हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 230 ☆ आलेख – जीवन एक सचित्र सीढ़ी… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख   – जीवन एक सचित्र सीढ़ी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 230 ☆

? आलेख – जीवन एक सचित्र सीढ़ी… ?

जीवन की सुंदर सचित्र सीढ़ी का प्रत्येक चरण एक नए अध्याय का प्रतिनिधित्व करती है।जैसे-जैसे आप ऊपर उठते हैं, आप कल की कहानियाँ पीछे छोड़ देते हैं, और प्रत्येक नए कदम के साथ, आप आने वाले कल की इबारत लिखते हैं।

उद्देश्य की ओर पहला कदम आशा और जिज्ञासा से भरी आपकी यात्रा की शुरुआत का प्रतीक है।जब आपने सपने देखने का साहस किया और अज्ञात जोखिम उठाया।

दूसरा चरण विकास और सीखने का प्रतिनिधित्व करता है।सूरज की ओर बढ़ते एक युवा अंकुर की तरह, आप ज्ञान, बुद्धिमत्ता और अनुभव संजोते हैं।

तीसरा चरण रिश्तों और संबंधों का होता है।यह वह जगह है जहां आप ऐसे लोगों से मिलते हैं जो आपकी कहानी को आकार देते हैं, आपकी कहानी में पात्रों का निर्माण करते हैं।बिना टीम के बड़े लक्ष्य पाना संभव नहीं होता।

चौथा चरण रचनात्मकता और अभिव्यक्ति का है।यहां, आप अपने जीवन के कैनवास को अपने जुनून और प्रतिभा के जीवंत रंगों से अपने तरीके से रंगते हैं।

अगला चरण प्रेम का चरण है।यह वह जगह है जहां आप उन गहन भावनाओं का अनुभव करते हैं जो जीवन को वास्तव में सार्थक बनाती हैं।यह अन्वेषण और रोमांच के बारे में है।यह वह जगह है जहां आप अपने आराम क्षेत्र से परे यात्रा करते हैं, नए क्षितिज और संस्कृतियों की खोज करते हैं।

फिर जीवन की चुनौतियों और सफलताओं के उतार-चढ़ाव का समय चित्र अगला पायदान दर्शाता है।कभी आप चढ़ते हैं, कभी लड़खड़ाते हैं, लेकिन आप आगे बढ़ते रहते हैं।

उपलब्धि पूर्णता का प्रतीक है।यह वह जगह है जहां आप अपने लक्ष्यों तक पहुंचने की संतुष्टि का आनंद लेते हैं।

सफलता की सिद्धि के चरण कृतज्ञता परिचायक चित्र होते है।यह वह जगह है जहां आप यात्रा की सराहना करने, सीखे गए आशीर्वाद और सबक को स्वीकार करने के लिए रुकते हैं।

दसवां चरण भविष्य के लिए आपकी आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है।यह वह जगह है जहां आप सितारों को लक्ष्य करते हुए अपने सपनों को अनंत ब्रह्मांड में देखते हैं।

और इस सीढ़ी के शीर्ष पर, आपको एक चमकीला सितारा मिलता है, जो ब्रह्मांड में आपके अद्वितीय स्थान का प्रतीक है।यह एक अनुस्मारक है कि आपकी कहानी, चरण दर चरण लिखी गई, अस्तित्व की भव्य टेपेस्ट्री में एक तारामंडल है।

इस विचारशील सचित्र सीढ़ी पर आपकी यात्रा आश्चर्य, उद्देश्य और अटूट विश्वास से भरी हो कि हर कदम आपकी खूबसूरत कहानी का एक हिस्सा है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 176 ☆ बाल कविता – दादाजी की डायरी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 176 ☆

☆ बाल कविता – दादाजी की डायरी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

दादाजी की डायरी खोली

     पहना  उनका चश्मा।

लगीं बाँचने अक्षर-अक्षर

          नन्हीं प्यारी सुषमा।।

 

