हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 94 ☆ हारता गाँव ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “हारता गाँव”।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 94 ☆ हारता गाँव ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

नई इबारत
 

लिखने बैठा
 

आज हमारा गाँव ।

 

सड़कों पर
 

छल की महफिल
 

दफ्तर गुलजारी के
 

गली गली
 

स्थापित टपरे
 

पान सुपारी के
 

इधर सिमटता
 

उधर फैलता
 

फिरे उघारा गाँव।

 

घर आंगन
 

सहमे सहमे से
 

दीवट देहरी द्वार
 

बूढ़ा छप्पर
 

गुपचुप सहता
 

मंहगाई की मार
 

मौन तोड़ता
 

द्वंद्व ओढ़ता
 

लगे विचारा गाँव।

 

राजनीति का
 

मोहरा बनकर
 

खोता अपनापन
 

जाति धर्म के
 

खेमों में बँट
 

लुटा रहा जीवन
 

कभी सियासत
 

कभी नियति से
 

पल पल हारा गाँव
     

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 98 ☆ वो तो अच्छा हुआ फैला दिया दामन तुमने… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “वो तो अच्छा हुआ फैला दिया दामन तुमने“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 98 ☆

✍ वो तो अच्छा हुआ फैला दिया दामन तुमने… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

हर मुसाफ़िर के लिए राह की ठोकर होता

ग़ुल अगर तुम न बनाते तो मैं पत्थर होता

 *

वो तो अच्छा हुआ फैला दिया दामन तुमने

वरना अश्क़ों का समंदर ही समंदर होता

 *

अपनी किस्मत की लकीरों को अगर पढ़ सकता

मेरे हाथों में जमाने का मुक़द्दर होता

 *

क्या गुनाहों की सज़ा है ये समझती दुनिया

फैसला इसका अगर क़ब्र के बाहर होता

 *

जिसका पैगाम था उस तक उसे पहुँचा न सका

ये ख़ता मुझसे न होती तो पयम्बर होता

 *

शुक्रिया तेरा के तू भूल गया मुझको अरुण

वरना जीना मेरा मरने के बराबर होता

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कब तक सुनाओगी मुझे… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – कब तक सुनाओगी मुझे,।)

✍ कब तक सुनाओगी मुझे… ☆ श्री हेमंत तारे  

घर बहुत बना चुके, अब बाग लगाना चाहिए

घर के सेहन में जतन से, चम्पा लगाना चाहिए

रातरानी और चमेली हर हाल महकती है, मगर

रूठे गुलाब औ हरसिंगार को अब मनाना चाहिए

*

लाजिमी है अपनी सेहत को संवारे हम,  मगर

कभी दिल की सदा सुनकर सिगरेट जलाना चाहिए

*

कब तक सुनाओगी मुझे मौसम की बातें दिलरूबा

दिल के क़फ़स में कैद जो, वो जज़्बे सुनाना चाहिए

*

तुम संजीदा लगते हो अच्छे ये सच तो है जानम मगर

मुझको मेरा ग़ुमशुदा, दिलकश – दिवाना चाहिए

*

धूल – मिट्टी का सफ़र ” हेमंत ” तू करता रहा

अब वक्त तेरा है तुझे दिल की ही करना चाहिए

(एहतिमाम = व्यवस्था, सिम्त = तरफ, सुकूँ = शांति, एज़ाज़ = सम्मान , शै = वस्तु, सुर्खियां = headlines, आश्ना = मित्र, मसरूफियत = व्यस्तता)

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 11 ☆ कविता – भरोसा… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय और भावप्रवण कविता  – “भरोसा“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 11 ☆

✍ कविता – भरोसा… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

भरोसा अब अपने आप पर नहीं रहा

तुम्हारे भरोसे की बात क्या करें साथी,

मैं जो चाहता हूँ,  तहे दिल से चाहत हूँ

तुम किसे कैसे चाहते मैं क्या कहूँ साथी।

*

शब्द व वाणी के स्तर बदल रहे हैं आज

अर्थ भी अलग अलग हो रहे हैं साथी,

कौन क्या समझा, किसे क्या समझाया

अब सच सच कौन बता पाएंगे साथी।

*

बहुत कोशिश की अंधेरों से निकलने की

जब दिया जलाया किसीने बुझाया साथी,

बुझाने वाले का हाथ नहीं देख पाया कभी

हमेशा स्वयं को अंधेरों से घिरा पाया साथी।

*

शोर सुनाई देता है कि अंधेरों से निकलो

पर रोशनी कहीं नजर नहीं आती है साथी,

शोर भी अंधेरे से आता दिखता है सबको

दीप  वाले की अब आस दिखती नहीं

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 61 – अनमोल… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अनमोल।)

☆ लघुकथा # 61 – अनमोल श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

“मां ये घर कितना गंदा है तुम साफ सफाई क्यों नहीं करती? कोई कामवाली  क्यों नहीं रख लेती ?”

