मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता – अध्याय पहिला – ( श्लोक १ ते १० ) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता – अध्याय पहिला – ( श्लोक १ ते १० ) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

धृतराष्ट्र उवाच — 

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।१।।

दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।

आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्‌ ॥२॥

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्‌।

व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥३॥

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।

युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥४॥

धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्‌ ।

पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः ॥५॥

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌ ।

सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥६॥

भावानुवाद 

धर्माधिष्ठित कुरुक्षेत्रावर समरोत्सुक, संजय ।

अनुज पाण्डुचे माझे पुत्र सांग करिती काय ॥ १ ।।

व्यूहात पाहुनी पांडव सेना उठला दुर्योधन

समिप जाउनी आचार्यांच्या कथिता झाला वचन ॥२॥

आचार्य पहावी विराट सेना पांडुपुत्रांची

धृष्टद्युम्नाने रचिलेल्या कुशल व्यूहाची ॥३॥

भीमार्जुन हे श्रेष्ठ योद्धे युद्धसिद्ध जाहले 

सात्यकी विराट महारथी द्रुपद येउनी मिळाले ॥४॥

धृष्टद्युम्न चेकितान काशीराज च योद्धे वीर

कुंतिभोज पुरुजितासवे शैब्य पुंगवनर ॥५॥

युधामन्यु पराक्रमी उत्तरमौजा शक्तीमान

महारथी सौभद्रासवे द्रौपदीचे पंच सुत ॥६॥

संस्कृत श्लोक 

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।

नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥७॥

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः।

अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥८॥

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।

नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥९॥

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्‌।

पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्‌ ॥१०॥

— श्रीमद्भगवद्गीता : अध्याय पहिला

भावानुवाद 

आचार्य कथितो मुख्य सेनानायक आपुले

आपुल्या ज्ञानास्तव नामे सांगणे म्या योजिले ॥७॥

आपुल्या सवे भीष्म विजयी कृप तथा कर्ण 

अश्वत्थामा सोमदत्तसुत भूरिश्रवा तथा विकर्ण ॥८॥

बहूत शस्त्रधारी योद्धे रणांगणी युद्धसज्ज

प्राण घेऊनिया हाती साथ देती सदा मज ॥९॥

भीष्मरक्षित सैन्य अपुले आहे प्रचंड अगणित

भीमरक्षित शत्रुसैन्य संख्येने मात्र मर्यादित ॥१०॥

– क्रमशः भाग पहिला 

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ अस्तासी गेला चंद्र काचेचा… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ अस्तासी गेला चंद्र काचेचा… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

… ‘थांब थांब!… असा करू नकोस अविचार… अधीर मनात उलट सुलट विचारांचे माजलेले तांडव घेऊन,.. मोडल्या शपथा, भाका, आणांचे पोकळ शाब्दिक वासे हाती धरून… ओल्या वाळूवरची कोरलेली आपली जन्माक्षरे पुसली जाताना बघून… आपणच बांधलेल्या किल्लाला ध्वस्त झालेला पाहून… चिडून दाणदाण पाय आपटत याचा अर्थ काय?,असा जाब त्या चंद्राला विचारायला निघालीस!… का तो आता हाताच्या अंतरावर आला आहे म्हणून?…तुझ्या प्रीतीचा एकमेव साक्षीदार होता म्हणून!.. त्यालाच विचारणार अशी का  प्रीती दुभंगली जी अक्षर आणि अमर अशी महती असताना तिची! . मग माझ्या वाटय़ाला हे आलचं कसं.?.. माझं ऐकतेस का थोडं!.. शांत हो शांत हो!..बेचैन मन स्थिर कर… अवघड असतं सुरूवातीला पण प्रयत्न केलास तर सवयीने हळूहळू स्थिरावतयं … मग कर आपुलाच संवादु आपुल्याच मनाशी..तुझ्या एकेक प्रश्नांची भेट घडेल तुझ्याच मनात दडलेल्या उत्तराशी… अविवेकाने करून घेतला असतास सर्वनाश जीवनाचा.. समोर दिसतयं ते क्षितिज त्याला तरी कुठं ठाऊक आहे का पत्ता अंताचा!.. तू जितके चालत निघालीस तसा तसा पावला पावलाने मागे मागे  सरकत निघालेय.. गवसले का ते कधी तुला!.. मनाच्या संभ्रमावस्था तुला कधीच नव्हत्या त्या कळणाऱ्या ,पण नाहक जन्मभर होत्या छळणाऱ्या…गोडगुलाबी रंगाची उधळण भिडली आकाशात.. निळया स्वप्नांचे पक्षी पंख पसरून बसलेत गगनात.. किरमीजी छटेचा काळोख नैराश्याची झालर लावतोय आकाशी मंडपात… अर्थाचे बुडबुडे तरंगले  भ्रामक शब्दांच्या वायूतून… विराणीचे उसासे  झंकारले तुटल्या तारातून…अन तो उदास चंद्र बापुडा पाहतो तुज कडे मान वाकडी करुन… ‘