बड़ी मगन हैं पढ़ने में वह

      पढ़ डाली पूरी डायरी।

अपनी भी कुछ लिखी कहानी

       और लिखी थोड़ी शायरी।।

 

दादा जी खोजें डायरी को

      और खोजते चश्मा अपना।

नजर पड़ी जब सुषमा जी पर

          हँसें देख प्यारा सपना।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #16 ☆ कविता – “कलाकार…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 16 ☆

☆ कविता ☆ “कलाकार…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

हां मै एक कलाकार हूं

एक बगीचे की तरह हूं

जिसमे फूल भी है और कांटे भी है

तुम्हें जो चुभे वो चुनके देता हूं

 

हां मै एक कलाकार हूं..

 

वैसे तो एक आम इंसान हूं

वोही रोटी खाता हूं

वही कपड़ा पहेंता हूं

रोटी खाकर भी भूका हूं

कपड़ा पहनकर भी निर्वस्त्र हूं

 

हां मै एक कलाकार हूं..

 

मेरा अपना कोई रंग नहीं

मेरा अपना कोई ग़म नहीं

तुम्हारे गम में रोता हूं

रंग में तुम्हारे रंगता हूं

दिल में तुम्हारे ख़ुशी चाहता हूं

तुम्हारी आंखों में ख़ुशी पाता हूं

 

हां मै एक कलाकार हूं..

 

भीतर मेरे भी एक दुनिया है

जो हमेशा बर्बाद है

मगर आबाद तुम्हारी दुनिया चाहता हूं

खुद एक घायल हूं

दर्द तुम्हारे समझता हूं

 

हां मै एक कलाकार हूं…

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #173 ☆ चांदोमामा…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 173 ☆चांदोमामा…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

चांदोमामा तुझ्यासाठी

इस्रोने पाठवली आहे भेट..

पृथ्वी वरून तुझ्याकडे

झेपावली आहे थेट…!

कशी वाटली भेट..?

आम्हाला सांग बरं.!

तुझी खुशाली आम्हाला

नक्की कळव बरं..!

चांदोमामा तुला आता

एकटं एकटं वाटणार नाही

तुला सोडून यान आता..

कुठे सुध्दा जाणार नाही..!

इस्रोने पाठवलेल्या यानाशी

आता तू खूप खूप बोल…;

त्याला सांग पृथ्वी सारखाच

मी आहे गोल गोल…!

चांदोमामा चांदोमामा

उंचावली आमची मान

तुझ्या भेटीने भारताची

वाढली आहे शान….!

तुझ्या भेटीकडे लागलं होतं

इथे सा-या जगाचं लक्ष

तुझी भेट पाहताना

सगळे विसरले होते पक्ष

वाटलं कधी तर मामा..

आईला भेटायला नक्की ये

तो पर्यंत तू तुझी

नीट काळजी घे…!

© श्री सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #199 – कविता – ☆ अजब गजब रोटी की माया… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता अजब गजब रोटी की माया…” । )

☆ तन्मय साहित्य  #199 ☆

☆ अजब गजब रोटी की माया… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(कहीं पढ़ी गयी एक घटना से प्रेरित एक सरल सी किंतु विचारणीय रचना)

बड़ी दूर से बंदर आया

रोटी एक हाथ में लाया

हर्षित, रोटी देख बंदरिया

बंदर भी खुश हो मुस्काया।

आधी-आधी, लगे बाँटने

तब, रोटी ने खेल दिखाया

छपी हुई, फोटो रोटी की

कागज पर,रोटी की छाया।

बेचारी, बन्दरिया भूखी

भूखा बन्दर भी मुरझाया

रोटी का चक्कर अजीब है

रोटी ने जग को भरमाया।

चित्र छपे रोटी का कागज

पढ़वाने का मन में आया

पहुँचे दोनों सुबह कचहरी

किंतु नहीं कोई पढ़ पाया,

दफ्तर-दफ्तर भटके दोनों

सब के सम्मुख दुखड़ा गाया

नहीं निदान भूख, रोटी का

कोई भी अब तक कर पाया।

आखिर कागज की रोटी को

असल समझ दोनों ने खाया

चले कमाने अगले दिन फिर

अजब-गजब रोटी की माया।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 24 ☆ कहाँ चले?… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “कहाँ चले?…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 24 ☆ कहाँ चले?… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

रुको बंधुवर!