आज मायके आई कविता ने  सफाई करते हुए अपनी मां से कहा – “तुम्हारे घर में बैठने की भी जगह नहीं है। तुम कैसे रहती हो?”

मां कमला ने कहा – “बस किसी तरह दिन काट रही हूं? अब तुम लोगों के बिना घर-घर नहीं है?”

“मां यह तो पुरानी लालटेन और डिबरी है जिसमे हम तेल डालकर जलाया करते थे बचपन में।  डिबरी कितनी सुंदर-सुंदर मिलती थी आज भी तुमने इसे संभाल के रखा है।”

देखते ही कविता पुरानी यादों में खो गई।

बत्ती गुल हो जाती थी तब मां कितने प्यार से कहती – “बिट्टी डिबरी/लालटेन साफ कर लो और जला लो।”

“मां लालटेन में कितनी सुंदर डिजाइन बनी है?”

तभी माँ ने कहा- “अरे ! मैं कब से आवाज लगा रही थी नाश्ता कर ले ।”

“ये क्या काम में लगी हो?”

“अपने बच्चों को भी अपने जमाने की चीज दिखाऊंगी? आजकल यह सब घरों में लोग बड़े शौक से रखते और सजाते हैं।”

मां ने कहा – “ठीक है ले जाना।”

कविता ने कहा “मै इसे अपने साथ ले जाऊंगी, मेरे लिए ये लालटेन अनमोल है।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 262 ☆ सहचर… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 262 ?

☆ सहचर ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

मी केली नाही कधीच….

खास तुझ्यासाठी कविता !

अधून मधून,

डोकवायचे तुझे संदर्भ….

कधी चांगुलपणाचे,

कधी कडवटपणाचे!

 खरंतर किती साधं असतं आयुष्य,

आपणच बनवतो अवघड!

नाहीच भरता आले रंग,

एकत्र,

आयुष्याच्या रांगोळीत!

समांतर रेषांसारखे,

जगत राहिलो,

आता सांजसावल्या,

झेलत असताना,

तू जास्त थकलेला दिसतोस,

भर उन्हातही….

ताठ कण्याने उभा होतास,

मावळतीची उन्हंही,

तशीच झेलत रहा….

सहचरा…..

नाहीच देता आलं काही,

जन्मभर!

स्वर्गात बांधलेल्या गाठी मात्र

 निभावल्या गेल्या आपसूकच,

स्वर्गस्थ ईश्वरानंच करावा न्याय,

देता आलंच काही,

तर सहचरा—

देईन तुला उरल्या आयुष्याचं दान!

दयाघना तू आहेसच ना,

इतका महान!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 91 – हाथ, विश्वास से बढ़ा देना… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – हाथ, विश्वास से बढ़ा देना।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 91– हाथ, विश्वास से बढ़ा देना… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

दूर रहने की मत सजा देना 

चाहे मरने की तुम दुआ देना

*

बेरुखी का अमिय न लूँगा मैं 

प्यार से, विष भले पिला देना

*

याद के हैं यहाँ दबे शोले 

फिर से चाहत की मत हवा देना

*

तुमको जब भी मेरी जरूरत हो 

हाथ विश्वास से बढ़ा देना

*

आरजू एक है, मरूँ जब भी 

शायरी का कफन उढ़ा देना

*

रुग्ण ‘आचार्य’ है व्यवस्था यह 

मजहबी मत इसे हवा देना

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 47 – लघुकथा – डी.एन.ए.  ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – डी.एन.ए. ।)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 47 – लघुकथा –  डी.एन.ए.  ?

जय के कमरे की बत्ती जल रही थी। दरवाज़े का अधिकांश हिस्सा भिड़ाया हुआ ही था पर एक सीधी रोशनी की लकीर टेढ़ी होकर मेरे कमरे की फ़र्श पर पड़ रही थी। तो क्या वह भी अनिद्रा का शिकार है?

