(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – मुस्कुराहट चिपकाई है…।)
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है व्यंग्यकार – डा महेंद्र अग्रवाल जी के व्यंग्य संग्रह – “व्यंग्य के अखाड़े और बाज” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 149 ☆
☆ “व्यंग्य के अखाड़े और बाज” – व्यंग्यकार – डा महेंद्र अग्रवाल ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
कृति चर्चा
व्यंग्य संग्रह – व्यंग्य के अखाड़े और बाज
व्यंग्यकार – डा महेंद्र अग्रवाल
प्रकाशक – सर्व प्रिय प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य – १५० रु, पृष्ठ – १२४
☆ पाठक को कचोटती उसका भोगा हुआ दिखाती रचनायें… विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
डा महेंद्र अग्रवाल व्यंग्य में छोटे शहर से बड़ा धमाका करते व्यंग्यकार हैं। संग्रह के अंतिम आलेख “व्यंग्य के अखाड़े और उनके बाज” में व्यंग्य के क्षेत्र में वर्तमान गुटबाजी पर कटाक्ष करते हुये लेखक ने लिखा है कि… ज्यादातर खेमे या गिरोह बड़े शहरों में ही ज्यादा पनपते हैं… यदि किसी दूकान का मालिक सम्मानो का प्रायोजक हो तो उसकी कीमत बढ़ जाती है… ऐसे परिवेश में डा महेंद्र अग्रवाल गुट निरपेक्ष तटस्थ भाव से बस विशुद्ध व्यंग्य के पक्ष में खड़े हैं। उन्होंने संपादन भी किया है, आकाशवाणी और टी वी पर भी रचनापाठ किया है। व्यंग्य के सिवाय गजलें भी लिखी हैं। म प्र साहित्य अकादमी सहित अनेकानेक संस्थाओ से सम्मान के रूप में उन्हें साहित्यिक स्वीकार्यता भी मिली है।
कम ही लेखक होते हैं जिन्हें उनके जीवन काल में ही निर्विवाद रूप से सर्व स्वीकार किया गया है। अपने सहज स्वभाव के चलते गिरीश पंकज को यह श्रेय प्राप्त है। उन्होंने इस किताब की भूमिका लिखी है। वे लिखते हैं कि आज जब ऐसा बहुत कुछ लिखा जा रहा है जिसे व्यंग्य के खाते में नहीँ डाला जा सकता, तब इससंग्रह के व्यंग्य, मानकों पर खरी रचनायें हैं। संग्रह की सारी रचनायें पढ़ने के बाद मैं गिरीश जी से इस बात पर असहमत हूं कि इस संग्रह की रचनायें कथा शैली में हैं। यह सही है कि सेवाराम बनाम राजाराम जैसी कुछ रचनायें जरूर कथा शैली में गढ़ी गई हैं। स्वयं एक व्यंग्यकार होने के नाते मैं कह सकता हूं कि शुद्ध व्यंग्य लेखों में कटाक्ष के संग लक्ष्य मनतव्य के निहितार्थ पाठकों तक संप्रेषित करना कथा व्यंग्य की वनिस्पद ज्यादा चैलेंजिंग होता है, जिसे डा महेंद्र अग्रवाल ने बखूबी निभाया है। किताब में लेखकीय प्राक्थन को ही उन्होंने पूर्वालाप शीर्षक देकर व्यंग्य के तीर चलाने शुरू कर दिये हैं। पराई शवयात्रा में, शिथिलांग शिविर एक नवाचार, किस्सा ए चोट, आदि व्यंग्य लेख अनुभूत घटनाओ के कटाक्षो से भरे रोचक पठनीय वर्णन हैं। इन्हें पढ़कर पाठक को रचना कचोटती है। उसे अहसास होता है कि अरे यह तो उसका भी भोगा हुआ है जिसे पुनः दिखाती रचनायें पढ़कर पाठक आनंदित होता है। लक्ष्य विसंगति पर प्रहार कर डा महेंद्र अग्रवाल समाज के प्रति अपने लेखकीय दायित्व का निर्वाह करते हैं। पर मेरी चिंता यह है कि आज व्यंग्य की ऐसी रचनाओ को पढ़कर हमारा मट्ठर समाज त्रुटियों में परिष्कार की जगह मजे लेकर रचना परे कर फिर उसी सब मे निरत बन रहता है।
विभिन्न व्यंग्य लेखों से कुछ तीखे शब्द बाण जिन्हें मैने पढ़ते हुये लाल स्याही से अंडर लाइन किया है, उधृत हैं… लेखन के सम्मान और लेखक की प्रसिद्धि के लिये लेखक का समय रहते मरना बेहद जरूरी है।
…. जिन वक्तव्य वीरों के मुंह में खुजली थी वे शोक सभा की तैयारियों में लग गये।
… अहो ग्राम्य जीवन भी क्या है ? कहने वाले कवि की आत्मा अभी धरती पर उतरती तो उनके लिये निर्धारित भोज स्थल पर गतिविधियों को देखकर विस्मित हो जाती।
… चेनलों की देखने लायक प्रतिस्पर्धा में चीखने चिल्लाने में कोई किसी से पीछे नहीं है, सभी एक दूसरे से आगे बढ़ते जा रहे हैं।
