हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 83 ☆ मुक्तक ☆ हिन्दी दिवस विशेष – ॥ हमारी मातृ भाषा हिन्दी ॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 83 ☆

☆ मुक्तक ☆ हिन्दी दिवस विशेष – ॥ हमारी मातृ भाषा हिन्दी ॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

हिन्दी   में  भरा      रस    माधुर्य, कवित्व   और         मल्हार    है।

हिन्दी में     भाव  और  संवेदना, अभिव्यक्ति      भी     अपार  है।।

हिन्दी में ज्ञान     और   विज्ञान, दर्शन का    अद्धभुत  समावेश।

हिन्दी भारत  का      विश्व  को, कोई अनमोल       उपहार   है।।

[2]

बस  एक  हिन्दी    दिवस   नहीं, हर दिन   हो हिन्दी    का   दिन।

विज्ञान  की   भाषा  भी   हिन्दी, ज्ञान तो  है  नहीं  हिन्दी     बिन।।

मातृ भाषा , राज  भाषा   हिन्दी, है उच्च सम्मान  की  अधिकारी।

तभी राष्ट्र  करेगा   सच्ची उन्नति, कार्यभाषा हिंदी हो हर पलछिन।।

[3]

मातृ   भाषा   का   दमन   नहीं, हमें  करना      होगा       नमन।

पुरातन मूल्य      संस्कारों   की, ओर   करना     होगा      गमन।।

बनेगी तभी   भारत     वाटिका, अनुपम    अतुल्य       अद्धभुत।

जब  देश  में  हर ओर   बिखरा, होगा      हिन्दी       का   चमन।।

[4]

हिन्दी   का   सम्मान     ही  तो, देश का    गौरव  गान     बनेगा।

मातृ  भाषा  के   उच्च   पद  से, ही  राष्ट्र    का       मान   बढेगा।।

हिन्दी  तभी      बन      पायेगी, भारत  मस्तक       की   बिन्दी।

जब राष्ट्र    भाषा   का  ये   रंग, हर   किसी   मन पर      चढ़ेगा।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 147☆ बाल गीतिका से – “अपना भारत” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत  – “अपना भारत…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ बाल गीतिका से – “हमारा देश” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

सागर में पथ दिखलाने को ज्यों ध्रुव तारा है ।

जो भटके राही का केवल एक सहारा है ॥

 इस दुनिया के बीच चमकता देश हमारा है।

 हम इसमें जन्मे इससे यह हमको प्यारा है ॥

हम सब भारतवासी हैं इसकी प्यारी सन्तान

सबमें स्नेह भावना है हम सब हैं एक समान

दुनिया भर में इसकी सबसे शोभा न्यारी है।

पर्वत, नदी, समुद्र, खेत सुन्दर हर क्यारी है ॥

यह ही है वह देश जहाँ जन्मे थे राघव राम ।

प्रेम, त्याग औ’ न्याय, धर्म हित थे जिनके सब काम ॥

 यह ही है वह देश जहाँ पर है वृन्दावन धाम ।

 जहाँ बजी थी मुरली औ’ थे रमे जहाँ घनश्याम ॥

यह ही है वह देश जहाँ जन्मे थे बुद्ध महान् ।

सारी दुनिया को प्रकाश दे सका कि जिनका ज्ञान ॥

 यहीं हुये गाँधी जिनने पाई हिंसा पर जीत ।

जो उनका दुश्मन था वह भी था उनको तो मीत ॥

अनुपम है यह देश प्रकृति ने जिसे दिया सब दान ।

महात्माओं ने ज्ञान और ईश्वर ने भी सन्मान ॥

हम इसके सुयोग्य बेटे बन रखे इसकी शान ।

हमें शक्ति वरदान आज इतना दीजे भगवान ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 170 – हृदयी निवास नरसिंह ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 170 – हृदयी निवास नरसिंह ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