‘अगं वेडे तो तुला सांगतोय…कालपर्यंत मी सगळ्यांच्या गुजगोष्टी बघता बघता साठवत गेलो.. रुपेरी,चंदेरी लखलखत्या कोंदणी…माझ्या कडून कोणी हिरावून घेणार नाही हा दिला होता विश्र्वास.. कारण मी तेव्हा खूप खुप दूर होतो.. पण काल चांद्रयान ते मजवर उतरले आणि मधले अंतरच नाही उरले गं…  वाटेवरच्या  बागेत जावे तसे आता येथेही वर्दळ वाढली ,अन जो तो  उदर माझे फोडू लागला कुतूहलापोटी.. गुपितं लपविण्याचा खटाटोप  व्यर्थ ठरला..माझा चंद्राचा बाजारभावच घसरला… म्हणून  आलो सांगायला.. सख्यांनो आता मला वगळा नि तुम्ही दुसरा चंद्र शोधा.. झालंगेल़ विसरून जाऊया तोच चंद्रमा नभीचा हवा  हट्ट सोडून द्या…तो एक दूर दूर  काचेचा चंद्र होता, हाती येता खळकन फुटूनी गेला… अस्तासी गेला चंद्र काचेचा… ‘

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 127 ☆ जेनरेशन गैप ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘जेनरेशन गैप’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 127 ☆

☆ लघुकथा – जेनरेशन गैप ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘माँ! मुझे हॉस्टल में नहीं रहना है, बहुत घुटन होती है वहाँ। शाम को सात बजे ही हॉस्टल में आकर कैद हो जाओ। लगता है जैसे जानवरों की तरह पिंजरे में बंद हों। मुझे अपने दोस्तों के साथ फ्लैट में रहना है। ‘

‘बेटी! अनजान शहर में लड़कियों के लिए हॉस्टल में रहना ही अच्छा होता है, सुरक्षा रहती है। हॉस्टल के कुछ नियम होते हैं, उन्हें मानना चाहिए। और मैं भी यहाँ निश्चिंत रहती हूँ ना!। ‘

 ‘ये नियम नहीं बंधन हैं, जेल में कैदी के जैसे। और नियम सिर्फ लड़कियों के हॉस्टल के लिए होते हैं? लड़कों के हॉस्टल में तो ऐसा कोई नियम नहीं होता कि उन्हें हॉस्टल में कब आना है और कब जाना है, उन्हें सुरक्षा नहीं चाहिए क्या?’

माँ सकपकाई – ‘हाँ- हाँ — लड़कों के हॉस्टल में भी ये नियम होने चाहिए। पर लड़कियाँ अँधेरा होने से पहले घर आ जाएं तो मन निश्चिंत हो जाता है बेटी! अँधेरे में जरा डर बना रहता है। ‘

‘क्यों? क्या दिन में लड़कियाँ सुरक्षित हैं? आपको याद है ना! दिन में ट्रेन में चढ़ते समय क्या हुआ था मेरे साथ? ‘

‘हाँ – हाँ, रहने दे बस, सब याद है’ – माँ ने बात को टालते हुए कहा – ‘पर चिंता तो —– ‘