नम आँखों में टूटे सपने

लेकर कहाँ चले?

 

अपनों से अपनी सी बातें

भला करेगा कौन

दरवाज़ों पर बिठा चुप्पियाँ

बतियाते से मौन

 

सुनो बंधुवर!

यह परिपाटी फिर से डसने,

देकर कहाँ चले?

 

पर्वत से ऊँचे मनसूबे

नहीं हमारे यार

माटी की सौंधी सी ख़ुशबू

और तनिक सा प्यार

 

कहो बंधुवर!

इतना मँहगा सौदा करने

आख़िर कहाँ चले?

 

दर्द पराया काँधों लादे

बाँध ह्रदय से पीर

ख़ुशियों के सब आँगन सोंपे

होकर चले फ़क़ीर

 

अहो बंधुवर!

मन को छोड़ अकेला मरने

डरकर कहाँ चले?

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हम है गुमनाम इश्तिहार न बन… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “हम है गुमनाम इश्तिहार न बन..“)

✍ हम है गुमनाम इश्तिहार न बन… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

सब गिले मुँह छिपा के बैठ गए

पास ऐसे वो आ के बैठ गए

बज़्म को छोड़ के सलाम दुआ

 बे-अदब मुस्करा के बैठ गए

न्याय कैसे करेगें जब मुंसिफ

आज के घूस खा के बैठ गए

नाम उनका रहा न दंगों में

जो भी हलचल मचा के बैठ गए

हम है गुमनाम इश्तिहार न बन

काम सबके बना के बैठ गए

बज़्म के कायदे भी सीखें कुछ

और को जो उठा के बैठ गए

मौत ने भी दिया न साथ अरुण

जब वो डोली में जा के बैठ गए

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 83 – प्रमोशन… भाग –1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की प्रथम कड़ी।

☆ आलेख # 83 – प्रमोशन… भाग –1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

ये मेरी पोस्ट, कौन बनेगा करोड़पति के विज्ञापन से प्रभावित है, जो डब्बा की उपाधि से प्रचलित अभय कुमार की कहानी है. विज्ञापन के विषय में ज्यादा लिखना आवश्यक नहीं है क्योंकि ये तो प्राय: सभी देख चुके हैं. गांव के स्कूल के जीर्णोद्धार के लिये 25 लाख चाहिये तो गांव के मुखिया जी के निर्देशन में सारे मोबाइल धारक KBC में प्रवेश के लिये लग जाते हैं, किसी और का तो नहीं पर कॉल या नंबर कहिये लग जाता है “डब्बा” नाम के हेयर कटिंग सेलून संचालक का जो प्राय: अशिक्षित रहता है. तो पूरे गांववालों द्वारा माने गये इस अज्ञानी को करोड़पति कार्यक्रम के लिये तैयार करने की तैयारी के पीछे पड़ जाता है पूरा गांव. ये तो तय था कि एक अल्पज्ञानी को करोड़पति कार्यक्रम जिताने के लिये असंभव प्रयास किये जा रहे थे, किसी चमत्कार की उम्मीद में, जो हम अधिकांश भारतीयों की आदत है. पर जब परिणाम आशा के अनुरूप नहीं मिला तो सारे गांववालों ने डब्बा को उठाकर कचरे के डब्बे में डाल दिया. ये हमारी आदत है चमत्कारिक सपनों को देखने की और फिर स्वाभाविक रूप से टूटने पर हताशा की पराकाष्ठा में टूटे हुये सपनों को दफन कर देने की. गांव का सपना उनके स्कूल के पुनरुद्धार का था जो वाजिब था, केबीसी में कौन जायेगा, जायेगा भी या नहीं, चला भी गया तो क्या पच्चीस लाख जीत पायेगा, ये सब hypothetical ही तो था. पर यहां से डब्बा के घोर निराशा से भरे जीवन में उम्मीद की एक किरण आती है उसके पुत्र के रूप में जो हारे हुये साधनहीन योद्धा को तैयार करता है नये ज्ञान रूपी युद्ध के लिये. ये चमत्कार बिल्कुल नहीं है क्योंकि अंधेरों के बीच ये रोशनी की किरण हम सब के जीवन में कभी न कभी आती ही है और हम इस उम्मीद की रोशनी को रस्सी की तरह पकड़ कर, असफलता और निराशा के कुयें से बाहर निकल आते हैं. वही चमत्कार इस विज्ञापन में भी दिखाया गया है जब डब्बा जी पचीस लाख के सवाल पर बच्चन जी से फोन ए फ्रेंड की लाईफ लाईन पर मुखिया जी से बात करते हैं सिर्फ यह बतलाने के लिये कि 25 लाख के सवाल का जवाब तो उनको मालुम है पर जो मुखिया जी को मालुम होना चाहिये वो ये कि उनका नाम अभय कुमार है, डब्बा नहीं.