मैं उसके दर्द को समझ रहा था क्योंकि मैं स्वयं भुग्तभोगी था। अल्पायु में रुक्मिणी का सर्वस्व त्यागकर अचानक मेरे जीवन से रूठकर चली जाना मेरे लिए असह्य था।

रुक्मिणी मेरी केवल पत्नी या जीवन संगिनी ही नहीं थी। वह मेरी शक्ति थी। एक विचारधारा थी। वह सोच थी। किसी शिक्षक की भाँति मार्गदर्शन किया करती थी। विवाह के एक लंबे अंतराल के बाद हमें माता -पिता बनने का आनंद मिला था। शायद जय के रूप में मुझे खुशी देने के लिए ही वह जीती रही। उसके अचानक देहावसान से मैं टूट गया था। मरने का मन करता था पर मेरे सामने एक लक्ष्य था। जय को पालना था।

सबने कहा था, अपनों ने समझाया था, घरवालों ने सलाह दी, ससुरालवालों ने इच्छा व्यक्त की कि पुनर्विवाह कर लो पर मैं रुक्मिणी का स्थान किसी को न दे सका। वह मेरी रूह बन मुझ में ही समा गई थी।

मेरे चेहरे पर एक उदासी छाई रहती थी। नेत्र सदैव तरल रहते। मेरा चीत्कार करने को मन करता था पर जय को देख अपने भावों का दमन करता चला गया। मित्रों की संख्या घटती गई। निरंतर उदास रहनेवाला मित्र भला किसे भाता! जो सच्चे मित्र थे वे सदैव साथ रहते थे। मैंने भी समय के साथ समझौता कर लिया। दुख की चादर सदा के लिए ओढ़ ली। वह दुख की चादर जो रुक्मिणी के विरह से मिली थी। मैं ऐसा करके सदैव यही प्रतीत करता कि वह मेरे आस पास ही है। उसका स्नेहसिक्त व्यक्तित्व ही ऐसा था।

ममता, स्नेह वात्सल्य का वह एक अनोखा मिसाल थी। जय को अपनी गोद में लिटाकर जब वह लोरी सुनाती तो वह ऐसे पलकें बंद कर लेता मानों परियों की दुनिया में सैर कर रहा हो। अभागा बेचारा! वात्सल्य की छाया समय से पहले ही छूट गई। मैं जय को कभी भी लोरी न सुना सका। सुनाता भी कैसे भला, मेरे कंठ ही वेदना से अवरुद्ध हो जाते और अश्रु की धार बहने लगती। जय के कपोल टपकती बूँदों से तर हो जाते। नन्हे सुकोमल हाथ उन्हें पोंछने लगते।

मैंने सब सह लिया, विरह की वेदना में झुलसता रहा और जय को रुक्मिणी की स्मृतियों के सहारे पाल ही लिया। जय बड़ा हुआ विवाह के बाद उसने घर बसाया पर मेरे भीतर धधकती वेदना के स्पंदन से वह कभी अनभिज्ञ न रहा।

फिर यह क्या हुआ? मेरे दुर्भाग्य के तार उसके भाग्य से क्यों जुड़ गए? मेरे व्यथित हृदय के झंकृत वेदना उसकी भी वेदना क्यों बन गई?

मैं वार्द्धक्य की सीमा पर हूँ वह जवानी में ही अकेला क्यों हो गया! मेरे सामने जय था, एक सशक्त ज़िम्मेदारी थी, पर जय? क्या वह

राधा का इस तरह अचानक जाना सहन कर पाएगा? क्या वह राधा से विरह सह पाएगा ? डरता हूँ वह उत्तेजित होकर कहीं कुछ कर न ले….

दरवाज़े से छनकर आती रोशनी बंद हो गई। जय ने कमरे की बत्ती बुझा दी। द्वार खुला और एक छाया मेरे सामने खड़ी हो गई। मेरी शांत पड़ी देह पर चादर ओढ़ा गई। मेरे माथे को चूमकर वह लौट गया।

अपने कमरे के दरवाज़े तक पहुँचकर उसने कहा, ” सो जाइए बाबूजी, अभी ज़िंदगी भर कई रातें जागनी होंगी हमें। फ़िक्र न करें मैं भी विरह सह लूँगा। उसकी छाया में ही तो पला हूँ न! मैं आत्महत्या नहीं करूँगा। “

मैं स्तंभित हो गया। पिता की व्यथा से परिपूर्ण विचार क्या पुत्र को डी.एन.ए में मिलते हैं?

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 165 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है ‘मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 165 – सजल – एक-एक कर बिछुड़े अपने ☆

ऋतु वसंत की थपकियाँ, देतीं सदा दुलार।

प्रेमी का मन बावरा, बाँटे अनुपम प्यार।।

 *

चारों ओर बहार है, आया फिर मधुमास।

धरा प्रफुल्लित हो रही, देख कृष्ण का रास।।

 *

छाया है मधुमास यह, जंगल खिले पलाश।

आम्रकुंज है झूमता, यह मौसम अविनाश।

 *

कुसुमाकर ने लिख दिया, फागुन को संदेश।

वृंदावन में सज गया, होली का परिवेश।।

 *

ऋतुओं का ऋतुराज है, छाया हुआ वसंत।

बाट जोहती प्रियतमा, कब आओगे कंत।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 338 ☆ व्यंग्य – “पालिटिकल अरेस्ट में पब्लिक…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक  व्यंग्य –पालिटिकल अरेस्ट में पब्लिक…” ।)     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 338 ☆