‘पर – वर कुछ नहीं, मुझे बताईए कि इसमें क्या लॉजिक है कि लड़कियों को घर जल्दी आ जाना चाहिए। हॉस्टल में बताए गए समय पर गेट के अंदर आओ, फिर मैडम के पास जाकर हाजिरी लगाओ। और यह चिंता- विंता की रट क्या लगा रखी है? कब तक यही कहती रहेंगी आप? बोलिए ना! ‘

माँ चुप रही — ‘आप मानती ही नहीं, खैर छोड़िए, बेकार है आपसे बात करना। आप कभी नहीं समझेंगी मेरी इन बातों को ’, यह कहकर बेटी पैर पटकती हुई चली गई।

बेटी की नजर में दुराचार की घटनाओं के लिए रात -दिन बराबर थे।

माँ की आँखों में रात के अंधकार में घटी बलात्कार की सुर्खियाँ जिंदा थीं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 168 ☆ खिसका धूप – छाँव का आँचल… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “खिसका धूप – छाँव का आँचल। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 168 ☆

☆ खिसका धूप – छाँव का आँचल… ☆

अगर परिवर्तन की इच्छा है, तो जीवन में आने वाले उतार – चढ़ावों से विचलित नहीं होना चाहिए, जो आज है, वो कल नहीं रहेगा ये सर्वमान्य सत्य है, इसलिए आपको जो भी दायित्व मिले उसे ऐसे निर्वाह करें जैसे ये आपका पहला व अन्तिम प्रोजेक्ट है। इसमें पूरी ताकत लगा दें क्योंकि बिना योग्यता को सिद्ध किये कोई आप पर भरोसा नहीं कर सकता।

इस संदर्भ में एक बात ध्यान देने योग्य है कि यदि सोच सच्ची है तो राह और राही दोनों आपको उम्मीद से बढ़कर सहयोग करेंगे। बस दिव्य शक्ति पर विश्वास होना जरूरी है क्योंकि यही विश्वास आपको मंजिल तक ले जाने में श्री कृष्ण की तरह सारथी बनकर, डगमगाने पर गीता का उपदेश देकर सम्बल बढ़ाते हुए विजयी बनाएगा।

आते-जाते हुए लोग विपक्षी दल की भूमिका निर्वाह करते हुए भले ही लोकतांत्रिक मूल्यों का हवाला दें किन्तु अच्छे कार्यों को करते हुए सत्ता पक्ष की तरह सशक्त दूरगामी निर्णय लेना चाहिए। जीवन कब करवट बदल ले इसे कोई नहीं बता सकता लेकिन जो सच्चे मन से परिश्रम करता है उसके लिए देव स्वयं धरती पर आकर नेकी का मार्ग प्रशस्त्र करते हैं। दूषित भावों से जोड़े गए पत्थर कभी मजबूत इमारत खड़ी नहीं कर पाते, जब तक बुनियाद के खम्बे निष्पक्ष नहीं होंगे तब तक दिवास्वप्न देखते रहिए, शेखचिल्ली बनकर सबका मनोरंजन करने का हुनर कोई आसान कार्य नहीं है।

अतः पूर्ण मनोयोग से अपने कार्यों को करें सफलता स्वागत के लिए तैयार है। भारतीय संस्कृति को आगे बढ़ाकर ही हम विश्व को नयी राह दिखायेंगे इसलिए निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर रहें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 231 ☆ व्यंग्य – चूं चूं की खोज… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – चूं चूं की खोज)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 231 ☆

? व्यंग्य – चूं चूं की खोज ?