हमारा नाम ही हमारी पहली पहचान होती है और हम सब अपनी असली पहचान बनाने के लिये हमेशा कोशिश करते रहते हैं जो हमें मिल जाने पर बेहद सुकून और खुशियां देती है. सिर्फ हमारे बॉस का शाम को पीठ थपाथपा कर वेल डन डियर कहना इंक्रीमेंट से भी ज्यादा खुशी देता है. लगता है कि इस ऑफिस को हमारी भी जरूरत है. हम उनकी मजबूरी या liability नहीं हैं.

विज्ञापन का अंत बेहद खूबसूरत और भावुक कर देने वाला है जब इस विज्ञापन का नायक अभय कुमार अपने उसी उम्मीद की किरण बने बेटे को जिस स्कूल में छोड़ने आता है उस स्कूल का नाम उसके ही नाम अभय कुमार पर ही होता है। ये अज्ञान के अंधेरे में फेंक दिये गये, उपेक्षित अभयकुमार के सफर की कहानी है जो लगन और सही सहारे के जरिये मंजिल तक पहुंच जाता है जो कि उसके गांव के स्कूल का ही नहीं बल्कि उसका भी पुनरुद्धार करती है. ये चमत्कार की नहीं बल्कि कोशिशों की कहानी है अपनी पहचान पाने की.

 – अरुण श्रीवास्तव 

प्रस्तावना

ये किस्सा जिला मुख्यालय स्थित किसी ब्रांच का है जिसे तब तक मुख्य शाखा का दर्जा नहीं मिला जब तक कि उस शहर में बैंक की दूसरी ब्रांच नहीं खुली. जाहिर है कि ये एक करेंसी चेस्ट ब्रांच थी और है भी पर ये बात पुराने जमाने की है या फिर हमारे जमाने की है जब शाखायें बिना कंप्यूटर के भी चला करती थीं और बहुत खूब चला करती थीं. इस शाखा के सामने ही एक प्रतिद्वंद्वी बैंक की भी शाखा थी जो बिल्कुल 180 डिग्री जैसी आमने सामने स्थित थीं. इसे उनके सीनियर ब्रांच मैनेजर चलाते थे. इस तरफ की बैंक वालों ने बहुत कोशिश की ये पता लगाने की कि जूनियर शाखाप्रबंधक क्या करते हैं पर लाख कोशिशों के बावजूद यह पता नहीं चल पाया कि जूनियर शाखाप्रबंधक कौन हैं और क्या वो भी शाखा चलाते हैं. दोनों बैंकों में काम करने वाले लोग फुरसत के समय सामने वाली शाखा को यथासंभव और यथाशक्ति बहुत अंदर तक देखने की कोशिश करते रहते थे. हमारी शाखा मजबूत थी क्योंकि हमारे पास स्ट्रांग रूम था, जो उनके पास नहीं था. पर उनके पास बैंक के ऊपर ही शाखाप्रबंधक आवास था जो हमारे पास नहीं था. हमारे शाखाप्रबंधक शहर में कहीं और ही निवास करते थे. और इस कारण भी दोनों प्रतिद्वंद्वी बैंकों के शाखाप्रबंधकों में कोई प्रतिद्वंदिता नहीं थी और उन लोगों के औपचारिक ही सही पर बहुत मधुर संबंध थे।

ये वो दौर था जब स्टाफ के आपस में और कस्टमर के स्टाफ से बड़े मधुर संबंध हुआ करते थे. अब इसका यह मतलब मत निकाल लीजिएगा कि “क्यों, क्या अब नहीं है, कैसी बात करते हैं “. उस दौर में और उस शहर में व्यापारी वर्ग के लिए इन्हीं बैंकों पर आश्रित होना आवश्यक भी था और व्यवहारिक भी. अतः नगरीय दादा होने के बाद भी इस तरह के कस्टमर्स अपना यह गुण शहर के अन्य स्थानों पर आजमाने के लिये रिजर्व रखते थे.

शहर में जो नगर सेठ माने जाते थे, वो रोजाना के बैंक के कामों के लिये या तो अपने मुनीम को भेजते थे या फिर परिवार के किसी जूनियर सदस्य को और उसे यह कहकर रवाना करते कि “जा पहले बैंक का काम तो सीख ले, फिर गद्दी पर बैठना”. यह गद्दी भी परिवार का राजसिंहासन कहलाती थी जिस पर बैठने का अधिकार सबसे बड़े और सक्रिय सदस्य को ही मिल पाता था और बाकी लोग बड़े भैया के रिटायरमेंट का इंतजार करते रहते थे. ये रिटायरमेंट न तो साठ वर्ष की आयुसीमा से बंधा था न ही स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति से. ये तो मुखिया के दमखम और वणिक बुद्धि के हिसाब से चलता था. यही वणिक-कुल की रीत थी कि” जब तक प्राण न जाये गद्दी भी न जाई. “जब तक बड़े भैया गद्दी नशीन रहते, अपने खानदान की अर्श से फर्श तक उठाने की खुद के पराक्रम की कहानी सुनाना उनका प्रिय शौक हुआ करता था. जिनको गद्दी से कुछ फायदा मिलने की उम्मीद होती वो हरिकथा सुनने जैसी ही बड़ी आस्था के साथ सेठजी की आंयबांयशांय सुनने का सफल अभिनय करते रहते. हालांकि बाद में बाहर निकल कर इन श्रोताओं की सारी भक्ति, अंदर बैठी राक्षसी प्रवृत्ति का साथ पाकर सेठ के लिये चुनी हुई गालियों का सारा खजाना खाली कर जाती. ऐसा इसलिए भी होता था कि सेठजी पक्के दुनियादार और चतुर कंजूस बनिए थे और ये असंभव था कि कोई भी ऐरागैरा उनको राह चलते या उनके घर में बैठकर बना ले.

इस श्रंखला को भी शुरू करने का मकसद सिर्फ और सिर्फ व्यंग्य में लिपटा मनोरंजन ही है. कुछ अलग मतलब निकल जाये इसलिए पहले से ही यह कहना जरूरी है कि यह शाखा, घटनाएं और शाखा के सभी वर्णित पात्र कल्पना से रचे गये हैं, किसी दुर्भावना से नहीं. सम्मोहक लेखन तभी संभव हो पाता है जब यह यथार्थ, भोगा हुआ या देखा हुआ हो, थोड़ी बहुत कल्पना श्रंखलाओं को प्रभावी मोड़ दे सकती हैं पर अनुभव और ऑब्सरवेशन का कोई मुकाबला नहीं है. ये अनुभव खुद के भी हो सकते हैं या किसी और के भी पर इन कारकों से ही अपने में समाहित करने योग्य रचनाओं का सृजन संभव हो पाता है. अतः शौक से पढ़िए और आनंदित होने का प्रयास करिये. आज के युग में सेवानिवृत्त होने के बाद भी तनावमुक्त और हास्ययुक्त जीवन जीना कठिन हो गया है इसलिए प्रयास यही रहता है कि गाड़ी रिवर्स गेयर में डालकर वहाँ ले जाइ जाये जहाँ उतरकर यात्रीगण पुराने पर खूबसूरत वक्त की खुशियों को फिर से जी सकें, मुस्कुरा सकें. किसी को दुखी करने या “लेगपुलिंग” का पाप करने का दूर दूर तक कोई इरादा नहीं है.

आध्यात्मिक, भावनात्मक, पारिवारिक, चिकित्सीय, यूट्यूबीय फारवर्डेड संदेश पढ़ते रहिये पर हमारी गारंटी है कि हमारी श्रंखलाओं का आनंद, जब भी ये चलती हैं, बिल्कुल अलग और अनूठा रहता है. फिर भी यदि आनंदित नहीं हो पाते हैं तो फिर आपको डॉक्टर की आवश्यकता है और ये डॉक्टर मनमोहन सिंह भी हो सकते हैं.

वैसे फर्ज बनता है कि बेतहाशा और मुफ्त ऐसी लेखन सामग्री “नहीं’ पढ़ने की हिदायत दी जाये जिनको पढ़कर इस तरह की आत्मिक ग्लानि हो जाये कि:

  1. भाई हम तो बहुत पापी हैं, दूसरे लोक के लिये हमने तो कोई भी प्वाइंट नहीं कमाये, स्वर्ग या मोक्ष के चांस तो मेरिट चैनल में टॉप करने के सपने जैसे हैं जो नहीं मिल सकते.
  2. अरे इतना सरल इलाज वाट्सएप पर था और हमने बेकार ही अस्पतालीय इलाज में लाखों खर्च कर दिये. ये बात अलग है कि पॉलिसी ए/बी से काफी कुछ वापस मिल गया पर स्वास्थ्य की तो बैंड बज ही गई.
  3. काश कि ऐसे श्रवणकुमार और श्रवणकुमारी संताने/भाई/बहन हमारी भी होतै जो इन वाट्सएपीय कहानियों के परिजनों जैसी हमारी भी पूजा करते बाकायदा रोज सुबह शाम फिल्मी भजनों के साथ (वैसे ये अंदर की बातें हैं, बताई नहीं जातीं, वाट्सएप पर शेयर जरूर की जाती हैं.
  4. जीवन में गुरुजन तो बहुत मिले जो हमें गुरुदीक्षा देना चाहते थे पर तब तो हमको बैंक की पड़ी थी. काम सीखना है, खूब काम करना है, बॉस को नाराज नहीं करना है और दनादन प्रमोशन लेना है पूरी तैयारी के साथ. तो उस वक्त तो बस यही सब चलता था. अब पता चलता है कि भाई हमने तो वो किया ही नहीं जिसके लिये यह मानव जीवन मिला है. पर अब तो सत्तर प्लस पार कर चुकी गाड़ी सिग्नलपोस्ट पर खड़ी है. सिग्नल का इंतजार है. सिग्नल जहाँ लाल से हरा हुआ फिर जय श्री राम ही है. अब जो भी है वही संभालेंगे.

प्रमोशन श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 199 ☆ मोहून घेई मना… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 199 ?

मोहून घेई मना ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

तुझ्या व्यक्तिमत्त्वातले सारे सारे….

आवडायचेच सा-या गोकुळाला,

तू मित्र..सखा..प्रियकर..

 तुझ्या निळाईत….

 सारेच आकंठ बुडालेले,

राधेचा तरी कुठे होता,

अट्टाहास,

तू तिचा एकटीचाच

असावास असा ?

तू गगनासारखा विशाल,

सागरासारखा अथांग!

प्रत्येक जन्मी,

पुरून उरणारा….

तुझी सुरेल सानिका,

आणि नजरेतील,

तरल प्रेमभावना…

रे..मनमोहना…

मोहून घेई मना….

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ आयुष्य…एक चकवा..… ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर ☆

सौ. गौरी गाडेकर

📖 वाचताना वेचलेले 📖

☆ आयुष्य…एक चकवा. ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर

आज दोघंही खूपच आनंदात होते..पुण्याहवाचन करण्याची खूप इच्छा होती पण मुलांच्या रूटिनमध्ये व्यत्यय नको म्हणून एकत्र मानसपूजा केली..लगबगीनी आपल्या वाटणीची कामे आटोपली..मुलांना …नातवंडांना सरप्राईज द्यायचं ठरवून दोघंही संध्याकाळीच घराबाहेर पडले…

“आता कळवू मुलांना” उतावीळपणानी तिनी विचारले..अन् होकाराची वाट न बघताच मोबाईल काढला..

तोच मुलाचा फोन वाजला…टेलिपथी..म्हणतच तिनी आनंदानी फोन घेतला…आणि…काही बोलण्यापुर्वीच तिकडून मुलानी निरोप दिला..

“आई..आज आमचा स्वयंपाक नको करूस हं…हिची मैत्रिण खूप वर्षांनी भारतात आली..तिच्यासोबत डिनरला जायचेय..मुलंही चलणार अाँटीला भेटायला…तुम्ही जेवून घ्या हं…आणि हो..औषध – गोळ्या घ्यायला विसरू नका हं..बाय”…

काहीही न बोलता तिनी फोन ठेवला..

तो किंचीत हसला अन् बोलला..”मुलांचा कार्यक्रम ठरलाय नं”..

तिनी मान हलवली..तो उदासला..म्हणाला..”आता..?..ह्या सरप्राईजचं काय?..”

“आपलंच सरप्राईज..आपणच एंजॉय करायचं..”

त्याचे डोळे भरले…. पण ती शांतच…. “ चल घे…”

रात्री मुलाची व्हॉट्स ऍप पोस्ट आली..” आम्ही पोहोचलो…तुम्ही लवकर या..”

आईनी पोस्ट टाकली..” तुम्ही झोपा..”

मुलानी पुन्हा विचारलं..” तुम्ही कुठे,? “

आईनी दोघांचा हॉटेलमध्ये अरेंज केलेल्या डिनरचा फोटो टाकला..

“त्या” दोघांच्या मागच्या कट-आऊटनी मुलगा दचकलाच…

त्यानी थेट फोन लावला…”आई तुम्ही कोणत्या हॉटेलात आहात..? मी येतोय..”

आई शांतपणे म्हणाली..”असू दे बाळा…आम्ही हॉटेल सोडलंय..आणि हो..आज आम्ही घरी येणार नाही..लोणावळ्यासाठी निघालोय..तुम्ही शांतपणे झोपा..आणि हो..बाबांचं  नेहमीचं दरवाजे लावण्याचं काम आजच्या दिवस करून घे हं बेटा..सर्वांना आजच्या विशेष दिवसाचा विशेष आशिर्वाद सांग…बाय..”

मुलानी पुन्हा व्हॉट्स ऍप उघडला..आणि भरल्या डोळ्यानी वाचलं…”50th..Wedding Anniversery”…..

त्यानी हळूच तिचा हात हातात घेतला..डोळ्यांच्या कडा पुसत ती म्हणाली…” जीवन म्हणजे चकवा असतो नाही?…फिरून त्याच जागी आणणारा..?. ..वैवाहिक जीवनाची सुरूवात आपण दोघांनीच केली होती नं?…आजही आपण दोघंच उरलोयत..”

लेखक : अज्ञात

संग्राहिका : सौ. गौरी गाडेकर

संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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