारें लाई दीवाली॥

 

गाँव, गली, घर, शहर, सड़क सब दिखते सुन्दर रूप सजाये।

हर मन में उत्साह अनोखा, जैसा प्रिय पहुनों के आये॥

 

कुटी, महल, दुकान, बाजारें, सजी दुल्हिन-सी दिखती सारी ।

लोग खरीदी,लेन-देन-बिक्री करते दिखते व्यापारी ॥

 

आनंद का भण्डार बाँटती, डगर-डगर भरती उजियारा। 

धरती पर परियों सी आकर, हर लेती सारा अंधियारा ॥

 

बिजली-दीपों की मालायें, जलतीं बुझती जुगनू जैसी ।

सारे भारत देख रोशनी भोंचक रह जाते परदेशी ॥

 

लक्ष्मी-पूजा की तैयारी में हर मन दिखती है खुशहाली।

कपड़े, माल, मिठाई, पटाके, खील बताशे लाई दिवाली ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 172 – कुटुंब ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 172 – कुटुंब ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

विश्वात्मक

कुटुंबाचा।

वारसा हा

भारताचा।

 

जीवसृष्टी

हो साकार

जगण्याचा

अधिकार ।

 

स्वार्थ सोडा

मैत्री करा ।

प्रेमाची हो

खात्री स्मरा।

 

एकमेका

देऊ साथ।

मदतीला

लाखो हात।

 

छोट्यासवे

होऊ सान।

थोरांनाही

देऊ मान।

 

सान थोर

संगतीला।

अंत नसे

प्रगतीला।

 

रुसवा नि

राग थोडा।

सोडुनिया

मने जोडा।

 

चूक भूल

द्यावी घ्यावी

आनंदाचे

गीत व्हावी।

 

चार दिस

जगायचे

कुढत का

बसायचे।

 

उगा नको

कुरवाळू।

मत्सराचा

द्रोह टाळू

 

धुंदीमधे

नको राहू।

नात्याचा तू

अंत पाहू।

 

हाताची ती

सारी बोटे।

कुणी मोठे

कुणी छोटे।

 

साऱ्यांनाच

एक माप ।

लावती ना

मायबाप।

 

आंतराची

भाषा घ्यावी।

शहाण्याने

समजावी।

 

आज जरी

इहलोकी।

उद्या असे

परलोकी।

 

वाहूनिया

श्रद्धांजली।

शांती मना

का लाभली।

 

विश्वासाचे

जपू धागे।

खेद खंत

नको मागे।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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