हम अनुभवी बुद्धिजीवी हैं। ये और बात है कि खुद हमारे बच्चे भी हमारी बुद्धि से ज्यादा गूगल के ज्ञान पर पर भरोसा करते हैं। हमारी अपनी एक पुरानी अनुत्तरित समस्या है, जो हमें अपने स्वयं को पूर्ण ज्ञानी समझने से बरसों से रोके हुये हैं। हमारा यक्ष प्रश्न है, कक्षा आठ के हिन्दी के पाठ में पढ़े मुहावरे ” चूं चूं का मुरब्बा ” में, आखिर चूं चूं क्या है ? चूं चूं की खोज में हमने जीव विज्ञान की किताबें पढ़ी। जू के भ्रमण पर गये तो उत्सुकता से चूं चूं की खोज में दृष्टि दौड़ाई। फिर हमने सोचा कि जिस तरह आंवले का मुरब्बा होता है, हो सकता है चूं चूं भी किसी बिरले फल का नाम हो। तो वनस्पति शास्त्र की पुस्तकें खंगाल डाली बाग बगीचे जंगल घूमे। चूंकि चूं चूं का मुरब्बा हिन्दी मुहावरे में मिला था, और उससे कुछ कुछ व्यंग्य की बू आ रही थी सो हमने जोशी रचनावली, त्यागी समग्र और परसाई साहित्य में भी चूं चूं को ढूंढ़ने की कोशिश की, किन्तु हाथ लगे वही ढाक के तीन पात। चूं चूं का राज, राज ही बना हुआ है।

फिर हमारा विवाह हो गया। हर मुद्दे पर “मैं तो जानती थी कि यही होगा” कहने वाली हमें भी मिल गई। मुरब्बे बनाने में निपुण पत्नी से भी हमने चूं चूं के मुरब्बे की रहस्यमय रेसिपी के संदर्भ में पूछा। पत्नी ने बिना देर किये मुस्कराते हुए पूरी व्यंजन विधि ही बता दी। उसने कहा कि सबसे पहले चूं चूं को धोकर एक सार टुकड़ो में काटना होता है, स्वाद के अनुसार नमक लगाकर चांदनी रात में देर तक सुखाना पड़ता है। चीनी की एक तार चाशनी तैयार कर उसमें चांदनी में सूखे चूं चूं डाल कर उस पर काली मिर्च और जीरा पाउडर भुरक कर नीबू का रस मिला दें और अगली आठ रातों तक कांच के मर्तबान में आठ आठ घंटे चांदनी में रखना होता है, तब कहीं आठवें दिन चूंचूं का मुरब्बा खाने लायक तैयार हो पाता है। इस रेसिपी के इतने कांफिडेंट और आसानी से मिल जाने से मेरी नजर में पत्नी का कद बहुत बढ़ गया। मुझे भरोसा है कि वे सारे लोग पूरे के पूरे झूठे हैं जो सोचते हैं की चूं चूं का मुरब्बा वास्तविकता न होकर, सिर्फ एक मुहावरा है।

किन्तु वही समस्या सत्त्र बादरायण की कथा की खोज सी, जटिल हो गई। पुरच्या तो तब बने जब हूं हूं मिले। पूं हूं कहां से लाई जाने ? देश विदेश भ्रमण, भाषा विभाषा, धर्म जातियों, शास्त्रों उपसास्त्रों के अध्ययन के बाद भी कहीं यूं का कुछ पता नहीं लगा। सुपर मार्केट है कामर्स अमेजन से लेकर अली बाबा एक्सप्रेस एक और मुगल से विकी पीडीया तक सर्च के बाद भी अब तक चूं हूं नहीं मिली तो नहीं ही मिली। नौकरी में अफसरों के आदेशों मातहतों की फाइलों को पढ़ा, उनके विश्वशेन द लाइन्स निहितार्थ समझे। नेता जी के इशारे समझे डाक्टरों की घसीटा हँडराइ‌टिंग वाले पर्थों पर लिखी दवायें डिकोड कर ली पर इस चूं चूं को मैं नासमझ कभी समझ ही नहीं पाया।