हिरण्याक्ष आणि।

हिरण्य कश्यप।

असूर अमूप।

मातलेले।

वराह रूपाने।

हिरण्याक्ष वधे।

कश्यपू तो क्रोधे।

बहुतापे।

नारायण द्वेष्टा।

बनला असूर।

भक्ता साजा क्रूर।

देता झाला।

पुत्र रत्न लाभे

प्रल्हाद कश्यपा।

करी विष्णू जपा।

अखंडीत।

सोडी विष्णू भक्ती।

पिता सांगे त्यासी।

परि प्रल्हादासी।

चैन नसे।

धर्मांध पित्याने। कडेलोट केला।

झेलून घेतला।

नारायणे।

उकळते तेल।

भक्त नाचे धुंद।

नामाचा आनंद।

कोणा कळे।

हत्ती पायी दिले।

विष पाजियले।

परि ना बधले।

हरीभक्त।

दुष्ट होलिका ती

चितेवरी बैसे।

जाळीन मी ऐसे।

प्रल्हादासी।

दुरुपयोग तो।

करिता वराचा।

अंत होलिकेचा।

होळीमधे।

संतापे कश्यपू।

वदे प्रल्हादास।

कोठे तो आम्हास।

विष्णू दावी।

विष्णूमय जग।

वदला प्रल्हाद।

गदेने जल्लाद।

ताडी खांब।

नरसिंह रूप।

नर ना पशू तो।

अस्त्र शस्त्रा विन।

वधे त्यासी।

आत ना बाहेर।

बसे उंबऱ्यात।

दिन नसो रात।

संध्याकाळी।

ब्रह्मयाचा वर।

प्रभुने पाळीला।

अवतार झाला।

नरसिंह।

वैशाख मासी ती।

चतुर्दशी खास।

ह्रदयी निवास।

नरसिंह।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #200 ☆ समय–सर्वश्रेष्ठ उपहार ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख समय–सर्वश्रेष्ठ उपहार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 200 ☆

☆ समय–सर्वश्रेष्ठ उपहार 

आधुनिक युग में बढ़ रही प्रतिस्पर्द्धात्मकता की भावना ने बच्चों, परिवारजनों व समाज में आत्मकेंद्रिता के भाव को जहां पल्लवित व पोषित किया है; वहीं इसके भयावह परिणाम भी सबके समक्ष हैं। माता-पिता की अधिकाधिक धन कमाने की लिप्सा ने, जहां पति-पत्नी में अलगाव की स्थिति को जन्म दिया है; वहीं उनके हृदय में उपजे संशय, शंका, संदेह व अविश्वास के भाव अजनबीपन का भीषण-विकराल रूप धारण कर मानव-मन को आहत-उद्वेलित कर रहे हैं; जिसके परिणाम-स्वरूप ‘लिव-इन व सिंगल पेरेंट’ का प्रचलन निरंतर बढ़ रहा है… जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चे भुगतने को विवश हैं और वे निरंतर एकांत की त्रासदी से जूझ रहे हैं। भौतिकतावाद की बढ़ती प्रतिस्पर्द्धात्मक प्रवृत्ति ने तो बच्चों से उनका बचपन ही छीन लिया है, क्योंकि एक ओर तो उनके माता-पिता अपने कार्य-क्षेत्र में प्रतिभा-प्रदर्शन कर एक-दूसरे को पछाड़ आगे बढ़ जाना चाहते हैं, दूसरी ओर वे अपनी अतृप्त इच्छाओं व सपनों को अपने आत्मजों के माध्यम से साकार कर लेना चाहते हैं। इस कारण वे उनकी रूचि व रूझान की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते।

इस प्रकार माता-पिता भले ही धन-संपदा से सम्पन्न होते हैं और उनका जीवन भौतिक सुख-सुविधाओं व ऐश्वर्य से लबरेज़ होता है, परन्तु समयाभाव के कारण वे अपने आत्मजों के साथ चंद लम्हे गुज़ार कर उन्हें जीवन की छोटी-छोटी खुशियां भी नहीं दे सकते; जो उनके लिए अनमोल होती हैं, प्राणदायिनी होती हैं। यह कटु सत्य है कि आप पूरी दौलत खर्च करके भी न तो समय खरीद सकते हैं; न ही बच्चों का चिर-अपेक्षित मान-मनुहार और उस अभाव की पूर्ति तो आप लाख प्रयास करने पर भी नहीं कर सकते। सो! अत्यधिक व्यस्तता के कारण माता-पिता से अपने आत्मजों को सुसंस्कृत करने की आशा करना तो दूर के ढोल सुहावने जैसी बात है। वास्तव में यह कल्पनातीत है, बेमानी है।