?  व्यंग्य – पालिटिकल अरेस्ट में पब्लिक…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

नये समय की नई शब्दावली चलन में है। टूल किट, पालिटिकल गैंगवार, डिजिटल अरेस्ट, मीडिया वार, सोशल हाईजेक, जैसे नये नये हिंग्लिश शब्द अखबारों में फ्रंट पेज हेड लाइंस बन रहे हैं। अब हर कुछ सबसे पहले और सबसे बड़ा होता है। छोटे से छोटी खबर भी ब्रेकिंग न्यूज होती है। सनसनी, झन्नाहट की डिमांड है। अब महोत्सव होते हैं। महा कुम्भ हुआ। महा जाम लगा। बड़े बड़े पढ़े लिखे लोग, दसवीं फेल जामतारा गैंग के सामने ऐसे डिजिटल अरेस्ट हुये कि बिना कनपटी पर गन रखे ही करोड़ो गंवा बैठे। लोग अपने नाते रिश्तेदारों मित्रों के फोन भले इग्नोर कर जाते हों पर अनजान नंबर से आते फोन उठाकर मनी लाउंड्रिंग केस में फंसने के डर को इग्नोर नहीं कर पाते। लोग न जाने किस अपराध बोध से ग्रस्त हैं कि वे जालसाजों के द्वारा ईजाद डिजिटल अरेस्ट जैसे सर्वथा ऐसे शब्द के फेर में उलझ जाते हैं, जो दण्ड संहिता में है ही नहीं। विभिन्न वित्तीय संस्थान जाने कितने बड़े बड़े विज्ञापन देकर सचेत करें पर स्मार्ट फोन और लेपटाप उपयोग करने वाले विद्वान उसे नहीं समझ पाते। लोगों की भय ग्रस्त मनोवृत्ति का दोहन जालसाज सहजता से कर लेते हैं। लोग घोटालेबाज़ के झांसे में फंसते चले जाते हैं और घूस देकर उस कथित डिजिटल अरेस्ट से मुक्त होना चाहते हैं।

जैसे नमकीन के पैकेट से थोड़ा सा नमकीन खाकर यदि स्वाद जीभ पर लग जाये तो फिर डायटिंग के सारे नियम अपने आप किनारे हो जाते हैं और पैकेट खत्म होते तक चम्मच दर चम्मच नमकीन खत्म होता ही जाता है कुछ वैसे ही इन दिनों मोबाइल पर सर्फिंग करते हुये जाने अनजाने में टिक टाक और रील्स में हम उलझ जाते हैं। समय का भान ही नहीं रहता। अच्छे भले चरित्रवान स्वयं वस्त्र उतारती रमणियों में रम जाते हैं। लिंक दर लिंक फेसबुक से इंस्टाग्राम यू ट्यूब तक मोबाइल चलता चला जाता है। कुछ इसी तरह सारी दुनियां में आम आदमी राजनेताओ के चंगुल में पालिटिकल अरेस्ट में हैं। आम और खास में अंतर की खाई हर जगह गहरी हैं। सरकारें उन्हीं आम लोगों से टैक्स वसूलती हैं जो उन्हें चुनकर खुद पर हुक्म चलाने के लिये कुर्सी पर बैठाते हैं। कम्युनिस्ट देशों में जनता का भरपूर शोषण कर देश का मुस्कराता चेहरा दुनियां को दिखाया जाता है। लोकतांत्रक सत्ताओ में केपेटेलिस्ट पूंजीपतियों को सरकार का हिस्सा बनाया जा रहा है। इसका छीनकर उसको फ्री बीज के रूप में बांटा जाता है। धर्म के नाम पर, आतंक, माफिया अथवा सैन्य ताकत या मुफ्तखोरी के जरिये आम लोगों के वोट बैंक बनाये जाते हैं। ये वोट बैंक पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ते रहते हैं। जनता को कट्टरपंथ का नशा पिलाकर देश भक्त बनाये रखने में लीडर्स का भला छिपा होता है। अपोजीशन का काम जनता को बरगला कर यही सब खुद करने के लिये अपने लीडर्स देना होता है। पक्ष विपक्ष जनता की अपनी तरफ खींचातानी के लिये नित नये लुभावने स्लोगन, आकर्षक वादे, तरह तरह के जुमले, सुनहरे सपने, दिखाकर भ्रम का मकड़जाल बनाते नहीं थकते। जनता की बुद्धि हाईजैक करना नेता भलिभांति जानते हैं। पब्लिक की नियति पालिटिकल अरेस्ट में  उलझे रहना है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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