मुझे तो लगने लगा है कि चूं चूं की प्रजाति ही डायनासोर सी विलुप्त हो चुकी है। या शायद जिस तरह इन दिनों उसूलों की घरेलू गौरख्या सियासत के जंगल में गुम हो रही है शायद उसी तरह चूं चूं भी एलियन्स शी समय की भेंट चढ़ चुकी है। हो सकता है कहीं कभी इतिहास में सत्ता का स्वाद चखते के लिए राजाओं, बादशाहों, शौकीन सियासतदानों ने पौरुष शक्ति बढ़ाने के लिये कही चूं चूं के मुरब्बे का इतना इस्तेमाल तो नहीं कर डाला कि हमारे लिये चूं चूं बच्ची ही नहीं। एक आशंका यह भी है कि कहीं लोकतंत्र से में जीत की अनिश्चितता से निजात पाने राजनैतिक पार्टियों ने अपनी बपौती मानकर चुनावों से पहले ही फ्री बिज के  रूप में इतना मुरब्बा मुफ्त में तो नहीं बांट दिया कि चूं चूं सदा के लिये “लापता” हो गई। संसद, विधान सभा के भव्य भवनों के रोशनदानों, संग्रहालयों, धूल खाते बंद से पुस्तकालयों, हर कहीं मेरी चूं चूं की खोज जारी है। “यह दुनियां गजब की” है कब कहां चूं चूं मिल जाये क्या पता। “दिल है कि मानता ही नहीं” सोचता हूं एक इश्तिहार छपवा दूं, ओ चूं चूं तुम जहां कहीं भी चली आओ तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। अथवा व्हाट्सअप पर यह संदेश ही डाल दिया जाये कि जिस किसी को चूं चूं मिले तो जरूर बताए, शायद “परिक्रमा” करते हुये कभी, यह मैसेज किसी चूं चूं तक पहुंच ही जाये। “यत्र तत्र सर्वत्र” खोज जारी है, शायद किसी दिन अचानक “जीप पर सवार चूं चूं ” हम तक वापस आ ही जाये “राग भोपाली” सुनने। यद्यपि मेरा दार्शनिक मन कहता है कि चूं हूं जरूर उस अदृश्य आत्मा का नाम होगा जिसकी आवाज पर नेता जनता के हित में दल बदल कर सत्ता में बने रहते हैं।

संभावना है कि चूं चूं यांत्रिक खटर पटर की तरह वह कराह है, जिससे उन्बील पुरै हाईस विरोधी मेंढ़कों ने एक पलड़े पर एकत्रित होकर चूं चूं के मुरम्बे सा कुछ तो भी बना तो दिया है। जिसके शैफ  पटना, बैंगलोर, मुंबई में अपने कुकिंग क्लासेज चला रहे थे। बहरहाल आपको चूं चूं दिखें तो बताईयेगा।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #17 ☆ कविता – “अलविदा…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 17 ☆

☆ कविता ☆ “अलविदा…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

आयेगा वो दिन

कहूंगा अलविदा

रस्म दुनियां की

यह भी निभाऊंगा

 

हसूँगा तुझ से

यूहीं आंखें मिला के

देख ले जी भर के

धागे कच्चे तोड़ दे

 

गर है तेरी ख़ुशी

तो चूम लूँ ये जुदाई

जान ले इक बार

इस दिल की गहराई

 

दिल है बड़ा यारा

है प्यार ये खरा

सजाले गले में

तोहफ़ा ये हमारा

 

मौत तेरी कैसे बनूँ 

कहते है जां तुझे

जा जी ले मेरी जां

है अलविदा तुझे

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #151 – आलेख – “बर्फ की आत्मकथा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक शिक्षाप्रद आलेख  बर्फ की आत्मकथा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 151 ☆

 ☆ आलेख – “बर्फ की आत्मकथा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

मैं पानी का ठोस रूप हूं. द्रव्य रूप में पानी बन कर रहता हूं. जब वातावरण का ताप शून्य तक पहुंच जाता है तो मैं जम जाता हूं. मेरे इसी रूप को बर्फ कहते हैं. मेरा रासायनिक सूत्र (H2O) है. यही पानी का सूत्र भी है. यानी मेरे अंदर हाइरड्रोजन के दो अणु और आक्सीजन के एक अणु मिले होते हैं.

जब पेड़ पौधे वातावरण से कार्बन गैस से कार्बन लेते हैं तब मेरे पानी से हाइड्रोजन ले कर शर्करा बनाते हैं. इसे ही पौधों की भोजन बनाने की प्रक्रिया कहते हैं. इसे हिंदी में प्रकाश संश्लेषण कहते हैं. इस क्रिया में मेरे अंदर की आक्सीजन वातावरण में मुक्त हो जाती है.

बर्फ अपनी आत्मकथा सुना रहा था. सामने बैठा हुआ बेक्टो ध्यान से सुन रहा था.