पुस्तक में संग्रहित सभी बाईस लेखों के लगभग प्रत्येक पेराग्राफ में कम से कम एक ऐसे ही व्यंग्य चातुर्य का संदर्भ सहित साहित्यिक रसास्वादन करने के लिये आपको व्यंग्य के अखाड़े और बाज पढ़ने की सलाह है। शीर्षक में अखाड़ेबाज को विग्रहित किया गया है यही शाब्दिक कलाबाजी अंदर लेखों में भी आपको प्रभावित करेगी इसकी गारंटी है।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश – पेंशनर मिलन कार्यक्रम” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 51 ☆ देश-परदेश – पेंशनर मिलन कार्यक्रम ☆ श्री राकेश कुमार ☆
सेवानिवृति के बाद पेंशनर संघ नामक संगठन यदा कदा अपने सदस्यों को होली/ दीपावली के पश्चात एकत्र होकर सभी को मिलने का एक अवसर प्रदान करता हैं। किसी भी आयोजन की व्यवस्था बड़ा कठिन कार्य होता हैं। घर के चार सदस्य भी एक साथ, एक जैसा भोजन करने में अनेक प्रकार की नुक्ताचीनी करते है।
पुरानी कहावत है कि पांच मेंढकों को एक साथ तराज़ू में तोलना नामुनकिन होता है। बड़े आयोजन जहां एक सौ से अधिक व्यक्ति भाग ले रहे हों, तो “जितने मुंह उतनी बातें” वाला सिद्धांत लागू हो जाता हैं।
कम खर्च में उत्तम सुविधाएं और मनभावन भोजन की व्यवस्था करना एक बहुत बड़ी चुनौती होती है।
आयोजन की शुरुआत होती है, निमंत्रण के साथ। अधिकतर सदस्यों को जब दूरभाष द्वारा संपर्क किया जाता है, तो वो कार्यक्रम में आने की पुष्टि करने के लिए नए नए बहाने बनाने लगते हैं। साधारणतः जब भी सेवानिवृत साथियों से बात करने पर उनका कथन रहता है कि समय नहीं कटता, फुरसत से फुरसत नहीं मिलती। लेकिन वर्ष में होने वाले दो आयोजनों में भाग लेने के समय वो अपनी व्यस्तता का हवाला देने लगते हैं। ऐसा दोहरा मापदंड क्यों ?
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण गीत – मैं तो जला दुपहरी जैसा…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 155 – गीत – मैं तो जला दुपहरी जैसा…
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मैं तो जला दुपहरी जैसा
तुम ही रूठे रहे छाँव से,
यह तो वैसा हुआ कि जैसे
मोह नहीं बदनाम गाँव से।
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अनदेखा कर गई चाँदनी, ताने कसने लगे सितारे।
अँधियारे से आँख मिलाई, पहुँची नाव भँवर के द्वारे
तुम पर कुछ इल्जाम न आये, इसीलिये हट गया ठाँव से।
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कैसे तुम्हें सादगी रुचती, तुम्हें नशा है तड़क भड़क का
तुम राही हो राजपथों के, मैं पत्थर सुनसान सड़क का
अभी खुली साँसों की आँखें, तुमने कुचला नहीं पाँव से।
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “प्रकृति के अवसाद की…”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 155 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “प्रकृति के अवसाद की…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है हरिशंकर परसाई जन्मशती के अवसर पर उनका सुप्रसिद्ध व्यंग्य – “भोलाराम का जीव”।)
☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – भोलाराम का जीव – हरिशंकर परसाई ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
हरिशंकर परसाई की एक व्यंग्यात्मक कहानी
ऐसा कभी नहीं हुआ था…
धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफ़ारिश के आधार पर स्वर्ग या नर्क में निवास-स्थान ‘अलॉट’ करते आ रहे थे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ था।
सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट, रजिस्टर पर रजिस्टर देख रहे थे। ग़लती पकड़ में ही नहीं आ रही थी। आख़िर उन्होंने खीझ कर रजिस्टर इतने ज़ोर से बंद किया कि मक्खी चपेट में आ गई। उसे निकालते हुए वे बोले, महाराज, रिकार्ड सब ठीक है। भोलाराम के जीव ने पाँच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना भी हुआ, पर यहाँ अभी तक नहीं पहुँचा।
धर्मराज ने पूछा, और वह दूत कहाँ है?