चिन्तनीय विषय तो यह है कि आजकल न तो माता-पिता के पास समय है; न ही शिक्षण संस्थानों में अपनी संस्कृति के विभिन्न पहलुओं से अवगत कराया जाता है और न ही जीवन- मूल्यों की महत्ता, सार्थकता व उपादेयता का पाठ पढ़ाया जाता है। सो! उनसे नैतिकता व मर्यादा-पालन की शिक्षा देने की अपेक्षा करना तो व्यर्थ है। बच्चों का टी•वी• व मीडिया से जुड़ाव, मदिरा व ड्रग्स  का आदी होना, क्लब व रेव-पार्टियों में उनकी सहभागिता-सक्रियता को देख हृदय आक्रोश से भर उठता है; जो उन मासूमों को अंधी गलियों में धकेल देता है। इसका मूल कारण है– पारस्परिक मनमुटाव के कारण अभिभावकों का बच्चों की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों में रुचि न लेना। दूसरा मुख्य कारण है–संयुक्त परिवार-व्यवस्था  के स्थान पर एकल परिवार-व्यवस्था का प्रचलन। वैसे भी परिवार आजकल माता-पिता व बच्चों तक सिमट कर रह गए हैं… संबंधों की गरिमा तो बहुत दूर की बात है। रिश्तों की अहमियत भी अब तो रही नहीं… मानो उस पर कालिख़ पुत गयी है।

यह तो सर्वविदित है कि बच्चों को मां के स्नेह के साथ-साथ, पिता के सुरक्षा-दायरे की भी दरक़ार रहती है और दोनों के सान्निध्य के बिना उनका सर्वांगीण विकास हो पाना असम्भव है। इन विषम परिस्थितियों में पोषित बच्चे भविष्य में समाज के लिए घातक सिद्ध होते हैं। अक्सर अपने-अपने द्वीप में कैद माता-पिता बच्चों को धन, ऐश्वर्य व भौतिक सुख-सुविधाएं प्रदान कर अपने कर्त्तव्य-दायित्वों की इतिश्री समझ लेते हैं। इसलिए स्नेह व सुरक्षा का उनकी नज़रों में कोई अस्तित्व नहीं होता। ऐसे बच्चे सभ्यता-संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं– हैलो-हाय के वातावरण में पले-बढ़े बच्चे मान-सम्मान के संस्कारों से कोसों दूर हैं… भारतीय संस्कृति में उनकी तनिक भी आस्था नहीं है…. बड़े होकर वे अपने माता- पिता को उनकी ग़लतियों का आभास-अहसास कराते हैं और उन्हें अकेला छोड़ अपने परिवार में मस्त रहते हैं। इन अप्रत्याशित परिस्थितियों में उनके माता-पिता प्रायश्चित करने हेतु उनके साथ रहना चाहते हैं; जो उन्हें स्वीकार नहीं होता, क्योंकि उन्हें उनसे लेशमात्र भी स्नेह-सरोकार नहीं होता।

सच ही तो है ‘गया वक्त लौटकर कभी नहीं आता। सो! वक्त वह अनमोल तोहफ़ा है, जो आप किसी को देकर, उसे आपदाओं के भंवर से मुक्त करा सकते हैं। इसलिए बच्चों व बुज़ुर्गों को समय दें, क्योंकि उन्हें आपके धन की नहीं– समय की, साथ की, सान्निध्य व साहचर्य की ज़रूरत होती है… अपेक्षा रहती है। आप चंद लम्हें उनके साथ गुजारें…अपने सुख-दु:ख साझा करें, जिसकी उन्हें दरक़ार रहती है। वास्तव में यह एक ऐसा निवेश है, जिसका ब्याज आपको जीवन के अंतिम सांस तक ही प्राप्त नहीं होता रहता, बल्कि मरणोपरांत भी आप उनके ज़हन में स्मृतियों के रूप में ज़िन्दा रहते हैं। यही मानव जीवन की चरम-उपलब्धि है; सार्थकता है; जीने का मक़सद है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #199 ☆ हिन्दी दिवस विशेष – हिन्दी – ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं राजभाषा दिवस पर आधारित एक कविता हिन्दी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 199 – साहित्य निकुंज ☆

☆ राजभाषा दिवस  विशेष – हिन्दी  डॉ भावना शुक्ल ☆

अक्षर  -अक्षर  जोड़कर, बनते शब्द महान।

शब्द- शब्द से हुआ है, ग्रंथों का निर्माण।।

 