बर्फ ने कहना जारी रखा. ध्रुवों पर तापमान शून्य के करीब रहता है. इस कारण वहां का पानी जमा रहता है. इस जमे हुए पानी के पहाड़ को हिमनद कहते हैं. ये बर्फ के रूप में जमा होता है. यह सुन कर बेक्टो की आंखें फैल गई.

तुम सोच रहे हो कि सूर्य के प्रकाश से मेरा पानी पिघलता नहीं होगा ? बिलकुल नहीं. सूर्य का प्रकाश मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाता है. इस कारण जानते हो ?  नहीं ना. तो सुनो. सूर्य का जितना प्रकाश मेरे ऊपर पड़ता है उतना ही मैं वापस वातावरण में लौट देता हूँ. मैं सूर्य के प्रकाश को अपने पास नहीं रखता हूं. इसे वैसा ही वातावरण में लौटा देता हूं जैस यह मेरे पास आता है.

यही वजह है कि बर्फिली जगह लोगों को काला चश्मा लगाना पड़ता है. यहां पर प्रकाश बहुत तीव्र होता है. इस की चमक से आंखे खराब हो सकती है. इसलिए वे आंखों पर चश्मा लगाते हैं.

ओह ! बेक्टो की आंखे चमक गई. उस ने पूछा कि सूर्य का प्रकाश उसे पिघलाता नहीं है.

तब बर्फ ने कहा कि सूर्य का प्रकाश मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाता है. इस का कारण यह है कि मैं बर्फ की कोई ऊष्मा अपने अंदर ग्रहण नहीं करता हूं. मेरी मोटी मोटी पर्त भी पारदर्शी होती है. वे प्रकाश को आरपार पहूंचा देती है. या वातावरण में लौटा देती है. इसलिए मैं पिघलता नहीं है.

यदि मैं पिघल जाऊ तो जानते हो क्या होगा ? बर्फ के पूछने पर बेक्टो ने नहीं में गरदन हिला दी. तब बर्फ बोला कि यदि मेरी सभी बर्फ पिघल जाए तो इस से समुद्र के सतह पर 60 मीटर ऊंची दीवार बन जाएगी. इस पानी की दीवार में धरती की आधी आबादी डूब कर मर जाए.

यह सुन कर बेक्टो चकित रह गया.

बर्फ ने बोलना जारी रखा. मैं पिघलता नहीं हूं इसलिए हिमनद के रूप में जमा रहता हूं. यदि कभी मैं पिघलता हूं तो इस का कारण आसपास के वातावरण के तापमान बढ़ने से पिघलता हूं. वैसे जैसा रहता हूं वैसा जमा रहता हूं. यही मेरी कहानी है.

बेक्टो को बर्फ की कहानी अच्छी लगी. उस ने कहा कि आप तो सूर्य से भी नहीं डरते हैं.

इस पर बर्फ बोला कि सूर्य मेरा कुछ नहीं बिगाड़ता है. कारण यह है कि मैं ताप को ग्रहण नहीं करता हूं. इसलिए वातावरण से प्राप्त सूर्य के ताप को उसी के पास रहने देता हूँ. यदि तुम भी किसी की बुराई ग्रहण न करें तो तुम्हारी अंदर बुराई नहीं आ सकती है. तुम मेरी तरह अच्छाई ग्रहण करते रहो तो तुम भी मेरी तरह सरल और स्वच्छ बन सकते हो. यह कहते ही बर्फ चुप हो गया.

बेक्टो सोया हुआ था. उस की आंखे खुल गई. उस ने एक अच्छा सपना देखा था. इस सपने में वह बर्फ से आत्मकथा सुन रहा था. यह आत्मकथा बड़ी मज़ेदार थी इसलिए वह मुस्करा दिया.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२३/०३/२०१९

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 177 ☆ बाल गीत – जय – जय गणेश ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 177 ☆

☆ बाल गीत – जय – जय गणेश ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

जय गणेश जी, जय गणेश जी

पुकारती माँ भारती।

मंगल ही मंगल कर देना

सभी करें मिल आरती।।

 

अनुपम , सुंदर वेश आपका

बुद्धि के हो  प्राण प्रदाता।

पार्वती हैं माता देवी

सदैव आपको मोदक भाता।।

 