महाराज, वह भी लापता है।
इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बदहवास वहाँ आया। उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रम, परेशानी और भय के कारण और भी विकृत हो गया था। उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठे, अरे, तू कहाँ रहा इतने दिन? भोलाराम का जीव कहाँ है?
यमदूत हाथ जोड़ कर बोला, दयानिधान, मैं कैसे बतलाऊँ कि क्या हो गया। आज तक मैंने धोखा नहीं खाया था, पर भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया। पाँच दिन पहले जब जीव ने भोलाराम का देह त्यागा, तब मैंने उसे पकड़ा और इस लोक की यात्रा आरंभ की। नगर के बाहर ज्यों ही मैं उसे लेकर एक तीव्र वायु-तरंग पर सवार हुआ त्यों ही वह मेरी चंगुल से छूट कर न जाने कहाँ ग़ायब हो गया। इन पाँच दिनों में मैंने सारा ब्रह्माण्ड छान डाला, पर उसका कहीं पता नहीं चला।”
धर्मराज क्रोध से बोला, मूर्ख! जीवों को लाते-लाते बूढ़ा हो गया फिर भी एक मामूली बूढ़े आदमी के जीव ने तुझे चकमा दे दिया।”
दूत ने सिर झुका कर कहा, महाराज, मेरी सावधानी में बिलकुल कसर नहीं थी। मेरे इन अभ्यस्त हाथों से अच्छे-अच्छे वकील भी नहीं छूट सके। पर इस बार तो कोई इंद्रजाल ही हो गया।”
चित्रगुप्त ने कहा, महाराज, आजकल पृथ्वी पर इस प्रकार का व्यापार बहुत चला है। लोग दोस्तों को कुछ चीज़ भेजते हैं और उसे रास्ते में ही रेलवे वाले उड़ा लेते हैं। होजरी के पार्सलों के मोज़े रेलवे अफ़सर पहनते हैं। मालगाड़ी के डब्बे के डब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही है। राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उड़ाकर बंद कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव को भी तो किसी विरोधी ने मरने के बाद ख़राबी करने के लिए तो नहीं उड़ा दिया?
धर्मराज ने व्यंग्य से चित्रगुप्त की ओर देखते हुए कहा, तुम्हारी भी रिटायर होने की उम्र आ गई। भला भोलाराम जैसे नगण्य, दीन आदमी से किसी को क्या लेना-देना?
इसी समय कहीं से घूमते-घामते नारद मुनि यहाँ आ गए। धर्मराज को गुमसुम बैठे देख बोले, क्यों धर्मराज, कैसे चिंतित बैठे हैं? क्या नर्क में निवास-स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई?
धर्मराज ने कहा, वह समस्या तो कब की हल हो गई, मुनिवर! नर्क में पिछले सालों में बड़े गुणी कारीगर आ गए हैं। कई इमारतों के ठेकेदार हैं जिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनाईं। बड़े बड़े इंजीनियर भी आ गए हैं जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवरसीयर हैं, जिन्होंने उन मज़दूरों की हाज़िरी भर कर पैसा हड़पा जो कभी काम पर गए ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नर्क में कई इमारतें तान दी हैं। वह समस्या तो हल हो गई, पर एक बड़ी विकट उलझन आ गई है। भोलाराम नाम के एक आदमी की पाँच दिन पहले मृत्यु हुई। उसके जीव को यह दूत यहाँ ला रहा था, कि जीव इसे रास्ते में चकमा देकर भाग गया। इस ने सारा ब्रह्माण्ड छान डाला, पर वह कहीं नहीं मिला। अगर ऐसा होने लगा, तो पाप पुण्य का भेद ही मिट जाएगा।”
नारद ने पूछा, उस पर इनकमटैक्स तो बक़ाया नहीं था? हो सकता है, उन लोगों ने रोक लिया हो।”
चित्रगुप्त ने कहा, इनकम होती तो टैक्स होता… भुखमरा था।”
नारद बोले, मामला बड़ा दिलचस्प है। अच्छा मुझे उसका नाम पता तो बताओ। मैं पृथ्वी पर जाता हूँ।”
चित्रगुप्त ने रजिस्टर देख कर बताया, भोलाराम नाम था उसका। जबलपुर शहर में धमापुर मुहल्ले में नाले के किनारे एक डेढ़ कमरे टूटे-फूटे मकान में वह परिवार समेत रहता था। उसकी एक स्त्री थी, दो लड़के और एक लड़की। उम्र लगभग साठ साल। सरकारी नौकर था। पाँच साल पहले रिटायर हो गया था। मकान का किराया उसने एक साल से नहीं दिया, इस लिए मकान मालिक उसे निकालना चाहता था। इतने में भोलाराम ने संसार ही छोड़ दिया। आज पाँचवाँ दिन है। बहुत संभव है कि अगर मकान-मालिक वास्तविक मकान-मालिक है तो उसने भोलाराम के मरते ही उसके परिवार को निकाल दिया होगा। इस लिए आप को परिवार की तलाश में काफ़ी घूमना पड़ेगा।”
माँ-बेटी के सम्मिलित क्रन्दन से ही नारद भोलाराम का मकान पहचान गए।
द्वार पर जाकर उन्होंने आवाज़ लगाई, नारायण! नारायण! लड़की ने देखकर कहा- आगे जाओ महाराज।”
नारद ने कहा, मुझे भिक्षा नहीं चाहिए, मुझे भोलाराम के बारे में कुछ पूछ-ताछ करनी है। अपनी माँ को ज़रा बाहर भेजो, बेटी!
भोलाराम की पत्नी बाहर आई। नारद ने कहा, माता, भोलाराम को क्या बीमारी थी?
क्या बताऊँ? ग़रीबी की बीमारी थी। पाँच साल हो गए, पेंशन पर बैठे। पर पेंशन अभी तक नहीं मिली। हर दस-पन्द्रह दिन में एक दरख़्वास्त देते थे, पर वहाँ से या तो जवाब आता ही नहीं था और आता तो यही कि तुम्हारी पेंशन के मामले में विचार हो रहा है। इन पाँच सालों में सब गहने बेच कर हम लोग खा गए। फिर बरतन बिके। अब कुछ नहीं बचा था। चिंता में घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड़ दी।”
नारद ने कहा, क्या करोगी माँ? उनकी इतनी ही उम्र थी।”
ऐसा तो मत कहो, महाराज! उम्र तो बहुत थी। पचास साठ रुपया महीना पेंशन मिलती तो कुछ और काम कहीं कर के गुज़ारा हो जाता। पर क्या करें? पाँच साल नौकरी से बैठे हो गए और अभी तक एक कौड़ी नहीं मिली।”
दुःख की कथा सुनने की फ़ुरसत नारद को थी नहीं। वे अपने मुद्दे पर आए, माँ, यह तो बताओ कि यहाँ किसी से उनका विशेष प्रेम था, जिसमें उनका जी लगा हो?
पत्नी बोली, लगाव तो महाराज, बाल बच्चों से ही होता है।”
नहीं, परिवार के बाहर भी हो सकता है। मेरा मतलब है, किसी स्त्री…”
स्त्री ने ग़ुर्रा कर नारद की ओर देखा। बोली, अब कुछ मत बको महाराज! तुम साधु हो, उचक्के नहीं हो। ज़िंदगी भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री की ओर आँख उठाकर नहीं देखा।”
नारद हँस कर बोले, हाँ, तुम्हारा यह सोचना ठीक ही है। यही हर अच्छी गृहस्थी का आधार है। अच्छा, माता मैं चला।”
स्त्री ने कहा, महाराज, आप तो साधु हैं, सिद्ध पुरूष हैं। कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी रुकी हुई पेंशन मिल जाए। इन बच्चों का पेट कुछ दिन भर जाए।”
नारद को दया आ गई थी। वे कहने लगे, साधुओं की बात कौन मानता है? मेरा यहाँ कोई मठ तो है नहीं। फिर भी मैं सरकारी दफ़्तर जाऊँगा और कोशिश करूँगा।”
वहाँ से चल कर नारद सरकारी दफ़्तर पहुँचे। वहाँ पहले ही से कमरे में बैठे बाबू से उन्होंने भोलाराम के केस के बारे में बातें कीं। उस बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला, भोलाराम ने दरख़्वास्तें तो भेजी थीं, पर उन पर वज़न नहीं रखा था, इसलिए कहीं उड़ गई होंगी।”
नारद ने कहा, भई, ये बहुत से ‘पेपर-वेट’ तो रखे हैं। इन्हें क्यों नहीं रख दिया?
बाबू हँसा, आप साधु हैं, आपको दुनियादारी समझ में नहीं आती। दरख़्वास्तें ‘पेपरवेट’ से नहीं दबतीं। ख़ैर, आप उस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए।”
नारद उस बाबू के पास गए। उसने तीसरे के पास भेजा, तीसरे ने चौथे के पास चौथे ने पाँचवे के पास। जब नारद पच्चीस-तीस बाबुओं और अफ़सरों के पास घूम आए तब एक चपरासी ने कहा, महाराज, आप क्यों इस झंझट में पड़ गए। अगर आप साल भर भी यहाँ चक्कर लगाते रहे, तो भी काम नहीं होगा। आप तो सीधे बड़े साहब से मिलिए। उन्हें ख़ुश कर दिया तो अभी काम हो जाएगा।”
नारद बड़े साहब के कमरे में पहुँचे। बाहर चपरासी ऊँघ रहा था। इसलिए उन्हें किसी ने छेड़ा नहीं। बिना ‘विजिटिंग कार्ड’ के आया देख साहब बड़े नाराज़ हुए। बोले, इसे कोई मंदिर वन्दिर समझ लिया है क्या? धड़धड़ाते चले आए! चिट क्यों नहीं भेजी?
नारद ने कहा, कैसे भेजता? चपरासी सो रहा है।”
क्या काम है? साहब ने रौब से पूछा।
नारद ने भोलाराम का पेंशन केस बतलाया।
साहब बोले, आप हैं बैरागी। दफ़्तरों के रीति-रिवाज नहीं जानते। असल में भोलाराम ने ग़लती की। भई, यह भी एक मंदिर है। यहाँ भी दान पुण्य करना पड़ता है। आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं। भोलाराम की दरख़्वास्तें उड़ रही हैं। उन पर वज़न रखिए।”
नारद ने सोचा कि फिर यहाँ वज़न की समस्या खड़ी हो गई। साहब बोले, भई, सरकारी पैसे का मामला है। पेंशन का केस बीसों दफ़्तर में जाता है। देर लग ही जाती है। बीसों बार एक ही बात को बीस जगह लिखना पड़ता है, तब पक्की होती है। जितनी पेंशन मिलती है उतने की स्टेशनरी लग जाती है। हाँ, जल्दी भी हो सकती है मगर…” साहब रुके।
नारद ने कहा, मगर क्या?
साहब ने कुटिल मुसकान के साथ कहा, मगर वज़न चाहिए। आप समझे नहीं। जैसे आपकी यह सुंदर वीणा है, इसका भी वज़न भोलाराम की दरख्वास्त पर रखा जा सकता है। मेरी लड़की गाना बजाना सीखती है। यह मैं उसे दे दूँगा। साधु-सन्तों की वीणा से तो और अच्छे स्वर निकलते हैं।”
नारद अपनी वीणा छिनते देख जरा घबराए। पर फिर संभल कर उन्होंने वीणा टेबिल पर रख कर कहा, यह लीजिए। अब जरा जल्दी उसकी पेंशन ऑर्डर निकाल दीजिए।”
साहब ने प्रसन्न्ता से उन्हें कुर्सी दी, वीणा को एक कोने में रखा और घण्टी बजाई। चपरासी हाजिर हुआ।
साहब ने हुक्म दिया, बड़े बाबू से भोलाराम के केस की फ़ाइल लाओ।
थोड़ी देर बाद चपरासी भोलाराम की सौ-डेढ़-सौ दरख्वास्तों से भरी फ़ाइल ले कर आया। उसमें पेंशन के कागजात भी थे। साहब ने फ़ाइल पर नाम देखा और निश्चित करने के लिए पूछा, क्या नाम बताया साधु जी आपने?
नारद समझे कि साहब कुछ ऊँचा सुनता है। इसलिए जोर से बोले, भोलाराम!
सहसा फ़ाइल में से आवाज आई, कौन पुकार रहा है मुझे। पोस्टमैन है? क्या पेंशन का ऑर्डर आ गया?
नारद चौंके। पर दूसरे ही क्षण बात समझ गए। बोले, भोलाराम! तुम क्या भोलाराम के जीव हो?
हाँ! आवाज आई।”
नारद ने कहा, मैं नारद हूँ। तुम्हें लेने आया हूँ। चलो स्वर्ग में तुम्हारा इंतज़ार हो रहा है।”
आवाज आई, मुझे नहीं जाना। मैं तो पेंशन की दरख्वास्तों पर अटका हूँ। यहीं मेरा मन लगा है। मैं अपनी दरख्वास्तें छोड़कर नहीं जा सकता।”
प्रस्तुति – जय प्रकाश पाण्डेय
416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# विषमता… #”)