हिन्दी में हम जी रहे, हिन्दी में है शान।

हिन्दी सबसे मधुर है, हिन्दी है पहचान।।

 

दूर देश में हो रहा, हिन्दी का सम्मान।

हिन्दी में सब बोलते, हिन्दी बड़ी महान।।

 

हिन्दी हिंदुस्तान के, करे दिलों पर राज।

चमक रहा है भाल पर, है बिंदी का ताज।।

 

हिन्दी को अब मिल रहा, बड़ा बहुत ही मान।

हिंदी भाषा प्रेम की, मिलता है सम्मान।।

 

तुलसी सूर कबीर को, मिला बहुत ही नाम।

उनके ही साहित्य पर, हुआ बड़ा ही काम ।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #184 ☆ हिन्दी दिवस विशेष – संतोष के दोहे – “हिंदी” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे  – “हिंदी”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 184 ☆

☆ संतोष के दोहे  – “हिन्दी” ☆ श्री संतोष नेमा ☆

हिंदी बोलो गर्व से, हिंदी हिन्दुस्तान

हम सबका बढ़ता सदा, हिंदी से ही मान

हिंदी हिय में राखिये, करके ऊँचा माथ

रखें कभी मत हीनता, हिंदी जब हो साथ

नमस्कार सब कर रहे, विश्व पटल पर आज

हिंदी सब को जोड़ती, करिये उस पर नाज़

पखवाड़े में सिमट कर, हिंदी करे पुकार

सीमित मुझे न कीजिये, करिये अब विस्तार

निज भाषा मत छोड़िये, यह अपनी पहचान

अंगेजी के रोब से, उबरो अब श्रीमान

अंग्रेजी के आपने, खूब पखारे पाँव

हिंदी से दूरी रखी, उसे छोड़ कर गाँव

हिंदी भाषा प्रेम की, हिंदी अपना धर्म

संस्कार पोषित करे, हिंदी से सब कर्म

बने राष्ट्रभाषा सपदि, सबकी यह दरकार

जल्दी से इस बात पर, निर्णय ले सरकार

मिले मान- सम्मान सब, हिंदी से संतोष

हिंदी का आदर करें, बिन खोजे ही दोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य #190 ☆ अहो तुम्हाला माहेरपण लाभते का? ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 189 – विजय साहित्य ?

अहो तुम्हाला माहेरपण लाभते का? ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

स्वर्गाची तुमच्या महती

आम्हाला नका सांगू देवा

भोगून पहा माहेरपण

नक्कीच कराल आमचा हेवा ll

 

मनसोक्त काढलेली झोप

आणि तिच्या हातचा गरम चहा

सुख म्हणजे काय असतं ,

देवा एकदा अनुभवून पहा ll

 

नेलेल्या एका बॅगेच्या

परतताना चार होतात

तिच्या हातचे अनेक जिन्नस

अलगद त्यात स्वार होतात ll

 

नेऊन पहा तिच्या हातच्या

पापड लोणचे चटण्या

सगळे मिळून स्वर्गात

कराल त्यांच्या वाटण्या ।।

 

शाल तिच्या मायेची

एकदा पहा पांघरून ।

अप्रूप आपल्याच निर्मितीचं

पाहून जाल गांगरून ll

 

लाख सांगा देवा हा

तुमच्या मायेचा खेळ l

तिच्या मायेच्या ओलाव्याचा

बघा लागतो का मेळ ?

 

फिरू द्या तिचा कापरा हात

एकदा तुमच्या पाठीवरून l

मायापती देवा तुम्ही,

तुम्हीही जाल गहिवरून ll

 

आई नावाचं हे रसायन

कसं काय तयार केलंत ?

लेकरासाठीच जणू जगते

सगळे आघात झेलत ll

 

भोगून पहा देवा एकदा

माहेरपणाचा थाट l

पैज लावून सांगते विसराल

वैकुंठाची वाट ।।

 

माहेरपण हा केवळ

शब्द नाही पोकळ

अनुभूतीच्या प्रांतातलं

ते कल्पतरूचं फळ ll

 

डोळ्यात प्राण आणून

वाट बघणारी आई l

लेकीसाठी ह्या शिवाय

दुसरा स्वर्ग नाही ll

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 126 ☆ हिंदी दिवस विशेष – अदालत में हिंदी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘आग ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 126 ☆

☆ लघुकथा – अदालत में हिंदी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

अदालत में आवाज लगाई गई – हिंदी को बुलाया जाए। हिंदी बड़ी सी बिंदी लगाए भारतीय संस्कृति में लिपटी फरियादी के रूप में कटघरे में आ खड़ी हुई।

मुझे अपना केस खुद ही लड़ना है जज साहब ! – उसने कहा।

अच्छा, आपको वकील नहीं चाहिए ?

नहीं, जज साहब ! जब मेरी आवाज बन भारत  विदेशियों से जीत गया तो मैं अपनी लड़ाई खुद नहीं लड़ सकती ?

ठीक है, बोलिए, क्या कहना चाहती हैं आप ?

जब देश स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था तब मैंने कमान संभाली थी। देशभक्ति की ना जाने कितनी कविताएं मेरे शब्दों में लिखी गईं। जब मैं कवि के शब्दों में कहती थी – जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं, वह ह्रदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं,  तब इसे सुनकर नौजवान  देश के लिए अपनी जान तक न्यौछावर कर देते थे।  मैं सबकी प्रिय थी,  कोई नहीं कहता था कि तुम मेरी नहीं हो। लेकिन अब  मेरे अपने देश के माता – पिता अपने बच्चों को मुझसे दूर रखते हैं, देश के नौजवान मुझसे मुँह चुराते हैं। इतना ही नहीं महाविद्यालयों में तो युवा मुझे पढ़ने से कतराते हैं। मेरे मुँह पर तमाचा- सा लगता है जब वे कहते हैं कि क्या करें तुम्हें पढ़कर ?  हमें नौकरी चाहिए, दिलवाओगी तुम ? जीने के लिए रोटी चाहिए,  हिंदी नहीं ! मैं उन्हें दुलारती हूँ, पुराने दिन याद दिलाती हूँ, कहती हूँ अच्छे दिन आएंगे परंतु वे मेरे वजूद को नकारकर अपना भविष्य संवारने चल देते हैं। जज साहब! मैं अपने ही देश में पराई हो गई। इस अपमान से मेरी  बहन बोलियों ने अपनी जमीन पर ही दम तोड़ दिया। मुझे न्याय चाहिए जज साहब! – हिंदी हाथ जोड़कर उदास स्वर में बोली।

अदालत में सन्नाटा छा गया। न्यायधीश महोदय खुद भी दाएं- बाएं झांकने  लगे। उन्होंने आदेश दिया –  गवाह पेश किया जाए।

हिंदी सकपका गई, गवाह कहाँ से लाए ? पूरा देश ही तो गवाह है, यही तो हो रहा है हमारे देश में – उसने विनम्रता से कहा।

नहीं, यहाँ आकर कटघरे में खड़े होकर आपके पक्ष में बात कहनेवाला होना चाहिए – जज साहब बोले।

हिंदी ने बहुत आशा से अदालत के कक्ष में  नजर दौड़ाई,  बड़े – बड़े नेता, मंत्री, संस्थाचालक वहाँ बैठे थे, सब अपनी – अपनी रोटियां सेंकने की फिक्र में  थे। किसी ने उसकी ओर आँख उठाकर देखा भी नहीं।

गवाह के अभाव में मुकदमा खारिज कर दिया गया।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 167 ☆ उर विहग सा उड़ रहा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना उर विहग सा उड़ रहा। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 167 ☆

☆ उर विहग सा उड़ रहा… ☆

कोई कुछ अच्छा करना चाहे तो उसे प्रोत्साहित करना, मनोबल बढ़ाना, नए लोगों को जिम्मेदारी देना साथ ही साथ हर संभव मदद करना यही सच्चे  मोटिवशनल लीडर के लक्षण हैं ।नेतृत्व भी उन्हीं लोगों के हाथों में रहता है जो सबके हित में अपना हित समझते हैं और दूसरों की खुशी को अपनी खुशी समझ कर साझा करते हैं ।

सुपथ पर चलने से शीघ्र लक्ष्य प्राप्त होता है । अतः प्रकृति की तरह केवल देना सीखें बिना स्वार्थ के ।अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करें ,लोग क्या कहेंगे इसकी परवाह न करते हुए अपने लक्ष्य को तय कर सही योजना बना कर लक्ष्य भेदी बनें ।वक्त की धारा के अनुरूप जो बदलना जानते हैं या चाहते हैं वे हमेशा प्रसन्न रहते हैं परन्तु अधिकांश लोग लकीर के फकीर बन  अपनी समस्याओं का इतना रोना रोते हैं कि उनको देखते ही लोग रास्ता  बदल लेते हैं ।

जब मौसम, परिवेश, रिश्ते, उम्र,  स्वभाव व यहाँ तक कि अपने भी समयानुसार बदल जाते हैं, तो हमें यह समझ होनी चाहिए कि कैसे बदलाव को सहजता से अपनी दिनचर्या का अंग  बनाएँ।आप किसी भी सफ़ल व्यक्ति को देखिए वो सदैव  प्रसन्न चित्त दिखता है, इसका मतलब ये नहीं कि उसका जीवन फूलों की सेज है दरसल सच्चाई तो यही है कि फूलों तक पहुँचने का रास्ता  काँटो से ही होकर जाता है ,  ये  बात अलग है कि लोगों को सिर्फ  फूल दिखते हैं ।

इसलिए हर  परिस्थितियों को जीवन का उपहार मानते हुए अपनों के साथ उनकी तरक्क़ी में ही स्वयं का सुख ढूंढते हुए मुस्कुराते रहें क्योंकि सफलता का असली मजा अपनों के साथ ही आता है ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #150 – आलेख – “ओजोन कवच की आत्मकथा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक शिक्षाप्रद आलेख  ओजोन कवच की आत्मकथा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 149 ☆

 ☆ आलेख – “ओजोन कवच की आत्मकथा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

मैं हूं ओजोन कवच, पृथ्वी की पारदर्शक छत। मैं वायुमंडल के ऊपरी भाग में मौजूद हूं, जहां से मैं सूर्य से आने वाले हानिकारक पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करता हूं। ये विकिरण मनुष्यों, पौधों और जानवरों के लिए बहुत ही हानिकारक होते हैं। वे त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद, प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान और अन्य कई बीमारियों का कारण बन सकते हैं।

मेरी खोज 1913 में फ्रांस के भौतिकविदों फैबरी चार्ल्स और हेनरी बुसोन ने की थी। उन्होंने सूर्य से आने वाले प्रकाश के स्पेक्ट्रम में कुछ काले रंग के क्षेत्रों को देखा, जो पराबैंगनी विकिरण के अवशोषण के कारण थे।

मेरा निर्माण सूर्य से आने वाले ऑक्सीजन के अणुओं से होता है। ये अणु वायुमंडल में ऊपर उठते समय, उच्च तापमान और ऊर्जा के कारण टूट जाते हैं और ऑक्सीजन के तीन अणुओं से बने ओजोन अणुओं में बदल जाते हैं।

मैं पृथ्वी के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण सुरक्षा कवच हूं। मैं सूर्य से आने वाले हानिकारक पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करके, जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं।

अंतर्राष्ट्रीय ओजोन परिषद की स्थापना 1985 में हुई थी। इस परिषद ने ओजोन परत के संरक्षण के लिए कई समझौते किए हैं। इन समझौतों के तहत, दुनिया भर के देश ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थों का उपयोग कम करने या समाप्त करने पर सहमत हुए हैं।

ओजोन परत के संरक्षण के लिए किए गए प्रयासों के परिणामस्वरूप, ओजोन परत में क्षरण की दर में कमी आई है। हालांकि, ओजोन परत पूरी तरह से ठीक होने में अभी भी कई वर्षों का समय लगेगा।

मैं पृथ्वी के लिए एक अनिवार्य हिस्सा हूं। मैं जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं। मैं सभी लोगों से मेरा संरक्षण करने का आग्रह करता हूं।

मेरा संदेश

मैं ओजोन कवच हूं, पृथ्वी की पारदर्शक छत। मैं आप सभी को याद दिलाना चाहता हूं कि मैं आपके लिए कितना महत्वपूर्ण हूं। मैं आपके जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं। कृपया मेरा संरक्षण करें।

मैं आपसे निम्नलिखित बातें करने का अनुरोध करता हूं:

मुझे यानी ओजोन परत के बारे में जागरूकता बढ़ाएं।

मुझको नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थों का उपयोग कम करें या समाप्त करें।

अपने आसपास के पर्यावरण की रक्षा करें।

मैं आपके सहयोग की सराहना करता हूं। मिलकर हम मुझे यानी ओजोन परत को बचा सकते हैं और एक सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित कर सकते हैं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

12-09-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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