निर्बल को शक्ति भी देना

दृष्टि दीजिए पारखी।

जय गणेश जी , जय गणेश जी

पुकारती माँ भारती।।

 

सबको भोजन –  पानी देना

संग – साथ गुड़धानी देना।

हँसता बचपन सबको देकर

सेहत भरी जवानी देना।

 

धन से कोई हीन न रखना

धन बन जाए सारथी।

जय गणेश जी , जय गणेश जी

पुकारती  माँ भारती।।

 

बुद्धिमान हो ,  ज्ञानवान हो

मानुष ने मूषक बैठाया।

कौन कला का ज्ञानी इतना

मुझे समझ आज तक न आया।

 

जिस पर दया आपकी होती

कष्ट , विघ्न से तारती।

जय गणेश जी , जय गणेश जी

पुकारती माँ भारती।।

 

कार्तिकेय भ्रात सुखकारी

पिता महेश्वर हैं कल्याणी।

दो वरदान सभी को ऐसा

मधुर –  मधुर सब बोलें वाणी।

 

अर्चन , पूजा आओ कर लें

मन का मैल बुहारती।

जय गणेश जी , जय गणेश जी

पुकारती माँ भारती।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #174 ☆ बाप्पा… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 174 ☆ बाप्पा… ☆ श्री सुजित कदम ☆

बाप्पा तुझा देवा घरचा पत्ता

मला तू ह्या वर्षी तरी

देऊन जायला हवा होतास..

कारण..,

आता खूप वर्षे झाली

बाबांशी बोलून

बाबांना भेटून…

ह्या वर्षी न चूकता

तुझ्याबरोबर बांबासाठी

आमच्या खुशालीची

चिठ्ठी तेवढी पाठवलीय

बाबा भेटलेच तर

त्यांना ही

त्याच्यां खुशालीची चिठ्ठी

माझ्यसाठी

पाठवायला सांग…

बाप्पा…,

त्यांना सांग त्याची चिमूकली

त्यांची खूप आठवण काढते म्हणून

आणि आजही त्यांना भेटण्यासाठी

आई जवळ नको इतका हट्ट

करते म्हणून…,

बाप्पा तू दरवर्षी येतोस ना तसच

बाबांनाही वर्षातून एकदातरी

मला भेटायला यायला सांग..,

तुझ्यासारखच…,त्यांना ही

पुढच्या वर्षी लवकर या..

अस म्हणण्याची संधी

मला तरी द्यायला सांग…,

बाप्पा.., पुढच्या वर्षी तू…

खूप खूप लवकर ये..

येताना माझ्या बाबांना

सोबत तेवढ घेऊन ये…!

© श्री सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #200 – कविता – ☆ माना कि हम इतने बड़े नहीं हैं… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता “माना कि हम इतने बड़े नहीं हैं…”।)

☆ तन्मय साहित्य  #200 ☆

☆ माना कि हम इतने बड़े नहीं हैं…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

माना कि हम इतने बड़े नहीं हैं

पर ये भी सच नहीं कि,

हम अपने पैरों पर खड़े नहीं हैं।

 

गिरते-गिरते उठे, चले

आगे सत्पथ पर

चलते रहे निरंतर ,कभी न

बैठे हम दूजों के रथ पर,

जीवन में अपनी मनवाने

कभी किसी से लड़े नहीं हैं

पर ये भी सच………

 

संघर्षों से रहे जूझते

हँसते-हँसते

मन वीणा के तारों को हम

रहे एक लय-स्वर में कसते,

कभी बेसुरे गीत भीड़ में

बेशर्मी से पढ़े नहीं हैं

पर ये भी सच………

 

दर्प भरे चेहरों से कभी

नहीं बन पाई

उनसे रखा दूर अपने को

रहे दिखाते जो प्रभुताई,

द्वेषभाव से राह किसी की

कंटक बन कर अड़े नहीं हैं

पर ये भी सच………

 

जो भी रही साधना अपनी

सहज सरल सी

बहती रही शब्द सरिता अपनी

गति से अविरल निर्मल सी,

आत्ममुग्ध हो खुद पर ही हम

इतराते नकचढ़े नहीं हैं

पर ये भी सच………।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares